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श्री मेरुनंदनोपाध्यायविरचितम् श्री सीमन्धरसामिजिन स्तवनम्
अतिरसहरिसरसेण विहसिय लोयण मणवयणु थुणिसु भावि नियसामि मीरिसीमंधरु जिनरयणु ॥१॥ जो कप्पूरदलेहिं निम्मइ निम्मलु जिन भवणु । जो नियपायबलेहिं हारावइ चंचलु पवणु ॥२॥ ससहरकिरण करेण धरवि जो य हिंडइ गयणि । अह नियसत्तिवसेण करइ दिवसु फेडिवि रयण ॥३॥ जइवि हु सो वि समत्थु न हु तुह गुणगण संकलणि । कवणमत्त निसत्तु हूऊ मूरससिरि गउडमणि ॥४॥ तहवि हु भत्तिभरेण तरलिऊ विरचिसु संथवणु । जिणि कारणि जिनभत्ति वंछि साहइ नवि कवणु ? ॥५॥ भास--
तं जंबुयदीवह मंडणउ गिरिवरमेरुपवितु, त तसु निवसइ जो पुव्वदिसि महाविदेहु सुखितु त तसु विसिट्ट अट्ठमविजउ पुक्खलवइ इय नामि त तहं विहरइ किरि भुवणगुरो सिरि सीमंधर-सामि ॥६॥ त कणय वण्णुतणु पंचसयधणुहप्पमाण सरीरु त चउतीसइ अइसयसहि मायर जेम गंभीरू त पइदिणु पयपंकयललिय , चउविहदेवनिकाउ त धण्ण ति जे पिक्खहि नयणि सीमंधरु जिणराउ ||७||
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