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-The TFIC Team.
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मध्यप्रान्त, मध्यभारत और
राजपूतानाके . प्राचीन जैन स्मारक।
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संग्रहकर्ताश्री जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर व्र० शीतलप्रसादजी, अनेक ग्रन्थोंके रचयिता, टीकाकार व जैनमित्र तथा वीरके आ० सम्पादक; सूरत ।
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प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़िया-सूरत। " जैनजगत् " के प्रथमवर्षके ग्राहकोंकोश्रीमान साहू सलेखचन्दजी जगमन्दरदासजी गंगवहादुरईस-नजीबाबादकी ओरसे भेंट।
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सन् १९२६ १ प्रति १०००
मूल्य-दुस-आने मात्र। ...minimmmmmmmmmm
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प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़ियो । मालिक, दिगम्बर जैन पुस्तकालय,
चन्दावाही-सूरत।
मुद्रकमूलचन्द किसनदास कापड़िया, 'जनविजय ' प्रि. प्रेस, सपाटिया चकला.-सरत।
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*60801803%€DENIEODX # उपोद्घात । REECE
EDCODE03%E0C00302 __इस पुस्तकके लिखनेका उद्यम सेठ वैजनाथ सरावगी मालिक फर्म सेठ जोखीराम मूंगराज नं० १७३ हरिशनरोड कलकत्ताकी प्रेरणासे हुआ है। इसके पहले बंगाल, विहार, उड़ीसा, संयुक्तप्रांत व बम्बई प्रांतके तीन स्मारक प्रगट हो चुके हैं । इस पुस्तकमें मध्यप्रदेश, मध्यभारत और राजपूतानाके जैन स्मारक जो कुछ 'सर्कारी रिपोर्टसे माल्लम हुए हैं उनका संग्रह कियागया है। मध्यप्रदेशके हरएक निलेका वर्णन जाननेके लिये पुस्तकोंकी सहायता नागपुर म्यूनियमके नायब क्यूरेटर मि० इ० ए० डिरोबू एफ० झेड० एस० तथा मि० एम० ए० सुबूर एम० एन० एस० क्वाइन एक्सपर्टने दी जिनके हम अतिशय आभारी हैं । मध्यभारत और राजपूतानाके सम्बन्धमें अनेक पुस्तकोंके देखनेकी सहायता रायबहादुर पंडित गौरीशंकर ओझा क्यूरेटर म्यूनियम अजमेरने दी जिनके भी हम अति आभारी हैं | Imperial Gazetteer इम्पीरियल गजेटियर आदि पुस्तकोंकी सहायता व एपिग्रेफिका आदि पुस्तकोंके देखनेमें मदद इम्पीरियल लाइबेरी कलकत्ता तथा बम्बई रायल एसियाटिक सोसायटी लाइब्रेरी बम्बईसे प्राप्त हुई है जिनके भी हम अति कृतज्ञ हैं।
इस पुस्तकके पढ़नेसे ज्ञात होगा कि जैनियोंके मंदिर व उनमें स्थापित बड़ी २ मूर्तिये उन स्थानोंमें जैनियोंके न रहनेसे सब किस अविनयकी दशामें हैं।
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(४) हमें विदित होता है कि इन तीनों जिलोंमें सकारद्वारा बहुत कम खोज हुई है। यदि .विशेष .सोज की जावे तो जैनियोंके
और भी स्मारक मिल सक्ते हैं। जो कुछ मिले हैं उनसे यह तो स्पष्ट है कि जैनियोंका प्रभुत्व बहुत अधिक व्यापक या व अनेक राजाओंने जैनधर्मकी भक्तिसें अपने आत्माको पवित्र किया था। जनियोंचा कर्तव्य है कि अपने स्मारकोंको जानकर उनकी रक्षाचा उपाय करें। इस पुस्तक प्रकाश होनेमें द्रव्यनी खास सहायता रायबहादुर साहू जगमंघरदासनी रईस नजीबाबादने दी है इसके लिये हन उनके आभारी हैं।
१०-६-१६
जनधर्मका प्रेमी-७० सीतलप्रसाद।
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9 भूमिका। इस पुस्तकमें ब्रह्मचारीनीने मध्यप्रदेश, नव्यमारत और राजपुताना इन तीन प्रान्तक जन स्मारकोन्ना परिचय दिया है।
मध्यप्रदेश। मध्यप्रदेश दो भागों में क्या हुआ है:-३) मध्यप्रान्त स्वास निसने १८ जिले हैं और (२) वरार निसने चार मिले हैं। मध्यप्रांत खासन्नो गोंडवाना भी कहते हैं कारणकि एक तो यहां गोंडोंची संख्या बहुन है, दूसरे मुसलमानी समयके लगनग यहां अनेक गोंड घरानोंका राज्य रहा है। यह प्रान्त संचतिने बहुत पिछड़ा हुआ गिना जाता है, और लोगोंका स्याल है कि इस प्रान्तका प्राचीन इतिहास कुछ महत्वपूर्ण नहीं रहा, पर यह लोगोंगी भारी भूल है। ययाने भारत प्राचीन इतिहास इस प्रान्त बहुत ऊंचा ज्यान है। प्राचीन यों और शिलान्तोंसे मिद होता है कि यह प्रान्त कोशल देशका दक्षिणी भाग था । इसीसे यह दक्षिणकोमल ऋचा गया है। इसके सर उत्तरकोशल था । दक्षिणोशलका विस्तार उत्तरकोशलो नविक होने कारण उसे महानशल मी कहते थे। कलचुरि नरेशॉक शिलालेखोंने इसका यही नाम पाया जाता है। इस प्रान्तका पौराणिक नान दण्डकारण्य है जो विन्थ्य और सनपुडान रमगीन वनत्यलोंसे व्यात है। रामायण क्या-पुत्व रानचन्द्रने अपने प्रवास के चौदह वर्ष व्यतीत करने के लिये इसी मूमागने चुना था ! उस समय यहां अनेक ऋषि मुनियोंकि आश्रम दे और वानरवंशी राजाओंना राज्य था। वारनीति
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(६) रामायणमें इन राजाओंको पुछल्लेबन्दर ही कहा है, पर जैन पुराणानुसार ये राजा बन्दर नहीं थे, किन्तु उनकी ध्वनाओंपर बानरका चिन्ह होनेसे वे बानरवंशी कहलाते थे । उनकी सभ्यता बढ़ी चढ़ी थी और वे राजनीति, युद्धनीति आदिमें कुशल थे। वे जैन धर्मका पालन करते थे। इन्ही राजाओंकी सहायतासे रामचन्द्र रावणको परास्त करनेमें सफलीभूत होसके थे।
कुछ खोनों और अनुमानोंपरसे आजकल कुछ विद्वानोंका यह भी मत है कि रावणका राज्य इसी प्रान्तके अन्तर्गत था । इसका समर्थन इस प्रान्तसे सम्बन्ध रखनेवाली एक पौराणिक कथासे भी होता है । महाभारत और विष्णुपुराणमें यहांक एक बड़े योगी नरेशका उल्लेख है । इनका नाम था कार्तवीर्य व सहस्रार्जुन । इन्होंने अनेक नप, तप और यज्ञ करके अनेक ऋद्धियां सिद्धियां प्राप्त की थीं । इनकी राजधानी नर्मदा नदीके तटपर माहिष्मती ( मंडला) थी। एकवार यह राजा अपनी स्त्रियोंके साथ नदीमें जलक्रीड़ा कर रहा था । कल्लोलमें उसने अपनी भुजाओंसे नर्मदा नदीका प्रवाह रोक दिया जिससे नदीकी धारा ठिलकर अन्यत्रसे वह निकली। प्रवाहसे नीचेकी ओर एक स्थानपर रावण शिवपूजन कर रहा था । नदीकी धारा उच्ख ल होकर वह निकलनेसे रावणकी सब पुजापनी बह ग । इसपर रावण बहुत क्रोधित हुआ और उसने कार्तवीर्यपर चढ़ाई करदी, पर कार्तवीर्यने उसे परास्तकर कैद कर लिया और बहुत समयतक अपने बंदीगृहमें रक्खा । इसका उल्लेख कालिदास कविने 'अपने रघुवंश काव्यमें इस प्रकार किया है:
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( ७ ) ज्याबंध निष्पन्दभुजेन यस्य विनिश्वसहक्रपरम्परेण । कारागृहे निर्जितवासवेन लंकेश्वरेणोषितमाप्रसादात् ॥ अर्थात् जिस लंकेश्वरने इन्द्रको भी पराजित किया था वही कार्तवीर्यक कारागारमे मौर्वीसे भुजाओं में बंधा हुआ और अपने अनेक मुखोंसे बड़ी२ सांसें लेता हुआ कार्तवीर्यकी प्रसन्नता होनेके समयतक रहा ।
ऐतिहासिक काल में इस प्रांतका सबसे प्राचीन संबन्ध मौर्य साम्राज्यसे था । जबलपूरके पास रूपनाथमें जो अशोक सम्राट्का लेख पाया गया है उससे सिद्ध होता है कि आजसे लगभग अढाई हजार वर्ष पूर्व यह प्रांत मौर्य साम्राज्यके अंतर्गत था । चंद्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहुस्वामी उज्जैनसे निकलकर इसी प्रांतमेंसे होते हुए दक्षिणको गये होंगे । उस समय यहां जैनधर्मका खूब प्रचार हुआ होगा । विक्रमकी चौथी शताब्दिसे लगाकर आगेके अनेक राजवंशोंके यहां शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं। डॉ० विन्सेन्ट स्मिथका अनुमान है कि समुद्रगुप्त अपनी दिग्विजयके समय सागर, जबलपूर और छत्तीसगढ़ में से होकर दक्षिणकी ओर बढ़े थे। उस समय चांदा जिलेमें बौद्ध राजाओंका राज्य था । पांचवी छटवीं शताव्दिके दो राजवंश उल्लेखनीय हैं क्योंकि ये दोनों ही राजवंश भारतके इतिहासमें अपने ढंगके विलक्षण ही थे । इनमें से एक परिव्राजक महाराजा कहलाते थे । जिनका राज्य जबलपुरके आसपास था । दूसरे राजर्षि राज्यकुल नरेश थे जिनका राज्य छत्तीसगढ़ में था । इसी समय जबलपूरके पास उच्छकल्पके महाराजा भी राज्य करते थे । इसकी राजधानी आधुनिक उच्छ
