Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अध्ययन ४ सु. १८ (४) वायुकाययतना.
२८३ ननेन वा तालन्तेन वा पत्रेण वा पत्रभङ्गेन वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पिहुनेन वा पिहुनहस्तेन वा चैलेन वा चैलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा, आत्मनो वा कार्य बाह्यं वापि पुद्गलं न फूत्कुर्यात् , न वीजयेत् , अन्येन न फूलकारयेन वीजयेद्, अन्यं फूत्कुर्वन्तं वा वीजयन्तं वा न समनुजानीयात्। यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि॥४॥१८॥
(४) वायुकाययतना. सान्वयार्थः--संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वासाधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संधमें स्थित सुत्ते वा-सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहाँ से वह सिएण वाचामरसे, विहुणेणवा-पंखेसे, तालिअंटेण वा-ताडके पंखेसे, पत्तेण वा-पत्तेसे, पत्तभंगेण वा-बहुतसे पत्तोंसे, साहाए वा शाखा-डाली-से, साहाभंगेण वाशाखाके खण्डसे, पिहुणेण वा-मोरपीछीसे, पिहुणहत्थेण वा मोरपीछियोंके समूहसे, चेलेण वा-कपडेसे, चेलकण्णेणवा-कपडेके छोर-पल्ले-से, हत्थेण वा हाथसे, मुहेणवा-मुखसे, अप्पणो वा अपने कार्य-शरीरको, वा अथवा बाहिरं वि पुग्गलं बाहरी पुद्गलोंको भी न फुमेज्जाफूंकन मारे,न वीएज्जा चवर आदिसे हवा न करे, अन्नं-दूसरेसे न फुमावेजा-फूंक न मारावे, न वीआवेज्जा हवा न करावे, फुमंतं वा-फूंकनेवाले बीअंतं वा-हवा करनेवाले
अन्नं दूसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे। जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको)तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए वचनसे काएणं कायसे न करेमिन्न करूँगा,न कारवेमिन्न कराऊँगा, करतंपि-करते हुएभी अनं-दूसरेको न समणुजाणामि भला नहीं समझूगा। भंते! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामिपृथक् होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि%3D त्यागता हूँ ॥४॥१८॥