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ढाळ ६ सीमन्धर जिन विनति, अवधारो मोरी, किंकर कर जोडी कर हु सेवा तोरी. सी० १ अम्ह मन प्रेम अखंड ओ, तुम शुजिनराज, अवर भलेरा निज घरे, नहि काई काज. सी० २ मेरु महीधर मूळथी, कंपे कोई काळे, अंबर ग्रह गण पूरीयो, पेसे पायाले. सी० ३ सकल कुलाचल हलहले, महो मंडळ डोले, श्री हरीश्चन्द्र नरिन्द्र ज्यु, जगे जूटुं न बोले. सी० अमृत विष धारा वमे, सागर भू रेले, सूरज पश्चिम उगमे, गंगा हर मेले. सी० तोहे हुं छांडु नहि, तुम शु घणो नेह; मुज मन एक तुमही हल्यु, गिरूआ गुण गेह सी० ६ अभ सरखा सेवक घणा, ताहरे भगवंत; पण अम साहिब एक तुं, तुंही ज अरिहंत. सी. ७
___ दुहा कि कागळ में लिखु, लख लालच बहु लोभ; मिल्या पछी मालुम थशे, चिर थापण चिर थोभ. १ कि बहु मीठे बोलडे, जो मन नहि सनेह; जो मम नेह अछेह तो, एक जीव दो देह. २ किं बहु कागळ में लिखु, घj घणेरू गुज्झ; सेवा निज पद कमलनी, देजो साहिब मुज्झ. ३
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