Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कर पुन्योपार्जन किया पट्टावलीकार लिखते हैं कि इस संघ में ७०० साधु साध्वियां और बीस हजार भावुक थे आठ दिनों की स्थिरता के बाद संघ वहाँ से लौट कर पुनः जाबलीपुर आया । शाह जगा ने स्वामिवात्सल्य कर एक एक सोना मुहर और वस्त्रादि की प्रभावना कर संघ को विसर्जन किया।
अहाहा! वह जमाना आत्मकल्याण और धर्मभावना के लिये कैसा उत्तम था कि धर्म के नाम पर बात की बात में हाजारों लाखों रुपये व्यय कर डालते थे। यही कारण था कि उन लोगों के पूर्वभव के पुन्योदय और इस भव में पुन्य बढ़ते थे कि वे सर्व प्रकार से सुखी रहते थे । लक्ष्मी की तो उन लोगों को कभी परवाह तक नहीं थी तथापि वह उन भाग्यशालियों के घरों में स्थिर वास कर बैठ जाती थी जब कभी घे लोग इस प्रकार के कार्यों में लक्ष्मी को विदा करना चाहते थे तो लक्ष्मी गुस्सा कर दुगुणी चौगुणी होकर इन भाग्यशालियों के घर में जमाव डाल कर रहती थी । लक्ष्मी का स्वभाव एक विलक्षण ही था जहाँ इस को चाहते हैं श्राशा एवं तृष्ण रखते हैं वहाँ जाने में आनाकानी करती है पर जहाँ लक्ष्मी को न तो कभी याद करते हैं और न इसका आदर करते हैं वहाँ रहने में खुशी मनाती है और चिरस्थायी रहती है ।
माता जेती को कभी अपनी साथणियों को भोजन करवा कर पहरामणी देने का तथा कभी गुरुमहाराज के व्याख्यान सुनने का एवं दान देने का और कभी परमेश्वर की पूजा करने का मनोरथ उत्पन्न होता था। जिसको शाह जगा आनन्द पूर्वक पूर्ण करता था । क्रमशः माता जेती ने शुभ वक्त में एक पुत्र रत्न को जन्म दिया जिससे शाह जगा के हर्ष का पार नहीं रहा । याचकों को दान और सज्जनों को सम्मान दिया। जिन मन्दिरों में अष्टन्हिका महोत्सव प्रारंभ किया। कहा है कि:रण जीतण कंकणवँधन, पुत्र जन्म उत्साव । तीनों अवसर दान के, कौन रंक को राव ॥
जन्मादि महोत्सव करते हुए बाहरवें दिन दशोटन कर पुत्र का नाम ठाकुरसी रक्खा गया। बाल कुँवर ठाकुरसी क्रमशः बड़ा हो रहा था, उसकी बालक्रीड़ायें भावी होन हार की सूचना कर रही थी। उसके हाथ पगों की रेखा एवं लक्षण उसका अभ्युदय बतला रहे थे और शाह जगा और माता जैती ठाकुरसी के लिये बड़ी बड़ी आशाओं के पुल बाँध रहे थे।
जब ठाकुरसी आठ वर्ष का हुआ तो उसको महोत्सव के साथ विद्यालय में प्रवेश किया पर ठाकुरसी ने पूर्व जन्म में ज्ञानपद की एवं सरस्वती देवी की उज्ज्वल चित्त से आराधना की हुई थी कि अपने सहपाठियों से सदैव अप्रेश्वर ही रहता था व्यवहारिक विद्या के साथ ठाकुरसी को धार्मिक ज्ञान पर विशेष रुचि थी। उनके माता पितादि सब कुटम्ब पहिले से ही जैनधर्मोपासक एवं जैनधर्म की क्रिया करने वाले थे । जब ठाकुरसी बालक था तब ही माता जेती उसको स्नान करवाकर अच्छे वस्त्र पहना कर मन्दिर उपाश्रय ले जाया करती थी अतः ठाकरसी के धार्मिक संस्कार शुरू से ही जमे हुये थे अब धार्मिक पढ़ाई करने से और उसके भावों को समझने में तो और भी अधिक आनन्द आने लगा जिससे वह अपनी माता को धार्मिक क्रिया के लिये प्रेरणा किया करता था जिसको देखकर कभी कभी तो माता शंका करने लग जाती थी कि ठाकुरसी कहीं दीक्षा न ले ले ? अतः ठाकुारसी की माता चाहती थी कि ठाकुरसी का विवाह जल्दी कर दिया जाय । उसने अपने पतिदेव को कहा कि क्या ठाकुरसी की शादी नहीं करनी है ? सेठ जी ने कहा कि ठाकुरसी की शादी के लिये तो बहुत प्रस्ताव आये हैं पर अभी ठाकुरसी की उम्र सोलह वर्ष की है मेरी इच्छा है कि २० का
[ शाह जगा के ठाकुरसी नाम का पुत्र
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