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(८) हरा थी। मध्यप्रांतका सबसे बड़ा राजवंश कलचूरि वंश था जिसका प्राबल्य आठवीं नौवीं शताब्दिमें बहुत बढ़ा । शिलालेखोंमें इस वंशकी उत्पत्ति उपर्युक्त सहस्रार्जुन व कार्तवीर्यसे बतलाई गई है । एक समय कलचूरि साम्राज्य बंगालसे गुजरात
और बनारससे कर्नाटक तक फैल गया था, पर यह साम्राज्य बहुत समयतक स्थायी नहीं रह सका । क्रमशः इस वंशकी दो शाखायें होगई । एक शाखाकी राजधानी जवलपूरके पास त्रिपुरी थी जिसे चेदि भी कहते हैं और दूसरीकी विलासपुर जिलेके रतनपुरमें | यद्यपि कलचूरि नरेशोंका राज्य बहुत समय तक बना रहा, पर तीन चार शताब्दियोंके पश्चात् उसका जोर बहुत घट गया।
कलचूरी नरेश प्रारम्भमें जैनधर्मके पोपक थे । पांचवीं छटवीं शताब्दिके अनेक पाण्ड्य और पल्लव शिलालेखोंमें उल्लेख है कि 'कलभ्र' लोगोंने तामिल देशपर चढ़ाई की और चोल, चेर, 'और पांड्य राजाओंको परास्तकर अपना राज्य जमाया । प्रोफेसर रामस्वामी अय्यन्गारने वेल्विकुडिके ताम्रपत्र तथा तामिल भाषाके 'परियपुराणम्' 'परसे 'सिद्ध किया है कि ये कलभ्रवंशी प्रतापी राजा 'जैनधर्मके पक्के अनुयायी थे ( Studies in south Indian Jainizm P. 53-56) इनके तांमिल देशमें पहुंचनेसे जैनधर्मकी वहां बड़ी उन्नति हुई । इनके एक राजाका नाम या उपनाम "कल्वरकल्वम् ' था । इन नरेशोंके वंशज
अब ‘भी विद्यमान हैं और वे किलार कहलाते हैं। श्रीयुक्त 'अय्यन्गारजीका अनुमान है कि ये किलभ्र' ऑर्य नहीं द्राविण जातिके होंगे, पर अधिक सम्भव यह प्रतीत होता है कि ये
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'कलभ्र' कलंचुरिवंशकी ही 'शाखा होंगे। कलंचुरि संवत् सन् २४८ ईस्वीसे प्रारम्भ होता है । अतएव 'पांचवीं शताब्दिमें इनका दक्षिण पर चढाई करना असम्भव नहीं हैं। अय्यन्गारजीका अनुमान है कि सम्भवतः दक्षिणके जैनियोंने ही शेवंरांनाओंसे त्रासित होकर कलभ्रराजाको दक्षिणपर चढाई करनेके लिये आमन्त्रित किया था। इस विषयपर अभी बहुत थोडा प्रकाश पड़ा है। इसकी खोज होनेकी अत्यन्त आवश्यक्ता है। ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दिका जो उदयगिरिसे 'कलिंगके जैन राजा खारवेलका 'लेख मिला है उसमें खारवेलके ‘साथ 'चेतराजवसवधन' विशेषण पाया जाता है । इसकी संस्कृत छाया 'चैत्रराजवंशवर्धन' की जाती है । पर वह 'चेदिराजवंशवर्धन ' भी हो 'सक्ता है जिससे खारवेलका कलचुरिवंशीय होना सिद्ध होता है । अन्य कितने ही कलचुरि नरेशोंने अपनेको 'त्रिकलिङ्गाधिपति' कहा है । आश्चर्य नहीं जो खारवेलका कलचुरिवंशसे सम्बंध हो । प्रोफेसर शेषगिरिरावका भी ऐसा ही अनुमान है।
(South Indian Jainizm P. 24) मध्यप्रान्तके कलचुरि नरेश जैनधर्मके पोषक थे 'इसका एक प्रमाण यह भी है कि उनका राष्ट्रकूट नरेशोंसे घनिष्ट सम्बन्ध था
और राष्ट्रकूटनरेश जैनधर्मके बड़े उपासक थे। इन दोनों 'राजचंशोंमें अनेक विवाह सम्बन्ध भी हुए थे । उदाहरणार्थ कृष्णराज (द्वि०) ने कोकल्लदेव (चेदिनरेश) की राजकुमारीसे विवाह किया था। कोकलके पुत्र शंकरगंणकी दो राजकुमारियोंको 'कृष्णराजके पुत्र जगत्तुंगने विवाहा था। इसी प्रकार इन्द्रराज और अमोघवर्षने
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(१२)
पाये जाते हैं वे इन्हीं कलचुरियोंकी सन्तान हैं। अनेक भारी मंदिर जो आजतंक 'विद्यमान हैं वे प्रायः इसी गिरती के समयमें 'निर्माण हुए हैं । जैनियोंके मुख्य तीर्थ इस प्रांतमें बैतूल जिलेमें मुक्तागिरि, निमाड़ जिलेमें सिद्धवरकूट और दमोह निलेमें कुंडलपुर हैं । मुक्तागिरि, अपरनाम मेढागिरि और सिद्धवरकूट सिद्ध"क्षेत्र हैं जहांसे प्राचीन कालमें करोड़ों मुनियोंने मोक्षपद प्राप्त किया है । मुक्तागिरिमें कुल अड़तालीस मंदिर हैं जिनमें मूर्तियोंपर विक्रमकी चौदहवीं शताब्दिसे लगाकर सत्तरहवीं शताब्दि 'तकके उल्लेख हैं । इन मंदिरोंमें पांच बहुत प्राचीन प्रतीत होते हैं और सम्भवतः बारहवीं तेरहवीं शताब्दिके हैं । सिद्धवरकूटके प्राचीन मंदिर ध्वंस अवस्था हैं। कुछ मूर्तियोंपर पन्द्रहवीं शताव्दिके तिथि-उल्लेख हैं । कुण्डलपुरके मंदिरोंकी संख्या ५२ है। मुख्य मंदिरमें महावीरस्वामीकी बृहत् मूर्ति है और १७हवीं शताव्दिका शिलालेख है । मंदिरोंसे अलंकृत पर्वत कुंडलाकार है इसीसे इसका नाम कुण्डलपुर पड़ा है, पर कई भाइयोंको इससे 'महावीरस्वामीकी जन्मनगरी कुन्दनपुरका भ्रम होता है। इन तीनों 'क्षेत्रोंका प्राकृतिक सौन्दर्य बड़ा ही चित्तग्राही और प्रभावोत्पादक है।
वरार । • इसका प्राचीन नाम 'विदर्भ' पाया जाता है । पं० तारानाथ तर्कवाचस्पतिने इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की है:-विगताः दर्भाः कुशाः यतः ' अर्थात् जहां 'दर्भ न ऊगे, पर यह निरी व्याकरणकी खींचातानी ही प्रतीत होती है। यह भी दन्तकथा है कि यहां विदर्भ नामका एक राजा होगया है इसीसे इसका
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(१३) नाम विदर्भ देश पड़ा, इसका: समर्थन. 'भागवतपुराण. से. भी होता है । भागवतपुराणके. पांचवे स्कन्धमें ऋषभदेव महाराजका वर्णन है.। वहां कहा गया है. कि.ऋषभदेवने. अपने. कुल.. राज्यके नव हिस्सेकर उन्हें अपने नव पुत्रोंमें वितरण कर दिये। कुश नामके पुत्रको जो भाग मिला वह कुशावर्त कहलाया। ब्रह्मको. जो देश मिला उसका नाम ब्रह्मावर्त पड़ा, इसी प्रकार विदर्भ नामक कुमारको जो प्रदेश मिला वह विदर्भ देश कहलाया। जैन पुराणोंमें ऐसा कथन नहीं है । आजकल इस देशको वहाड कहते हैं। जो विदर्भवा ही अपभ्रंश है, पर वहाडकी- व्युत्पत्तिके विषयमें: भी अनेक दन्तकथायें, अनुमान और-तर्क लगाये जाते हैं। कोई कहता है वरयात्रा ब 'वरहाट' व 'वरात' से बहाड बना है। इसकासम्बंध कृष्ण और रुक्मणीके विवाहकी वरातसे बतलाया. जाता.. है। कोई.वर्धाहार व वर्धातट-अर्थात्.वर्धाके, पासका देशसे वहाडरूप सिद्ध करता है। कोई विराट व.वैराट राजासे. वहाडका सम्बन्ध स्थापित करता है. इत्यादि, पर ये सब निरी कल्पनायें ही प्रतीत होती हैं।
विदर्भ देशका उल्लेख रामायण और महाभारतमें अनेक जगह पाया जाता है । अगस्त्य ऋपिकी पत्नी लोपामुद्रा, इक्ष्वाकुवंशके. राजा सगरकी रानी केशिनी, अनकी रानी इन्दुमती, नलराजाकी . रानी दमयन्ती, कृष्णकी रानी रुक्मिणी, प्रद्युम्नकी रानी शुभांगी, . अनिरुद्धकी रानी रुक्मावती ये सब विदर्भ देशकी ही राजकुमारियां थीं। रुक्मिणी भीष्मक रांजाकी कन्या व रुक्मीकी बहिन . थीं। भीष्मककी.राजधानी कौण्डिन्यपुर थी जिसका आधुनिक बाम
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(१४) कुंडिनपुर है। यह अमरावतीसे लगभग वीस मील है। कहा जाता है कि आधुनिक अमरावती उस समयमें कौण्डिन्यपुरके ही अंतर्गत थी। अमरावतीमें जो अम्बकादेवीकी स्थापना है वह कौण्डिन्यपु-रकी अधिष्ठात्रीदेवी कही जाती है। यहींपर रुक्मिणी अम्बिकादेवीकी पूजा करने आई थीं और यहींसे कृष्णने उसका अपहरण किया था । रुक्मिणीका भाई रुक्मी जब कृष्णसे पराजित हो गया
और रुक्मिणीको वापिस नहीं लेसका तव वह बहुत लज्जित हुआ। लजाके मारे उसने कौण्डिन्यपुरको जाना ही उचित नहीं समझा। उसने एक दूसरे ही स्थानपर अपनी रानधानी बनाई। इसका नाम उसने भोजकट (भोजकटक) रक्खा । इस स्थानका नाम आजकल भातकुली है जो अमरावतीसे लगभग दस मील है। यहां जैनियोंका बड़ा प्राचीन मंदिर है और वार्षिक मेला लगता है।
