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उड़ जा रे पंछी महाविदेहमें
धरणेन्दसागर
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प. पू. आचार्यदेव श्री श्री १००८ मद्विजय वल्लभसूरीश्वरजी महाराज साहेब के समुदाय के प. पू. विदुषी सा.
श्री कल्याणश्रीजी म. सा. की सुशिष्या
जन्म
दीक्षा
वि.सं. १९८०
१९९५ जोधपुर
जोधपुर
बडी दीक्षा
स्वर्गवास
वि सं. २०००
२०३५
वरकाणातीर्थ
जोधपुर
शान्त स्वभावी प.पू. श्री सम्पतश्रीजी म. स.
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उड जा रे पंछी महाविदेह मै
संग्राहक धरणेन्द्र
halal
Gusa
प्रेरक संपत्श्रीजी की प्रेरणा से बखारोंकी धर्मशाळा, जोधपुर
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प्रारब्धम्-समाप्तम्
लेखक के स्वाधीन
प्रेरक : संपत्श्रीजी
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वीराब्दाः विक्रम संवत्सरम् ख्रिस्तिसन्
२५०५
२०३५
१९७९
T
बखारोंकीं धर्मशाळा, जोधपुर (राजस्थान )
मुद्रक : के. भीखालाल भावसार
प्रतयः - एकसहस्रः...
प्रकाशयिति : श्रीसीमंधरस्वामि जिन मंदिर खातु, नेशनल हाईवे रोड, महेसाणा
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श्री स्वामिनारायण मुद्रण मंदिर ४६, भावसार सोसायटी, नया वाडज, अहमदावाद - १६.
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मूल्यममूल्यम्
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अप्राप्तनी प्राप्ति काजे
मोर मेह रवि कमळ जिम,
चंद्र चकोर हसंत; तिम दूरेथी अम मनह,
तुम समरण विकसंत' मनमंदिर मोरे आवीए.......
ओ माग हैयान। हार । प्राणाधार ! त्रिभुवनबंधु ! करुणासिन्धु ! पनोता परमेश्वर ! पधारो पधारो, आप आ दासना मनमंदिरमां पधारो. आप सत्वरे पधारो. ओ परमकृपाळु : अमारी आ एक अरज अवधारो, आप अमारा मनमंदिरमा पधारो.
ओ अतिशयता अरिहत ! आप सत्वरे अमारा मनमंदिरमां पगलीयां करी एने पावन करवा कृपा करो.
ओ भुवनगुरु भगवंत ! शुं आ दासनी आटली पण अरज उर नहि धराय ? मान्य नहि थाय !
अमाप्तनी प्राप्ति काजे मनुष्य युगना उगम काळ थी प्रयत्नशील रह्यो छे, अने रहेवानो छे. ए दुर्लभने सुलभ करवा मागे छे अने अलभ्यने लभ्य करवा मांगे छे.
____ अप्राप्त पदार्थ बे प्रकारमा होई शके : एक तो आत्माने उपयोगी उपकारक अने बीजा आत्माने अनुपयोगी (संसारने उपयोगी) आत्माने उपयोगी तत्त्वो आम तो एक नहीं अनेक छे, पण सर्वमां शिरोमणि छे 'परमात्मा'.
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आत्माने उपयोगी तत्त्वोमां परमात्मतत्त्वनी जे प्रधानता छे, ते बीजा कोईनी होई शके नहीं. शुं कहो छो ? हां... हां... आ एक नक्कर सत्य हकीकत छे. जुओने परम + आत्मा = परमात्मा. आम परमात्मा शब्द आवात सूचित थई जाय छे, केम के आत्मा उपरथी ज ए शब्द बनाववामां आव्यो छे. वास्तवमां तो परमात्म दशावाळो आत्मा ज 'आत्मा' शब्दने लायक छे ते विमानो आत्मा ए 'आत्मा' शब्दने लायक गणी शकाय नहीं, तेम छतां मेघमाळाथी आच्छादित ( ढंकायेलो) एवो सूर्य, मेघमाळाना रसाळानी विदाय पछीना समयनी अपेक्षाओ जेम सूर्य कद्देवाय छे अथवा तो माटीमा मळेलं पण सुवर्ण शुद्ध सुवर्ण थवानी अपेक्षाओ जेम सुवर्ण कद्देवाय छे. तेवी ज रीते आत्मा पण भविष्यमा प्राप्त थनारी (परोक्ष मटो प्रत्यक्ष थनारी) परमात्म दशानी अपेक्षाने लक्ष्यमां राखीने आत्मा कहेवाय छे– 'आत्मा' शब्दने लायक गणाय छे.
आत्मा से प्रकाशना एक नानकडा किरण बराबर हो, परमात्मदशा ए अफाट प्रकाशनों पुंज छे. परमात्म दशा अज आत्मानुं रहस्य छेतत्त्व छे- अनुं सर्वस्व छे, चंद्रने जोतां ज जेम सागरनां नीर उछाळा मारे छे ते ज रीते परमात्मानां (बिंबनां ) दर्शन थतां ज आत्मा पागल बनीने नाची ऊठवो जोईए, केम के जेस चंद्रनी उत्पत्तिनो सागर साथै संबंध मनाय छे, तेम परमात्मदशाने । पण आत्मानी जोडे संबंध छे ते संबंध अवो तो गाढ छे, के जाणे क्षीर-नीर अने दूध-साकर के पछी
तेथीय वधारे.
महाराजना
"आतम परमातम पद पावे, जो परमातम शुं लय लावे" चिदानंदजी आ शब्दो ले, पण अ परमात्मा वसे छे क्यां नामस्थापना द्रव्यनिक्षेपाओथी तो ए परमात्मा अहीं आपणा भरत क्षेत्रमां मळे पण भावनिक्षेपोवाळा अरिहंत परमात्मानो साक्षात्कार तो 'महाविदेहनी' मुसाफरी विना हालमां कयांय शक्य ज नथी.
त्रण निक्षेपा ( भेदो) तो भावनिक्षेपो तो अहीं सर्वथा
भरतनी भूमि पर प्राप्त थाय पण चतुर्थ अत्राप्त छे अने एनी जे उपकारकता छे
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ते चारेय निक्षेपाओमां खरेखर उत्कृष्ट कोटीनी छे, माटे ज अप्राप्त परमतत्वनी प्राप्ति काजे भरतक्षेत्रनो भाविक भक्त घणी वार तलपापड बनतो होय छे.
पण ए 'अप्राप्त' तो बीजी वार 'अप्राप्त'मां रहेलु छे, केमके अप्राप्त छे 'साक्षान् अरिहंत परमात्मा' अने ए पाछा वसे छे अप्राप्त एवा महाविदेहनी मांह्य महाविदेह छे अत्यंत दूर, एवी मुसाफरी छे जोखमोथी भरपूर पण भक्त तो बनेलो छे भगवंतना विरहमां चकचूर. सतीशिरोमणि सत्यकीना नंदनने ए नयणे निहाळी भले न शके पण अना मनमंदिरमां पधारवा तेडु शाने न आपी शके.
ओ सत्यकी राणीना नंद ! अमारा मनमंदिरमा अक वार पधारी आप अमने आपो आनंद. ओ राजवी शिरोमणि श्री श्रेयांस महाराजाना कुल गगनमां चांद समान ! मनमंदिरमां पधारतां अमे आपनुं करीशु अनेरु बहुमान. आप तो मान-अपमानथी रहित छो, पण ओ देवाधिदेव स्वामिसीमंधर ! छतां अमे तो अमारा भावना झराने ए रीते सफळ करशुं ज खरेखर......"
अमारा देशमां आपना जेवा ज्ञानी-केवलज्ञानीओनो विरह छे हडहडतो, अमने अमारी मुशीबतोमांथी माग नथी ज जडतो. जुओ : आ सेवकनो चहेरो छे रडतो, अने आप केम अम राखो छो रडतो ?"
"मेरुगिरि लेखिणी आभ कागळ करूं, क्षीर सागर तणां दूध खडिया भीं; तुम्ह मिळवातणा स्वामी ! संदेशडा, इंद्र पण लिखीय न शके अछे एवडा......"
बीजा विहरमाण विश्वाधार विभुओ आपनाथीय आगळ छे, भक्त तो 'सीमन्धर' मां पागल छे. "दया करो देव ! मारी स्वीकारोने सेव..."
भक्तने तो प्रभुनु 'नयन प्रत्यक्ष'-साक्षात् दर्शन जोई छे, जाणे के, पोते भरतक्षेत्रने विकराळ पचभकाळनो, बाह्य अने अभ्यंतर उभय रीते
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अक अतिवामन स्वरूपवाळो मानवी होवा छतां महाविदेहना वतनी महिमावता ५०० धनुष प्रमाण कायावाळा अत्यन्त विराट स्वरूपी परमतारक परमात्मा सीमन्धरस्वामीना चरणांभोजने, पोताना श्रावण भादरवाना वरसादने याद करावतां, परम हर्षना अश्रुओथी झरतां लोचनोथी साक्षात् नवडावतो न होय ? पण से परिस्थिति प्रगट थाय एना पहेला, अना मनभां से प्रभुनु 'मानस प्रत्यक्ष' कोई अजब-गजबनु एवं थाय छे के न पूछो वात.
मारा मनभां सोमन्धर, मारा तनमां सीमन्धर, मारा वचनमां सीमन्धर, मारी मतिमां सीमन्धर, मारा भोजनमां सीमन्धर, मारा पानभां सोमन्धर, मने बधे ज देखाय सीमन्धर, मने बोजुक्यांय कशुज न देखाय सिवाय एक सीमन्धर. आकाशमांय सीमन्धर अने अवनीमांय सीमन्धर ऊ'घतां य सीमन्धर अने जागतां य सीमन्धर शब्दमा य सीमन्धर अने शून्यमा य सीमन्धर जडमांय सीमन्धर अने चेतनमां य सीमन्धर प्रतिमामां सोमन्धर अने व्यक्ति व्यक्तिमा य सीमन्धर सोमन्धरना भक्तमांय सोमन्धर, यावत् सीमन्धरना भक्तना भक्तमा य सोभन्धर मारा हृदयना धबकारे धबकारमा सीमन्धर अने नाडीना झंकारे झंकारमा य सीमन्धर, बस बधे एक सीमन्धर ज सीमन्धर 'सीमन्धर'नो चाले छे अजपा जाप, एमां खपी जाय वधा पाप अने चाल्या जाय सघळा संताप....
अवन्तिना राजकुमार का मगजेन्द्रने प्रेरणा अने प्रकाश आपनार ए प्रभु पोते भले ज 'सीमन्धर' (सीम = मर्यादा तेने धारण करे ते) होय,
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पण एमना दासर्नु उपरोक्त रटण तो पछी अ-सीमन्धर (अमर्याद) ज होय. त्यार बाद एनोय जो काभगजेन्द्रादिनी जेम कोई महाभाग्यनो योग होय. तो ए महामोंघा प्रभुनो साक्षात्कार पण थाय.
आपणे पण काई अवा महाभाग्यशाळी कोई दि थई शकी से खरा ? ही.. ही...ही...केवु हस आवे तेवी आ वात छे ? छे ने ? क्यां आपणा जेवा परम पामरो अने कयां से परमेश्वर अने तेभनु मिलन महाविदेहना महेमान शे थई शकाय ? न जई शकाय आकाशमागे के न जई शकाय अवनीमार्गे, पूर्व महर्षिओए से ज वातने एमनां काव्योमा खूब ललकारी छे हो...आ रह्यां ते काव्या"हुँ तो भरतने छेडले, प्रभुजी कई विदेह मोझार हो मुणिंद डुंगर वच्चे दरिया घणा, कांई कोश तो कांई हजार हो मुणिंद
श्री सीमन्धर साहिबा...”
-वाचक रामविजयजी "दुर्गम म्होटा डुंगरा म्हारा व्हालाजी, नदी नाळानो नहि पार जईने कहेजो म्हारा व्हालाजी; घांटीनी आंटी घणी म्हारा व्हालाजी, अटवी पंथ अपार जईने कहेजो म्हारा व्हालाजी."
-वाचक उदयरत्नजी " महाविदेहे रे स्वामी तुमे वसो, पांख नहि मुज पास, किण पेरे आवी पाप आलोई ! मनमा रह्यो विमास"
-अज्ञातकतृक "साहेब सुखदुःखनी वातो म्हारे अति घणी, साहेब कोण आगळ कहु नाथ ? साहेब केवलज्ञानी प्रभु जो मळे, साहेब तो थाउ हु रे सनाथ...एक वार मळोने मारा साहिबा.
-आ. श्री. ज्ञानविमळसूरिजी
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आवी विकट परिस्थितिने ध्यानमा लइ घणा भक्तवर्यो तोरजनीना राजा श्री चंद्र जोडे ज पोताना प्राणाधार प्रभुने प्रेमभर्यो संदेशो पाठव्यो :
"कहेजो वंदन जाय दधिसुत ! कहेजो, महाविदेहमा स्वामी मेरो जय जय त्रिभुवनराय दधिसुत."
-न्यायसागरजी "सणो चंदाजी ! सीमन्धर परमातम पासे जाजो, मुज विनतडी, प्रेम धरीने अणी पेरे तुम संभळावजो."
-श्री पद्मविजयजी "चंद्र देवता ! एक हमारी अरज चितमे घरनाजी, मीमंधर जिनबरको वंदन खूब विदित तुम करनाजी' ।
(लेखक पोते) आम छतां चंद्रदेवता प्रभुने प्रेमभर्यो संदेशो पाठवे एनी खातरी शी? अटले केटलाक भक्तोमे तो प्रभु साक्षात न मळे तो कांई नहि पण सर्व रीते तेमना अर्थ शणगारेला पोताना मनमंदिर मां तो अवश्य पधारवा विनंती करी.
"मनमंदिर मोरे आवीए, श्री सीमंधर भगवंत रे, करुणाकर ठाकुर माहरा, भयभंजन तु भगवंत रे
मनमंदिर मोरे आवीए."
-नयविमळजी पण मेक भक्तकवि तो एमनाथीय चार डगला आगळ वधो गया अने खुद प्रभुने साक्षात् भरतक्षेत्रमा ज पधारी जवा तेमज तेओश्री अहीं पधारता पोताने सर्वसंगनो त्याग करी ए 'सत्यकी सुत' स्वामीना चरणकमळमां सर्वविरति चारित्र लेवानु पण विनंतिना रूपमा जणाव्यु .
"श्री सीमंधर जग घणी, आ भरते आवो; करुणावंत करुणो करी अमने वंदावो."
-कविवर्य श्री भाण
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वृषभलंछनधारी श्रीयुत् सीमंधरस्वामिजो भरतवासीओनां मात्र वंदनीय ज छे अम नहीं, दूरथी दूर रह्या होवा छतां अनंतानत उपकारी पण छो केम के श्री रायपसेणी, श्री औपपातिक, श्रीज्ञातांधर्मक्था तेम ज श्री उपासकदशांग इत्यादि कैक आगमोनी वाणी प्रमाणे अनेकानेक भव्य आत्माओ के जेमणे जन्मग्रहण तेमज अद्वितीय आराधना भरतक्षेत्रमा करी छे छतां तेओ मुक्तिपुरीनी भहेमानगोरी तो मे महादिदेहना वासी श्री सीमन्धर साहेबान। चरणकमळमां साक्षात् भ्रमर बन्या पछी ज पाम्या या पामवाना छे.
आवा अनंतानत उपकारी उक्त अप्राप्त प्रभुने प्राप्त करवाना कोड कोने न जागे ! पण अमने प्राप्त करवानी कोरी वातोथी तो वखत जाय. कांई अंतरनी इच्छा पूरी न ज थाय. तो पछी अतरनी इच्छा पूरी थाय शी रीते ? अना माटे तो उत्कट साधना अने आराधना जोईओ, अनन्य भक्ति जोईए. अनन्य भक्ति करतां शक्ति-अशक्तिनी वातो वेगथी छोडी देवी जोइए. अनन्य भक्ति केरो विधि श्री लक्ष्मीसूरीश्वरजी महाराजे श्री सीमंधर स्वामीना चैत्यवंदनमा जणाव्यो छे (जे आ ज पुस्तकमां अन्यत्र आपेल छे) जरूर पड़े तो अनाथी पण आगळ बेघडकपणे वधवु जोईए, शु आपणने कोईने पण ओवी झंखना जागती नथी के एक वार पण मे देवाधिदेव परमतारक परमात्मा भावजिनेश्वरने प्रत्यक्ष रूपमा भेटीओ नहि के परोक्ष रूपे.
श्री सीमन्धरस्वामी भगवंतने प्रगटपणे भेटवाना कामने आपणे बधा जेटलु कपलं मानीए छीमे तेटलु ते नथी ए एक नकर सत्य हकीकत छे. अथवा तो तेटलु कपर होय तोय भले पण तो पछी ते बधाना माटे नहि, परंतु प्रमादग्रस्त, विलासग्रस्त भयग्रस्त, निःसत्त्वताग्रस्त जीवोने माटे छे. जेमनामां सावधानी, विलासितानो अभाव, सात्त्विकतानो
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सद्भाव, भनमां अजब श्रद्धा तेमज तनमां गजब पुरुषार्थ होय तेमना माटे ते अथवा अन्य पण तेवु काम कोई काळे कपरु थई शके नहीं. सेनां प्रमाणो तो एटलां बधां छे के जे गण्यां गणाय नहीं, वीण्यां वीणाय नहीं तोय विश्वना सग्रहालयमा समाय छे.
गमे तेम हो ए परमप्रभुनी प्रगट प्राप्ति भले जरा आगळनी वात होय तो पण अहीं रह्यां रह्यां आपनी अनन्यभक्ति करी शकाय छे, ते कोईनाथी नकारी शकाय तेम नथी. पहेला 'मन मंदिर'ने अपूर्व रीते दयाक्षमा-भक्ति-प्रीति-मैत्री-मृदुता इत्यादि गुणरूप रंगबेरंगी रंगो तेम ज चित्रविचित्र चित्रोथी आबेहूब शणगारीने त्रिभुवननाथ श्री प्रभु सीमंधर स्वामीजीने त्यां पधारवा भावभर्य आमंत्रण नहि, निमंत्रण आपीए. भावनानी पींछीथी हृदयपट पर प्रभुनी नयनरम्य छवीने उपसावी तेमनी अनुपम उपासना करीए. १०० कोड एटले १ अबज जेटली विराट संख्यानो जे मना साधु भगवंतोनो परिवार छे, तेटली ज संख्यामां जेमां साध्वीजी. ओनो परिवार छे १० लाख जेटला केवळी भगवंतोनो परिवार शोभा. यात्राने वधु शोभाय राखे छे. यावत संख्यातीत (असंख्य) श्रावक श्राविकाओ जेमगा शासनने वफादार रहीने स्वजन्मने सार्थक करी रहया छे ते पुडरीकिणीपुरीना पति श्रीसीमन्धरस्वामिजी जयवंता वर्तो.
पुक्लावती विजयमां जे विजय वर्तावे छे ते विश्ववंद्य विभु सीमन्धर छे, बीजी पण विजयोमा विजय वर्तावतां विश्ववंद्य विहरमाण विभुओ पण सीमन्धर छे. श्रीयांस महाराजाना जे लाडकवाया छे ते स्वामि सीमन्धर छे. नाभि आदि महाराजा आना जेओ लाडकवाया छे तेओ पण स्वामि सीमन्धर छे. महासती सत्यकीजीना जे जयनदीपक छे ते स्वामि सीमन्धर छे, महासती त्रिशलाजी आदिना जेओ नयनदीपक छे तेओ पण बधा स्वामिसीमन्धर छे.-आम व्यापक दृष्टिथी ध्यानसृष्टि थतां तेमज 'सविजीव करू शासन रसी'ना परिणाम प्रगटतां ध्याता पोते पण सीमंधर बनी शके छे. दूर-सुदूर रहीने अनन्य भक्तिपूर्वक श्री सीमन्धरजीने जेओ भजे छे
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तेओ आ भवमां नहीं, तो आगामी भवमां पण श्री सीमन्धरश्रीने प्रगटपणे भेटी शके छे. अनुभवीओनां वेण छे के द्रव्य-भाव बन्नेनी अपेक्षित अनन्य भक्तिनो संयोग सधातां आ क्षेत्र अने आ काळमां पण वहाला सीमन्घरजीनुं समवसरण सहित स्वप्नदर्शन तो सुपेरे थई शके छे.
आवी ज कोई अनन्यभक्ति द्वारा अप्राप्तनी प्राप्ति काजे तरफडत प. पू. आ भगवंत श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजीना सुप्रयासनी आ एक पुनरावृत्ति छे. "श्री सीमन्धरस्वामी स्तवनादि समुच्चय" श्री सत्यकीनंदन विभुविषयक प्राचीन- अर्वाचीन प्राप्य - अप्राप्य जेटलं पण साहित्य मळे ते एकत्र करी स्व-परना परम कल्याणमां कारणभूत थवानी तेओश्रीनी मैत्रीभावना आ प्रकाशनमां दिव्यदर्शन थाय छे. पूज्यश्रीए पत्रमां जणान्यु हतु के " जेम बने तेम परमतारकश्रीना अनन्तानन्त गुणो तथा ऊपकारोनुं तादृश चित्र प्रस्तावनामाँ खड्ड थाय ते रीते लखवानुं लक्ष्यमां देशो." पण आ पामर जीवनी एवी तो शक्ति क्यांथी होय के जेथी तथा प्रकारनु' ' तादृशचित्र' खडुं करवामां तेने सफळता सांपडे ! तेस छतां ते दिशामा यत्किंचित करवा आ एक निष्फळ प्रयास कर्यो छे, ए दृष्टिए के आचार्य भगवंतने कदाच कंईक पण संतोषनी प्राप्ति आ शब्दोनी हारमाळाथी थाय.
अहा ... भक्तिनी शक्तिनी बधानी आगळ कई रीते पण करवी अभिव्यक्ति ? 'महेसाणामां स्वामी सीमन्थर' शब्दोथी 'सकलतीर्थवंदना' स्तवनमा जेनी नांध लेवाई छे ते विराटकाय अने समग्र एशिया खंडमां अजोड एवं 'श्री सीमन्धरस्वामी जिनमंदिर' बहारनी दुनियाने भले आरसपाणना एक पिंडरूपे जणाय, पण वास्तवमां तो मे पूज्यश्रीना हृदय हिमालयमांथी खळ खळ खळ करती भने कोई सीमंधर महासागरनी दिशामा अविरत वहेती भक्ति गंगाना प्रगाढ फेणाना पिंड भावनानो कोई जीवंत झरो होय अम ज भावुकोने मन भासे छे 'त्यारे सीमन्धर शोभा तरंग' (सीमन्धरस्वामिजीनो महिमा दर्शावतो एक सार्थ प्राचीन गुजराती
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रससभर रास)नु प्रकाशन पण ए भक्तिरक्त हैया प्रत्ये अत्यंत अनुमोदना जगाच्या विना रहेतु नथी.
जेम कळा ए कलानिधि (चंद्र)नी तेमज प्रभा ए प्रभाकर(सूर्य)नी शोभा छे तेम प्रस्तावना ए ग्रंथनी शोभा छे. सदर ग्रंथमां एकला श्री स्वामी संबंधी ज विपुल साहित्य छे जमां सवा सो गाथाना अने साडा त्रणसो गाथानां गजबनाक स्तवनो तेमज 'श्रीशोभातरंग आदि महत्त्वनां छे. उपरांत २० विरहमाण जिननी पूजाओ तेमज स्तवना, श्रीशीलरत्न सूरीश्वरजीकृत चमत्कारपूर्ण रचनावाळी संस्कृत चेत्यवंदन चोविशी, नवपदजीनां चैत्यवंदनो यावत् विमळाचळजी अने वर्तमान चोविशीना बधा भगवंतोनां स्तवना पण साथे आपीने आ ग्रंथने खूब ज उपयोगी बनाववामां आव्यो छे.
__आजकाल नवसर्जन(?)ना नवां नवां पुस्तको थोकबंध भावमा बहार पडे छे त्यारे पूर्वाचार्योनेा आवा प्राचीन अने बहुमूल्य साहित्यने ओकत्र करी प्रकाशित करवानी मंद जेबी जणाती प्रवृत्ति माटे अंतरमा अहोभाव जागृत थया वगर रहेतो नथी. विशेष करीने प्राचीन धुरंधर जैनाचार्यो रचित संस्कृत-प्राकृतिक दुर्गम साहित्य (के जेमांनु केटलुक ता जीणप्राय अवस्थामां छे) प्रगट करवानी खास जरूरियात छे आटलुं सामयिक सूचन अस्थाने गणाशे नहीं.
प्रान्ते प्रस्तुत ग्रन्थ सौने अप्राप्त (परमात्मा अने परमपदनी) प्राप्तिकाजे खूब खूब उपयोगी निवडो एवी मंगलकामना सेवी विरमु छ.
"जाणतां के अजाणतां, जे जिनवचन विरुद्ध कडं कांई तेनो हजो, 'मिच्छामि दुक्कडं' शुद्ध"
-आ.दे. श्री महेन्द्ररिश्वर चरणांभोज भृग श्री सिद्धाचल शणगार जैन ट्रंक घंटीपाग मुनि मणिप्रभविजय (रत्नपुंज) प्रतिष्ठा दिन (स. २०३४ फागण तखतगढ, मंगल भुवन, पालीताणा सुद ४ ने रविवार)
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श्री वीर संवत २४९८ ना द्वितीय वैशाख सुदि ६ ने गुरुवारे शुभ मुहते परम पूज्यपाद आचार्यदेव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज. श्रीना शुभ सानिध्यमां महेसाणा नगरे श्री पुंडरी किणी महानगरीमा अनन्तानन्त परमतारक देवाधिदेव श्री सीमन्धरस्वामिना आत्मानी अजनशलाका प्रतिष्ठाना पुण्य प्रसंगे--
सकारादि सकारप्रारम्भक स्तुतिचक्र सद्भावे समरो सदा, श्री सोमंघर सुनाथ स्वर्ण शरीरे शोभता, शिवपुरनो संगाथ, सर्वसत्त्व सुंहकरू, शासन स्थापे जिनराज मयोगीना स्थानके, शासनना शिरताज. (१) सद्गुण सिन्धु सेवीए, शुचि सर्वांग शरीर. मागरवर समता तणा, स्वर्णाचल समधीर शशिकरवत् सुशीतल सूर्य समान सतेज शचीपति सुरगण सेवना, सारे सर्व सहेज. (२) श्वास सुगंधित स्वामिनो, ससुप्रमाण शरीर स्वामिना सुनयनथी, सदा सवे समक्षीर सुखवाणी शुभवदनथी, शमवे, सहु संताप. समवसरणे सांभळे, सर्व समय सावधान. (३) समवसरणे शोभता, सातिशय शुभसोह. सर्वद्याति संहारिया सर्वोतम संजोग. सुप्रतिहारज स्वामिने, सेवे सुरनर नाथ. सकल सत्त्व (विश्व) शिवकरूं समचतुरख संस्थान (४) सत्यकी सुत सोहमणो, श्री श्रेयांस सुजात सांप्रत समये सर्वना, संशय संहरनार सविज्ञाता सविदंसणी स्थापक संघ सल्हाण. रिसागरकैलासजी, शिष्यनु सत्कल्याण. (५)
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दो शब्द
मुनि प्रवर श्री धरणेन्द्र सागरजी महाराज साहब द्वारा संग्रहित "उड जा रे पंछी महाविदेह में" पुस्तक के संबंध में दो शब्द लिखने का निर्देश प्राप्त कर स्वयं को सौभाग्यशाली समझता हूं । मुनि प्रवर ने हिन्दी भाषा में निरंतर प्रातः स्मरणीय श्री सीमन्धरस्वामी की आराधना पर उक्त पुस्तक तैयार कर अक महत्ती आवश्यकता की प्राप्ति की है ।
श्री सीमन्धरस्वामी परमात्मा का जन्म महाविदेहक्षेत्र के पूर्व विदेह प्रदेश में पुष्कलावृत विजय के पुंडरिकगिरि नगर में वर्तमान चौवीसी में सत्रहतें तीर्थंकर श्री कुंक नाथ और अदारहतें श्री अरनाथ के मध्यकाल में हुआ और बीसवे तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत और इक्कीसवे श्री नमीनाथ के मध्यकाळ में दोक्षा हुई । आपके पूज्य पिताश्री मातुश्री व भार्या का क्रमशः श्री श्रेयांसकुमार, सत्यकी, और रुकमणी है !, श्री सीमन्धरस्वामी की शिष्यपरंपरा में चौरासी गणधर, दसलाख केवली, अक सौ करोड साधु, अक सौ करोड साध्वी, और असंख्य श्रावक, श्राविकाओं का विशाल जन-समुदाय हैं ! श्रीसीमन्धरस्वामी की निर्धारित आयु चौरासी लक्ष पूर्व की हैं, अत: उन्हे भावी चौबीसी में तीर्थंकर उदय और पेदाल के काल में मोक्षप्राप्ति हुई ।
आचार्य भगवंत श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी का अभिमत है कि श्रद्धालु आत्म द्वारा श्री सीमन्धरस्वामी की विधिपूर्वक आराधना करने पर उनकी मन स्थिति निर्धारित होती है, ऐसी आत्मा की जन्म महाविदेह क्षेत्र में होने की संभावना रहती है, जहां आठ वर्ष को अल्पायु में चरित्रग्रहण कर मोक्ष मार्ग की आराधना की जाती है ! शास्त्रों के अनुसार जाधुनिक पंचम काल में मोक्षप्राप्ति महाविदेह क्षेत्र में जन्म के बिना
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१३
असंभव है ! अतः श्री सीमन्धरस्वामी की आराधना का महत्त्व हम आसानी से समज सकते है, यही कारण है प्रातः प्रतिकमण में हम चंद्र के माध्यम से प्रतिदिन अपनी विनंती श्री सीमन्धरस्वामी के पास पहुचाते हैं ।
परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री कैलाससागरसूरिजी, श्री कल्याणसागर सूरिजी अव श्री पद्यसागरसूरिजी के शिष्य मुनिराज श्री धरणेन्द्रसागरजी का इस वर्ष का चार्तुमास जोधपुर हो रहा है ! बिद्वान होने के साथ साथ आप अपने महान गुरुओं की परंपरा में अच्छे व्याख्यान कर तथा विषयवस्तु को सरल भाषा में समझाने की कला में निपुण हैं । चातुर्मास हेतु आपके जोधपुर प्रवेश के कुछ दिनों पश्चात् ही वीर संवत २५०५ मिती वैशाख कृजीण १४ तदनुसार दिनांक २५ अग्नैल १९७९ बुधवार को बालब्रह्मचारी पूज्य साध्वी श्री संपत श्री देवलोक हुई । विदुषी साध्वी श्रा संपती चालीस वर्ष से निर्मल चारित्र को आराधना करने वाली शांत मूर्ति थी। जिन्होंने स्व और पर के कल्याण में अपने संपूर्ण जीवन को समर्पित किया था । पवित्र गंगा नदी की भांति उनका उपकार अनेक स्थानों पर रहा परंतु जैसे गंगा का उपकार काशी पर विशेष है । साध्वीका जोधपुर पर विशेष उपकार रहा ।
__ आपकी निश्रा में रातानाडा क्षेत्र में भव्य जिनमंदिर एंव उपाश्रय का निर्माण हुआ जिससे उस क्षेत्र के श्रावक श्राविकाओं को धर्म आराधना करने का अंक सुन्दर केन्द्र प्राप्त हुआ। आप ही के सदुपदेश से शहर के मुख्य कपडा बाजार में प्रथम तीर्थ कर आदीश्वर भगवान का मंदिर निर्मित हुआ तथा लखारा की सड़क पर स्थित पुराने उपाश्रय को नवीन रूप प्राप्त हुवा तथा उपर के क्षेत्र में मंदिर का भी निर्माण हुआ ।
पूज्य मुनिराज श्री धरणेन्द्रसागरजी महाराजसाहेब द्वारा श्री सीमन्धर स्वामी पर संग्रहित उक्त पुस्तिका को पूज्य साध्वीजी का
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स्मारिका स्वरूप प्रकाशित करवाई जा रही है ! और इसी कारण इसका नामकरण "उडजा रे पंछी महाविदेह में रखा गया है ।
अतः शासनदेव से कर वह प्रार्थना है कि दिवंगत साध्वी जी श्री संपतजी को आत्मा महाविदेहक्षेत्र में जल लेकर श्री सीमंधर स्वामी के पास चारित्र ग्रहण कर अनुक्रम से मोक्षमाग की आराधक बनी ।
___ यह भी शुभ कामना है कि पुस्तक का पठन-पाठन करनेवाले श्रद्धालु भविक जीव इसका अधिकाधिक लाभ प्राप्त कर अपने जीवन को कृतार्थ करे ।
अक्षयतृतीया दि० २ अप्रिल, १९७९
प्रो. अमृतलाल गांधी
अध्यक्ष श्री मेरुनाग पार्श्वनाथ जैन तीच
जोधपुर
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घृतमन्त्र:
दीपक प्रगटाववानो मन्त्रः
विषय
अमृत आराधनामां आवश्यक सूचनाओ
कुम्भ स्थापन विधिः
दीपक स्थापन विधिः
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अग्निशुद्विमन्त्रः कुम्भ विसर्जन विधिः
अखंड दीपक विसर्जन विधि
अनुक्रमणिका
आराधनविधिक्रम
श्री सोमन्धर स्वामिजिनस्तुति
बार खमासमणना दुहा मांगलिक काव्यो
चित्यवदनविधि
स्तुति - चैत्यवंदन
चता रिंमंगल- - चत्तारि लोगुतमा
चतारि सरणं एवञ्जामि
श्री जिनेन्द्र स्तुति
आटल तो आपजे
षोडशप्रकाशः
सप्तदशप्रकाशः
श्री सीमन्नधरस्वामि जिन चैत्यवंदन विशति विहरमाळ जिन चैत्यवंदन
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पृष्ठ
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विषय श्री सीमन्धरजिन स्तुतिओ श्री ,, स्तवन विशतिविहरमाळ स्तवन त्रिकाल जिन विंशति जिन ,, सीमन्धरस्वामिनौऽष्टकम् सीमन्धरस्वामि स्तोत्र
, स्तवन विहरमानजिन स्तोत्रम् सोमन्धरस्वाभि लेख-१ ., ढाळ सीमन्घरजिननी पत्र रपे विनती " ढाळ युगमन्धर जिनस्तवन अनंतवीर्य स्वाथिजन विशविहरमान ,, सीमन्घर श्री वृद्धस्तवन सीमन्घर युगन्धर स्तवन , जिनवर विशविरहमान श्री जिन मंदिर स्तोत्र
७९ ७८-७९-८३ ९३-१९१
૧૮૨ १८८-९९९
२००
२०८ २२०
२२२
२२४
२२५
२२
२३२ २३८
نه
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अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पभूत अनन्तानन्त परम-उपकारक, परमतारक, परमकारुणिक, परमसुश्रद्धेय, परमसुगृहीतनामधेय, परम सुभगभागवेय, त्रिकालाबाधिताविच्छिन्नानम्तान्त परमप्रभावशाळी, सकलसमी ह्तपुरक देवाधिदेव श्री सोमन्धरस्वामिजी परमात्माना मंत्रनो १००००० (एक लाख) जाप परमोल्लासितभावे पूर्ण करनारनी भवस्थितिनो निर्णय थाय अथवा महाविदेहक्षेत्रमा जन्म पामी आठमा वर्षे चारित्र अंगीकार करीने नवमा वर्षे केवळज्ञानी बनी शके.
परम पूज्यपाद आचार्यश्री लक्ष्मी पूरीश्वरजीमहाराज अनन्तो. नन्त पस्मतारकोना चैत्यवन्दनमः ए ज वातनो निर्देश करे छे के
आ भरते पण आई जीव, सुलभबोधि जेहः जाप जपे तुज नाभनो, लाख संख्याए तेह. भवस्थिति निर्णय तस हुआ, अथवा ध्यान पसाहे; उपजी विदेह केवळ लहे, नवमें घरस उत्साहे.
अनन्तानन्त परमतारकरीना अनन्तप्रभावे प्रतिबोध पामी देवाधिदेवना तारक सुहस्ते दीक्षित बनेल ८४ गणधर महाराजओ, दशलाख केवळज्ञानि-महाराजाओ अने सो सो कोड पूज्य साध. साधीजी महाराजाओना अति वराट परिवारे विचरी महाविदेहक्षेत्रनी मामिने पावन करी, विश्व उपर अनन्त उपकारने। पुष्करावर्त महामेघ निरन्तर वर्षावी रह्या छे. श्रावक श्राविकानी तो कोई सीमा ज नथी अयो अचिन्त्य अनन्तपरमप्रभाव छे देवाधिदेवनो.
दशलास्त्र केवळी जेहने, सो कोडी मुनिस्वामी; साधवी सो कोडी का, श्रावक संख्या न पाभी
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन्मित्र पूज्य मुनि श्री कर्परविजयजी महाराजना शिष्यरत्न पन्यास श्री ललितविजयजी महाराजे 'कर्पर काव्यकल्लोल'मां अनन्तानन्त परमतारकरीना परमपवित्र श्रीमुखे सम्यक्त्व तेमज सम्यक्त्व पूर्वक व्रतादि ग्रहण करनार श्रावक श्राविकाओनी संख्या नवसो नवसो क्रोडनी छे. ... परम उज्जवलमहामहिमावन्त अनन्तानन्त परमतारका श्रीनु आराधन करता मेघघाराजे सिंचायेल कदंब पुष्पनी जेम साडा त्रण क्रोड रोमराजी विकस्वर बने. असंख्य आत्मा प्रदेशोमां अनन्तानन्त परमतारक क्षीर नीर, दुग्ध शर्करा, पुष्प सुवास, तुषार धवल के चन्द्र चन्द्रिकानी जेम ओतप्रोत बने श्वासोच्छवास अने रोमे रोमथी सीमन्घर ! सीमन्घर / सीमन्धर ! अबो अनाहत महानाद नीकळे, तो ज अनन्तानन्त परमतारकश्रोनु यत्किंचित् आराधन कयु गणाय. परम उत्कटभावे आराघन करतां आत्मा अनन्तपरमतारक तीर्थकर गोत्रनो" पण बन्ध करी शके. अमृन आराधनामां आवश्यक सूचनाओ (1) आरंभ समारंभनो सर्वथा त्याग. अत्युल्लांसत भावे सामूहिक चैत्यवंदन करवु. बार दिवसनां संलग्न आराधनमा शक्य प्रयासे परिमित द्रव्योथी नव दिवस एकासणां करवां, भने अग दिवस उपवास करवा. उपवासनी शक्ति न होय, तो ऋग आयंबिल करवा, आयंबिलनी पण शक्ति न होय, वो बार दिवसना ऐकासणामां(२) लीला शाकभाजी अने फलोनो त्याग. (3) अणिशुद्ध अखंड ब्रह्मचर्य पाळ. (4) विकथान सर्वथा त्याग. For Private And Personal Use Only
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(५) निरंतर अनन्तानन्त परमतारकभी ना ध्याननी मग्नता.
( ६ ) शक्य प्रयासे अनन्तानन्त परमतारकोना मन्त्रनो एक लाख जाप पूर्ण करवो. संयोगवशात् जाप पूर्ण न थयो होय, तो लाख जाप पूर्ण थाय त्यां सुघी प्रतिदिन अल्पात्यल्प पांच जपमाळा गणवो. लाख जाप पूर्ण थया पछी प्रतिदिन अल्पायल्प एक माळा गणवी.
(७) आराधन काळमां जाप माटे प्रतिदिन एक ज स्थान राखवु, एक स्थाननी अनुकूलता न होय, तो बे ऋण नियत स्थान राखवां, (८) प्रथम दिवसे जे शुद्ध श्वेत वस्त्रोथो जाप कर्यो होय, ते ज स्त्री बारे दिवस जाप करवो.
( ९ ) आसन श्वेत राखवु .
(१०) चंदननी स्फटिक अथवा शुद्ध श्वेत सूत्रनी गूंथेली प्रतिष्ठित जपमाळा राखवी
(११) जपनो समय दिवसमां बे ऋण बार नियत राखवो.
(१२) दिवसे पूर्व दिशा समक्ष अने रात्रिए दक्षिण दिशा समक्ष बेसीने आराधना अने जाप करवो. ईशान खूणा समक्ष बेसवानी अनुकूलता होय, तो अहोनिश ईशान खुणा समक्ष बेसीने आराधना अने जाप करवो.
(१३) सानु आसन शुद्ध श्वेत ऊननु राखवु . (१४) आराधना अने जाप माटे अनन्तानन्त परमतारकश्रीना प्रतिमाजी होय, तो ते, न होय तो कोई पण अनन्तानन्त परम तारकओना प्रतिमाजी, अने तेनी पग अनुकूलता न होय, तो अनन्तानन्त परमतारकओना चित्रपटनी अम वार नमस्कार महामन्त्र गणिने स्थापना करवी.
(१५) अन्युल्लसितभावे सामूहिक आराधन कर.
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(१६) बार दिवसना संलग्न आराधनमां नव दिवस प्रासुक जळ,
रोटली, मगनी दाळ, तथा दूध आ चार द्रव्यथी एकासणा करवा अने छेल्ला त्रण दिवस उपवास करवा. जे आराधकथी उपवास न थता होय तेणे छेल्ला त्रण दिवस आयंत्रिल करवा.
अनन्तानन्त परमतारकश्रीनो चित्रपट स्थापन करतां पहेलो भूमिशुद्धि प्रमुखना मन्त्रोथी भूमि अंग वस्त्रादि अभिमन्त्रित करवा.
नमोऽहंत' करीने निम्नलिखित मन्त्र बोलतां दक्षिणा वर्तना क्रमे वासक्षेप करवा पूर्वक भूमि अद्धि करवी. ऐ रीते मन्त्र बोलीने बीजी अने त्रोजी वार वासक्षेपथी भूमिशुद्वि करवी.
भूमिशुद्धिमन्त्र : ॐ भूरसि ! भूतधात्रि सर्वभूतहिते ! भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।। थाळी बगाडवी..
पछी 'नमोऽहत्' कहीने निन्मलिखित मन्त्र बोलतां अंजलिमां सर्व तीर्थानु पवित्र जळ छे ऐवु संकल्पिने मस्तकथी अभिषेक करी पगना तळिया सुघो स्नान करीने पवित्र गर्नु छ', ऐवो संकल्प करवो.
शरीरशुद्ध : ॐ अमले विमले सर्व तीर्थजले पां पां वां यो अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा ।। थाळी वगाडवी.
__ पछी "नमोऽहन" कहीने निम्न लिखित मन्त्र बोलतां वस्त्र उपर हाथ फेरवतां वस्त्रशुद्ध करवी. वखशुद्धिमन्त्रः ॐ क्ष्वों क्यों पां पां वस्त्रशुद्धि करु करु स्वाहा ॥
थाळी वगाडवी .. अनन्तानन्त परमतारक देवाधिदेवथी प्रतिवोघायेल नवसो नवसो क्रोड, परंतु कुळपरम्पराथी चाल्यो आवतो परमाधिक श्रावक भाविकावर्ग अतिविशाळ होवाथी 'श्रावक संख्या न पामी' अने. 'नवसो कार्ड' ए बन्ने उक्तओ युक्तियुक्त सुसंगत छे.
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पछी ' नमोऽईत् ' कहने निम्न लिखित मन्त्र बोलतां वासक्षेप करवा. पूर्वक पत्र पुष्पफळ अष्टगन्धादिधूप तेमज केसर चंदनादिनां द्रवो अधिवासित करवां.
पत्रपुष्पादीनामधिवासनामन्त्रः- ॐ वनस्पतियो ! वनस्पतिकाया एकेन्द्रिया जीवा निरवद्यात् प्रज्ञायां निरर्ययाः सन्तु, निष्पापाः सन्तु निरपाया: सन्तु, सद्गतयः सन्तु नमेऽस्तु संघट्टन हिंसापापमर्हदर्चने स्वाहा || थाळी बगाडवी.
पछी 'नमो' ऋहीने निम्नलिखित मन्त्र बोलतां वासक्षेप करवा पूर्वक जल अभिमन्त्रित कर
जलमिवामितमन्त्र ॐ आप ! अपूकाया एकेन्द्रिया जीवा निश्वाद्यार्हत पूजायां निरव्यथाः सन्तु, निष्पापाः सन्तु निरपायाः - सन्तु, सद्गतयः सन्तु नमेऽस्तु संघट्टन हिंसापापमुदचने स्वाहा ॥ थाळी वगाडावी.
पछी 'नमान" कहीने निम्नलिखित 'आत्मरक्षा महा'विद्या' स्तोत्र बोलवा पूर्वक आत्मरक्षा एटले अंगरक्षा करवी
|| श्री नमस्कार - महामंत्ररूप आत्मरक्षा महाविद्या ॥ “ॐ परभेष्ठि- नमस्कार, सारं नव पदात्कम् । पंजराभं स्मराम्यहम् ॥१॥
आत्मरक्षाकर
वज्र
“ॐ नमो अरिहंताणं शिरस्क शिरस स्थितम् । “ॐ नमो मन्त्र सिद्राणं मुखे मुखपट वरम् ||२|| “ॐ नमो आयरियाण अङ्ग - रक्षातिशायिनी ।
“ॐ नमो ज्झायाणं, आयुधं हस्तयोर्दढम् ॥३॥
"
"ॐ नमोलोए सव्व साहूणं, मोचके पादयोः शुभे ! ऐसो पंच नमुक्काशे, शिला वज्रमयी तले ||४||
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सब-पाव -प्पणासणो, वो वकामयो बहिः । मंगलाणं च मवेसि, खादिराङ्गार ग्वातिका ।।५।। स्वाहान्त-च पद ज्ञेयं, पढम हवइ मंगलं । वोपरि वन्नमयं, पिधानं देहरक्षणं ।।६।। महाप्रभावा रक्षेयं, शुद्रोपद्रवनाशिनी । परमेष्ठो-पदोदभूता, क.थता पूर्व मूरिभिः ॥७॥ यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमिष्ठि पदैः सदा । तस्य न स्याद् भयं व्याधिराघिश्चापि कदाचन ॥८॥
॥ अथ श्री कुम्भस्थापनविधिः ॥
अनन्तानन्त परमतारक श्री जिनेश्वर परमात्मानी जमणी वाजुए महामांगलिक कुम्भ तथा दीपक स्थापन करवाना स्थान उपर चन्द्रवो बंघावी, सुवर्ण जन्नु आच्छाटन करणे. परम पूज्यपाद गुरुमहाराज भूमिशुद्धिमत्र बोलतां वामक्षेप करीने भूमिशुद्धि करे कुन्भस्थापनादि विधि विधानोमा लाभ लेनार श्रावक-श्राविकानां जमणा हाथे मिढल अथवा गंवासूत्र (नाडा छडी) बांधवी. कुम्भ अने कुम्भनी जमणी बाजु दीपक स्थापन करवाना स्थान सुकुमारिका. सौभाग्यवती अथवा श्रावक कुमकुम (केसर)ना स्वस्तिक करी उपर अक्षत तथा सोपारी मूकीनं कुम्भस्थापन माटे आलेखेल स्वस्तिक उपर सवाशेर ६५० थी ७०० प्राम प्रमाण शालि-बीहि अथवा जवनो स्वस्तिक करवा. दीपक स्थापनना कंकुनो स्वस्तिक कराववा कुंभ दीपकनी सुरक्षा माटे कसुंखा रंगर्नु एटले रक्तवस्रनुं द्वारवाळु मंगलगृह निर्माण कराव
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माता बहेनानी जेम कंभ दीपक स्थापनक्रियानो लाभ सुलक्षणोपेत पुरुष पण लई शके छे. पुरुषो माटे क्रियानो निषेध नथी.
अष्टमंगळ आलेखेल चित्ताकर्षक आंतसुरम्य सुवर्ण रौप्यादि धातुना, अथवा श्यामचिहनादि दूषणो रहित शुद्ध मृत्तिका कुंभने पूंजी प्रमार्जीने शुद्ध जळ्थी पवित्र करी कंठे गेवासूत्र (नाडाछडी) मांधी कुंभोपरि मध्यभागे केसर चंदनना द्रवथी ॐ ह्रीं ओं सोपद्रवान् नाशय स्वाहा' ऐ मन्त्र लखी कुम्भना अभ्यंतर सळस्थळे केसर चंदननो स्वस्तिक करी रूप्य मुद्रा, पंचरत्ननी पोटली अने सोपारी मूकी कुम्भ स्थापन करनार पुण्यवंत प्रण वार "नमस्कार महामन्त्र" गाणेने अखण्ड धाराए वखपुत (गळेल) शुद्धजळ्थी कुम्भ भरीने डॉटडा जळमां अधोमुख रहे ते रीते कुम्भमां चारे दिशाए ऐक ऐक सीधु नागरवेलनुपान मूकी मध्यभागे ऊर्यशिख श्रीफळ मूको उपर नीलवर्णनु (लोलु) रेशमीवस्त्र आच्छादित करी मिढळ्युकत गेवासूत्रना दश पंदर
आटा देवा पूर्वक सुदृढ बांधी उपर जळ छांटी अनुकूळ्ता प्रमाणे सोना रुपाना वरख छापी केसर चंदननां छांटणां करी सुगंधी पुष्पहार चढाववो.
खास सूचना : अखण्ड दीपक प्रगटाव्या सुधीनो विधि कर्या पछी, निम्न लिखित विधि कुम्भ तथा दीपकनो साथे करवानो होय छे. - कुम्भ दीपक स्थापन करनार सुकुमारिका अथवा सौभाग्यवती त्रण वार "नमस्कार महामन्त्र गणीने" इंढोणी युक्त मस्तके कुम्भ धारण करे, अने थाळ सहित दीपकने बन्ने बन्ने हाथमां धारण करी शक्यता अनुसार आगळ चालता थाळी डंका निशान पंच शब्द बाजिन्त्रोनो महानाद अने धवळ मंगळादि गीतगान पूर्वक
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अनन्तानन्त परमतारक श्री जिनेश्वर परमात्माने त्रण प्रदक्षिणा दई मंगळगृहमां आवी त्रण वार "नमस्कार महामन्त्र" गणि “ॐ ह्रों ठः ठः ठः स्वाहा " ऐ मन्त्र सातवार गणिने कुम्भक एट ले स्थिरश्वासे व्रीहि आदिना स्वस्तिक उपर कुम्भ स्थापन करवो. अने माटीना खामणा ऊपर दीपक स्थापन करवो.. पूज्यपाद गुरु महाराज चपटीमां वासक्षेप ई “ ॐ ही ठः ठः ठः स्वाहा” ए मन्त्र सातवार गणिने कुम्भ दोपक उपर वासक्षेप करे.
पछी " नमोऽह्त्" कहीने पूज्यपाद गुरुमहाराज हाथभां वासक्षेप लईने निम्नलिखित काव्य वोलीने कुम्भ उगर वासक्षेप करे ते समये श्रावक श्राविकाओ कुसुमांजलीथी बधावे ए रीते बीजी अने श्रीजी वार काव्य बोली कुल ऋण वार वासक्षेप करवो : पूर्ण येन सुमेरु गसदृश, चैत्यं सुदेदीप्यते, यः कीर्ति यजमानधर्मकथनं प्रपूजितां भाषते । यः स्पर्धा कुरुते जगत्त्रयमहादीपेन दोपारिणा, सोऽयं मङ्गलरूप मुख्यगणनः कुम्भश्चिरं नन्दतात् ॥ थाळी वगाडवी.
"
|| इति श्री कुम्भस्थापन विधिः ॥
॥ अथ श्री दीपक स्थापन विधिः ||
सवाशेर घृत रही शके तेयुं जीभवालुं ताभ्रदीपक शुद्ध करी धूपी, केसरनो स्वस्तिक करी अक्षतथी बधावी एक रूपियो पंचरत्ननी पोटली, सोपारी मूकी, ताम्र जीभ उपर मरडाशींग युक्त मिंढळ बांधी, काचा सूतरनो २७ तारनी बाट मूकी थाळीमां भींजावेल माटीनुं खामणुं करी ते उपर दीपक स्थापन करी त्रण वार घृतमंत्र बोलतां कुमारिका, सौभाग्यवती, अथवा पुण्यवन्त भाई पासे घृत पूराववु .
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॥ अथ श्री घृतमन्त्रः ॥
घृतमायुर्वृद्धिकरं भवति पर जैन दृष्टिसम्पर्कात् । सत्संयुक्तः प्रदोपः, पातु सदा भाव दुःखेभ्यः स्वाहा ॥१॥
थाळी वगाढवी. निम्नलिखित श्री दीपक प्रगटाववानो मंत्र त्रण वार भणोने दीप प्रगटाववो.
॥ अथ श्री दीपक प्रगटाववानो मन्त्रः ॥ ॐ अहँ पञ्चज्ञानमहाज्योतिर्मयोऽयं ध्वान्तघातने । द्योतनाय प्रतिमाया दीपो भूयात् सदाऽर्हते स्वाहा ॥१॥ ... श्री कुम्भनी जमणी बाजुऐ श्री दीपक स्थापनना स्थाने फरेल कंकुनो स्वस्तिक उपर दीपक स्थापन करवो. परमपूज्यपाद गुरु महाराज निम्नलिखित मन्त्र बोलीने दीपक उपर वासक्षेप करे, ए रीते मन्त्र गणवापूर्वक त्रण वार वासक्षेप करे.
