Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 550
________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १००-मुधादायि-मुधाजीविनोर्मोक्षावाप्तिः ४९७ रखकर-निरपेक्ष-लेनेवाले भी दुल्लहा दुर्लभ हैं, क्योंकि मुहादाई-निष्काम देनेवाले और मुहाजीवी-निष्काम-निरपेक्ष लेनेवाले दोविन्ये पूर्वोक्त दोनों ही सुग्गइं-मोक्षगतिको गच्छंति प्राप्त होते हैं । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू ! ति भगवान् महावीर स्वामीने जैसा फरमाया है वैसा ही तुझे वेमिन्मैं कहता हूं ॥१०॥ ॥इति श्रीदशवैकालिक सूत्रके पांचवें अध्ययनके पहले उद्देशका सान्वयार्थ संपूर्ण।। ___टीका-'दुल्लहाओ' इत्यादि । मुधादातारः प्रत्युपकारानभिलाषिणो दायकाः दुर्लभाः दुष्पापास्तादृशानां विरलत्वात्, मुधाजीविनोऽपि दातृकार्यानपेक्षनिरपेक्षभिक्षाग्राहिणोऽपि दुर्लभाः, सुधादातारः मुधाजीविनश्च द्वावपि दाता भिक्षुश्च उभावप्युक्तविधौ मुगति-सिद्धगतिं गच्छता प्राप्नुतः। 'मुधादातारः' 'मुधाजीविनः' इत्यत्र बहुवचनं व्यक्तिविवक्षया । 'द्वावपि' इत्यत्र द्विवचनं तु मुधादातृत्व-मुधाजीवित्वोभयधर्मगतद्वित्वसख्याविवक्षयेति बोध्यम् ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥१०॥ । इति श्री-दशवैकालिकमत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां पश्चमाध्ययनस्य प्रथमोद्देशक : समाप्तः ॥५-१। 'दुल्लहाओ' इत्यादि । प्रत्युपकार (बदला) की आशा न रखनेवाले दाता दुर्लभ हैं, और दाताका कार्य न करके भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु भी विरले होते हैं। प्रत्युपकारकी चाह न रखनेवाले दाता और किसीका कार्य विना किये भिक्षा ग्रहण करनेवाला आत्मार्थी साधु, इन दोनोंको मोक्षगतिकी प्राप्ति होती है। श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! चरम जिनेश्वर भगवान् महावीर स्वामीने जैसा उपदेश दिया है वैसा मैंने कहा है ॥१०॥ इति दशवैकालिक सूत्रके पाँचवें अध्यनके पहले उद्देशका हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त ॥५-१॥ दुल्लहाओ० इत्यादि निष्ठाभ-प्रत्यु५४२ (१४सा)नी मा॥ न रामनार होता દુર્લભ છે અને નિષ્કામ–દાતાનું કાર્ય ન કરતાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર-સાધુ પણ વિરલ જ હોય છે પ્રત્યુપકારની ઈચ્છા ન રાખનાર દાતા અને કેઈનું કાર્ય કર્યા વિના ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર આત્માથી” સાધુ, એ બેઉને મેક્ષ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે શ્રી સુધમાં સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે–હે જ બૂ! ચરમ જિનેશ્વર ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીએ જે ઉપદેશ આપે છે તે જ મે કહ્યો છે (૧૦૦) ઈતિ દશવૈકાલિકસૂત્રના પાચમા અધ્યયનને પહેલા ઉદ્દેશાને ગુજરાતીભાષાનુવાદ સમાસ (પ-૧)

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