विक्रमकी ८ वी ९ वीं तथा १०वीं शताब्दिमें विदर्भ क्रमशः चालुक्य और राष्ट्रकूट राजाओंके राज्यमें सम्मिलित था। ये दोनों ही राजवंश जैन धर्मके पोषक थे और इसलिये उक्त शताब्दियोंमें यहां जैन धर्मका खुब प्रचार रहा । कहा जाता है कि मुसलमानोंके आगमनसे प्रथम दशवीं शताब्दिके लगभग वहाडान्तर्गत एलिचपूरमें 'ईल' नामका एक नैनधर्मी राना राज्य करता था। उसने वि० सं० १०००में अपने नामसे ईलिचपुर (ईलेशपुर) शहर वसाया। 'एक बार ईल राजाने एक मुसलमान फकीरके साथ बुरा वर्ताव किया इसका समाचार गजनीके तत्कालीन राजा शाह रहमानके 'पास पहुंचा। उस समय शाह रहमानका विवाह हो रहा था। उनको फकीरके अपमानसे इतना बुरा लगा कि उन्होंने अपना
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विवाह छोड़ ईलराजापर चढाई कर दी । इसीसे उनका नाम दुल्हारहमान पड़ा। दूल्हारहमान और ईलके बीच घोर युद्ध हुआ जिसमें दोनों ही राजा काम आये। मुसलमानोंके ग्यारह हजार योद्धा इस युद्धमें मारे गये, पर अन्त में मुसलमानोंकी ही जीत हुई। युद्धमें मारे गये योद्धा सब एक ही स्थानपर दफन किये गये और उस स्थानपर एक इमारत बनवाई गई। यह इमारत अब भी विद्यमान है और 'गंजीशहीदा' नामसे प्रसिद्ध है । पास ही शाह दूल्हारहमानकी कत्रर भी बनी हुई है ।
उक्त कथाका उल्लेख तवारीख-इ- अमज़दीमें पाया जाता है, पर अन्य कोई पुष्ट प्रमाण इस वृत्तान्तके अभीतक नहीं पाये गये । सम्भव है कि दशवीं शताब्दि के लगभग यहां ईल नामका कोई जैनी राजा राज्य करता रहा हो, पर एलिचपूर उसका बसाया हुवा है यह बात कदापि नहीं मानी जासक्ती । अनेक ग्रंथों और शिलालेखोंमें इस नगरका प्राचीन नाम अचलपुर (अच्चलपुर ) पाया जाता है। इस नगर के पास ही जो मुक्तागिरि नामका सिद्धक्षेत्र है वहांकी कई मूर्तियोंपर यह नाम खुदा हुआ पाया जाता है । यही नाम ' निर्वाणकाण्ड' ग्रंथमें भी आया है; यथा 'अच्चलपुर वरणयरे इत्यादि । अञ्चलपुरका ही अपभ्रंश अचलपुर (एलिचपुर )... है और यह नाम विक्रमकी १२ हवीं शताब्दिमें सुप्रचलित हो गया था | उस समयके एक बड़े भारी वैयाकरण हेमचन्द्राचार्यने अपनी व्याकरण 'सिद्ध हैमचन्द्र' में इस नामकी व्युत्पत्ति करनेके लिये एक स्वतंत्र सूत्रकी ही रचना की है । वह सूत्र है 'अचलपुरे चलो:' । ८, ११८, इसकी वृत्ति करते हुए कहा गया है
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(१६) 'अचलपुरशब्दे चकरलकारयोः व्यत्ययो भवति अचलपुरं || इससे स्पष्ट है कि उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान् ), इतिहासज़ और वैयाकरणा इलराजासे इलिचपुर नामकी उत्पत्तिको स्वीकार" नहीं करते थे ।
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विदर्भ: प्रान्त में संस्कृतके अनेक बड़े२ कवि हो गये हैं । भारचि, दण्डी, भवभूति, गुणाढ्य, हेमाद्रि, भास्कराचार्य, त्रिविक्रमभट्ट, भास्कर भट्ट, लक्ष्मीधर आदि संस्कृत के अमर कवियोंका : विदर्भसे सम्बन्ध बतलाया जाता है । यहांके कचियोंने-प्राचीनकालमें: इतनी ख्याति प्राप्त की थी कि संस्कृत साहित्यमें एका रचनाशैली ही इस देश के नामसे - प्रख्यात हुई | काव्यरचना में 'वैदर्भी रीति' सर्वोच्च और सर्वप्रिय मानी गई है क्योंकि इस रीतिमें प्रसाद, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारत्व आदि गुण- विशेषरूप से पाये जाते हैं । इस देशमें अनेक जैन कवि भी हो गये हैं । ये कवि विशेषतः कारंजाके बलात्कारगण और सेनगणके भट्टारकों में से हुए हैं । इन्होंने धार्मिक ग्रन्थोंकी रचना की है, पर ये ग्रन्थअभीतक प्रकाशित नहीं हुए। वे वहांके शास्त्रभंडारोंमें ही रक्षित हैं । अपभ्रंश भाषाके प्रसिद्ध कवि धनपाल - जिनकी 'भविष्यदत्त कथा ? जर्मनी और बड़ौदासे प्रकाशित हो चुकी है, सम्भवतः इसी प्रांतमें हुए हैं। क्योंकि ये कवि धाकड़वंशी थे और यह जाति इसी प्रांत में पाई जाती है। भविष्यदत्त कथाकी दो अति प्राचीन प्रतियां भी इस प्रान्तकेही अन्तर्गत कारंनाके शास्त्रभंडारोंमें-पाई गई हैं । बुडाला जिलेके मेहकर (मेघंकर) नामक ग्रामके बालाजीके मंदिरमें एक खंडित जैन मूर्ति संवत् १२७२ की है जिसे
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(१७)
आशाघरकी स्त्री पद्मावतीने प्रतिष्ठित कराई थी ( ० ५० ) । संवत् के उल्लेखसे अनुमान होता है कि सम्भवतः ये आशाघर उन प्रसिद्ध जैनाचार्य 'कलिकालिदास' आशाधरजीसे अभिन्न हैं, जिनके बनाये हुए ग्रन्थोंका जैन समाजमें भारी आदर है । ये आशाधर । वघेरवाल जातिके थे और राजपूताना में शाकम्भरी ( साम्हर ) के निवासी थे । मुसलमानोंके त्राससे वे वि० सं० १२४९ में धारानगरीमें और वि० मं० १२६५ में नालछे (नलकच्छपुर) में आ गये थे । उनके वि० सं० १३०० तकके बने हुए ग्रन्थोंमें नलकच्छपुरका उल्लेख मिलता है, पर मेहकर की मूर्तिके लेखपरसे अनुमन होता है कि वि० सं० १२७५ के लगभग आशाधरजी विदर्भ प्रान्तमें ही रहे होंगे । वे वधेरवाल जाति के थे और इस जातिकी चरारमें ही विशेष संख्या पाई जाती है। उनकी स्त्रीका नाम अन्यत्र सरस्वती पाया जाता है, पर सरस्वती और पद्मावती पर्यायवाची शब्द हैं अतः उनका तात्पर्य एक ही व्यक्तिसे हो सक्ता है । यह भी अनुमान होता है कि सम्भवतः आशाधरनी जब बरारमें थे तभी उन्होंने अपने 'मूलाराधनादर्पण' नामक टीका ग्रन्थकी रचना की थी । इस ग्रन्थका उल्लेख उनके वि० सं० १२८५ से लगाकर १३०० तकके बने हुए ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में पाया जाता है और वि० सं० १२७५के पूर्व के ग्रंथोंमें नहीं पाया जाता । इस ग्रंथकी प्रति भी अबतक केवल वरार प्रान्तान्तर्गत कारनामें ही पाई गई है, अन्यत्र नहीं । इन सब प्रमाणोंसे सिद्ध होता है। कि. आशाधरजीने वि० सं० १२७५ के लगभग कुछ काल वरार . प्रान्त में निवास किया और ग्रन्थ रचना भी की ।
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(१८)
बरार प्रान्त में जैनियोंका मुख्य स्थान अकोला जिलेमें कारंजा है । यहां लगभग चार पांचसौ वर्ष से दिगंबर संप्रदायके भिन्न २ तीन गणोंके पट्टोंकी स्थापना है । बलात्कारगण, सेनगण और काष्टासंघ, इन तीनों ही गणोंके मंदिरोंमें एक२ शास्त्रभंडार है । बलात्कार गण और सेनगणके मंदिरोंके शास्त्रभंडार बड़े ही विशाल और महत्वपूर्ण हैं । इनमें अनेक अप्रकाशित और अश्रुतपूर्व संस्कृत, प्राकृत च हिन्दीके ग्रन्थ हैं । इनका उद्धार होनेकी बड़ी आवश्यक्ता है। अकोला जिले में दूसरा जैनियोंका " पवित्र स्थान सिरपुर है जहां अन्तरीक्ष पार्श्वनाथका मंदिर है ।
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मध्यभारत ।
मध्यभारतके अन्तर्गत अनेक अत्यन्त प्राचीन और इतिहास प्रसिद्ध स्थान हैं । अवंती देशकी गणना भारत के प्राचीन से प्राचीन राज्यों में की गई है । जिस दिन अन्तिम तीर्थंकर महावीरस्वामी - का मोक्ष हुआ था उसी दिन अवन्ती देशमें पालक राजाका अभिषेक हुआ था । जैन ग्रंथोंके अनुसार मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भी अधिकांश अवन्ती (उज्जैनी) नगरीमें ही निवास करते थे । श्रुतकेवली भद्रबाहुने उज्जैनीमें ही प्रथम द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके चिन्ह देखे और चंद्रगुप्तको तत्सम्बंधी भविष्यवाणी सुनाई। चंद्रगुप्त सम्राट्ने यहां ही उनसे जिनदीक्षा लेली और यहांसे ही मूल जैन संघकी वह
* कारंजा और वहांके गण व शास्त्र भंडारोंका विशेष परिचय प्राप्त करने के लिये देखो:- १) दिगम्बर जैन खास अंक वर्ष १८ वीर सं० २४५१ 'कारंजा' वहांके गण और शास्त्रभंडार (२) सी० पी० गवन्भेन्ट द्वारा प्रकाशित - Cutlogue of Sanskrit - Prakrit Msg. 1. C. 1' & Berar.
