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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ (सिद्धचक्रपद बंदो- देशी) । श्री सीमन्धर जिनवर स्वामी, विनतडी अवधारो, शुद्ध धर्म प्रगटयो जे तुम्हचो; प्रगटो तेह अम्हारो रे. स्वामि विनवोये मनरंगे. १ जे पारिणामिक धर्म तुम्हारो, तेहवो अहमचो धर्म, श्रद्धाभासन रमण वियोगे, वळग्यो विभाव अधर्मरे ; स्वामि विनवीये मनरंगे. २ वस्तु स्वभाव स्वजाति तेहनो, मूल अभाव न थाय, परविभाव अनुगत परिणतिथी, कमें ते अवराय रे; स्वामि विनवीये मनांगे. ३ जे विभाव ते पण नैमित्तिक, संतति भाव अनादि, परनिमित्त ते विषय संगादिक, ते संयोगे सादि रे; स्वामि विनवीये मनरंगे. ४ अशुद्ध निमित्ते ए संसरता, अत्ता कत्ता परनो, शुद्ध निमित्त रमे जब चिद्घन कर्ता भोक्ता घरनो 'र; स्वामि विनवीये मनरंगे. ५ जेहना धर्म अनंता प्रगटथा, जे निजपरिणति वरियो, परमातम जिनदेव अमोही, ज्ञानदिक गुण दरियो रे; स्वामि विनवीये मनरंगे ६ अवलंबन उपदेशक रीते श्री सीमंधर देव, भजीये शुद्ध निमित्त अनोपम तजीये भव भय रे; स्वामि विनवीये मनरंगे ७ शुद्ध देव अवलंबन करतां परिहरिये परभाव, आतम धर्म रमण अनुभवतां, प्रगटे आतम भाव रे; स्वामि विनवीये मनरंगे. ८ आतमगुण निर्मळ निपजतां, ध्यान समाधि स्वभावे, पूर्णानंद सिद्धता साधी, देवचन्द्र पद पावे रे; स्वामि विनवीये मनरंगे. ९ For Private And Personal Use Only
SR No.008679
Book TitleUd Jare Panchi Mahavideh Mai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherSimandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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