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अध्ययन ४ सू. १२ (५)-परिग्रहविरमणव्रतम् थूलंवा स्थूल मोटा चित्तमंतंवा-सचेतन अचित्तमंतंचा अचेतन परिग्गहपरिग्रहको सयं-स्वयंनेव-नहीं परिगिहिजा ग्रहण करेगा, नेवन्नेहि न दूसरोंसे परिग्गहं-परिग्रहको परिगिहाविज्जा ग्रहण कराऊँगा, परिग्गहं-परिग्रहको परिगिण्हंतेविग्रहण करनेवालेभी अन्ने-दूसरोंको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं जानेगा। जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहंकृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेण-मनसे वायाएवचनसे काएणं कायसे न करेमि-न करूँगा,न कारवेमि=न कराऊँगा,करंतंपिकरते हुएभी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा। भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक् होता हूं, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि शुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ। भंते ! हे भगवन् ! पंचमे पांचवें महन्वए-महाव्रतमें उवडिओमि-उपस्थित होता हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ=3 सब परिग्गहाओ=परिग्रहसे वेरमणं-विरमण-त्याग है ॥१२॥ (५) ...
(५) परिग्रहविरमणव्रतम् । टीका--हे भगवन् ! अथापरे पञ्चमे महात्रते परिग्रहात्-परि-सर्वतोभावेन. गृह्यते जन्मजरामरणादिजनितदुःखैर्वेष्टचते आत्माऽनेनेति, यद्वा परिगृह्यते-समूछे स्वीक्रियते इति परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति वचनात् , धर्मोपकरणभिन्न
(५)-परिग्रहविरमण. हे भगवन् ! चतुर्थ महाव्रतके पश्चात् पाँचवें महाव्रतमें परिग्रहका पूर्ण प्रत्याख्यान किया जाता है। जिससे आत्माजन्म-जरा-मरण-आदिः जनित नाना दुःखोंसे गृहीत होता है, अथवा जो मूच्छी-पूर्वक स्वीकार किया जाता है वहं परिग्रह कहलाता है, क्योंकि भगवानने मूर्छाको ही परिग्रह बतलाया है। अतएव तीन करण तीन योगसे ग्राम नगर आदिमें
(4) परिग्रहविरमा . હે ભગવન્! ચતુર્થ મહાવ્રતની પછી પાંચમા મહાવ્રતમાં પરિગ્રહના પૂર્ણ પ્રત્યાખ્યાન કરવામા આવે છે જેથી આત્મા જન્મ-જરા-મરણદિજનિત નાના પ્રકારના દુખેથી ગ્રસ્ત થાય છે અથવા જે મૂરછ પૂર્વક સ્વીકારવામાં આવે છે તે પરિગ્રહ કહેવાય છે, કારણ કે ભગવાને મૂરછીને જ પરિગ્રહરૂપ બતાવી છે તેથી કરીને ત્રણ કરણ ત્રણ ગે ગ્રામ નગર આદિમાં ન સ્વય પરિગ્રહ ધારણ