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(१६) दक्षिण यात्रा प्रारम्भ हुई जिसका केवल जैनधर्मके ही नहीं भारतवर्षके इतिहासपर भी भारी प्रभाव पड़ा। विक्रमादित्य नरेशके सबन्धमें आधुनिक विद्वानोंका मत है कि विक्रम संवत्के प्रारम्भ कालके समय किसी उक्त नामके रानाका ऐतिहासिक अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, पर जैन ग्रन्थोंमें महावीरस्वामीके ४७० वर्ष पश्चात् उनैनीके राजा विक्रमादित्यका उल्लेख मिलता है व उनके जीवनकी बहुतसी घटनायें भी पाई जाती हैं । 'कालिकाचार्य कथानक' के अनुसार विक्रमादित्यने महावीरस्वामीसे ४७० वर्ष पश्चात् विदेशियों (शकों से युद्धकर उन्हें परास्त किया और अपना सम्बतू चलाया। इसके १३५ वर्ष पश्चात शकोंने विक्रमादित्यको हराया और दूसरा संवत् स्थापित किया । स्पष्टतः उक्त दोनों संवतोंका अभिप्राय क्रमशः विक्रम और शक संवत्से है, पर इन संवतोंके चीच १३५ वर्षका अन्तर होनेसे शकोंके विजेता विक्रम और उनसे पराजित होनेवाले विक्रम एक नहीं माने जासक्ते । जो हो पर अनेक जैन ग्रन्थ यह प्रमाणित करते हैं कि उस समय एक बड़ा प्रतापी विक्रमादित्य नामका नरेश हुआ है जो जैनधर्मावलम्बीथा। इसका समर्थन इस बातसे भी होता है कि 'वैताल पंचविंशतिका' 'सिंहासन द्वात्रिंशिका' आदि विक्रमादित्यसे सम्बन्ध रखनेवाले कथानक जैनियोंने ही विशेष रूपसे अपने ग्रन्थ भंडारोंमें सुरक्षित रक्खे हैं।
गुप्तवंशी राजाओंके समयमें यद्यपि जैनधर्मको विशेष उत्तेजन नहीं मिला, तथापि राज्यमें शांति होनेसे उसका प्रचार होता रहा। इसी समयमें 'हूग ' जातिके विदेशी लुटेरों कमणसे देश की भारी क्षति हुई और मध्यमारतमें जैन धर्म को विशे। हानि हुई।
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(२०) जैन ग्रंथों में इस समयके 'कल्कि' नामक रानाके निर्ग्रन्थ मुनियोंपर भारी अत्याचारोंका उल्लेख है। उत्तरपुराणमें कहा गया है कि उसने परिग्रहरहित मुनियोंपर. भी कर लगाया था। कुछ विद्वान इस करिकराजको हूणवंशी, 'महा दुराचारी मिहिरकुल ही अनुमान करते हैं । कल्किका अधर्मराज्य बहुत समयतक नहीं चला-४२ वर्षके अधर्म राज्यसे भूतलको कलंकितकर कल्कि कुगतिको प्राप्त हुआ और उसके उत्तराधिकारियोंने पुनः धर्मराज्य स्थापित किया ।
नौवीं दशवीं शताब्दिसे मध्यभारतमें जैनधर्मकी विशेष उन्नति हुई और कीर्ति फैली। 'धारा के नरेशोंने जैन धर्मको खूब अपबाया, 'महासेनसूरि ' ने मुज्जनरेशसे विशेष सन्मान प्राप्त किया और उनके उत्तराधिकारी सिन्धुरानक एक महासामन्तके अनुरोधसे उन्होंने 'प्रद्युम्नचरित' काव्यकी रचना की । ग्वालियर रियासतके शिवपुर परगनान्तर्गत दूवकुंडसे जो सं० ११४५का शिलालेख मिला है उसमें तत्कालिक राजवंश परिचयके अतिरिक्त 'लाटवागट' गणक आचार्योकी परम्परा दी है। इस परम्पराके आदिगुरु देवसेन कहेगये हैं (ए० ७३-७७)। ये देवसेन संभवतः वे ही हैं जिन्होंने संवत् ९९०में दर्शनसार नामक एक जैन ऐतिहासिक ग्रंथकी रचना की थी। इनके बनाये हुए संस्कृत, प्राकृत और भी अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं ! भोजदेवके समयमें अनेक प्रसिद्धर जनाचार्य हुए हैं । ब्रह्मदेव टीकाकारके अनुसार द्रव्यसंग्रह ग्रंथके रचयिता नेमिचन्द्राचार्य भोगदेवके दरबारमें थे। नयनंदि आचायेने अपना अपभ्रंश भाषाक, एक काव्य 'सुदर्शनचरित्र' भी इन्हींके राज्यमें सं० ११००में समाप्त क्रिया था जैसा उसकी प्रशस्तिमें है:
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(२१) 'तिहुवर्णनारायणसिरिनिकेउ, तहिं णरवरु पुंगमु भोयदेउ । णिव विक्कमकालहो ववगएसु, एयारह संवच्छरसएसु ।। तहि केवलिचरिउ अमच्छरेण, प्रयणंदिय विरइउ वच्छरेण |
तेरहवीं शताब्दीमें आशाधरनी राजपूतानेसे मुसलमानोंके भयसे धारामें आगये थे। धारा और नालछेमें रहकर ही उन्होंने अपने अधिकांश ग्रंथोंकी रचना की। यह समय जैनधर्मकी खूब समृद्धिका था। भेलसाके समीपको 'वीसनगर' जैनियोंका बहुत प्राचीन स्थान है। वह शीतलनाथ तीर्थकरकी जन्मभूमि होनेसे अतिशयक्षेत्र है। जैन ग्रंथोंमें इसका नाम भद्दलपुर पाया जाता है । भट्टारकोंकी गद्दी यहींसे प्रारम्भ होकर मान्यखेट गई थी। इसी समय मध्यभारतमें विशेषतः बुन्देलखण्डमें अनेक जैन मंदिर निर्मापित हुए जिनके अब अधिकतः खण्डहर मात्र शेष रह गये हैं। खजराहाके प्रसिद्ध जैन मंदिर इसी समयके हैं । आगामी तीन चार शताब्दियोंमें मंदिरनिर्माणका कार्य खूब प्रचुरतासे जारी रहा, बड़े२ सुन्दर कारीगरीके मंदिर बनगये और अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठायें हुई। सोनागिरि (दतिया) वड़वानी, नयनागिरि (पन्ना), द्रोणगिरि (बीनावर) आदि अतिशय क्षेत्र इसी समय अनेक मंदिरोंसे अलंकृत हुए । सत्तरहवीं शतादिसे यहां जैनधर्मका ह्रास होना प्रारम्म हुआ। जहां किसी समय हजारों लाखों जैनी थे वहीं अब कोसों तक अपनेको नैनी कहनेवाला ढून्ढ़नेसे नहीं मिलता । वहां अब जैनधर्मका पता उन्हीं मंदिरोंके खण्डहरों और टूटीफूटी हजारों जिनमूर्तियोंसे चलता है।
राजपूताना। जैनधर्म ऑदिसे क्षत्रियोंका धर्म रहा है, और इसलिये इसमें
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(२४)
