Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 600
________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४७-४८ - तपआदिचोरस्य दुष्फलप्राप्तिः ५४७ किल्विषे = किल्विदेवमध्ये उपपन्नः = संमाप्तः, तत्रापि सः, 'किं कर्म कृत्वा मे = मम इदं फलं संजात' - मिति न जानाति । किञ्चित्क्रियाकरणक्लेशेनाऽवश्यम्भाविज्ञानत्रयक देवखजातिलाभेऽपि स्तेयादिपापकममभावेण ज्ञानावरणस्य प्रवलोदयेनाऽविशुद्धावधि सद्भावादिति भावः ॥४७॥ एतावदेव तस्य फलं न, किन्तु ततोऽन्यदपीति तद्दर्शयति- ' तत्तोवि' इत्यादि । २ ५ मूलम् - तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूयगं । ૬ G ८ ૧૦ ૯ ૧૧ नरगं तिरिक्खजोणि वा, वोही जत्थ सुदुलहा ॥ ४८ ॥ छाया - ततोऽपि स च्युखा, लप्स्यते एलमूकलम् | नरकं तिर्यग्योनिं वा, वोधित्र सुदुर्लभा ॥ ४८ ॥ सान्वयार्थ:-से-वह किल्लिपी देव तत्तोवि-उस- किल्विष देवभवसे भी चन्ताणं = चवकर मनुष्य भवमें एलम्यगं=वकरेकी तरह अस्पष्ट बोलनेरूप गूंगेपनको लग्भिही=माप्त होगा, (और वहाँ मरकर फिर ) नर-नरक गतिको वा=अथवा तिरिक्खजोणि= तिर्यञ्च योनिको लग्भिही=माप्त होगा कि जत्थ = जहां फिर वोही=बोधि-जिनधर्म की प्राप्ति होना सुदुलहा - महा- मुश्किल है ||४८|| उत्पन्न होकर यह नहीं जानता कि- 'मुझे कौन कर्म करने से यह फल मिला है ?' तात्पर्य यह है कि कुछ कायक्लेश करने से वहां भवप्रत्ययक अवधि ज्ञान तक तीन ज्ञान होजाते हैं, फिर भी चोरी आदि पाप कर्मोंके प्रभावसे ज्ञानावरणका प्रवल उदय होनेके कारण अविशुद्ध अवधि रहता है ॥ ४७ ॥ उक्त चोरीका इतना ही फल नहीं है, किन्तु और भी होता है सो दिखाते हैं - ' तत्तोवि' इत्यादि । થઈને એ નથી જાણતા કે મને કયા કર્યાં કરવાથી આ ફળ મળ્યું છે ? ' તા એ છે કે કાંઇક કાયકલેશ કરવાથી ભવપ્રત્યયિક અધિ–જ્ઞાન સુધી ત્રણ જ્ઞાન થઈ જાય છે, તે પણ ચારી આદિ પાપ કર્યાંના પ્રભાવથી જ્ઞાનાવરણને પ્રખળ ઉદય થવાને કારણે અવિશુદ્ધ અવધિ રહે છે (૪૭) ઉકત ચારીનું એટલું જ ફળ નથી, પરંતુ ખીજું પણુ ફળ મળે છે તે वे छे तत्तो वि इत्यादि

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