॥ श्री अग्नि शुद्धि मन्त्रः ॥
ॐ अग्नयोऽग्निकाया एकेन्द्रिया जीया निरवद्याईरपूजायां नियंथाः सन्तु, निष्पापाः सन्तु, निरपायाः सन्तु, सद्गतयः -सन्तु, नमेऽस्तु संघट्टन हिंसा पापमहदर्चने स्वाहा ।
॥ इति श्री दीपकस्थापन विधिः ॥
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॥ श्री कुम्भ विसर्जन विधिः ॥ उपर्युक्त मंत्रोच्चार करवापूर्वक वामक्षेप करीने कुम्भ विसर्जन करवो.
॥ श्री अखंड दीपक विसर्जन विधिः ॥ "ॐ विसर विसर स्वस्थान गच्छ गच्छ स्वाहा”
थाळी गाडधी, उपर्युक्त मन्त्रोच्चार करवा पूर्वक वासक्षेप करीने श्री अखंड दीपक विसर्जन करवो.
अनन्तानन्तपरमतारकदेवाधिदेवश्रीनी तारकनिश्रामा परमपूज्यपाद गुरुमहाराजश्रीनो सुयोग होय तो तेओश्रीनी उपस्थितिमा चैत्यवन्दनादि समुदायिक क्रिया करवी. प. पू गुरुमहाराजश्रीनो योग न होय तो व्रतधारी सुश्रावक क्रिया करावे.
चतुर्थ दिने अत्युल्लसितभावे उत्तम फळ नैवेद्यादि सामग्री पूर्वक परमतारक श्री वीश विहरमाननी पूजा भणावधी.
॥ आराधन विधिक्रम । १. परम तारकश्रीनी स्तुति २. सामुदायिक चैत्यवंदन ३. त्रण टंक देववंदन ४. बे टंक प्रतिक्रमण ५. पार साथिया ६. दुहा बोली वार खमासमण ७. संपूर्ण चार लोग्गसनो काउसग्ग
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८.
९.
नव एकासणां तथा ॠण उपवास अथवा व्रण आयम्बिल ॐ ह्रीं श्री अहं श्री सीमन्धरस्वामिने नमः हॅू स्वाहा " ए मन्त्रनी ८५ नवकारवाळो प्रतिदिन गणवी.
१०. आयंबिल एकासशुं कर्या पछी चैत्यवंदन कस्तु
११. ज्यारे ज्यारे मन्त्रजापनो प्रारम्भ करवो होय त्यारे पहेलां. "श्री तीर्थ करगणधरप्रासादादेषः योगः फलतु” कद्देवु.
१२. सामूहिक स्नात्र पूजन तेमज अष्टप्रकारी पूजन.
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जय
जगमकल्पद्रो ! परमेष्ठिन् ! जयानन्दिन् !
॥ श्री सीमन्धरस्वामिजिनस्तुति ॥
जय स्वाभिन ! जिनाधीश !, जय जय देव जगतप्रभो ! । त्रैलोक्य- तिलक !, जय संसार तारण !
जय
जयाईन् !
जय जय व्यक्त
११
स्वामिनामपि यः स्वामि, गुरूणामपि यो देवनामपि यो देवस्तस्मै, तुभ्यं नमो
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परमेश्वर ।।
निरञ्जन | २
*
गुरुः ।
नमः ! ३.
श्री सर्वज्ञ समग्र - सौख्य- पदवी - सम्प्राप्ति चिन्तामणे !, सत्कल्याण-निवास ! वासवनत ! त्रैलोक्य
चूडामणे !, विहरत् तीर्थङ्कराग्रेसरं, भक्त्या भवन्तं स्तुवे ४ परम सयोग मार्गाध्वग ! निरवधि- ज्योतिः प्रकाशात्मकम् : ये पश्यन्ति भवन्त मुत्तमदृशः स्वान्ते निवेश्य स्थिर, धन्यानामुपरि अयन्ति गुरुतां ते देव ! देहस्पृशः ५:
सम्यग् - ब्रह्ममय- स्त्ररूप ! श्री सीमन्धरधर्मनायक मह नातार भुत्रन त्रयस्य ध्येयं ध्येय पदावधि
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१२
भक्ति-प्रहूब-सुपर्व-पूजित पदाम्भोज जगज्जीवन, ब्रह्माजिह्म-लयावदातहृदया ध्यायति योगीश्वराः; प्रातः पूर्वविदेह भूषगकरं स्वात्माविभेदेन यं, स श्रीमान् हृदये करोतु वसति सीमन्धरः श्री जिनः ६ जगज्जन्तुनिस्तारणे यानपात्रं, समारामविश्रामसंलोनचित्तम् । नतानेकनाकेन्द्रपादारविदं, स्तुवे स्वामि सीमन्धरं देवदेवम् । महाकेवलनाण कल्लाणवासो, सलावण्णसोवण्यण्णवण्णप्पयासो; थुणेसारसिद्धि पुरीसत्थवाह, सया सामिसोमधर तित्थनाह ८ महीमंडणं पुण्णसोवण्गदेह, जगागंदगं केवल नाणगेह; महाणंदलच्छीव हुबद्धराय, मुसेवामि सोमंधर तित्थरायं. ९
खमासमग इरियावलियं० तस्स उत्तरी अन्नत्थ० एक लोगस्सनो का उसग्ग० प्रगट लोगास बोली निम्न लिखित 'जय जिनेन्द्र !' आदि मन्त्रो बाली खमासमण दवू. ए रोते बीजी अने त्रीजी वार 'जय जिनेन्द्र !' आदि बोली बोजु अने त्रीजु खमासमण देवु.
श्री चैत्यवंदन विधि
जयजिनेन्द्र ! जगद्वत्सल ! ज्योतिः स्वरूप !, जगदेकाधार जगदुद्धारक ! जगत्तारक !, जगत्पूज्य ? जगद्वन्द्य ! जगदानन्ददायक ! निरञ्जन ! निराकार ! भवसयमजक, देवाधिदेव श्री सीमन्धरस्वामि प्रमुखानन्तानन्त जिनेन्द्रेभ्यो नमो नमः ।। ___इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सिरे सीमंघरसामिजिणं आराहणत्थं चेइयत्रंदणं करेमि ? इच्छं कड़ी "सकलकुशलबल्लि" बोली चैत्यवंदन करवु.
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(स्तुति)
सकल - कुशल- वल्लि पुष्करावर्त - मेघो दुश्ति-तिमिर-भानुः कल्पवृक्षोपमानः भवजलनिधिपोतः सर्व संपत्ति-हेतुः स भवतु सततं वः श्रेयसे शान्तिनाथः
(चैत्यवन्दन)
१
श्री सीमन्धर जगधणी, आ भरते करुणावन्त करुणा करी, अमने
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पर्षदा बेठी
सहु सहुना
श्रेयसे पार्श्वनाथः ।
आवो; बन्दावो.
सकळ भक्त तुमे धणी, जो होवो अम नाथ; भवोभव हुंछु ताहरो, नहि मेलुं हवे साथ सयल संग छोडी करी, संग छांडी करी, चारित्र लइशु; पाय तुमारा सेविने, शिव रमणी वरशुं ३ ए अळजो मुजने घणोए, पूरो सीमन्धर देव. इहां थकी हुं विनवु, अवधारो मुज सेव. ४ कर जोडीने विनवु, सामो रही ईशान, भाव जिनेश्वर भागने, देजो समकित दान.
१
२
समवरणे विराजता, श्री सीमन्धरस्वाभी, मधुर ध्वनि दिये देशना वाणी सुधा समाणी. १ सांभळे वाणीनो विस्तार
मनमा
था आनंद हर्ष अपार.
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१३
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१४
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जाति वैर शमावी ए, प्रभु अतिशय अदमुत; संशय सर्वनां टाळता, करतां भविजन पूत, ३ हु निर्भागी इहां रडबडु, शा कीघां में पाप ? ज्ञानी विनानी गोठडी, किहां जइ करूं विलाप ? ४ मात विनानो बाळ जेम, आथडतो कूटातो आव्यो छु तुज ओगळे, राखो तो करु बातो. क्रोड क्रोड वंदना माहरी, अवधासे जिन देवः मांगु निरन्तर आपना चरण कमलनी सेव. ६
जकिचि ० नमुत्थुणं • जावति वेइआइ " खमासमण ० जावंत केवि साहू ० नमोऽर्द्दन् सुधीनां सूत्रो बोली निन्न लिखित स्तवन परम उल्लसितभावे बोलवु :
बे कर जोडी विनबु रे लाल, मारी विनतडी अवधार रे; तुमे महाविदेहमां वस्या रे लाल, अमने छे तुम आधार रे. प्रभाते उठी करू वंदना रे लाल०१ भरतक्षेत्रमां हु अवतर्यो रे लाल, किम करी आवु हजूर रे तुभ दक्षिण नवि पामीयो रे लाल, रह्यो मजूरनी मजूर रे. प्र०२ तुम पासे देव घणा वसे रे, लाल एक मोकलजो महाराज रे; मनना सन्देह प्रभु पूछोने रे लाल, करु सफळ दिन आज रे. प्र०३ केवळ्ज्ञानिना विरहथी रे लाल, मनुष्य जन्म एळे जाय रे: शुभ भाव आवे नहि रे लाल, शी गति माहरी थाय रे ? प्र०४ कर्मने मोहे खूब कस्यो रे लाल, हजी न थयो खुलास रे जिम तिम करी प्रभु तारजो रे लाल, हु तो धरु तुमारी आश रे. प्र०५ सीमन्धरस्वामिना नामथी रे लाल, थाय सफळ अब नगर रे -कल्याणमुनि इम विनवे रे लाल, प्रभु नामे जय जयकार रे. प्र०६
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पछी "जय बीयराय" सुत्र बोली उभा थइने 'अरिहंत चेइयाण' तथा अन्नत्थ" सूत्र बोली" एक नवकारनो काउसमा करी "नमो अरिहंताणं बोली काउसग्ग पारोने 'नमोऽहत्' कही निम्न लिखित स्तुति वोलवी :
सो क्रोड साधु साधवी सो क्रोड जाण, ऐसे परिवारे सीमन्धर भगवान दश लाख थया केवळी प्रभुजीनो परिवार,
वाचक यश वन्दे नित्य नित्य वार हजार ॥१॥ खासमण दइ इच्छकारि भगवन् ! पसायं किच्चा पञ्चकखाण करावेह !
पूज्य गुरुमहाराजश्री होय तो तेमनी पासे अथवा वडील क्रियाकारक पासे उपवास आयम्बिल अथवा एकासणानु पच्चा खाण करो निम्नलिखित स्तुतिओ वोलवी :
__ चतारि मंगल 'अरिहता मंगलं' 'सिद्वामंगलं' 'साहमंगलं' 'केवलीपण्णत्तो धम्मो मंगलं'
चचारि लोगुत्तमा 'अरिहंता लोगुत्तमा' 'सिद्धा लोगुत्तमा' 'साहू लोगुसमा' 'केवलीपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो.'
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१६.
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चतारि सरणं पवज्जामिः
"अरिहते सरणं पवज्जामि,”, सिद्वे सरणं पवज्जामि” साहू सरणं पवज्जामि" केवलीपण्णतं धम्म सरणं पवज्जामि. अरिह ंतो मह देवो, जावज्जजीषं सुसाहूणो गुरूणो; जिण पण्णत्त तत्त इअ सम्मत्त मए गहीए. शिवमस्तु सर्व जगतः परहित निदता भवन्तु भूतगणाः; दोषाः प्रयान्तु नाश, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः
०
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मोक्षगामी सुखकरु,
इह जगत स्वामी, मोहस्वामी, प्रभु अक, अचल, अखण्ड, निर्मळ, भव्य मिथ्यातमहरु. देवाधिदेवा, चरण सेवा नित्य मेवा आपीये निजदास जाणी दया आणी आप समोवड थापोए भवो भव तुम चरणोनी सेवा, हुं तो मागुं देवाधिदेवा, सामु जुओने सेवक जाणी, एवी उदयरत्ननी वाणी. भवो भत्र सेवा, रे तुम पद कमळनी देजो दीनदयाळ, बे करजोडी रे उदयदत्न वेडे, नेक नजरथी निहाळ, विनति मारी रे सुणजो साहिबा ३ जनम अनंता हो श्री जिन हुं भम्यो अवर अवर अवतार; पुण्य प्रमाणे रे मां पाभीयो, नत्रभर भरत मोझार, विनति. महाविदेहे रे स्वामि ! तुमे वसो, पांख नहीं मुज पास; किग परे आवी रे पाप आलोइए मनमां रहियो विमास वि०५
कर्मने भोहे खूब कस्यो रे लाल, हजी न थयो खुलास रे; जिम तिम करी प्रभु तारजो रे लाल, हुं तो धरु तुमारी आशरे प्रभाते उठी करु वंदना रे लाल
१
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देवे दीधी न पांखडी, किण तो पण मानजो वंदना,
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विध आवु हजूर ! नित्य उगमते सूर.
सीमन्धर करजो मया !
एक छे राग तुज उपरे, तु नवि गणुं तुज परे अवरने,
स्वामि-सीमन्धरा विनति सांभळो माहरी देव रे, ताहरी आण हुं शिर धरु, आदरु ताहारी सेव रे. मुज शिव तरु कंद रे, जो मिले सुर नर वृंद रे. स्वामि सीमन्धरा तुं ज्यो. ९
१७
तुज विना में बहु दुःख सह्यां, तुज मिल्ये ते किम होय रे; मेह विण मोर माचे नहि, मेह देखी नाचे सोय रे. स्वा० मनथकी मिलन में तुज कीयो, चरण तुज भेटवा सांई रे; कीजीये जतन जिन ए विना, अवर न वांछीए कांई रे. स्वा तुज वचन राग सुख आगळे, नवि गणुं सुर नर शर्म रे; कोडी जो कपट कोई दाखवे, नवि तजु तो ए तुज धर्म रे. स्वा० तुं मुज हृदयगिरिमां बसे, सिंह जिम परम निरीह रे; कुमत मातंगना यूथथी, तो कशी प्रभु मुज बीह रे. स्वा० कोडी छे दास प्रभु ताहरे, माहरे देव तुं एक रे कीजीए सार सेवक तगी, एक तुज उचित विवेक रे. स्वा मुज होजो चित्त शुभ भावथीं, भवो भव ताहरी से रे; याची कोडी यतने करी, एह तुज आज आगळे देव रे. स्वा० यळी वळी विनवु स्वामिने नित्य प्रत्ये तुहि ज देव रे; शुद्ध आशय पणे मुज होजो, भवो भव माहरी परिणति दोषनी बाहरा शासन शुभ तगो राग छे
ताहरी सेव रे. स्वा०
तीव्रता
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बारग
कार रे; एक आधार रे. स्वा०
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१८
॥ बार खमासमपना दुहाः ॥
(१) अनंत चोविशी जिन नमुं, सिद्ध अनंती कोड; केवळनाणी स्थविर सवी, वंदु वे कर जोड. १ बे कोडी केवळधरा, विहरमान जिन वीश; सहस कोडी युगल नमु, साधु नमु निशदिश. २ जे चारित्रे निर्मल, ते पंचानन सिंह, विषय कषायने गंजोया, ते प्रणभुं निशादिश. ३ श्री सोमन्धर साहिबा, अरज करूं कर जोड, जीहां लगी शशो सूरज तपे, वंदना हमारो होय. ४ मंत्रोच्चारः “ॐ ह्रीं श्रीं अहं श्री सीमन्धरस्वामिने नमः हों स्वाहा" खमासमण ए रोते आगळतां बयां खमासमणमां समजवु.
(२) श्री ब्रह्माणी शारदा, सरस्वती द्यो सुपसाय; सोमन्धर जिन विनवू, सानिध्य करजो माय. १ सुण सुण 'सरस्वती' भगवती, त्हारी जगविख्यात; कविजननी कोरती वधे, तेम तु' करजे मात. २ स्वामि सीमन्धर विदेहमां, बेठा करे वखाण; वंदना माहरो तिहां जइ, कहे जा चंदाभाण. ३
श्री सीमन्धरसाहिबा मंत्रोच्चार० खमासमण.
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मुज हेडु संशय भये, जेशुं मांडी गोठडी, ते जागो आबु तुम कने, डुंगर ने दरिया घणा,
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(3)
कुम आगळ कडु नाथ, मुज न मिले साथ. विषम वाट पंत्र दूर; बच्चे वहे नदी
पूर.
१
२
ते माये इहांकने रही,
जे जे करुं विलाप;
ते तुमे प्रभुजी सांभळो, अवगुण करजो माफ. ३ श्री सीमन्यरसाहिबा = मंत्रोच्चार० खमासमण.
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(४)
कंस.
तुम गुणगण गंगाजळे, झीले मुज मन हंस; पण तुज विरहे पीडियो, जिम मधुसूदन गुण फीटी अंगार हुए, हियडु उज्झे तेण अवगुण नीर न सांभरे, ओलावी जे जेण. मंदेशे सज्जन तणे, जीवे मास छ मास;
दूर देशांतर वायोया, संदेशे सुख खास. ३ श्री सीमन्चरसाहिवा० मंत्रोच्चार० खमासमण
१
(1)
रुक् खेहिं घणेहिंः
अंतरीया बहु डुंगरे, तह ते सज्जन किम विसरे, जे सघन गुणेहिं १ प्रीति भो पंखेरूआ. ऊडी नेह मिलन माणस परवश चापडा दूर IT झुरंन. २ दीठा मीठा निहां लगे, हरेहर अर अनेक; जिहां लगे तुम गुण नवि सुण्या, हियडे भरोय विवेक. ३ श्री सोबर साहित्रा मंत्रोच्चार खनास नग
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२०
मनह मनोरथ जे करे, 'ते पूरण असमत्थ; स्वर्ग सुरद्रुम मंजरी, त्यांहि पसारे हत्थ. फीट हियडा फूटे नहि, हजी नहि तुजने लाज; जीव जीवन विजोगडे, जीव्यानु कुष्ण काज. माणसथी माछा भला, साचा नेह सुजाण; ज्यु जन्थी होय जुजुआ, त्युं ते बंड प्राण. सहस बहे संदेशडो, लेख लहे लख मूल; अंगो अंग मेलावडो, सुरतम् फूल अमूल.
श्री सीमन्धर साहिबा. मत्रोच्चार० ग्यमासमण.
कि बहु कागळमें लिखु, लख ललच बहु लोमा मिल्यां पछी मालुम थो, चिर थापण चिरकाम. किं बहु मीठे बोलडे, जो मन नाह समनेह : जा मन नेह अछेह तो, एक जोध दो देह. किं बहु कागळमें लिम्वु, घणु घणम गुल्झ, सेवा निज पद कमळनी, देजो साहिब मुज.
श्री सीमन्धर साहिबा मंत्रोच्चार खमाममण.
क तणी परे रडवडयो, निधणीयो निरधार, श्री सीमन्धर साहिबा, तुम विण इण संसार. १
तुम विण कुण आधार. हुँ रे अनादि निगोदमां, आव्यो अव्यवहारी जीव; काळ अनंत तिहां रह्यो, भत्र अनंत मदीव. २
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मरणा अवतरणा करी, स्वामि काळ ! अनंत परावर्त पुद्गळ कियां, तेहनो कहुं विरतंत. ३ जिन केकी गिरिवर रहे, मेहा दूरे वास; तिम जिनजी तुम ओळगुं. निसुणो अरदास. ४ इत्यादिक अनेक छे, अनंत कायना भेदः वादर एह निगोदमा, हुं पाम्यो निर्वेद. ५ सुइ अग्र अनंतमे, भागे हु बहु वारः ठहें चागो निःमंबलो, किंगहि न कीधी सार. ६ काळ अनंत लिहां रह्यो साधारण स्वरूप. चौद लाख योनि भम्यो, ऐ! गे! कर्म विरूप. ७
श्री सोमन्धर साहिया० मंत्रोच्चार० स्वमासमण.
१
ऊंच नीच कुळ अवतो, कीधां मध्यम काम; विरति पाखे हुं नवि थयो, न लह्यो भव विश्राम. मानव भर अति दोहिलो, दोहिलो आरज देशः सद्हणा बळी दोहिली, दोहिलो गुरु उपदेश. मनुष्य तिरी भव अंतरे, माते नरक मोझार: गणतां काळ असंख्य हुओ, हुँ गयो एटली वार.
श्री सीमन्धर साहिबा० मंत्रोच्चार० खमासमण.
२
१
मोर मेह रवि कमल जिम, चंद्र चकोर हसंतः तिम दूरथी अम मनह, तुम समरण चिकसंत अणसंभार्या सांभरे, समय समय सो वारः ते साजन किम विसरे, बहु गुण मणि भंडार.
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૨૨
बमणी त्रिगणी सोगणी, सहसगी ए प्रीत; तुम साथे त्रिभुवन धणो, राखु रूही रीत. आंख तळे आणू नहीं, अवर अनेरा देश; साहिब जब थे में सुण्यो, तु हि देवाधिदेव र भूतळे भला भलेरडा, जे जाणो जे जाण; ते सघळा ए तुम पछी, सीमन्धर जग भाग..
श्रीमीमन्धर साहिबा. मंत्रोच्चार - खमाममा.
निःस्नेहि सुखोया रहे, वेलु कण ज्यु होगा। ससनेहा तिल पीलीए. वहीं मथे मा कोय. र नेह न कोजे जीहां लगी, तिहां जीवने सुम्ब होय; नेह रिह जब उपजे, तब दुःख माले सोम२ निर्गुण नेह न कीजीए, कोजे सद्गुणा मंग; सीमन्धर जिन सारीखो, राखु अधिको रंग. ३ श्री सीमन्धर साहिबा. मंत्रोच्चार स्वमानमा.
(१२) क्षेत्रविदेहमां तुम वमो, हु बसु भरन मोझारः इहां थकी करु वंदना, श्वास माहि सो वार. १ तुं छे म्हारो साहिबा, हुं हुं तारी दाम; गुण अवगुण सहु उवेखीन, करुणा करजो ग्वास.. श्री सोमन्धर इहां थकी, नित्य धंदु प्रभात; त्रिकरण त्रिहुं योगशु, ज अहनिश जाप. ३ भरतक्षेत्रमा हु रहु, आप रहा छो विमुखः ध्यान लोहचुंबक परे, दृष्टि कर मन्मुत्र ४ वृषभ लंछन चरणमां, कंचन वरणी काय; चोत्रीश अतिशय शोभता वंदु सदा तुम पाय, ११
श्री सीमन्धर माहिया, मंत्रोच्चार खमासमण.
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इच्छकारि भगवन । पसाय किच्चा मम मंत्त वायणं देहि.
श्री तीर्थङ्कर-गणधर-प्रासादाद् एषः योगः फस्तु, ॐ ह्रीं श्री अर्ह श्री सीमन्धरस्वामिने नमः ह्रीं स्वाहा । असितगिरि-सम-स्यात कज्जलं सिन्धुपात्रे, सुरतरुवर शाखा, लेखिनी पत्रमुर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकाल', तदपि तव गुणानामीश ! पारं न याति ॥ न स्वर्गाप्सरसां स्पृहा समुदये, नो नारकोच्छेदने, नो संसारपरिक्षतौ न च पुनर्निर्वाण नित्यस्थिती त्वत् पाद द्वितय नमामि भगवन् ! किनत्वेककं प्रार्थये त्वद्भक्तिर्मम मानसे भवभवे भूयाद् विभो ! निश्चला ॥
कोर्ति नियो राज्यपद सुरत्वं, न प्रार्थये किञ्चन देव देव ! मत प्रार्थनीयं भगवन् ! प्रदेय, त्वद् दासतां मां नय सर्वदापि ।। आशातना या किल देव देव !, मया त्वदर्चा रचनेऽनुसकता । श्रमस्व तां नाथ ! कुरु प्रसाद, प्रायो नराःस्युः प्रचुर प्रमादाः ।। ॐ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं, मंत्रहीनं च यत् कृतम् । तत् सर्व कृपया देवाः ! क्षमध्वं परमेश्वराः ॐ आह्वान नैव जानामि, न जानामि विसर्जनम् । पूजाविधिं न जानामि, प्रसीद परमेश्वरः ! उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ।। सर्व मङ्गल माङ्गल्य, सर्वकल्याण कारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥
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अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पभूत अनन्तानन्त परमउपकारक, परमतारक, परमकारुणिक, परमसुश्रद्धेय, परमसुगृहीतनामधेय, परमसुभगभागधेय, त्रिकालाबाधितावच्छिन्नानन्तानन्त परमप्रभावशालि, सकलसमीहितपूरक, देवाधिदेव श्री सीमन्धरस्वामि भगवाननो जय हो ! श्री सीमन्धरस्वामि भगवाननो जय हो। श्री सीमन्धरस्वामि भगवाननो जय हो ! अनन्तानन्त परमतारक देवाधिदेव श्री सोमन्धरस्वामिजी
परमात्मानां पंच कल्याणको श्री च्यवन कल्याणक श्रावण वदि-१-गूज. आषाढ वदि १ ,, जन्म
वैशाख वदि १०-गूज. चैत्र वदि १० ,, दीक्षा , फागण शुदि ३ ,, केवळज्ञान , चैत्र शुदि १३ ,, निर्वाण , श्रावण शुदि ३
(उद्धृतकपूर काव्यकल्लोलादि भाग पांचमांथी)
श्री भरतक्षेत्रनी आगामी चोवीशोजीना सातमा तीर्थङ्कर परमात्मा परमतारक देवाधिदेव श्री उदयस्वामिजोना निर्वाण पछी अने आठमा तीर्थक्कर परमात्मा देवाधिदेव श्री पेढाळस्वामिजोना जन्म पहेला अनन्तानन्त परमतारक भी सीमन्धरस्वामीजी परमात्मा श्रावण शुदि ३ ने दिने "निर्वाण" एटले मोक्ष पदने पामशे.
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मांगलिक काव्यों
नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायणं
नमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो; मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं. १ नमः श्री शान्तिनाथाय, सर्वविघ्नापहारिणे; सर्वलोक - प्रकृष्टाय,
सर्ववाञ्छितदायिने २ जयइ जगजीव-जोणि-वियाणिओ जगगुरू जगाणंदो, जगनाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवः जयइ सुयाण पभवो, तित्थयराण अपच्छिमो जयइ, जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो. ३ जगज्जन्तु-निस्तारणे यानपात्र,
समाराम विश्रामसल्लीनचित्तम्: नतानेकनाकेन्द्रपादारविन्द,
स्तुवे स्वामिसीमन्धरं देवदेवम् . ४ श्रीसर्वछ ! समय सौख्य पदवी समप्राप्तिचिन्तामणे !, सत्कल्याणनिवास ! वासवनत ! त्रैलोक्यचूडामणे 1; सम्यगू ब्रह्ममय स्वरूप विहरत् तीर्थ कराग्रेसर, श्रो सोमघरधर्मनायकमहं भक्त्या भवन्तं स्तुवे ५
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सिद्राच मङ्गलं
२६
मङ्गलं
श्रीमदन्तः, मङ्गलं मुनयो नित्यं,
मङ्गलं भगवान् बोरो,
मङ्गलं गौतमः प्रभुः,
मङ्गलं स्थूलभद्राचा, जैनो धर्मेऽस्तु मङ्गलम
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शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणा दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोका:
मङ्गलं ममः जिनशासनम् . ६
इष्टार्थसिद्धिर बहुला च बुद्धि:,
सर्वेऽपि सन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः; सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् पापामाचरेत ९
दिने दिने मञ्जुलमङ्गलमङ्गलावलिः,
सुसम्पदः सौख्यपरम्पर। च:
卐
सर्वत्र सिद्धिः सृजतां सुधर्मः १०
८
उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्तं विघ्नवल्लय मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने
जिनेश्वरे. ११
सर्वमङ्गलमाङ्गल्य, प्रधान सर्वधर्माणां जैनं जयति
सर्वकल्याणकारणम्
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शासनम् १२
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श्रीजिनेन्द्रस्तुति स्तवनादि समुच्चय
श्री जिनेन्द्र स्तुति
श्री सर्वज्ञ ! समग्र - सौख्य- पदवी-सम्प्राप्ति चिन्तामणे !, सत्कल्याण-निवास ! वासवत ! त्रैलोक्य- चूडामणे !; विहरत् तीर्थङ्कराग्रेसर',
सम्यग्ब्रह्ममय-स्वरूप !
श्री सीमन्धरधर्म नायकमह
भक्त्या
भवन्तं स्तुवे. १
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चातारं भुवनत्रयस्य परम' सद्योग-मार्गाध्वग !, ध्येय ध्येय - पदावधिं नरवधि ज्योतिः प्रकाशात्मकम ये पश्यन्ति भवन्तमुत्तमदृशः स्वान्ते निवेश्य स्थिर, धन्यानामुपरि श्रयन्ति गुरुतां ते देव ! देहस्पृशः
जगज्जीवन,
भक्ति-प्रहूब - सुपर्व पूजित - पदाम्भोज' ब्रह्माजिह्म- यावदातहृदया ध्यायन्ति योगीश्वराः प्रातः पूर्वविदेह भूषणकर स्वात्मविभेदेन य स श्रीमान् हृदये करोतु वसति सोमन्धरः श्री जिनः ३.
महाकेवलनाण कल्लाणवासो, सलावण्णसोवण्णवण्णप्पयासो थुणे सारसिद्धिं पुरीसत्यवाहं, सया सामिसीमंधर' तित्थनाहं ४
महीमंडणं पुण्णसोवण्णदेहं जणाणंदण केवलनाणगेह; महाणं दलच्छी बहुबद्धराय सुसेवामि सीमन्धर तित्थराय'.
"
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२८
दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम् ; दर्शनं स्वर्गसोपान, दर्शनं मोक्षसाधनम्. दर्शनाद् दुरित ध्वंसो, वन्दनाद् वांछितप्रदः; पूजनात् पूरकः श्रीणां, जिनः साक्षात् सुरद्रुमः. जिने भक्तिजिने भक्तिर्, जिने भक्तिर दिने दिने; सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे भवे. अन्यथा शरग नास्ति, त्वमेव शरणं मम; तस्मात् कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर !. अद्य मे सफलं जन्म, अद्य में सफला क्रियाः अद्य में सफल सर्व, जिनेन्द्र तव दर्शनात् अद्य मे कर्भस-वातो, विनष्टश्चिरसञ्चितः: दुर्गत्या विनिवृत्तोऽहं जिनेन्द्र तव ! दर्शनात् अद्य मे क्षालित गात्रं, नेत्रे च विमलीकृते; मुक्तोऽहं सर्वापेभ्यो, जिनेन्द्र तव ! दर्शनात. न हि बाता न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति. नमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुजयसमो गिरिः: वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति. धन्योऽहं कृतपुण्योऽहं निस्तीणोऽहं भवार्णवात् : अनादि भवकान्तारे, दृष्टो येन जिनो मया
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तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ !,
तुभ्यं नमः क्षितितलामल भूषणाय; तुभ्यं नमत्रिजगतः परमेश्वराय,
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तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय १६
अद्याऽभवत् सफलता नयनद्वयस्य,
देव ! त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन; अद्य त्रिलोकतिलक ! प्रतिभासते मे,
संसार वारिधिरयं चुलुकप्रमाणः; पूर्णानन्दमय महोदयमय कैवल्य चिद्दग्मय, रुपातीतमय स्वरूपरमणं स्वाभाविकी श्रीमयम्; ज्ञानोद्यातमयं कृपारसमयं स्याद्वाद विद्यालय, श्री सिद्धाचलतीर्थराजमनिशं वन्दे युगादीवरम्.
१७
चैत्यवंदन कर्या पछी करवा योग्य प्रार्थना
"
जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भूयं चक्रवर्त्यपि स्यां चेटोsपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्माधिवासितः (श्रीयोगशास्त्र)
3
१८
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नाप्नोमि पदों, परां त्वदनुभावजाम ;
तावन् मयि शरण्यत्वं मां मुञ्च शरणं श्रिते. (श्रीवीतरागस्तोत्र )
२९
यदर्शिनं येन तदेव तस्य त्वया ददे वत्सरमर्थ्य से तत् : जन्मैव मादा मम देव ! जन्म, चेत् तत्र यत्रास्यविता प्रभुस्त्वम्. (श्री सीमंधरस्वामिस्तवनम् )
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इह जगत स्वामी, मोहवामी, मोक्षगामी, सुखकरू, प्रभु अकळ, अचळ, अखंड, निर्मळ, भव्य मिथ्या तम हरू,
देवाधिदेवा, चरण सेवा, नित्य सेवा आपीए, निजदास जाणी दया आणी, आप समोबाड थापीओ. भवोभव तुम चरणोनी सेवा, तो मागुं देवाधिदेवा, सामुं जुओने सेवक जाणी; एवी उदयरत्ननो वाणी.
२
तुज विना में बहु दुःख सह्यां, तुज मिल्ये ते किम होय रे; मेह विण मोर माचे नहि, मेह देखी नाचे मोय रे,
स्वामि ! सोमन्धरा तु जयो. तुं मुज हृदयगिरिमा वसे, सिंह जिन पर निरीहरे, कुमत मातंगना यूथथी, तो कशी प्रभु मुज बोहरे, स्वा. मुज होजो चित्त शुभ भानथी, भवोभव ताहरो सेव रे; याचिए कोडि यतने करी, एह तुज आगळे देव रे स्वा. वळी वळी विनवू स्वामिने, नित्य प्रत्ये नुहि ज देव रे; शुद्ध आशय पणे मुज होजो, भवोभव तारी सेव रे. स्वा. माहरी परिणत दोषनी, तीव्रता वारण कार रेः ताहरा शासन शुभ तणो, राग छे एक आधार रे. स्वा.
॥ आटलं तो आपजे ॥ आलु तो आपजे, भगवन् ! मने छल्ली घडी: ना रहे माया तणा, बंधन मने छेल्ली घडो. १ आ जांदा मांघो नळी पा, जीवनमा जाग्यो नहीं; अंत समय मुजने रहे, सापा समज छेल्ली घडी. २
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"
हाथपग निर्बळ, बने, जो श्वास छेल्ला संचरे; तु आपजे त्यारे प्रभुमय, मन मने छेल्ली घडी. ३ हु जीवनभर सलगी रह्यो, संसारना संतापथी; तु आपजे शांतिभरी निद्रा मने छेल्ली घडी. ४ ज्यारे मरण शय्या परे, मिचाई छेल्ली आंखडी. तु आपजे त्यारे प्रभु, दर्शन मने छेल्ली घडी. ५ अगणित अधर्मो में कर्या, तन मन वचन योगे करी; हे क्षमासागर क्षमा मुजने, आपजे छेल्ली घडी. ६ अंत समये आवी मुजने, ना दमे घट दुश्मनो; जागृतपणे मनमां रहे, ताक स्मरण छेल्ली घडी. ७
षोडशप्रकाश :
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त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः
शमरसोर्मयः
पराणयन्तिमां नाथ !,
परमानन्दसम्पदम्.
इतश्चानादि संस्कार मूच्छितो मूर्च्छयत्यलम् ; रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ?
रागाहिगरलाघ्रातो ऽकार्ष यत्कर्मवशम् ; तद्वक्तुमप्यशकतोऽस्मि, धिग्मे, प्रच्छन्न पापताम्. ३
क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः, क्षणं कुद्धः क्षणं क्षमी: मोहाद्यैः कीडयैवाहं, कारितः कपिचापलम्. प्राप्यापि नव सम्वोधि, मनोवाक्कायकर्मजैः; दुश्चेष्टितैर्मया नाथ !, शिरसि ज्वालितोऽनलः. तवय्यपि नावरि त्रातार्, यन्मोहादिमलिम्लुचैः, रत्नत्रयं मे ह्रियते, हतोशो हा । छतोऽस्मि तत्.
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६
३१
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३२
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भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्तवं मयैकरतेषु तारकः, तत्तवाङ्घ्रौ विलग्नोऽस्मि, नाथ ! तारय तारय. भवत्प्रसदनैवाह मियतीं प्रापितो भुवम् औदासीन्येन नेदानीं तत्र युक्तमुपेक्षितुमज्ञाता तात ! त्वमेवैक-रत्वत्तो नान्यः कृपापरः; नान्यो मत्तः कृपापात्र - मेधि यत्कृत्यकर्मठ:.
,
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सप्तदशप्रकाशः
>
2
स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन, सुकृतं चानुमोदयन : नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः . मनोवाक्कायजे पापे, कृतानुमतिकारितैः; मिथ्या मे दुष्कृतं भूया दपुनः क्रिययान्वितम्. यत्कृतं सुकृतं किञ्चिद्, रत्नत्रियगोचरम्: तत्सर्वमनुमन्येऽहं, मार्गमात्रानुसार्यप. सर्वेषामदादीनां यो योऽहत्त्वादिको गुण; अनुमोध्यामि तं तं सर्वं तेषां महात्मनाम. त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धा स्वच्छासनरतान्मुनीन. त्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः. क्षमयामि सर्वान्सत्त्वान्, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयिः मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे. एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन् न चाहमपि कस्यचित्ः त्वत्रिशरणस्थस्य, मम दैत्यं न किञ्चन. यावन्नाप्नोमि पदवीं, परां त्वदनुभावजाम: तावन्मयि शरण्यत्वं मा मुञ्च शरणं श्रिते.
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४
ta
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॥ श्री सीमन्धरस्वामिजिन चैत्यवंदन ॥
(वातोर्मो)
(१) पञ्चत्रिंशद्गुणपूर्णा गिरन्ते मृद्वी मृद्रों सुरगेयां मनोज्ञाम् । शृण्वन् शृण्वन् सुखपाथोधिमग्नो भकत्याऽह स्यां प्रभु सीमन्घर !
द्राक् ।। १ युष्मद्धयान मम पापं प्रहत प्राकटय ते गुणपुलो बिभर्ति । नाम्नाऽह्मादोऽमर सौख्याद्विशेषो नित्य सेवे चरणाम्भोजयुग्मम् ॥२ चारित्रं ते सावधेऽहं कदैत्य लप्स्ये स्ममिन्निति वाञ्छा सदा मे । पूर्ति यायात् कृपया स्वच्छचेतः सैर कुर्यात्सुरनाथाधिनाथ ।। ३
जय जय त्रिभुवन आदिनाथ, पंचम गति गामीः जय जय करुणावंत प्रभु, भविजन हित कामोः १ जय जय इन्द्र नरेन्द्र, वंद, सेवित शिर नामी; जय जय अतिशय अनंत वंत, अंतर गति यामी; २ पूर्वविदेहे विराजता, श्री सीमन्धर स्वाम; त्रिकरण शुद्धे त्रिकाल मैं, नित प्रति कर प्रणाम; ३
चउ जिन जम्बूद्वीपमा अड घातकीखण्डे; पुष्करार्धे आठ जाणीए, एम विश अखण्डे. १ अड पणवीश चोवीशमी, नवमी विजये विचरता; बाळ तरुण नृपपदणे, वळी अपर अरिहंताः २ सित्तेर सो उत्कृष्टथी ए, भरहेरवय प्रमाणः झाविमळ ।जनराजनी, शिर धराए शुभ आग. ३
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श्री सीमन्घर वीतराग! त्रिभुवन उपगारी; श्री श्रेयांस पिता कुळे, बहु शोभा तुमारो. १ धन्य धन्य माता सत्यकी, जेणे जायो जयकारी; वृषभ लंछने विराजमान. वंदे नरनारी, २ धनुष पांचसे देहडीए, सोहीए सोवनवान; कीर्तिविजय उवज्झायनो, विनय धरे तुम ध्यान ३
वंदु जिनवर विहरमान, सीमन्धरस्वामी; केवल कमला कांत दांत करुणारसधामी. १ कंचनगिरि सम देहकांन, वृषभ लंछन पाय; चोराशी-लाख पूर्व आय, सेवित सुरराय २ छठ्ठ भत्त संयम लोयो ए, पुंडरीगिणी भागः प्रभु द्यो दरिसग संपदा, कारण परम कल्याण. ३
श्री सीमन्धर जगधणी ! आ भरते आवो; करुणावंत करुगा करो, आने वंदायो. १ सकळ भक्त तुमे धणी, जो होवो अम नाथ; भयोभा हुँ छु ताहरो, न हे मेलुं हवे साय. २ सयल संग छंडी, करी चारित्र लईशु; पाय तुपारा सेबोने, शिव रमगी बरोशु. ३ 'ए अळनो मुजने घगो ए, पुरो सीधर देव ! ईहां थकी हुं विना , अपवारा मुज सेव. ४ कर जोडाने विनवू. सामो रहो ईशान; भाव जिनेवा गने, जो कमानदान. ५
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३५
(७)
सीमन्धर जिन विचरता, सोहे विजय मोझोर: समवरण रचे देवता, HTM पर्षदा बार १ नवतत्त्वनी दिये देशना सांभळे सुर नर कोड. षड् द्रव्यादिक वर्णवे, ले समकित करजोड. ३ ईहां थकी जिन वेगळा, सहस्र तेत्रीस शत ऐक; सत्तावन जोजन वळी, सत्तर कळा सुविशेष. ३ द्रव्यथको जिन वेगळा, भावयो हृदय मोझारः बिहु काळे वंदन करु, श्वास माहे सो वार. ४ श्री सीमन्चर जिनवरु ए, पूरे वांछित कोड, कान्तिविजय गुरु प्रणमतां, भक्ति वे करजोड. ५
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(८)
पहेला प्रणमु विहरमान, श्री सीमन्धर देवः पूर्व दिशे ईशान खूणे, बंदु हुं नित्यमेव. १ पुक्खलाई विजय तिहां, पु उरोकियो नयरी श्री श्रेयांस राजा भलो, जीत्या सबी वयरी. २ देहमान धनुष्य पांचशे, माता सत्य की नंद; रुक्मणि राणी नाहो वृषभ लंछन जिन चंद ३ चौराशी लखपत्र आय, सोवन वरणी काय; चीश लाख पुरव कुमार वासेः तेन त्रेसठ राय ४ गणवर चौरासी का एः मुनिवर एकसो कोडो पंडित धोरविमल तणो, ज्ञानविमल कहे कर जोडों ५
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श्री सीमन्धर साहिबा, महाविदेहक्षेत्र मोझारः भक्ति भाव वन्दन करु , दिनमे वार हजार. १ धन्य विजय पुष्कलावती, धन्य पुंण्डरीकिणी धाम; धन्य धन्य माता सत्यकी, धन्य पिता थेयांस नाम २ चोराशीलक्षपूर्व स्थिति, धनुष्य पांचसो काय; धोरी लंछने शोभती, सोवन वरणी काय, ३ कुंथुनाथ आरे जनमिया, इन्द्र कियो अभिषेक; सुव्रत समय दीक्षाग्रही तार्या जीव अनेक. ४ उदय - पेढाल जिनांतरे थासो सिद्ध स्वरूप; अधम उद्धारण तारजो दीजो ज्ञान अनुप. ५
(१०) जयतु जिन जगदेकभानु, काम कश्मल तमहरम् ; दुरित ओघ विभाव वर्जित, नौमि श्री जिनमन्धरम्. १ प्रभु पाद पद्म चित्त लयनो, विषय दोलित निर्भरमा संसार राग असार घातिक, नौमि श्री जिनमन्धरम् २ अतिरोष वह्नि मान महीधर, तृष्णाजलधि हतकरमः वंचनोर्जित जन्तुबोधक, नौमि श्री जिनमन्धरम् . ३ अज्ञान तर्जित रहित चरण, परगुणो मे मत्सरम, अति आर्दित चरण शरण नौमि श्री जिनमन्धरम् . ४ गंभीर बदनं भवतु दिन दिन, देहि मे प्रभु दर्शनम्। भावविजय श्री ददतु मंगल, नौमि श्री जिनमन्धरम् . ५
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(११) जयश्रिया मोहरिपोरवाप्त-त्रिलोकसामाज्यरमाभिरामम् । विदेहभूमण्डल-मण्डन श्रीसीमन्धरस्वामिनमानुवामि ॥ १ सवीमिसीमंधर! पक्षिणोऽपि, पश्यन्तिये पक्षबलादिम त्वाम । अहं तु पापस्तव दर्शनार्थ-मनोरथैरेव सदा कदथ्ये. ॥ २ मनोरथारप्यथवा भवन्तु, सदा भवद् दर्शन गोचरा में । ध्यातोऽपि यत् पूजितवद्ददासि, त्वमीप्सित सर्वमिति प्रमोदे ॥३ अनाद्यविद्योदरपाशबद्ध, मां मोचय त्रातरिहापि सन्तम् । पयोजगर्भ प्रतिपन्नरोध, भृङ्ग यथा दूररोऽपि भानुः ॥ ४ विधूय रागादिभवान् विकरान्, दधासि रूप निरुपाधिकं यत् । त्रिलोकपूज्य ! भवतः प्रासादान्ममापि तत्रानुभवोऽस्तु सम्यक् ॥५
(१२) समवसरणे विराजता, श्री सीमंधरस्वामी: मधुर ध्वनि दिये देशना, वाणी सुधा समाणी. १ पषंदा बेठी सांभळे, वाणीनो विस्तार; सहु सहुना मनमां थया, आनंद हर्ष अपार. २ जाति वैर शमावीयु, प्रभु अतिशय अद्भुत; संशय सर्वना टाळता, करता भविजन पूत. ३ हुँ निर्भागी इहां रडबडु, शा कीधां में पाप ? ज्ञानी विनानी गोठडी, क्या जइ कर विलाप ४ मात विनानो बाळ जेम, आथडतो कुटातो; आव्यो छु तुज आगळे सखो तो करुं वातो. ५ क्रोड क्रोड वंदना माहरी, अवधारो मिनदेवः । -मागुं निरंतर आपना, चरणकमळ्नी सेव. ६
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३८
सीमंधर
पुखलाइ
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परमात्मा, विजये
(१३)
दाता;
शिव सुखना जयो, सर्व जीवना त्राता.
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पूर्व
विदेहे पुंडरीगिणी, नयरीए सोहे
श्री श्रेयांस राजा तिहां, भवियणना मन मोहे.
चौद सुपन निर्मळ ल्ही, सत्यकी राणी मात; कुंथु अरजिन अंतरे, श्री सीमन्धर जात. अनुक्रमे प्रभु जनमिया, वळी यौवन पावे; माता पिता हरखे करी, रुकमिणी परणावे. ४
भोगवी सुख संसारना, संजम मन लावे; मुनिसुव्रत नमि अंतरे, दीक्षा प्रभु पावे.
घाति कर्मनो क्षय करी, पाम्या केवनाण; वृषभ लंछने शोभता, सर्व भावना
उदय पेढालजिन अंतरे ए, जसविजय गुरु प्रणमतां,
चोराशि जस गणधरा, मुनिवर अॅकसी कोड; त्रण भुवनमां जोवतां, नहि कोई एहनी जोड. दश लाख कह्यां केवळी, एक समय ण काळनां,
जाण.
प्रभुजीना परिवार; जाणे सर्व विचार.
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थाशे जिनवर सिद्ध; शुभ वंछित फळ लीध.
८
९.
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(१४)
श्री सीमन्धर जिनवरा, विचरे जंबूद्वीपे; पुक्खवइविजये नगर, पुंडरीगिणी दीपे. १
सुत श्रेयांस राजा तणो; सोवन कंचन काय; आयु जास सोहाय.
पूरव चोराशि लाखनु, पांचशे धनुष्य शरीर छे, वृषभ लंछन पाय; रुक्मणी राणी नाहलो, सत्यकी जेहनी माय. दश लाख केवळी जेहने, सो होडी मुनिस्वाभी; साघवी सो कोडी कही, श्रावक संख्या न पामी. ४ प्रतिहार ज आठ छे, वाणी गुण पांत्रीश; पूर्वविदेहे जाणीये, नमतां नहीये जगीश
पोते;
ईह भरते प्रभु कुंथजी, सिद्धिपुर अरजिन जन्म हुओ नहि, ए अंतर सोहंते ६ सीमन्धर जिन उपना, सुरपति सुव्रत नमि जिन अंतरे, दीक्षा उदय पेढाल भावि प्रभु, तस अंतर कद्देवाय; सीमन्धर जिन पामशे, अविनाशी पुर ठाय. ८ आ भरते पण कोई जीव, सुलभ बोधि जेह;
जाप जपे तुज नामना, लाख संख्याए तेह. ९ भवस्थिति निर्णय त हुए अथवा ध्यान पसाये; उपजी विदेह केवळ लहे, नवमे वरस उत्साहे. १० शासनसूरी पंचांगुली सर्वि सानिध्य सारे, सीमन्धर जिन सेवना, दुःख दोहग वारे. ११ प्रह उठीने नित्य नमु आणी मन आनंद; लक्ष्मीसूरि प्रभु नामथी, प्रगटे परमानंद १२
"
महोच्छव कीधो; कल्याणक सीधो
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(१५) विंशति विहरमाण जिन चैत्यवन्दनम् । सीमन्धर स्तौमि युगन्धरं च, बाहु सबाहुं च सुजातदेवम् । स्वयंप्रभं श्री ऋषभाननाख्य-मनन्तवीर्य च विशालनाथम् ।। सुरप्रभ वनधर च चन्द्राननं नमामि प्रभुभद्रबाहुम् । भुजङ्गनेमिप्रभतीर्थनाथा - वथेश्वर श्री जिनबीरसेनम् ॥ स्तवीमि च महाभद्, श्री देवयशसं तथा । अर्हन्तमजितवीर्य, वन्दे विंशतिमहंताम् ।।
(१६)
(उपजाति-वृत्तम्) सुश्रावक चंपकलाल काळीदास हरडे कृत
श्री विशंति विहरमाणजिननामस्तवः ॥ सीमन्धरेश युगमन्धरं च, बाहुँसुबाहुं गुणमन्दिरं च । सुजातनाथ सुरनाथ-सेव्यं, स्वयंप्रभं स्तोमि सुरप्रभं च ॥१॥ चन्द्राननाख्यमृषभानन च, श्री चन्द्रबाहुं च भुजङ्गमीशम् अनन्तवीर्याजितवीर्यनाथौ, नमामि नेमिप्रभभीश्वरं च ॥२॥ विशालदेव जिनवीरसेन-महर्निशं देवयशो जिनेशम् । श्रीमन् महाभद्रमनन्तसौख्य वन्दे सदा वज्रधर जिनेन्द्रम् ॥३॥
(अनुष्टुप) विहरन्तो जिना एते महाविदेह-मण्डनाः । भवेयुर् भन्यजीवानां, कौटिकल्याणदायकाः ॥४॥ पंचशतधनुर्माना - "चम्पक" युतिदेहिनः । जिनाः स्युः सवसत्त्वानां, कोटिकल्याणदायकाः ॥५॥
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सीमंधर युगमंधर प्रभु, बाहु सुबाहु चार; जंयूद्वीपनां विदेहमां, विचरे जगदाधारः सुजातसाहेब ने स्वयंप्रभ, रूषभानन गुणमाल; अनंतवीर्य ने सुरप्रभ, दशमा देव विशाल, २ पधर चंद्रानन नमु, धातकीखंड मोझार. अष्टकर्म निवारवा, वंदुवार हजार. ३ चंद्रवाहु ने भुजंगप्रभ, नमि ईश्वर, वीरसेन; महाभद्र ने देवनाशा, अजितवीर्य नामेन. ४ आठे पुष्कराधमां, अष्टमी गति दातार; विजय अडनव चउविशमी, पणविसमी किरतार. ५ जगनायक जगदीश्वरु ए, जगबंधव हितकारः विहरमानने वदता, जीव लहे भवपार. ६
पहेला जिनवर विहरमान, श्री सोमंधरस्वामी; युगमंघर बोजा नमु, मुज अंतरजामी. १ श्रीजा वांहु जिनेसरु, प्रणमु भगवंतः चोथा जिन श्री सुबाहु, बंदु की जुगते. २ श्री सुजात पंचमजिन ए छट्टा स्वयंप्रभस्वामोः । ऋषभानन जिन सातमा, हुं प्रणमु शिरनामी. ३ अनंतवीर्य जिन आठमा, सुरप्रभ छे नवमा, श्री विशाळ दशमा जिणद, जस मोटो महिमा ४ श्री वधर अगीयारभा बारमा चंद्रानन, चंद्रबाहु जिन तेरमा, जस वर्णो कंचन ५ भुजंगस्वामो जिन चौदमा, वंदु उलट आणी, श्री ईश्वर जिन पंदरमा, नमीए नित्य सुविहाण. ६ नेमिप्रभ जिन सोळमा, सुखदायक जेह, सत्तरमा श्री वीरसेन, वंदु धरी नेह. . 'महाभद्र अढारमा, देवजशा ओगणीश, अजितवीय जिन विशमा, ज्ञानविमलसूरीश. ८
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श्री सीमंधरजिननी स्तुतिओ
(१)
मुज आंगणे सुरता मगीयो, कामधेनु चिंतामणि पुगीयो सीमंधरस्वामी जो मिले, तो मनह मनोरथ सवि फले. १ हुँ वंदु विशे विहरमान, ते देवलज्ञानी युगप्रधान, सीमंधरस्वामी गुण निधान, जेणे जित्या कोह लोह मोह मान २ आंबावन समरे कोकिला. मेहने वंछे जिम मोरला, मधुकर मालती परिमर रम, तिम आगमे मारुं मन रमे. ३ जय लच्छी शासन देवता, रत्नत्रय गुण जे साधता; विमल सुख पामे ते सदा, सीमंधरजिन प्रणमु सदा ४
सीमंधरस्वामी निर्मळा, तुम झान उपy केवन्त्रः सीमंघरस्वामी तार तार, मुज आवागमन वारवार. १ सीत्तरीसय जिनवर बंदीये, जस नामे पाप निकंदीये; संप्रति जिन सोहे विश सार, ते भथियण वंदो वारंवार. २ जिनवाणी साकर शेलडी, पीतां जाणे अमृत वेलडी, जिन आगम सागर सेवा, लहो विद्यारयण सोहावता. ३ सीमंधर जिनपद अनुचरी, श्री संघ प्रत्ये बहु सुख करी, कनकाभासा शासनसूरी, यो वांछित देवी पंचागुळी. ४
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४३
सीमंधरस्वामी मोरा रे, हुं तो ध्यान धरूं तोरा रे, राणी रुक्ष्मणीना भरतार रे, मन वंछिते फल दातार रे. १ वीश विहरमान जिन नामें रे, वीशने करुं प्रणाम रे, जेनु दर्शन आनंदकारी रे, तेने पाय नमे नरनारी रे. २ गणधरने त्रिपदी दीधी रे, सिद्धांतनी रचना कीधी रे, एनो अर्थ अनुपम लहिये रे, सुगुरुने वचने रहिये रे, ३ देवी पंचांगुली सानिध्यकारी रे, तेणे पाय नमे नरनारी रे; ए तो थोय रची ते सारी रे एवा कनक सो भागी जयकारी रे, ४
(४)
(राग : चोपाई छद) सीमन्धरजिन ध्याइई, जिम दुरित सवि मिटाइई; अष्टकर्म ते दूर जाइ ई, जिम शिवसुख पदवी पाइई. १ सीमन्धर ध्यान धरे, जिम अडसिद्धि नवनिधि करे; संसार फेरीमा नवि फरे, बली अविचल पदवी तिम वरे. २ सीमन्धर जिन सोहे छे. बेठा भविजनने पहिबोहे छे; नर नारी द जे मोहे छे, आनंदित थई प्रभु जोहे छे. ३ पंचांगुली देवी जयं करूं, वली इति उपद्रव ते संहरु; जिन शासनमां शोभा करु, कहे पद्म ऋद्धि वृद्धि करु. ४
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१४
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(५)
(राग : चौपाई छंद)
उजियाली बीज सुहावई रे शशीरूप अनुप विभावई रे, चंदा विनति चित्तमां घरजो रे, सीमन्धरसे वंदन करजो रे, १ बीश विहरमान जिनवादी रे, जिन शाश्वत पूजी आनंदी रे, तिहां नाम अमारुं लेजो रे, चंदा ए हितकामित देजो रे,
सीमन्धरजिन वाणी रे, चंदा सुणतां अभीय ते निसुणो अमने सुणात्रो रे, भत्र संचित पाप श्री सोमन्धर जिन सेवी रे, चंदा भासन शामनदेवी रे: ते होजो संघनई त्राता रे, गजागंद आनंद विख्याता रे, ४
समाणी रे, गमावो रे, ३
(६)
अजुवाळी ते बीज सोहावे रे, चंदारूप अनुपम भावे रे, चंदा विनाडी चित्त धरजो रे, सोमन्धरने वंदना कहेजो रे. १
वीश विहरमाण जिनने बंदा रे, जिनशासन पूजी आणंदो रे, चंदा एटलु काम मुज करजो रे, श्री सीमन्धरने वंदगा कहजो रे, २
श्री सीमन्धर जिननी वाणी रे, ते तो पीतां अमीय समाणी रे, चंदा तुमे सुगी अमने सुगावो रे, भत्र संचित पाप गमात्र रे. ३
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श्री सीमन्धरजिननी सेवा रे, जिनशासन भासन मेवा रे, तुमे होजो संघना त्राता रे, जगत चंद्र विख्याता रे.
