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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ अचल स्वभाव, जिनजी ९. भरत मोझार: स्वचेतन सार जिनजी १० प्रभु मिले हु स्थिता लहु तुज विरह चंचल भाव, एकवार जो तन्मय रमुं, तो करु प्रभु वसो क्षेत्र विदेहमां, हुरहुं तो पण प्रभुना गुण विषे, राखुं जो क्षेत्र भेद टले प्रभु, तो सरे सघां काज; सन्मुख भाव जभेदता, करी वरु आतमराज. जिनजी ११ पर पुंठ इहां जेहनी, एवडी जे छे स्वाम; हाजर हजूरी ते मोले निषजे ते केटलो काम जिनजी १२. इन्द्र चन्द्र नरेन्द्रनो, पद न मागु तिल मात्र; मागुं प्रभु मुज मन थकी, न विसरो क्षण मात्र; जिनजी १३ ज्यां पूर्ण सिद्ध स्वभावनी, नवि करी शकुं निजऋद्ध; त्यां चरण शरण तुमारडो, एहि ज मुज नव निध. जिनजी १४ महारी पूर्व विरोधना, योगे पडयो ए भेद; पण वस्तु धर्म विचारतां, तुज मुज तहि छे भेद. जिनजी १५ प्रभु ध्यान रंग अभेदथी, करी आत्मभाव अभेद; छेदी विभाव अनादिनो, अनुभवु स्वसंवेद जिनजी १६ विनवु अनुभव मित्रने, तुं न करीश पर रस चाह; शुद्धात्म रस रंगी थई, कर पूर्ण शक्ति अवाह जिनजी १७. जिनराज सीमंधर प्रभु, ते लह्यो कारण शुद्ध; हवे आत्मसिद्धि निपजावत्री, शी ढील करी ए बुद्ध जिनजी १८ कारणे कार्य सिद्धिनी करवो घटे न विलंब साधवी पूर्णानंदता, निज कर्तृता अवलंव. जिनजी १९ निज शक्ति प्रभु गुणमां रमे, ते करे पूर्णानंद गुण गुणी भाव अभेदश्री, पीजीए शम-मकरंद, जिनजी २० प्रभु सिद्ध बुद्ध महोदयी, ध्याने थई लयलीन; निज 'देव वंद्र' पद आदरे, नित्यान्म रस सुख पीन. जिनजी २१ For Private And Personal Use Only
SR No.008679
Book TitleUd Jare Panchi Mahavideh Mai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherSimandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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