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ढाळ ४
( दवदंती पुहविं पडी - ढाल -- राग सिंधूउ )
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मोह
महाभड राजीओ, ईम त्रिभोवनि व्यापई रे. कोई व्यापइ नइ थापइ आण जे आपणीए प्रवचन नगरी प्रभुतणी, जन तेहनां वासी रे, कांई वासी नइ वीसासी के भोलग्याए, निज महिं ताणी खूपीआं केई सुत नई भोलब्यारे भोलव्या रे, रंकपरि भोलाव्या रे, १
केइ तहलार वसि पाडीया रे, केई लीघा नइ दीधा के पुत्री करईरे, लोक
महाधरइ लीधां रे तुमारा इम विभो,
बहु दीसई छई फरीया रे, फरिया नइ बसिया बहुपरि रे, तुम्ह आगम आराधतां, के निज मति मोह्या
मोह्यां नइ जोया बोल नहीं खराए, आगम तणि प्रभु तणा तिहां पहिल ते अत्रा रे, अत्रानई अणतरा परंपराए, २ अदीठपणइ पूरव पुरुषे आचरणा भाखी रे, भाखी नहीं साखी निज वाणी करीए, तेहनि एक मानइ नहीं, एक दिग पट कहावई रे कहावई, नई भावइ तिम चालइ वरीये, एक पल्लव करी पडिकमई, एक थापनी उथापई रे. ३ उथापी नइ थापई बोलते निज मतिए निज निज छंदि चालता, इम माहोमांहे निंदइरे निंदइ नइ बंद नहीं ओ मुनि प्रतिओ. ४
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