जैन समाजमें अन्यत्र तो क्षत्रियत्व बहुत समय से लुप्त हो गया पर राजपूताने में वह अभी २ तक बना रहा है। राजत्व, मंत्रीत्व और सेनापतित्वका कार्य जैनियोंने जिस चतुराई और कौशलसे चलाया है उससे उन्होंने राजपूतानेके इतिहासमें अमर नाम प्राप्त कर लिया है । आदिनाथ मंदिरके निर्मापक विमलशाहने भीमदेव नरेशके सेनापतिका कार्य बहुत अच्छी तरहसे किया था । सोलहवीं शताव्दिमें अकरके भीषण षड्यंत्र जाल में फंसे हुए राणा प्रतापसिंहका उद्धार जिन भामाशाहकी अतुल द्रव्य और चतुराईसे हुआ था वे ओसवाल जातिके जैनी ही थे । अपने अनुपम स्वदेश प्रेम और स्वार्थ त्यागके लिये यदि भामाशाह मेवाड़के जीवनदाता कहे जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी । सन् १७८७के लगभग मारवाड़के महाराजा विजयसिंह के सेनापति और अजमेर के सूवेदार डुमराजने मरहटोंके प्रति घोर युद्धकर अपनी वीरता और स्वामिभक्तिका अच्छा परिचय दिया था । ये ड्रमराज भी ओसवाल जैन जातिके सिंघी कुलके नररत्न थे । इसी प्रकार गत शताव्दिके प्रारम्भिक भाग में वीकानेर राज्यके दीवान और सेनापति अमरचंद्र जीने भटनेरके खान जन्ताखांको भारी शिकस्त दी थी तथा अनेक युद्धों में अपनी वीरताका अच्छा परिचय दिया था । सन् १८१७ ईस्वीमें पिंडारियोंका पक्ष करनेका झूठा दोष लगाकर उनके शत्रुओंने उनके असाधारण जीवनकी असमय ही इतिश्री करा डाली । ये भी ओस1 वाल जैन जातिके वीर थे । और भी न जाने कितने जैन वीरोंके वीरतापूर्ण जीवनचरित्र आज इतिहासकी अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हैं। इन्हीं शताब्दियों में राजपूतानेने ही ढूंढारी हिन्दी के कुछ ऐसे भारी जैन
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२५ )
धार्मिक विद्वानोंको पैदा किया जिन्होंने संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंपर हिन्दी में टीका और भाष्य लिखकर जनताका भारी उपकार किया है । इनमें जयचंद्र, किसनसिंह, जोधराज, टोडरमल, दौलतराम, सदासुखजी छावड़ा आदिके नाम प्रख्यात हैं जिनका अधिक परिचय देनेकी आवश्यक्ता नहीं । राजपूताने में अनेक जगह जैसे - जैसलमेर, जयपुर आदिमें प्राचीन शास्त्रभंडार हैं जिनका अभीतक पूरा२ शोध नहीं हुआ है । वह दिन जैन संसारके लिये बड़े सौभाग्यका होगा जब प्राचीन मंदिरों, खण्डहरों, मूर्तियों, शिलालेखों और ग्रन्थोंके आधारपर जैन धर्मके उत्थान और पतनका जीता जागता इतिहास तैयार होकर विद्वत्समाजके सन्मुखं रक्खा जासकेगा। ब्रह्मचारीजीकी संकलित की हुई इन प्राचीन स्मारकोंकी पुस्तकोंको पढ़कर पाठकोंके हृदयमें यह भाव उठे बिना नहीं रहेगा कि :--
" अबतक पुराने खंडहरोंमें, मंदिरोंमें भी कहीं,
बहु मूर्तियां अपनी कलाका पूर्ण परिचय दे रहीं । प्रकटा रही हैं भग्न भी सौन्दर्यकी परिपुष्टता,
" दिखला रही हैं साथ हीं दुष्कर्मियोंकी दुष्टता ॥ १ ॥ यद्यपि अतुल, अगणित हमारे ग्रन्थ - रत्न नये नये, बहु वार अत्याचारियोंसे नष्टभ्रष्ट किये गये ।
पर हाय ! आज रहींसहीं भी पोथियां यों कह रहीं, क्या तुम वही हो, आज तो पहचानतक पड़ते नहीं ॥ २ ॥
हीरालाल जैन ।
गांगई । २९-९-२६
}
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सूचीपत्र । प्रथम भाग-मध्यप्रान्त। [8] मांडला जिला
(१) जबलपुर विभाग १० ) ककेगमठ मंदिर... २१ [सागर जिला
(२) देवगांव ... ... (१) एरन प्राम ...
(३) रामनगर (२) सुरई ...
[५] सिवनी जिला (3) पंडा ...
(1) चावरी ... (४) बीना ...
(२) उगरा ... () गढ़ाकोटा
(8) धनसोर ... (९) सागर ...
(७) लखनादोन (७) मदनपुर ...
(५) मिषनी शहर ... " [२] दमोह जिला
(२) नर्वदा विभाग। (1) कुंडलपुर क्षेत्र
[६] नरसिंहपुर जिला २४ . (२) नोहटा ...
(i) बरहटा ... ... " (३) सिंगोरगढ़
(२) तेंदूखेड़ा ... ... , [शजवलपुर जिला (1) जबलपुर शहर
७] हुशंगाबाद जिला ... (२) वहरीबंद
(१) मुहागपुर ... (३) पदगांव ...
(२) टिमरणी ... (४) दैमापुर ...
[८] निमाड़ जिला (५) कढीतलाई
(1) खंडवा ...
(२) वरहानपुर (७) तिवार ... (6) भुमार ...
(४) मानधाता ... (७) पटनीदेवी
(:) सिद्धवरकूट ... (१०) विलहारी [6] बेतूल जिला... ... (११) रूपनाय ...
(१) कमली फनोजिया . (१२) मरहुत ... ... (२) मुक्कागिरि तिछेत्र ।
(९) मझोली ...
...
३) असीरगढ़
...
"
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(२७) [१०] छिंदवाड़ा जिला ३१ [१७] रायपुर जिला ... ३८
(१) छिंदवाड़ा ... ३२ (1) आरंग ... ... ३९ (२) मोहगांव... ... " (२) बड़गांव ... ...
(३) नीलकंठी ... (३) कुर्ग या कुंवर... (३) नागपुर विभाग- ३३
(४) सिरपुर ... ... [११] वर्धा जिला .... "
(५) रायपुर ... ... देवली
(६) डूंगरगढ़ ... ...
(७) मालकम ... [१२] नागपुर जिला
कलचूरी वंश ... " (१) रामटेक ... (२) पर मिषनी
[१८] विलासपुर जिला ४२ (3) सावरगांव
(१) रतनपुर ... ... , (४) उमरेरनगर
(२) अदभार ... ... (६) नागपुर ...
(३) धनपुर ... ... ४३
(४) खरोट ... ... " [१३चांदा जिला ... ३५
(५) मलतर या मलतार ४३ (१) भांड़क ... ...
(९) तुमन ... ... ४४. (२) देवलवाड़ा ... " [१४] भंडारा जिला ... ३६
[१६] संबलपुर जिला , (१) अदयाली या भक्ष्यार ,
[२०) सरगुजा राज्य ... , [१५] बालाघाट जिला ३७
रामगढ़ पहाड़ी ... , (१) भीरी ... ... (६) वरार विभाग ४६ (२) बारासिवनी (२१) अमरावती जिला ...४७ (3) जोगीमदी
(१) भातकुली ... ... , (४) धनमुआ ... (२) जारद ... ..."
(६) धीपुर ... ... (२२) एलिचपुर जिला, ... " (४) छत्तीसगढ़ विभाग-३८ . (१) एलिचपुर ... ..., [१६] दुग जिला ... , (२३)पेवतमाल या ऊन जिला 86 . . नागपुरा ... ... . (१) कलम ... ... ,
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________________
E
(२८) (8) अकोला जिला ... ४८ (१४) उजेन ... ११
(१) नरनाल ... ... (१५) अमनचार ... " (२) पातूर ... ...
(१६) अटेर परगना भिंढ , (3) सिरपुर ...
(१७) वरई ... ... ७२ (3) तिलहारा... ...
(१८) भैरोगद ७२ (२५) वुलडाना जिला ...
(१९) भोरासा ... () मेहकर ... ... (२०) दृकुंड-लेख जायस(२) सातगांव... ...४१
वाल जाति संस्कृत
उल्थासहिंत ... ७४ दूसरा भाग-मध्य भारत। ।
(21) गढवल ... ८५ (१)वधेलखंड विभाग ५६
(२२) खिलचीपुर ... , (२) बुन्देलखंड , ५७/ (२४) कोटवल या कुटवार . (३) गोंदवाना प्रदेश
(१४) मऊ (४) मालवा ... ... ५६ (२५) पानविहार ... ८९ पश्चिमी छत्रप ...
