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श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम्-एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोटए ।
उल्लंधिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥२२॥ छाया-एडकं दारकं श्वानं, वत्सकं वाऽपि कोष्ठके ।
उल्लङ्घय न भविशेत, व्यूह्य वा संयतः ॥२२॥ सान्वयार्थः-एलग-भेड दारकंचालक साणं-कुत्ते वच्छगं-बछडे अपिवाइस प्रकार दूसरे अर्थात् बकरा-बकरी पाडा-पाडी आदिको उल्लंधिया लांघ करके, वा अथवा विउहित्ताण-हाथ आदिसे हटाकर संजए साधु कोहएकोठे-घर में न पविसे प्रवेश नहीं करे ॥२२॥ ___टीका-'एलगं' इत्यादि । संयता मिक्षुः, एडकंगड्ढकं, दारकम् अर्भकम् श्वान कुक्कुर, वत्सकं-गोशिशुं वा, अपिशब्दादजामहिष्यादिशिशुग्रहणम्, उल्ल. ध्य अतिक्रम्य व्यूह्य-अपोह्य हस्तादिनाऽपसार्येत्यर्थः, कोष्ठके न प्रविशेत् ॥२२॥ मूलम्-असंसत्तं पलोइज्जा, नाइदूरावलोयए ।
उप्फुल्लं न विणिज्झाए, नियहिज्ज अयंपिरो ॥२३॥ छाया-असंसक्तं प्रलोकेत, नातिदरमवलोकेत ।
उत्फुल्लं न विनिायेत् निवर्तताऽजल्पन् ॥२३॥ सान्वयार्थः-असंसत्तं आसक्तिरहित होकर पलोइज्जा-देखे अर्थात् रागादिपूर्वक किसीको न देखे, नाइदूरावलोयए अत्यन्त दूर दृष्टि डालकर-लम्वी दृष्टिसे न देखे तथा उप्फुलं आँखें फाड़-फाडकर अथवा मुसकराता हुआ टकटकी लगाकर नविणिज्झाए नहीं देखे, (भिक्षाकी प्राप्ति न हो तो) अथपिरो कुछभी नहीं वोलता हुआ अर्थात् वडवडाहट नहीं करता हुआ वहांसे नियटिज्ज वापस लौट जावे ॥२३॥
टीका-'असंसत्' इत्यादि। असंसक्तम् आसक्तिरहितं यथास्यात्तथा
'एलगं०' इत्यादि । भेड़ तथा बकरा, बालक, कुत्ता, बछड़ा तथा पाडा-पाडी आदिका उल्लंघन करके, अथवा उनको हाथ आदिसे हटाकर साधु कोठे आदिमें प्रवेश न करे ॥२२॥
' असंसतं.' इत्यादि । आसक्त होकर रागादिपूर्वक किसीका एलगं०त्यादि. ३२ तथा ५४३, १४, इत३, पाछा तथा पा-पाडी मान ઓળંગીને અથવા તેને હાથ આદિથી હઠાવીને સાધુ ઓરડામાં પ્રવેશ ન કરે (૨૨)
असंसत्तं. त्याहि मासरत छन समापि न मानन - ४२९.