Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 587
________________ अयस श्रीदशवैकालिकम् गिनः साधोः दोपान्=संयममालिन्यकारिचेष्टाविशेषान् पश्यत-ज्ञानविषयीकुरू च-पुनः निकृति-पूर्वकृतकपटावरणाय कपटान्तरकरणलक्षणां मायां, प्रथमकए मुरापानं, द्वितीयमनृतभापणेन तत्संगोपनमिति भावः, मे=मम निरूपयतः सकाशा शृणुतम्श्रवणगोचरीकुरुत । गुरुः शिष्यानामन्त्र्य कथयतीति भावः ॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञातदोपानुपदर्शयति-वड़ई' इत्यादि । मूलम्-वड़ई सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो। ___१० ३ ११ १२ य अनिवाणं, सययं च असाहुया ॥३८॥ छाया-वर्द्रते शौण्डिका तस्य, माया मृपा च भिक्षोः । अयशश्च अनिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥ सान्वयार्थः-तस्स-उस मदिरा पीनेवाले भिक्खुणो साधुकी सुंडिया मधपान संवन्धी आसक्ति माया-कपट च और मोसं-झूठ अयसो-अपकीर्ति य-तथा अनिव्वाणं अतृप्ति, ये सब दोप सययं-निरन्तर वडइ-बढते रहते हैं .. च और (आखिर उसके) असाहुया असाधुता हो जाती है, अर्थात् वह असाधुपनको प्राप्त हो जाता है, यानी चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है ॥३८॥ टीका-तस्य सुरापायिनः भिक्षोः साधोः सततं निरन्तरं शौण्डिका-मद्यपानविषयासक्तिः, च=पुनः, माया निकृतिः, मृपा-असत्यभाषणम् , यद्वा 'मायासाधुके संयमको दषित करनेवाली चेष्टाओं (दोषों) को तो देखो! एक तो मदिरापानका मायाचार, फिर उसे छुपानेके लिए दूसरे अनेक मायाचार और मृषावाद आदिका सेवन किया जाता है सो मुझसे 'सुनो, अर्थात् गुरुमहाराज शिष्यको आमन्त्रित करके कथन करते हैं।॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञात दोष कहते हैं-'चडई' इत्यादि । मदिरापान करनेवाला साधु सदा मदिरा पीने में ही मग्न रहता है। वह मायाचार करता है, मृपा बोलता है, अथवा कपट-सहित झूठ (દ)ને તે જુઓ! એક તે મદિરાપાનને માયાચાર, વળી તેને છુપાવવા માટે બીજા અનેક માયાચાર અને મૃષાવાદ આદિનું સેવન કરવામાં આવે છે તે મારી પાસેથી સાંભળ-અર્થાત્ ગુરૂ મહારાજ શિષ્યને આમંત્રિત કરીને કથન કરે છે. (૩૭) पूर्व प्रतिज्ञात या ४ -बइ० त्यात મદિરાપાન કરનાર સાધુ સદા મદિરા પીવામાં જ મગ્ન રહે છે તે માયા ચાર કરે છે, મૃષા બોલે છે, અથવા કપટ સહિત જૂઠું બોલે છે દુરાચારી હોવાને

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