Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 537
________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८९-९१-गोचरीगतातिचारालोचनाविधिः ४८५ टीका-संयतः कायोत्सर्गस्थो मुनिः, गमनागमने-गतागते चैव भक्ते पाने च संजातं निश्शेष समग्रम् अतिचारं-मुनिमर्यादालङ्घनलक्षणम् यथाक्रमम् आभोग्य= सोपयोगं विचिन्त्य ऋजुप्रज्ञा-सरलबुद्धिः अनुद्विग्ना-प्रशान्तः, अव्याक्षिप्तन-अव्याकुलेन चेतसा मनसा गुरुसकाशे-शुद्धं प्रमादादिवशेनाऽशुद्धं वा यद् यस्माद् यत्र वा यथा गृहीतं भवेत् तदपि गुरुसमीपे कथयेदित्यर्थः । 'उज्जुप्पन्नो' इत्यनेनाऽकुटिलमतिरेव सम्यगालोचयतीति सूचितम् । 'अणुविग्गो' अनेन क्षुधादिपरिषहजेतृत्वमावेदितम् । 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' इत्यनेन 'एकाग्रचित्तेनैवाऽतिचारस्य सम्यक् स्मरणं भवती'-ति स्पष्टीकृतम् ॥८९॥९०॥ कायोत्सर्गमें स्थित होकर गमनाऽऽगमनमें, तथा-आहार पानीके लेनेमें जोअतिचार लगे हों उन सबका क्रमशः चिन्तन करके सरलवुद्धि शान्त-चित्तवाला संयमी व्याकुलतारहित चित्तसे गुरुके समीप आलोचना करे। प्रमाद् आदिके वशसे जहां जैसा शुद्ध या अशुद्ध आहार आदि लिया गया हो वह भी गुरुसे निवेदन करे। 'उज्जुप्पन्नो' पदसे यह सूचित किया है कि कुटिलतारहित वुद्धिवाला ही यथार्थ आलोचना कर सकता है। 'अणुश्विग्गो' पदसे क्षुधा आदि परीषहोंका जीतना प्रगट किया है। 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' पदसे यह सूचित किया है कि एकाग्र-चित्तसे ही अतिचारोंका अच्छी तरह स्मरण हो सकता है ॥ ८९ ॥१०॥ કાયેત્સર્ગમાં સ્થિર થઈને ગમનાગમનમાં, તથા આહારપાણી લેવામાં જે અતિચાર લાગ્યા હોય તે સર્વનું ક્રમશ: ચિંતન કરીને સરલબુદ્ધિ શાન્ત-ચિત્તવાળો સયમી વ્યાકુળતા–રહિત ચિત્તથી ગુરૂની સમીપે આલેચના કરે પ્રમાદ આદિને વશ થઈને જ્યા જે શુદ્ધ યા અશુદ્ધ આહાર આદિ લેવામાં આવેલ હોય તે પણ ગુરૂને નિવેદન કરે उज्जुप्पन्नो शvथी मेम सूयित ४२वामां भाव्युछे है दुटिसताडित भुद्धिवास यथार्थ माटोयना ४३॥ श छ, अणुधिग्गो १४थी क्षुधा माहि પરીષહોને જીતવાનું પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે વ્યવિવે ચલી શબ્દથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે એકાગ્ર-ચિત્તથી જ અતિચારનું સારી રીતે સ્મરણ થઈ श: छे (८८-८०)

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