४
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( राग : शत्रुजय मंडन...) अजवाळी बीजे चंदा तुं अवधार, विनतडी मारी जाय विदेह मोझार; प्रणमु सीमन्धर मुज दुरित करजोड; नमतां प्रभुजी नित पहोंचे वंछित कोड. १ उत्कृष्टे काळे सित्तेरसो जगनाथ, उपजे महीमंडल मुगतिपुरीनो साथ; तिहां केवलज्ञान केवळदर्शन अनंत, सगरो भवि भावे जिम पामे भवअंत. २ अढी द्वोपमांहे पंच विदेह प्रधान, विचरे तिहां प्रतिदिन विश विहरमान,
अतिशे गुणवंता दे भवियण उपदेश, तस चाणी सुगता सांसो नहि लवलेश. ३ शासनहितकारी समकित दृष्टिदेव, ते सानिध्य कीजे श्री संघनित प्रतिमेव; श्री विजयगच्छनायक सागरज्ञानमूरिंद, पदपंकज प्रणमु अनिशि वीरजिणंद. ४
(८) ( राग : शत्रुजय मंडन ऋषभजिणंद दयाल ) श्रोजिन सीमन्धर धुर नाम निवास, प्रणमुं त्रिगडे सोहे मोहे लीलविलास; सेवकजन केरी वंछिन पूरई आश, सवि संपत्ति मेलई जेहतणा गुणराश. १
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चोवीशे जिनवर आदि आदिजिणंद, सिद्धारथनंदन जाव वीर सुखकंदः पातिकदल गयघड दूरीकरण मयंद, सुखसार सुधारस वरसो ज्यु जगचंद. २ सघळा जे शास्त्रो कळातणा विस्तार, तेजे जलनिधिनो एकइ बिंदु उगरः भणई ते आगम अरथरयाग भंडार, शुभ मति आदरई वरोई जयजत्रकार. ३ सीमन्धर जिनवर शासन शोभाकार. पंचागुलीदेवी हिडयई हेज अपारः विजयदेव पटोधर विजयसिंह गगधार; जय उदय महोत्सव ऋद्धिवृद्धि विस्तार. ४
(राग : शत्रुजय मंडन......) सीमन्धर जिनपति विनति सुणो महारांज, भरभ्रमण निधारी तारी द्यो शिवराजः सुज आशा पूरण चूरण कर्म जंजीर, तुम सम नहि जगमा इममें कोई सुधीर १ पाडा विदेहमा मोहे विजय शन माठ. उत्कृष्टे काळे सिनेर सो जिन पाठ. विहरमान विचरे विरह नहि बिहु काळ ए जिनने नमोई लहोई मामा. २
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जिन त्रिगडे सोहे मोहे परषा बार, जिनवाणी सुणतां केई पामे भवपार: नव वत्त्व विचारी सारी सोमन्धरवाण, समजे सवि प्राणी बूझे जाण अजाण. ३ जिन शासननायक दायक समक्ति सार, रास आणाकारो सुविचारी नर नारः तस सोनिध्य करजो हरजो विघन अनेक, देव देवीनी शक्ति कान्ति सेवक सुविवेक. ४
(१०)
(राग : शचुंजय मंडन .... ) श्री सीमन्धर जिनवर राय नमुनित पाय; चोराशी पूरव लाख तणुं जस आय; सोवनषन साहे जग मोहे जगदीश, संप्रति जगमांहे सवली जास जगीश. १ अतीत अनागत वर्तमान भगवंत, पन्नरे क्षेत्रे जे राखे जग जंत; वली धंदु भगहि विहरमान जिन वीश, सुखदुख सवि जगमा जे जाणे निशदिश. २ आगमने अंगी करी तुज परतिकख एह, विष विषयने टाळे निःसंहः पंगु पय पामी जिनवाणो अभ्यास, कीजे सुणो भवियण जिम पहुंचे सत्रि ओम.३
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१८
जिनशासन भासन सकल सुरासुर देव, देवी वली समकितवंती जे नितमेव, जिनशासन सानिध्य कीजे करुणा आणी सांभळजो सुर सघन श्रीलव्धिविजयनी वाणी. ४
(११) (शत्रुजय मंडन.....) सीमन्धर मूरति सुरति सुरतरुकंद, जस सेवइ सुर नर विद्याधर नरिंद, ते धन धन कहीई जे मनइ तुम शीश, मुज होज्यो भव भव तुम सेवा जिन ईश. १ घर केवल नाणइ शोभित अतिशज वंत वर वाणी गुण ते पांत्रीसे सुहंत; सवि दोष रहीत ते वीशे जिन विचरंत, जस नाम जपता लहीइ सुख अव्रत, २ जस गणधर गिरुआ गुथई अंग उपाग, चउद पुरव पूरी सांभळतां सुख संग, जस अमीय समाणी वाणी जिनलर संत, धन धन ते मुनिजन अनुदिन ते सुणत, ३ वर कर कडी चूडी रंग रमाल, कटी मेंखल सलकइ नेउरडी झमकार, झासन सुरदेवी धेवी श्रीजिन पाय, संघ विघन निवारो विजय सौभाग्य सुखदाय ४
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(१२)
(जिनेश्वर अति......) श्री सीमन्धर युगमंधर स्वामि, बाहु सुबाहु ते जाणोजी, सुजात ने स्वयंप्रभ ऋषभानन, अनंतवीर्य वखाणोजी, वंदु सुरप्रभ विशाल वज्रधर, चंद्रानन चंद्रबाहुजी, भुजंग ईश्वर नमिप्रभ वीरसेन, महाभद्र देवयश प्राहुजी, १ अजितवीय ए वीश जिणंदा, महाबिदेह विचरंताजी, केई कुमरपद केई नृपपदवी, केइ जिनेश महंताजी; अढी द्वोपमां पंचविदेहे, विहरमान जिन वीशोजी, भाव धरीने नित प्रणमता. पहोंचे मनह जगीशाजी. २ दान शीयल तप भाव अहिआ, ओ जिन आगम सारजी, प्रवचनमां एह जिनवर भाख्यो, ते पाळो निरधारज अमीय समाणी श्रीजिन वाणी, गूंथी गणधर जाणीजी, ते आगम भविजन आराहो, भाव अधिक मन आणीजो. ३ समकितधारी सानिध्यकारी, देव देवी सुखकारीजी, जिन शासन अधिष्ठोयक सुरवर, संघ सकल हितकारीजी; पंचागुलीदेवी जिनवर सेवी, निज सेवकने सहायजी, श्री कपुरविजय सद्गुरु सुपसाये मानविजय गुण गायजी. ४
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(राग : ऋषभ चंद्रानन वंदन कीजे) पुंडरीगिणी नयरी जस पुरी, श्री श्रेयांस नरेशोजी, राणी सत्यकी घरणी जाणो, सोम गुणे करी प्रीतोजी; सीमन्धर तस नंदन सुंदर, रुखमणीनो भरतारोजी, वृषभ लंछन सेवे नर राणा, कंचनवरण सफारोजी. १ कुंथु अरजिन अंतर जायो, सीमंधर जगदीशोजी, मुनिसुव्रतजिन नमिने अंतर, लहइ दीक्षा जिन ईशोजी, उदयदेव पेढालने अंतर, लहेशे मुक्ति अभंगोजी, इत्यादिक जिन सघळां नमीइ, जिम होई नित्यनित्यरंगोजी. २ पुक्खलबई विजय माहे राजे, गुहरी वाणी गाजेजी, मनछाइ लव सप्तम सुरना, दुरघट संशय भांजेजी; सुर नर तिर्यंचादिक सहु समजे, अतिशय चोत्रीश राजेजी, छत्रत्रय चामर तस विजई निरखे बहु दिवाजेजी. ३ सीमंधरजिन शासन रखवाली, पंचागुली धन पूरेजी, भरतक्षेत्रमा जे तुज समरे, तेहनां संकट चूरेजी; हस्त अढार आयुध करी सोहे, भविका वळी संत्राताजी, उदयचंद बुध चरण पसाई, कहे सुखचंद विख्याताजी. ४
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५१
(१४)
( राग : वीर जिनेश्वर अति अलवेसर)
श्री सीमंधर साहेब मेरा, विनतडी अवधारोजी, नरक निगोद भीति निवारो, जनने तारणहारोजी; राय श्रेयांसकुल नगीनो, माता सत्यकी संतोजी, रुखमणीकंत विराजित सोहे, भवभंजन भगवंतोजी १
त्रिजग धारण युगल निवारण, समकित दाइ सारोजी, मिध्यात्व घन तिमिर निवारण, धर्मरूप दातारोजी; उपशमरस ध्याननो दरियो, गाजे गुहिर गंभीरोजी, प्रवचनसार सुधारस वरसे, उपशम निरमल नीरोजी. २
श्री सीमंधर साहिब दिये, अभिनव आगम दरियोजी, उद्योते शशी सूर समा गुण मिध्यात्व सवि हररियोजी; क्रोध लोभ अरु माया केरो, ताप हरे सवि दुरोजी, केवळझाने सूरज ज्यु ओपे, भविजनने आधारोजी. ३
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पगे नेउर रुमझुम करती, कंठे नवसरहारोजी, कर कंकण वर चूनडी विराजे, बाजुबंध सफारोजी; काने कुंडळ शिर मुगट मनोहर, सजी सोल शणगारोजी, शासनदेवी विघन निवारण, पद्मविजय जयकारोजी. ४
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(१५)
श्री सीमन्धर पाय प्रणमीजे, समकित रयणे लहिएजी, तस आणा नित्य शिर वहीजे, जेथी कर्म खपीजेजी; महाविदेहे जिन बंदीजे, आतमगुण नंदीजेजी, ग्रह उठी नित्य नित्य जपीजे, शिवरमणी खप कीजेजी १ आनंद अर्पण जिनवर बीशे विदेहक्षेत्रे बंदोजी, सीमन्धर युगमन्धर आदि पाप तिमिरहर चंदोजी, चंद्र भुजंगम ईश्वर नेमि, आदि नाम लई नंदोजी, जिन जिन जिन इम नित्य जपंतां, हरीये भवभव फंदोजी. २
जिनवाणी गुणखाणी जाणी पीजे अमृत समाणीजी, वाणी पीतां कर्मनी हाणी आगमथी एम जाणीजी, स्याद्वाद दीप नयथी वखाणी, गणधरदेव गुंथाणीजी पालन करतां शिव निशानी बनशे केवलनाणीजी. ३
हरती होळी विघ्ने रोळी, केशर चंदन घोळीजी, नव अंगे पूजे जिन टोली, भक्तिभाव रंगरोळी जो, शासन भक्तो भक्ति अमोली, हृदयकमलने खोलीजी, लब्धिसूरि कहे जय जिन डोली, बोले ऐवी बोलीजी. ४
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(१६)
जगचिंतामणि सुरतरु सरीखा सीमन्धर जिनरायजी, प्रातिहारज आठ विरारी, कनकवरणमयी कायाजी, अतिशयधारी ने सुविहितकारी, टाळे भवभय फेराजी, अमर अमरी नर सेवे पदकज, प्रणमुं उठी सवेराजी. १ त्रण भुवनमा उद्योतक भानु, शाश्वत जिनवर सोहेजी ऋषभ चंद्र वारिषेण वर्धमान, भविक कमळ पडिवोहेजी क्रोड पनरसे क्रोड बायालीश, लख अडवन सुखकंदोजी, सहस छत्तीस ने उपर एंसी, शाश्वता जिन नित वंदोजी. २ आठ क्रोड अने छप्पन लाख सत्ताणु सहस उदारजी, बत्तीसे व्यासी तिहुं लोकना, शाश्वता चैत्य जुहारोजी; करुणासागर गुणवयणागर, सीमन्धर जिन भाखेजी, भविजन करण कचोले पीवंतां, वाणी सुधारस चाखेजी. ३ मृगमद केसर चंदन कपूर, पूजो पंचागुली पायजी, सुकृत करणी ने दुष्कृत हरणी, संघ सकल सुचदायजी श्रीसीमन्धरजिन ध्यान करता, संकट विकटने चूरेजी, कृष्णविजय सुशिष दीप सेवकना, मनह मनोरथ पूरेजी. ४
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(१७)
श्री सीमन्धर सेवति सुरवर, जिनवर जय जयकारीजी, धनुष पांचशे कंचन वरणी, मूरति मोहनगारीजी विचरंता प्रभु महाविदेहे, भविजनने हितकारी जी प्रह उठी नित्य नाम जंपीजे, हृदयकमलमां धारीजी. १ सीमन्धर युगवाहु सुवाटु, सुजात स्वयंप्रभ नामजी; अनंत सुर विशाल वनधर, चंद्रानन अभिरामजी; चंद्र भुजंग ईश्वर नेमिप्रभ, वीरसेन गुणधामजी. महाभद्र ने देवयशा वळी, अजित करुं प्रणामजी. २ प्रभु मुखबाणी बहु गुणखाणी, मीठी अमीय समाणीजी, सूत्र अने अथे गुंथाणी, गणधरथी विरचाणीजी; केवलनाणी बीज वखाणी, शिवपुरनी निशाणीजी, उलट आणी दिलमांहे जाणी, व्रत करो भविप्राणीजी. ३ पहेरी पटोळी चरणां चोळी, चाली चाल मराळीजी, अति रूपाळी अधर प्रवाळी, आंखलडी अणीआळोजी, विघ्न निवारी सानिध्यकारी, शासननी रखवाळीजी, धीरविमल कविरायनो सेवक, बोले नय निहाळीजी. ४
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(१८)
श्री सीमंधर मुजने वहाला, आज सफळ सुविहाणुंजी, त्रिगडे तेजे तपता जिनवर, मुज तुठयां हु जागुंजी, केवळ कमळा केलि करंता, कुळमंडल कुलदीवोजी, लाखचोराशी पूरव आयु, रुखमणी वर घणुं जीवोजी. १ संप्रतिकाले वीश तीर्थङ्गर उग्या, अभिनव चंदाजी, केई केवळी केईबालकर परण्या, केई महीपनि सुखकंदाजी, श्री सीमंधर आदि अनोपम, महाविदेहक्षेत्रे जिणंदाजी, सुरनर कोडाकोडी मळी कळी, चोवे मुख अरविंदाजी. २ सीमंधर मुख त्रिगडु जोवा, हु अलजायो वाणीजी, आडा डुंगर आवी न शकु, वाट विषम अरु पाणीजी, रंग भरी राग धरी पाय लागु, सूत्र अर्थ मन सारोजी, अमृतरसथी अधिकी वखाणी, जीवदया चित्त धारोजी. ३ पंचांगुली में प्रत्यक्ष दीठी, हु जाणुं जगमाताजी, पहेरण चरणा चोळी पटोळी, अधर बिराजे राताजी; स्वर्गभुवन सिंहासन बेठी, तुंही ज देवी विख्याताजी, सीमंधर शासन रखाबाठी, शान्तिकुशळ सुखदाताजी. ४
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(१९)
श्री सीमंधरदेव सुहकरु, मुनि मन पंकज हंसाजी, कुन्थु अरजिन अंतर जनम्या, तिहुअण जस परशंसाजी, सुव्रत नमि अंतर वरी दीक्षा, शिक्षा जगत विभासेजी, उदय पेढाल जिनान्तरमा प्रभु, जाशे शिववहु पासेजी १ बत्रीश चउसठि मलीया, ईगसयसठ्ठि उक्किट्ठाजी, चउ अड अड मली मध्यकाळे, वीश जिनेश्वर दिट्टाजी; दो चउ चार जघन दश जंबू धायई पुष्कर मोजारजी, पूजो प्रणमो आचारांगे, प्रवचनसार उद्धारजी. २ सीन्मधर वर केवल पामी, जिनपद खत्रण निमित्तेजी; अर्थनी देशना वस्तु निबेशन, देतां सुणता विनीत्तेजी; द्वादश अंग पूरव सूत्र रचीया, गगधर लब्धि विकसीयाजी; अपज्जवसिय जिनागम वंदो, अक्षयपदना रसीयाजी. ३ आणा रंगी समकित संगी, विविधभंगी व्रतधारीजी; चउविह संघ तीरथ रखवाली, सहु उपद्रव हरनारीजी; पंचांगुलीसुरी शासनदेवी, देती तस जस ऋद्धिजी, श्री शुभवीर कहे शिव साधन, कार्य सकलनी सिद्धिजी. ४
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(२०) (राग : सनर भेदी जिनपूजा रचीने) 'पूर्वदिशि उत्तरदिशि वचमां, ईशान खूणो अभिरामजी, तिहां पुक्खलवई विजया पुंडरीगिणी, नयरी उत्तम ठाणजी; श्री सीमंधरजिन संप्रति केवली, विचरे जयकारीजी, बीजतणे दिन चंद्रने विनवु, वंदना कहेजो अमारीजी. १ जंबूद्वीपमां चार जिनेश्वर, धातकीखंडे आठ जी, पुष्कर अरधे आठ मनोहर, एवो सिद्धांते पाठजी, पंच महाविदेह थईने, विहरमान जिन वीशजी, जे आराधे बीज तप साधे, तस मन हुई जगीशजी. २ समवसरणमां बेसी वखाणी, सुणे इन्द्र इन्द्राणीजी, सीमंधरजिन प्रमुखनी वाणी, मुज मन श्रवणे सुहाणीजी, जे नर नारी समकितधारी, ओ वाणों चित्त धरशे जी, बीजतणो महिमा सांभळतां, केवल कमला वरशेजी. ३ विहरमानजिन सेवाकारी, शासनदेवी सारीजी, सकलसंघने आनंदकारी, वांछित फल दातारीजी; बीजतणो तप जे नर करशे, तेनी तु रक्षाकारीजी, वीरसागर कहे सरस्वतीमाता, दीओ मुज वाणी रसालीजी. ४
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(२१)
. (राम-रघुपति राघव राजाराज)
सीमंधरस्वाभी गुणनीला, किम वांदु जई वस्या वेगला; बीजे चंदलो उग्यो उदयकाल, भावे बंदना होजो त्रण काल १ वांदु वीसे जिनवर विहरमान, पांचे तिथि पाम्या विमलज्ञान, . जगनाथजी बाळो विषय कक्ष भावे वंदना ज्यां होजो दोय पक्ष. २ बीजे तप कर्या सुखसाधना, श्रावकमुनि धर्म आराधना; बेसी निगडे कहे सीमन्धर तिहां आथम गूंथे गणधार. ३ पंचागुली संघ रखवालिका मुज देजो मंगलमालि; भावविजय वाचकनो शीस भाण, कहे तुठ्ठो देवी कर कल्याण. ४
(२२) जंबूद्वीप विदेहमा विचरे, सीमन्धरजिन भाणजी, सोवनवान ऋषभलंछन तनु, पांचसे धनुष प्रमाणजी; घातीकर्म क्षये प्रभु पाम्या, केवलदसण नाणजी, लोकालोक प्रकाशक वंदु, नित नित हुं सुविहाणजी. १ जंबूद्वीपमां चार जिनेसर, धातकीखंडे आठजी, पुकरार्धमा आठ जघन्यथी, वीसतणा बहु पाठजो; उत्कृष्टा सित्तेर सो वंदो, धर्मतणा जिहां ठाठजी, प्रातःसमे परमेश्वर प्रणमो, कर्म खपावो आठजी. २
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त्रिगडे बेसी गणधर थाये, चउविध संघ उदारजी, धर्म प्रकाशे चउमुख चउविध, सुणती परखदाबारजी, पंचवर्णांशुक अनियत आवश्यक, तिम वली महाव्रत चारजी, इणि अरथे द्वादशांगी मनोहर, हुं वंदु श्रीकारजी. ३ धन्य ते देव जे समकितधारो, मीमन्धर जिनरायजी, वंदे पाप निकंदे भवनां, सुणे देशना निरमायजी; ते सुर हितकर थई जिन उत्तम, मेलो मुने आयजी, पद्मविजय कहे जिणी परे मुजने, वहेलु शिवसुख थायजी. ४
(२३) श्री वीश विहरमाननी स्तुति
( राग : मनोहर मूर्ति महावीर रणी) पंचविदेह विषे विहरंता, बोस जिनेसर जग जयवंता; चरणकमल तस नामुं सीस, अहनिसि समरु ते जगदीस. १ पंच मेरु पासे झलकता, सोहे वीस महागजदंता; तिण उपरी छे जिनवर वील, ते जिनवर प्रगमुनिसदिस. २ गणहर कहीय दुवालस अंग, थानक बीस भण्यां तिहां चंग; तिण उपरी जे आणे रंग, ते नर पामे सुख अभंग. ३ जिनशासनदेवी चउवीश, पूरे मुज मनतणी जगीश; संघतणा जे विघन निवारे, तिहुअण जन मनवंछित सारे. ४
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प्राकृत स्तुतिओ
(२४)
(भुजङ्गप्रयातवृत्तम्) महाकेवलणाण कल्याण वासो, सलावण्णसोवण्णवण्णप्पयासो । थुणे सार सिद्धिं पुरि सत्थवाह, सया सामिसीमन्धर तित्थनाहं ॥१॥ सुरा किन्नरा जास पायारविंदे, नमसंति भुयालसेविज्ज वंदे । तिलोइजणाणंदणंपुण्णचंदा,सुह दितु मे स व्वया ते जिणिदा ॥२॥ सया पावसंतीयपीयुषपूर, तमोरासिनिण्णासउल्लाससूर । गुणापारसंसारकुबारसेउं, जिणिदागमो वंदिमो सुक्खसेउ ॥३॥ जगण्णाहसीमन्धरं पायभत्ता, पवित्तागरत्ता सुसत्ताण जत्ता, सुंहसव्वभव्याण संपूरितासा, सया सेय पर्तिगिरा देवीआसा ॥४॥
(२५)
(भुजङ्कप्रयातवृत्तम् ) महीमंडणं पुण्णसोवण्णदेहं, जणाणंदणं केवलनाणगेहं; महाणंद लच्छी बहु बुद्ध राय, सुसेवामि सीमन्धर तित्थराय. ॥१॥ पुरा तारागा जेह जीवाण जाया, भवस्संति ते सव्व भव्वाण ताया; तहा सपय जे जिणा वट्टमाणा, सुहंदितु ते मेति लोपप्पहाणा. ॥२॥ दुरुत्तार संसारक्वारपोय, कलंकावलोपंकक्खलातोय'; मणोवंछियत्थे सुमंदारकप्प, जिणिदागम बंदिमो सुमहप्प. ॥३॥ विकोसे जिणिंदाणणं भोजलीणा, कलारूक्लावण्ण्सोहागपीणा; वहंतासचित्तमि णिच्चंपि झाणं, सिरिभारई देहि मे सुद्धनाणं ॥४॥
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(२६)
(शार्दूलविक्रीडित्तम् ) जा रज्जं परिहत्त सुव्वयनमितित्थेसराणांतरे, दिक्ख गिण्हिय पत्त केवलमहे बोहेइ भव्वे जणे, वंदे पुव्वविदेहवासबसुहासिंगारहारोवम', तं सीमंधरसामिय जिनवरं कल्लाणकप्पमं ॥१॥ जुत्तं सढि सयं विदेहपणगे ऐरावहे भारहे, पत्तेयं पुण पंचसत्तरिसयं एवं एहेसी परा. ईकिमि विदेह संपई पुणो चत्तारि चत्तारि जो, ते सव्वे अइणागए जिणवरे बद्धंजले वंदिगो ॥२॥ जो गंभीरभवंधकूवकुहरुत्तारे करालंबण', जो निसेस समिहियत्थधडणो कप्पमो पाणिणं, मिच्छताईमहंधयारेल हरीसंहारेसुरुग्गम, तं दुहंतकुवाइदप्पदलण वंदे जिणिदागमं ॥३॥ जो सीमंधरसामिपायकमले सिंगारभिंगी सया, खुद्दोवद्दवववंमि निउणा सव्वस्स संघस्स जा जा अठूठारसबाहुदंडकलिया सिंहासणे सोहए; सा कल्लाणपरंपरा दिसउ मे पंचरादेवया ॥४॥
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॥ श्री वीसविहरमानजिनस्तुतिः ॥
(२७)
(शार्दूलविक्रीडितम्)
गंदे सीमंधर जुगंधरजिण बाहुं सुवाहुं तहां, सज्जायं रिसहाणणंत विरियसुरप्पहूं इसर, वीर वज्जधराइवी रियविसालं चंद बाहुं सयं; नेमिं देवजसं भुअंगममहाभट्ट च चंदाणणं ॥ १॥ जंबूदीव महाविदेहतिलया चत्तारि तित्थंकरा, अन्ने धाइयखंडमं जिणा अठेव जे संधुया. तत्तो अठ्ठयपुक्खरद्धपहुणो वीसं जिणिंदा इमे; एवं जे विहरति संपइ सुह ते चिंतु अन्नेव भो ॥२॥
मिच्छतं पणकट्टमपि विजऐ सव्वत्थ सो सत्तया सव्वं भोरुहकाणणं तमहरालोअमि बोहतया तासं पायकुतित्थभूयनिवहं छायं तया कुग्गहे, ते निच्चं सियवायवासरमणी पाया पसायंतु मे ||३|| जे संघस्स चउहिस्स विजये साहज्जकज्जे रया ये सम्मत्तसु निच्चला कलिमल पक्खालनप्पच्चला वेयावच्चकरा सुरा जिणमए कम्मं कुगंताण ते, अम्हाणं दुरियं हरंतु तुरीय साहंतु जं चितिये ||४||
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(२८)
(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) वंदे पुब्वविदेहभूमिमहिलालंकारहोरोवम, देवं भत्तिपुरस्सरं जिणवर सीमंधरं सामिय । पाया जस्स जिणेसरस्स भवभीसंदेहसंतासणा, पोयाभाभवसायररंमि निवड ताणं जणाण सया ॥१॥ तीयाणागयवट्टमाणअरिहा सव्वेवि सुक्खावहा, पाणीणं भवियाण संतु सययं तित्थंकरा ते चिरं । जेसि भेरुगिरिंमि वासणगणा देवंगया संगया, भत्ति ये पकुणंति जम्मणमहं सोवण्णकुंभाइहिं ॥२॥ निस्सीमामलनाणकाणणघणा संमोहणिण्णासणो, जो निस्सेसपयत्थसत्थकलणे आइच्घकप्पो फुडो । सिद्धतं भविया सरंतहियए तं बारसंगीगयं नाणाभेयणयावलि हिकलियं सव्वण्णुणा भासियं ॥३॥ जे तित्थंकरपायपंकजवणो से विक्करोलंबया, भव्वाणं जिणभत्तयाण अणिसं सोहिज्ज कज्जेरया । सम्मद्दिविसुरा वराभरण-भादिप्यंत देहप्पहा, ते संघस्स हवंतु विग्घहरणा कल्लाणसंपायणा ॥४॥
(२८)
(अनुष्टुप् छन्दः) विदेहाख्येषु क्षेत्रेषु, पञ्चसु विशतिर्जिनाः । विचरंतः सदा लोके, वर्तते जयकारिणः ॥१॥ गजदंतस्थितान् सर्वान; भव्यजीवप्रबोधकान् । तानहं प्रयतो वंदे, प्रत्यहं झानभास्करान् ॥२॥
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द्वादशाङ्गानि रम्याणि, गणनाथकृतानि ये । सेवंते परया भक्तथा, लभंते ते शिवश्रियम् ॥३॥ चतुर्विंशतिरच्ययाः, शासनेशा महद्धयः । विघ्नविनाशिका देव्यः, शंकुर्वतु सदा मम ॥४॥
(२९)
(दण्डकवृत्तम्) स्फुरदभिनवभावसम्भूतभक्तिप्रभूतामदेन्द्राऽऽविलस्मेरमाणिक्यकोटीररत्नप्रभाजालविस्मेरताङध्रिकमलयुगरेणुसौरभ्यालुभ्यद्भवारण्यसम्भ्रान्तभव्याङ्गिरङ्गद् द्विरेफावलीमण्डलीमण्डलाऽलङ्कृतम् ॥१॥ नरसुरशिवशर्मलक्ष्मीलसत्केलिगेहायमानं प्रमोदास्पदीभूतविश्वत्रयीराजहंसीभिरासेवितं, विततसुखप्तमाधि स्तुवे देवदेवं प्रभोः स्वामि सीमन्धरस्य प्रभाते प्रभाते पदाब्जद्वयं भक्तिः ॥२॥ नवजलदगम्भीर विस्फुर्जदूर्जस्विसद्देशनारम्भसंरम्भविद्राविता प्रौढकन्दर्पदोर्दण्डदपोर्जिता, असमशमसुधाम्बुघेर्लोककल्लोलमालाविलासप्रसर्पप्रभाव(वो ?)द्यता नाशितक्रोधसम्बन्धसर्पोत्कराः ॥३॥ दलिततिमिरराजीव जीवेशशोभानिरासक्षमाक्षामधामैकधामाभिरामाननश्रीविलासाश्रिताः, त्रिभुवनजनवन्द्यपादरविन्दद्वयास्ते जिना मे दिशन्तु श्रियं शाश्वतीसिद्धिसौधाधिसंवासिनी सर्वदा ॥४॥
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सकलागमपारग जयवन्ती आणां
(३०)
( राग : वीर जिनेश्वर अति अलवेसर )
श्री सीमन्धर सत्यकीनंदन, चंद्रकिरण सम सोहेजी, समवसरण बेठा जगस्वामी, सुर नरना मन मोहेजी; वाणी अमीय समाणी प्रभुनी, सांभळतां अघ गाळेजी समकित दृष्टि शासनदेवी दुःख दोहग सवि टाळेजी ॥१॥
(३१)
श्री सोमन्धर जिनवर सुखकर साहिब देव, अरिहंत सकळनी भाव, धरी करु सेव; गणधरभाषित
वाणी,
ज्ञानविमल गुण
खाणी ॥१॥
(३२)
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साधवी सो क्रोड जाण,
भगवान;
सो क्रोड साधु असे परिवारे सीमन्धर दश लाख थया केवली प्रभुजीनो परिवार, वाचक यश वन्दे नित्य नित्य वार हजार ॥१॥
(३३)
( कमल विजयजी )
सीमन्धरभूधरबन्धुरसिन्धुरचारी,
सभायामयवारणनिष्कारणमुपकारो,
सर्वज्ञसुधाकर प्रकरप्रभुताधारी ।
जय शासन ! सुरवर कमलविजय ! जयकारी ॥१॥
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(३४)
श्री सीमंधरस्वामी केवला, सिंहासन बेठा निरमला; श्री सीमंधरस्वामी तार तार, मुज आवागमन निवार वोर.
nilo
(३५)
महाविदेह क्षेत्रमां सीमन्धरस्वामी, सोनानुं सिंहासनजी, रूपानुं त्यां छत्र बिराजे; रत्नमणीना दीवा चारजी; कुमकुम वरणी त्यां गहुली बिराजे, मोतीना अक्षत सारजी, त्यां बेठा सीमंधरस्वामी, बोले मधुरी वाणीजी; केसर चंदन भर्या कचोळां कस्तूरी वरासोजी, पहेली पूजा अमारो होजो, उगमते परभातेजी.
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श्री सीमन्धरस्वामी जिन
स्तवनम्
(१)
(उपजाति-वृत्तम्)
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जयश्रियाढचं कनकाभदेह सर्वज्ञ लक्ष्मीकलकेलिगेहम् । सीमन्धर पूर्वमहाविदेह, विभूषयन्त जिनपं स्तुवेऽहम् ॥१॥
1
रूपं पर ं सन्ततमङ्गलाली, महत्त्वमुच्चैः परमा यशः श्रीः । ततिः सुखानां जिनसम्पदाञ्च तव प्रसादस्य जनेषु लीला ॥२॥ विलोक्यसे येन जगत्समग्र, ज्ञानेन तेनैव जिनाऽसि गम्यः । तथाऽपि विश्वोत्तर ऋद्धिमान् यैर विलोक्यसे नाथ !
त एव धन्या ॥३॥
भीतो भवफलेशततेर्भवन्तं शरण्यमीशं शरणं प्रपद्येः । यदर्थयन्ते मुनयः सुयोगैर् यच्चासि गन्ता नय तत्र तन्माम् ॥४॥
यदर्थितं येन तदेव तस्य त्वया ददे वत्सरमर्थ्य से तत् । जन्मैव मा दा मम देव ! जन्म, चेत् तत्र यात्रास्यविता
"
प्रभुत्वम् ||५||
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(२)
(अनुष्टुप )
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नौमि
सादरम् ||१||
सीमन्धर जिनाधीश, शुभज्ञानरमा केलि मन्दिरं ये त्वां पश्यन्ति ते धन्यास्ते श्लाध्याः पूजयन्ति ये । ते दक्षा ये निषेवन्ति, नरा: सीमन्धरप्रभो ! ||२|| लोकाको कालीहेलिराधिव्याधितमोहरः
नम्राखण्डलमण्डलम् ।
1
विश्वकल्पितकल्पद्रु-श्चिरं जीया जिनोत्तम ! || ३ ||
संसार भीमकान्तारेऽनंगरागादितस्करैः;
भ्रमन्तं पीड्यमानं मां रक्ष रक्ष दयानिधे ! ||४|| किं विनीतैर्दिवो भोगै रमन्त्रैरलंगजैः ।
कृतं कल्पद्रुणा नाथ !, शासनं तेऽस्तुमेऽनिशम् ||५||
(३)
श्री विंशतिविहरमाण जिनस्तवनम्
(अनुष्टुप )
"
वन्दे सीमन्धरं देव ं युगन्धर जिनेश्वरम् । बाहुं त्रैलोक्यनेतार, सुबाहुं पुरुषोत्तमम् ||१|| सुजात नौमि सज्जातं, स्वयंप्रभ रविप्रभम् । वृषभाननमानौभ्य - नन्तवीर्य जिनोत्तमम् ||२|| विशाल श्रीलतासार, सुरप्रभं जगत्प्रभुम् । वज्रधरं धराधार, नुत चन्द्राननं जिनम् ||३|| चन्द्रबाहु लसबाहुं, भुजंग भुवनाधिपम् । ईश्वर श्रीश्वराराध्यं, नेमिप्रभप्रभु स्तुमः ||४|| वीरसेन जिनो जीयान्महाभद्र सुभद्रकृत् । चिरं देवयशोदेवोऽजितवीर्यो
जिताहितः ||५||
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(४)
श्री त्रिकालजिन स्तवनम्
(अनुष्टुप) येऽतीता वर्तमाना ये भाविनो ये महीतले । सर्वे श्री जिनपाः पान्तु, माममो भववारिधेः ॥१॥ तदीयो गोष्पदीभूयादपारो भवसागरः । वसन्ति मानसे येषां, जिना हंसा इवानिशम् ॥२॥ संसारकुहरे पातौ, भविता न कदाचन् । तेषामाहतपादानां, ये सदा भक्तिकारिण ॥३॥ भवनीरधिशोष - स्तैरकारि तरसा ध्रुवम् । एकशोऽपि जिना येषां, दृष्टिगोचरमाश्रिताः ॥४॥ संसारकूपगेश्वभ्रे, जना दीप्रनखांशवः; । भवन्तु पततो रज्जुवदालम्बनदा मम ॥५॥
॥ श्री विंशतिजिनस्तवनम् ॥ वन्दे सीमन्धरं देवं युगन्धरं जिनेश्वरम् । बाहुं त्रैलोकयनेतार' सुबाहु पुरुषोत्तमम् ॥१॥ सुजातं नौमि सज्जातं स्वयंप्रभं रविप्रभम् । वृषाभाननमानौम्यनन्तवीर्य जिनोत्तमम् ॥२॥ विशालं श्रीलतासार सूरप्रभं जगत्प्रभुम् । वज्रधर धराधारं नुत चन्द्रानन जिनम् ॥३॥ चन्द्रबाहु लसद्बाहु भुजङ्ग भुवनाधिपम् । इश्वर श्री धराराध्य नेमिप्रभ प्रभु स्तुमः ॥४॥ वीरसेनजिनो जीयान्महाभद्रः सुभद्रकृत् । चिर देवयशोदेवोऽजितवीर्यो जिताहितः ॥५॥
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७०
अथ श्री शीलरत्नसूरिकृतं
श्री सीमन्धरस्वामिनोऽष्टकम् कल्याणलतासुवसन्तर्नु, सुरभासुरभासुरभावनतम् ।
सीमन्धरजिनमतिमधुरगिर, नम काममकाममकामहरम् ॥१॥ क्रियते स्तवतस्तव येन समातारसता रमतारसना ।
सफला तमाम महीवलयासमहं समहं समहं कलया ॥२॥ गुरुगर्वमसौ हरतात् तपनाच्छविदेह विदेहजनः । जिनपं सुखयन् ननु मोहकिरा, सितया सितया सितया स्वगिरा ॥३॥ रसना हि परत्र कृते रमते, मम नाममनाममनागपि ते ।
इतरत्र यिकी तु धृति प्रणते, सुरसालरसालरसा लभते ॥४॥ त्वरते मम हृद् भजनाय भवत्पदयोरुदयोरुदयो (पि) न च ।
त्वमुपायमधीश ! तदाप्तिकर', वद भावदभावदभाग्यहरम् ॥५॥ किलकर्म पुमांस्तव रुच्यरवैरसदस्य सदस्य सदस्यति वै ।
धन वज्जलदस्य जलैः सुचिर, समता समता समतापभरम् ॥६॥ तव भक्तिरिहापि तमांसि गतेपिराजपराज ! पराजयते ।
अत एव बुधैर्भवतोऽत्र कृतां जपराय पराय परायणता ॥७॥ भवते हरति स्तवनाम्नि ममा, भवमा भवमा भवमालिसमा ।
शममुत्र भजेय भवच्चरणभ्रमरोहमरोहमरोहगुण ! ॥८॥
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महेसाणामंडन श्रीमत्सीमंधराव भो
स्तोत्रम्
( केसरवृत्त समलंकृतम् ) श्री कैलासाभिधशिखरिवदुत्तुंगे पुनर्निर्मले विभ्राजन्तं ददतमनुपमानन्दावलि मन्दिरे ! कल्याणानां किल निखिलतया क्षोण्यां परं कारणम् तन्त्वां सीमन्धरजिनप! महेसाणावतंसं स्तुमः ॥१॥ स्वीये नन्तेपि तरसि सति नित्य सीमया वर्तनं श्री श्रेयांसाअवनिधनजननाकाशे लसद् भास्करम् ; देहे स्वे सम्प्रति विचरति यः क्षेत्रे विदेहाह्वये तन्त्वां सीमन्धर जिनप! महेसाणावतंसं स्तुमः ॥२॥ यद्वद् दोषत्रितयमपि विनष्टि गच्छति श्रेष्ठत्रैषज्या दानाजझटिति करणवासि प्राणभाजां ननु; तद्वत्तापत्रयमपि यदुपास्त्या संस्कृतेः क्षीयते तन्त्वां सीमन्धरजिनप ! महेसाणावतंसं स्तुमः ॥३॥ अंग चंगं वहति बहुतमां यत्स्वामिनस्तुंगतां सर्व श्रेष्ठो यमिति सुरसमूहे व्याहरन्तीमिव; नाथस्तीर्थस्य जगति सकले नामा समानस्य यस्तन्वां सीमन्धर जिनप ! महेसाणा वतंसं स्तुमः ॥४॥
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७२
रूपं त्रैलाक्य परिभवकर शुभ्रं बिभर्ति स्म या दुःखायन्ते खलु यमभिहसन्तः सन्त उद् द्वेषिणः; येनान्त्येन स्वपरमकरुणाऽभि स्पर्ध्यते वार्धिना भूरिक्रूरा अपि पशुनिकरा यस्मै नमस्कुवते ||५|| ना जय्यः कश्चन परि परि यस्माद् विद्यते ज्यातले भीतान्यग्रे न हि कुमत तमांस्यर्कस्य यस्य क्षणम् क्षाम्यन्ति स्थातुमथ रुधिरतेजांस्युज्जवलत्वात् स्थित न्यब्जान स्वाद् विदधति परमाद्यस्मिन् जुगुप्सामहो ! || ६ ||
निः शेषाणां स दिगिभगणमानप्रातिहार्य श्रिया दत्तेचित्रि तमहमनुदिनं ध्यायामि यातक्रुधम् अस्तोकाः संसरणमणिनिधेस्तेनो द्धता प्राणिनस्मैकत्वामुपयं श्लाघामहे स्वं भृशम् ॥७॥ रागस्तस्माद्विलयम कलयत्सर्वस्तिलात्तैलवन् मध्येकैवल्य मुकुरमवलोकयन्ते न के तस्य वै १ तस्मिन्मीना इत्र पयसि वयं लीना भवेमा निशं जीयादित्य स्तुतिमुपदिगमितः सीमन्धरस्तीर्थपः ॥ ८ ॥ ( अथ प्रशस्तिः )
वर्षे पुष्करि - पक्ष - पुष्करं करेत्येतन्मिते वैक्रमेकार्षीत् सूरिशिरोमणेश्वरमशिष्यः श्री महेन्द्रस्यवै श्री सीमन्धरबोधिदस्य हि महेसाणावर्ततस्य सत् स्तोत्रं तत्रभवन् मुनिर्विजयवान् श्रीमान्मणि सप्रभः ||
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मुनिवर्य श्री वरहंस - विरचितं श्री सीमन्धरस्वामि-स्तोत्रम्
(१)
( अथ त्रग्विणी )
-यस्य नामापि सम्पत्-पदानन्ददं
किं पुन-दर्शन दर्शन - श्री - रसं ।
विश्व-विश्वाति - शायि प्रभावाद्भुत तं
मुदा नौमि सीमन्धराधीश्वरम् ॥१॥
स्फार-मार-जवशेत्तार - धन्वन्तरिं
दुस्तरापार-संसार - निस्तारकम् । तार हार - स्फुरत् कीर्ति-पुराकरं
तं नमस्यामि सीमन्धरं स्वामिनं ||२|
यस्य लोकोत्तरं विश्व-संशीति-हृत्
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- केवलज्ञान-मानन्ददं दर्शनम् ।
चारु - चारित्र पावित्र्यमद्भुतं
सम्पुनीहीश ! सीमन्धर ! त्वं स माम् ॥३॥
(अथ त्रोटकम्)
दिवसः सदा कदा भवितेश !
ममापित- पुण्य मयः सुलभः सुकृतैः ।
तव यत्र लभे भविक - प्रभवं
शुभ - दर्शनमाश्रित- दर्शनद 11811
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७४
तव सेवन-भावनया न भृतोऽस्म्य
यमस्मि जित-स्मित-विस्मयितः । अथ सौम्यदृशेश ! विलोक्य मां
श्रितमाशु भवामि यथाविभवः ॥५॥
सुमनो जन-मानस-हंस-वरस्तिमिर
प्रसराऽपह-हंसकरः करुणा-रस-पूरित-देशनया
नयपोष-परो विजयस्व विभो ॥६॥
( अथ शालिनी)
भिन्नादेशदिष्ट-सप्तक भंगै
र्भावाभावात्मार्थ-सार्थ-प्रधानम् । शुद्धं बुद्धयादीदृशत्वं प्रमाणैः
साध्याबाधं साधु सीमन्धरार्हन् ॥७॥ नित्यानित्यं द्रव्य-पोय-रूपापन्न
नुन्नं सन्नयैः स्यात् पदोकत्या । युक्त्याऽवोचश्चारु वस्तु-स्वरूपं नान्यै
र्बाध्य जातु सोमन्धरत्वम् ॥८॥ यस्यानन्तं पर्यायनन्त्य
बोधादर्यानन्त्याद् वाऽस्ति विज्ञानरूपम् । सत्यासत्य व्यक्तिजाति-प्रकाश
पौनः पुन्यान् नौमि सीमन्धरं तम् ॥९॥
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(अथ प्रहर्षिणी) श्री सीमन्धर-वचसा नयानुगानां
सन्देहापहमहसां महार्हणानाम् । सेवाभिः सरसतया कदा पुनीयात्मात्मानं
भविकपदं यथा भवेयम् ॥१०॥ संसार-प्रसर-हर-प्रकाररूपो
दुस्तापोपशम-महामृत-प्रवाहः । कल्याणोज्जवल-सुकला-लयोऽस्तु
मेऽसो श्री सीमन्धर-पद-पद्मयोः प्रणामः ॥११॥ आनन्दोदय विशदान्तरंग-चेताःश्री सीमन्धर !
तव सेवते न शश्वत् । चारित्रं-चरण-पवित्र-मिष्ट-शिष्ट
श्री सिद्धये करणपदं कदा श्रयिष्ये ।।१२।।
(अथ दोधकम्। देव-निकाय-निषेवित-पाद-श्चितसि
यस्य जिनेश! वशे त्वं । भंग ईवाब्ज-पदे सुपदव्या पूज्यपदं
लभसे भविकोऽसौ ॥१३॥ पावक-नायक ! तावक कान्तानेक
___ गुणस्तवनं सवनं स्यात् । कार्मण-मान्तरमद्भुत-शस्त-श्री-पद
राज्यमिहैति ततं यत् ॥१४॥
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दुर्म- मान मनोभव - लोभ-क्रोधमुखाहित-दुर्द्धर- पूरैः ।
दत्त सुदुस्तर - दुःखमथ त्वं मामव
सौम्य - दूशेश शरण्यं ॥ १५ ॥
त्वद् वदनं सदनन्त - जय - श्रीमन् - महसां सदनं विशदाभं ।
कस्य मुद न निरीक्षितमेतद्
यच्छति विच्छवि तुच्छवि कारं ||१६||
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( अथ भुजङ्गप्रयातम् )
कदाष्टादशांहः - पदारब्ध कर्म
प्रपश्चाननन्तै-र्भवैः सञ्चितांस्तान । त्रिधा शुद्ध मालोच्य पूतं करिष्ये
स्वात्मानमीश ! त्वदाज्ञोक्त - युक्त्या ॥१७॥
सदा दीप्यसे पूर्व - भानु-प्रभाव
-
त्रिलोकीतम- स्तोमहारि प्रचारः ।
प्रदीप - प्रताप - प्रदीपः प्रभुत्वोदितो
विश्व - विश्वेषु सीमन्धर ! || १८ ||
भविक - कामित कल्पतरोपमं
( अथ द्रुतविलम्बितम् )
विजय- पुण्डरीकिण्यवतारकं ।
- दैवत - सम्म - सत्य की सुतमणि
द्यमणि- भविनां जिनं ॥ १९ ॥
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गुण-घरेण्य-कला-लय-रुकिमणी
हृदय-पद्म-मधुव्रत-सव्रतं । श्रयत भो भविका जिननायकं
भविक-मौक्तिक-शर्म-पदाप्तये ॥२०॥
(अथ मालिनी ) नृप-तति-मुकुट-श्रेयस्करोवींश-वंश
प्रसृमर-महिमानं मान्य-मूर्धन्य-धर्म । सुवचन-रचनाभिर्देशनाभिर्दिशन्तं
निरुपम-शिव-मार्ग नौमि सीमन्धरं तं ॥२१॥ शम-दम-सरस-श्री-सम्पदा-लिङ्गिताङ्गि नमदसुर
सुरालो-पूज्यपादाब्ज-लक्ष्मों । समवसरण-संस्थं शोभि सौभाग्यभोग त्रिभुवन-गुरुराज नौमि सीमन्धराप्तं ॥२२॥
(अथ शिखरिणी) जगज्जयेष्ठ-श्रेष्ठः प्रकटित-पटु प्रष्ठ-विभुतः,
सदा कन्दः श्रीणां त्रिभुवनमुदां कार्मणपदजय स्तम्भारम्भःप्रसभ-मशुभदृष्ट-विकट-- द्विषां जीयात् सीमन्धर-वरजिन सर्वसुखदः ॥२३॥
( अथ शार्दूलविक्रीडितम् ) इत्यानन्द-पदोदितैक मनसा नीतः स्तुतेर्गोचर,
श्री सीमन्धर-तीर्थपः श्रितवतां सर्वार्थ-चिन्तामणिः, सौभाग्याभ्युदय-स्थ-हर्षविनय श्री सूरिताभ्युन्नति
देयान् मे वरधर्महंस-सरस-क्रीडाब्ज बोधिप्रथां ॥२४॥
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श्री सोमसुन्दरसूरिविरचितम्
श्री सीमन्धरस्वामिजिन स्तवनम् भव पंकजपतज्जन्तु जातोद्धार धुरन्धरौ। स्तुवे जिनौ विदेहस्थौ सीमन्धर युगन्धरौ ॥१॥ स्वामितांकितयूय याः प्रजास्ता भाग्यभाजनम् । भावेनोपासितयुवान् स्तुवे सेवकपुंगवान् ॥२॥ प्रथम शिबिकारूढव्यूढ युवाभिनभिस्तपस्यायाम् । इन्द्रेभ्योप्यखिलेभ्यः प्राधान्य प्राप्यतेस्म खलु ॥३॥ याचकेभ्योपि भद्र स्ताद्वार्षिकगत्यागपर्वणि ।। स्वहस्तदायकीभूतयुवभ्य वाञ्छितावधि ॥४॥ प्रदक्षिणीकृतयुवत् केलिभ्यो भवत्सभाम् । संश्रितेभ्यो विदुः स्पष्ट के न वैनयिकक्रमम् ।।५।। स्वविहारक्रम पावक युवाकमुर्वीमहाविदेहानाम । स्पृहयेद् बुधो न कस्कः सदा वहन्मोक्षनगरपथाम् ॥६॥ अवतीर्णतरुणतरणि प्रभप्रभास्वरयुवासु भूमीषु । तिमिरं न संशयमय तिष्ठति भव्यांगिहृदयगतम् ॥७॥ अन्योन्योपमितयुवां युवां जिनाधीश्वरौ विजेजयाथाम् । आव्योमसोमसूर्य महाविदेहाभरणभूतौ ॥८॥ सीमन्धर प्रभु युगन्धर नामधेयो
भक्त्या स्तुतौ जिनवरौ युगपन्मयेति । अत्राप्यवाप्तजनुषः सुकृताशिष त्वाम्
दत्तां मम प्रमदतो नमतोनुवेलम् ॥९॥
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श्री मेरुनंदनोपाध्यायविरचितम् श्री सीमन्धरसामिजिन स्तवनम्
अतिरसहरिसरसेण विहसिय लोयण मणवयणु थुणिसु भावि नियसामि मीरिसीमंधरु जिनरयणु ॥१॥ जो कप्पूरदलेहिं निम्मइ निम्मलु जिन भवणु । जो नियपायबलेहिं हारावइ चंचलु पवणु ॥२॥ ससहरकिरण करेण धरवि जो य हिंडइ गयणि । अह नियसत्तिवसेण करइ दिवसु फेडिवि रयण ॥३॥ जइवि हु सो वि समत्थु न हु तुह गुणगण संकलणि । कवणमत्त निसत्तु हूऊ मूरससिरि गउडमणि ॥४॥ तहवि हु भत्तिभरेण तरलिऊ विरचिसु संथवणु । जिणि कारणि जिनभत्ति वंछि साहइ नवि कवणु ? ॥५॥ भास--
तं जंबुयदीवह मंडणउ गिरिवरमेरुपवितु, त तसु निवसइ जो पुव्वदिसि महाविदेहु सुखितु त तसु विसिट्ट अट्ठमविजउ पुक्खलवइ इय नामि त तहं विहरइ किरि भुवणगुरो सिरि सीमंधर-सामि ॥६॥ त कणय वण्णुतणु पंचसयधणुहप्पमाण सरीरु त चउतीसइ अइसयसहि मायर जेम गंभीरू त पइदिणु पयपंकयललिय , चउविहदेवनिकाउ त धण्ण ति जे पिक्खहि नयणि सीमंधरु जिणराउ ||७||
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त (कु) लहलहंतु पागार तउ वरतोरण चउबारु त सुर जोयण पिहुलत्तण ए उंचउ वलयाकारु त मणिकंचन धणुरूप्पमऊ समवसरणु अइचारु त सुरसंधिहि मिलि निम्मविउ कलसदंडधयसारू ||८||
त तसु अंतरि रयणिहिं घडिउ सिंहासणु झलकंतु त पायपीदु तसु तलि विमलो मणि निम्मउ दिप्पंतु त तह सीमंधरु जिनपवरो पउमासणउवविठ्ठ त सहसकिरण जिम उदयगिरि पुण्ण ति जे हि सुदिदछं ।।९।। त बार गुणउ जिणदेहतउ किउ असोगतरु तुंगु त कुसुमबढि चामरढलणु छत्ततउ सिरि चंगु, त भामंडलु दिणयझसरिसो अंबरि भेरिनिनाउ त गज्जई किरि जिवु भंजि करि मोहराय भडवाउं ॥१०॥
त रणउणंतकिकिणिरयाणि ऊगगमंत सुविमाण, त सुपरिवारशुररमणिगणि लवणिमरुवनिहाण त बहुलभत्तिउल्लसियहिय दसदिसि घणुपसरंत त समवसरणि आवइ सयल सामिय गुण गायंत ॥११॥
त मणहरगणहरसाहुजण साहुणि गयरयलेव, त वासुदेव जुगवाहुमुह माणवदाणवदेव त गयगामिणि कामिणि मिलिय इणपरि उत्तम वंस त समवसरणि पविसंति सवि जेम सरोवरि हंस ॥१२॥
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धाता
तत्थ पिक्वहिं तत्थ पिक्खहिं तयणु चउवयणु चउरुव चउगइहरणुं चउविहेहिं अमरेहिं बंदिउ सिरिकेवललच्छिवरो, कंतकति तियलोयनंदिउ सिरि सीमंधरु तिजयगुरु वरुपंचंगपणामि, पुण पुण पणमिरं रंगभरि चिठ्ठइ नियनिय ठामि ॥१३॥
भास----
अह धणु ए चउविहधम्ममम्मपयासणि सुद्द करणि जोयण ए गामिणि वाणि तिहुयणजाणसंसयहरणि । जिणवर ए महुरसरेण विलियकोमलमुहकमलो सुललिउ ए करइ साणु नवरसो सुंदरो अईविमलो ॥१४॥ निम्मल ए गंगतांगचंगु पणासियसयलतमु भवदव ऐ संभवदाह फेडणअमियपवाहसमु । सामिय ए तणउ वषाणु जिम जिम गाजइ मेह जिम तिम तिम ए भावयण चित्त नाचइ फरफर मोर जिम ॥१५॥ मुनिवर ऐ सावयधम्मपयडगु विहडणु भूरिभय सायर ए रूपसंसारतारणु कारणु परमपय । धन धन ए ते नरनारी सिरिसीमंधर जिणवयणु मेहइ ए नहु हियडाजे दालिदिय जिम रयणु ॥१६॥ धाता -
मुत्ति पुरवर मुत्तिपुरवरसरणि वरतरणि पणतीसइ अइसयलसियविसमसोगदोहग्गवारिणि देवासुरतिरियगणमगुय लोयभासाणुकारिणि एवंविहवक्खाणझुणि सामि विसज्जइ जाम सज्जइ सुरसुंदरि मिलवि जिणगुणकित्तणि ताम ॥१७॥
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भास
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ससहरहारिवयण !
