Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धरि का जीवन ]
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३० - प्राचार्य सिद्धसूरि ( पांचवां )
गोत्रे मोरख नाम के समभवत् सिद्धेति सूरिर्महान् । भ्रान्त्वा देश मनेकशो जिनमतं लोके तथा ख्यापितम् ॥ येनासन् बहुलब्धयोऽथ च सदा दासाः स्वयं सिद्धयः । दीक्षित्वा स जनान् बहून् विहितवान् मोक्षाध्वयात्रा परान् ॥
चार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक सिद्ध पुरुष ही थे। आपने अपने शासन समय में जैनधर्म की खूब ही उन्नति की। कई जैनेवरों को जैनधर्म की दीक्षा दी कई मुमुक्षुत्रों को संसार से मुक्त किये और कई वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर जैनधर्म का भंडा सर्वत्र फहराया था । आपके जीवन के विषय पट्टावलीकार लिखते हैं कि मावलीपुर नगर में मोग्ख गोत्रिय पुष्करणा शाखा में जगाशाह नाम का धनकुबेर सेठ था। आरके गृहदेवी का नाम जैती था । माता जेती ने एक समय श्रर्द्ध निद्रा के अन्दर देखा कि उसका पतिदेव बड़ी ठकुराई के साथ बैठा हुआ है और किसी आकर उसको रत्न भेंट किया है । सुबह होते ही अपना शुभ स्वप्न शाह जगा को कह सुनाया । शाह जगा धर्मष्ठ था। मुनियों की सेवा उपासना कर व्याख्यान सुनता था । वह स्वप्नशास्त्र का भी जानकार था अपनी प्रिय पत्नी का स्वप्न सुनकर विचार करके कहा कि हे प्रिय-तू बड़ी भाग्यशालिनी है । इस स्वप्न से पाया जाता है कि तेरी कुक्ष में कोई उत्तम जीव गर्भपने अवतीर्ण हुआ है इत्यादि जिसको सुन जेती ने बहुत हर्ष मनाया और जिन मन्दिरों में अष्टान्हिक महोत्सव पूजा प्रभावना और स्वामिवात्सल्यादि शुभकार्य किया । पहिले जमाने में हर्ष एवं आफत में धर्मक्षेत्रों को विशेष याद किया करते थे ।
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[ ओसवाल संवत् ७७०-८००
जब माता के गर्भ तीन मास पूरे हुये और चतुर्थमास चल रहा था तो एक दिन उसको दोहला उत्पन्न हुआ कि मैं संघ के साथ तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा कर प्रभु आदीश्वर की पूजा करू इत्यादि । जेती ने इस दौहले को अपने पतिदेव को कह सुनाया । फिर तो देरी ही क्या थी, शाह जगा स्वीकार कर लिया । उस समय उपकेशगच्छ के पण्डित विवेक निधान का शुभागमन जावळीपुर में हुआ । शाह जगा ने पण्डित जी से प्रार्थना की कि श्राप संघ में पधार कर श्रीसंघ को यात्रा का लाभ दीरावें पण्डित जी ने लाभालाभ का कारण समझ कर जगा का कहना स्वीकार कर लिया सिर तो देरी ही क्या थी शाह जगा ने संघ को आमन्त्रण करके बुलाया । पंडितजी ने जगा को संघपति पद से विभूषित किया और पण्डित विवेक निधान के नायकत्व में शुभ मुहूर्त्त एवं अच्छे शकुनों से संघ ने प्रस्थान कर दिया । माता जेती सुखासन पर बैठी हुई ज्यों २ संघ को देखती थी त्यों २ उसको बड़ा ही श्रानन्द श्राता था । क्रमश: रास्ता के मन्दिरों के दर्शन करता हुआ संघ शत्रु जय पहुँचा और भगवान आदीश्वर की भक्ती सहित पूजा कर शाह जगा और श्रापकी पत्नी जैती ने अपना अहोभाग्य मनाया और माता ने अपना दोहला पूर्ण किया । शाह जगाने तीर्थ पर पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य एवं ध्वजारोहण करने में खुल्ले दिल से पुष्कल द्रव्य व्यय
जावलीपुर मंशाह जगा ]
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