Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 602
________________ - अध्ययन ५ उ. २ गा. ४९-५०-उपसंहारः दृष्ट्वा केवलालोकेनाऽऽलोक्य भाषितं कथितम्-अर्थत उपदिष्टमित्यर्थः, अतः मेधावी-कृत्याकृत्यविवेककुशलः, अणुमात्रमपि-स्वल्पमपि मायामृपा-मायामृपावादं विवर्जयेत्-संत्यजेत्-नाऽऽचरेदिति भावः ॥४९॥ मूलम्-सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे। तत्थ भिक्खु सुप्पणिहि-इंदिए, तिबलज्जगुणवं _ विहरिजासि-त्तिबेमि ॥५०॥ छाया-शिक्षित्वा भिक्षेपणशोधि, संयतानां वुद्धानां सकाशे । तत्र भिक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रियः, तीव्रलज्जागुणवान् विहरेत् । इति ब्रवीमि ॥५०॥ सान्वयार्थः-बुद्धाण-सकल तत्वोंके जाननेवाले संजयाण-मुनियों के सगासे समीप भिक्खेसणसोहि भिक्षाके आधाकर्मादि दोपोंकी शुद्धिको सिक्खिऊण-सीखकर तिव्वलज्जगुणवं अकृत्याचरणमें अत्यन्त लज्जावान् सुप्पणिहिइंदिए-जितेन्द्रिय-एकाग्रचित्तवाला भिक्खु-साधु तत्थ-वहांभिक्षाकी एपणा विहरिज्जासि-विचरे-लगे। त्तिवेमि-श्रीसुधर्मास्वामी जंवूस्वामीसे कहते हैं कि जैसा भगवान् महावीर स्वामीने फरमाया है वैसाही में तेरेसे कहता हूँ ॥५०॥ । इति पांचवे अध्ययनके दूसरे उद्देशका सान्वयार्थ समाप्त ॥ ५-२ ॥ ॥ इति श्रीदशवकालिकसूत्रके पांचवें अध्ययनका सान्वयार्थ समाप्त ॥५॥ टीका-'सिक्खिऊण' इत्यादि। भिक्षुः बुद्धानाम् अवगतसकलतत्त्वानां, संयतानां सयमवतां सकाशे-समीपे भिषणशोधि-भिक्षागताऽऽधाकर्मादिदोषज्ञानसे जानकर प्रतिपादन किये हैं, इसलिए कार्य-अकार्यके विवेकी श्रमणको अणुमात्र भी माया-मृषावादका आचरण नहीं करना चाहिए, अर्थात् मुनि माया-मृषावादका थोड़ा भी सेवन नहीं करें ॥४९॥ ___ 'सिक्खिऊण' इत्यादि । भिक्षु, तत्त्वके ज्ञानी संयमियोंके समीप પ્રતિપાદન ક્યાં છે તેથી કરીને કાર્ય–અકાર્યના વિવેકી શ્રમણએ આ માત્ર પણ માયા-મૃષાવાદનું આચરણ ન કરવું જોઈએ, અથત મુનિ માયા મૃષાવાદનું થોડું __पशु सेवन न ४२ (४८) । सिक्खिऊण त्या तत्पना ज्ञानी संयभीमानी सभी साधा माह

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