जय जिणवर ! जय कोमल कमल विशाल नयन ! जय सरस अमियरससरिस वयण !
जय महिममहियह देवरयण ! || १८ | जय विउलमिउलक्खण निहाण !
दीहरकर पल्लव मलिय माण ! मन वंछियपायवराय पाय !
लवणिमभरभंजिय मयणराय ! ||१९||
जय मोहनरिंदगइंदसीह !
नीरागे ! निरंजण ! जिण ! निरीह ! गुरुदुरियतिमिरभर हरण दीह !
तिय लोय सिरोमणिलद्वलीह ! ||२०|| विलसंत अनंत गुणाण ठाण !
संवच्छर निच्छिय दिन्नदाण !
भवसिंधु तरण तारण समत्थु !
भास
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अइउत्तम बत्तियवंस जाय !
पडियहं आलंबणु देह हत्थु ||२१||
करुणारससायर पुष्णचंद
सिवसुंदरि सुक्खनिबद्धराय !
सीमंधर ! सामिय ! नंद नंद ||२२||
अंधणुपर उवयार परायणु नागचरणदंसण गुण भायणु । जिणवर आणविहाणपरेसु पुंडरगिरि पुरिपमुह परेसु ॥२३॥ सुररइए ठबंतु नवेसु पायकमलु कंचन कमलेसु । चविह सुविहि संघ परिवारो, सिरि सीमंधरु करइ विहारो ||२४||
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श्री जिनसुन्दरसूरिकृतम्
श्री सीमन्धरस्वामि स्तवनम्
श्रीमन्त-मर्हन्त-मनन्त - चिन्मयं त्वां
भक्तितो नाथ ! यथार्थ - वाङ्मय ं । सीमन्घर - श्री - जिन-मस्त दूषण
स्तवीम्यहं पूर्वविदेह - भूषणं ॥ २ ॥
रक्तो गुणैः किं नत - नाकिराज ते
सेवां श्रितोऽशोकतरुः सुराजते । आजानु - नानाविध वर्ण-बन्धुरः
पुष्पव्रजोऽप्यद्भुत-सौरभोध्धुरः ||२||
कारक-स्तव
ध्वनिः शान्त - रसावतारकः ।
सर्वगभाजां प्रतिबोध
चञ्च-च्चल-च्चामर-राजि - रुज्ज्वला
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पार्श्वेषु चन्द्र मरीचि - मञ्जुला ॥३॥
तथांशु-जालैर्जटिल तवासनं सिंहाचित
भाति तमोनिरासनं । बभस्ति
पृष्ठे जित-भानु-मण्डलं ||४||
भामण्डलं भासित भूमि- मण्डलं
सदुन्दुभिस्ते दिवि - विस्मय प्रदो
छत्र-त्रयं
- नदन्न केषां ददते च सम्मदं ? । कुन्द - वरेन्दु-सुन्दरं
विश्वाधिपत्यं तव सूचयत्यरं ॥५॥
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स्फुरज-ज्ञान-सन्तान लक्ष्मी-निधानं
भजन्तेऽत्र ये ते पदाब्जं प्रधान । अरं तेष्वमेया रमन्ते विरामं
सहर्ष विशेषा रमाया निकामं ।।६।। अवाप्य प्रजा भूरि-भाग्यैकलभ्यं
भजन्ते भवन्तं विभो ! शर्म-लभ्यं । किमु स्थूल-लक्षं लसतू-कल्पवृक्ष,
लभन्ते न लब्ध्वा नरा मङ्घ सौख्यं ॥७॥ लसत्-केवलज्ञान-नव्यांशुमाली
___ मरालावली-मंजुल-लोकशाली । धराधीश सीमन्धर त्वं लुनीषे
जनैनांसि यस्मान् न कं कं पुनीषे ॥८॥ प्रभो ! प्रातरुत्थाय यो नंनभीति
भवन्तं न सोऽगी भवे बम्भ्रमीति । त्वद् उक्तेषु येषां मनोररमीति
भयेनैव तेभ्यो भय दन्द्रमीति ॥९॥ अविश्राम दृक् पेय-लावण्य गेई
भवन्त निभाल्य प्रभो ! हेमदेह । कृतार्थानि कुर्वन्ति ये नित्यमेव
स्वनेत्राणि धन्यास्त एवेह देव ! ॥१०॥ महाश्चर्य-मैश्वर्य-मीश ! त्वदीय
प्रमोमुद्यतेऽवेक्ष्य चेतो यदीय । न केषां भवेयुस्तमा माननीया
घनश्लोकभाश्च ते श्लाघनीयाः ॥११॥
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आप-तापाद् रक्षितारं क्षितार
भव्यवातं विश्व-त्रिवेशिता ।
सेवन्ते त्वां के न मर्त्या अमर्त्या
मूर्त्त धर्म नाथ ! मुक्तान्यकृत्याः ॥१२॥
नीesगोपि ग्रामरागं गृणासि
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सामान्योऽपि व्यक्तमायां मृणासि । निस्त्रगुण्य सद्गुणौघ न धत्से
कस्यचर्य तेन नेतन दत्से ||१३||
सीमा विश्व-हर्ष-प्रणाली
कोऽन्यस्तेऽलं स्तोतुमास्ते गुणालीं । लोकालोकाकाश-सर्व-प्रदेशा- नीष्टे
ज्ञातुं को विना श्री जिनेशात् ? ॥ १४ ॥
भावारिभ्यो भूरि-भीत्यावसन्ना देवाः सर्वे यस्य -दीनं दीनं देव ! सीमन्धराख्य
सेवां प्रपन्नाः ।
स स्वं रक्षादक्ष मां रक्ष रक्ष || १५ |
प्रत्यूपे त्वां नंनमन्नाकि नाथं,
क्षोणिख्यातं केवल - श्री सनाथम् । के के धन्या नैव मिथ्यात्वमाथ,
संसेवन्ते सन्ततं तीर्थनाथम् ॥१६॥ इति सुमधुरत्वोऽमन्द - मानन्ददायी,
सुर-नरवर तिर्यक्- सर्व - भाषानुयायी, । वसति मनसि नेतर्ध्वस्त- मोह-प्रमाद
स्तव कृत- सुकृतानां देशनाया निनाद ॥ १७॥
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अमर - नर गणानां संशयान् संहरन्ती,
शिवपुरar-मार्ग देहिनां व्याहरन्ती । भवति शरण - हेतुः कस्य नो ! नाथ वाणी, भव-भव-भय-भाज- स्तेऽघ-वल्ली - कृपाणी ॥ १८ ॥
असुर - सुर- तिरश्चां यत्र वैरोपशान्तिः,
स्फुरति हृदयस्य वरिष्ठाऽऽनन्द-चित्त- प्रशान्ति । समवसरण - भूभि - विश्व - विश्वासभूमिजगति जन शरण्या तेऽस्त्यघानामभूमिः ॥१९॥
अनुसरति तपोऽर्थं काननं वा धनं वा,
त्यजति सृजति जन्तुः संयमौघं धनं वा । तब-वचन- बिलासैर्यद् विना देव देव !,
भवति जिनपते ! यन् - निष्फलं सर्वमेव ॥२०॥
भक्ति-प्रण- त्रिदश - विसरं घोर संसार - सिन्धु, भ्रान्त्वा प्राय शरणमधुना त्वामहं विश्वबन्धुम् | श्रीमन् ! सीमन्धर जिन ! तथा तत् प्रसीद त्वमेव चद्वद्दीनः पुनरिह भवे नो विषीदामि देव ! ॥२१॥
दुस्थावस्था- स्थ- पुटित भवापार-वन्यां विहीनः,
सम्यग् मार्गाद् भ्रमण-वशतो दुर्दशां देव ! दीनः । नाssa कां कामिह पुनरवाप्तेऽपि गन्तुं प्रमाद
स्तस्मिन् दत्ते न मम हृदये तेन नेतर्विषादः ||२२|| सेवं सेवं तव पदयुगं स्यां कृतार्थः कदाहं,
पीत्वा वाक्यामृत रसमहं स्वक्षिपे कर्मदाहम, इत्येवं मे सदभिरुचितं देव-पाद- प्रसादात्, पूर्वीथी मनुसरतु ते दत्त - दुखार्वसादात् ॥२३॥
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राज्य राज्यैरिव विष- युतै- नोर्थना विश्वनेत, भोगेरोगैरिव मम - सृतं
सर्वदोषापनेतः, दिष्टया दृष्टया तव परपदाम्भोज - युग्मं कृतार्थः, प्रेक्ष्य प्रेक्ष्य क्षपित दुरितः स्यां नु लब्धार्थ - सार्थः ॥ १४ ॥ एवं निर्भर - भक्ति - सम्भृत-हृदा नोऽति क्रिया-कर्मता, नीतः स्फीततम - प्रभाव-भवनं त्वं नाथ सीमन्धर ! तद्वत्- तन्मय -देव ! सुन्दरतरं कुर्याः प्रसाद यथा, भूयांस भवदुक्त-शासनवराऽऽ सेवा - विश्वौ सोद्य ॥२५॥
श्री तपागच्छाधिराज श्री मुनिसुन्दरसूरिविरचितम् श्री सीमन्धरस्वामि स्तोत्रम्
जय- श्रिया मोहरिपोरवाप्त
त्रिलोकसाम्राज्य - रमाभिरामं ।
विदेह - भूमण्डल- मण्डनं श्री -
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सीमन्धरं स्वामिनमानुवामि ॥१॥
सृजन्ति यं दिव्य दृशः सुयोगिन -
स्तव स्तवं ते विध्ये जडोऽप्यहम् । पिबेद् गजो वारि सरस्यजोऽपि वा
स्वतुन्दिपुर समता फले पुनः ॥ २॥
प्रभो !
स्फुरन्ति - कल्याण - समृद्धयः पराः ॥३॥
भवन्ति ये सिद्ध - रसास्तव - स्तवैरिवौषधै-वित - धातवः
तेषां सदा शीलित-योग-सम्पदा
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प्लवङ्गवच चित्तमिदं समन्तात्
गुणैर्निबद्धं स्तव - योजितैस्ते
पारिप्लव' मे विषयेषु लुभ्यत् ।
सर्वज्ञ ! देशान्तरितोऽपि पूजास्तवादि - भक्तिर्मम भवन्ति नाभ्रान्तरितेऽपि भानौ
स्थिरीभवत्-साम्यज- शर्मणेऽस्तु ||४||
सम्पतीच्छे ।
नृणां किमर्घाञलयः कृतार्थाः ||५||
विजयं जिन ! पुष्कलावतीं विनुमः पूर्व - विदेह - भूषणम् । नगरीमपि पुण्डरीकिणीं
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-
त्वमभू-र्यत्र-जगत् तपः फलम् ||६||
श्री कुन्थुनाथार जिनान्तरे त्वं जातः
अलाव्रतं राम- पितुश्च राज्ये
शिवादन्वय सुव्रतस्य ।
तपांसि तान्येव तपांसि मन्ये,
शिवंगमी भाव्युदयार्हतोऽनु ॥७॥
येषां महिम्ना नयनातिथित्वं,
तानेव योगानपि तात ! योगान,
सतां शिव -श्री- प्रतिभूः प्रयासि ||८||
श्लाध्या ग्रहा भान्तिजुषोऽपि तेऽमी
ये तात ! पश्यन्ति दिनान्तरे त्वाम् । तमोऽपि त्वयि विश्वबन्धा
वहं त्वन्यस्तव दूरवती ||९||
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स्तवीमि सीमन्धर ! पक्षिणोऽपि
पश्यन्ति ये पक्षबलादिनं त्वाम्, अहं पापस्तव दर्शनार्थ
___ मनोरथैरेव सदा कदयें ॥१०॥ मनोरथा अप्यथ्वा भवन्तु
सदा भवद्-दर्शन गोचरा मे। ध्यातोऽपि-यत्-पूजितवद्-ददासि
त्वमीप्सितं सर्वमिति प्रमोदे ॥११॥ स्तवीमि कर्माणि मुनीन्द्र ! तानि
बभूव येभ्यो मनसः प्रसूतिः । ध्यानेन साक्षादिव येन कृत्वा
त्वां दैवतं स्यां भगवन् ! कृतार्थः ।।१२।। दूरेऽपि भक्त्या विमलेऽसि चित्ते
संक्रान्ति-भाग मे हर तत् तमोऽन्ततः । किं दर्पणान्तः प्रतिबिम्बतोऽपि,
रविः प्रकाश न तनोति गेहे ? ॥१३॥ त्वं सर्वे-सर्वेष्ट-हितोपकारी
दूरेऽपि मां बोधय विश्वबन्धो ! करोति किं नो गगने स्थितोऽपि
सुधामयूखः कुमुदे प्रबोधम् ॥१४॥ दुर्गाद्रिनयन्तरितोऽपि नेत
रुल्लासयरयेय गुणै-स्त्रिलोकीम । किं काच-कुम्भान्तरितोऽपि दीपः
प्रकाशयत्वेव करैर्न वेश्म ॥१५॥
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अनाद्य-विद्योदर--पाश बद्धं
मां मोचय त्रातरिहापि सन्तम्,पयोज-गर्भ-प्रतिपन्न रोधं
भृग यथा दूरतरोऽपि भानुः ॥१६॥ जगन्ति पश्यन्नपि किं कषायैर्
मां पीडितं पश्यसि न स्वभक्तम् । दृष्टस्त्वया यन्न हि पीडयते तै
रूरीकृतो वज्रिजितेव सप्पैः ॥१७॥ यथेच्छ-दान-रनृणी-कृते त्वया
जगत्यशेषेऽपि ऋणार्दिताऽस्मि किम् । कम्मौत्तमणैर्भव-गुप्तितो न यन्,
मुच्ये जिनाद्यापि ऋणाद् भवस्थितेः ॥१८॥ सुयोग-विद्या-विधि-सम्प्रयोगत
स्नन्मामपि प्रापय तत्त्वशेवधीन । येनानृणीभूय निरस्य रोधका
ननन्नधामा विलसामि मुक्तिभाक् ॥१९॥ त्वां यत्र चित्ते विनिवेश्य मोदे
रागादयो देव ! दहन्त्यदोऽपि । ततो जगद्-रक्षण-दक्षिणोपि
कथं विभो ! रक्षसि नोश्चयं स्वम् ॥२०॥
अथवा
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रागादयो यद्-विजितास्त्वयैते
वैरेण तेनेव जिनेन्द्र ! मन्ये । करोषि चित्ते मम यत्र वास
दहन्त्यमी तत्-तदुपेक्षसे किम् ॥२१॥ विधूय सगादि भवान् विकारान्
दधासि रूपं निरुपाधिकं यत् । त्रिलोकपूज्ये भवतः प्रसादान्
ममापि तत्रानुभवोस्तु सम्यक् ॥२२॥ अशेषतः सर्वविदोऽपि भक्तान्
सीमन्धर ! प्रापयतः शिवं ते । किं विस्मृतोहं यदि दूरगत्वात्
__ तत्ते न युक्तं ह्यसि दूरदर्शी ॥२३॥ वृषांकितोसीति वृषां कितं मां
कुरुष्व सम्यक् कृपया प्रसद्य । भवामि युक्तं तव सेवको यद्
देयाः स्वस्त्राम्यं च ममाग्रतोपि ॥२४॥ श्री सीमन्धर-तीर्थनाथ ! मयका स्तुत्वैवमभ्यर्थ्यसे नाम्नाहं मुनिसुन्दरोभवमथो कुर्याः प्रसादं तथा ।
स्यां सर्वज्ञ यथार्थतोऽपि विशद-ज्ञानादि रत्नत्रयाल्लब्ध्वा कर्म-जयश्रियं शिवपुरे राज्य लभे चाचिरात् ॥२५॥
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परमगुरु श्रीआणदविमलसूरि संदर्भितम् ॥ श्री विहरमानजिनस्तोत्रम् ॥
श्रेयांस वप्ता जननी तु सत्यकी, वृषस्तु चिह्न दयिता तु रुक्मिणी । जंबूविदेहाभरणस्य यस्य, सीमंधरं तं सततं स्मरामि ॥१॥ - माता सुतारा सुदृढः पितास्य, प्रियंगुमाला ललनाधिनाथः । गजध्वजो धर्मधुराधुरंधरः, सार्वः श्रिये मे भवताद् युगंधरः ||२|| सुग्रीव सूनुर्विजयाजयप्रदः, सुमोहिनी मोहितमानसांबुजः । मृगांक तुल्यानन भृन्मृगांकभृत्, श्रीबाहुसाः शिवसंपदे वः ||३||
भूतदया श्रीनिसदस्य सार्द, मुदः प्रदः किंपुरुषाधिनाथः । सम्मर्कटांको विहरन् विदेहे, जीयात्सवाहुः कदली सुबाहुः ||४|| श्रीदेवसेनातनयो नयेन युक्तः सदानंदितदेवसेनः । दिनेश्वरांको जयसेनाऽच्र्यो, जिनोऽभिजातो जयतात् सुजातः ॥ ५ ॥
सुमंगला मंगलमालिकाप्रदः, स्वयंप्रभोश्चित्रविभोर्विभूतिदः । प्रिय सेनापतिः शशिलांछितकमो, महाविदेहे जयताज्जिनेश्वरः ॥ ६ ॥
ऋषभानननामक तीर्थनायकः, स्फुटं च कीर्त्याश्रितराज नंदनः । जनितो बरवीरसेनया, हरिचिह्नस्तु जयावतीश्वरः ॥७॥
यस्य माता मंगलावती सती, मेघराजतनयस्य वर्त्तते । अंगना विजयवत्यभीप्सिताऽनंतवीर्य जिनराट् द्विपध्वजः ॥८॥
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सूरप्रभः सूर्यसमप्रतापः, श्रीनागसूनुर्विमलाधिनाथः । भद्रो महाभद्रकरोऽर्यमांकः, श्रीधातकीखंडविदेहसावः ॥९॥ चंद्रलांछनधरो बरनंद-सेनयानत इनोऽस्ति विशालः । यस्य सा विजयवत्यभिधाना, यस्य सो विजयभूमिपतिश्च ॥१०॥ सरस्वतीपद्मरथस्य नंदनः, खङ्खाङ्कितो वज्रधरो जिनेश्वरः । विनायुतश्रीविजयवत्युदय॑ः, श्रीधातकीपच्चिमसद्धिदेहे ॥११॥ चंद्राननश्चंद्रसमानतोय, वल्मीकवंशे वरदीप्रदीपः । लीलावतीशो वृषभध्वजोऽस्ति, पद्मावतीसूनुवरो वरश्रीः ॥१२॥ पद्मांकभाक्रेणुकया प्रसूतः सुगंधया? जिनचंद्रबाहुः । देवाश्रितानंदनृपप्रमोदकृत, श्रीपुष्कराद्धे विजयासुदारः ॥१३॥ श्रीभुजंगभगवंतमाश्रये, श्रीमहाबलनृपस्य नंदनम् । पद्मलांछनधरं वरगंध-सेनया नतपदं महिमाभाजं ॥१४॥ ईश्वरं मदनमईनेश्वर, पालितं च सुयशोज्ज्वलांबया । चंद्रलांछनधरं गलसेन-नंदन मुदितचंद्रवतीश ॥१५॥
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किरपा मोसुं किजियेजी, जिनराज महाराज,
किरपा मोसु किजियेजी; बेर बेर में करु विनति रे, सीमंधर जिनराज.
किरपा मोसु किजियेजी. १ जग उदधि तोय मिथ्या अति गहेरो रे,
तुम तारन तरन जिहाज अनंत काल चिहुं गतिमें रुलियो रे,
काहुं न ध्यायो धर्म साज. किरपा २ मैं चाकर खाना जाद रावरो रे.
तुम हो गरीब निवाज; कर दोय जोड कनीराम बोले रे,
तुम सम- सरे काज. किरपा० ३
(२)
(राग : मारुण) श्री सीमंधर सांभळो, विनति करूं कर जोड तुं समरथ त्रिभुवन धणी, मने भवबंधनथी छोड. सी० १ तुम मुज बिच अंतर घणो, किम करु तारी सेवा दैवे न दीधी पांखडी, पण दिलमें तु एक देव. सी० २ चंद्र चकोर तणी परे, तुं वस्यो मोरे चित्त समयसुन्दर कहे ते खरी, परमेश्वर शु प्रीत. सो० ३
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बिहरमान सीमंधर स्वामि, प्रह उठी प्रणमुं शिर नामी;
सत्यकी माता उर सर हंस, लंछन वृषभ पिता श्रेयांस. १ पूरव महाविदेह मझारि, पुखलावती विजये अवतारी; कंचन वरणी कोमळ काया; चउरासी लख पूरव आया. २ पंचसय धनुष शरीर प्रमाणा; अमृत वाणी करत वखाणा: सकळ लोक संदेह हरंता, समयसुन्दर वांदे विहरंता ३
__ (४)
(राग : कडखा प्रभातियां) स्वामि ! सीमंधरा तुम्ह मिलवा भणी,
हियडलु रातने दिवस होसे; ध्यान धरता सुपनमां आवी मिले,
झबकी जागे तब कांइ न दीसे; १ जो ते रे देव दीधी हुंत पांखडी,
तो हुँ ऊडी प्रभु जात पासे; स्वागि सेवा भणि अति धणो अळजो,
देवता का दिओ दर पासे २ ध्यान स्मरण प्रभु ताहरू नित धरु,
तु पण मुजने मत विसारे; समयसुन्दर कर जोडी इम विनवे;
स्वामि ! मुने भव समुद्र तारे. ३
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धन्य तु धन्य तुं स्वामिसीमंधरा, धन्य तुज शक्ति व्यक्ति सनूरी; कार्यकारण दिशा सहेज उपगारथी, शुद्ध एकत्व परिणमन पूरी.
धन्य० १ नयरी पुंडरीगणी स्वर्ग पूरी सम बनी, जीहां जिनवर बिचरे सदाये; वृषभ लंछन मोषे बोधी आरोपता, आस्मक्षेत्रे प्रगटे ज दाये।
धन्य०२ स्वामिगुण ओळखी साधी साधक दशा, दर्शन शुद्धता तेह पामे; ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीपी वसे मुक्ति धामे.
धन्य० ४ अद्यपि भाव त्रिकाळ जाणता, तो पण निज वितक कहुं ओ; भूल्यो अभिमानमें झोल्यो पर भावमे, विषय कषाय आश्रवबहु
धन्य०४ संवर वच्छनु सुगी सोमंधरु, जैन दर्शन एहि आश तो); आशा निज पद तगी स्वाभी अवलंबने, अनुपम सुख नित्य
__ शाश्वतोओ. धन्य० ५
श्री सीमन्धर माहरा साहिब छो साचा, मुज मुजरो नित्य मानीये, अमची ए वाचा. श्री० १ ज्ञान दिवाकर उगीयो, झममगतो तेजे, ए प्रभु हैडे समरीये, नित्य अधिक हेजे. श्री० पुकखलवई विजयमां, विचरे जगस्वामी, धन्य तिहांनां भविजनां, तुम सेवा पामी. श्री० ३ हुंश हैयामां अति घणी, प्रभु मरवा केरी,
आडा डुंगर अति घणा, किम मलीये हेरी. श्री० ४ तिण कारण मुज वन्दना, ईहांथी मानजो, “विनयविजय" वाचक तणो, विनति सदहजो. श्री० ५
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(७)
१
२
(अनन्तवीर ज अरिहंत) पूर्वविदेह पुष्कलावती जयो जगपति ए. श्री सीमन्धरस्वामी, प्रह समे नित्य नमुं ए, जगत्त्रयभाव प्रकाशता, भवि प्रतिबोधता ए; उपकारी अरिहंत, प्रह समे नित्य नमुए. धन्य नयरी धन्य ते नरा, धन्य ते धराए; विचरे जहां श्री जिनराज, प्रह समे नित्य नमुए. धन्य दिवस धन्य ते घडी, देखशु आंखडीए; भक्तवत्सल भगवत, प्रह समे नित्य नमु ए महेर नजर अवधारजो, पतित उगारजो ; जिन "हर्ष" गणेश सनेह, ग्रह समे नित्य नमुं ए
३
४
५
स्वामि ‘सीमंधर' ! विनति, अवधारी जिनराज रे, नाम तुमारो सांभळी, रोमांचित होय काय रे. स्वामी० १ ओक नेडाही वेगळा, जो मन न गमे तेह रे, ओक अळगा पण ढूंकडा, जेह शुं अधिक स्नेह रे. स्वामी० २ जो चाहो तुम हेज शुं, तो उल्लसे मुज चित्त रे, एह उखाणो लोकमां दिलभर दिल छे प्रीत रे. स्वामी० ३ मन चाहे मळवा भणी दरिसण देखे न आंखे रे; पण शु कीजे देवने, आपी नहि मुज पांख रे. स्वामी० ४ तो हवे नित्य नित्य वंदना, जाणजो श्री जिनचंद रे; 'जिनसागर' प्रभु गावतां, पाम्यो परमानंद रे. स्वामी० ५
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(तमे तुमे मैत्री रे साहिबा) श्री 'सीमंधर' जगधणीजी, राय 'श्रेयांस'कुमार; माता 'सत्यकी' नंदोजी, 'ऋक्ष्मणि'नो भरथार. सुखकारक स्वामीजी, सुणो मुज मननी वात; जपतां नाम तुम्हारेजी विकसे सात धात. सुख० १ स्वजन कुटुंब छे कारमुंजी, कारमो सहु संसार; भवोदधि पडतां माहरेजी, तुं तारक निराधार. सुख० २ धन्य तिहांना लोकनेजी, जे सेवे तुम पाय; प्रहु उठीने वांदवाजी, मुज मनडु नित्य धाय. सुख० ३ कागळ काई पहोंच नहोंजी, किम कहुं मुज अवदात; एकवार आवे अहींजी, करुं दिलनी सवि वात. सुख० ४ मनडामा क्षण क्षण रमेजी, तुम दरिसणना कोड; वाचक 'जस' करे विनतीजी, अहोनिश बे करजोड. सुख० ५
(राग : केदारो) प्रभु मेरा पुण्यको नहीं पार ॥ए। भूरि भावे भ्रांति विण तुम्ह लहथु शासनाधार. प्रभु० १ अधिक सुरतरु सुरगवीथी: मरु स्थळे मंदार. भ्रम दूषित भरत मांहि, थयो तुम्ह दीदार. प्रभु० २
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९९
श्रद्धान ज्ञानने कथन करणे, सिद्ध चार प्रकार; गुरुगमे ते विरल दीसे, जे दीपावणहार, प्रभु० ३ ऐहवामां श्री 'सीमंधर', तुज कृपा जळधार; भरत मानस शमित भवभव, दुरित रज संभार प्रभु० ४ 'ज्ञानविमळ' प्रकाश प्रकटत, सहज गुण घनसार; बोघि सुरतरु सदल प्रसर्यो, एह तुम्ह उपगार, प्रभु० ५
(११)
(राग : वेलाउल) श्री 'सीमंधर' विनति, सुण साहिब मेरा; अहोनिश तुम ध्याने रहुं, मे फरजन तेग श्री सी० १ भाव भक्ति शु वंदना कर उठी सवेरा; भवदुःख सागर तारीये, जिम होय तुम नेरा. श्री सी० २ अंतर रवि जब प्रगटीयो, प्रभु तुम गुण केरो तव हम मन निमळ भयो, मिटयो मोह अंधेरो. श्री सी० ३ तारक तुम विण अवरको, नहि कहो कवण भलेरा; ते प्रभु हमकु दाखवो नहि, करु तास निहोरा. श्री सी० ४ 'नय' नितु नेहे निरखीये, प्रभु अबकी वेरा: बोधि बीज मोहे दीजीये, कहुं कहा बहु तेरा. श्री सी० ५
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(१२) (ऋषभ जिणंदशु प्रोतडी-से देशी) श्री सीमंघर' साहिबा, सुणो संप्रति हो भरतक्षेत्रनी वात के अरिहा केवली को नहि, केने कहीये हो मनना अवदात के
श्री सीमधर० १ झाझु कहेतां जुगतु नहि, तुम सोहे हो जग केवलनाणके; भूख्या भोजन मागतां, आपे उलट हो अवसारना जाण के.
श्री सीमंधर० २ कहेश्यो तुमेत भगतो नहि, जूगताने हो वळी तारे सांई के योग्य जननु कहेवु किश्यु, भावहीनने हो तारो ग्रहो बांहीं के.
श्री सीमंधर० ३ थोडु हि अवसरे आपीये, घणानी हो प्रभु ! छे पछे वात के, पगले पगले पार पामीये, पछी लहीये हो सघळा अवदात के.
श्री सीमंधर० ४ मोडु वहेलु तुमे आपशो, बीजानो हो हुँ न कसै संग के, श्री 'धीरविमळ' गुरु शिष्यनो, रास्त्रीज हो प्रभु अविचळ रंग के.
श्री सीमंधर० ५
(१३) श्री 'सीमंघर' साहिबा, विहरमान भगवंतरे;
जिनशु मन लाग्यो. 'पुक्खलावई' विजया मांहि विचरे अरिहंत रे, जिनशु० १ सोवनवर्ण पणसयधनु मन्दरगिरि सम धीर रे; जिनशु० 'श्रेयांस' नृपति कुळ दिनमणि, मन हीयडाहीर रे, जिनशु० २
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4
नंदन ' सत्यकी' मायनो, वृषभ लंछन भगवान रे; जिनशु० ऋक्ष्मणि' राणीनो नाहलो, गुणमणि रयण निधान रे, जिनश ०३ 'कुंथु' ' अर ' जिनअंतरे, जन्म्या वळी व्रत लोधरे; जिनशुं० 'दशरथ' नृप व्रतना समये, भावी 'उदय' जिम सिद्ध रे. जिनशुं ०४ ज्ञानविमळ' गुणथी लह्या, लोकालोक स्वभाब रे; जिनशु ० भवोदधि पार में पामीओरे, में तुम्ह पद युग नाव रे. जिनशु ०५
(१४)
( राग : अजित जिणंदशु प्रीतडी- ओ देशी)
श्री ' सीमन्धर' साहेबा विनतडी हो सुणीये ते दिन लेखे लागशे, जिण दिवस
जालु हैयुं उल्लसे, पण नयणे हो जे जलपाना पिपासीओ, तस दुःखे हो करी
हो लईशु श्री निरख्ये सुख थाय के; तृप्ति न थाय के;
श्री सी० ||२||
जाणो छो प्रभु बहु परे, म्हारा मननी हो तो शुं ताणो छो घणुं, आवी मिलो हो मुज
१०१
किरतार के; दीदार के. सी० ॥ १॥
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वितक वात के; साक्षात के.
थई
श्री सी० ॥३॥
हुं उत्सुक बहु परे कहुं, पण न गणुं हो कांई रीझ ए लक्षण रागी तणुं, तिणे भाख्यु हो सघळु
अरीझ के;
मनगुझ के.
श्री सी० ||४||
"ज्ञानविमळ" प्रभु आपणो, जाणीने हो कीजे उच्छाह के; उत्तम आप अधिक करे, आवी मळ्या हो ग्रह्या जे बांह के. श्री सी० ||५||
<>
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१०२
(राग : थारी आंखलडीये घर घाल्यो गहेला गिरधरिया-अ देशी) तारी मुद्राए मन मोमु रे, मनना मोहनीया, तारी सूरत्तिए जग सोह्यु, जगना जीवनीया. ॥आंकणी।। तुम जोतां सवि दुर्मति विसरी, दिनरातडी नवि जाणी; प्रभु गुण गण सांकळशु बांध्यु, चंचळ चित्तडु ताणी रे. मन० १ पहेलां तो एक केवळ हरखे, हेजाळु थई हळ्यिो , गुण जाणीने रूपे मिलीयो, अभ्यंतर जई भळियो रे. मन. २ वीतराग ईम जस निसुणीने, रागी राग करेह, आप अरूपी राग निमित्ते, दास अरूप धरेह. मन० ३ श्री 'सीमन्धर' तुं जगबंधु, सुंदर ताहरी वाणी, मंदर भूधर अधिक धीरजधर, वन्दे ते धन्य प्राणी रे. मन० ४ श्री 'श्रेयांस' नरेसर नंदन, चंदन शीतल वाणी, 'सत्यकी' माता वृषभलंछन प्रभु, 'ज्ञानविमळ' गुणखाणीरे. मन० ५
(१६) (राग : काफी-मोहनना लाव- देशी) श्री सीमन्धर साहिबा, जनरंजना लाल, अतिशयवंत उदार हो, दुःख भंजना लाल, सुणीये सेवक विनति मनमोहना लाल, सत्यकी मात मल्हार हो, जग सोहना लाल. ज्युचातक जलधर विना, म०, अवर न पामे कोय हो, जग० तुम विण अवर न पारखु,गुण रोहणा लाल, दृढ प्रतीत मुज एह हो, भावि बोहना लाल. जग० २
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एक त्हारी कने जे रहे म०, ते किम कीजे दूर हो. इम शोभा नवि संपजे म०, सेबक इच्छित पूरे हो, जग० ३ श्री श्रेयांस नृप कुलतिलो म०, सज्जन नयणानंद हो, ऋक्मणि राणी नाहलो म०, वृषभलंछन सुखकंद हो. जग० ४ पूर्वविदेहे पुक्खलवई म०, नयरी अयोध्या भूप हो. विजया मांहि विराजता म०, ज्ञानविमळ गुणरूप हो. जग० ५
(१७) मीठडा जिन में दीठडा रे, कांई समवसरण मंडाण जी रे जी
जयो जयो जगचिंतामणि जी रे जी मीठडी रे वाणी सुणावतां रे, काई सीमंधर जगभाण जी रे जी
जयो जयो जगचिंतामणि जो रे जी ॥१॥ ध्यान भुवनमा ध्यावतां रे, कांई मीठडो आतम भाव जी रे जी
जयो जयो जगचिंतामणि जी रे जी मीठडीमा मीठडी मिल गईरे, कांई तब हुओ पूर्ण जमावजीरे जी
जयो जयो जगचिंतामणि जी रे जी ॥२॥ बलिहारी ए जिन तणी रे, जस ध्यान थकी शुभकाम जो रे जी
जयो जयो जगचिंतामणि जी रे जी सिझे रीझे अनुभव रे, फांई न्यारो आतमराम जी रे जी
जयो जयो जगचितामणि जी रे जी ॥३॥ दुःख दुर्मति दुर्गति तगो रे, कांई तव न रह्यो कोई दावजीरे जी
__जयो जयो जगचित मणि जी रे जी; पर परभव माहि रह्यो रे, कांई तव लह्यो सहज स्वभावजीरे जी
जयो जयो जगचितामणि जी रे जी ॥४॥ ज्ञानविमल प्रभुता घणी रे, काई आई मिले महमूर जी रे जी
जयो जयो जगचिंतामणि जी रे जी; अहनिशि समता सुंदरी रे, कांई हरखित हीई हजूर रे जी रे
जयो जयो जगचिंतामणि जी रे जी ॥५॥
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(१८)
(राग : केदारो) (साहिब सांभळो रे संभव अरज अमारी) श्री सीमंधरु रे, मारा प्राण तणो आधार, जिनवर जयकरु रे, जेहना झाझा छे उपगार. क्षण क्षण सांभरे रे, एक श्वास मांहि सो वार, किमहि न विसरे रे, जे वस्या छे हृदय मोझार. श्री सी० १ हुँसी हियडले रे, जिम होय मुकताफळनो हार, ते तो जाणोये रे, ए सवि बाहिरनो शणगार, प्रभु तो अभ्यंतरे रे, अळगो न रहे लगार, अहोनिश वंदना रे, करीए छीए ते अवधार. श्री सी० २ नयन मेलावडे रे, निरखी सेवकने संभार, तो हुलेखवु रे, मारो सफळ सफळ अवतार; नहि कोइ तेहवो रे, विद्या लब्धिनो उपाय, आवीने मळु रे, चरण ग्रहुं हु वळी धाय. श्री सी० ३ मळवू दोहिलं रे, तेह शुनेह तणो जे लाग, करतां सोहिलु रे, पण पछी विरहनो विभाग; चन्द्र चकोरने रे के चकबा दिनकर ने होय जेम, दूर रह्या थकां रे, पण तस वधतो छ प्रेम. श्री सी० ४ पण तिहां एक छे रे, कारण नजरनो सम्बन्ध, विरहे ते नहीं रे, ए मोटा छ रे धंध: पण एक आशरो रे, सुगुण शुजे रे एकतान; तेहथो वाधशे रे, ज्ञानविमळ गुणनो जसमान. श्री सी० ५
Co
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(११) विनतडी अवधार हां रे अवधार
साहिब सुगुणी चित्त संभारी, हां रे संभारी भाविक लोक सदा तुम चरणे रे,
करी सेवा हां रे निरधार; साहिब दुःख समये भरत भाविकने रे, श्ये न करो हां रे उपगार तुहिज छे परमाधार साहिब० १ मोजा महिराण महेर धरीने रे,
श्ये न करो उपगार; साहिब सम विसम धरती नाबि जोवे रे.
___ वरसंते जिम जळधार साहिब० २ ऊंच नीच घर ज्योति न टाळे रे,
जिम शशधर रे हो जिण दिनकार; साहिब अम आवास वास करो करी सरिखा रे,
कुसुम सुणंव हा रे परकार. साहिव ६ “श्री सीमंधर' तेणी परे साहिब रे,
पूरवविदेह हारे शणगार; साहिब केवळ कमलाकंत अनंत गुण रे,
'सत्यकी' मात मल्हार. साहिब० ४ 'ज्ञानविमळ' गुण गणनी गणना रे,
कहेतां न पामे पार; साहिब अहोनिश चरण शरण प्रभु तुमचां रे,
एही छे शुद्धाचार साहिब० ५
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(२०)
राग : सगुण सनेही साचो साहिबो जी )
सुजन सुजन सौभागी वहालो हो जी, मोहन 'सीमंधरस्वामी'; दर्शन दर्शन करवा अलज्यो हो जी, मुनिजन आत्माराम. सुजन० ॥१॥
ऊंच उंच डुंगर सरीखु हो ममता ममता सरिते अंतरो
हो
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"
जो दर्शन मोहनीय कर्म; जी, अचरिज अंतर धर्म.
सुजन ||२||
करवुं कर हवे कशुं साहिबो जी केणीपरे पाछो ते थाय, आगम वचन परिभवे हो जी, नाशी दूर पलाय. सुजन० ॥३॥ अनुभव अनुभव आदित्य आकरो हो जी, समतात्विषे शोषाय, शीतल शीतलता अति ऊपजे हो जी विस्मय एह कहाय.
सुजन० ||४|| मनना मनोरथ सवि फळे हो जी, अंतर मेल हराय विबुध 'विबुधविमळ' प्रभु राजोया हो जी, करुणा नजर ठराय. सुजन० ||५||
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(२१) सरस्वति सिद्ध बुद्ध विनवू जो,
स्वामि ! तुमें छो त्रिभुवननाथ जो, प्रभाते उठीने तमने वान्दी जी,
स्वामि ! वेगे वेगे दीयो धर्मलाभ जो,
स्वामिसीमन्धर मुजने मेळवोजी. स्वामि० १ दश दोहिले स्वामि ! हुं रह्योजी,
मारे नयणे जोयु नवि जाय जो, शुं कर स्वामिसीमन्धर वेगळा वस्याजी, - हारे हु तो पांख विना रह्या निराधार जो. स्वामि० २ राग ने द्वेषे स्वामि ! हु भर्यो जी,
मुजने नडीयो नडीयो क्रोध कषाय जो, माया ने लोभे स्वामि ! हु भर्योजी,
___मारी गुंज रही मनमाय जो. स्वामि० ३
मा ने बाप बन्धव कारमाजी,
कारमो कुटुम्ब परिवार जो, आज्ञा विरुद्ध स्वामि ! हु रह्याजी.
मारी कोइए न कीधी सार जो. स्वामि० ४
बेउ कर जोडी स्वामि ! विनवू जो,
हां रे हुं तो मागु चरणनी सेव जो, हां रे हुं तो मांगु मुक्तिनो वास जो,
हां रे हु तो कदीए न आवु गर्भावास जो. स्वामि० ५
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(२२) जिन सोभाग्यसूरिकृत श्री सीमंधरजिन स्तवनम्
(नंदिसर बावन-ए देशी) जय जय परमपुरुष पुरुषोत्तम,
परमानंद पद धामी रे; जय जय सकब सुरासुर वंदित,
" सेवित पद अभिरामी रे. १ धन धन पूरव विदेह विचरे,
श्री सीमंधर स्वामी रे; जंगम सुरतरु सुरमणिनी परे
___ कामित पूरण कामी रे. २ धन धन जगमें जे नर उत्तम,
__ श्रवण सुणे जिनवाणी रे; आगम उक्ति धरी निज चित्ते,
आराधे भवि प्राणी रे. ३ शुद्ध नयाशय जे जिनवाणी,
अनुभव गुणनी खाणी रे; त्रिकरण शुद्ध नमे जे प्राणी,
ते होवे निर्मळ नाणी रे. ४ चउविह धर्म प्रकाशे जयगुरु
भवियण ने हित आणी रे; श्री जिन सौभाग्य सूरि उदयथी,
___ पाभे पद निरवाणी रे. ५
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१०९.
(२३)
( ढाळ : रसिगानी) श्री सीमन्धर सुन्दर साहिबा,
मन्दरगिरि समधीर सलुणा; श्री श्रेयांस नरेश्वर नन्दन,
मुज हीयडार्नु रे हीर; सलुणा; १ सोवन वरणे दीपे देहडी,
सुमनस सेवित पाय, स० भद्रशाल लक्षणे करी राजतो,
भेटयां भवदुःख जाय; चंद्र सूरज ग्रह गण सहु प्रभु तणो,
चरण शरण करे नित्य; स. जाणे रे जित्या आप प्रभो भरे,
करे प्रदक्षिणा कृत्य, स. मध्य विदेहे विजय पुष्कलावती,
नयरी पुंडरीकिणी सार, स० तिहां विचरे भविजन मन मोहता.
सत्यकी मात मल्हार; स० मेरु महीधर परे अविचल रहे,
मुज मन एहि ज देव; स. ज्ञानतिलक गुरु पदकज भमरलो,
विनयचंद्र करे सेव. स.
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११०
(२४) श्री सीमंधर साहिबा,
विनतडी अवधार लाल रे; परम पुरुष परमेश्वर,
आतम परम आधार लाल रे. श्री० १ केवळ ज्ञान दिवाकरु,
भांगे सादि अनंत लाल रे; भासक लोकालोकनो,
गायक गेय अनंत लाल रे; श्री० २ इन्द्र चन्द्र चक्रीश्वक,
सुर नर रहे कर जोड लाल रे; पद पंकज सेवे सदा,
अणहूता इक क्रोड लाल रे; श्री० ३ चरण कमळ पिंजर वसे,
मुज मन हंस नित मेव लाल रे चरण शरण मोहे आशरो,
भव भव देवाधिदेव लाल रे. श्री० ४ अधम उद्धारण जो तुमे,
दूर हरो भव दुःख लाल रे; कहे जिनहर्ष मया करी,
देजो अविचल सुख लाल रे. श्री. ५
ॐ0
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१११
(२५)
(राग : केदारो) सीमंधरस्वामी सुणजो विनति, कीजे रे स्वामी विनति वाजे दरिसण दया करी अमने दोजे रे स्वामी सुगुण स्नेही तो हियडु रीझे रे स्वामी चरण तुभारा रे, लागी शिवसुख लीजे रे स्वामी ॥१॥ विजय पुख्लावई वेगळो वास रे स्वामी नयरी पुंडरीगिणी लीलविलास रे स्वामी वांदवानी तो हि ज पूगे, अहमने आश रे स्वामी स्वामि गयण गामिनी विद्या जो होय पास रे स्वामी ॥२॥ मुखडु यालहोर्नु जोवा हीयडु हिसे रे स्वामी कवारी जाणुं ओ वाल्हो नयणे दीसे रे स्वामी जेह दिन तुम तणे पासे आवीश रे स्वामी धन धन ते दिन तेह विसू आवीश रे स्वामी ॥३॥ वाल्हास्युं वातडी करतां वेळा जे जाय रे स्वामी जसवाळी सघळी ते आउखा मांहि रे स्वामी श्रेयांस राजाना कुंवर प्रणमुं पाय रे स्वामी मनमंदिर मुज आवो जिम सुख थाय रे स्वामी ॥४॥ सुरनर सेवे जेहना पायो रे स्वामी साहिब सोभागी पूरव पुण्य ते पायो रे स्वामी वृषभ लंछन माता सत्यकी जायो रे स्वामी राणी ऋक्ष्मणि वालहो विनये गायो रे स्वामी ||५||
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११२
(२६)
पूर्वसुविदेह पुष्कल विजय मंडनं,
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वर्तमानं जिनाधीश तीर्थंकर,
वृषभ लंछन- धर
परमकरुणा परं
असुरसुरखचरनरवृन्द कृत वंदन,
धर्म - धारिम- धरा
मोह मिथ्यात्व मति तिमिरभर खंडनम् ।
भव्य ! भक्त्या भजे स्वामिसीमंधरम् ॥१॥
रूप सुररमणी सम-सस्यकी नन्दनम् ।
ज्ञानगुणसुन्दर,
भव्य ! भक्त्या भजे स्वामिसीमंधरम् ॥२॥
जगति हित कारक, भीम-भवजलनिधि - पार
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धरणधर - मन्दरं, भव्य ! भक्त्या भजे स्वामिसीमंधरम् ॥३॥
स्वर्ण समवर्ण वर मूर्ति शोभावर,
ऋद्धिवर बुद्धि र सिद्धिवरदायकं,
त्रिदशपति भवनपति मनुजपति नायकम् । भविकजननयनकैरववने शशिक
भव्य ! भक्त्या भजे स्वामिसीमंधरम् ||४॥
समय सुन्दर सदानन्द मंगलकर,
उत्तारकम् ।
सुगुरु जिनचंद्रजितसिंह गुणसागरम् ।
مع
भव्य ! भक्त्या भजे स्वामिसीमंधरम् ॥५॥
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(२७)
( प्रथम जिनेश्वर प्रगमीए )
गुणनिधि साहिब सेवीए, सर्व सुपर्व अगर्व
नमे
'सीमंधर' जिनराज; जस पायक जे, शिवag वरणने काज. विजये विजय करंत; 'श्रेयांस' नृपांगना 'सत्यकी' उर धरंत.
स्नात.
'कुंथु' 'अर' जिन अंतरे, सीमंधर जिन जात; विद्या जणे विवेक पूरव दिशि तम रिपु, सुरगिरि उपर रमणीय रूप मणिकंत वृषांक कनक छवि, कांति वीर्य अनंत.
'सुव्रत' 'नमि' अंतर विचे, दीक्षा लीये तजी भोग; आतम शुद्धे घाति समिध वन ज्वालीयां, शुक्ल हुताशन योग अडहिय सहस सुलक्षणो, शोभित साहिब अंग; विश्वने जाणी झीलतो 'ज्ञान' जलाब्धि तरंग.
करगत आमल
जयवंती ' पुक्खलावती' पुरी 'पुंडरीगिणी' नाथ
तनु शत पंच धनुषतणु, दक्षिण पय तळे जोध
८
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(२८)
श्री 'सीमंधर' साहिबा रे, विनतडी अवधार; भवसागरमा बूडता रे, बांह ग्रही मुज तार रे. कर जोडी कहुँ आज मानो मुज अरदास रे, शिरनामी कहु आज.
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६
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११४
दक्षिण भारतमां अमे रह्यां, 'पुष्कलावती' जिनराज; अंतर तो दीसे घणो रे, केम सरशे मुज काज. शिर०२ जलमां वसे रे कुमुदिनी रे, चन्द्र वसे रे आकाशः जिम हेनी इच्छा पूरता रे, तिम प्रभु पूरो मुज आश. शिर०३ जे तुम आण शिर धरे रे, सुखीया कहीये रे तेह; वळी वळी शुकहु व्हालमा रे, मुज शुधरजो नेह शिर०४ तुं माता तुंही ज पिता रे, भ्राता तुं जगबुद्ध; महेर करो मुज उपरे रे, करी करुणा रस शुद्ध -शिर०५ श्री श्री विजयजिणंदनो रे, शिष्य विजय गुण गाय; आज पछी प्रभु तुम बिना, अवर शु नमवा निम. शिर०६
(२९) बे कर जोडी विनवु रे लाल, मारी विनतडी अवधार रे; तुमे महाविदेहमां वस्या रे लाल, अभने छे तुम आधार रे,
प्रभाते उठी करुं वन्दना रे लाल. १ भरतक्षेत्रमा हु अवतर्यो रे लाल, किम करो आq हजूर रे तुम दर्शन नवि पामीयो रे लाल, रह्यो मजूरनो मजूर रे.प्रभाते०२ तुम पासे देव घणा वसे रे लाल, एक मोकलजो महाराज रे मनना सन्देह प्रभु पूछीने रे लाल, करुं सफल दिन आज.प्रभाते०३ केवलज्ञानिना विरहथी रे लाल, मनुष्य जन्म एळे जाय रे, शुभ भाव आवे नहि रे लाल, शी गति माहरो थाय रे ?प्रभाते०४ कर्मने मोहे खूब कस्यो रे लाल, हजु न थयो खुलास रे, जिम तिम करी प्रभु तारजो रे लाल, हुं तो धरूं तमारी आश रे.प्रभाते०५ "सीमन्धरस्वामि"ना नामथी रे लाल, थाय सफल अवतार रे, "कल्याणमुनि' एम विनवे रे लाल, प्रभु नामे जयजयकार रे.प्रभाते०६
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११५.