(२१) राजापुर या मायापुर , [१] ग्वालियर रेजिडेन्सी
(२७) सुहानिया या (१) वाघ ... ... १२
सोनिया ... (२) बरो ... ... (२८) मुन्नरसी ... (a) मिलमानगर
(२५) सुसनेर (४) बीशनगर ... "
१३.) तेरही ... (५) चंदेरी ... ... ६३ (३१) उनचोड ... (५) ग्वालियरका किला (३२) उन्दास (७) ग्यारसपुर ... (33) सारंगपुर (८) मंदसोर नगर ... [२] इन्दौर एजन्सो (१) नरोद ... ... (१) धपनेर गुफाएं ... (१०) नरवर नगर ... " (२) महेश्वर ... ... (११, शुजालपुर
(३) उन ... (१२) उदयपुर
(४) विजधार या (१३) उदयगिरि ...
दिजावड़
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.
.
.
(५) चोली ...
[४] पथारी राज्य ... १०१: (९) देहरी ... 1५] टोकराज्य सिरोजनगर , (७) देपालपुर
६] देवास राज्य ... १०२ (८) ग्वालनघाट
(१) सारंगपुर ... ... (९) झारदा ...
(२) मनासा ... ... (१०) कथोली
(३) नागदा ... (11) कोहल ... " [७] सीतामऊ राज्य ... , (१०) कोथड़ी
6] पिरावा ऐट... (१३) माचलपुर [B] नरसिंहगढ़ थेट (१४) मोरी ... ... " (१) विहार ... ... १०४ (१५) नीमावर
(२) छपेरा ... ... (१६) गयपुर ...
(३) पाचोर ... ... (१७) संदलपुर
[१०] जावरा राज्य ... " (१८) सुन्दासी
[२१] राजगढ़ . , ... १०५ (१८) पुरागिलन [१२] सैलाना , ... " (२०) चैनपुर ... [२३/ भोपावर एजन्सी (२) संधारा ... ...
धार राज्य ... " (२२ कियुली...
(१) धारानगर ... . (२३) कुकदेश्वर
(२) मान्दोर या मान्दोगढ़ १०७ (२४) राजोर ... ... . (३) करोड़ ... ... १०८ [३] भोपाल एजन्सी ....
(४) सादलपुर... ... .. (१) भोजपुर...
(५) तारापुर ... ... " (२) आतापुरी ... (3) जामगढ़
[१४] बड़वानो संज्य ... १०८
... , नगर ... " ४) महलपुर (५) नरवर ...
[१५] भावुआ राज्य ... १०६ (८) शमसगढ़ ... .
। [१६].ओरछा , ... ११० (७) मुला ... ....
,, "
(१), ओरछा नगर ... १११ (८) सांची ... ... , . (२) महार .... ...
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(a) जटारिया
...
100
(४) पपौनी - पम्पापुर ... [१७] - दतिया राज्य (१) सोनागिरि
[१८] पन्ना राज्य (१) नयनागिरी या रेशिंदे गिरि (२) सिंगोरा
400
(१६) अजयगढ़ राज्य
अजयगढ़ गढ़
(२०) छतरपुर राज्य (१) खजराहा
(२) छत्रपुर नगर (२१) बीजावर राज्य
. (२२) रीवां राज्य (1) अमरकंटक (२) वाघोगढ़
...
(3) सुहागपुर... (४) रीवां नगर (५) अल्दाघाट - (६) भूमकहर (७) गूर्गी मसौन
...
690
***
...
...
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...
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११२ (१) उदयपुर राज्य
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૧૨૧/
...
(८) मुकंदपुर (४) मार या मूरी (१०) पाठी : ( ११ ) वियावान :
660
(२३) नागोद या उछहराराज्य,
.."पटेनी देवी
... १२३]
"
૧૨૨
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"
13
(२४) नसो राज्य
तृतीय भागं -- राजपूताना
"
(६) कंकरोली
(७) कुंभलगढ़
(८) नाथद्वारा
(e) रिषभदेव
(१०) उदयपुरशहर
(११) नागदा
(१२) पुर (13) दिलवाड़ा
(१) अहार (२) विजोटिया (3) चित्तौड़, जैन स्तम्भ १३३ (४) नगरी
132
૧૪૧
(५) घेार झील
૧૪૨
૧૪૨
994
(१४) मांडलगढ़ (१५) करेडा
(१६) कैलवाड़ा
(१७) नादलाई (१८) नाडोल
(२) वांसवाड़ा राज्य (1) अर्पूणा (२) कलिंजरा
(३) परतापगढ़ राज्य वीरपुर
...
(8) जोधपुर राज्य (१) वाली
...
638
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૧૪૯
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१५१
૧૫૩
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(२) भीनमाल (2) मांढोर (४) नांदोल (५) मांगलोद
...
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(६) पाकरन नगर
(७) रानापुर (८) सादड़ी नगर
...
(१८) सांभर (२०) संचोर . (२१) नाना (२२) वेलार (२३) हथंडी (२४) सेवाड़ी (२५) घाणेराव
235
...
640
...
(e) कापरदा
...
(१०) पाड़ (११) वारलई (१२) दीडवाना नगर ... ( 13 ) जसवंतपुरा
...
: : :
(२६) वरकाना (२७) सांडेराय
4.0
(२८) शेरटा... (२८) बालोर (२०) केदि
...
:
...
905 33
8.5
4
...
(१४) घटियाला (१५) ओसियां या उकेसा (१६) बाडमेर
- (१७) मेड़ता नगर (१८) पालीनगर
230
...
...
...
...
...
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100
...
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... १६३
39
૧૫૯
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...
(2), (२) लोद्रवा १५८ (६) सिरोही राज्य (1) नांदिया (२) झारोली (3) मीरपुर (४) मुंगयला ...
(५) पाटनारायण.
33
૧૬૦
૧૬
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૧૬૪
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૧૬૫
(२१) बड़ळू (३२) उनोतरा
(३३) सुरपुरा (३४) नदसर (३५) जसोल
( ३६ ) नगर
(३७) खेड़
(३८) तिवरी (३८) फालोदी (५) जैसलमेर राज्य
नगर
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...
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(१) ओर (७) नीतोरा (८) कोजरा
(९) शमवारी
(१०) बाल:'
(११) को (12) पाटी (13) वागिण (१४) ऊधमन
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(१०) कालन्द्री (१८) दरख (१२) बीगल
...
(२३) जारी
(२४) वसंतर
(२५) या
(२९) कामरा (२५) पट्टा
(२८)
(२४) विवर (30) दापो
(३९) इश
(32) सपुर
(३)
(२०) वरम
***
(२१) सिरोही का सिम्पा
(२२) दार
(३४) वाप (34) केरा
***
(७) जैपुर रज्य (1) भाम्बेर (२) - वरैट
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642
***
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***
(३) चाट या चा
(४) झंझनू (५) मंडेला
(3) नराज
...
487
...
...
476
---
...
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644
(३९) आबू परवत ... (२०) अचलगढ़ (३८) ओरिवा
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31
2
33
37
(७) सांगानेर...
८) पुररुहर
(1)
(८) किशनगढ़ राज्य
(1) रुनगर
(२) अई (६) वृन्दी दारिया पाटन
(१०) टोंक सिरोजनगर ...
(११) भरतपुर राज्य
(1) कना
(२. कामा (१२) कोटा
१.
...
...
...
(१६) अजनेर
400
...
(१) कंवाप्राम
(२) रामगड (2) वारां
***
...
...
48
चंद्रवती (१४) बीकानेर राज्य
(1) बीकानेर
(२) रेशी
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(१५) अलवर राज्य
(1) राजा नगर
(२) पारनगर...
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---
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(४) मड
(५) बुरा...
(१६) मालावाड़ राज्य
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________________
:
नं० १६का अवशेष। । . वांसवाड़ा राज्यकर्लिजरा १९२ कटरा ... ... ... १८५%
तलवाडा ... ... " । मुंगपला ...
मुंगरपुर राज्य रोड़ा , सिरोही राज्य
पांसवाड़ा अरथूणा ... " (१) पिंडवारा...
डुंगरपुर आंत्री ... " (२) झरोली ...
सन् १९१६ (३) मुंगथना ...
ढुंगरपुर राज्य अपरगांव , (४) कपरदन ... सन् १९१७ (५' पालरी ... ... "
वांसवाड़ाराज्य नोगमा १९१७, सिरोही राज्य १९१०-११ १६०, सन् १९१८ . (१) दम्मानी... ... १९० उदयपुर केलवा ... "
(२) कालागरा ... . पांसवाड़ा अरथूणा ... १९३ सन १९११-१२
वांसवाड़ा राजनगर ... " दारली
सन् १९१६ भरतपुर राज्य ...
अजमेर बढाई दिन झोपड़ी ५९४ टटी. ...
अलवरराज भनपगढ़ ... " वघेरा राज्य ...
अलवर ... ... ... " सिहोर राज्य ... ... १६१
अलपर अजवगढ़ ... (1) गटयाली ...
| सन् १९२० (२) नांदिया ... ... सन् १९१२-१३
अलवर राज्यमें ... झालरापाटन शहर ... "
(१) नौगमा ... राज्य गंगधार ... ... "
(२) सुन्दाना ... • सन् १९१४
(8) खेड़ा', ... भरतपुर क्याना ... "
(४) नौगमा ... मेवाड़-अहार ... ... "
(५) मौजपुर... सन् १६१५
(६) खेड़ा ... डुंगरपुर राज्य वरोड़ा १९१ (७) नौगमा ...
अजमेर पुष्सरसे
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(३४) (८) नोगा ... ...
