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अध्ययन ५ उ. २ गा. ४६ - तपआदिचोरस्य दोषपटनम्
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किल्विक नाम के देवभको कुव्वई=करता है, अर्थात् देवलोक किल्लिपिक देवने उत्पन्न होता है ॥४॥
ठीका- 'तवतेणे' इत्यादि । [१] यो नरःन्यः साधुः तपःस्तेनः- तपचौरः, अत्र चौयै परकीयतपोऽपहरणं वपुजायै स्वस्तिन्नारोपणम् । स च तपःस्वैनविविधो यथा स्वयमतपत्र कवित्साधुः केनचित् 'तपस्वी भवान् ?' इति पृष्टः सन् 'अहमस्मि तपस्वी'-त्यर्थः प्रयमः (१) । द्वितीयो विनैव तपसा स्वभा चाद् रोगादिकारणान्तरवन्नाटा वरीः साधुः केनचित् 'किं भवानेव श्रुतपुत्रैस्तपस्त्री ?" इति पृष्टः सन् स एव भवन्ति किमनेन तेन ?'
इत्युत्तम: (२) ।
'तवतेणे' इत्यादि । जो साधु तपके चोर, वचनके चार, रूपके चोर अथवा आचारके चोर और भावके चोर होते हैं वे देवोंमें उत्पन्न होकर के भी किल्विष ही होते हैं ॥
तात्पर्य यह है कि परकी तपस्याको अपनी प्रतिष्टांके लिए अपनी बताना तपकी चोरी है । [१] तपके चोर तीन प्रकारके हैं
(१) किसी अनपस्वी साधुले किसीने पूछा- 'क्या आप तपस्वी हैं ?" इसके उत्तरमें 'हो में तपस्वी है ऐसा कहनेवाला तपचोर है।
(२) विना तपस्या किये रोग आदि किसी कारणसे या स्वभावसे क्षीण शरीरवाले साधुसे किसीने पूछा-क्या आप ही वह तपस्वी है, जिनकी कीर्ति पहले हमने सुनी है ? ऐसा पूछनेपर 'साधु तो तपस्वी होते ही हैं, यह प्रश्न करना ही वृथा है। इस प्रकारका उत्तर देनेवाला तपचोर है । वेले धुको दस्ताबेदार संक्षेच् बच्रेता ३२ डे के तेथे हे अपक्ष ह
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