(भवोदधिमां बूडता प्रभु-भे राग) हे 'सीमन्धरस्वामि' व्हाला विनति धरजो, भरतवासी आ दास पर प्रभु महेर करजो, निजभावनी जे शुद्ध रमणता भूली भवमा हुं पडीयो, तुज ज्ञानज्योति उर प्रगटो तुज धर्मने पामुं.
हे ! सीमन्धर० १ त्रिकरण शुद्धिए एज माटे करी रह्यो हुँ आराधना तुज समीपे जन्म हो मम तुज आणने धारूं.
हे ! सीमन्धर० २ 'पुंडरीकिणी नगरीए प्रभु जन्म्या 'कुंथु अर' अंतरे; दीक्षा केवलश्री वर्या 'नमि मुनिसुव्रत' अंतरे;
हे ! सीमन्धर० ३ 'उदय पेढाल'नां अंतरे निर्वाणपद शोभावशो, 'श्रेयांस' कुळमां नभोमणि प्रभु मुजने.
हे ! सीन्मधर ४ 'सत्यकी' नंदन दुःख विहंडन दर्शन कृपा वरसावजो राजरमणी 'ऋक्ष्मणि' तजी ए त्याग द्यो मुजने.
हे ! सीमन्धर० ५ विदेहवासी विदेह आपो तुज भाव पामुं निर्मळो, 'आनंद'नी त्यां ऊर्मी उछळे ब- जेम अविनाशी.
हे ! सीमन्धर० ६
अरे निर्वाण प्रभु मुजीमधर
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(३१) (अनन्तवीरज अरिहंत सुणो मुज विनति-ए राग) 'सीमन्धर' जिनराज कृपाळु तारजो,
जन्म जराना दुःखथी प्रभुजी उगारजो; विद्यमान प्रभु वात हृदयनी जाणता,
साचा स्वामी सुखकर विनति मानता. १ काळ अनादि मोहवशे बहु दुःख ल्ह्यां,
चार गतिनां दुःख विचित्र सहु सह्यां मोहवशे धामधूममां धर्मपणु ग्रां,
शुद्ध स्वरूप स्याद्वाद् तत्त्वथी सद्दद्यु. २ गारिया प्रवाहमां दृष्टिरागे रह्यो,
__ बाह्यक्रिया रुचि धामधूममां हुं पडयो; लोकोत्तर जिनधर्म परखीने नवि लह्या,
गुरुगम ज्ञान विना हुं भवोभव लडथडयो. ३ प्रभु तुम शासन पुण्यथी पामी मे जाणीयु;
मिथ्या दर्शन जोर कुमतिनु व्यापीयु; परख्युं सत्य स्वरूप जिनेश्वर धर्मर्नु,
रहेशे जोर हवे केम आठे कर्मनु ४ तुज करुणा ऐक शरण सेवकने जाणशो,
जाणी बाळक हारो करुणा आणशो; म्हारे शरणु एक जिनेश्वर जगधणी,
तारो करुणावंत महेश्वर दिनमणि. ५ 'बुद्धिसागर' बाळ तुमारो करगरे,
· साचा स्वामि पसाये सेवक सुख वरे, उपादाननी शुद्धि प्रभुता जागशे,
जित नगारु' अनुभवज्ञाने वागशे. ६
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(३२) श्री सीमंधर साहिबा, अवर नहि जगनाथ; मारे आंगणीये आंबो फळीयो, कोण भरे रे बावळ केरी बाथ रे.
सलुणा देव स्वामिसीमंधर देव. १ कोई आवे रे बलिहारीनो साथ रे, सलुणादेव स्वामिसीमंधर देव, आडा सायर जळे भर्या रे, वचमा मेरु होय; कोई केईकने आंतरे, तिहां पहोंची शके नहि कोय.
सलुणा देव स्वामिसीमंधर देव. २ में जाण्यु हुं आवु तुम पास, विषम विषम पंथ दूरः आडा डुंगरने दरिया घणा, वचमां नदीओ वहे भरपूर रे.
सलुणा देव स्वामिसीमंधर देव. ३ मुज हैडु संशय भयु, कोण आगळ कई वातः एकवार रे जिनजो जो मिले, जोइ जोइ जोउ रे वंदन केरी वाट रे
सलुणा देव स्वामिसीमंधर देव ४ कोइ कहे रे स्वामीजी आवीया, आपु लाख पसाय; जीभ रे घडावु सोना तणी, तेहना धडे पखालु पाय रे.
सलुणा देव स्वामिसीमंधर देव. ५ स्वामीजी स्वप्नभां पेखीया, हैडे हरख न माय; वाचक गुणसुंदर एम भणे में तो भेटया सीमंधर राय रे.
सलुणा देव स्वामिसीमंधर देव. ६
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११८
(३३) सुनो सुनो सीमन्धर स्वामि शासन स्वामी रे,
___मोहे लगी मिलनकी आश, अंतरजामी रे सुनो० १ में भरतक्षेत्रमें आय लीयो हे वासो रे,
तुम लगी न आयो जाय, पूर्छ किम शांसो रे,...सुनो० २. मोह्या विण वीतराग नीर नयणे वरसे रे,
मारु हैयु न मेरे पास, सदा दिल तलसे रे...सुनो० ३ एम तलसे दिन ने रात, मनडु मेरु रे,
___कब देखुं तुम देदार, दरिसण तेरु रे.. सुनो० ४ में रात उघाडी आंख निंद न आवे रे,
भगवंत विना भव्यजीव, बहु दुःख पावे रे...सुनो० ५ ऐवा जिनगुण गावे जिनदास, मधुरी वाणी रे,
चरणोंकी रज करी जाण, आपनो जाणी रे...सुनो० ६
सेवक स्वामी एकराजी तोसू एहि ज प्रीति; समकित थारी विनतिजी, कहेजो धरी निज प्रीति;
कलानिधि ! तुं जाईस तिण ठामी, आंकणी. विहरमान जिणवर जिहांजी, श्री सीमन्धरस्वामी. कला० १ मुज मने अलजो छे घणोजी, देखण प्रभु दीदार; जाणुं मुख आवे नहिजी, प्रसन्न करूं दो च्यार. कला० २ अति अळगी पुंडरीकिणीजा, किण परि आयो जाय; त्रिकरण शुद्ध वंदनाजी, मुजी कहेवाय रे. कला० ३ तुं नाणे जाणे सहिजी, पण नाणे, मनि प्रेम; नाणे लोभाये नहिजी; तो वळी कीजई केम. कला. ४
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११९ दूर थकां पण ताहरोजी; ध्यान धरुनिशदिश; जिम सुख पामु शाश्वताजी, तिम करजो जगदीश. कला० ५ देव सरागी छे घणाजी, ते दीठा न सुहाय; श्री जिन रंग हीये वस्योजी: अवर न आवे दाय. कला० ६
विचरे पूर्व विदेहमां, सुखकारी रे साहेबजी; सीमंधर भगवंत रे, जगत उपकारी रे साहेबजी; १ उत्पाद ध्रुव व्यव्यना, सुख०
समय समय भासंत, जगत० सुरकृत आसने बेसीने, सुख०
प्रभु देशना वरसंत रे, जगत० २ षडू द्रव्यगुण पर्यायथी, सुख
- अड पख चउ भंग सार रे, जगत प्रमाण नय निक्षेपमुं, सुख०.
चउ अनुयोग विचार रे जगत० ३ दशलाख केवलि मुनिवरा, सु०
चोराशि गणधार रे, जगत० एक शत कोटि श्रमण भला, सु०
करे जिन संग विहार रे, जगत० ४ होंस हृदयमां नित्य रहे, सु०
___तुम भेटण काज रे, जगत० पण भरतमें दूरे वस्यो, सु० ।
किम होय भेटण महाराज रे, जगत० ५ अहींथी वंदना प्रतिदिने, सु०
जाणजो शंत अठ वार रे, जगत रतन कहे ए विनति, सु०
मानजो विश्व आधार रे, जग० ६
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(३६)
( राग : मारुणी )
३
पूरव महाविदेह रे, 'पुखलावती' विजय जेह रे, पुंडरीकिणी पुरी नामी रे, विहरे 'सीमंधरस्वामी' रे. १ वृषभ लंछन सुखकार रे, श्री श्रेयांस मल्हार रे; सत्यकी उदर अवतार रे, ऋक्षमणिनो भरतार रे २ पांचसे धनुषनी काय रे, सेवे सुरनर पाय रे; सोवन वर्ण शरीर रे, सायरु जेम गंभीर रे. कनक कमल पद ठावे रे, सुर किन्नर गुण गावे रे; भवियण ने आधार रे, भव जलं पार उतार रे. धन धन ते पुर गाम रे, विहरे सीमंधरस्वामी रे; धन धन ते नर नारी रे, भक्ति करे प्रभु सारी रें. ५ श्री सीमंधरस्वामी रे, चरण नमुं शिर नाभी रे; समयसुन्दर गुण गावे रे, मन वंछित फल पावे रे. ६
४
(३७)
( ओच्छक रंग वधामणा - अ राग )
"सीमंधर " जिन रूपमां, हुं तो रहियो राची; भाव कर्मने टाळवा, शुद्ध परिणति साची. १ भावकर्मना नाशथी, द्रव्यकर्म टळे छे: नायक मरवाथी यथा, सैन्य पाछु वळे छे. राग-द्वेष भावकर्म छे, द्रव्यकर्म ग्रहावे; राग-द्वेष टळवाथकी, द्रव्यकर्म न आवे. ३ निश्चय शुद्ध चारित्रथी, राग-द्वेष टळे छे; राग-द्वेष टळवा थकी, निज लक्ष्मी मळे छे. ४
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चेतन शुद्ध स्वभावमां, लीनता, क्षण थावे; त्यारे सहजानंदनो, अनुभव मन आवे. ५ क्षयोपशम शाने करी, प्रभु श्रेणि चढीयो; शुक्ल ध्यान महाशस्त्रथी, मोह साथे लडीयो. ६ जयलक्ष्मी अंगीकरी, नव ऋद्धि पायो; "बुद्धिसागर" ध्यानथी, प्रभु अंतर आयो. ७
(३८) सुणो चंदाजी ! 'सीमंधर' परमातम पासे जाजो; मुज विनतडी प्रेम धरीने एणी पेरे तुमे संभळावजो.
-आंकणी० जे त्रण भुवननो नायक छ, जस चोसठ इन्द्र पायक छे;
नाण दरिशण जेहने खायक छे. सुणो० १ जेनी कंचन वरणी काया छे, जस धोरी लंछन पाया छे;
___ 'पुंडरीगिणी' नगरीनो राया छे. सुणो० २ बार पर्षदा मांही बिराजे छ, जस चोत्रीश अतिशय छाजे छे ।
गुण पांत्रीश वाणीए गाजे छे. सुणो० ३ भविजनने जे पडिवोहे छे, तुम अधिक शीतळ गुण सोहे छे।
रूप देखी भविजन मोहे छे. सुणो० ४ तुम सेवा करवा रसियो छु, पण भरतमां दूर वसियो छु
महा मोहराय कर फसियो छु. सुणो० ५ पणसाहिब चित्तमां धरीयो छे, तुम आणा कर ग्रहीयो छे
तो काईक मुजथी डरीयो छे सुणो० ६ जिन 'उत्तभ' पूंठ हवे पूरो कहे 'पद्मविजय' थाउ शूरो
तो वाधे मुज मन अति नूरो. सुणो० ७
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१२२
पुंक्खलवई विजये जयो रे, नयरी पुंडरीगिणी सार; श्री सीमंधर साहिबा रे; राय श्रेयांस कुमार.
जिणंदराय ! धरजो धर्म सनेह १ न्हाना मोटा अन्तरो रे, गिरुआ नवि दाखंत; शशि-दरिसण सायर वधे रे, कैरववन विकसंत. जिणंद० २ ठाम कुठाम न लेखवे रे, जग वरसंत जलधार; कर दोय कुसुमे वासोये रे, छाया सवि आधार. जिणंद. ३ राय ने रंक सरीखा गणे रे, उद्योते शशी सूर; गंगाजल ते बिहुंतणा रे, ताप करे सवि दूर. जिणंद० ४ सरीखा सहुने तारवा रे, तिम तुमे छो महाराज; मुजशु अंतर केम करो रे, बाह्य ग्रह्यानी लाज. जिणंद० ५ मुख देखी टीलु करे रे, ते नवि होय प्रमाण; मुजरो माने सवि तणो रे, साहिब ते सुजाण, जिणंद० ६ वृषभ लंछन माता सत्यकी रे, नंदन ऋक्ष्मणि कंत; वाचक यश इम विनवे रे, भय भंजन भगवंत. जिणंद० ७
(प्रभु ! तुज शासन अति भल) 'पुक्खलवइ' विजये जयो, श्री 'सीमंधरस्वामी' रेः विहरमान प्रभु प्रह समे, प्रणमुं हुं शिर नामी रे. पुक्खल०१ नयरी पुंडरीगिणी' राजीयो, 'श्रेयांस' नृप-कुल-चंदो रे; 'सत्यकी' नंदन सुंदरु, भवियण नयननंदो रे. पुक्खल०२ धन्य जना ते विदेहना, सफल जन्म तस जाणुं रे; पुण्य प्रबल जग तेहy, जीवित तास वखाणु रे. पुक्खल०३.
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१२३
पूरण प्रेमे प्रह समे, वांदे जे प्रभु भावे रे; सांभळे देशना दीपती, प्रतिदिन दरिसण पावे रे. पुक्खल०४ प्रभु तुम दरिसण देखवा, नयणां करे उमाह रे, पीवा वचन पीयूषने, श्रवण धरे उच्छाह रे. पुक्खल०५ दूर देशांतर तुम वस्या, ते मारे न अवाय रे; ईहां थकी मुज वंदना, अवधारो महाराय ! रे. पुक्खल०६ 'ऋक्ष्मणी' वल्लभ विमायो, वृषभ लंछन हितकारी रे 'जयविजय' कहे साहिबा ! तुज सेवा मुज प्यारी रे. पुक्खल०७
(४१) (तुमे बहु मैत्री रे साहिवा) सीमंधर ! करजो मयां, धरजो अविहड नेह, अमचा अवगुण देखीने, देखाडो रखे रे छेह. सीमंधर० ! १ हैयु हेजाळु माहरु, खिण खिण आवो छो चित्त; पळ पळ इच्छ रे जोवडो, करवा तुमशुरे प्रीत. सीमंधर ! २ भक्ति तुमारी सदा पूरे अणहुंता सुर कोड; जग जोतां कोई नवि जडे, स्वामि ! तुमारी रे जोड. सीमंधर !३ दक्षिण भरते अमे वस्या, पुक्खवई जिनराय; दीसे मलवा रे तुम तणो, ए मोटो अंतराय. सीमंधर ! ४ दैवे दीधी न पांखडी, किण विध आq हजूर ! तो पण मानजो वंदना, नित्य उगमते सूर. सीमंधर ! ५ कागळ लखवो रे कारमो, कीजे महेर अपारः विनति ए दिल धारिये; आवागमन निवार. सीमंधर ! ६ देव दयाल कृपाल छो, सेवकनी करो रे सोर; उदयरतन एम उच्चरे, स्वामि ! मुजने न विसार. सीमंधर ! ७.
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(४३)
(राग - तुं मन मोह्यो रे वीरजी - ओ देशी)
श्री सोमंधर साहिबा, धरजो धरम स्नेह, सेवक रसियो सेवा तणो, हुं छु तुम पद खेह. श्री सी० १ - वहाला तुमे वस्या वेगळा छो अम्ह हियडा हजूर; तिथी तिमिर दूरे गया, उम्यो अनुपम सूर. श्री सी० २ नयणे प्रीति जे दाखवे, ते संयोग संबंध:
अंतर अंतरविण जिके, मिलीया परम ते बंधु. श्री सो० ३ पुक्खलाई विजया जिहां नयरी पुंडरीकिणी मांहि; विचरे तिहां सहु इम कहे, पण ते नियति न प्राहि. श्री सी ४ विजया मुज शुद्ध चेतना, भक्ति नयरी निरुपाधि; तिहां विचरे मुज साहिबो, जिहां सुख सहज समाधि श्री सी० ५ ओक व्हारी तोही उपरे, में तो कीधो रे स्वाम ! लोक प्रवाहथी जे बीहे, तेहनां न सरे रे काम. श्री सी० ६ जिण दिनथी तुम्हे चित्त वस्या, नवि अवर को दाय;
- ज्ञानविमल सुख संपदा, अधिक अधिक हवे थाय. श्री सी० ७
(४२) श्री सीमंधरजीकु वंदनो, नित होय जो हमारी रे;
मन वचन काया त्रिके करी, सेवा चाहूं तुम्हारी रे सी० १
तुमे तो विदेहमां जई वस्या, हम भरतमें बेठे रे; मनडु चाहे इण घडी, जई किम पद
ईहां आरा है पांचमा, तिहां चौथा
उहां तुम जंघा
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भेटे रे सी० २
आरा रे
सुख भोगवो, हमकुं न संभारो रे. सी० ३ विद्याचारिणी कोई लब्धि न जई प्रभु पद भेटीये, मनडुं घणुं
दीसे रे हीसे रे सी० ४
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बीज तणो जे चन्दलो, तेनी साथे हमारी रे आय पहोंचेगी वंदना, सुर कहेगो संभारी रेसी० ५. नंदन श्री श्रेयांसको अंगज सत्यकीनो रे ऋक्ष्मणि राणीको नाहलो, दुजो वृषभ नगीनो रे, सी० ६ सुपनान्तर प्रभुजी मिल्या, भयो परमानंदो रे; बुध जशवंतसागर तणो, जिनेन्द्र थुणिंदो रे. सी० ७.
(४४) (सिद्धास्थना नंदन विनवु'-देशी) श्री सीमंधरस्वामी ! तुम तणा, चदण नमु चित्त लाय; अंजलि जोडी विनवू अरिहंत ! तुम विण रहण न जाय. ऐ अवधारो हो जिनवर ! पिनति, श्री सीमंधर स्वामी! विरहनी वेदना वहेली निगमु, तृपति न पामुं नामि ए० २ जनम अनंता हो श्री जिन ! हुभम्यो अवर अवर अवतार; पुण्य प्रमाणे रे हमणां पामीयो, नरभव भरत मोझार ए० ३ महाविदेहे रे स्वामि ! तुम वसो, पांख नहीं मुज पास; किण पेरे आवी रे पाप आलोईए, मनमा रहियो विमास. ए० ४ मलवा हैडु रे अरिहंत ! किम मिलु शत्रु घणा मुज लार, व्हार करजो हो तुमे केवरघणो, अबर नहि रे आधार. ए. ५ अंब विना जिम कोयल नवि रमे, मधुकर मालती सेव, रति नवि पामे हो तिम मन माहरु तुम दरिशम विण देव. ए० ६ स्वामि ! तुमारी हो करीशु स्थापना, जाणे श्री जिनराय, गुण गाबतां हो भाषशु भावना, निश्चलता मन लाय. ए. ७
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(४५) (जगजीवन जग वालहो-ए देशी) सीमंधर जिन सेववा, मन धरे वहु उत्साह, लाल रे. आडा डुंगर वन घणा, नदीओना प्रवाह. लाल रे० सी० इह क्षेत्रे एहवा कोण छे जे जाणे मननी वात, लाल रे० कही उत्तर मन रीझवे, सुप्रसन्न हुए मन गति लाल रे० सी० मन तो तुज चरणे भमे, भामणे भूख ना जाय, लाल रे० मुज मन वात तो तुं लहे, किम कहु तुज समजाय. लाल रे० सी० ज्ञान अनंत बल ताहरे, सेवे सुरासुर कोड, लाल रे० आज्ञा द्यो अक देवने, पहोंचाडे, मन कोड, लाल रे० सी० धन्य देश जिहां तुमे रह्या, धन्य तुम पास, लाल रे० धन्य नगरी पुंडरीगिणी, जिहां प्रभु छे तुम वास. लाल रे• सी० अरज मुज अवणारिये, महेर करी महाराज. लाल रे० करीये नयन मेलावडो, अंतरजामी आज. लाल रे० सी० अळगा तोही ढुंकडा, वसोया मनह मोझोर; लाल रे० लब्धिविजय सोमंधरा, मुज उतारो भवपार. लाल रे० सी०
(राग : मारुणी) स्वामि तारने रे मुज परम दयाल, सीमंधर भगवंत रे; शरणागत सेवक जन वच्छल, श्री जिनवर जयवंत रे. १ पुक्लावती विजय जिन विचरे, महाविदेह मोझार रे; हु अति दूर थकां प्रभु तोरी, सेवा करुं किम सार रे. २ है है दैव किम न दीधी, पांखलडी मुज दोय रे; जिम हुं जईने जगगुरु वादु, हियडलु हरखित होय रे. ३
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समवसरण सिंहासण बेसी, स्वामि करे वखाणरे धन छे सुरनर किन्नर विद्याधर, वाणी सुणे सुविहाण रे. ४ धन ते गाम नयर पुर मंदिर, जिहां विहरे जिनराय रे; विहरमान 'सीमंधर' स्वामी, सुरनर सेवे पाय रे. ५ तुम दर्शन विण चतुर्गति मांही, हुं भम्यो अनंती वार रे, हवे प्रभु शरणे तोरे आव्यो, आवा रे गमन निवार रे. ६ सेवकनी प्रभु सार करीने आपो वंछित काज रे, समयसुन्दर कर जोडी विनवे; आपो अविचल राज रे ७
(४७) (ढाळ : वीर वखाणी राणी चेलणाजी.) स्वामि सीमंधर सांभळोजी, मारी एक अरदास, हीयडु मिलण उमाहीयुंजी, प्रीति तणे पडथु पास. १ नाणे भय मन कहेनोजी, राख्यो न रहे अनीत, आवे जावे हेजाळुओजी, राजचरणे मुज चित्त, २ एक वालेसर तुं घणीजी, शीष धरु तुज आण. अवसरसु मिलण मुज आखङीजी, तुहिं ज देव प्रमाण. ३ भ्रम भूले थके मे घणांजी, जोणी शिव सुख तणी खाण; सेव्या हशे सुर सामटाजी, कु न खमी त्रिजग दिवाण. ४ मारा अवगुण जोवशोजी, तो न सरे कोई काज, अवगुण गुण करी जाणशोजी, तो हिज रहेशे मुज लाज. ५ मारी प्रीति लागी खरीजी, जेहवी चोळ मजीठ; रंग बिदांग न हुवे कदा, अधिकाधिक सदा दीठ. ५ राज पुखलावती हुँ इहांछ, भेकिये किण परे पाय; कहे जिन हर्ष मा विसारशोजी, एहिज लाख पसाय. ७
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(४८) (राग-कलहरो, देशी पोपट चाल्यो रे.) मुज हीयर्ल्ड हेजाळजी, भाखर गणे न भीति; आवे जावे रे एकलुजी, करवा तुमशु प्रीति. १ सीमंधर करजो मया, धरजो अविहड नेहा अमचा अवगुण जोइने, रखे दिखावो छेह. २ तुमचा भगतजन घणा, अण हुंता अक कोडि; अमची मीटन कोई चटयोजी, साहिव तुमची जोडी. ३ दक्षिण भरतमें हुं रहु, पुक्खलावती जिनराय; कोईक दिन मलवा तणो, दीसे ए छे अन्तराय. ४ दीधी दैव न पांखडी, आQ केम हजूर; पण जाणजो वंदना, प्रह उगमते सूर. ५ कागळ लखवो रे कारमो. कीजइ महेर अपार अमची एह ज विनति, आवागमन निवार. ६ परम दयाल कृपाल छो, करजो अवसर सारः श्री जिनराज इश्यु कहेजी, मत विसार. ७.
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(४८)
चित्तडु संदेशो मोकले, म्हारा बहालाजी रे, मना साथै रे नेह, जईने कहेजो म्हारा स्वामिजी रे; सीमंधर नित्य हुं जपुं, म्हारा बहालाजी रे.
जेम बपैयो रे मेह, जईने कहेजो म्हारा स्वामिजी रे. १ दूर देशांतर जई रह्या,
माया लगाडीने हेव, जईने कड़ेजो म्हारा ०
खे, जईने कहेजो म्हारा० २
प्रीत तो अधिकी होई गईं, म० हम छोडी जाय; जईने कहेजो म्हारा०
म०
पांखडी जो मारे होवे म्हारा
कवित ए
उत्तम जनशुं प्रीतडी,
कदीय न ओछी थाय, जईने कहेजो म्हारा ० ३ निःस्नेही तुम सरिखा, म०
में तो कोई न दीठ, जईने कहेजो म्हारा० हइडामां चाहे नहि
मोढे बोले मीठ, जईने कहेजो म्हारा० ४ आशा तो तुम उपरे म०
मेरु समान में कीथ, जईने कद्देजो म्हारा० जो क्षण एक कृपा करो,
म०
तो सहु होवे रे सिद्ध, जईने कहेजो म्हारा० ५ जे अक्षय सुख शाश्वतनुं, म०
जे सहु चाहे रे लोक, जईने कहेजो म्हारा० जो नहि आपो माग्यु थकुं, म०
फोक, जईने कहेजो म्हारा • ६
म०
म०
घं शुं कहिओ जाणने म०
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देजो स्वामी रे सेव, जईने कद्देजो म्हारा० रूप पसायथी, 可
ऋद्धि कहे नित्यमेव, जईने कहेजो म्हारा • ७
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(४९) (राग : करेलडा धड देरे) किम मळी ये किम परिचिये, किम रहीये तुम पास; किम स्तवियें स्तवना करी, तेहथो चित्त उदास. सीमंधर ! प्रीतडी रे, करिये कौन उपाय ?
भाखो कोई रोतडी रे १ ते देशे जावु नहीं है, मळवा श्यो संबंध ? सौ नजरे मळवु नहोंजो, शी परिचय प्रतिसंध ? २ प्रथम प्रकृतिने अभिलषी, पाछळ करीये वात; ए अनुक्रम जाण्या विना, परिचयनो प्रतिघात ३ परिचय विण कोय सदा, न दिये बेसण पोस; पासे ही बेसण न दे, रहेवानी शी आश ? ४ जो रहिये पासे सदा, तो अवसर अरदास; करीये पण मोटा कदि, न करे नपट निराश. ५ को काले तुज चरणनी, सेवा करशु आम ! इण काले मुज वंदना, प्रीछजो परिणाम. ६ दूर थकां कमठी परे, महेर नजर महाराज ! ज्ञानसारथी राखजो, सरशे तो सहु काज. ७
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(५०)
पुंडरीकिणी नगरी वखाणिये, सखो, श्रेयांस घरे जायो पुत्र रतन्न के चालो रे. आपण देखवा जइये, नयणे कुमार निहाळिये. सखी, कीजे हे ऐहना कोड जतन्न के, साहेलोओ, सुजाण मोरो जीवन प्राण, सखी कीजे एहनी मस्तके,
हे सखी धरिये आण के. चालो रे० १ घर घर थयां वधामणां, वारु वाजे सखी ! ढोल निशान के, चालो रे; धवलमंगल गाये गोरडी.
जोवा आव्या हो सखी, सुर नर राणके; चालो० २ यौवन प्राप्त प्रभु थया,
सखी वाला हो सीमंधरकुमार राय महोच्छव बहु करे,
परणाव्यां हे सखी रुकमणि नार के चालो० ३ राज्य लीला सुख भोगवी,
प्रभु लोधो हे सखी संयम भार के चालो रे, समिति गुप्ति सुधी धरे,
गामागर हो सखी करे विहार के चालो० ४ करम खपावी घातीया प्रभु पाम्या हे सखी केवळ नाण के चालो रे; समवसरण देवे रच्युं,
तिहां बेसी हे सखि करे वखाण के० ५
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इन्द्र उतारे आरति
इन्द्राणी हे सखी गावे गीत के चालो रे ;
सुरनर ले सहु भामणा,
ज्योते जित्यो हे सखी आदित्य के चालो० ६
सुन्दर सूरत जोवतां,
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भव भवना हे सखी जाये पाप के चालो ०
ए जिन हर्ष वधारणो,
टाळे सघळा हे सखी ताप संताप के चालो० ७
(५१)
श्री सीमन्धरस्वामीशु जी, श्री श्रेयांसकुमार म्हारा प्रभुजी चाकरी चाहुं व्हारा चरणनीजी. १ स्वजन कुटुंब मळ्युं कारमुंजी, कारमो सहु संसार मारा प्रभुजी. २ धन धन त्यांना लोकनेजी, नित ऊठी करे रे प्रणाम. ३ कागळ लखवा कारमाजी, अरज करे छे मारी आंख. ४
एक वार प्रभु समवसरेजी, करु मारा दिल मेरी बात. ५ चित्तमांहे जाणे संयम लहुंजी करु मारा प्रभु साथै गोठ. ६ वाचक 'जस' इम विनवेजी, नमुं कर जोड म्हारा प्रभुजी. ७
फ्र
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(५२)
(राग-नंद सलुणा मने नंदना रे लो) सीमंधर सुणो विनंती रे लो; कांई आज लगे दिलमा हती रे लो मनभ्रमरो अति लोभीयो रे लो, कोई प्रभु सेवाथी थोभीयो रे ला
॥ १ ॥ श्री तुं त्रिभुवननो मोड छे रे लो, कांई मुख देखण मन कोड छे रे लो दैवे न दीधी पांखडो रे लो, कांई दरिसण चाहे आंखडी रे लो
॥ २ ॥ श्री मन जाणे उडी मर्छ रे लो, कांई साहिब सेवामां भळु रे लो, हेजे हळी तजशु हस्यो रे लो, कांई तरण तारण हइडे वस्यो रे लो
॥ ३ ॥ श्री मीठं दरिसण ताहरु रे लो, काइ चित्तडु चोरायु तिणे माहरु रे लो नेह निवारण जे छे रे लो, कांइ बांय ग्रह्यानो लाज छे रे लो
॥ ४ ॥ श्री रंग लाग्यो प्रभुशु तिसो रे लो, कांइ चोलमजीठनो छे जिसो रे लो विसार्या किम विसरे रे लो, रातदिवस भरी सांभळे रे लो
॥ ५ ॥ श्री नवल सनेही दु.ख कंदना रे लो, कांई जिनजी जगदानंदना रे लो अवगुण त्यजी गुण लेखवा रे लो, कांई सेवक दिल भरी देखवा रे लो
॥ ६ ॥ श्री तुं प्रभु जोवन जोड छ रे लो कांई सेवामां शी खोड छे रे लो कांतिविजय जिनजी मळ्या रे लो; कांइ म्हां माग्या पाशा ढळ्या रे लो
॥ ७ ॥ श्री
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(५३) (सिद्धारथना रे नंदन विनवु-से देशी) विनति मारी रे सुणजो साहिबा, सीमंघर जिनराज; त्रिभुवन तारक ! अरज उरे धरो, देजो दरीसण राज. वि. १
आप वस्या जई क्षेत्र विदेहमां, हु रहुं भरत मोझार; ए मेळो किम थाये जगधणी, ए मुज सबल विचार वि० २ वचमां वन द्रह पर्वत अति घणा, वळी नदीओना रे घाट; किण विध भेटुं रे आवो तुम कने, अति विषमीए रे वाट वि० ३ किहां मुज दाहिण भरतक्षेत्र रह्यु, किहां पुक्खलवइ राज; मनमा अळजो रे मळबानो घणो भवजल तरण जहाज. वि० ४ निशदिन अवलंबत मुज ताहरु, तु मुज हृदय मोझार; भवदुःख भंजन तुं ही निरंजनो, करुणा रस भंडार. वि. ५ मनवंछित सुखसंपद पूरजो, चूरजो कर्मनी राश; नित्य नित्य वंदन हुँ भावे करूं, एही ज छे अरदास, वि० ६ तात श्रेयांस नरेसर जगतिलो, सत्यकी राणीनो जात: सीमंधर जिन विचरे महीतळे, त्रण भुवनमां विख्यात वि० ७ भवो भव सेवा रे तुम पदकमलनी, देजो दीन दयाळ; बे कर जोडी रे उदयरतन वंदे नेक नजरथी निहाळ. वि०८
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(५४) (वंदना वंदना वंदना रे जिनराजकु सदा मेरी वंदना-से देशी) ध्यानमा ध्यानमा ध्यानमा रे, जिनराज लीया में ध्यानमां; अब कहेशु वात ते कानमां रे, जिम प्रभु समजावीशु सानमां रे जि. अमे रमशु अंतरज्ञानमां रे, जिनराज लीया में ध्यानमां; गुण अनंत अनंत बिराजे, सीमंधर भगवानमां रे जि० दोष अढार गये प्रभु तुमचे, वस्यो सुख निरवाणमां रे. जि० १ देव ! देव जग कोई कहावे माचे विषय विकारमा रे; जि. परखी नाणुं जे जग लेशे, ते सुखियो संसारमा रे जि० २ वनिता वशे ईश्वर पण नाच्यो, रौद्र निधन वेच्यानमां रे जि० वेदचार पण चिहु मुख नाडे, जड गुण सरजा सानमां रे जि० ३ सीता विण ग्रही वनतरु भंज्या, रूप कपि हनुमानमां रे; जि. कंसारि पमुहा जग देवा, जे फरीया तोफानमां रे. जि. ४ ते तो रागी तुं वीतरागी, अंतर लहुल विच्यानमां रे; जि. रत्नोपल खजुओ खग अंतर, अज्ञानी विज्ञानमां रे. जि० ५ उत्तम थानक हीरो पावे, वैरागकी खानमां रे; जि० शरण हुओ अब मुज बळीयाको, कर्म कठीन गत रानमां रे. जि० ६ दूर रह्या पण अनुभव मिषे, मनमंदिर मेलानमां रे; जि० । तुम संगे शिवपद लहु कंचन, बांबु रस वेधानमां रे. जि० ७ मोह सुभट दुरदंत हठीकुं अंतरबल शुभ ध्यानमा रे; जि. वीरविजय कहे साहिब सानिध्ये, जित लीयो मेदानमां रे. जि० ८
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(५५) श्री सीमंधर जिनराज सुणो मुज तातजी,
__ अरज करूं करजोडी मानो मुज तातजी, भमियो हु काज अनंत निगोदमां नाथजी,
__ पृथ्वी पाणी तेउ, वाऊ, बधु साधजी १ वनस्पति साधारण प्रत्येक जाणीए,
काळ गुमायो तिहां एणे बहु प्राणीए वी, ति, चउरिन्द्रिय असन्नित अपजत्तापणु,
तिरिय अनारज देश ए सरीखो गणुं. २ दक्षिण विग जिनदेव भमीयो हुँ भर घणा
छेदन भेदन दुःख जनी तिहां मणा, हजीय न चेतो चित्त प्रभु आगम सुणी,
केहणी करणी फेर जीणंदजी मुज तणी ३ हिंसा तणो जो पोष बहु रोषे को,
मृषावाद अदत्त बहुविध ओदर्यो, मैथुन परिग्रह संगे सदा हुं राचीयो,
क्रोध मान माया लोभ तणे वशे नाचीयो. ४ रागद्वेषनी भीड थकी नवि ओशों,
कलह मिथ्याआळ थकी नवि ओशयों, पिसुण रतिमां मुज मन वस्यो ,
परपरिवार विशाळ भुजंगे ते डस्यो. ५ माया मोष जे दोष जे नडे नित आकरो
चालु मिथ्या चाले तेणे नहीं पाधरो, लोक रंजनने काजे जे आगम वांचं भगुं,
स्यादवाद सुधाए न जाण्यु निज पणुं. ६
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जे
लोकोत्तर
जाणो सघळा लोक अलोक तणी छती,
ती वीतक वात कहींशु जिनपति. ७ 'महाविदेह' मझार के 'श्री सोमंधर' प्रभु,
विचरे दीनदयारे के जगतारक विभु, कहे वसंत करजोडी हृदय स्थिर थापजो,
धर्म करु लौकिकथी, दुर्लभ निज गुण भोग प्रभु तहकीकथी
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रत्नत्रयी गुण वृंद 'आनंद' मुज आपजो ८
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(५६)
सीमंधरस्वामिनी ओळु घणी आवे हो, राय जयवंता बावरी ओळु घणी आवे हो राय, ओळु रीतो महाविदेह क्षेत्रमांजी साहिबा ओळु पुंडरी किणीमांहे मोरा राय. १ तुमे तो वसीया महाविदेहक्षेत्रमांजी साहिबा,
हुं तो वसीयो भरतक्षेत्रमां मोरा राय. सी० कागळया कि साथे मोकल साहिबा,
३
वातलडी न चाले विशेष हो मोरा राय. सी० पांख होवे तो ऊडी मिलं साहिबा,
दाखु दाखु हीडा केरी वातो मोरा राय. सी० राणी रुकमणीजीना नाहला साहिबा,
थे तो मोरा जीवनना आधाररे मोरा राय. सो० शुं शुं कहीने दाखवुंजी साहिबा,
सी० ६
तुमे तो सकळना जाण मोरा राय. जिम जिम तुम गुण सांभल साहिबा,
तिम तिम ध्यावु दिन ने रात मोरा राय० सी० मुजरो मारो मानजोजी, साहिबा
सत्यकी नंदन देवो मोरा राय. सी० मानविजय कवि ऐम भणे साहिबा,
देजो देजो तुम पाय सेव भोरा राय. सी० ९
४
७
८
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(देशी-वासुपूज्यविजयविलासो चंपाना वासी) श्री सीमंधरस्वामि, मुक्तिगामी दीठे परमानंद प्रभु सुमति आपो, कुमति कापो, टाळो भवभयफंद कर्म अरिंगण दूर करीने तोडो भवतरु कंदरे. श्री सी० १ चोत्रीश अतिशय राजतारे, पांत्रीशवाणी रसाळ, आठ प्रतिहार्य दीपतां रे, बेठी छे पर्षदाबार रे. श्री सी० २ एक वार दरिसण दीजीये रे, दासनी सुणी अरदास, गुण अवगुण न लेखवे रे गिरुआनो आधार रे. श्री सी० ३ महागोप महामाहण करीने, निर्यामक सार्थवाह, दोष अढार दूर करीने, अवजल तारण नाव रे. श्री सी० ४ अगणित शंकाए हु भर्यो रे, कोण करे तस द्र, ज्ञानी तुमे दूरे वस्या रे, हुं पडयो भवकूप रे. श्री सो० ५. जो होवत मुज पांखडी तो, आवत आप हजूर, ए लब्धि मुज सांपडे तो, न रहुं तुम थकी दूर रे. श्री सी० ६ शासन भक्त जे सुरिवरा रे विनवु शीर्ष नमाय, श्री सीमंधरस्वामिना रे, चरण कमल भेटाय रे, श्री सी०७ धन्य महाविदेहना जीवने रे, जे सदा रहे तुम पास, हुं निर्भागी भरते रह्यो रे, शां कीधां में पाप रे ? श्री सी ८ अरिहंत पद सेव्या थकी रे, देवपालादिक सिद्ध, हुँ पण मांगु एटलु रे, सौभाग्य पद समऋद्ध रे. श्री सी० ९
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१३९.
(५८)
(स्वामिसीमंधरा विनति)
स्वामिसीमंधर पय नमुं, गुण स्तवुं हुं कर जोडी रे;
आतम भाव उल्लासथी, पामवा वांछित कोडी रे. स्वामि०
दक्षिण भरतमां हुं वसुं प्रभुजी विदेह मोज्ञार रे,
,
दूर रह्या पण जाणजो, वंदना मुज वारोवार रे. स्वामि० २
कमल रहे जलमा सदा, सूरज रहे आकाश रे.
अंतर छे वचमां घणुं, तो पण ते तस पास रे. स्वामि० ३ पोतावट केम जाणीये, जो न करो प्रभु सार दे, अम मनमांहि तुमे वस्या, तरण तारण किरतार रे; स्वामि० ४
आश करे कोई आपणी, मूकीये केम निराश रे, सेवक जाणी पोतातणो दीजीये हर्ष उल्लास रे. स्वामि० ५.
गिरुआ होय गुणे भर्या, तस मन होय उदार रे; सेवक अवगुण व जुए, दीये मनवांछित सार में स्वामि० ६
ते कारण जिन अम भणी, आपीये केवळरत्न रे, पामी बहु सुखीया थरयुं, करशु विशेष यत्न रे स्वामि ७
पंडितमांहि शिरोमणि, जिनविजय गुरु सार रे, अमर विजय स्तवे भावथी, जिनवर जग आधार रे. स्वामि० ८
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अढारसें चौद संवत्सरे, भाद्रव वदि मनोहार रे; पांचम दिन प्रभु में स्तव्या, सीमंधर हितकार रे. स्वामि० ९.
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(५९) श्री सीमंधर साहिबा रे, हुं केम आयु तुम पास हो मुणिंद; दूर वच्चे अंतर घणु रे, मुने मळवानी घणी होश हो जिणिंद
श्री सीमंधर सा० १ हुँ तो भरतने छेडले रे, प्रभुजी कांई विदेह मोज्ञार हो मुर्णिद; डुंगर वच्चे दरिया घणा रे, कांई कोश तो काई हजार हो जिणंद;
श्रो सीमधर सा० २ प्रभु देता हशे देशना रे, कांई सांभळे तिहांना लोक हो मुणिंद, धन्य ते गाम नयरीपुरी रे, जिहां वसे छे पुण्यवन्त लोक हो जिणिंद
श्री सीमंधर सा० ३ धन्य ते श्रावक श्राविका रे, जे निरखे तुम मुखचंद हो मुणिंद; पण ओ मनोरथ अम तणो रे, कदी फळशे भाग्य अमंदहो जिणिंद
श्री सीमंधर सा ४ वर्तारो वरती जुओ रे, कांई जोशीए मांडया लगन हो मुणिंद; क्यारे सीमंधर भेटशु रे, मुने लागी एह लगन हो जिणिंद.
श्री सीमंधर सा. ५ पण कोई जोशी नहि एवो रे, जे भांजे मनडानी भ्रांत हो मुणिंद; पण अनुभव मित्र कृपा करे रे, तव मिलवो तुम एकांत होजिणिंद.
श्री सीमंधर सा०६ वीतराग भावे सही रे. तमे वर्तो छो जगन्नाथ हो मुणिंद; पण में जाण्यु तुम वेणधी रे, हुथयो स्वामि ! सनाथ हो जिणिंद.
श्री सीमंधर सा० ७ श्री पुष्कलावती विजये जयोरे, कांई नयरी पुंडरीगिणी नाम हो जिणिद; सुत्यकी नंदन वंदना रे, काई अधारो, गुणधाम हो जिणिंद;
श्री सोमंधर सा• ८ श्री श्रेयांस नृप कुल चंदलो रे कांई ऋक्ष्मणि राणीना कंत हो मुर्णिद; वाचक रामविजय कहे रे, तुमे होजो मुज चित्तवंत हो जिणि.
श्री सोमंधर सा० ९
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मनडुते माहरु मोकले मारा वहालाजी; शशहर साथे संदेश जइने कहेजो मारा वहालाजी; भरतना भक्तने तारवा मारा वहालाजी, एक वार आवो आ देश, जइंने कहेजो मारा वहालाजी. १ प्रभुजी वसो पुष्कलावती मारा वहालाजी महाविदेह क्षेत्र मोझार जईने कहेजो मारा वहालाजी: पुरी राजे पुंडरोगिणो मारा वहालाजी, जिहां प्रभुनो अवतार, जईने कहेजो मारा वहालाजी. २ श्री सीमंधरसाहिबा मारा वहालाजी, विचरंता वीतराग जईने कहेजो मारा वहालाजी; पडिबोहे बहु प्राणिने मारा वहालाजी, तेहनो पामे कुण ताग ? जईने कहेजो मारा वहालाजी. ३ मन जाणे उडी मळु मारा वहालाजी, पण पोते नहीं पांख जईने कहेजो मारा वहालाजी; भगवंत तुम जोवा भणी मारा वहालाजी, अलजो धरे छे बेउ आंख, जईने कहेजो मारा वहालाजी. ४. दुर्गम मोटा डुंगरा मारा वहालाजी, नदी नाळानो नहि पार जईने कहेजो मारा वहालाजी घाटीनी आंटी घणी मारा वहालाजी, अटवी पंथ अपार जईने कहेजो म्हारा व्हालाजी. ५. कोडी सोनये कासीदु मारा वहालाजी, करनारो नहि कोई जईने कहे जो मारा वहालाजी; कागळियो केम मोकलु? मारा वहालाजी, होंश तो नित्य नवली होय जईने कहेजो मारा वहालाजी ६.
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लखु जे जे लेखमां मारा बहालाजी लाख गमे अभिलाष जईने कहेजो मारा वहालाजी; तुमे भेजामा तेह लहो मारा वहालाजी, मुज मन पूरे छे साख, जईने कहेजो मारा वहालाजी. ७ लोकालोक स्वरूपना मारा वहालाजी, जगमां तुमे छो जाग, जइने कहेजो मारा वहालाजी, जाण आगळ शु जणावीए? म्हारा वहालाजी, आखर अमे अजाण जईने कहेजो मारा वहालाजी. ८ वाचक उदयनी विनति मारा वहालाजी, शशहर कहेजो सन्देश, जईने कहेजो भारा वहालाजी मानी लेजो मारी विनति मारा वहालाजी, वसति दूर विदेश, जईने कहेजो मारा वहालाजी. ९
(६१) श्री सीमंधरस्वामि विनति सांभळोः भरतक्षेत्रमा धर्मवृक्ष छेदाय जोः केवळज्ञानी विरहे जिननी वाणीमां संशय पडतां मत मतान्तर थाय जो श्री सीमंधर० १ निन्हव प्रगटथा हठ कदाग्रह जोरथी करी कुयुक्ति थाप्या निज निज पक्ष जो, अल्प बुद्धिथी निर्णय को न करी शके, निरपक्षी वीरला कोई होवे दक्ष जो. श्री सीमंधर० २ केईक मतिमां आवे तेवु मानता, पंचांगीनो करतां केइक लोप जा, दृष्टिरागमां खूच्या केईक बापडा पंच विषयनो व्याप्यो छे महाकोप जो. श्री सीमंधर० ३
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१४३ आभिनिवेशिक जोरे जूटुं बोलता, थापे मोहे व्याप्या निज निज पंथ जो, संघ चतुर्विध मांहि भेद घणा पडया. उत्थापे केई अधुना नहि निर्ग्रन्थ जो. श्री सीमंधर० ४ केईक क्रियावादी जड जेवा थया, केईक राखे अध्यात्मिनो डोळ जो; ग्रहे एकान्ते ज्ञान क्रियाना पक्षने, पाखंडे चलवे कोई मोटी पोल जो. श्री सीमंधर. ५ भद्रवाहुत्वामी आदि श्रुत केवळी, परंपराथी आवे जे श्रुतज्ञान जो, परंपरा उत्थापक लोपे तेहने, करीने विरुद्ध भाषण विषनु पान जो, श्री सीमंधर० ६ इत्यादिक जाणो छो जिनजी ज्ञानथी, करजो स्वामी दुःषम काळे सहाय जो; आप भक्ति शक्ति स्फूर्ति मतिनी थतां, तरतम योगे शिव मारग परखाय जो, श्री सीमंधर० ७ सहस्र एकवीश पर्यन्त वीरना शासने, संघ चतुर्विध अविच्छिन्न वर्ताय जो; युगप्रधानो थाशे आत्मार्थी घणा, कारण योगे कार्यसिद्धि सुहाय जो. श्री सीमंधर० ८ वाचक यशोविजयजी वचने चालवु, गुरु परंपरा धर्मक्रिया आचार जो; अनेकान्त मारग श्रद्धा साची ग्रही; बुद्धिसागर आशा शिवसुख सार जो. श्री सीमंधर० ९
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(६२) सीमन्धर सीमन्धर स्वामि, एक अरज अवधारो; एह संसार समुद्र मिथ्याजल, तेहथी पार उतारो. श्री० १ निरधनीयो धन संपत्ति जेम, चातक जिम जलधारो; तिम दरिसण जिनराज तणानी; मुज अभिलाष अपारो. श्री० २ क्षेत्रविदेहे आप विराजो, बसणो इहां अमारो; लब्धि गगन चारिणी नहि विद्या, किम होय दर्शन थारो. श्री० ३. प्रह उठी चरण नमें नित, धन तेहनो अवतारो, ते दिन हमारो धन स्वामी, भेटुं चरण तुमारो, श्री० ४ सुर नर किन्नर यक्ष सर्व ही, वंदे चरण तुमारो; श्रवणे वाक्य सुणे स्वामिना, तेहनो होय निस्तारो श्री० ५ जोजन एक विस्तरे वाणी, सहु जीवा सुखकारो; अतिशय चोत्रीश गिरा पैतीशो, मुख दिसे दिस चारो श्री० ६ धनुष पंच शत ऊंचो सुणीये, देह तणो विस्तारो; लख चोराशी पूरव आयु, श्री जिनराज तुमारो. श्री० ७ भवो भव चरण तुमारी सेवा, एह अवज अवधारो, अल्प बुद्धि मारी स्वामि गुण, कब लग कहुं पारो श्री० ८ संवत अढारे वर्ष इक्यासी, श्रावण मास मझारो, कहे शिवलाल भाव शुद्ध वंदो, एह जिन तारणहारो. श्री० ९.
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(हरिया मन लागउ-ए ढाळ) विजयविदेह परगणो, पुखलावती इण नाम रे, साहिब सुण मोरा; धन नयरी पुंडरीकिणी; जिहां सीमंधरस्वामि रे, साहिबा० १ मनडो तरसे माहरो, देखण तुमचा पाय रे, सा. पंख नहि विद्या नहि, क्यु करी आयो जाय रे, सा. २ जो किम ही हाजर होवं, प्रश्न करूं कर जोडी रे, सा० संशय सघळा मोटी के, पूरु निज मन कोड रे, सा० ३ पूरो आगमवल नहि रे, किम किजे महाराज रे, सा. ४ गुण अवगुण जाणे नहि, मन मान्यानी यात रे, सा० किण के लेखई दिन भला, किण के लेखई रात रे, सा. आपणो मत थापे सहु, कुण साचो कुण जूठ रे, सा. कब साचो जिण राउ मे, साख भरो पर पूठ रे, सा. ६ सहहणा प्रभु उपरे, इतनो छे आधार रे, सा० ध्यान न छोडु ताहरो, जाणजो निरधार रे, सा० ७ प्रेमतणी वार्ता तणां, कहेतां नावै पार रे, सा. पिण तुम सरिखो माहरे, अवर न इण संसार रे, सा० ८ मुज हुँती पळने सदा, तुम्हची आण अभंग रे, सा० बोधि बीज दायक हुजो, पभणे श्री जिनरंग रे, सा० ९
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(सिद्धचक्रपद बंदो- देशी) । श्री सीमन्धर जिनवर स्वामी, विनतडी अवधारो, शुद्ध धर्म प्रगटयो जे तुम्हचो; प्रगटो तेह अम्हारो रे.
