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श्रीदशवकालिकसूत्रे सान्वयार्थः-जो-जो कामे विषयोंको न निवारए नहीं छोडता है, वह संकप्पस्स-इच्छाओंके वसंगओवशी होकर पए पए-पद-पद पर विसीअंतो खेदित होता हुआ नु-आश्चर्य है कि वह सामण्णं श्रमणधर्मको कहं कैसे कुज्जा-कर-पाल सकता है। अर्थात-जो इन्द्रियोंके विषयोंका परित्याग नहीं करता उसकी इच्छाएँ सदैव वढती रहती हैं, उसे कभी सन्तोप नहीं होता, सन्तोप न होनेसे निरन्तर मानसिक कष्ट होता है, विषयोंकी इच्छासे उत्पन्न हुआ मानसिक कष्ट होते रहनेसे चारित्रधर्मकी आराधना नहीं हो सकती, अतः सर्व प्रथम इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिये ॥१॥
टीका-यः, काम्यन्ते अभिलष्यन्ते माणिभिरिति कामाः शब्दादयस्तान् न निवारयेत् नापनयेत् , अत्र 'सः' इत्यध्याहार्य यत्तदोनित्यसम्बन्धादिति केचित् , वस्तुतस्तु नात्र तच्छब्दाध्याहारावश्यकता, न चाऽनध्याहारे साकाङ्क्षवदोप इत्याक्षेप्यम् , उत्तरवाक्यगतत्वेन यच्छब्दोपादाने तस्य दोपस्याऽनवकाशात् 'आत्मा जानाति यत्पाप' मित्यादिवत् । संकल्पस्य अमाप्तविषयमाप्तिरूपस्याऽभशस्तस्याऽध्यवसायस्य, वशम् अधीनतां गतस्तदधीनवर्ती भूत्वेति भावः, पदे पदेप्रतिस्थानं विपीदन् खेदमनुभवन् कथं केन प्रकारेण 'नुक्षेपे वितर्के पृच्छायां वा, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः सचित्ता-चित्त-मनोज्ञा-मनोज्ञद्रव्याधिकरणकसाम्यभाव-हाम्यादिपकविप्रमुक्ति-पंचसमितिसमितत्व-गुप्तित्रयगुप्तत्व-गुप्तब्रह्मचर्यत्व
जीव, जिन इन्द्रियोंके विषयोंकी कामना (अभिलाषा) करता है उनको 'काम' कहते हैं। जो साधु, इन कामोंका त्याग नहीं करते, वे अप्राप्त विपयकी प्राप्तिरूप अशुभ अध्यवसायके अधीन होकर पद-पद पर खेदका अनुभव करते हुए क्या कभी श्रमणताको प्राप्त कर सकते हैं ? कदापि नहीं ।
इष्ट, अनिष्ट, सचित्त, अचित्त आदि समस्त वस्तुओं पर समताभाव रखना, हास्य आदि छह नोकपायका त्याग करना,
જીવ જે ઈન્દ્રિયેના વિષયની કામના (અભિલાષા) કરે છે તેને “ કામ” કહે છે જે સાધુ, એ કામને ત્યાગ નથી કરતા, તેઓ અપ્રાપ્ત વિષયની પ્રાપ્તિરૂપ અશુભ અધ્યવસાયને અધીન થઈને ડગલે ડગલે ખેદને અનુભવ કરતાં શું કદાપિ શમણુતાને પ્રાપ્ત કરી શકે છે ? કદાપિ નહિ
ઈu, અનિષ્ટ, સચિત્ત, અચિત્ત, આદિ બધી વસ્તુઓ પર સમતા-ભાવ - રાખવે, હસ્ય આદિ છએ નેકષાયને ત્યાગ કર. પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિનું