Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 582
________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३४ - ३५ - भिक्षापहारे दोषाः ५२९ टीका -- तावत् = निश्चयेन इमे = मानसप्रत्यक्षविषयाः उपाश्रयस्थाः श्रमणाः = साधव:- 'अयं मुनिः आत्मार्थी = आत्महितार्थी सन्तुष्टः = यथालब्धसन्तोपी रुक्षवृत्तिः = सरसाऽनभिकाङ्क्षी सुतोषकः = अल्पेनापि परितोषशीलः प्रान्तं = पर्युपितं निस्सारं वाऽन्नादिकं सेवते ' इति मां जानन्तु || ३४ ॥ किमर्थं स्वदोपगोपनमाचरती ? - त्याह- 'पूयणट्ठा' इत्यादि । 3 ૧ ર 3 मूलम् - पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । ૫ ८ ४ ७ G बहुं पसवई पावं, मायासलं च कुवइ ॥ ३५ ॥ छाया - पूजनार्थः यशःकामी, मानसम्मानकामुकः । वहु प्रमृते पाप, मायाशल्य च कुरुते ||३५|| उपर्युक्त साधु के दोष बताते हैं सान्वयार्थ :- पूयणट्टा = वस्त्र पात्रादि से सत्कार चाहनेवाला जसोकामी = अपने महत्त्व और प्रसिद्धिका इच्छुक माणसम्माणकाम ए = मान-सम्मानका अभिलापी साधु बहुं बहुत पार्व= पाप- मोहनीयादि को पसवई = पैदा करता है, च = और मायासहं = कपटरूप भावशल्यको कुच्च उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है कि हृदयमें खुचे हुए वाणके अग्रभागरूप द्रव्य - शल्यकी तरह हृदयमें रहा हुआ यह मायारूप भाव- शल्य मनुष्यको, अनन्त दुस्सह दुःखोंका कारणभूत चतुगतिक संसारमें घूमाता हुआ अविचलशान्तिमय सुख से वश्चित कर देता है ||३५|| ये उपाश्रयमें स्थित साधु मुझे ऐसा समझें कि - ' - यह साधु आत्मार्थी है, जैसा मिला उसीमें सन्तोषी है, सरस आहारकी आकांक्षा नहीं करता, थोड़े ही आहारसे सन्तुष्ट हो जाता है और साररहित ठंढा अन्त-प्रान्त आहारका सेवन करता है' ||३४|| अपना दोष छिपाता क्यों है ? सो कहते हैं- 'पूणा' इत्यादि । આ ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ મને એવા માને કે—આ સાધુ આત્માથી છે, જેવા આહાર મળ્યે તેમાં સ તાષ માનનારો છે, સરસ આહારની આકાંક્ષા કરતા નથી થેડા જ આહારથી સતુષ્ટ થઈ જાય છે, અને સારરહિત ઠંડા संत-प्रात भाडार सेवन उरे छे, ' (३४) पोताना दोष द्वेभ छुपावे छे ? ते हे छे-पूयणट्ठा० हत्याहि

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