स्वामि विनवोये मनरंगे. १ जे पारिणामिक धर्म तुम्हारो, तेहवो अहमचो धर्म, श्रद्धाभासन रमण वियोगे, वळग्यो विभाव अधर्मरे ;
स्वामि विनवीये मनरंगे. २ वस्तु स्वभाव स्वजाति तेहनो, मूल अभाव न थाय, परविभाव अनुगत परिणतिथी, कमें ते अवराय रे;
स्वामि विनवीये मनांगे. ३ जे विभाव ते पण नैमित्तिक, संतति भाव अनादि, परनिमित्त ते विषय संगादिक, ते संयोगे सादि रे;
स्वामि विनवीये मनरंगे. ४ अशुद्ध निमित्ते ए संसरता, अत्ता कत्ता परनो, शुद्ध निमित्त रमे जब चिद्घन कर्ता भोक्ता घरनो 'र;
स्वामि विनवीये मनरंगे. ५ जेहना धर्म अनंता प्रगटथा, जे निजपरिणति वरियो, परमातम जिनदेव अमोही, ज्ञानदिक गुण दरियो रे;
स्वामि विनवीये मनरंगे ६ अवलंबन उपदेशक रीते श्री सीमंधर देव, भजीये शुद्ध निमित्त अनोपम तजीये भव भय रे;
स्वामि विनवीये मनरंगे ७ शुद्ध देव अवलंबन करतां परिहरिये परभाव, आतम धर्म रमण अनुभवतां, प्रगटे आतम भाव रे;
स्वामि विनवीये मनरंगे. ८ आतमगुण निर्मळ निपजतां, ध्यान समाधि स्वभावे, पूर्णानंद सिद्धता साधी, देवचन्द्र पद पावे रे;
स्वामि विनवीये मनरंगे. ९
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धन धन क्षेत्र महाविदेहजी, धन पुंडरीकिणी गाम; धन्य तिहांना मानवीजी, नित उठी करे रे प्रणाम. सीमंधरस्वामि ! कहीयेरे हु महाविदेह आवीश ? जयवंता जिनवर, कहीये रे हुतमने वांदीश? १ चांदलिया ! संदेशडोजी, कहेजो 'सीमंधर' स्वाम; भरतक्षेत्रना मानवीजी नित्य उठी करें रे प्रणाम. २ समवसरण देवे रच्युंजी, चोसठ इन्द्र नरेश; सोना तणे सिंहासन बेठा, चामर क्षेत्र धरेश. ३ इन्द्राणी काढे गंहुलीजी, मोतिना चोक पूरेश. लळी लळी लीये लूछणाजी, जिनवर दीये उपदेश. ४ एवे समय में सांभळ्युंजी, हवे करवा पच्चखाण; पोथी ठवणी तिहां कनेजी, अमृत वाणी वखाण. ५ ( बारे पर्षदा आगळेजो, अमृत वाणी वखाण.) रायने व्हाला घोडलाजी, वेपारीने व्हाला छे दाम; अमने व्हाला 'सीमन्धर स्वामी', जेम सीताने श्रीराम. ६ नहीं मांगु प्रभु! राजऋद्धिजी, नहीं मांगुगरथभंडार; हुमांगु प्रभु ! एटलुजी, तुम पासे अवतार. ७ दैवे न दीधी पांखडीजी, किम करी आवु हजुर; मुजरो म्हारो मानजोजी, प्रह उगमते सूर. ८ समयसुन्दरनी विनतिजी, मानजो वारंवार, बे कर जोडी विनवंजो, विनतडी अवधार. ९
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(६६) श्री सीमंधर मुज मन स्वामी, तुमे साचा छो शिवपुर गामी,
के चन्दा तुमे जईने कहेजा. १ कहेजो के एक वार साहिबा तुमे आवो,
हारे मिथ्यात्वने घणु समजावो, के चन्दा० २ कहेजो मारा व्हालाने कहेजो सीमंधरस्वामिने
तुमे भरतक्षेत्र अहीं आवो, के चन्दा० ३. मनडु ते मारूं तुम पासे छे,
सदा चरणे चित्त चाहुं, के चन्दा० ४ जिहां ते जिनजीना वृक्षज दिशे,
जिनना गुण गावाने मन हरखे, के चन्दा० ५ भरतक्षेत्रना जे भवि प्राणी,
जिननी वाणी सुण्यानी खाणी, के धन्दा० ६ महाविदेह क्षेत्रना जे भवि प्राणी,
नित्य सुणे छे तुमची वाणी, के चन्दा० ७ अनुभव अमृत भरीने लेज्यो,
- चन्दा रती एक दर्शन देज्यो, के चन्दा० ८ जो जिननी वाणी क्षेत्र ज लइए,
तो चन्दा अमे तमनेसेना कहीओ, के चन्दा० ९ तस पद पंकज जिनविजयना,
चन्दा नयने जावानी घणी होश, के चन्दा. १० वाचकजभ कीर्तिविजयना शिष्य,
निर्मळ बुद्धि जगीश, के चन्दा० ११ कहेजो मारा व्हालाने, कहेजो सीमंधरस्वामिने,
तुमे भरतक्षेत्रमा आवो, के चन्दा० १२
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(प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए, जास सुगंधी रे काय-ए देशी) गुणनिधि साहिब सेविये सीमंधर जिनराज; सर्व सुपर्व अगर्व नमे, जस पयकजे शिववहु वरणने काज. १ जयवंती पुक्खलावती, विजये विजय करंत; पुरी पुंडरीगिणीनाथ श्रेयांस नृपांगनां, सत्यकी उदर धरंत. २ कुंथु अरजिन अंतरे, सीमंधरजिन जात, विद्या जणे विवेक पूरव दिशि तम रिपु, सुरगिरि उपर स्नात. ३ तनु शत पंच धनुष तणा, रमणीय रूप मणिकंत, दक्षिण पयतणे जांघ वृषांक कनक छवि, कांति वीर्य अनंत. ४ सुव्रत नमि अंतर विचे, दीक्षा लीओ तजी भोग आतम शुद्ध घाति समिध वन जवालियां, शुकल हुताशन योग. ५ अडहिय सहस सुलक्षणे, शोभित साहिब अंग; करगत आमल विश्वने जाणे जीलतो ज्ञान जलाब्धि तरंग. ६ परषदा बारनी आगळे, देशना वरसंत शांत दांत महांत प्रशांत केवलधणी, दश लाख केळवी संत. ७ शत एक कोडी मुनिवरा, चोराशी गणधरा; उदय पेढाल जिनांतरमा शिव संपदा, वरशो तजीय संसार. ८ समय तणे अनुसारथी, लाधी मैं तुम भाळ; तिणे दगतीत विण नेत्र विलक्ष उभय हुआ,
जिम सर भ्रष्ट मराळ. ९
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१५० राग द्वेष विगता तुम्हो, मुज रागांकित देहा तुम शीतल तनु पश्य शीतल विधु जाणीये,
जिम अय पारस तेह. १० शुभ घन दाता समपणे, गंध जलान्न दियंत; तिम देजो शिवराज राजनगरे मळ्या, सीमंधर भगवंत. ११ मंद मति पण में थुण्या, बाळ पसारित हत्था । जलधिमान कहे शुभविजयजी आपजो, वीर कहे परमत्थ. १२
(६७)
क्षेत्र विदेह सोहामणो, विजय पुष्कलावती ठाम हो; धन्य नगरी पुंडरीगिणी, जिहां सीमंधरस्वाम हो.
अवधारो० १ अवधारो जिन विनति, दरिसण दिजे जिनराज हो; हर्ष पूरो म्हारा मन तणो, सारो जिन वंछित काज हो.
अवधारो० २ राय श्रेयांस धरे जनमीया, सत्यकी तणा मल्हार हो; कुंथु अर वच्चे जनमीया, जीवन अभय दातार हो.
अवधारो० ३ रूपे इन्द्र हरावीया, वाधे वाधे बीज जिम चंद हो: पूरव लाख त्यांसी लगे, भोगव्यो राज अमंद हो
अवधारो० ४ नमि मुनिसुव्रत आंतरे, मन धरों अतिहि वैराग हो; राणी ऋक्ष्मणि जेणे तजी, प्रगट कर्यो शुभ मार्ग हो.
अवधारो० ५
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जप तप संजम बहु करी, पाम्या केवळनाण हो; भविक जीव प्रतिबोधवा अभिनव ऊग्यो भाण हो. अवधारो० ६
ईम मन थाय भला पंखीया, जाय मन बाहु ठामे होय पांखडी, हुं आवु
धन धन लोक ते देशना, तेहना पुण्य अपार हो; सांभळे वाणी जे जिन तणी, जेहवी अमृत धार हो; अवधारो ० वहालो मारो विदेहे जई रह्यो, हुं वसु भरत मोझार हो; मन तणी वात केने कहुं, तुम समो कोण आधार हो. अवधारो •
८
वंछित देश हो;
तिण
१५१
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७
देश हो. अवधारो० ९
आडा डुंगर नदी घणी, ओडा घणा खेत्रना वास हो; किम मिले स्वामी सोहामणा, जे गुण तणा निवास हो. अवधारो० १०
विनति अह अवधारजा, जिम सरे सेवक काज हो; दरिसण देजो मया करी, विनवे मुनि मेघराज हो.
सेवक सामुं, जिन जाईए दूर वसंतडां वास हो; मत जाणो जिन तुमे विसर्या, मन मारु जिनजीनी पास हो. अवधारो ० ११
अवधारो० १२
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(६८) (साहिब अजित जिणंद जुहारिये-से देशी) साहिबा श्री सीमंधर साहिबा, साहिबा तुमे प्रभु देवाधिदेव; सन्मुख जुओने म्हारा साहिबा, साहिब मन शुद्धे करूं तुम सेव.
एक वार मळोने म्हारा साहिबा-ए आंकणी० १ साहिवा सुखदुःख वातो म्हारा अतिघणी, साहिवा कोण आगळ कहुं नाथ ! साहिबा केवळज्ञानी प्रभु जा मिले, साहिबा तो थाउ हुँ रे सनाथ. एक वार० २ साहिबा भरतक्षेत्रमा हु अवतर्यो, साहिबा ओछु एटलु पुण्यः साहिबा ज्ञानी विरह पडयो आकरो साहिबा ज्ञान रह्यं अति न्यून. एक वार० ३ साहिबा दश दृष्टांते दोहिलो, साहिवा उत्तम कुल सोभाग; साहिबा पाम्यो पण हारी गयो, साहिवा जिम रत्ने ऊडाडयो काग. एक वार० ४ साहिबा षडूरस भोजन बहु कर्या, साहिबा तृप्ति न पाम्यो लगार, साहिबा हुं रे अनादिनी भूलमां साहिबा झळ्यो घणो संसार. एक वार० ५ साहिबा स्वजन कुटुंब मळ्यां घणां, साहिबा तेहथी दुःखे दुःखी थाय, साहिबा जीव ओकने कर्म जुजुआ, साहिबा तेहने दुर्गति जाय. एक वार० ६
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साहिया धन मेळ्ववा हुं धसमस्यो, साहिबा तृष्णानो नाव्यो पार. साहिबा लोभे लटपट बहु करी, साहिबा न जोयो पाप व्यापार. एक वार० ७ साहिबा जिम शुद्धाशुद्ध वस्तु छे; साहिवा रवि करे तेह प्रकाश. साहिबा तिम्ही ज ज्ञानी मळ्ये थके, ते तो आपे रे समकित वास. एक वार० ८ साहिबा मेघ वरसे छे वाटमां, साहिबा वरसे छे गामोगाम. साहिबा ठाम कुठाम जुए नहीं, साहिबा एहवा म्होटानां काम. एक वार० ९ साहिबा हु वस्यो भरतने छेडले, साहिबा तुमे वस्या महाविदेह मोझार; साहिबा दूर रही करु वंदना, साहिवा भवसमुद्र उतारो पार. एक वार० १० साहिबा तुम पास देव घणा वसे, साहिबा मोकलजो एक महाराज ! साहिबा मुखनो संदेशो सांभळो, साहिबा तो सहेजे सरे मुज काज. एक वार० ११ साहिबा हुँ तुम पगनी मोजडी. साहिवा हु तुम दासनो दास. साहिबा ज्ञानविमलसूरि ईम भणे, साहिषा मने राखो तुम्हारी पास. एक वार १२
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(६९)
( ढाळ : वोर वखाणी राणी चेलणाजी ) स्वामी सीमंधर मारे मन वस्याजी, सुंदर सुगुण सुजाण; अंतरजामी अंतर लहेजी, त्रिभुवन भासतो भाण. स्वामि० १
कनक सतेज कसवट कस्योजी, तेहत्रो वर्ण शरीर; जीवतां पाप भवभव तणांजी, जाय जिम थल थकी नीर. स्वा० २
धन्य ते नयण चकोरडाजी, पेखे प्रभु मुख चंद; जन्म सफळ निज कीजियेजी, रोपीये पुण्य तरुकंद. स्वा० ३
स्वामिगुण वागुरा विस्तरीजी भविक मनमृग पडे पास जन्म मरण तथा पाशथीजी, निसरे ताहरा दास स्वा० ४
समवसरण मध्ये बेसीनेजी मालवकौशिक राग; देशना मधुर स्वरे उपदिशेजी, जे सुणे तेहना भाग. स्वा० ५.
दुःख लहुं चार गतिमां भमुंजी, सेवतो काज अकाज; जो जो हृदय विचारीनेजी, ते प्रभु ! कहेजो लाज. स्वा० ६
साहिव लोभ न कीयो तदाजी, सहु भणी आपतां दान; नाथ अनाथ तुम्हारे नथीजी, हो मुज निर्मळ ज्ञान. स्वा०
कारमा सुख तणे कारणेजी, राची रह्यो मन मूढ; तारी भगति नवि आदरीजी, पडचा अज्ञानथी रूढ स्वा० ८
पंचम काळे इण भरतमांजी, नव मिले केवली कोई, स्वामि ! तुम्हे पण वेगळाजी, किम मन धीरज होई. स्वा० ९
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मन तणी वात किणने कहुंजी, तेहवो को नहि जाण; जिण तिण आगळ दाखताजी, लोकहांसी घर हाण. स्वा० १० भव भव मांहि भमतां थकांजी, कीधला कर्म कठोर, दाखवु शा तुम आगळेजी, पग पग ताहरो चोर. स्वा० ११ निर्गुण तो पण ताहरोजी, मेलजो मत विसार; अवर आधार भुजको नथीजी, ताहरो एक आधार स्वा० १२ स्वामि ! थोडा घणा मानजोजी, चरण कमळ तणी सेव; कहे 'जिन' मुज आपजोजी, विनति करु नित मेव. स्वा० १३
(७०)
(डाळ : उलालानी)
आज मनोरथ फळीया, सुपने साहिब मळिया; भाग्य संयोगे ए दीठा, भवभवनां दुःख नीठा. १
पाप गया सहु दूरे, जिम कम्मल नहि पूरे; पुण्य दशा हवे जागी, प्रभुजीशु लय लागी २ निरंजन निर्मोही, निर्मल तुज काया सोही : कंचन वर्ण शरीर, सायर जेम गंभीर. ३ मेरुतणी परे धीर, कर्म विदारण वीर; समता रसनो तुं दरियो, अनंत गुणे करी भरियो ४
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प्रभुजीनी सूरति सोहे, सुर नरना मन मोहे; अपच्छरा प्रभुजी आगे, नाटक करे मन रागे. ५ त्रिगडा मांहि विराजे, कनक सिंहासन बजे, सुरपति चामर ढाळे, मोह मिथ्या मति टाळे. ६ बारह पर्षदा आवे, निज निज ठाम सुहावे; चउमुख धर्म प्रकाशे, सहु कोने प्रति भासे. ७ कुमतिना मद गंजे, कुमति सदा ग्रह भंजे; धर्मिना मन ठारे, संशय दूर निवारे. ८ नयणे जेह निहाळे, ते निज पातक गाळे; धन धन ते नरनारी, जे भेटे गुण धारी. ९ नामे नवनिधि लहीये, दर्शन देखी गह गहीये; जनम सफळ निज करी, मुगति तणा फळ लीजे. १० ईम प्रभुना गुण गाया, सुपनामां सुख पाया; दर्शन द्यो प्रभु मुजने, परतिख कहु तुजने. ११ 'सीमंधर' जिनराया, प्रणमुं प्रह समे पाया; मुजने सेवक थापो, प्रभुजी ! निज पद आपो. १२ श्रेयांस राय मल्हार, सत्यकी उदर अवतार; लंछन वृषभ सुहावे गुण जिनहर्ष शु गावे. १३
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(७१)
जिनवर मुजने कोई मिलावो, सीमंधर शिवनामी रे; चरण कमळ तारा व हुं, तु छे मारो स्वामि रे. जिन० १ सासरडानु' कोड घणेरु, पियरडे नवि रहिये रे: चउगई मांही दुःख घणेरू, मुक्ति सासरडे जईए रे. जिन० २
मृत्यु लोकमां रे पियर मोटु, माया जंजाळे खोटुं रे; स्वर्ग मोसाळे क्यारेक जावु, भातुं पोतानुं खावुं रे. जिन० ३
पाताळमांही घणां कुटुंबी, राढ वेढ दुःख खाणी रे; छेदाणो भेदाणो बहु परे, सुखि नवि पाम्यो प्राणी रेजिन० ४
लाख चोराशी योनि नगरमां, पेसी निसरीयो एकाकी रे; कोडी अनन्तमे भोगे वहेंचाणो, आठ खाण रह्यो थाकी रे. जिन० ५. अंडज पोतज जर रस जात, प्रस्वेद जात समूच्छिम रे उद्भिज्ज भूमिमांही उत्पात रोप्या, आठ खाणी भयो तिम रे. जिन० ६
काळ अनंता फरी फरी आव्यो, सद्गुरु आव्यो आरो रे; मुक्ति सासरडो एहज मारो, आपणो आतम तारो रे. जिन० ७
केहना समां ने केहनी सगाई, वैरी थाये बहेनभाई रे, पांचेय इंद्रिय चोर अन्यायी, परभवे सही दुःखदाई रे. जिन० ८
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मात पितानुं कांई न चाले, बहेन भाई सौ भोळा रे, पुत्र कलत्र सहु पाप करावे, खावा मळे सहु टोळा रे. जिन० ९
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१५८ भूख तृष्णा छे घणीय पियरमां, तृष्णा ए तृप्ति न आवे रे, घोर निद्रामा घोर्या रहेवु तिणे पियर नवि भावे रे. जिन० १० मुगति सासरडे भूख न लागे, कोई काई नवि मागे रे. रोग नहों ने उंघ न आवे, सुखमां दहाडा जावे रे. जिन० ११ पियरमां आदि अंत न लागे, तेणे पियर केम रही रे, मुगति गयाथी छेहडे आव्यो, सासरडे सुख लहिये रे जिन० १२ आणे आवे ना न कहेवाये आणापत खोटी थाय रे. आणु पाछु वाळ्यु न जावे, पुण्य विना पस्ताय रे. जिन० १३ सीमंधर मुज आश पहचाडो, मुगति रमणी वर काजे रे, शुभविजय शिष्य लालविजय कहे, मुजने एटलु
दीजे रे. जिन० १४
(७२)
चांदलिया संदेशो जिनवरने कहे रे,
एटलो काम करे अविसार रे; बार परषदा जिनवर आगले रे,
'श्री सीमंधर' जग आधार रे. १ सोवन वर्ण शरीर सोहामणो रे;
... मोहन मूर्ति महिमावन्त रे. जगमें सुजश घणो सहुको जपे रे,
भेटीश दिन ते धन्य भगवन्त रे. २
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साहिब दुःख अनन्तां में सह्यां रे,
हुँ भमियो, गमियो छु भव आळ रे; शरणे राखजो निज सेवका रे,
तुम विण कोई न दीनदयाळ रे. ३ इतरा दिवस लगे भूले थके रे,
सेव्या तो होशे सुर केई एक रे; ते अपराध खमजो माहरो रे,
मोटा तो बक्षे खून अनेक रे. ४ हवे एकताळी कीधी एहवी रे,
तुम विण अवर न नमवा संस रे; सुर तरु फळ छोडी तूसने रे,
खावानी केम आवे हूंस रे. ५ हियडे तो नेह घणो हेजाळवो रे,
जावे आवे करवा प्रीत रे; सम विषम पण न गणे वातडी रे,
नवल सनेही नवली रीत रे. ६ मनडो चंचळ मुज तानु आळसी रे,
कर्म कठिन सबळा अन्तराय रे; पाप किया कोई भव पाछला रे,
मनमेलु केम भेळो थाय रे. ७ वालेसर सांभळे मुज विनति रे,
मारे तो तुहि ज साजन स्त्रैण रे; हियडा भीतर तु वासे वसे रे,
ध्यान धरूं समरु दिन रौण रे. ८ कोई केहने मनमा वसे रे.
कोई केहने जीवन प्राण; मारे तो तुम विण को नहीं रे,
जिनजी ! भावे जाण म जाण रे. ९
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नयणे निरखीश मूरति ताहरी रे,
ते दिन सफळ गणीश महाराज रे; सन्मुख करशुं प्रभुजी बातडी रे,
छोडी पर निज मनची लाज रे. १०
दैव न दीधी मुजने पांखडी रे;
ऊडी मळु जिनजी ! तुज आयरे; मनरा मनोरथ मनमां रह्या रे,
किण आगळ कहुं चित्त लायरे. ११ तारे तो मुज पाखे ही सरे रे,
पण मारे तो तुज विण नहीं सरत रे जलघर सारे मोरा बाहिरा रे,
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मेह विना मोरा केम रहंत रे. १२.
चांदो गगन, सरोवर प्राहणो रे,
जे जाके
दूर थकी पण करे विकास रे; मनमें वसे वसे रे,
तेह सदा तेह सदा तेने पास रे १३
दूर थकी जाणजो वंदना रे,
मारी प्रह उगमते सूर रे; महेर करीने सेवक उपरे रे; मुजने राखो राज केइक प्रपंच हो साहिब ! शुं करे रे,
करतां न आवे मनमें काण रे;
श्री सीमंधर तुम जाणो सही रे,
हजूर रे. १४
श्री सोमगणी जिनहर्ष सुजाण रे १५
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(७३) श्री सीमंधर स्वामिजी जीवन जगदाधार: वहाला सुणो एक विनति, मारा प्राणना आधार;
प्रभुजी ! मानजो महाराज ! १ हियडूं तो मुज हेजालु रे, श्वास भर्यो उभराय; एक पलक धीरज नवि धरु, कहुं कुण आगळ जाय. प्रभुजी० २ खिण खिण मनोरथ नवनवा, उपजे मनडा माही' फरि तेह मनमां वीसमें, कांइ जिम कूवानी छांहि प्रभुजी० ३ एक घडी अथवा अधघडी, जो प्रभु मिले एकांति; तो वात सवि मननी करु, भांजु तो सघळी भ्रांति प्रभुजी० ४ भले सरज्यां ते पंखियां, मन चिंते तिहां जाई; माणस न सरजी पांखडी, तिणे रहि मन अकुलाई. प्रभुजी० ५ कुण मित्र जग एहवो मिले, जे लहे मननी वात; वेधे नहि मन जेहसं, किम मिले तेहसुं धात; प्रभुजी०६ नवनव रंगा जीवडां, अति विषम पंचम काल; आप आपणा मन रंगमां, सहु को थई रह्या लाल. प्रभुजी. ७ कहुं कुण आगळ वातडी, कुण सांभळे वली तेह; टाले कुण प्रभु तुम विना, मनडा तणा संदेह. प्रभुजी० ८ संसार सचळो जोवतां, मुज मन राचे न कयाय जम कमल बननो भमरलो, तेने अवर न गमे कांई. प्रभुजी० ९
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धन्य महाविदेहना लोकने, जे रहे सदा प्रभु पास; मुखचंद देखे तुम तणो, पूरे मननी आश. प्रभुजी० १० तुम क्यण अमृत सरिखा, श्रवणे सुणे नितमेव; संदेहो पृछे मन तणां, निर्णय करे ततखेव. प्रभुजी• ११ सेंगु नहीं अमने अतगुणी, प्रभु जई वस्या अतिदूर शी भगति एहवी तेहनी, जे कर्या आप हजूर. प्रभुजी० १२ जागुं नहीं लाख गमे करी, सेवक अलहंता जेह; तो पण पोतानो त्रेवडी, साहिब न दाखे देह. प्रभुजी० १३ वळी वळी शु कहीजे घj, प्रभु विनति मन माहि; इम भक्तने उवेखतां, नहीं भला दीसे कांई. प्रभुजी० १४ मुज सरखा कोडि गमे, सेवक तुमारे स्वाम; पण मारे तुम विना, नहीं अवर मन विश्राम. प्रभुजी० १५ ए अरज मारी सांभळी, करुणा करी मन साथ; कहे हंस प्रभु हेजे हवे, दर्शन देजो नाथ. प्रभुजो० १६
(७४)
(दशी-वीछीयानी) मन मंदिर मोरे आवीए, श्री सीमंधर भगवंत रे; करुणाकर ठाकुर माहरा, भयभंजन तु भगवंत रे. मन. १ अकळ अरूपी जिनवरु, अविनाशी तु अरिहंत रे; योगीश्वर ध्याने ध्याईओ, प्रभु मोटो महिमावंत रे.
उपकारी महा संत रे. मन० २
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१६३ मन मंदिर छे प्रभु माहरु, तारे वसवाने लाग रे; तु दीनदयाल दयाकरू, वडभागी तु निराग रे; मन० ३ निज आशय धरती शुद्ध करी, मिथ्यामत काढ्यो साल रे; तिम माया कंटक काढीया, शुभ रुचिधर बंध विशाळ रे. मन० ४ काढ्यो कचरो दुर्ध्याननो, तामस रज कीधो दूर रे; शुभ ध्यानशुलींपण लीपीओ, छांट यो शमरस शुभनीररे. मन० ५ तिहां समकित थंभ ऊभाविया, अप्रतमपणानी भीति रे; कडीबंध कपट रहितपणुं, क्रिया छेह पुण्य प्रकृतिनी भोतिरे. मन० ६ सुविवेक चंदननो ओरडो, तिहां संतोष सिंहासन साररे; निहां धूप घटो प्रगटी घणु, जिनशासन श्रद्धा धार रे मन० ७ चन्द्रोदय चारित्र चिहुं दिशि, संयम गुण मोती माल रे शुभ ज्ञानदीपक दीपे भला, तोरण बहु विनय रसोळ रे. मन० ८ करुणाजल पग धोवण भणी, पुष्पांजलि समता जाण रे तुम गुणथुति सुदर सुखडी. आगमनय वयग प्रमाण रे मन० ९ भलु भोजन भैत्रीभाव जे, तिहां सत्यवचन तंबोळ रे, तिहां वाजा समकित गुणतणा, शुभ किरिया केसर घोळ रे, मन०१० अम भगति युगति करशे घणी, मुज मनुमानिनी मनोहार रे; मुज अंगज विनय सोहामणो, धरशे शिरछत्र उदार रे. मन०११ प्रभु महेर करी मन मंदिरे, सीमंधरजिन पाउधार रे; मुज भाव भगति देखी घणु, जई शकशो केम किरतार रे. मन०१२
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१६४
गिरुआ आदर भावना; रसीया होय सहज सुभाव रे, निज सेवक भगति देखी करी, सुविशेष श्री जिनभाव रे. मन०१३ सीमंधरजिनवर आवीआ, मन मंदिर मोरे आज रे; सहेजे सुख सघळां सरज्यां, मन वंछित सिद्धयां काज रे. मन०१४ जिन अमृतपरे घणु वहालो, प्रभु मेरु महीधर धीर रे; श्रेयांस नरेसर कुळतिलो, राणी ऋक्ष्मणि हीयडा हार रे. मन०१५ वृषभ लंछन कंचन सम तनु, श्री सत्यकी राणी नंद रे; गुरु धीरविमळ कविराजनो, नय वंदे नितु श्री जिनचंद रे. मन०१६
(७५)
(पत्ररूपे) स्वस्ति श्री महाविदेहखेत्रमा, जीहां राजे तीर्थकर वीश,
तेने (एने नमुं शिश कागळ लखु कोडथी० १ स्वामि ! जघन्य तीर्थ कर वीश छे, उत्कृष्टा एकसो सित्तेर,
तेमां नहि फेर. का० २. स्वामि ! बार गुणे करी युक्त छो, अंगे लक्षण एक हजार,
उपर आठ सार. का० ३ स्वामि ! चोत्रीश अतिशये शोभतां, वाणी पात्रीश वचन रसाळ,
गुणो तणी माळ का० ४ स्वामि! गंधहस्ती सम गाजता, त्रण लोक तणां प्रतिपाळ,
छो दीनदयाल. का० ५. स्वामि! काया सुकोमळ शोभती, शोभे सुंदर सोवन वान,
करुं प्रणाम. का. ६
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१६५ स्वामि! गुण अनंत छे आपना, एक जोभे कहा केम जाय,
लख्या न लखाय. का० ७ भरतक्षेत्रथी लिखितंग जाणजो, आप दर्शन इच्छित दास,
राखं तुम आश. का० ८ में तो पूर्व पाप कोधां घणां, जेथी आप दरिसण रह्या दूर,
न पहोंचुं हजूर. का० ९ मारा मनमां संदेह अति घणा, जवाब बिना कह्या केम जाय,
अंतर अकळाय. का० १० आडा पाळ परवत ने ढुंगरा, जेथी नजर नाखी नव जाय,
दर्शन केम थाय. का० ११ स्वामि ! कागळ पण पहोंचे नहि, न पहोंचे संदेशो के शाही,
अमे रह्या आंही. का० १२ दैवे पांख आपी होत पोंडमें, उडी आव॑ देशावर दूर,
तो पहोंचु हजूर. का० १३ स्वापि ! केवलज्ञाने करी देखजो, मारा आतमना छो आधार,
उतारो भवपार. का० १४ ओछु अधिकुं ने विपरीत जे लख्यु, माफ करजो जरूर जिनराय !
लागुं तुम पाय. का० १५ संवत ओगणीसो त्रेपन (१९५३) सालमां, हरखे हरखविजय गुण गाय, प्रेमे प्रणमुं पाय.
कागळ कखु कोडथी० १६
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(७६)
(अन्तवीरज अरिहंत्त)
सफल संसार अवतार ओ गणु,
स्वामिसीमंधरा ! तुम्ह भगते भणु;
भेटवा पायकमल भाव हियडे घणो,
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करिय सुपसाय जे विनवु ते सुणो १
तुम्हशुं फूड अरिहंत शुं राखिये ?
जिस्मो अच्छे तिस्यो कर जोडी करी भांखिये; अति सबल मुझ हिये मोह माया घणी, एक मन भगति कम करु त्रिभुवनधणी. जीव अरति करे नव नवी परिगडे,
शेश चटको चढे लोभ वयरी नडे ! नयण रस वयण रस काम रस रसियो,
तेम अरिहंत तु हियडे नवि वसीयो. ३ दिवस ने रात हियडे अनेरो धरु,
मूह मन रीझवा बलिय माया करु; तुहि अरिहंत जाणे जिस्यो आचरु',
तिम कर जिम संसार सागर तरु. ४
कम्म वसि सुखने दुःख जे हुं सहु,
मन तणी बात अरिहंत ! किणने कहु ;
करी दया करी मया देव ! करुणा परा,
दुःख हरि सुख करी स्वामिसीमंधरा !
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जाण संयोग आगम वयण पिण सुणु,
धर्म न कराय प्रभु पाप पोते घणुं; एक अरिहंत तु देव बीजो नहीं,
एक आधार जग जाणजो अम्ह सही. ६
धण कणय माय पिय पुत्त परिजन सहु, हस्यो बोल्यो रम्यो रंग रातो बहु; जयो जयो जग गुरु जीव जीवन धरा,
तुम समोड नहि अवर वाल्हेसरा.
जेहने नामे मन वयण तन उल्लसे,
अमिय रस वाणी जाणुं सदा सांभळु,
वारंवार परपदा मांहि आवी मिलुं; चित्त जाणं सदा स्वामि ! ओलगुं,
किम रु ठाम पुंडरोगिणी वेगलं. ८ भोलिडा भगति तुं चित्त हारे किस्ये,
पुण्य संयोग प्रभु दृष्टिगोचर हुये,
१६७
भल भलो एणी संसार सहुए अच्छे,
स्वामिसीमन्धरा ! ते सहु तुम पछे; ध्यान करतां सुपन मांहि आवी मिले,
दूरथी ढूंकडा जिम हियडे वसे. ९
6 ू
साम सोहामणा नाम मन गह गहे,
तेशु नेह जे बात तुम्ह जो कहे । तुम्ह पाय भेटवा अति घणो टळवळु",
देखिये नयण तो चित्त अरति टळे. १०
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पंख जो होय तो सहिय आवी मिलु, ११
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मेरुगिरि लेखिणी आभ कागळ करूं,
क्षीर सागर तणां दूध खडीया भरूं; तुम्ह मिलवा तणा स्वामि ! संदेशडा,
इन्द्र पण लिखिय न शके अछे एवडा. १२ आपणे रंग भरी वात मुख जेटली,
उपजे स्वामि न कहाय मुख तेटली; सुणो 'सीमन्धर' राज राजेसरा,
लाड ने कोड प्रभु पूर सवि माहरा. १३ पुव्व भवि मोह वसि नेह हुवे जेहने,
समरिये अणी संसार नित तेहने; मेहने मोर जिम कमल भमरो रमे,
तेम अरहंत तु चित्त मोरे गमे. १४ खरु अरिहंतनुं ध्यान हियडे वस्युं,
बापडं पाप हिव रहिय पूरशे किस्यु; श्याम जिम गमडवर पंखी आवे वही,
ततखिण सर्पनी जुति न शके रही. १५ पाप मैं कडीज सावज्ज सहु परिहरि,
'स्वामिसीमन्धरा' तुम्ह पय अणसरी; शुद्ध चारित्र कहिये प्रभु पाळ्शु,
दुःख भंडार संसार भय टाळ्शु, १६ तुम्ह हुँ दास हुँ तुम्ह सेवक सहो,
एह वात में अरिहंत आगळ कही; एवडी माहरी भगति जाणी करी,
आपजो बापजी सार केवळ सही. १७
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१६९ (७७) महीलि महिमावंतए, मंगळ आराम वसंत ए, केवळ कमळा कंत ए, मन मोहन रूप महंत ऐ. १ विहरमान अरिहंत ए, 'श्री सीमंधर' भगवंत ए, तुम गुण अछे अनंत ए पण केम कहुं मन खंतए. २ जंबूद्वीप मझार ए, श्री पूर्व विदेह उदार ए, विजयतिहां 'पुखलावती ए' राजे जन भावती ए. ३ नयरी तिहां 'पुंडरीकिणी ओ,
जिणे ऋद्वे अलका अवगणीए, राजा तिहां 'श्रेयांस' ए,
सोहे निजकुळ अवतंस ए. ४ तसु घर गजगति गामिमी ए,
'सत्यकी' नामे वर कामिनी ए, अवतर्या प्रभु तसु तणी ए,
कुंख मन वंछित सुरमणि ए. ५ 'कुंथुनाम-अर' अंतरे ए,
जिन थया सुर ओच्छव करे ए, धवल बोजे जिम चंदु ए,
प्रभु वाधे सोहग कंदु ए. ६ मनहर जोवन वय धरी ए,
प्रभु परणे 'रुकमणी' नारी ए, माणे राज विलास ए,
पूरे सवि सेवक आश ए. ७
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ራ
अनुक्रमे लोकांतिक सुर, जगावे व्रत अवसर, जिनवर नमि- सुव्रत अंतरे ए, संयम कमळा आदरे, क्षथ निम्मल केवळ वरे; बहु परे सवि अतिशय महिमा धरे ए. सकल सुरासुर मंडळी, समवसरण विरचे मिली, तिहां वली सिंहासन आसन ठवे ए; तिहां बेसे 'सीमंधर', जिनवर धरम घरंधर, बंधुर वयणे भवियण बूझवे ए. जय जय जिन बहु वच्छल, इम जंपई सोइ 'सीमंधर' जिनवर मच्छर माया मद दूर करणी ए. स्वामि ! तुम मळवा भणी, मनसा मुज अति घणी; जगधणी, पूरो ते सेवक तणीए, १० विजयमान जिन, सांभळी थाय मुज वंदन रळी,
९
पण वेगळी 'पुंडरी किणी', किम करू ए ? अहिथी जाणजो सेव, मोरी ज्ञान केरी देव ?
नितमेव आण तुमारी शिर धरू ए. तुं त्रिभुवन राजेसर, परमपुरुष परमेश्वर,
वालेसर तुम सरखो जग नवि इणे ए: तुम गुण थुणवा पडवडी, एह सफल मुज जीभडी, आंखडी सफल करो निज दरशणे ए; जिनवर रूप अनोपम गुणरळियामणोजी, जाणे मोहन वेली,
सोहेजी, सोहेजी, मन भवियण तणोजी; ते धन दिन जिहां प्रभु मुखकमल, निहाळशुंजी; आणी अधिक उल्लास, ततखिणजी, ततखिणजी, भवभय संकट टाळशु जी;
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११
१२
१३.
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किहां रयणायर किहां ससहर गयणे रहेजी, किहां जहर किहां मोर;
जिण परेजी, जिण परेजी,
दूर थकी ए गहगहेजी;
तिम तुम ध्याते मुज मन हरखे उल्लसेजी; अळगो पण आसन्न, भासेजी भासेजी, जिण तु मुज हियडेजी, १४
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तु पीडहर पीडहर जगवच्छल धणोजी, तुं बघवतात, जीवनजी जीवनजी तुं भुरतरु चिंतामणिजी; तोरे नामे सुख संपत्ति संतति मिलेजी, लाभे लील विलास, सुंदरजी सुंदरजी मनह मनोरथ सवि फळेजी. १५ (डाळ)
इम श्री सीमंधरस्वामी शाल,
सीमंधर जिणचंद, आपे परम आनंद, सेवे सुरतर वृंद: जास चरण अरविंद. १६ मधुकर मालती संगे, केलि करे जिम रंगे, चाहे चंद चकोरा तिम हुं दर्शन तोरा. १७. भावी सत्तम जिणवरे, शिव पहुंते इण अवसरे; चिरकाले शिवगामी, जयउ सीमंधर स्वामी. १८ (चोपाइ)
थुण्यो मन भगते गुणविशाळ;
श्री पुण्यसागर उवज्झाय सीस,
१७१
*
गणी पद्मराज पभणे जगीश. १९.
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হই
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(७८)
( ढाळ : करकडुने करु वंदना, हुं वारि लाल) श्री सीमंधर वंदिये हुं गरि लाल, इण जंबूद्वीप मोझार रे हु ० विजय भली पुखावती हु ०
तिहां छे अति सुखकार रे. हुं० १ नगरी भली पुंडरीकिणी हुं०
श्रेयांस नामे भूप रे हु०
तस धरणी छे सत्यकी हु ०
दीसे अति ही सुरूप रे. हुं० २
शीलगुणे करी सोहती हुं०
सतीयांमें सिरदार रे ६०
पुण्य संयोगे उपना हु०
जिनवर गरभ मोझार रे हु० ३
चउद सुपन दीठा तदा हुं
सीमंधर जिन माय रे हुं०
श्री कुंथु-अर अंतरे हु ०
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जाय श्री तब श्रेयांस धरापति हु
जिनराय रे. हु०
आपि दान एमंदरे हु०
जनम महोत्सवे आविया हु ०
बहु देव देवी इंदरे हु० ५
अनुक्रमे यौबन पामिया हु०
परणी ऋकूमिणी नार रे हुं०
मुख विलसी संसारना हुं०
संयम ले सुखकार रे हुं० ६
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तजी रमणी ऋद्रि राज्यनी हुं० पुर अंतेउर तेम रे हु०
मोह कुंभी मद गालवा, हु ०
देई दान संवत्सरी हु ०
प्रगटयो मृगपति जेम रे हु ०
मुनिसुव्रत - नमि अंतरे हु०
ओच्छत्र करियो इंद रे हु
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हुँ सेवक
दीक्षा लीधी जिणंदरे हु ०
कर्मशत्रु बल क्षय करी हुं
पाम्या केवळ्ज्ञान रे हुं० भवियण ने प्रतिबोधता हुँ०
धरता मन शुभ ध्यान रे हुं०
इणि परे विचरो स्वामिनी ६०
तारक नाम धराय रे हुं० हित्र इक विनति माही हुँ०
लाख चोरासी योनिमां हु
०
सुणिये श्री जिनराय रे हुं० १०
दुःख दीठा ईण जीवडे हु०
चउगतिमां वळी तेम रे हु
१७३
अब करिये मुज खेम रे हु० ११ ताहरो हु ०
प्रभु
तु मुज स्वामि जिनेश रे हुं० इम जाणी तुज आगळे, हुं०
कहियो मन संदेश रे हुँ०
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१७४
इम जगमाहे ताहरो हु'.
दीसे नाम अनैस रे हु. इम जाणी तुज आगळे हु..
कहियो मन संदेश रे हु. १३ वृषभ लंछन प्रभु शोभता हु
समचोरस संठाण रे हु० काया उंची ताहरी, हु.
पंचसय धनुष प्रमाण रे हु. १४ लाख चोरासी पूर्वनो हुँ ।
आयु पाळी विशाळ रे हु. उदय पोढालने अंतरे हु.
सिद्ध हुस्ये तत्काल रे हु० १५ जगनायक सीमंधरु हु.
जगगुरु जगदाधार रे हु भव भव होजो मुजने हु'.
जिनवरनो आधार रे हु. १६ संवत विधु युग गज मही हु.
सुखकारी मधु मास हु. पूनम दिन भूगुवास रे हु.
सेफल करी मन आश रे हु. १७ गुजराती लुका गच्छमें हु.
गणिश्री माणिकचंद रे बु. सोहे मुनिपति बृदमें हु
ग्रह गणमें जिम चंदरे हु० १८ सुभट परे सेवा करे, हु.
श्रावक शक्ति प्रमाण रे हु स्तवन रच्यो तिहा एहवो, हु .
मुनि नगराज सुजाण रे हु. १९
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१७५
अंतेवासी तेहनो हु'.
गुणचंद्र ध्यावे ध्यान रे हु'. श्री जिनराज पसायथी, हु,
पाम्यो एह सुज्ञान रे हु. २० स्तवन सीमंधर स्वामिनो हु।
भणशे गुणशें जेह रे हु ० अजरामर सुख शाश्वता; हुँ..
लहेशे निरंतर तेह रे हु० २१
(७९)
प्रभु नाथ तु तिय लोकनो प्रत्यक्ष त्रिभुवन भाण, सर्वज्ञ सर्वदर्शी तुमे, तुमे शुद्ध सुखनी खाण,
जिनजी विनति छे एह जिनजी १ प्रभु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुज जीवन प्राण; ताहरे दर्शन मुख लह, तुहि जगत स्थिति जाण, जिनजी २ तुज विना हु बहु भव भम्यो, धर्या वेश अनेक निज भावनो पर भावनो जाण्यो नहि सुविवेक. जिनजी ३ धन्य तेह जे नित्य प्रह समे, देखे जे जिन मुखचंद तुम वाणी अमृत रस लही, पामे ते परमानंद. जिनजी ४ एक वचन श्री जिनराजनो नयगम भंग प्रमाण; जे सुणे रुचिथी ते लहे, निज तत्त्व सिद्धि अमान. जिनजी ५ जे क्षेत्र विचरो नाथजी, ते क्षेत्र अतिसुपसथ्थ तुज विरह जे क्षण जोय छे; ते मानीये अकयथ्य. जिनजी ६ श्री वीतराग दर्शन विना, वोत्यो जे काल अतीत; ते अफळ मिच्छामि दुक्कडं, तिविह तिविहंनी रीत. जिनजी ७ प्रभु वात मुज मननी सहु जाणो ज छो जिनराज; स्थिर भाव जो तुमचो लहु तो मीले शिवपुर सात जिनजी ८
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१७६
अचल स्वभाव,
जिनजी ९.
भरत मोझार: स्वचेतन सार जिनजी १०
प्रभु मिले हु स्थिता लहु तुज विरह चंचल भाव, एकवार जो तन्मय रमुं, तो करु प्रभु वसो क्षेत्र विदेहमां, हुरहुं तो पण प्रभुना गुण विषे, राखुं जो क्षेत्र भेद टले प्रभु, तो सरे सघां काज; सन्मुख भाव जभेदता, करी वरु आतमराज. जिनजी ११ पर पुंठ इहां जेहनी, एवडी जे छे स्वाम; हाजर हजूरी ते मोले निषजे ते केटलो काम जिनजी १२. इन्द्र चन्द्र नरेन्द्रनो, पद न मागु तिल मात्र;
मागुं प्रभु मुज मन थकी, न विसरो क्षण मात्र; जिनजी १३ ज्यां पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नवि करी शकुं निजऋद्ध;
त्यां चरण शरण तुमारडो, एहि ज मुज नव निध. जिनजी १४ महारी पूर्व विरोधना, योगे पडयो ए भेद;
पण वस्तु धर्म विचारतां, तुज मुज तहि छे भेद. जिनजी १५ प्रभु ध्यान रंग अभेदथी, करी आत्मभाव अभेद; छेदी विभाव अनादिनो, अनुभवु स्वसंवेद जिनजी १६ विनवु अनुभव मित्रने, तुं न करीश पर रस चाह;
शुद्धात्म रस रंगी थई, कर पूर्ण शक्ति अवाह जिनजी १७. जिनराज सीमंधर प्रभु, ते लह्यो कारण शुद्ध;
हवे आत्मसिद्धि निपजावत्री, शी ढील करी ए बुद्ध जिनजी १८ कारणे कार्य सिद्धिनी करवो घटे न विलंब साधवी पूर्णानंदता, निज कर्तृता अवलंव. जिनजी १९ निज शक्ति प्रभु गुणमां रमे, ते करे पूर्णानंद
गुण गुणी भाव अभेदश्री, पीजीए शम-मकरंद, जिनजी २० प्रभु सिद्ध बुद्ध महोदयी, ध्याने थई लयलीन; निज 'देव वंद्र' पद आदरे, नित्यान्म रस सुख पीन. जिनजी २१
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(८०)
(वेशी वार मधुरी वाणी भाखे) सांभयो जिनवर अर्ज हमारी; जन्म मरण दुःख वारो रे भरत क्षेत्रथी लेख पठावू, लखु छुवितक वात रे तुमे तो स्वामी जाणो छो सारु, पण जाण आगळ वखाण रे. १ जे दिनथी प्रभु वीरजिनेश्वर मोक्षे विराजवा जाय रे समवसरण शोभा भरतनी लई गया, अरिहतनो पडयो विजोगरे. २ गौतम गणधर पाट उपर राख्या, श्री संघने रखवाळा रे ते पण थोडा दिवसनी चोकी, करी गया शिववास रे. ३ केवळज्ञान लेई जंबू पहोंच्या, साथे दश जणसेरे तत्त्वज्ञान ते गांठे बांध्यु. लई गया प्रभु पास रे... ४ मन पज्जव अवधि लई नाठो, न रह्यो पूरवज्ञान रे सहस तेत्रीश जोजन अधिक संशय भंजन वसो दूर रे. ५ गोवाळ आधारे गायो चरे छे, आवे निज निज ठाम रे तिम ज्ञानाधारे जीव तरे छे, पामे भवजल पार रे. ६ जिन प्रतिमा जिनवचन आधारे, सघळा भरत ते आजे रे जिन आणाथी प्राणी चाले, तेहनो धन्य अवतार रे. ७ भरतक्षेत्रमाह तीरथ म्होटा, सिद्धाचल गिरनार रे समेतशिखर अष्टापद आबु, भवजल तारण नाव रे. ८ भरतक्षेत्रमा वार्ता चल रही, कपटी हीन आचार रे साचुं कहेतां रीस चढावे, भाखे मुख विपरीत रे. ९ वैरागे खसीयाने रोगे फसीया, चाले नहीं तुज पंथ रे योग्य जीव ते विरला उठावे, तुज आणानी भार रे. १०
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समताधारी
चाले
शुद्र ग्ररूपक तेहनां पण छीद्रने जुए छे, ऊलटां आप प्रशंसा आपनी करता, देखे नहीं परगुण लेश रे परपीडा देखी हैयुं न कंपे, ए मुज मोटी खोट रे. १२ ते दिन भर मां क्यारे होशे, जन्मशे श्री जिनराज रे समवसरण विरचाबी बिराजे, सोझशे भविओना काज रे. १३ सद्गुरु साखे व्रत में लीधा, पाल्या नहीं मनशुद्ध रे देवगुरुनी में आणा लोपी, जिनशासननो हुं चोर रे. १४ कृष्णपक्षी जीव क्यांथी पामे, तुम चरणोनी सेव रे पण जगतनी ठकुराई तुमारी, महिमातणो नहीं पार रे. १५ कर्मअलुंजन आकरो फरीयो, फरीयो चोर्यासीना फेरा रे जन्म जरा मरणे करी थाक्यो, हवे तो शरण आप रे. १६ ओछु पुण्य दीसे छे मारुं, भरतक्षेत्रे अवतार रे तुम जेटली प्रभु रिद्धि न मांगु, पण मांगु समकित दान रे. १७ त्रिगडे बेसी धर्म प्रकाशो, सुणे पर्षदा बार रे धन्य सुरनर धन्य नगरी वेला, तेहने करुं हुं प्रणाम रे. १८ महोटानी जो महेर होवे तो, कर्मवैरी जाये दूर रे जग सहुनो उपकार करो छो, मुजने मूक्या ते विसार रे. १९ ज्ञानविमळ शीख भली परे आपे, जिनवाणी हैडे राखे रे. सत्यशील तुज साथे चाले, कुण करे तुज रोक रे. २०
सुमने न्याय रे काढे छे बांक रे. ११
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(८१) (सुण जिनवर शेत्रु'जा धणीजी-ए देशी) सुण सीमंधर साहिबाजी, शरणागत प्रतिपाळ समर्थ जग जन तारवाजी, कर म्हारी सम्भाळ.
कृपानिधि ! सुण मोरी अरदास;
हुँ भवे भवे तुमचो दास. कृपानिधि० त्हारो छे विश्वास-कृपानिधि०
पूरो अमारी आश-कृपानिधि० १ हुँ अवगुणनो राशि छु जी, तिल तुष नहि गुण लेश. गुणिनी होड करुं सदा जी, एहि ज सबळ किलेश. कृपा० २ मत्सर भय ने लालचे जी, करतो किरिया लेश. ते पण पर जन रंजवा जी, भलो भजाव्यो वेश. कृपा० ३ छठा गुणठाणा धणी जो, नाम धरावु रे स्वाम. आगम वयणे जोवतां जी, न गयो कषाय ने काम. कृपा० ४ रसना रामा ने रमा जी, ए त्रण पातिक मूळ, तेहनी अहोनिश चिन्तना जी, करतां भव थयां स्थूल, कृपा० ५ व्रत मुख पाठे उच्चर जी, दिवस मांही बहु वार, तेह तुरत विराधतो जी, न आणी शंक लगार, कृपा० ६ लि तणा देउल करी जी; जिम पाउसमां रे बाळ खो भूला मुखे एम वदेजी, तिम व्रत में कर्या आळ. कृपा० ७ आप अशुद्ध परने करु जी, देई आलोयण शुद्ध मा-साहस पंखी परे जी, पाडु फंदे मुद्ध, कृपा० ८ अछता गुण निसुणी मने जी, हरखं अतिसुविशेष; दोष छतां पण सांभळीजी, तस उपरे धरु द्वेष. कृपा० ९
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निश्चय पर निशंकी जी, नावे शुक
परिभव परपरिवादना जी, परे परे भाखु रे आपः निज उत्कर्ष करूं घणो जी, एहि ज मुज संतोप, कृपा० १० निश्चय पंथ न जाणीयो बी, व्यवहरियो व्यवहार; मदन मस्ते निशंकथी जी, थाप्यो असदाचार. कृपा० ११ समय संधयणादि दोषथी जी, नावे शुकल ध्यान; सुहणे पण नवि आवियु जी, निराशंस धर्म ध्यान. कृपा० १२ आर्त-रौद्र बेहु अहोनिशेजी, सेवाकार खवास; मिथ्या राजो जिहां होये जी, तृष्णा लोभ विलास. कृपा० १३ जिन मत वितथ प्ररूपणा जी, कीधी स्वारथ बुद्धः जाड्यपणाना जोरथी जी, न रही कांई शुद्ध कृपा० १११ हिंसा अलीक अदत्तशु जो, सेव्यां त्रिविध कुशील; ममता परिग्रह मेळवीजी, कीधी भवनी लील. कृपा० १५. अक्रिय साधेजी जे क्रियाजी, ते नावे तिल मात्र; मद अज्ञान टळे जेहथीजी, ते नहि नाणनी यात. कृपा० १६ दर्शन पण फरस्यां घणांजी, उदर भरवाने काम; पण तुम तत्त्व प्रतीतशुजी, न धरू दर्शन नाम. कृपा० १७ सुविहित-गुरुबुद्ध लोकनेजी, हु वंदावु रे आप; आचरणा नहि तेहवीजी, ए मोटो संताप. कृपा० १८ मिथ्यादेव प्रशंसीयाजी, कीधी तेहनी सेव; अहाछंदना वयणनीजी, न टळी मुजने टेव, कृपा० १९ कार चित्ते चूना परेजी, धर्मकथा में कीध; आप वंची पर वंचियाजी, एके काज न सिद्ध. कृपा० २०. रातो रमणी देखीनेजी, जिम अणनाथ्यो रे सांढ; भांड-भवैयानी परेजी, धर्म देखाडु मांड. कृपा० २१
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क्रोध दावानल प्रबळथीजी, उगे न समता वेल:
मान महीधर आगळेजी, न चले गुण नदी रेल. कृपा० २२ माया - सापण पापिणीजी, मन बिल मूके रे नाह;
कोमळ गुणने ते डसेजो, लोभ विलास अथाह. कृपा० २३ वस्त्र पात्र जन पुस्तकेजी, तृष्णा कीधी अनंत;
अंत न आवे लोभनोजी, कहुं के तो वृतांत ! कृपा० २४ धर्मतणे दंभे कर्याजी, पूर्या अर्थ ने
काम;
तेही ऋण भव हारीयाजी, बोध होवे वळी वाम. कृपा० २५ कल्प्या कल्प्य विचारणाजी, राखी कांई न शंक; अनेषणीय परिभोगथीजी, रुल्यो चउगति जिम रंक. कृपा० २६ हवे तुम ध्यान सनाथताजी, आडो वाळ्यो रे आंक; करुणा करीने निरखीयेजी, मत गणजो मुज वांक कृपा० २७ मुजने कहेतां न आवडेजी, नाणे जे तुज दीठ;
हुं अपराधी ताहरोजी, खमजो अविनय धीठ कृपा = २८ तुमे जिम जाणो तिम करोजी, हुं नहि जाणुं रे कांई; द्रव्यभाव सवि रोगनाजी, जाणो सर्व उपाय. कृपा २९ हुं एक जाणु ताहरुजी, नाम मात्र निरधार; आलम्बन में ते कर्यु जो, तेहथी लहु भवपार कृपा० ३० तात " सत्यकी" नंदनोजी, "ऋक्ष्मणि” राणीनो कत, तात 'श्रेयांस' नरेसरुजी, विचरंता भगवंत कृपा० ३१ चित्त मांहे अवधारशोजी; तोये केतीक वात;
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लही सहाय तुम्हारडीजो, प्रगटे गुण अवदात. कृपा० ३२ परम पुरुष ! परमेश्वरूजी ! प्राणाधार ! पवित्र; पुरुषोत्तम ! हितकारोजी, त्रिभुवन-जनना मित्र ! कृपा० ३३ "ज्ञानविमळ" गुणथी लहोजी, मारा मननी रे हुंस, पूरी शिशु सुखियो करोजी, मुज मानस सरहंस. कृपा० ३४
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डभोई ग्रामे लिखितंग कांति सौभाग्येन स्ववाचनार्थ शुभं भवतु श्रीरस्तुः श्रीः
गुणचंद्रकृत सोमन्धर लेख १
देवाः समर्चन्ति पदारविन्द, यस्य प्रभाव सुमनोहरं च । सीमन्धर प्राप्य जिन प्रसन्न', ब्रवीमि किंचित् स्वधियानुसारम् ||
दूहा
स्वस्तिश्री पुखलवती, नामे विजय प्रधान, पुंडरिगिणी नयरी प्रगट, भूतल तिलक समान २ श्रीलोमन्धर विचरे तिहां, श्री विहरमान अरिहंत; सकल जंतु संदेहडा, भाजे श्री भगवंत. ३
चरणां नारे, भगवान रे. लवलेश रे.
