Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीदशवेकालिकसूत्रे
'सुखास्वादकस्ये' - त्यनेन सम्प्राप्तमनोज्ञशब्दादिविषयकाऽऽसक्तिर्निराकृता । 'शाताकुलकस्ये' त्यनेनाऽप्राप्तमुखव्याक्षिप्तिर्निरस्ता । 'निकामशायिनः" इत्यनेन च प्रमादनिवृत्तिः सूचिता । ' उत्क्षालनामधौतस्ये ' - त्यनेन च ब्रह्मचर्यरक्षार्थी विभूषाऽपाकृता ||२६||
एवं तर्हि कस्य मुक्तिः सुलभा ? इति जिज्ञासायामाह - 'तवोगुण०' इत्यादि ।
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मूलम्-तबोगुणपहाणस्स, उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स ।
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परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ २७ ॥ छाया - तपोगुणप्रधानस्य, ऋजुमतेः क्षान्तिसंयमरतस्य । परीपहान् जयतः, सुलभा सुगविस्तादृशकस्य ||२७||
सान्वया:- तवोगुणपहाणस्स = तपरूपी गुणों को मुख्य समझनेवाले उज्जुमह = सरल बुद्धिवाले खंति संजमरयस्स = क्षान्ति और संयममें लीन परीसहे =परीपोंको जिणंतस्स = जीतनेवाले तारिसगस्स = ऐसे ( श्रमणोंको) सुगई =सुगति सुलहा=मुलभ है ||२७|
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सुहसागरस' पदसे यह सूचित किया है कि साधुको प्राप्त शब्दादि विषयोंमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। 'साया उलगस्स ' पदसे अप्राप्त विषयसुखोंके लिए आकुल नहीं होना चाहिए, ऐसा सूचित किया है। 'निगमसाइस्स' पदसे प्रमादका परित्याग करना प्रदर्शित किया है। 'उच्छोलणापहोयस्स' पदसे ब्रह्मचर्यके संरक्षण के लिए शरीरको विभूषित करनेका निषेध किया गया है ||२६||
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यदि ऐसा है तो सुगति किसके लिए सुलभ होती है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं-' तवोगुणपाणस्स ' इत्यादि ।
મુદસયસ શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુએ પ્રાપ્ત શબ્દાદિ વિષયમાં આસક્તિ રાખવી न लेखे, सायाउलगस्स राष्टथी सास विषयाने माटे आग न यवु लेागो मे सूचित छे. निगामसाइस्स राष्टथी प्रभावना परित्याग श्वानुं प्रदर्शित इयु छे उच्छोलणापરોયસ શબ્દથી બ્રહ્મચર્યના રક્ષણને માટે શરીરને વિભૂષિત કરવાને નિષેધ કરवामां आव्यो छे (२६)
જો એમ છે તે સુતિ કેને માટે સુલભ હાય છે? એવી જિજ્ઞાસા થત छे- तत्रोगुणपढाणस्स त्याहि