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। श्रीदशवकालिकसूत्रे वाले वाल चने आदिका बना हुआ तुष आदि जिसमें बहुत हों ऐसे (तथा) विरसं-लवणादि रस सहित अशनादिको आहरे-उपाश्रयमें लावे ॥३३॥
टीका-स्यात् कदाचित् एकका कश्चित् रसलोलुपी विविधं पान-भोजनं लब्ध्वा भिक्षाचर्यायामेव यत्र-कुत्रचिदलक्षितप्रदेशे भद्रकं भद्रकम् उत्कृष्टमुस्कृष्टं बहुविधान्नादिषु प्रशस्तं प्रशस्तमेव घृतपूराऽपूपादिकं भुक्त्वा विवर्ण-विकृतवर्ण वल्लचणकादिनिष्पन्नं तुषादिवहुलं विरसं-लवणादिरसवर्जितमन्नादिकम् आहरेद आनयेत् वसताविति शेषः ॥३३॥
एवं करणे किं प्रयोजनम् ? इत्याह-'जाणंतु' इत्यादि । मूलम्-जाणंतु ता इमे समणा, आययही अयं मुणी
संतुट्ठो सेवई पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ॥३४॥ छाया-जानन्तु तावत् इमे श्रमणाः आत्मार्थी अयं मुनिः।
सन्तुष्टः सेवते मान्तं, रूक्षत्तिः सुतोपकः ॥ ३४॥ वह ऐसा क्यों करता है ? इसमें कारण कहते हैंसान्वयार्थ:-ता-प्रथम इमे-ये-उपाश्रयमें रहे हुए दूसरे समणा-साधु (मुझे इस प्रकार) जाणंतु-जाने कि अय-यह मुणी-साधु आययट्ठी-मोक्षार्थी-आत्मार्थी है, संतुढो जैसा मिला उसीमें सन्तोप करनेवाला लूहवित्ती-सरस स्निग्धादि आहारकी अभिलापारहित सुतोसओ-थोड़े आहारसे भी सतोपी है और पंतवासी-कुसी तथा निस्सार अन्नादिका सेवई-सेवन करता है ॥३४॥
कदाचित् कोई रसलोलुपी साधु विविध प्रकारका पान-भोजन पाकर अच्छा-अच्छा भोजन भिक्षाचरीमें ही किसी एकान्त स्थानमें खावे, और बाल चणक आदि अन्त-प्रान्त तथा विना नमक मसालेका ठंढा आहार उपाश्रयमें ले आवे ॥ ३३ ॥
ऐसा करनेका प्रयोजन कहते हैं-'जाणंतु' इत्यादि ।
કદાચિત કઈ રસલુપી સાધુ વિવિધ પ્રકારના પાન-ભોજન મેળવીને સારૂ-સારૂં ભેજન ભિક્ષાચરીમાં જ કઈ એકાત સ્થાનમાં ખાઈ લે અને વાલ ચણા આદિ અત–પ્રાત તથા મીઠા મરચા વિનાને નીરસ ઠડે આહાર ઉપાશ્રયમાં Bावे (33)
मेम ४२वार्नु प्रयोन डे छे-जाणंतु० त्यादि.