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पण एमना दासर्नु उपरोक्त रटण तो पछी अ-सीमन्धर (अमर्याद) ज होय. त्यार बाद एनोय जो काभगजेन्द्रादिनी जेम कोई महाभाग्यनो योग होय. तो ए महामोंघा प्रभुनो साक्षात्कार पण थाय.
आपणे पण काई अवा महाभाग्यशाळी कोई दि थई शकी से खरा ? ही.. ही...ही...केवु हस आवे तेवी आ वात छे ? छे ने ? क्यां आपणा जेवा परम पामरो अने कयां से परमेश्वर अने तेभनु मिलन महाविदेहना महेमान शे थई शकाय ? न जई शकाय आकाशमागे के न जई शकाय अवनीमार्गे, पूर्व महर्षिओए से ज वातने एमनां काव्योमा खूब ललकारी छे हो...आ रह्यां ते काव्या"हुँ तो भरतने छेडले, प्रभुजी कई विदेह मोझार हो मुणिंद डुंगर वच्चे दरिया घणा, कांई कोश तो कांई हजार हो मुणिंद
श्री सीमन्धर साहिबा...”
-वाचक रामविजयजी "दुर्गम म्होटा डुंगरा म्हारा व्हालाजी, नदी नाळानो नहि पार जईने कहेजो म्हारा व्हालाजी; घांटीनी आंटी घणी म्हारा व्हालाजी, अटवी पंथ अपार जईने कहेजो म्हारा व्हालाजी."
-वाचक उदयरत्नजी " महाविदेहे रे स्वामी तुमे वसो, पांख नहि मुज पास, किण पेरे आवी पाप आलोई ! मनमा रह्यो विमास"
-अज्ञातकतृक "साहेब सुखदुःखनी वातो म्हारे अति घणी, साहेब कोण आगळ कहु नाथ ? साहेब केवलज्ञानी प्रभु जो मळे, साहेब तो थाउ हु रे सनाथ...एक वार मळोने मारा साहिबा.
-आ. श्री. ज्ञानविमळसूरिजी
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