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(१२) (ऋषभ जिणंदशु प्रोतडी-से देशी) श्री सीमंघर' साहिबा, सुणो संप्रति हो भरतक्षेत्रनी वात के अरिहा केवली को नहि, केने कहीये हो मनना अवदात के
श्री सीमधर० १ झाझु कहेतां जुगतु नहि, तुम सोहे हो जग केवलनाणके; भूख्या भोजन मागतां, आपे उलट हो अवसारना जाण के.
श्री सीमंधर० २ कहेश्यो तुमेत भगतो नहि, जूगताने हो वळी तारे सांई के योग्य जननु कहेवु किश्यु, भावहीनने हो तारो ग्रहो बांहीं के.
श्री सीमंधर० ३ थोडु हि अवसरे आपीये, घणानी हो प्रभु ! छे पछे वात के, पगले पगले पार पामीये, पछी लहीये हो सघळा अवदात के.
श्री सीमंधर० ४ मोडु वहेलु तुमे आपशो, बीजानो हो हुँ न कसै संग के, श्री 'धीरविमळ' गुरु शिष्यनो, रास्त्रीज हो प्रभु अविचळ रंग के.
श्री सीमंधर० ५
(१३) श्री 'सीमंघर' साहिबा, विहरमान भगवंतरे;
जिनशु मन लाग्यो. 'पुक्खलावई' विजया मांहि विचरे अरिहंत रे, जिनशु० १ सोवनवर्ण पणसयधनु मन्दरगिरि सम धीर रे; जिनशु० 'श्रेयांस' नृपति कुळ दिनमणि, मन हीयडाहीर रे, जिनशु० २
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