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सूत्र १०४
बस प्रकार के अन्तरिक्ष अस्वाध्याय
मानाचार
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बसविहे अन्तलिक्ख असउझाए
दस प्रकार के अन्तरिक्ष अस्वाध्याय५०४. बसविधे अन्तलिमखाए असमाए पण्णत्ते, तं जहा- १०४. अन्तरिक्ष आकाश सम्बन्धी अस्वाध्यायकाल दश प्रकार
का कहा गया है। जैसे१. उक्कावाते।
१. उल्कापात-अस्वाध्याय--बिजली गिरने या तारा टूटने
पर स्वाध्याय नहीं करना । २. दिसिका।
२. दिग्दाह-दिशाओं को जलती हुई देजकर स्वाध्याय
नहीं करना। ३. गम्जिते ।
३. गर्जन-आकाश में मेवों की घोर गर्जना के समय
स्वाध्याय नहीं करना। ४. विभुते ।
४. विद्युत-तड़तड़ाती हुई बिजली के चमकने पर
स्वाध्याय नहीं करना। (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) इसी प्रकार निर्घन्धी को भी सौ हाय दूर जाकर वण का विधिवत् प्रक्षालन करने और रात्र के तीन आवरण आतंक पर
बांधने के पश्चात् बाचना देना या लेना कल्पना है। (ख) व्यवहारभाष्य में तथा हरिभद्रीय आवश्यक में अस्वाध्यायों का भिन्न प्रकार से वर्णन है, यथा
असमाइयं च दुविह, आयसमुत्थं परसमुत्थं च । ज तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायध्वं ॥ व्यवहारभाष्य उई.७ अस्वाध्याय दो प्रकार के हैं-१. आत्मसमुत्थ और २. परसमुत्थ । आत्मसमुत्थ के भेद ऊपर कहे अनुसार हैं। परसमुत्थ के पांच भेद हैं-१. संयमघाती, २. औसातिक, ३. देवता प्रयुक्त, ४. व्युग्रहजनित, ५. शारीरिक । अस्वाध्याय के इन पाँच भेदों के प्रभेदों में सभी अस्वाध्यायों का समावेश हो जाता है । यथा-- १. संयमघाती-धूमिका, महिका, रजोघात । २. औत्पातिक-पांशु वृष्टि, मांस वृष्टि, रुधिर वृष्टि, केश बुष्टि, थिला वृष्टि आदि । ३. देवता प्रयुक्त-गंधर्व नगर, दिग्दाह, विद्युत, उल्कापात, यूपक, यक्षादीप्त, चन्द्र-ग्रहण, सूर्य-ग्रहण, निर्धात, गर्जन, अनभ्र,
वचपात, चार सन्ध्या, चार महोत्सव, चार प्रतिपदा आदि। ४. व्युग्रजनित-संग्राम, महासंग्राम, इन्द्रयुद्ध, मल्लयुद्ध आदि । ५. शारीरिक अण्डज, जरायुज और पोतज का प्रसव, अथवा इनका मरण, इनके उभिन्न या अनुभिन्न कलेवर। माशिव
महामारि आदि । व्रण, अशं, भगन्दर, ऋतुधर्म, गलित कुष्ठ आदि । (ग) अस्वाध्याय सम्बन्धी विशेष जानकारी के लिए प्रवचनसारोद्धार द्वार २६८ गाथा-४६४-४८५, व्यवहार उद्दे. ७ का
भाष्य, हरिभद्रीय आवश्यक प्रतिक.मण अध्ययन, अस्वाध्याय नियुक्ति अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग १,२८३२ आदि देखें। तेतीस अशावनाओं में 'कालस्म आसायणाए' यह एक अशातना है-स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना और अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना यह काल की अशातना है । कुमुदिनी और सूर्यमुखी वनस्पति पर तथा चक्रवाक और उलूक पक्षी पर चन्द्र-सूर्य का साक्षात प्रभाव दिखाई देता है इसी प्रकार चन्द्र-सूर्य ग्रहण का भी अनिष्ट प्रभाव प्रत्येक पदार्थ पर अवश्यम्भावी है इसलिए ग्रहण काल में तथा निर्धारित
उनरकाल में स्वाध्याय का निषेध है। । तारा टूटना या आकाश से तेजपुंज का गिरना ---उल्कापात है। इसका अस्वाध्यायकाल एक प्रहर का है। २ दिग्दाह का अस्वाध्याय काल एक प्रहर का है। 1- गजित की दो प्रहर की और विद्युत की एक प्रहर की अस्वाध्याय है । आर्द्रा नक्षत्र से चित्रा नक्षत्र तक अर्थात् वर्षाकाल में
गजित और विद्युत की अस्वाध्याय नहीं है।