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श्रीदशवकालिको पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करके अपने हिस्से का अशनादिको लेनेके लिये सव मुनियों में से रत्नाधिक-दीक्षा म बड़े-मुनिसे पहले प्रार्थना करे, यदि वे लें तो अच्छा ही है, अगर वे न लें तो उनसे कहे-'हे भगवन् ! आपही अपने हाथ से । किसी दूसरे सन्त को दीजिये। ऐसा कहने पर यदि वे अपने हाथ से किसी को दें तो ठीक ही है, यदि खुद न देकर उसीसे कह देवें कि 'तुमही तुम्हारी इच्छा के अनुसार जो लेवे उसको दे दो' तब उसे क्या करना चाहिये, सो बताते हैं__ सान्वयार्थः-तो इस प्रकार गुरु महाराजकी आज्ञा प्राप्त होने पर वह साधु । साहवो सव सन्तोंको चियत्तेणं त्याग-बुद्धिसे अर्थात् उदार चित्तसे जहक्कम रत्नाधिकके क्रमानुसार निमंतिज्ज-निमन्त्रण करे-आहार धामे, जइ-यदि-अगर तत्थ-उनमें से केइ-कोई साधु इच्छिज्जा-आहार लेना चाहें तो (उन्हें देकर) ' तेहिं सद्धिं तु-उनके साथ बैठकर भुंजए खुद भी आहार करे ॥९५॥
टीका-तो-ततः गुरोरादेशाऽनन्तरम् असौ साधून चियत्तेणं-देशीयशब्दोऽयम्' परमप्रीत्या उदारचेतसेत्यर्थः, यथाक्रम-रत्नाधिकक्रममनुसृत्य निमन्त्रयेत् । स्वभागग्रहणाय प्रार्थयेत्-'इदं गृहीत्वाऽनुगृह्यता'-मिति वदेदित्यर्थः । यदि तत्र , मुनीनां मध्ये केऽपि मुनय इच्छेयुः ग्रहीतुमभिलपेयुस्तदा तेभ्योऽपि वितीय तैः सार्दै स्वयमपि भुञ्जीत='चपड़-चपड़े' ति शब्दमकुर्वन्नभ्यवहरेत् ॥९५॥ मूलम्-अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज्ज एगओ।
आलोए भायणे साहू, जयं अपरिस्साडियं ॥ ९६॥ गुरुकी आज्ञा मिलनेके अनन्तर प्रसन्न चित्तसे उदारताके साथ दीक्षामें बड़े-छोटेके क्रमसे साधुओंको अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे, अर्थात् 'यह आहार ग्रहण करनेका अनुग्रह कीजिए। ऐसा कहे । उन मुनियों में से कोई ग्रहण करनेकी इच्छा करें तो उन्हें वितीर्ण करके उनके साथ आप भी चपड़-चपड़ शब्द न करता हुआ आहार करे ॥ १५ ॥
ગુરૂની આજ્ઞા મળ્યા પછી પ્રસન્ન ચિત્તથી ઉદારતાની સાથે દીક્ષામાં મેટાનાનાના ક્રમે કરીને સાધુઓને પિતાને ભાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાર્થના કરે અર્થાત
આ આહાર ગ્રહણ કરવાને અનુગ્રહ કરે” એમ કહે એ મુનિઓથી કઈ ગ્રહણ કરવાની ઇરછા કરે તે તેમને વહેંચી આપીને તેમની સાથે પિતે પણ ચપડાપડ અવાજ કર્યા વિના આહાર કરે. (૫)