Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 577
________________ - ५२४ श्रीदशकालिकमूत्रे अन्यदा याचितेऽपि भाकपानाधभावादददाने तं च गृहस्थं परुष-निष्ठुरवाक्यं न वदेव मुनिरिति शेपः । यथा व्यथैव त्वद्वन्दनचेष्टा, नाल साधुतोपाय, केवलंकिंशुककुसुमवद्राह्यरमणीयतामात्रमाकलयसी'-त्यादि ।।२९।। मूलम्-जे न वंदे न से कुप्पे समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स, सामन्नमणुचिट्ठई ॥३०॥ छाया-यो न वन्दते न तस्य कुष्येत्, वन्दितो न समुत्कर्पयेत् । . एवमन्वेपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ ३० ॥ सान्वयार्थ:-जे-जो गृहस्थ न वंदे-साधुको बन्दना न करे तो से उस पर न कुप्पे-क्रोध न करे (और) वंदिओ-बन्दना किया हुआ न समुक्कसे गर्वित न होवे-घमड न करे। एवं-इस प्रकार अन्नेसमाणस्स-जिनशासनकी आराधना करनेवालेके सामन्नं साधुपना-चारित्र अणुचिटइ-आराधित स्थिर होता है, अर्थात् मान अपमानमें समान रहनेवाले मुनिको ही सम्यक् प्रकारसे चारित्रकी आराधना होती है ॥३०॥ टीका-'जे' इत्यादि । यो गृहस्थः साधुं न वन्दते से तस्य अवन्दमानस्य न कुप्येत् कीदृगय विवेकविकलः, यन्मामुपस्थित साधुमवमन्यते' इति कृत्वा धरता, रंककी तरह केवल भिक्षाकी चिन्ता कर रहा है। अन्य समय याचना करने पर भी यदि गृहस्थ भिक्षा न दे तो कठोर वचन न बोले कि-'वस रहने दे, तेरी वन्दना वृथा है, इससे साधुओंको सन्तोष नहीं हो सकता, तू टेसू (पलाश-केसूडा) के फूलकी नाई दिखावटी रमणीयता (नम्रता) धारण करता है' इत्यादि ॥२९॥ . 'जे' इत्यादि। कोई साधुको वन्दनान करे तो उसे उसपर कुपित न होना चाहिए कि-'यह कैसा अविवेकी है कि सामने उपस्थित साधुका કેવળ ભિક્ષાની ચિંતા કરી રહ્યો છે ” બીજા સમયે યાચના કરતા પણ જે ગૃહસ્થ ભિક્ષા ન આપે તે સાધુ કઠેર વચન ન બેલે કે “બસ, રહેવા દે, તારી વંદના વૃથા છે, તેથી સાધુઓને સતેજ નથી થઈ શકત, તુ કેસૂડાના सनी पेठे हेमाडपानी २भएयता (नभ्रत ) धार ४२नारी छ,' त्याह (२८) ઈત્યાદિ કે સાધુને વદના ન કરે તે સાધુએ તેના પર કુપિત ન થવું જોઈએ કે “આ કે અવિવેકી છે કે સામે ઊભેલા સાધનો અનાદર કરે છે

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