Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीदशवकालिकमूत्रे क्रामेदित्यर्थः । बहुशः कालशब्दोपादानं 'मुनीनां यथाकालमेव सकलं कृत्यं विधेय'-मिति ध्वनयति ॥४॥ ___ अकालचारित्वेनाऽलब्धभिक्षो भिक्षुः केनचित्साधुना "भोः ! भिक्षा स्वया लब्धा न वा" इति पृष्टो वदति-"कुतोऽत्र मितम्पचानां हीनदीनानां ग्रामे भिक्षालाभः?" तदाऽसौ अकालचारिणं कथयति-'अकाले' इत्यादि। मूलम् अकाले चरिसी भिक्खू, कालं न पडिलेहिसि।
अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ छाया-अकाले चरसि भिक्षो!, कालं न प्रत्युपेक्षसे।
आत्मानं च लमयसि, संनिवेशं च गईंसे ।।५।। अकालचारी होने के कारण भिक्षा नहीं मिलने पर असन्तुष्ट हुए साधुको कालचारी साधु पूछता है-हे साधु ! आपको भिक्षा मिली कि नहीं?, तब वह कहता है-इस कंजूसों के गाम में भिक्षा कहाँ पड़ी है। इस पर वह कालचारी साधु उससे कहता है
सान्वयार्थः-भिक्खू हे भिक्षु ! आप अकाले असमयमें भिक्षाका समयन होनेपर ही चरिसी-गोचरी फिरते हो, च और कालं गोचरीका समय न तथा जो समय भिक्षाके लिए उचित न हो उसका परिहार करके द्रव्य क्षेत्र काल भावसे उचित समय पर ही भिक्षाके लिए जाना चाहिए। गाथामें बहुत वार काल शब्दका प्रयोग करनेसे यह आशय प्रगट होता है कि-साधुओंको प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करनी चाहिए ॥४॥
कोई साधु असमयमै भिक्षाके लिए जानेवाले दूसरे साधुसे पूछा गया कि-'हे भिक्षु ! तुम्हें भिक्षाका लाभ हुआ या नहीं?' तय उसने कहा-'इन कंगाल कंजूसोंके गाँवमें भिक्षाकहाँप्राप्त होसकती है। तब वह अकालमें गोचरी करनेवालेके प्रति कहता है-'अकाले०' इत्यादि। માટે ઉચિત ન હોય તેને પરિહાર કરીને દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવથી ઉચિત સમયે જ ભિક્ષને માટે જવું જોઈએ ગાથામાં ઘણીવાર કાલ રાદને પ્રવેશ કરવાથી એ આશય પ્રકટ થાય છે કે-સાધુઓએ પ્રત્યેક ક્રિયા ઉચિત સમયે જ કરવી જોઈએ (૪)
કે ઈ સાધુ સમયમાં ભિક્ષાને માટે જનારા બીજા સાધુને પૂછયું કેહિં બિ! તમને વિક્ષાન લાવે છે કે નહિ ?” ત્યારે તેણે કહ્યું “આ કંગાલ કંકોના ગામમાં બિટ કયાથી પ્રાપ્ત થઈ શકે ?” ત્યારે એ અકાળે ગોચરી २.२ ५ प्रत्ये ३९ -अाले. त्यादि.