डाळ पहेली श्री सीमन्धर साहिब, विहरमान दक्षिण भरतथी विनवे, भविका तुज सुगुण संदेशो सांभळा, हूं लेख विनतडी किंकर तणी, धरजो चित्तप्रदेशे रे. सुगु० ४ जिनजी तुम्हारा ध्यानजी, अमने अधिक कल्याण रे, पणि तुज विरहे पापीओ, पीडई घणुं सुजाण रे. दुषमकाले तुं लह्यो, श्री सीमन्धर तात रे; तुजविण हुं केहने कहुं, म्हारा मननी वात रे. सुगु० ६ साहिब सेवक उपरे, आंणी प्रीत विशेष रे, चित कारण बे बोलडा, लिखजे वळते लेख रे सुगु० सेवक चित्त संभारिने, ओक आंगलनो लिखजो लेश रे; ते पाडन राखस्युं तुम्हतणो, दस गुणो वालसुं तेहरे. सुगु० ८
राग जयंत सिरि
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सुगु०
५
७
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स्यु परदेशे रह्यां माटे, किंकरने विसारिजे रे; दूर थकी सेवक तणी, खबर घणेरी लिजे रे. सुगु० ९ तुम्ह लेख आव्ये उल्लसे, अम हिअडुं जगदीश रे; प्रीति में तुमस्यु घणी, ते जाणो विसवावीश रे. उत्तम सज्जन जाणीने, तुमस्यु मांडयो नेह रे; प्रभु निरगुण सेवक प्रते, रखे देखाडो छेह रे सुगु० ११
सुगु० १०.
ढाळ बीजी-राग विछुडो
विनति सुणीजे हो मुज मनि साहिबारे तुम्ह हिरहे दावानलि अंगे परजले रे, ते
१८३
दूहा २
निरगुण तोहि आपणी, सेवक जाणी चित्त, श्री सीमंधर सज्जन तुम्हे, घरजो अधिक. प्रीति. १२ गिरुआ गुण करतां थकां, पात्र कुपात्र जोय, महा तरुवरसे मेहलो, वली अकक धतुरां सोय. १३ तिम हुं तो निरगुण अछु, तुम्हे गिरुआ गुणवंत, इम जाणिने अम तगो, मानजो विनति अरिहंत. १४
कहेतां हियडु भराय; मई खिण न खमाय
विनति. १५ हृदय संतोषु रे ताहरा ध्यानथी रे, जीभडली गुणगांय; कान सुणी गुण पणि ओक लोयण रे, तडफे तुम्ह देखी काय
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विनति. १३ मनडु माहरूं तुम्ह चरणां तले रे, हुं लागि लागि हु दीनराति; धरुपणि एक ज ताहरो रे, न गमे बीजी वात.
ध्यान
बिनति. १७
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अम्ह अक साहिब तुं अवनी तले रे, पाय नमुं करजोडी; म्हने तुम्ह विन अबर न को वस्यो रे, पणि तुम्ह सेवक कोडी. विनति. १८
सूरज उगे पश्चिम जो ध्रुव चले जो उत्तर दिशि
सायर रेले सगली भोमिका रे, तोहि खिण अक तुम्ह उपर थकी रे,
कदा रे, डोले मेरु गिरिंद: थकी रे, ताप करे जगि चंद. विनति. १९
तुम्ह चरणां तले मनडुं महारुं रे, थाप्यो श्री जिन भाण; तुम्ह आगलि कहिं ते सवि कारिमुं रे, तु जाणे जाण सुजाण. विनति २१
तुम्ह रतन अमोलिक
दूहा
साहिब तुज दीदारनी, मुजने छे बहु खंति; पणि किम उंचातरू तणां फल
प्रीति मली तुम्हस्यु घणी, तुं मुज खिण खिण
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बोले मृषा
हरचंद : नवि उतरे चित्त जिशुंद. विनति. २०
वामन पामंति. विनति. २२. अवर न कोई सुहाय. सांभरे; श्री सीमंधर जिन राय. विनति २३ नहि वीजासु प्रीति, धरे कुण चित्त. विनति २४
सज्जन सरीखो नहि, पामिने,
कांच
तुम्हस्युं बांधी प्रीतडी, जो जाणो तो पालजो,
उभा
बेठा थकां,
श्री सीमंवर जिन सांभरे,
उत्तम
नहींतर
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जाणि
तुम्ह
जाण,
कल्याण.
विनति २५
जागतां
थकां,
सुतां खिण खिण हियडा मांहि.
विनति २६
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१८५
ढोळ-- श्रीजी राग केदारो
मान सरोवर हंसलो रे, सालरि जिम गयंद, जिम राधा गोविंद, जिनेसर तुम्हसु प्रीति अपार, तुम हो जगदाधार, हवे करजो सेवक सार, जिने. आंचली चातक जिम जगि मेहलो रे, जिम चकोर चंद, कोयल मास वसंतने रे, चक्रवाक दिणंद. जिने. २७ म - कर समरें मालतिरे, सतीय समरे निज कंत, तिम हुसमरु निसिदिने रे श्रीसीमंधर भगवंत. जिने. २८ मन पसरें जिम माहरो रे तिम जो कर पसरित, तो हु जिनजी ईहां थकी रे, तुम्ह चरणे लागि रहंत, जिन. २९ दिसि वंदन प्रभु हु करु रे, नितु उठी परभाति, ते दिन कहिइ आवसी रे, जई भेटु श्री भगवंत. जिने. ३०
सुपनंतरी प्रभु तुं मिले, तो मनि हरखे अपार, जागंतां तुज विहर थकी, वरसे आसु धार. थोडे कहे घणु प्रीछजो, तुम्ह पासे छे जीव; मन जाणे उडी मिलु, पणि दैव न दीधी पांख. वाट विषम परवत घणा, दूर विदेशे वास, साहिब तुज मिलवा भणी, कहो किम पहोंचे आश. मनडु माहरु टलवलइ, तुम्ह मिलवा जिनराय, सेवक तो परवसी थया, संग नथी मिलणांय. हु तुज समरु अहनिसें तुम्हो सेवक नांणो चित्त, एक पखीई इम प्रीतडी, किम चाले भगवंत.
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ढाळ चोथी- राग कालहरो सेवक साथे प्रोतडी, प्रभु पाली जे सारी रे, संभारो अम्ह अवसरे, मम मेलो वीसारी रे. सेवक. ३६ नर उत्तम जिनजी तुम्हो, श्रीसीमंधा जिनराजो रे, आज अम्हने छेह आलता, स्युं प्रभु मन मई न लाजो रे, सेवक. ३७ हु तुम्ह उपरि आवटु, समरि गुण चित्ते रे, पणि तुम्हो जाणो नही, ए दुःख साले निते रे. सेवक. ३८ सुहणामांहि सुतां थकां, सांभरे तुज सनेहो रे, उसीसे आंसु झरे रे, जाणे अषाढी मेहोरे. सेवक. ३९ ते आगलि काहिई किसु, नर होइं जेह अजाण रे, अम्ह आगलि कहिई घणु', तु जिन त्रिभुवन भाण रे. सेवक. ४०
दहा ५ प्रभु में तुजने ओळख्यो, शास्त्र तणो आधार, तिण मुज उलट उपनो, देखण तुज दीदार. अवर देव जगति तले, तिहां लगे लागे चंग, जिहां लगे तुज गुण नवि सुण्या, हैडई आणी रंग. कृपानिधि किंकर तणी, अवधारो अरदास, साहिब तुम्ह पद पंकजे, देज्यो मुजने वास. पंख पसाइं पंखिया, जइ व्हाला भेटंति, परवश पडिया मानवी दूर रह्या झुरंति.
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ढाळ पांचमी राग मारुणी
तुं जिन पूज्यो के नवि में मन भावस्यु रे,
के लोपी तुज आंण, के कहेना रे बाल विछोह्यां
मातथी रे, ४५
१८७
में हनी मूकी थपणि, ओलविरे के में कूडा कलंक; दीघा रे दीघा रे माहोमांहि वढतां थकां रे ४६
पोपे जिनराय,
पुण्य, कर्यो रे. ४९.
के में बालादिक हेले त्रासव्या रे, तिण मुजने रे मुजने वियोग थयो, प्रभु तुम्ह तणो रे. ४७ दुपम काले मानव भव में लह्यो रे, पणि तुज दरिसर दूर, ते माटे रे ते माटे भवनो पार किम पामीई रे. ४८. साधुधर्म श्रावक धरम न को कर्यो रे, नहीं मुज दान ने जिनवर रे जिनवर भाषित धर्म न को पंच समिति त्रिण गुपसि नवि सुधि धरी रे, नहीं बलि महाव्रत शुद्धि, पोते रे पोते केणी पर भवि हुसी रे. ५० तिण पगि लागी, वलि बलि विनवु रे, श्री सीमंधर राय, राखो रे राखो सेवक शरणे आपणे रे. कृपा करीने विनति, भोरी मानजो रे. अमने छे विश्वास, तरशुं तरशुं केवल नामे तुम्हतणे रे. ५२.
दूहा ६
आज नहीं काले मिले, काले नहीं तो आज, ईण परी दहाडा निगमुं, आस्याहि जिन राज. आस्या अण संसारमां विरहो चित्र आधार, आस्या विलुद्धा मानवी जीवें वरस हजार. अंतर गति आलोचतां जहि प्रभु विरह लगार, हृदयकमलमां तु वसे, पणि संदेसे विवहार.
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५१.
५३
५४
५५.
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१९८८
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ढाळ छुट्टी — राग धन्यासरी ६
अधिकुं ओछु प्रभुजी जे लिखतां लख्यु रे, प्रबल प्रीति विशेष; चित्तमां रे चित्तमां प्रभु म आंणस्यो अबोलडा रे. ५६
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आसो पुनिम पूरण पेखी चंद्रमाहे, समरी लिखिउ रे लिखिउ माजिझम राते श्री तपगच्छ गगनगण भास दिनमणि रे श्री
विजयदेवसूरि;
सोहे रे, सोहे चढते पखि जिम चंद्रमारे. ५८ तस पटधारी श्री विजयसिंहसूरीश्वर रे, युवराजा मुनिराज रे.
राजे रे राजे रे श्री सीमंधर विनति रे. ५९ साधुपुरंदर बुध श्री लब्धिचंद्र शोभता रे, जग मांहि जसविख्यात तेहनो रे तेहनो शिष्य गुणचंद्र हरखे भणे रे. ६०
9
श्री जिन लेख, खातिस्युं रे.
कळश
इति संप्रति सोहे भविक मोहे विहरमान जिनेसरो, संकट चूरे आसपूरे, नाथ सिरि सीमंधरो, महाव्रत व्योम मुनि सोम मेळी जाणि एह संवच्छरो. जीर्णगढ चोमासे मनह उल्लासे, थूण्या में परमेश्वरो. ६१
इति श्री सीमंधर लेख संपूर्ण शुभं भवतु. कल्याणमस्तु
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५७
ढाळ १
परम योगीसरा जाणि जझायं तिज, परम पुण्येण मणसाविपायंति मुणविइयदेहगेह मिलायंति जं, चारु निय चित्त पुमेस ठाय तिजं सयल मुरनायगा सदसिगायंतिजं जोडिकरिजुयलवन्नति दायंतिज', मुरख परमग्ग सुहवगा जायंतिज, मिच्छादि दिग पावणे दूरि
हायंतिज.
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१८९ असुर सुर सामिणो काम मुच्चंतिज', भत्तिदधूण सुहणसि सच्चतिजं भवीअणा महीअणो कहवीमुच्चंतिज, मोहलो हाइणोणेवमुचतिज. जोयम चारु मायदत रुचीरज, लध्ध संसार पाणीय नही तीरजं. दलीयभव्वाण पुहकम्म जंजीरज', कहीय वस्त गुहज गंमीरजं. पसमीय पाव सुयणांणसारीरज, जिणवर सुगुण सेयास नववारज. थुणह तु सामी सीमंधर नीरज, तस्सणा हस्सयण मत्र पय नीरज
ढाळ २
(अमीज समाणी वाणी वरसती ए ढाल) मोह महीपति वसि करी आपणई, पाम्या पंचम नांण, त्रसनई थावर प्राणी पलावळ, वरतावी जगि आण. सुगुण तुम्हारा हो जिनजी मई सुण्या, उपनो अधिक आणंद, अहनिसि हइजो नयन चकोर तां, चाहिण तुझ मुख चंद. धन जयवंतजी विजय पुष्कलावती, धन धन पूरव विदेह, धन सा नयरीजी वर पुंडरीगिणी, धन श्रेयांस नृपगेहो. धन धन जन निजी सताकी कूखडी जेणि जायो जग अवतंस जग जण बंधूर पहु सीमंधरो, मुनि मन मानस-हंस. राज रमा रुधि रस संसारनी, हय गय वरह भंडार, क्षिण एक मांहि क्षण भंगर लही, कीधो सवि परिहार करम निकाचीत कंद निकंदीआ, ग्रही तप कठिन ठाकुर, पंथ मुगतिनु पर पुष्कल कर्यो, कारण विश्वोपगार. निरमल केवलज्ञान अलंकर्या, परिहरी दोस अठार, ... सपर्व सुरासुर तव आवी करई, केवल उत्सव सार.
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१९०
मणि कंचणमय रचना रतनी, त्रिगडई दीपइ सार, रचि सिंहासन सोवन मय ठव्यु, मणि गणि खचित उदार, चुमुखि शुगय दुखु विहंडणो, तिहां बईठो बलवंत, भेद धरमना चिहु पखि भविक नई, भाखइ श्री भगवत. धन ते भवि अण जननी जाईआ, जे तुम्ह वाणी सुणंत, सांभली जे पणि साची सदही, धन तुहवयण कुणंत, तुह पय पंकज अहनिसि सेवना, मधुकर परितुहपासि, चरण रजोरसि सिर पावनकरइ, धन ते मुनि गुण रास.
ढाळ ३ (देस सोरठ द्वारापुरी ए ढाल-राग देशःख) मई प्रसु मधुकर वंछीई, तुह्म पद पद्म पराग रे, पणि सुभकर मधुकर विना, कहु किम लहीई लागे रे. चतुर चेतो दधि चंद्रमा, मुनि मन-कोकिल अंब रे, सीमंधर सुर शेखरो, योगी दवनि वलंब रे. रोरी जन धनपति तणी, प्रभु-तुलणा किम आवइ. तिम जन पायिं पूरीआ, तुहम दरिसण किम पाइ पंगु पुरुष सुरगिरि चढी, किम सुरतरु कल लेबई रे, तिम विभगा नर किम विभो, तुहम चरणाम्बुज सेवि रे हवइ प्रभु सुणि ओक वीनंती, मोह महीपति व्यापई रे, त्रिभोवन मांहि घणो करई, जनन अधिकई संताप रे. वली रे विशेषइ तुह्म तणो, नियमन मांहइ संभावाह रे, भरतनी भूमि मांहि रहिओ, आपणो आण चलावई रे. नयरी अविद्या नामईवली, तेणिं वासि असराल रे, गढ अज्ञान भोटो करिओ, तृष्णा खाडी विशाल रे,
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MARADITIONALININD
नरय तिरिय मणु देवनी, गति रयारइ वडी
पोली रे.
ते करी चहुटानी
ओलि रे.
असुभासन
परिणाम रे,
कुबुद्धि कुइ
ठाम रे.
"
कामासन अयसी रयार जे, मंदिर मोटां तिहां लहयां, भूरि भवंतर सरडी, कुड विषय व्यापति आराम तो मचता पादूनी देवी रे, तिहां कयु, ममता पालि कवेवी रे. अविचारिआ, राजा महामोह नाम तेहनी, जेठो सुत तसु लहू अठा, मिथ्या दरसन मंत्री
कुमत
सरोवर तिहा जन वसइ दूर मतिराणी
काम
रागद्वेष सुत
आक कारण राणो राणि मिली, मारि अप्रति निंदा पुत्री रे, क्रोध नइ मान दंभ लोभ मिली, च्यार महीधर थापइ रे, सात व्यसन सातई अंग कर्या निर्गुण सभा दुरित सिंहासन तेहनु, अमरख धरइ
तनुं व्यापरे. सिरि छत्ररे,
रति नई अरति यामर चामर धरई, कोल कमत बाल मित्ररे. पुरोहित छद्म सेल्होत ते, मद परमादत लाह रे, पर परिवाद फेरा आलस दलपति तेहनु परिग्रह सकल भंडार भर्यो,
उवो,
साल कर्यो हास सोक दो, थई घर अभिनव
ईम रे आरणि उलव्यो रे, तेणि
पुर मोह
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कीधो कीधो
१९१
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41
पाखंडी परिहार
कुकवी सुआर
कलि कंदल ते कोठार रे.
वेश रे,
नरेश रे.
·9
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१९२
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ढाळ ४
( दवदंती पुहविं पडी - ढाल -- राग सिंधूउ )
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,
मोह
महाभड राजीओ, ईम त्रिभोवनि व्यापई रे. कोई व्यापइ नइ थापइ आण जे आपणीए प्रवचन नगरी प्रभुतणी, जन तेहनां वासी रे, कांई वासी नइ वीसासी के भोलग्याए, निज महिं ताणी खूपीआं केई सुत नई भोलब्यारे भोलव्या रे, रंकपरि भोलाव्या रे, १
केइ तहलार वसि पाडीया रे, केई लीघा नइ दीधा के पुत्री करईरे, लोक
महाधरइ लीधां रे तुमारा इम विभो,
बहु दीसई छई फरीया रे, फरिया नइ बसिया बहुपरि रे, तुम्ह आगम आराधतां, के निज मति मोह्या
मोह्यां नइ जोया बोल नहीं खराए, आगम तणि प्रभु तणा तिहां पहिल ते अत्रा रे, अत्रानई अणतरा परंपराए, २ अदीठपणइ पूरव पुरुषे आचरणा भाखी रे, भाखी नहीं साखी निज वाणी करीए, तेहनि एक मानइ नहीं, एक दिग पट कहावई रे कहावई, नई भावइ तिम चालइ वरीये, एक पल्लव करी पडिकमई, एक थापनी उथापई रे. ३ उथापी नइ थापई बोलते निज मतिए निज निज छंदि चालता, इम माहोमांहे निंदइरे निंदइ नइ बंद नहीं ओ मुनि प्रतिओ. ४
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१९३ (ढाळ ५)
(राग गूडी) मुजनि पणि महाराजा रे, मोह महीपति स्वामी हुनडीउ घणुए, नयरी अवद्या मांहि वसि करी आणीए, दीओ मिथ्थात मंत्री करइए. कुमत सरोवर मांहि तेणि जीलाडीओ, ऊपरणाम धरिवासीओए, निद्रा अघृति मारि बेटी मोहनी, तेह सुमन रंग पासीओए. छद्म पुरोहित पासि रे नित मलतो रहुं निगुण सभाई परवर्या, महा धरस्यु मनमेलि प्रमाद तलवरि चरण क्रियादिक धन हर्युए. सुत जेठो जे काम तेह नईवसि पडयो पदि पदि पातिक बांधीया रे, प्रगट अनई प्रछन्न जे मई बहु कीआं श्रेणि तणी परिसंधीआरे. देखो नव नव रूप मनिनु परवसि पणई वनि मुखरीयल कर्याए, सेव्या शरीरइ पाप पर रमणि तणां तास वचनि निज मन ठाए. करी न कारव्यु कर्म धर्म विरोधीउ, श्रावक नइ मुनिवर तणाए, खंडथा करी उच्चार महाव्रत अणुव्रत किउँ विकरा काम धणो. राग तणई रसि मूठ आरति ध्यानि ए हुं माहरो करंतो फिर्युए. द्वेष तणई परभावि जीव अजीवस्यु रद् ध्यान मति पडयोओ. मोहराय परिवार पार न एणी परई मइ ते सर्व सगु कोए रमुनिशदिन ते साथ बाथ अहिओ जेम नाथ निरंजन विसर्याए.
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१९४
(ढाळ ६) हमिरानु
(राग धन्यासी) एणि परि माहरी विनतिरे, अवधारो अरिहंत जिणंदा, मोहण अत्यारे, अन्याय बलवंत जिणंदा. करो कृपा भवि लोकनी रे, भरतनी भूमिपाओ धारु जिणंदा. दया करो मुज उपरी रे, मोहनी सेना निवारिं जिणंदा, अथवा सेवक ताहरो रे, सुभट सोराय विवेक जिणंदा, प्रभु ताहरो अंग ओलगुंरे, जीपइ एक एनेक जिणंदा. तेहनु भय छई मोहनइरे, सुरो तस परिवार जिणंदा, मुज पासइ सोइ मोकलो रे, करु करु सेवक सार जिणंदा. पुन्य रंग पाटण तेहनु रे, तिहां मुज वास करावि जिणंदा, मुज विवेक पांहि हवई, मोहनी पोडा वरावि जिणदा. वडसुत वयराग तेहनु रे, ते पाहि काम भेदावि जिणंदा, सवर समरस बिहुं करी रे रागनई दोस छेदावि जिणंदा. सुमति राणी नाजाईया रे, ए त्रिण भेडाडी जिणंदा. ज्ञान तुलार पाहि हविरे, रिपु परमाद छेडावि जणंदा. ब्रह्म सरोवर तेणई पुरीए पालि भणी नववाडि जिणंदा, जिणवणो जल पुरीओ, तिहां मुझनि झीलाडि जिणंदा समकित महिं तु मोकली रे, मूल मिथ्यात गमाडि जिणदा, करुणा कुमारी विवेकनी रे, मुझनि तेहसु यथावि जिणंदा. पुरुषाकार सेनापती रे, आलस दूरि कढावि जिणदा, साधु संगति शुभ परषदा रे, नेहस्यु नेह जडावि जिणंदा.
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१९५ उपशम विनय रसलपणुं रे, संतोष महघर रयारि जिण'दा, तेणि क्रोधादिक कोठीइ रे जयणांइ मारि निवारि जिण दा. योगासन चहुटे फरु रे शुभ...वर माथि जिणदा, सुगुण क्रियाणक हरतो रे, क्रिया भरु आथि जिणंदा. समता चउकी चठीइं जाउंरे, नाटिक भावना बार जिणंदा, मण मनरंगि करी रे, आगम अरथ भंडार जिणंदा. सपरिवारइ मुझ कन्हई रे, मोकल्यु राय विवेक जिणंदा, मुज्ञनि सखायत कारणई, जिम नासई मोह सेष जिणंदा. हुँ अपराधी प्रभु तणो रे, पणि तु दीन दयाल जिणंदा, मात पिता सोइ सासहि रे, करई अपराध जे बाल जिणं दा. मधुकर जिम मुज मूठ नई, चरण कम द्योल वास जिणंदा, सीमंधर पुरिसोतम रे, पुरे मनकी आस जिण दा.
कळश
ईण विगत वेदी कर्ण भेदी सामिसीमंधर जिणो, संसार तारक मोह वारक, कवि अजिअ आणंदणो, श्री भानुमेरु गणेन्दु सेवक विनति अवधारीइं, कर जोडि नयसुंदर कहई, प्रभु दुक्ख महोदधि तारीइ.
दुहा
सुण सुण सरस्वती भगवती, तारी जग विख्यात. कवि जननी कीरती वधे, तेम तु करजे मात. १ सीमंधर स्वामी महाविदेहमां बेठा करे वखाण, वंदना माहरी तिहां जई, कहेजो चंदाभाण. २
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१९६
मुज हयडुं शंसय भयु, कुण आगळ कहुं वात, जेहशु मांडी गोठडी, ते मुज न मळे धात. ३ जाणो आवु तुम कने, विषम वाट पंथ दूर, डुंगरने दरिया घणा, विचे वहे नदी पूर. ४ ते माटे इंहां कने रही, जे जे करु विलाप. ते तुमे प्रभुजी सांभळो अवगुण करज्यो माफ. ५
ढाळ-(कपूर होय अति ऊजळो रे.) भरतक्षेत्रना मानवी रे ज्ञानी विण मुंजाय; तिण कारण तुमने कहु रे प्रभुजी मनमां चाहे रे स्वामि !
आवो ईणे क्षेत्र. जो तुम दरिसण देखियेरे, तो निर्मळ कीजे मोरा नेत्र रे स्वामि !
आवो ईणे क्षेत्र. १ गाडरियो परिवार मल्यो रे, घणुं करे ते खास, परीक्षावंत थोडा हुवे रे, शिरधारू विसवास रे ! स्वामि ! २ धरमीनी हांसी करे रे, पक्ष विहूणो सिदाय, लोभ घणी जग व्यापियो, तेणे साचो नवि थाय रे स्वामि ! ३ समाचारी जुई जुई रे सहु कहे माहरो धर्म; खोटो खरो किम जाणिये रे; ते कुण भांजे भरम रे स्वामि ! ४
(ढाळ २) वीरप्रभु ज्यारे विचरता, त्यारे वरतती शांति रे; जे जन आवीने पूछतां, तेहनी भांजती भ्रांति रे.
है है झानिनो विरह पडयो. है० १ ते तो दहे मुज दुःख रे, स्वामिसीमन्धरा तुज विना.
ते तो कुण करे सुख रे, है० २
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भूलो भमे रे वाडोलीआ; जिहां केवळी नांही रे; विरहीने रयणी जासी रे; तीसी मुज घडी जाय रे. है ० ३ वात मुखे नवनवी सांभळी, पण निरती नवि थाय रे जे जे दुर्भागीया जीवडा, ते तो अवतरीया आंही रे, है० ४
१९७
धन्य महाविदेहना मानवी, जिहां जिनजी आरोग्य रे, नाण दर्शन चरण आदरे, संयम लिये गुरुयोग रे, है० ५
ढाळ ३
सीमन्धरस्वामि ! तुं गुरु ने तु देव,
तुम विणु अवर न ओळगुं रे, न करु अवरनी सेव रे, अहं या कने आवजोवळी, चतुर्विध संघ रे साथ लावजो अहि० १ ते संघ केणु किरिया करे ? किणी परे ध्यावे ध्यान,
व्रत पच्चक्खाण केम आदरे ? किणी परे देवे दान रे अहिं० २
इहां उचित कीरति घणी रे, अनुकंपा लवलेश,
अभय सुपात्र अल्प हुवा रे; निश्चय सरसव जेटलो रे, अभ्यंतर विरला हुवा रे,
एवा भरतनो देश रे. अहिं० ३
चाल्यो व्यवहार,
बहु झाझो बाह्य
ढाळ ४
सीमन्धर ! तु माहरो साहिव, हुं सेवक तुज दास रे,
भमी भमी भव करी थाकियो, हवे आव्यो शिवराज रे. सी० १
आचार रे. अहिं० ४
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इण वाटे वटेमारगु नावे, नावे कासीद कोई रे कागळ कुण साधे पहोंचाडु, हुं मुंझयो तुम मोहे रे. सी० २ चार कषाय घटमां रह्या व्यापी, रातो इन्द्रिय रसे रे, -मद कोह पण क्यारे व्यापे, मन नावे मुज वसे रे. सी० ३
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१९८
तुष्णानुं दुःख होत नहि मुजने, होत संतोष ध्यान रे, तो हुं ध्यान धरत प्रभु ताहरु थिर करी राखत मन रे. सी० ४ निवड परिणामे गोठडी बांधी, ते छूटु किम स्वामि ! रे, ते हुं नर तुजमां के प्रभुजी, आवो अमारी कने रे. सी० ५
ढाळ ५ सीमन्धर जिन एक कहे, पूछे तिहांना लोक रे, भरतक्षेत्रनी वारता, सांभळे सुरनर थोक रे. १ त्रिजो आरो बेठा पछी, जाशे केटलो काळ रे. पद्मनाभजी होशे, ज्ञानी झाकझमाळ रे. २ छठे आरे जे होशे; ते प्राणिना बहु पाप रे. शाता नहि रे एक घडो, रविनी झाझरो ताप रे. ३ ओछु आयु माणस तणुं, मोटु देवनु आय रे. सुख भोगता स्वर्गनां सागर पल्योपम जाय रे. ४ सरागिने एम कहे, तुम तारो भगवंत रे, आपथी आप तरे इम सुणजो सहु संत रे. ५
टाळ ६
एह सूत्रमा जीव ते पामे सांभळी रे म कर हवे जीव विखवाद जे रे ते पुण्य पूरव कीयां नहि रे, तो किहांथी पहेांचे आस,
जिनजी किम मळे रे. १ कहे भोळा सुख ले रे, तु सरागी प्रभु वैरागीमां पडो रे;
किम आवे प्रभु आंहि जिनजी० २ चोळ मजीठ सरिखो जिनजी साहिबो रे, तुगळीनो रंग; कट काच तणो म्ळ तुजमां नहि रे, प्रभु नगीनो नंग. जि० ३
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ढाळ ७
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सीमन्धर सरिखो भोमियो रे, श्रीभगवंततुं, तो साखी तोल; सरीखां सरीखे, विण केम आजे गोठडी रे, तु हृदय विचारी बोल ४ करम साथ लपटाणो तु जिहां लगे रे, तिहां लगे तुजने कास; समतानो गुण ज्यारे तुजमां आवशे रे, तिहां रे जइश प्रभुनी पास जिनजी० ५
१९९
सीमन्धरस्वामितणी गुण माळा जे नर भावे भजशे रे; तस शिर वैरी कोई नहीं व्यापे, कर्मशत्रुने हणशे रे. हमचडी०
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हमचडी मारी हेल रे, सीमन्धर मोहन वेल रे; सत्यकी राणीनो नंदन निरखी, सुख संपतनी गेल रे. हमचडी० सीमन्धरस्वामि शिवपुर गामी, कविता कहे शिरनाभी; वंदणा माहरी हृदयमां धारी, धर्मलाभ द्यो स्वामि रे. हमचडी० श्रीविजयदेव पटोधर रे;
श्री तपगच्छनो नायक सुंदर
कीर्ति जेहनी जगमां गाजी, बोले नर ने नारी रे. हमचडी० श्रीगुरु वयणसुणी बुद्धि सारु, सीमन्धरजिन गायो रे. संतोषी कहे देव गुरु धर्म, पूरव पुण्ये पायो रे. हमचडी०
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२००
श्री सीमन्धर जिननी पत्र रूपे बिनती
ढाळ १
(सुमतिनाथ गुणशु मिलीजी-से देशी) स्वस्ति श्री पुकूखलवईजी, विजये विजय करंत; प्रगटभरी पुंडरीगणिजी, जिहां विचरे भगवंत; सोभागी जिनवर सांभळजो संदेश, हुं तो लेखे लखुलववेश, मुज तुज आधार जिनेश, साहिबजी सांभळो मुज संदेश. १ सीमन्धर जिनवर राजीयाजी, विहरमान चरणान; भरतभूमिथी विनवि येज भाविक लोक भगवानरे. सो० २ अत्र कुशळ कल्याण छ जी, तुम प्रसादे जिनराज; पण जे तुज विजोगडोजी, ते पीडे मुज आज. सो० ३ तु जगजीवन जाणीयेजी, सोभागी शिरदार; तु वैरागी वाहलोजी, मुज चित्त चोरणहार. सो० ४ तु त्रिभुवन भूषण भलोजी, भंजे भव भय भीड; तुजविण कुण आगळ कहुंजी, मुज मन केरी पीड, सोः ५ तुम गुण कोडी गमे घणाजी,जिम जिम समरु महिना तिम तिम विरहानव जलेजी, ज्युं धृत सिंच्यो वहिन. सो०६ विरह व्यथा व्याकुळपणेजी, जीव पडे जंजाळ; रति चिंता अरति करीजी, दिवस गमाया आळ. सो० ७ धन्य वेळा धन्य ते घडोजी, जिहां देखें तुम मुख नूर; दुःख दोहग दूरे करूंजी, प्रह उगमते सूर. सो० ८ विरह तप उपशामवाजी, अमृत सम अणमोल; वल्लभ ! वळते कागळेजी, लखजो टाढो बोल. सो० ९
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२०१
तुम गुणगण गंगाजके, झीले मुज मन हंस, पण तुज विरहे पीडीयो, जिम मधुसूदन कंस. १ गुण फीटी अंगार हुए, हियडु डजझे तेण; अवगुण नीर न सांभरे, ओलावी जे जेण. २ संदेशे सज्जन तणे, जीवे मास छ मास; दूर देशातर वासीया, संदेशे सुख वास. ३
(ढाळ २) (सुण जिनवर शत्रुज्य धणीजी-से देशी) धन्य ते दिन जिन ! जाणीये जी, जिहां तुमशु संजोग; संपजशे सोभागीयाजो, टळशे वेर विजोग;
करो जिन ! सेवक जन संभाळ, तुम हो दिन दयाल, करो० तुम विण कवण कृपाल. करो० १ अण दिठे अलजो घणोजो, दीठे नयण ठरंत; मुज मन केरी प्रीतडीजी, तु जाणे जयवंत. करो० २ तिण कारण जिन ! दीजीयेजी, निज इरिसण एकंत; तुम विण मुज मन टळवळजी, नयणां नीर झरंत. करो० ३ नयणे तुज दरिसण रुचेजी, श्रवणे वयण सुहाय; मन मिलवाने टळवळेजी, कीजे कोडी उपाय. करो० ४ जिम मन पसरे माहरुंजी तिम जो कर परसंत; तो हुँ हरखी दूरथीजी, तुम चरणे विलगंत. करो० ५ पुण्यवंत ते पंखीयाजी, पग पग जेह पेखंत; फरी फरी देता प्रदक्षिणाजी, पूरे मननी खंत करो० ६ तुज दरसिण विण जीवकुंजी, ते जीवन मरण समानः अहवा मरण थकी घणुंजी जाणुं अधिक सुजाण. करो० ७
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२०२
पूज्यो प्रणम्यो संथुण्योजो, तु गायो गुणवंत; जेणे तु नयणे निरखीयोजी, तस जीवित फलवंत. करो० ८ ते दीन कबही आवशेजी, मुज मन ठारणहार; तुज मुख चंद निहालताजी, सफळ करीश अवतार. करो? ९.
दुहा
अंतरीया बहु डुगरे, तह रुक्खेहि घणेहिं; ते सज्जन किम विसरे, जे सघना गुणेहिं. प्रीति भली पंखेरूआ, उडी जेह मिलंत; माणस परवश बापडा दूर रह्मा झुरंत. २ दीठा मीठा तिहां लगे, हरिहर अवर अनेक; जिहां लगे तुम गुण नवि सुण्या, हीयडे धरोय विवेक. ३
(ढाळ ३) (सहसु संवेगी सुंदर आतमाजी-से देशी) जिनजी सुगजो हो मुज मन वातडीजी, रातडी रोतां जाय; दिवस गमीजे हो प्रभुजी झुरता जी, तुम विरहो न खमाय. जि० १ पूरवविदेहे हो धन्य जे जनाजी, नितु सेवे तुम पाय; अभ पुनः स्वामी हो जेह विछोहडोजी, ते अम पाय पसाय जि० २ परभव परिगल पातिक जे कर्या जी, ते प्रगटया सवि आज; जेणे तुंम हुँ पामु नहिजी, तुम शुं छे मुज काज.
तुम हो गरीब निवाज. जि० ३ प्रवचन वचन विराधन मे कयु जी, न धरी सद्गुरुशिख; के में रमतां ऋषि संतापीयाजी, के भांजी ऋषि भिख जि० ४ चारित्र लेई हो वेष विराधीयाजी, के में छांडी दिक्ख; के में बाळक मायथी विछोहीयाजी, के में फोंडी लीख. जि० ५
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गाभः
के में वनमें दव धरमे दीयाजी, के में गाळ्या के में कूडां कामण केळव्याजी, जिणे त्रटत्रट त्रुटे आभ. जि० ६ के में फोडी सरोवर पाळ, गुहिरा द्रह शोषावियाजी;
भण वाळक स्त्री गोवध कीधांजी, पाडयां माछीए जाळ जि० ७ इति परेपरे पातक जे कर्या जी, तस फळ पाम्यो आज; जेणे तुम हमथी दूर देशांतरेजी, जइ वस्या जिनराज जि० ८ वचन सुधारस सिंची ठारीयेजी, विरह दावानळ दाह; अब थे हमकु दरिसण दीजयेजी, हम तुम दरिसण चाह. जि० ९
दुहा
मनह मनोरथ जे करें, ते पूरण असमत्थ; स्वर्गे सुरद्रुम मंजरी, त्यांहि पसारे हत्थ फिट हियडा फूटे नहि, हजी नहि तुजने लाज; जीव जीवन विछोहडे, जीव्यानुं कुण काज. माणसथी माछा भलां, साचा नेह सुजाण; जय जळ्थी होय जुजुआ, त्युं ते छंडे प्राण. सहस वहे संदेशडो, लेख लहे लख मूल; अंगो अंग मेळवडो, सुरतरु फूल अमूल.
(ढोळ ४)
(सुत सिद्धारथभूपनो रे ओ देशी)
अमृत समरे अमर जय रे, जिम रति समरे काम; माधव मन जिम राधिका रे, जिण लखमण श्रीराम रे, जिम गुण सांभरे, सीमन्धरजिनराय रे सगुण न विसरे. जि० सामज समरे सल्लकी रे, सारंगी सारंग; तारापति जेम तारिका रे, जिम मृग राग तरंग रे जि०
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२०४
जिम गंगा गंगाधरो रे, विधि सावित्री रे संग; जिम गंगाजल हंसलो रे, ईश्वर गोरी सुरंग रे. जि. ३ पृथ्वी पाणी प्रीतडी रे, जिम चंदन ने नाग जिम रजनीकर रोहिणी रे, जिम दिन दिनकर रे जि० ४ जिम मधुकर मन मालती रे, जिम मोरा मन मेह; जिम कोकिल कल कामिनी रे, सरस रसाल स्नेह रे. जि. ५ विरही समरे व्हाला रे, शीलवंती निज कंत; फागणमां फाग वियोगमा रे, जिम वनराजी वसंत रे. जि० ६ जिम यदुपति राजीमती रे, जिम गौतम श्रीवीर; नल-दमयंती नेहलो रे, सासो सास शरीर रे. जि० ७ तिम मुज मन तुजमें रमें रे, प्रीतम प्रेम प्रमाण स्वामी नाम तुमारडुं रे, अहनिश समरीये झाण रे, जि० ८ एहवी मुज भोलातणी रे, भक्ति भलेरी रे भाव; करुणावंत कृपा करी रे, मुज मनमंदिर आव रे, जि० ९ आवो अति उतावळा रे, आतमना रे आघार; करशु भक्ति भलेरडी रे, लेशु भवजल पार रे. जि० १० सेवक मत विसारजो रे, स्वामि ! सुख दातार; सेवक सेवा मन धरी रे, करजो सेवक सार रे जि० ११
दुहा मोर मेह रवि कमल जिम, चन्द्र चकोर हसंत; तिम दूरथी अम मनह, तुम समरण विकसंत १ अणी संभार्या सांभरे, समय समय सो वार; ते सज्जन किम विसरे, बहु गुण मणि भंडार. २ बमणी त्रिगणी सोगुणी सहस गुणी ए प्रीत; तुम साथे त्रिभुवन धणी, राखु रूडी रीत. ३
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२०५.
आंख तळे आणु नहि, अवर अनेरा देवः साहिब जब थे में सुण्यो, तुहि देवाधिदेव. ४ भूतले भला भलेरडा, जे जाणी में जाण; ते सघळा अ तुम पछी सीमन्धर जगभाण. ६
ढाळ ५
(जिहां लगे आतम द्रव्यनु'-ए-देशो) निःसनेही तुम ही भये, न्यायी नाथ निरीह; नेह करी कुण निरवहे, जावज्जीव निश दिह. नि० १ साजन भाजन भोजने, युगति प्रीत जगाय; नेह करतां सोहिलो, पण निरवाहो न थाय. नि. २ जगमां विरला जाणीये, सयल अखंड स्नेह; संपदि आपदि सारीखा, छांडी न दीये छेह. नि० ३ तुम म्होटा हुँ नानडो, युं दिल में मत आण, सूरज पंकज प्रीतडी, उत्तम ने अहिनाण. नि० ४ वड तरुअर छाया करे, राय रंक समान; तिम तुम हम उपर धरो, परिगल प्रेम समान.
ज्यु वाधे हम वान. नि० ५.
दुहा
निःसनेही सुखीया रहे, वेलु कण ज्यु होय; ससनेहा तिल पीलीए, दही मथे सब कोय. १ नेह न कीजे जिहां लगी, तिहां जीवते सुख होय; नेह विरह जब उपजे, तब दुःख साले सोय. २ निरगुण नेह न कीजीये, कीजे सद्गुण संग, सीन्मधर जिन सरीसो राखं अधिको रंग. ३
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२०६
ढाळ ६ सीमन्धर जिन विनति, अवधारो मोरी, किंकर कर जोडी कर हु सेवा तोरी. सी० १ अम्ह मन प्रेम अखंड ओ, तुम शुजिनराज, अवर भलेरा निज घरे, नहि काई काज. सी० २ मेरु महीधर मूळथी, कंपे कोई काळे, अंबर ग्रह गण पूरीयो, पेसे पायाले. सी० ३ सकल कुलाचल हलहले, महो मंडळ डोले, श्री हरीश्चन्द्र नरिन्द्र ज्यु, जगे जूटुं न बोले. सी० अमृत विष धारा वमे, सागर भू रेले, सूरज पश्चिम उगमे, गंगा हर मेले. सी० तोहे हुं छांडु नहि, तुम शु घणो नेह; मुज मन एक तुमही हल्यु, गिरूआ गुण गेह सी० ६ अभ सरखा सेवक घणा, ताहरे भगवंत; पण अम साहिब एक तुं, तुंही ज अरिहंत. सी. ७
___ दुहा कि कागळ में लिखु, लख लालच बहु लोभ; मिल्या पछी मालुम थशे, चिर थापण चिर थोभ. १ कि बहु मीठे बोलडे, जो मन नहि सनेह; जो मम नेह अछेह तो, एक जीव दो देह. २ किं बहु कागळ में लिखु, घj घणेरू गुज्झ; सेवा निज पद कमलनी, देजो साहिब मुज्झ. ३
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२०७
दाळ ७
कंद;
( आले आले त्रिशलानो कुंवर - ओ देशी ) जगजीवन जिन राजीयाए, सीमन्धर सुख हरखे हियडुं उल्लसे ए, दीठे दीठे तुम मुख चंद. सीमंधर साहिव समरीए ए, समय समय सो वार सी० १ करशु कोडी वधामणां ए, जपशु जय जय कारे;
मंगल तूर वजावशुं ए, सकल करु अवतार. सी० २ लाखेणां करुं ऊछणां ए, भरी मुगताफळ थाळ; जब सो नयणे निरखशु ए साहिब देव दयाळ सी० ३ एह जो मुज मन चितव्युं ए सफल होशे जिणीवार; तव हुं जाणीश मुज सारीखोए, कोई न ईणे संसार. सी० ४ प्रणाम अवधारजो ए; केवळ कमला कंत; संघ सकळनी वंदनाए जिहां बिचरे तुं जयवंत. सी० ५ ईम जिनवर गुण गावतां ए, जिह्वा पावन कीध; मनह मनोरथ सवि फळ्या ए, नरभव लाहो लीध• सी० ६ शिरनामे जिनवर तणे ए; साते सुख श्रीकार;
अम
ईम सीमंधर समरणे ए, घर घर जय जयकार सी० ७ संवत सोळसे व्यासीए ओ, सुर गुरुवार प्रसंग; दीवाळी दिवसे लख्यो ए, कागळ मनने रंग. सी० ८
कळश
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तपगच्छ गयणं गणदिणयर, सिरिविजयसेण सृरिण; सिसेण संथुणीओ सहरिसं, कवि कमलविजयेण. १ चतीसाईस निहिअट्टमहा पाडिहेर पडिपुण्णो, सुर रइअसमवसरणो, तिहुअण जण लोयणानंदो. २ पुक्खलवइ विजये सामी, पुंडरीगिणीए नयरीए; समन्धर जिणचंदो, विहरतो देहि में भहं
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ढाळ १
( एक दिन दासी दोडती - ओ देशी)
स्वामि समन्धरा ! विनति, सांभळे महारी देव रे; ताहरी ओण हुं शिर धरूं, आदरु ताहारी सेव रे . स्वामि सोमन्धरा विनति.
मूल रे; शूल रे. स्वा० ५
कुगुरुनी वासना पासमां, हरिण परे जे पडया लोक रे; तेहने शरण तुजविण नहि, टलवले बापडा फोक रे. स्वा० २ ज्ञान दर्शन गुण चरण विना, जे करावे कुलाचार रे; लूटे तेणे जन देखतां कहां करे लोक पोकार रे. स्वा० २ जेह नवि भव तयां निरगुणी, तारशे केणी पेरे तेह रे; अम अजाण्या पडे फंदमां, पाप बंधे रह्या जेह रे. स्वा० ४ काम कुंभादिक अधिकनुं, धर्मनु को नवि दोकडे कुगुरु दाखवे, शुं थयुं अह जग अर्थनी देशना जे दीए, ओलवे धर्मना परम पदनो प्रगट चोरथी, तेहथी, केम वहे पंथ रे. स्वा० ६ विषयरसमां गृही माचिया, नाचिया धूम धामे धमाधम चली, ज्ञान कलहकारी कदाग्रह भर्या, थापता जिन वचन अन्यथा दाखवे, आज तो वाजते ढोल रे. स्वा० ८ केई निज दोषने गोपवा, रोपवा केई मत कंद रे, धर्मनो देशना पालटे, सत्य भाषे नहि मंद रे. स्वा० ९
ग्रंथ रेः
आपणा बोल रे;
कुगुरु मद पूर रे;
मारग रह्यो दूर रे. स्वा०
१
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बहु मुखे बोले ऐम सांभळी, नवि धरें लोक विश्वास रे, ढुंढता धर्मने ते थया, भ्रमर जिम कमल निवास रे. स्वा० १०
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२०९ ढाळ २ ( राग गौडी --- अरणिक मुनि चाल्या गोचरी) अम ढुंढतां रे धर्म सोहामणो, मिलिओ सद्गुरु एक तेहने साचो रे मारग दाखवे, आणी हृदय विवेक;
श्री सीमन्धर साहेब सांभळेो. परघरे जोता रे धर्म तुमे फरो, निज घर न लहो रे धर्म; जिम नवि जाणे रे मृग कस्तूरिओ, मृगमद परिमलमर्म श्री० १२ जिम ते भूलो रे मृग दश दिशि फरे, लेवा मृगमद गंध; तिम जगे ढुंढे रे बाहिर धर्मने, मिथ्यादष्टि रे अंध श्री० १३ जाति अंधनो रे दोष न आकरो, जे नवि देखे रे अर्थ; मिथ्याटष्टि रे तेहथी आकरो, माने अर्थ अनर्थ. श्री० १४ आप प्रशंसे रे परगुण ओलवे, न धरे गुणनो रे लेश; ते जिनवाणी रे श्रवणे नवि सुणे दिए मिथ्या उपदेश श्री: १५ ज्ञान प्रकाशे रे मोह तिमिर हरे, जेहने सद्गुरु सूर; ते निज देखे रे सत्ता धर्मनी, चिदानंद भरपूर. श्री० १६ जिम निर्मलता रे रतन स्फटिक तणी, तिम जे जीव स्वभाव; ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशीओ, प्रबल कषाय अभाव, श्री० १७ जिम ते राते रे फूले रातडु, श्याम फूलथी रे श्याम; पाप पुण्यथी रे तेम जग जीवने, राग द्वेष परिणाम. श्रो० १८ धर्म न कहिए रे निश्चे तेहने जिम विभाव वड व्याधि, पहेले अंगे रे एणीपेरे भाखियु, करमे होए उपाधि. श्री० १९ जे जे अंशे रे निरुपाधिकपणुं, ते ते जाणो रे धर्म; सम्यग्दृष्टि रे गुणठाणाथकी, जाव लहे शिवशर्म. श्री० २० एम जाणीने रे ज्ञान दशा भजी, रहीए आप स्वरूप. पर परिणतिथी रे धर्म न छांडिए, नवि पडिए भव कूप. श्री० २१
१४
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ढाळ ३
( रे जीवन मान कीजीये - अ राग ) जिहां लगे आतमद्रव्यनु, लक्षण नवि जाण्यु, तिहां लगे गुणठाणु भलं, किम आवे ताण्यु, आतमतत्त्व विचारीए० आतम अज्ञाने करी, जे भव दुःख लहीए; आतमज्ञाने ते टले एम मन सद्दहीए. आतम० ज्ञानदशा जे आकरी, तेह चरण विचारो; निर्विकल्प उपयोगमा, नहि कर्मनो चारो. आतम० भगवई अंगे भाखिओ, सामायिक अर्थः सामायिक पण आतमा; धरो सुधो अर्थ. आतम लोकसार अध्ययनमां, समकित मुनि भावे; मुनिभावज समकित कह्युं, निज शुद्ध स्वभावे. आतम० कष्ट करो संजम धरो, गालो निज देहः ज्ञानदशा विण जीवने, नहि दुःखनो छेह. आतम० बाहिर यतना बापडा, करतां दुहवाओ; अंतर यतना ज्ञाननी, नवि तेणे थाओ.
राग द्वेष मल गाळवा, उपशम जल झीलो; आतम परिणति आदरी, पर परिणामने पीलो.
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आतम ०
२.२
२३
२४
२५
२६
२७
२८
आतम० २९
हुं एहनो ए माहरो, ए हुं एणि बुद्धि, चेतन जडता अनुभवे, नवि भासे शुद्धि आतम ० बाहिर दृष्टि देखतां, बाहिर मन धावे;
अंतर दृष्टि देखतां अक्षय पद पावे. आतम० ३१ चरण होय लज्जादिके, नवि मनने भंगे; त्रीजे अध्ययने कघुं, एम पहेले अंगे.
३०
आतम० ३२
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२११
अध्यातम विण जे क्रिया, ते तनु मन तोले; ममकारादिक योगथी, एम ज्ञानी बोले. आतम० ३३ हु कर्ता परभावनो, ईम जिम जिम जाणे; तिम तिम अज्ञानी पडे, निज कर्मने घाणे. आतम० ३४ पुद्गल कर्मादिकतणो, कर्ता व्यवहारे; कर्ता चेतन करमनो, निश्चय सुविचारे. आतम० ३५ कर्ता शुद्ध स्वभावनो, नय शुद्धे कहीए; कर्ता पर परिणामनो, बेउ किरिया ग्रहीए. आतम० ३६
ढाळ ४
( वीरमती प्रोति कारणी--अ देशी) शिष्य कहे जो परभावनो, अकर्ता को प्राणी; दान हरणादिक केम घटे, कहे सद्गुरु वाणी.
