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(२१) सरस्वति सिद्ध बुद्ध विनवू जो,
स्वामि ! तुमें छो त्रिभुवननाथ जो, प्रभाते उठीने तमने वान्दी जी,
स्वामि ! वेगे वेगे दीयो धर्मलाभ जो,
स्वामिसीमन्धर मुजने मेळवोजी. स्वामि० १ दश दोहिले स्वामि ! हुं रह्योजी,
मारे नयणे जोयु नवि जाय जो, शुं कर स्वामिसीमन्धर वेगळा वस्याजी, - हारे हु तो पांख विना रह्या निराधार जो. स्वामि० २ राग ने द्वेषे स्वामि ! हु भर्यो जी,
मुजने नडीयो नडीयो क्रोध कषाय जो, माया ने लोभे स्वामि ! हु भर्योजी,
___मारी गुंज रही मनमाय जो. स्वामि० ३
मा ने बाप बन्धव कारमाजी,
कारमो कुटुम्ब परिवार जो, आज्ञा विरुद्ध स्वामि ! हु रह्याजी.
मारी कोइए न कीधी सार जो. स्वामि० ४
बेउ कर जोडी स्वामि ! विनवू जो,
हां रे हुं तो मागु चरणनी सेव जो, हां रे हुं तो मांगु मुक्तिनो वास जो,
हां रे हु तो कदीए न आवु गर्भावास जो. स्वामि० ५
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