Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अध्ययन ५ उ. २ गा. ९-११-भिक्षाथै गृहप्रवेशविधिः
५०७ द्रव्ययतनामाह-'अग्गलं' इत्यादि। मूलम् अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए।
अवलंबिया न चिट्ठिजा, गोयरग्गगओ मुणी ॥९॥ छाया-अगलं फलकं द्वारं, कपाटं वाऽपि संयतः।।
अवलम्ब्य न तिष्ठेत् , गोचराग्रगतो मुनिः ॥९॥ सान्वयार्थः-गोयरग्गगओ-गोचरीके लिए गया हुआ संजए इन्द्रियोंका संयम रखनेवाला मुणी-साधु अग्गल-आगल-भोगल अथवा सकली फलिहंदोनों किवाडोंको रोक रखनेवाला काष्ठ (हुड़ा) को दारं-दरवाजा वावि-अथवा कवाडं-किवाड़को अवलंबिया-पकड़कर या इनका सहारा लेकर न चिट्ठिज्जा खड़ा न होवे ॥९॥
टीका-गोचराग्रगतः भिक्षाचरीनिर्गतः, संयतः संयमी मुनिः, अर्गलं कपाटपट्टद्वयदृढसंयोजककाष्ठादिनिर्मितकीलविशेष शृङ्खलादि च, फलकम् अवष्टम्भककाष्ठविशेष, द्वारं गृहादेनिगमप्रवेशमार्गम्, अपिवा कपाटं स्वनाममसिद्धद्वाराच्छादकदारुफलकविशेषम् अवलम्ब्य=आश्रित्य न तिष्ठेत् ॥ ९॥
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मूलम्-समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं ।
उवसंकमंतं भत्तट्टा, पाणहा एव संजए ॥१०॥ तमइक्वमित्तु न पविसे, नवि चिट्टे चक्खुगोयरे। एगतमक्कमित्ता, तत्थ चिहिज संजए ॥११॥
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छाया-श्रमणं ब्राह्मणं वाऽपि, कृपणं वा वनीपकम् ।
उपसंक्रामन्तं भिक्षार्थ, पानार्थमेव संयतः ॥ १० ॥ तम् अतिक्रम्य न प्रविशेत् , नापि तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे ।
एकान्तमवक्रम्य तत्र तिष्ठेत् संयतः ॥ ११ ॥ अब द्रव्ययतना कहते हैं- अग्गलं' इत्यादि । गोचरीके लिए गये हुए मुनिको आगल, सांकल, फलक (खूटीआदि), दरवाजा या किवाडका सहारा लेकर खड़ा नहीं रहना चाहिए ॥९॥
वे द्रव्य-यतना ४ छ-अग्गलं त्यादि
ગેચરી માટે ગએલા મુનિએ આગળ, સાંકળ, ફલક (ખૂટી આદિ) દરવાજે યા કમાડને આધાર લઈને ઊભા રહેવું ન જોઈએ (૯)
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