शुद्ध नय अर्थ मन धारीए-ए आंकणी० ३७ धर्म नवि दिए नवा सुख दिए, पर जंतुने देतो; आप सत्ता रहे आपमां, अम हृदयमा चेतो. शु० ३८ जोग वशे जे पुद्गळ ग्रह्या, नवि जीवनां तेह; तेहथी जोव छे जूजूए, बळी जूजूओ देह शु० ३९ भक्त पानादि पुद्गल प्रते, न दिए छति विना; पोते दान हरणादि परजंतुने, एम नवि घटे जोते. शु० ४० दान हरणादिक अवसरे, शुभ अशुभ संकल्पे; दिए हरे तुं निज रूपने, मुखे अन्यथा जल्पे. शु० ४१ अन्यथा वचन अभिमानथी फरी कर्म तुं बांधे; ज्ञायक भाव जे एकलो, प्राहो ते सुख सोधे. शु० ४२
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२१२
शुभ अशुभ वस्तु संकल्पथी, धरे जे नट माया; तेटले सहज सुख अनुभवे, प्रभु आतमराया. शु० ४३ पर तणी आस विष वेलडी, फले कर्म बहु भांति; ज्ञान दहने करी ते दहे, होए एक जे जाति. शु० ४४ राग दोप रहित एक ज, दया शुद्ध ते पाळे; प्रथम अंगे एम भोखियु, निज शक्ति अजुआले. शु० ४५ एकता ज्ञान निश्चय दया मुगुरु तेहने भाखे जेह अविकल्प उपयोगमां, निज प्राणने राखे. शुः ४६ जेह राखे पर प्राणने, दया तास व्यवहारे, निजदया विण कहो परदया, होए कवण प्रकारे. शु० ४७ लोकविण जेम विण नगर मेदनी, जेम जीव विण काया; फोक ते ज्ञान विण परदया, जिसी नटी ती माया. शु० ४८ सर्व आचारमय प्रवचने, भण्यो अनुभव योग; तेहथी मुनि वमे मोहने, वली अरति रति शोग. शु० ४९ सूत्र अक्षर परावर्त्तना सरस शेलडी दाखी; तास रस अनुभव चाखीए, जिहां एक छे साची. शु. ५० आतमराम अनुभव भजो, तजो परतणी माया; एह छे सार जिन वचननो, वळी एह शिवछाया. शु० ५१
हाळ ५
(सुष सोमन्धर साहिबजी ओ दशी ) अम निश्चय नय सांभळीजी, बोले एक अजाण: आदरशु अमे ज्ञाननेजी, शुकीजे पच्चक्खाण,
सोभागी जिन सीमन्धर सुणो वात० ५२ किरिया उथापी करीजी, छांडी तेणे लाज; नवि जाणे ते उपजेजी, कारण विण नवि काज. सो० ५३
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२१३ निश्चय नय अवलंबताजी, नवि जाणे तस मर्म; छोडे जे व्यवहारनेजी, लोपे ते जिन धर्म. सी० ५४ निश्चय दृष्टि हृदय धरीजो, पाले जे व्यवहार, पुण्यवंत ते पामशेजी, भवसमुद्रनो पार. सा० ५५ तुरंग चढो जेम पामशेजी, वेळे पुरनो पंथ; मार्ग तेम शिवनो लहेजी, व्यवहारे निर्ग्रन्थ. सो० ५६ महेल चढंतां जिम नहिजी, तेह तुरंगनु काज; सकल नहि निश्चय लहेजी, तेम तनु किरिया साज, सो० ५७ निश्चय नवि पामी शकेजी, पाले नवि व्यवहार; पुण्यरहित जे एहवाजी. तेहनो कुण आधार. सो० ५८ हेम परीक्षा जेम हुएजी, सहत हुताशन ताप; ज्ञान दशा तेम् परखीए, जिहां बहु किरिया व्याप. सो० ५९ आलंबन विण जिम पडेजी, पामी विषमी वाट; मुग्ध पडे भवकूपमांजी, तिम विण किरिया घाट. सो० ६० चरित भणी बहु लोकमांजी, भरतादिकनां जेह; टोपे शुभ व्यवहारनेजा; बोधि हणे निज तेह. सो० ६१ बहु दल दीसे जीवनांजी, व्यवहारे शिवयोग; छोडी ताके पधारोजो, छोडी पंथ अयोग. सो० ६२ आवश्यक मांहे भाखिओजी, अह ज अर्थ विचार फळ संशय पण जाणतांजी, जाणोजे संसार. सो० ६३
जह;
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डाळ ६
( मुनिगन सरोवर हंसलो अथवा ऋमनो वंत रणायरु-से देशी )
अवर ईस्यो नय सांभली, एक ग्रहे व्यवहारो रे; द्विविध तस नवि लहे, शुद्ध अशुद्ध विचारो रे. तुजविण गति नहि जंतुने, तुं जग जंतुनो दीवो रे, जीवीए तुज अवलंबने, तु साहिब चिरं जीवो रे. तु०
आचारो रे; व्यवहारो रे.
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६१
६७
६८
जेह न आगम वारीओ, दीसे अशठ तेज बुध बहु मानीओ, शुद्ध कह्यो जेहमां निज मति कल्पना, जेहथी नवि भव पाशे रे; अंध परंपरा बांधिओ, तेह अशुद्ध आचरो रे. तु शिथिल बिहारीए आचरियां, आलंबन जे कुडा रे; नियत वासादिक साधुने, ते नवि जाणीए रूड रे. तु० आज न चरण छे आकरु, संहननादिक दोषे रे: एम निज अवगुण ओळवी, कुमति कदाग्रह पोषे रे. तु उत्तर गुणमांहे हीगडा, गुरु कालादिक पाखे रे: मूल गुणे नही हीणडा, एम पंचाशक भाखे रे. तु० परिग्रह ग्रह वश लिंगीया, लेइ कुमति रज माथे रे, निज गुण पर अवगुण लवे, इन्द्रिय वृषभ नवि नाथे रे. तु० ७१ नाणरहित हित परिहरी निजदंसण गुण लूसे रे; मुनिजनना गुण सांभळी, तेह अनारज रूसे रे. तु० अणुसमदोष जे परतणो, मेरु समान ते बोले रे; जेहसं पापनी गोठडी, तेहसु हियडल खोले रे तु० ७३ सूत्र विरुद्ध जे आचरे, थापे अविधिना चाळा रे; ते अति निविड मिथ्यामति, बोले उपदेशमाव्य रे. तु० ७४
तु
६५
६६
६१
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पामर जन पण नवि कहे, सहसा जूठ सशूको रेः जूठ कहे मुनि वेष जे, ते परमारथ चूको रे; तु० ७५ निर्दय हृदय छे कायमां, जे मुनिवेषे प्रवर्ते रेः गृही यति धर्मथी बाहेरा, ते निर्धन गति वर्शे रे. तु० ७६ साधुभगति जिनपूजना, दानदिक शुभ कर्म रे; श्रावक जन कह्यो अति भलो, नहि मुनिवेषे अधर्म रे तु० ७७ केवल लिंगधारी तणो, जे व्यवहार अशुद्धो रे; आदरीए नवि सर्वथा, जाणी धर्म विरुद्धो रे. तु० ७८
ढाळ ७
( आगे पूरव वार नवाणु--अ देशी ) जे मुनिवेश शके नवि छंडी, चरण करण गुणहीणाजी, ते पण मारग मांहे दाख्या, मुनिगुण पक्षे लीणाजी; मृषावाद भवकारण जाणी, मारग शुद्ध प्ररूपेजी, वंदे, नवि वंदावे मुनिने, आप थई निज रूपेजी, ७९ मुनि गुण रागे पूरा शूरा, जे जे जयणां पाळेजी, ते तेहथो शुभ भाव लहीने, कर्म आपणां टाळेजो आप हीनता जे मुनि भाखे, मान सांकडे लोकेजी, ए दुर्द्धर व्रत एहनु दाख्यु, जे नवि फूले फोकेजी. ८० प्रथम साधु बीजो वर श्रावक त्रीजो संवेग पाखीजी, ए त्रणे शिव मारग कहीए, जिहां छे प्रवचन सोखोजी, शेष त्रण भव मारग कहीए, कुमत कदाग्रह भरियाजी, गृहि यति लिंग कुलिंगे लखीए, सकल दोषना दरियाजी. ८१
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जे व्यवहार मुगति मारगमां, गुणठाणाने लेखेजी, अनुक्रमे गुणश्रेणिनु चढवु, तेह ज जिनवर देखेजी, जे पण द्रव्यक्रिया प्रतिपाले, ते पण सन्मुख भावेजी, शुक्लबीजनी चंद्रकला जेम, पूर्ण भावमां आवेजी, ८२ ते कारण लज्जादिकथी पण, शील धरे ज प्राणीजी, धन्य तेह कृतपुण्यकृतारथ महानिशीथे वाणीजी: ए व्यवहारने मन धारो, निश्चयनय मत दाख्युजी, प्रथम अंगमां वितिगिच्छाए, भावचरण नवि भाख्युंजी. ८३
ढाळ ८
(चोपाईनी दीशी छे.) अवर एक भाखे आचार, दया मात्र शुद्ध ज व्यवहार; ने बोले तेहज उत्थापे, शुद्ध कर हुं मुख इम जपे. ८४ जिनपूजादिक शुभ व्यापार, ते माने आरंभ अपार; नवि जाणे उतरतां नई, मुनिने जीयदया कयां गई. ८५ जो उतरतां मुनिने नदी, विधि जोगे नवि हिंसा बदी; तो विधि जोगे जिन पूजना, शिव कारण मत भूलोजना. ८६ विषयारंभतणो ज्यां त्याग. तेहथी लहिए भवजस्ताग; जिनपूजामां शुभ भावथी विषयारंभ तणो भय नथी. ८७ सामायिक प्रमुखे शुभ भाव, यद्यपि लहिए भयजल नाव: तो पण जिनपूजाओ सार, जिननो विनय कह्यो उपचार. ८८ आरंभादिक शंका धरी, जो जिनराज भक्ति परिवरी; दान मान वंदन आदेश तो तुज सबलो पडयो क्लेश. ८९
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स्वरूपथी दीसे सावध, अनुबंधे पूजा निर्वद्य: जे कारण जिनगुण बहुमान, जे अवसरे वरते शुभ ध्यान ९० जिनवर पूजा देखो करो, भावयग भावे भवजल तरी; छकायना रक्षक हो वली, एह भाव जाणे केवली. ९१ जल तरतां जल उपर यथा, मुनिने दया न होए वृथा; पुष्पादिक उपर तिम जाण पुष्पादिक पूजाने ठाण. ९२ तो मुनिने नहि किम पूजना, एम तुशुचिते शुभ मना, रोगीने औषध एह सण, निरोगी छे मुनिवर देह.
ا
سه
टाक ९
(मुण सीमन्धर साहिबाजी ओ देशी) भावस्तव मुनिने भलोजी, बेउ भेदे गृही धार; त्रीजे अध्ययने कह्योजी, भहानिशीथ मझार.
सुणो जिन तुज विण कवण आधार-ए आंकणी ९४ वळी तिहां फल दाखियुजी, द्रव्यस्तवन रे सार; स्वर्ग बारमु गेहिनेजी, एम दानादिक चार. सुणो० ९५ छठे अंगे द्रौपदीजी, जिन प्रतिमा पूजेय; सूरियाभपरे भावथीजी, एम जिनवर कहेय. सुणो० ९६ नारद आव्ये नवि थईजी ऊभी तेह सुजाण; ते कारण ते श्राविकाजी, भाखे आळ अजाण. सुणो० ९७ जिनप्रतिमा आगळ कहयोजी, शकस्तव तेणे नार; जाणे कुण विण श्राविकाजी, एह विध हृदयविचार. सुणो० ९८ पूजे जिन प्रतिमा प्रोतेजी, सूरियाभ सुरराय; वांची पुस्तक रत्ननांजी, लेई धर्म व्यवसाय. सुणो० ९९
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रायपसेणी मनमांजी, म्होटो एह प्रबन्धः एह वचन अणमानतांजी, करे करमनो बंध सुणो० १००० विजयदेव वक्तव्याताजी, जीयभिगमे रे अम; जो थिति छे ए सुरतणीजी, तो जिनगुणथुति केम. सुणो १०१ सिद्धार्थ राये कर्याजी, याग अनेक प्रकार; कल्पसूत्रे एम भाखियुंजी, ते जिनपूजा सार. सुणो० १०२ श्रमणोपासक ते कह्याजी पहेला अंग मझार; याग अनेरा नवि करेजी, ते जाणो निरधार. सुणो० १०३ एम अनेकसूत्रे भण्युंजी जिनपूजा गृहिकृत्यः जे नवि माने ते सहीजो, करशे बहु भव नृत्य. सुणो० १०४
टाळ १०
(सुरंसघा सा सुरसंधा-ए देशी) अवर कहे पूजादिक ठामे, पुण्यबन्ध छे शुभ परिणामे; धर्म इहां नवि कोई दीसे, जेम व्रत परिणामे मनहीसे. १०५. निश्चय धर्म न तेणे जाण्यो, जे शैलेशी अंत वखाण्यो; धर्म अधर्म तणो क्षय कारी, शिव सुख देजे भव जल तारी. १०६ तस साधन तु जे जे देखे, निज निज गुणठाणाने लेखे; तेह धरम व्यवहारे जाणो, कारज कारण एक प्रमाणो. १०७. एवंभूत तणो मत भाख्यो, शुद्ध द्रव्य नय एम वळी दाख्यो; निज स्वभाव परणति ते धर्म, जे विभाव ते भावज कर्म. १०८ धर्म शुद्ध उपयोग स्वभावे, पुण्य पाप शुभ अशुभ विभावे; धर्म हेतु व्यवहार ज धर्म. निज स्वभाव परिणतिनो मर्म. १०९ शुभयोगे द्रव्याश्रव थाय, निज परिणामे न धर्म हणाय; यावत् योग क्रिया नहि थंभी तावत् जीव, छे योगारंभी. ११०
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२१९ मलिनारंभ करे जे किरिया, असदारंभ तजीने तरिया; विषय कषायादिकने त्यागे, धर्म मति रहीए शुभ मागे. १११ स्वर्ग हेतु जो पुण्य कहीजे, तो सराग संयम पण लहोजे; बहु रागे जे जिनवर पूजे, तस मुनीनि परे पातक धुजे. ११२ भावस्तव एहथी पामीजे, द्रव्यस्तव अ तेणे कहीजे; गव्य शब्द छे कारण वाची, भमे म मूलो कर्मनिकाची. ११३.
टाळ ११
(दान उलट धरी दीजी से देशी) कुमति एम सकल दूरे करी, धारीए धर्मनी रीत रे; हारीए नवि प्रभु बळ थकी, पामीए जगतमा जित रे
स्वामिसीमंधर तुं जयो-ए आंकणी० ११४ भाव जाणे सकल जंतुना, भुव थकी दासने राख रे; बोलिया बोल जे ते गणु, सकल जो छे तुज साखरे स्वा० एक छे राग तुज उपरे, तेह मुज शिवतरु कंद रे; नवि गणुं तुज परे अबरने, जो मिले सुर नर वृंद रे. स्वा० तुज बिना में बहु दुःख सह्यां, तुज मिल्ये ते केम होयरे मेह विण मोर माचे नहि, मेह देखी नाचे सोय रे. स्वा० मनथकी मिलन में तुज कियो, चरण तुज भेटवा सांई रे; कीजिए जतन जिन ए विना, अवर न वांछिए कांई रे स्वा० तुज वचन राग सुख आगळे नवि गणुं सुर नर शर्म रे; कोडी जो कपट कोई दाखवे, नवि तजु तोए तुज धर्म रे स्वा० तुं मुज हृदयगिरिमा वसे, सिंह जो परम निरीह रेः कुमत मातंगनां जूथथी, तो कशी प्रभु मुज बीह रे ! स्वा०
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२२०
कोडी छे दास प्रभु ताह रे, माहरे देव तु एक रेः कीजिए मार सेवक तणी, ए तुज उचित विवेक रे. स्वा० भक्ति भावे इस्युं भाखीए, राखीए अह मनमांही रेः दासनां भव दुःख वारिए; तारए सो ग्रही बांही रे. स्वा० बाळ जिम तात आगळ कहे, विनवुहुँ तिम तुज रे; उचित जाणो तिम आचरु, नवि रह्यो तुज किस्युगुज्जरे. स्त्रा० मुज होजो चित्त शुभ भावथो, भवोभव ताहरी सेव रे; याचीए कोडी यतने करी, एह तुज आगले देव रे. स्वा०
ईम सकळ सुखकर दुरित मयहर, विमळ लक्षण गुणधरो; प्रभु अजर अमर नरिद वंदित, विनव्यो सीमंधरो निज नाद तर्जित मेघ गर्जित, धैर्य निर्जित मंदरो; श्री नयविजय बुध चरण सेवक, जशविजय बुध जय करो.
श्री युगमन्धर जिन स्तवन
(१) वप्रा विजय विजयापुरी माता सुतारा नंद लाल रे; तारक त्रिभुवन लोकनो अवतो करुणा कंद लाल रे
अकल अरूपी मन वस्यो० १ सुदृढ कर्मोने हणे, रोपी चरण-रणथंभ लाल रे; प्रिय मंगल प्रिय लोफने, प्रिय मंगल वई अचंभ लाल रे ऋद्धि अनंती भोगवे, भोगरहित भगवान लाल रे; वरण गंधादिक गुण विना, गुणवंत तनु
कंचनवान लाल रे. अकल. ३
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२२१
काम दहे कामित भरे, धरे योग अयोगी थाय लाल रे; करे क्रिया अक्रिय वरे, अक्षर पण लिपि वडे न लखाय लाल रे
अकल. ४ गज लंछन दुःख भंजनो, श्री युगमन्धर नाह लाल रे; क्षमाविजय जिन सेवना, शिव सुंदरी विवाह लाल रे. अकल० ५
(२)
काया पामी अति कूडी, पांख नहीं आq उडी, लब्धि नहीं कोई रूडी रे, श्री युगमन्धरने कहेजो के, दधिसुत विनतडी सुणजो रे श्री० युग १ तुम सेवा मांहे सुर कोडी, ते ईहां आवे एक दोडी;
आश फले पातिक मोडी रे श्री युग० २ दुषम समयमा एणे भरते, अतिशय नाणी नवि वरते;
कहीये कहो कोण सांभलते र; श्री युग ३ श्रवणे सुखीया तुम नामे, नयणां दरिसण नवि पामे
ए तो झगडाने ठामे रे. श्री युग ४ चार आंगल अंतर रहेवु, शोकलडीनी परे दुःख सहेवु; ।
प्रभु बिना कोण आगळ कहेवु रे. श्री युग० ५. म्होटा मेळ करी आपे, बेहुने तोल करी थापे;
सज्जन जस जगमां व्यापे रे. श्री युग० ६ बेहुनो अंक मतो थावे, केवळनाण युगल पावे;
तो सवि वात बनी आवे रे. श्री युग० ७ गजलंछन गजगति गामी, विचरे वप्रविजयस्वामी;
नयरी विजया गुण धामी रे. श्री युग० ८ मात सुताराए जायो, सुदृढ नरपति कुल आयो;
पंडित जिनविजये गायो रे. श्री युग० ९.
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२२२
श्री अनंतवीर्यस्वामिजीनु स्तवन
(१) अनंतवीरज अरदास सुणोने माहरी, मीठडी सूरती खास चाहुं हुं ताहरी; अरावत गति ओक अछे गज साहरी, दिजे दरिशण तुरत ज देव दया करी. समरूं ताहरु नाम सरागे फरी फरी, जाणे लहुं जगदीश वडारी चाकरी; निर्गमीये दुःखकाळ ईस्यो एह किण परी, धार न खंचे जेह थयो जन आतुरी. धन्य जळचरनी रीत बनी में आकरी, जळ विरहो न खमाय जे जाये ते मरी; प्रारथीया संभाळ न कीधी को खरी, जाणीसा ते प्रोत हमाशु ऊतरी. निवसो तुमची सेव कृपाने अनुसरी, पाळो प्रीतम प्रीत मयूरा घन परी, लेखे ते बहुं मोल गणुं एका-धरी, जब प्रीतमनो संग भजु हइडे ठरी. मुंह टाळेो दे जाय धरामां ते ठरी, न हुवे तसु धरि आपी प्रगोढी हाथरीः नयण कटोरी प्रेम सुधारसशुं भरी, कान्ति मिल्यो प्राणेश रूडी धरी चातुरी.
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२२३
अनन्तवीरज अरिहंत ! सुणो मुज विनति, अवसर पामी आज हुँ आव्यो दिल छति; आतमसत्ता हारी संसारे हुं भन्यो, मिथ्या अविरति रंग कषाये बहु दम्यो. क्रोध दावानळ दग्ध मान विषधर डस्यो, माया जाळे बद्ध लोभ अजगर ग्रस्यो; मन वच कायाना, योग चपळ थया परवशा, पुद्गळ परिचय पापतणी अहनिश दशा. कामरागे अणनाथ्या, सांढ परे धस्यो, स्नेहरागनी राचे, भव पिंजर वस्यो; दृष्टिराग रुचि काम, पास समकित गणुं, आगम रीति नाथ ! न निरखुं निजपणुं. धर्म देखाडे मांड, भांड परे अति लघु, 'अचरे अचरे राम' शुक्र परें जपु कपट पटु नटुवा परे मुनिमुद्रा धरूं, पंच विषय सुख पोष सदोष वृत्ति भर. एक दिनमां नव वार 'करेमि भंते' करु, त्रिविध त्रिविध पच्चखाणे क्षण एक नवि ठरु मा साहस खग रीति नीति घणी कहुँ, उत्तम कुलवट वाट, नते पण निरवहुं. दीनदयाळ ! कृपाळ ! प्रभु महाराज छो, जाण आगळ शु कहेवु ? गरीब निवाज छो; पूरव घातकी खंड विजय नलिनावती; नयरी अयोध्या नायक लायक यतिपति.
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२२४
मेघ महीप मंगलावती सुत विजयापति, आनन्द गज लंछन जगजनता रतिः क्षमाविजय जिनराज ! अपाय निवारजो, विहरमान भगवान ! सुनजरे तारजो. ७
_श्री विशविहरमान स्तवन सीमन्धर युगमन्धर बाहु ! चोथा स्वामि सुबाहु; जंबूद्वीप विदेहे विचरे, केवळ कमला नाउरे भविका,
विहरमान जिनवंदो. आतम पाप निकंदो रे, भविका विहरमान जिनवंदो. १ सुजात स्वयंप्रभ श्री ऋषभानन अनंतवारज चित्त वरीये; सुरप्रभ श्री विशाल वज्रधर चंद्रानन घातकीये रे भविका
विहरमान जिन० २ चंद्रबाह भुजंग ने ईश्वर, नेमिनाथ वीरसेनः देवजसा चंद्रजसा जितवीर्य पुक्खरद्वीप प्रसन्न रे भविका
विहरमान जन० ३ आठमी नमो चोविश पचविशमी, विदेह विजय जयवंता; दशलाख केवळी सो क्रोड साधु, परिवारे गहगहंता रे भविका
विहरमान जिन० ४ धनुष पांचसे ऊंची सोहे, सोवन वरणी काय; दोष रहित सुर मही महीतल, विचरे पावन पाया रे भविका
विहरमान जिन० ५ चोराशी लाख पूरव जिन जीवित, चोत्रिश अतिशय वारी; समवसरण बेठा परमेसर, पठिबोहे नरनारी रे भविका;
विहरमान जिन० ६ खिमाविजय जिन करुणासागर, आप तया पर तारे; धर्मनायक शिव मारग दायक, जन्म जरा दुःख वारे रे भविका
विहरमान जिन० ७.
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२२५
॥ अथ श्री सीमंधरजीनो वृद्धस्तवन । मारी विनतडी अवधारो साहिब सीमंधर महाराज । त्रिभुवन साहिब अरज सुणीजो अरज सुणीजो महिर करीजो
दरसण दीजो राज मारी वि० ॥१॥ आप वस्या माविदेह खेतरमें । हुइण भरत मोजार । ओमेलो किम होवे साहिब । एही सबल विचार मा०वि० ॥२॥ भरत विचाले परक्त आमो । नामे वैताढय सार । पचीश जोजनको उचो बे प्रभु । पचास जोजन विस्तार ।
मा०वि० ॥३॥ गंगा सिंधु दोनुं नदीयां । आमीबे किरतार ।। सहस अवावीसवी नदीयां । एवे उंचो विस्तार । मा०वि० ॥४॥ इणी आगळ परवत आमो । नानो हिमवंत नाम । ओक सहस्र बलिबावन जोजन बार कला अभिराम मा०वि० ॥५॥ खेत रहेमवंतवलि प्रभु आवो । जुग ज्यां केरो वास । ईकवीस सै वलि पांच योजन । पाच कलासु विलास मा०वि० ॥६॥ रोहितारोहितांसानाम । नदियाबे असराल । बप्पन सहसलि बीजी नदियां । आव्यु केम दयाल । मा०वि० ॥७॥ महाहिमवंत परवत आमो । मोटो अतिविस्तार । प्यार सहसदोय सैदसजोजन । दसकला मनुहार । मा०वि० ॥८॥ आव सहस सतच्यार अनोपम । इकवीस जोजन तास । एककला बलिरूप आनोपम । खेतरवे हरीवास । मा०वि० ॥९॥ हरिकंतानेहरिसलीला नदीयाबे परतक्ख बीजी नदीयां आभी को प्रभु । सहसवार एकलम्ब मा०वि० ॥१०॥
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२२६
परबतनिबधको वलि आमो । जोयणबलिविसतार । सोलसहस सतआवयालीस । दोयकलामनुहार मा०वि० ॥११॥ खेतरबे वलि जुगत्यां केरो । देवकुरु इणनाम । ते विण जोयण बहुविस्तारे । पोलोबे सुणो स्वाम मा०वि० ॥१२॥ सीतानामे नदीवमेरी । सब नदीयां सोरदार । पांच लाख बलि बीजी नदीयां । अने बतोस हजार मा०वि०॥ १३॥ लाख जोजनको मेरु परवत । नाम सुदर सणसार । गजदंता बलि च्यार बीचमे । आउ केम कृपाल मा०वि० ॥१४॥ वनगिरीने परवत बहुला । नदीयां ओघटघाट । किण विधि आवु सुगुणा साहिब ।मारग विषमी वाट मा०वि०॥१५॥ कंचन गिरि बखारा परवत, गजदंता गिरिराय ! भद्रसालबन मोरग विचमे । लागे के मलपाय मा०वि० ॥१६॥ क्यां मुज देश वे भारतखेतर । क्यां पुखलावती जिनराज ।
ओमेलो किम ठोसी साहिब । तारणतरण जिहाज मा०वि०॥१७॥ निस दिन मारे तुंही आलंबन । वासीयो हृदय मोजार । भवमुख भंजन तुंही निरंजण । करूणा कला भंकार मा०वि०॥१८॥ मन वंबित सुख संपत्ति दाता, प्रभु शाहेब को खास । मुजने सेवक साचो जाणी, पुरोमननी आस माप दीत मा०वि०॥१९॥ खरतर हरख गुरु सुप साये । रूपचंद गुणगाय । अगरचंदको श्री जिनवरजी । तारो दीन दयालाय मा०वि।।२०॥ संवत् अढार से इकवीसे । पोस क्दी शुभ मास । बीज मइ बुधवार अनोपम, जिनपद वंदन मास मा०वि०॥२१॥
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२२७
श्री वीमागाय नं ३
पूरव देशई साण कुंण, पउ चलवइ वजीया । नयरी पंडर गुण हदति, श्रीमंधर सूणीया ।। चउरासी लख पूरव आवि, सउ वमइ काया । उंच पण उंचइ धनक पांच, सेवइ श्रीराया ।। जयवंता जग वीचरताए केवल दीपक देव । श्री श्रीमंधर स्वामीया, दीज्यउ तम्ह पाय सेव ॥१॥ वीस पुरव कुअरवोस, भगवीय जिणेसर । चउसढ पूख राज रोध, पाली अलवेसर । मनसो वृत जिह श्री वहरमांन महीपहाइ सिख्या। उमाहइ ओलग करउंएि सुणज्यो बीआचंद । वंदण म्हारी चीनमऊ, श्रीमंधर जय चंद ॥२॥ आठ क्रम नइ च्यारइ कषा, अढारइ दोसा । हेलई ठांडी लहयउ न्याय, चोगीसइ अंतसा ॥ समोसरण जणवर नंदइ, उवेखइ धर्म । भवीयण नउं सुणउ हेवई सवि क्रम ॥३ भरह खेत्रनी संग सवीए वांदुतम्ह असीस । रीखभणइ धर्म लाभहाउ, पुरउ संघ जमीस । पगे पया माणसे लोई, संवांयेत वाय वंदामइ । १६५८ वरसे श्रावण सुद १० वार आदीत । इंगणोद लखत सीमा जगा जईवंत ॥४ (पत्र १, भा. ३ प्रति स. १०८१२ श्री अभयजैन ग्रंथालय)
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२२८
ढाळ १
चंदाजी हो म्हे अरिहंत जीरा, ओलगू हो राज थे छो परमदयाल नाम कोनी राज अरे हांजी हांजी कोनो राज, सीमंधर जी ने कोहनी राज वैर मान जिंणद नै को नी रा, मन मोहन प्रभु नै कीनो राज इण ग्यानी गुरु नै कोनै राज, अब कौ ज्यू नर भव सफलौ
याद जायकौनी राज ॥१
आंकणी चंदाजी हौ सूतां सुपनै संमरै हौ राज जीव पडैरै जंजाल जाय कौनी राज अरे हांजी हांजी चंदा जी हो राति दिवस जपतौ रहु होरा
मेहां चात्रक मोर जाय को. अरे हो ॥२॥ चंदाजी हो सममुख दरसण दाखवां हो राज, नयणे दोइ करै रे निहोर जाय. अरे हो. ॥३ चंदाजी हो मनसुध माहरे मने हो राज । कदेइ न लोपु कार जाइ. को. अरेहा ॥ ४ चंदाजी हो सेबक जगरूप वीनवै हो राज
आवगमन निवारजाइ को. अरेहा ॥५ इति श्री सीमंधर भा. ६ पत्र-१ प्रति स. १०८०६ श्री अभयजैन ग्रंथालय
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२२९ ढाळ-पंछीडा री चंदलिवा जिण जो सूं कहे मोरी वंदना रे जिणवर जंगम सोमंधर सामी रे चितथी यउ एक ॥
अथ श्रीसीमन्धरयुगन्धरस्तवः । भवपङ्कपतज्जन्तु-जातोद्धारधुरन्धरौ । स्तुवे जिनौ विदेहस्यौ, सीमन्धरयुगन्धरौ ॥१ स्वामिताङ्कितयूयं याः, प्रजास्ता भाग्य भाजनम् । भावेनोपासितयुवान्, स्तुवे सेवकपुङ्गवान ॥२ प्रथमं शिबिकारूढब्यूटयुवाभिभिस्तपस्यायाम् । इन्द्रेभ्योऽप्यखिलेभ्यः प्राधान्यं प्राप्यते स्म खलु ॥३
अब०-स्वामितयाड्कितौं-चिह्नितौ युलां यासां ताः, परत्वाद् युवादेशं बाधित्वा यूयमादेशः । उपासितौ युवां यैस्तान ‘शसो नः' १२।१।१७। 'युष्मदस्मदोः' १२।१।१०। इत्याः भहुव्रीहिबहुत्वेपि युष्मच्छब्दन्य द्वित्वेषि वृतेः 'मन्तस्यः ।२।१।१०। इति वुवादेशः । एवमतनेष्वपि प्रयोगेषु ॥२ प्रथ. शिबिकायाप्ययानं, तत्रारूढौ व्यूढौ युवां यैस्तैः । न च व्यूढेत्यत्र विपूर्लो वहतिर्विवाहार्थ एव, 'वूढो गणहरसहो' तथा 'मुणिवूढो सीलभरो' व्यूढशब्दस्य वहनार्थस्यापि प्रयोगाणां दर्शनात् । इन्द्रा अपि हि 'मनुष्योद्भवाः जिना' इति मनुष्याणामेव प्रथमं याप्ययानवहनानुमति ददति ॥३
याचकेभ्योऽपि भद्रं स्ताद्, वार्षिकत्यागपर्वणि । स्वहस्तदायकीभूत-युवभ्य' वाञ्छितावधि ॥४ अव०-याच०-'तभ्दद्रायुष्य' ।२।२।६६। इति चतुर्थी ।
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२३.०
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याचकानामाशीर्दानहेतुरूपं विशेषणमाह- स्वहस्तेन दायकीभूतौ युवां येषां तेभ्यः । वाञ्छितमवधिर्यस्मिन् स्वहस्तदाने तत् । गङ्गायां बहुमानातिशयातन्मृत्तिकापि यथा बहुमान्या तथा स्वहस्तदायकी भूतयूयं याचका अपीतिभावः ॥४
प्रदक्षिणीकृतयुवत्, केवलिभ्यो भवत्सभाम् ।
संश्रितेभ्यो विदुः स्पष्ट, के न वैनयिकक्रमम् ॥५
अव० - दक्षिणां प्रगतौ प्रदक्षिणौ, 'प्रात्यवपरि०' | ३|१|४७॥ इति समासः । अतौ तौ क्रियेथे स्मेति प्रदक्षिणी - कृतौ, प्रदक्षिणीकृतौ युवां यैस्तेभ्यः, 'गम्ययपः कर्म.' | २|२|७४ | इति पञ्चमी, भ्यसो 'ङसेवाद्' इति अद् । विनय एव वैनयिकं 'विनयादेरिकण' ||५
स्वविहारकसपावकयुवाकमुर्वी
महाविदेहानाम् ।
स्पृहयेद् बुधो न कस्कः सदावहन्मोक्षनगरपथाम् ||६
"
अ० - स्वविहारस्य क्रमेण परिपाटया, पावकौ - पावत्र्यकारको युवां येषां विदेहानां तेषां भरतैरावतेभ्यो महत्त्वात् महान्तश्च ते विदेहाश्व महाविदेहाः । एकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणसमासो दृश्यते । यथा शेषाहिः, अब् द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमित्यादि । बहुवचनं चात्र सोमंधराधर्ह च्य तुष्टयविहार कल्याणकादियोगहेतुकान् अम्यक्षेत्रातिशायिनः त्याद्वादनीत्या कथञ्चिदभिन्नान् महाविदेहानां बहून गुणान् सूचयति । सदा वहन् मोक्षनत्ररण्य पथो यय तां, वहति सार्थ इत्यादिष्विवअत्र वहिरकर्मकः सातत्यगमनाथेः, अविच्छन्न मुक्तिगच्छलैकजनाश्रितत्वेन उपचारात् मुक्तिमार्गोपि वहलुच्यते, मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादिवत् ||६
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२३१
अवतीर्णतरूणतरणिप्रभास्वरथुवासु भूमीषु । तिमिरं न संशयमयं तिष्ठति भव्याङ्गिहृदयगतम् ।।७
अ०-तवतीणौँ तरुणतरणिप्रभो प्रभास्वरौ युवां यासु विदेहभूषु तासु । अत्रापि प्राग्वत् गुणबहुत्वसूचनार्थ बहुवचनम् ।।
अन्योऽन्यापमित युवा, युवां जिनाधीश्वरौ ? विजेज्याथाम् । आव्योमसोमसूर्य महाविदेहाभरणभूतौ ।।
अव०-अन्योऽन्येन कृर्तृभूतेन उपमितौ युवां ययोस्तौ सम्बोधने, विपूर्वाजिज्जधातोर्यङ्लुपि 'प्रकृतिग्रहणे पङ्लुबन्तस्यापि ग्रहण' मिति न्यायात् पञ्चम्या आत्मनेपदीययुष्मदर्थे द्विवचनं । आ व्योमसोमस्र्येभ्यः आ० 'पर्यपाहिरच पञ्चम्या' इत्यब्ययीभावः' ।३।१॥३२॥
सीमन्धरप्रभुयुगन्धरनामधेयौ,
भवस्या स्तुतौ जिनवरो युगपन्मयेति । अत्राप्यवाप्तजनुषः सुकृताऽऽशिषं त्वां,
दत्तां मम प्रमदतो नमतेोऽनुवेलमः ॥९ इति युष्मच्छष्द द्विवचन बहुब्रीहि बहु व प्रयोगगर्भ: श्रीसीमन्धरयुगन्धरस्तवोऽष्टमः ॥९
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श्री सीमन्धर जिनवर स्तवनं
(१)
श्री सीमन्धर गुणमणिआकर, नमिये निज शिर नामीरे; भवभय भंजन मनमथगंजन, जग जीवन शिवगामी रे ॥१
दयालय त्रिभुवनतारक जाण्यो रे,
भव भव चरण शरण मोहितो रे. असो माये मन मान्यो रे. || दया० ॥२
क्षेत्र विदेहं विजय पुखलावती, पुंमुरीकनि पुरी रायारे; श्रेयांश घरे सत्यकी पटराणी, तासनुयरे प्रभु आयारे || दया ॥ ३ वृषभलंबन मिशि सेवतो जिनपाय, तजि कटि मनको मानरे; सहस अढार शीलंगर पधारक, केवलज्ञान जगे भानुरे || दया० ॥४ विहार मानतीत्थंकार पेखे, सोवन वन्न शरीर रे; घमतीरथे ठवणा आकारे, मंदरगिरि जिम धीर रे || दया० ॥५
धनधन ते नरनारी जाणो, जे तुम सेवे याय रे; देशना सुणे निरंतर अनिशि, आणी मनशु भाय रे || दया० ॥६
"
निशिदिन नाम जपुं तुम जो आणी मन आणंदरे श्री समरचंद पभणे इम साहिब, मधुकर जिम अरविंदरे.
|| दया० ॥७ इति ॥
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२३३
(२)
(देशी की चाल) सीमन्धरजी से वंदना, नित हो तो जो हमारी रे । परम पुरुष जी से वन्दना, नित हो हमारी रे । मन वच काय त्रिके करो, सेवा चाहूं तुम्हारी रे । सी० १ तुम तो महाविदेह मां वसो भरत मां बैठा रे, मनडो चाहे ऊडी मिलू जायके पद भेटू रे । सी० २ यहां तो आरो पांचों, तिहां चौथो आरो रे, तुमे तिहां सुख भोगवो, हमको न संभारो रे । सी८ ३ विद्या जंघाचारिणी, कोई लब्धि न दीसे रे जेहथी, प्रभु पद भेटिये, मनडो घणो हीसे रे । सी० ४ बीज तणो जे चाँदलो, तेनी साथे हमारी रे । जाई पाँचेगी वंदना सुन लिजो संभारी रे। सी० ५ नंदन श्री श्रेयांसनो, अंगज सतकीनो रे, रूकमणी राणीनो बालमो इजो ऋषभ नगीनो रे। सी० ६ स्वपनान्तर प्रभुजी मिल्या भयो परम आनन्दोरे बुध, जसवंतसागर तणो जाई नीक सु नोंको रे ॥सी० ७ ॥इति
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२३४
(३)
(उत्तराध्ययने बोल्या सोलेमजी ए राह) श्री सीमन्धर तमशु प्रीतमीजी, में कीघी चित्तलायः दूरि रह्यां ते नवि विसरे जी, नेहवीयो वाधे रे सवाय, ए मनमुंने मोद्यं रे जिनजी ते माहरू जो, जिम चकोर चित्त चंद, मानने लीधे रे हिममु उल्लसेजी,
पेख्ये पर मावंद. ए मनमु॥२ अलजोने आवे रे अंगे अति घणुंजी, इट वसंते रे वात; दर्शनीनु देखमो रे एकवार आवीनेजी,
पूरो मारा मननी रे आश. ए मनमुः ॥३ संदेशा कहावुरे दिन सास लगनेजी, जो चाले रे कोइ साथ; विसमीने वाटे रे पंथि कोइ नवि वहेजी,
ते जाणे जगनाथ. ए मनमु. ॥४' मन तन वचने रे साजन तु सहीजी, निश्चय ने व्यवहाद; जीवन जीवथी रे प्राही वालहो जी,
तु मुज प्राणाणार. ए मनमु ॥५ साजन तुमारे रे जिनजी बे घणाजी, मुज मनि तु जगदीश; रागी ने कुरागी रे सरीखा लेखवोजी,
ते देखी चढे मुज रीश. ए मनमु॥६. आकी दोने राखी रे प्रीतमी पालशुजी, ते जाणे विशवा रे वीश; हीये ने तुमारारे रूसा गुण वश्याजो,
ते समरू निशदिश, ए मनमु॥७
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२३५...
गुणने तुमारा रे दीसे बे घणाजी, ते कहेतां नावे रे पार;
व्हालेसर विरहो रे सहेतां दोहिलीजी,
हिवे करजो सेवकनो सार. ए मनडु ॥८ सुरतरू सरीखा रे जाणो सेवियेजी, वंचित फल दातार; ए चितडुंने लागे रे ताहरा नाम शु जी,
ते रहिये संभारि संभारि ए मनडु ॥९. कह्यो न लागे रे सघलो कारिमोजी, साहिब तु रे सुजाण; तुला हमारी रे किम मानो नहींजी,
अवगुण जाण. ए मनडु ॥ १०. ए प्रीतमीने कीधी रे गुण तारा सांभलीजी, श्री गुरुजी पास; रंगभर रातो से ठाकुर इंणिपरे कहेजी,
हिये होशेलील विलास. ए मनडु ॥ ११
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(४)
( राग भैरव)
सुनो सुनो रे सीमन्धर सुखदातार, माहरा जीवन प्राणाधार सुणो. ॥१ तुम नाम निरंतर हृदय मोजार, मुखे जपतां हुवे हरख अपार सुणो. ॥२ तुम वढ्न पूनम चंहाकार, गति जित्या गज रहे वन ममार . सुणो. ॥३ तु नृपकारी दातारी अपार, तु डुखतरूकपण कहि ये कुगर. सुणो. ॥४ तु ज्ञानी ध्यानी धरमधार, तु मनमोहन महिमा भंमार सुणो. ॥५ हुं निशिदिन समरू' वारंवार, गुण कहेतां कि महि न आवे पारे. सुणो ॥ ६ ऋषि कुर एहवो कहे विचार, शिवसुख आपो म लावो वार. सुणो. ॥७
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(६)
(श्री श्री सीमन्धर स्वामिजी ए देशी)
सुख नी खांणि ॥ १
प्रभुनाम तु तीय लोक नो, प्रत्यक्ष त्रिभुवन भाण । सर्वज्ञ सर्व दर्शी तुम्हे, तुम्हे शुद्ध "जिनजी वीनती है एह ॥ आंकणी || प्रतु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुक्त तारे दरसन सुख बहु, तु ही जगति तुझ बिना हुं चउगति भम्यो, घरयां निज भाव में परभाव नौ, धन तेह जे जितु प्रह समै; तुझ वाणि अमृत रस लही, इक वचन श्री जिनराजनो,
जीवन प्राण । थिति त्राण ॥ २ ॥ ज० वेब अनेक
जाण्यौ नहीं सुविवेक ॥३ ॥ ज० देखें ज जिन मुख चंद | पामैं ते परमानंद ||४ | जि० नय गमा भंग प्रधान |
जे सुणै रुचि थी ते लहै, निज तत्व सिद्य अमान ॥५ ॥ ज० जे खेत्र विचरो नाथजी, ते खेत्र
अति सुपसत्थ' ।
तुझ विरह जे क्षण जाय छे, ते मानीयै अकयत्थर ॥६ जि० श्री वीतराग दंसण बिना, वीतोज काल अतीत |
ते अफल मिच्छा डुक्कडं, तिविह तिविह नी शेति ॥७ जि०
अकल
प्रभु बात मुझ मननो सहू, जागो अछो जगनाथ । थिर भाव जो तुमचो लहुँ, तो मिलै शिवपुर साथ ॥१८ जि० प्रभु मिल्यै हुं थिरता लहू, तुझ विरह चंचल भाव ! इक वार जो तन्मय रमू तो करू प्रभु अछो क्षेत्र विदेह में, हु रहुं भरत तो पण प्रभुना गुण विषै, राखू चेतना १. जिस क्षेत्रमें आप विचरते हो, वह क्षेत्र ही सफल हैं । २. अकृतार्थ । 3 यद्यपि मैं दूर हूँ, फिर भी प्रभु के गुणों के प्रति मेरी सतत् दृष्टि हैं ।
स्वभाव ॥९ जि०
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मझार ।
सार ॥१० जि०
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२३७
सगलां
आतम
जो क्षेत्र भेद टलै प्रभु, तो सरै सनमुखै भाव अभेदता, करि करू पर पूढि ईहा जेहनी, एवडी हुई हाजर हजूरी ते मिल्यै, नीपजे कितलो इन्द्र चंद्र नरिंद नौ, पद न मांगू प्रभु मुझ मन थकी, नवि विसरो खिण मात्र ॥१३ जि० जां' पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नविकरि सकू निज ऋद्धि ।
मागू तिल
तां चरण सरण तुम्हारडां, एहीज मुझ नव निद्धि ॥। १४ जि०माहरी पूर्व विराधना, योगे पडयो ए भेद |
पि वस्युं धरम विचारतां, तुझ नहीं छे भेद ॥ १५ ॥ जि० प्रभु ध्यान रंग अभेद थी, करि आत्म भाव अभेद । छेदी विभाग अनादि नो, अनुभवू स्वसंवेद्य ॥ १६ ॥ जि७ वीन अनुभव मीत ने, तू न करि पर रस चाह ! शुद्धात्म रस रंगी थयो, कटिं पूर्ण शक्ति अबाह ॥ १७ ॥ जि० जिनराज ४ सीमन्धर प्रभु, तें लह्यो कारण शुद्ध । हिव आत्म सिद्धि निपायवा, सी ढील करीये बुद्ध ॥ १८ ॥ जि० कारणे कारज सिद्ध नो, करवो घटे न विलंब | साधवी पूर्णानंदता. निज कर्तृ अवलंबि ॥१९ जि० निज शक्ति प्रभु गुण मै रमै ते करें पूण. नंद । गुणगुणी भाव अभेद थी, पीजीयै सम मकरंद ॥ २० ॥ ज० प्रभु सिद्ध वुद्ध महोदयी, ध्याने थई लयलीन । निज देवचंद पद आदर, निव्यात्म रस सुख पीन ॥ २१ ॥ ज० १. यब तक । २. तब तक । ३. मैं अपने अनुभव रूपी मित्रको विनती करता हूँ कि तू पर विषय की इच्छा न कर ।
४. सीमन्धर भगवान् आत्मसिद्धि का अदभुत कारण है ।
५. कारण रहने पर कार्यसिद्धि करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिये । अपती कर्तृत्व शक्ति का अवलंबन कर पूर्णानंद स्वरूप को सिद्ध करना चाहिये ।
काज ।
राज ॥११ जि०
स्वाम
काम ॥ १२ जि०
मात्र ।
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२३८
श्री वीस विहरमान स्तोत्र प्रणमवि सरसति पय कमल, विहरमाण जिण वीस । सीमंधर जिण वरस धर, युगमंधर जिण राज ॥१ बाहु सुबाहु जिणंद वर, पंचम जिण संजात । सयं पहु जिणवर वय नमिस्यु, रिखमाज न सुविशाल ॥२ अनंत वीर्य तिथ्य करहां, सुरविह मुणिराज । वज्रधर चंद्रानन सकल, चंद्र बाहु भुजंग ॥३ ईसर नेमिप्पहन मुए, वीरसेन मुहमद । देवजस्या जग गुरु नमह, जिणवर जिन वीरिज्ज ॥४ भाषा तासु पिता श्रेयांस वरमाणउ, सुसढ सुग्रीव निसढ तिह जाणउं देवसेन भूपालोमित्र प्रभु पहु करतिराउ मेघराज महीपलि।
विक्खाऊ विजयनाम नर पालो ॥५ श्री श्री नागपदम रय सारो वालमीकि देवाणंद अपारो । महाबल गलसेन राय, वीर राज भूमि पाल मनोहर । देवराज सर्व भूति नरसेर राजपाल नर राय ॥६ विहरमाण जिण वीसइताय, हिववन्ति सुहरराई । जिण मार्याति सुतणा, ए नाम सत्य कि देवि सुतारा विजया। भूय नंदा देव सेना माय, सुमंगला अति अभिराम ॥७ वीर सेण दिण दिण जयवंती, मंगलावती महियलि गुणवंती ! दीवई विजयावंती भद्दा सरसति पउमा राणी । रेणु महिमा महीपलि, जागी यशोन्वलाउदवंती ॥८ अथ अढईयउ, मेना महीपलि सार भानमती सुविचार, उमादेवि जणणीए
गंगकनी निक मनीए ॥९
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२३९
जिण वरूलंछण एह, वन्नि सुगुण मणि गेह । वसह गयर वरूए, मृग मरकटु घरए ॥१० सूरचंद वण राजु, कुंजरु हिय करु माणु । शंख वसुह विमल निम्मल वर कमल ।।११ कमल सुधाकर सूर धवल रंधर सर । गयवर हिम कारिण, सत्थिवयर रयण ॥१२ फाग-दिववन्ति सुर्तसुधर घरणीस कर्मणि बहिनीय नाहि पियंगुलतां मनुमोहिनि, माहिनि अति सुविचार किं पुरुषा जयसेना, वीर सेना अभिराम, जयावंती या पुक्खवंतीया नंदिसेणा गुणताम ॥१३ विमला विजयावंतीय लीलावंतीय सुगंध, गंधसेना भद्रवंतीय मोहनिमोह प्रबंध । राय तणा मनुमोहई सोहइ श्रीरायसेणं, सूरजकंत सु राजइ गाजइ गुणमतिगेह ।।१४ पउमावह पटराणीय रूपहि रे रंळलाल, रयण माला
वरुतणीय मृग नथणीया सुकुमाल । इण परि जग गुरुनामतापतसुमाय,
लंछण तसु धरि धरणीय लथुणीया सुहमाय ॥१५ दयवीस जिणवर सव्व मुहकर विहरमाण जिणेसराजसु चरण सेवइ देव दानव जख्क रस सुकिन्नरा । इम भणह निम्मल भत्रि भावइ देवतिलक मुणीसरो ॥१६
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श्री जिनमंदिर स्तोत्र अमर नरराज मुनिराज कृत वंदनं, विकट भवताप संताप भर चंदनं । त्रिभुवनानंदन सार गुण सागर, भजत जिन नायकं स्वामि सीमंधरा ॥१ प्रणत जन मंडली काम हरि चंदन, सकल संशय हर सत्यकी नंदनं
चारुचंद्रानन मायत ममता भर मी २ विपुल कल्याण कमलालिखि मंडलं भावन मंदगिनांज नित सुखमंडल। सकल सुख करण समजलछाजल सिंधुर भ०॥३ दलित दुरितागम सकल भूमंडल दुःख हरणं हसित कमलदललोचनं सिद्ध ललना ललित संग विलता वर भ०॥४ विमल केवल तरुणे दलित वितमोभर,
साम्य कमला विजित रम्य रजनीकर । ललित गति विमल मति ललित गुण बंधुर म० ॥५ मदन मदमत्त मातंग मृग नायक, वरत रातं शिव शर्म भर रायकं ।
भवितरित हरण वर चरणनत किन्नर भ० ॥६ मंगलाराम सुरभि सुयश सोज्ज्वलं, सीर निधि नीर दंडी सदशाभंल
द्यौत कलधौतकल कंदला संवर भ० ॥६. भविकजन किरण बौल्लासिरजनी धवं, देवपति भुवनपति भावविहितो
निवडतर कर्म भरत सगतरु कुंजर भ० ॥८ वितत संततिलता मंद जल वाहनं, प्रमद मद मोहगज कुभ पंचाननं
विशद करुणा फल संपदा मंदिर भ० ॥९. सार सुरभित नय लांछनालंकृतं मोक्षम करंद सुविलासधुपाकृति
प्रमेदि नवन क्षिपति मौलि धू चामर भ०॥१०. दास दुवीर भावारित रूपारणं मद्रदारिद्रय दुर्भाग्य भर वारणं
प्रचुर पुंडरीकिणी कामिनी शेषरं भ० ॥११ प्रचुर चिंता हरण चार चिंतामणि प्रणत लोकेषु निजवंश वासरमणिं
हरि धीर प्रिया जितमलय मंदिर म० ॥१२ इति विजयमान जिनराज एषो द्रुत स्वामि सीमंधर परण हरखोत्युतः श्री लब्धि कल्लोल गणि चरणकमलालिना गंगदासेन जिन भलि
भरमालिना ॥१३:
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श्रीसीसंधरस्वामिने नमः
(दोहा) 'श्रीसीमंधरस्वामिने नमः' यह मन्त्रः महान । ॐ अहँ जोड दे, तो तो कतीव महान ||१||
(आरति)
(तर्जः ॐ जय जगदीश हरे) श्रीसीमंधरस्वामी, जय सीमंधरस्वामी । सीमातीत दयाके (२), सागर गुणधामी.. श्रीसीमंधर० मंगल के तुम दाता, स्वामी करो अमंगल नाश (२) धर्म ही सच्चा मगल (२), अमंगल भव-वास....श्रीसीमंधर० १ रम्य मुखकमल तेरा, स्वामी प्रेम परिमल पूर्ण (२.) स्वान्त है नाचने लगता (२), देखते ही जो तूर्ण...श्रीसीमंधर २ मिले एकबार भी दुर्लभ, स्वामी तव दर्शन साक्षात (२) नेत्र हो धन्य हमारे (२), जन्म-मरणका भी घात : श्रीसोमंधर० ३ नमन हमारा तुझ, स्वामी पल पल अनन्त बार (२) मस्त बन यों मुझमें (२), ज्यों न उठे को को विचार...श्रीसीमंधर०४
15
सीमंधर सीमंधर, स्वामी सीमंधर सीमंधर (२) 'महेन्द्रमणि' जपे जो हो (२), क्यों न वो भी सीमंधर...श्रीसीमंघर०५
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अद्भुत जादूगर
(दोहा) जादूगर अद्भुत कोई, तू मेरी नजरमें नाथ । सारी त्रिभुवन कर लिया, कैसे अपने हाथ ।।
स्तवन
(तर्जनील गगनभे उडते बादल आ आ आ) ओ अदभुत जागर! दिलमें आ आ आ ।
ज्योतिकी ओर जीवनको ले जा जा जा ।। मन्त्र न कोई कोई न विद्या नहीं कोई कार्मण योग, झुकते तुजको फिर भी किस तरह तीन जगतके लोग, तीनो जगतमें तेरा बश गया छा ......... ज्योति. १ पशु पंछी और पेड पवन भी जब तुजको अनुकूल, करुणासागर! ओर कौन हो तव तुजको प्रतिकूल, तेरा प्रतिकूल सुख सकता कहाँ पा
ज्योति.२ बिल्ली-उंदर सिंह-गाय जैसे भी आपकी पास, बन्धुवत् भगिनीवत् बनकर बैठ जाते पास पास, दिव्य देशना सुनते वे भी दिल ला ......... ज्योति. ३ कंचन-कमल पे चरण-कमल घर करते सदैव बिहार, सारे चौदह राज ज्योतिसे भरते पांच पांच बार, नरक-जोव भी जब खुशीमें जाते आ ......... ज्योति. ४ हुआ न होगा ऐसा कहों कभी जादूगर कोइ अन्य, जादूगरी यह क्यों न सिखाएंगे हमको भी अनन्य, कैसे भी हम जिन गुण 'मणि' ले गा ......... ज्योति. ५
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