Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 599
________________ ५४६ - - - श्रीदशकालिकसूत्रे प्रश्नपूर्वकमवबुध्यानन्तरं 'प्रागेवेदं विज्ञातमस्ति न तु किश्चिदपूर्वमिदानीं भवन्मुखा- । दाकर्ण्यते' इति प्रतिपादकः । स तपःस्तेनादिः देवकिल्लिपं देवानां मध्ये किल्विपः पापः, अत एवाऽस्पृश्यत्वादिधर्मा,तं कुरुते भावयति-तपःस्तेयादिकर्मणि देवकिल्विपनामक भवमुत्पादयतीत्यर्थः ॥४६॥ मूलम् लभ्रूणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिविसे। ૫ ૬ ૧૨ ૧૩ तत्थावि से न याणाइ, कि मे किंचा इमं फलं ॥ १७॥ छाया-लब्ध्वाऽपि देवत्वम् , उपपन्नो देवकिल्विषे । तत्रापि स न जानाति, किं मे कृत्वा इदं फलम् ॥४७॥ सान्वयार्थः-देवत्तं कुछ क्रियाकलाप करने से देवपनेको लभृणवि-पाकर भी वह देवकिदिवसे-किल्विप-अस्पृश्य जातिके देवोंमें उववन्नो उत्पन्न होता है, तत्याविवहां पर भी से वह "किं क्या कर्म किच्चा करनेसे मे मेरे इमं यह फलं-फल प्राप्त हुआ है' ऐसा न याणाइ नहीं जानता है, क्योंकि देवलोकमें तीन ज्ञान अवश्य होनेवाले होनेपर भी चोरी आदि प्रवल पापकर्मके प्रभाव से उसके तीव ज्ञानावरणका उदय होता है । टीका-'लभ्रूणवि' इत्यादि । देवत्वं देवजाति लब्ध्वाऽपि पाप्यापि देव "यह तो मुझे पहले ही मालूम था, आपके मुखसे कुछ भी नवीनता नहीं सुनी जाती' उसे भाव-(जीवादि-पदार्थ) का चोर कहते हैं। ऐसे तप आदिके चोर साधु देवताओंमें अस्पृश्य किल्विष देवके कर्मको उपार्जन करते हैं, अर्थात् वह साधु देवभव पा करके भी किल्विष देव होता है ॥ ४६ ॥ 'लभूणवि' इत्यादि । देवगति प्राप्त करके भी किल्विष देवोंमें એ તે હું પહેલેથી જાણતું જ હતું, આપના મુખેથી કાંઈ નવીનતા સાંભળવામાં આવતી નથી” તે તે ભાવ (જીવાદિ-પદાર્થ) ને ચેર કહેવાય છે એવા તપ આદિને ચેર સાધુ દેવતાઓનાં અસ્પૃશ્ય કિટિવલી દેવનાં કમેને ઉપજે છે, અથતુ એ સાધુ દેવભવ પામીને પણ કિવિ દેવ થાય છે (૪૬) દ્ભાવિ ઈત્યાદિ. દેવગતિ પ્રાપ્ત કરીને પણું કિલિવલી ડેમાં ઉત્પન્ન

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