सन् १९२३ (५) लक्मणगढ़ ...
(1) चित्तार ... २०० (१०) अलवर शहर ... ..
(२) महरोली
... " (11) मौजीपुर ... , सन् १९२४ (२) लक्ष्मणगढ़ ... (1) सिरोहीराज्य नांदिया २०१
(१३) , .... १५७, (२) , वनंतगढ़ , सिरोहीराज्य सिरोही १६७
(8) उदयपुर दिलवाड़ा ,
भजनेर मड़वारा गभटियरले, सन् १९२१
दिन डायरेक्टरीसे अवशेष। (१) भजमेर ... ... " (२) घारके वधनोर ... "
माहार ... ... ... २०३ (३) जैपुर
कुरलपुर ... ... !
नेत्र कुंडनपुर ... सिरोही राज्य सन् १९२२
गंदावल परतापगढ़ राज्य ...
तालनपुर परतावगढ़ मंदिर ...
चनेडा ... ...
चांदन्ही ... परतापगढ़ देवलिया ... " चौरदेवर ... .", साधबारा मंदिर না থানা। " झांमदी ...
महोत्रा ...
प्याला
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७
१५४. १६५ १६६ १६८ १६९ १७०
(३६)
कोरता 'वारलू जासोल लोडवरा
१४
मुंगथल
३
पतनारायण बलदा कलार पालदी बागिन उथमन जावल कातन्द्री
कोरटा वडल्लू जसोल लोदुवा मुंगथला पाटनारायण बालदा कोलर पालडी बागिण ऊथमन जावाल कालन्द्री उदरट वरमाणा कायदा दन्ताणी हणाद्रा सणपुर सोवेरा आसरान नराणा मुकंदरा
उदरत
बरमन
कामद्रा दत्ताणी हणाद्री सणापुर सीवरा असराज
+
१७६ १८० १८५
२३ १९. १६
नरैना
मुकंद्वारा
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मध्यप्रान्त, मध्यभारत और राजपूतानाकेप्राचीन जैन स्मारक।
प्रथम भाग-मध्य प्रान्त। Imperial Gazetter of India C. P. (1908). भारतके बादशाही गजटियर मध्य प्रांत (१९०८) से जो समाचार, विदित हुआ है उसको मुख्यतया ध्यानमें लेकर मध्य प्रांतका वर्णन प्रारम्भ किया जाता है। बीच २ में और पुस्तकोंका वर्णन भी आयगा। बहुतसा मसाला हरएक जिलेके गजटियर, मध्य प्रान्तका इतिहास और कौजन साहबकी रिपोर्टसे लिया गया है। जबलपुर जिलेमें रूपनाथपर महाराजा अशोकका शिला स्तंभ है जिससे प्रमाणित है कि महाअशोककार राज्य मध्यप्रांतके इस भागमें था। सागर जिलेके एरन स्थानपर चौथी या पांचमी शताब्दीके लेखोंसे प्रगट है कि यहां मगधके गुप्तवंशके पीछे श्वेत हून तूरानियोंने राज्य किया। शिवनी और अजन्टाकी गुफाके लेखोंसे जाना जाता है कि वाकातक वंशने शतपुरा और नागपुरके मैदानोंपर तीसरी ____ * यह जैन सम्राट चन्द्रगुप (जो श्री भद्रवाहु श्रुतकेवलीके शिष्य मुनि होगए थे) का पोता था वह अपने राज्यके २९ वर्षतक जैनी रहा फिर वौद्ध होगया था । यह अहिंसाका प्रचारक था । .
१ वाकातकं जो प्रवरणपुग्में गज्य करते थे उन राजाओंके कुछ ATA** Discriptive list of inscriptions in C. P. & Berar by R.S. Hiralal B. A. 1916." नामकी
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प्राचीन जैन स्मारक। शताब्दोसे राज्य किया था। उनकी राज्यधानी चांदाके भांदकमें. मी जो प्राचीन कालमें एक बड़ा नगर था ।
वर्षा निलेके भीतर नागपुरके कुछ मागपर सन् ई०से दो शताब्दी पहले विदर्भ या वरारके हिन्दुओं का राज्य था। यही राज्य तेलुगूके अंध्र लोगों के हाथमें सन् ११३में पहुंचा फिर उस पर दक्षिगके राष्ट्रकूट वंशवालोंने सन् ७५० से १८०७ तक राज्यं किया।
उत्तरमें हैहय राजपूतोंके कलचूरी या चेदी वंशनोंने नर्बदा नदीकी ऊगरी घाटीपर राज्य किया। इनकी राज्यघानी त्रिपुरा या करणवेल थी जहां अब जबलपुरमें तेवर ग्राम है। इस वंशवालोंने अपने लेखोंमें अपने खास सम्वत्का व्यवहार किया था। तीसरी शताब्दीमें इनकी शक्ति बहुत जमी हुई थी। जबसे नौमी शताब्दीतक इनका नाम नहीं सुन पड़ा। अंतमें इनका वर्णन सन् ११८१ के लेखमें आया है। *
पुस्तम हैं वे इस बरह है-11) विन्याशक्ति (२) प्रवरसेन प्रथम (8) मद्रमैन प्रथम गौतम पुत्रका बेटा, यह गौतम प्रवरसेनका पुत्र शा (४) पृथ्याम्न प्रशम (५, रुद्रसेन द्वि. (6) प्रवरसेन द्वि. (७) नरेन्द्रसेन १८) देश्सेन (९) पृथ्वीसेन द्वि० (१०) हरिसेन । .
१ गष्टकूट वंशके पहुवसे राजा जैनधर्मके माननेपाले थे जिनमें महागन अमोघवर्ष बहुत प्रसिद हुए है।
*गड़ाद वम्बई प्रांतके गजटियर जिल्द २२ पीसे प्रगट होता है कि कलचुरी वंशशले जैन थे। इनका यह पद प्रसिद्ध था । :कालं. जर पाचाराधीश्वर' अर्थात सर्वोत्तम नगर कालंजाके स्वामी इनको उत्सत्ति इस नगरसे विदित होती है । यह बुंदेलखण्डमें अब एक गढ़ (किला)
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मध्य प्रान्त।
[३ नौवींसे १३ वीं शताब्दीतक सागर और दमोह महोवाके चन्देल राजपूतोंके राज्यमें गर्भित थे । उसी समयके अनुमान असीरगढ़का वर्तमान किला चौहान राजपूतोंके हाथमें था। नर्बदा पाटीके पश्चिम शायद मालवाके परमार राज्यने ११वीं और १३वीं शताब्दीके मध्यमें राज्य किया होगा। सन् १९०४-५का एक लेख नागपुग्में है कि कमसेकम एक परमार राना लक्ष्मणदेवने नागपुरको अपने राज्यमें मिला लिया था। छत्तीसगढ़में हैहयवंश या चेदीवंशने रतनपुरमें स्थान जमाया था और रायपुर तथा विलाहै । कनिंघम साहबकी रिपोर्ट जिल्द ,९ से मालूम होता है कि नौपी, दशी तथा ग्यारहवीं शताब्दी में इस वंशकी एक पलवती शाखा बुंदेलखण्डमे गज्य करती थी जिपको चेदो भी कहते थे । इनका . प्रारम्भ सन् २४९ से मालूम होता है । इनकी राज्यधानी त्रिपुरा थी जो जवरपुरसे पश्चिम ६ मील तेवर ग्राम है।।
कलचूरी वंशके त्रिपुग निशसियोने कई दफे गष्टक्टोंसें और पश्चिम 'चालुक्योंसे विवाह सम्बन्ध किये थे। इस कल्चरी वंशकी एक शाखा छठी शताब्दीमें कोंकण ( बंबई प्रांत ) में राज्य करती थी। यहांसे इनको पुलकेशी द्वि० (सन् ६१०-६३४ ) के चाचा चालुक्य वशी -मंगलोसने भगा दिया था ।
कल्चरो लोग अपनेको हैहय वंशी कहते है और अपनी उत्पत्ति यदुवंशसे कार्यवीर्य या सहस्रबाहु अर्जुनसे बनाते है।
नोट संपादकीय-मध्यप्रान्तमें जैन कलवार नामकी जाति प्रसिद्ध है। यही जाति कलचूरी वंशकी सन्तान है ऐसा मध्यप्रांत सेन्सस रिपोर्ट सन् १९११ पृष्ठ २३०में बताया गया है । ये जैन कलवार बहुत संख्या में है। अब जैनधर्मको भूल गए हैं। आचार भी कुछ २ बिगड़ गया है ।
कनिंघम साहपकी रिपोर्ट नं. ९ में कलचूरी राजाभोंकी वंशावली दी है वह इस प्रकार है
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१२०
६८०
प्राचीन जैन स्मारक। अपुरके जिलोंपर राज्य फैलाया था। लेख १२वीं शताब्दी तक ले जाता है। यहांसे १५वीं व १६वीं शताब्दी ताहाल प्रगट नहीं वेदी संवत सन ई. नाम गजा
२४९ चेदी या कल्वूर्ग संरत प्रारम्भ १ २५० काकवर्ण शिशुगलकी संतानोंमें
मयके राजाओं नाम प्रगट नहीं २01
संबर गण ૧ ૫૫૦ बुद्धगज निचो मंगतीश वलुज्यने हराया।
कुछ नाम वीके नहीं प्रगट ૪૩૧
हैहय जितो विनयहत्त चालुक्यने हराया हैहय वंशी राजकुमारी टाचा महादेवी जो
विक्रमादिद द्वि० चलुन्यो विवाही गई बीचा राजा प्रगट नहीं
को प्रथम कनोजक मोजा समकालीन ९०० मुन्वतुंग प्रसिद्ध धवल प्रथम ६०६
दुगन केयर कनराज या नसागर (जैसा विश्वारी टेखमें है)
युवराज, बार्गतका समकालीन ७५ १००० कोकट द्वि
गांनय विक्रमादित्य १०४० कोच .
