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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३९. (५८) (स्वामिसीमंधरा विनति) स्वामिसीमंधर पय नमुं, गुण स्तवुं हुं कर जोडी रे; आतम भाव उल्लासथी, पामवा वांछित कोडी रे. स्वामि० दक्षिण भरतमां हुं वसुं प्रभुजी विदेह मोज्ञार रे, , दूर रह्या पण जाणजो, वंदना मुज वारोवार रे. स्वामि० २ कमल रहे जलमा सदा, सूरज रहे आकाश रे. अंतर छे वचमां घणुं, तो पण ते तस पास रे. स्वामि० ३ पोतावट केम जाणीये, जो न करो प्रभु सार दे, अम मनमांहि तुमे वस्या, तरण तारण किरतार रे; स्वामि० ४ आश करे कोई आपणी, मूकीये केम निराश रे, सेवक जाणी पोतातणो दीजीये हर्ष उल्लास रे. स्वामि० ५. गिरुआ होय गुणे भर्या, तस मन होय उदार रे; सेवक अवगुण व जुए, दीये मनवांछित सार में स्वामि० ६ ते कारण जिन अम भणी, आपीये केवळरत्न रे, पामी बहु सुखीया थरयुं, करशु विशेष यत्न रे स्वामि ७ पंडितमांहि शिरोमणि, जिनविजय गुरु सार रे, अमर विजय स्तवे भावथी, जिनवर जग आधार रे. स्वामि० ८ For Private And Personal Use Only अढारसें चौद संवत्सरे, भाद्रव वदि मनोहार रे; पांचम दिन प्रभु में स्तव्या, सीमंधर हितकार रे. स्वामि० ९. ॐ
SR No.008679
Book TitleUd Jare Panchi Mahavideh Mai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherSimandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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