या देव १११५ गनई या मर देव ९०२ ११५ नासिहदेव ९३०
जयहिदेव २३२ १८३ विपपिइंदन
नवलपुरं निमें गजटियर उन् १८:९ में जो कमी राजाओके.
६५
ग
९८०
Si
૧૦૦
૧૦૮૦
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[ ५
मध्य प्रान्त ।
है। जबतक गोंदलोगोंकी-शक्ति बढ़ गई थी सबसे पहला गोव राजा बेतुके खेरलामें था । इसका नाम १३९८ में प्रगट होता है जब
नाम दिये है वे भी यही है । कुछ अन्तर हैं वह यह है कि मुग्धतुंग पीछे बालाह है, फिर केयूरवर्ष युवराजदेव है । लक्ष्मणराजके पीछे संकरगण (१९७०) है फिर युवराजदेव द्वि० (९७५) है ।
कनिंघम साहबने कुछ शिलालेख भी दिये हैं जिनमें चेदी या वंशके राजाओ के नाम भाए हैं ।
(१) अवलपुर से उत्तर १२ मील बहुरीबन्द प्राममें एक १२ फुट ऊँची बड़ी नग्न जैन मूर्तिके लेखमें कलचुरी राजा गजकणं देव संवा १०xx आता है । 0
(२) इसके पुत्र नरसिंहदेवका लेख मेगघाट पर है ।
(३) बिल्हाणके प्राचीन नगरके एक शिलालेखम चेदी वंशके हैदन राजाओके नाम है । यह पाषाण नागपुर के म्युजमें है । वे नाम हैकोइल. मुग्धतुंग, केयुग्वर्ष, लक्ष्मण, संकरगण, युवराज ।
कोक के पतेका पोता गयकर्ण था जिसने धारके राजा उददिअभी नही कन्याको बिवाहा था । यह भी कहा जाता है कि इस को दक्षिण कृष्णगजको पराजित किया था। मैं इसे कृष्णराष्ट्रकूट सम्झना हूं जिसने अनुमान ८६० से ८८० ई० तक राज्य किया था। मह टतिदुर्गा (शाका १७५ या सन् ७५३ ) से पांचवीं पीई में मा
८३३ ) का परमावा
तथा वह कृष्ण गोविन्द राष्ट्रकूट (शाका ८५५- न (Great grand father) भी था । राष्ट्रकूटोके एक शिलालेख ने किया है कि कृष्णगजने कोकन प्रथमकी कन्या महादेवीको विवाहा बा- दुमरे राष्ट्रकूट में ( R. A. S. J. III 102 ) हैं कि कृष्णके पुत्र जगतरुद्रने फेरी राजा शंकरगणकी दो कन्याओंको विवाहा था। यह शंकरगण कोकस्न प्रथमका पुत्र था । तीसरे राष्ट्रकूट, लेख (B. A. S. J. IV P.97) में है कि इन्द्रराज ने कोक प्रथमको योती निम्बाको विवाहा था । इस इन्द्रराजा और उसकी रानीका समय निणपूर्वक उनके पुत्र गोविन्दराजके लेखसे शाका ८५५ या
•
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प्राचीन जैन सारक।
खैरलाके रामा नरसिंहरायके पास (जैसा फारसी कवि फरिशनाने कहा है) बहुत सम्पत्ति व शक्ति थी तथा गोंदवानाकी सर्व पहाड़ियां सन् ९.३३ सिद्ध होता है । गष्ट्रकूट गजा अमेघवर्ण सायं कोल्ड प्रथमका परपोता अपनी माता गोन्दम्बाकी तरफ था तथा लक्ष्मणक ही वंशका था । मेरो पनि बन्दादेवी का पिता लश्नग था ।
चौथे करितलाईके लेखमें युवराग्देवके पुत्र लक्ष्मण राजाका नाम आया है जिसने अनुमान ९५०से ९७९ तक गज्य किया था ।
पांच वनारसमें गजघाटक शिले ईहर घंशा कदवका लेख संवत ७२४ का मिला है, जिरें चेदी राज की नावे हितो वंशावल हैचार्यदेव
कोकल जिसने चंदेलाकी नंदादेवीको विवाहा या । .
प्रसिद्ध धवल
बालार्ष
नोट-केवाल प्रथमने ग्वालियर में राजा मोजके साथ संवत ९:३ सन् ई० ८७९में युद् किया था । यह गजा भोज कोबका महाराजा या निसने सन् ८५० से सन् ८५. तक राज्य किया था तथा कोश्कल प्रयमंत्र राज्य सन ८५० से ८७०. तक था।
युवामदेव
टनम
संकरगण.
युवराजदें कोकलदेव
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. मध्यःप्रान्त दूसरे देश थे। इस रानाने उन युद्धोंमें भाग लिया थी जो मालवा और खानदेशके रानाओंके और बहमनी बातशाहोंके साथ
स. नोट-नेदः प रष्ट्रकूट दानों जैन धर्मक +क्त थे इसे दोनो सम्बन्ध भा होते थे। कर चू शब्दके अर्थ होते है-नर-देह, देहोंशा चानेवाला मुक्ति गामा. हैहर शास्त्वमें अहया अहहय होगा जिसका भी भाष पालेको च नवा है । चेदीका अर्थ आत्मको चेतानेवाला. ये तीनों नाम इम वशको जैन धर्मा सिद्ध करते हैं। " Descriptive list of insuiptions of C. P. & Berur by Himlil B.A. 1916. " नामकी पुस्से विदित हुमा कि प.ले जो काकवर्णसे विजयसिंहदेव तक राजा की सूची दी है वह त्रिपु-के कलचूरी गजाओं की है।
तभी शाखाके कलचूरी गजाओं की सूची नीचे प्रमाण है, इनको महायोशर के हैहय वंशी भी कहते थे
(१) कलिंगाज त्रिपुमके कोक्ल द्वि. का पुत्र (२) कमल (8) रलराज या ग्लदेव (6) पृदेिव (५) जाजलदेव सन् १३४ ई०६) रलदेव द्वि० (७) पृथ्व देव द. ११४५ ) ज.जन्लदेव 'द. ११९९ (e) ग्लदेवत. ११४१ (१०) पृथ्वोदेव व० ५१८० (11) भसिंह १२.० (१२) नासिंहदेव १२२१ (१३) मृसिंहदेव १२५१ (१४) प्रतापसिंहदेश १२७९ (५) जसिंहदेव १३१५ (18) धरमसिंहदेष १४४ (१७) जगन्नाथसिंह ४६८ १८) वीरसिंहदेव १४०७ (१७) कमलदेव १४२६ (२०) संकरसहाय १४३६ (२१) मोहनसहाय- १४५४ (२२) ददुपहाये ४७२'(२३) पुरुषोत्तमसहाय 1४७ (९४) बाहरसहाय या बाहरेन्द १५१९ (२५) वल्याणसंहाय १५४६ (२६) लक्ष्मणहाय १५८३७) मुकुन्दसहाय १५९१ (२८) संकरमहाय' १६०६ (९९) निमुवनसंहाव १६१७ (३०) जगमोहनहाय १६३२ (a) मादितिसहाय १९४५ (३२) जीतक. १९५९ (३३) तख्तसिंह ६.५ (31) रायसिंहदेव १९८४ (54) मरदारसिंह १२० (४६) धुनायसहाय १७
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ं ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
हुए थे । मालवाके होशंगशाहने इसके देशपर आक्रमण किया तब नरसिंहराव हार गया और मारा गया । १६ वीं शताब्दी में गढ़ मांडलाके गोंद वंशके ४७ वें राजा संग्रामशाहने अपना राज्य परगढ़ों या जिलोंमें जमा लिया था, जिनमें सागर, दमोह, मोपाल, नरबदाधारी, मांडला और शिवनी भी गर्भित थे। ऐसा निश्चय होता है कि मांडना यह वंश सन् ई० ६६५ के अनुमान प्रारंभ हुआ था तब जादोराय राज्य करता था । यह प्राचीन गोंद रामाका सेवक था । इसने उसकी कन्या विवाही और राज्याधिकारी होगया । सन् १४८०के संग्रामशाहके होने तक यह वंश एक छोटा राजासा बना रहा। इनके २०० वर्ष पीछे गोंदराजा बख्त बुलन्द "जिसकी राज्यघानी छिंदवाड़ा में देवगढ़ र थो" दिहली गया था और उसने बहांका ऐश्वर्थं देखकर अपने राज्यको उन्नत करना चाहा । इसने नागपुर नगर बसाया जो उसके पीछे राज्यधानी होगया | देवगढ राज्यका विस्तार वेतल, छिंदवाडा, नागपुर, शिवनीका भाग, भंडारा और बालाघाट तक था । दक्षिणमें कोटसे घिरा नगर चांदा
रायपुर शपाके चेी राजा
(१) लक्ष्मीदेव (२) सिंहाना (३) रामन (५) ब्रदेष सन १४०२ ई० (५' केशवदेव १४२० (६) भुनेश्व देव १०३८ (०) मामसिंहदेव १४६ : ८) सनोडिदेव १४७० (९) सुप्तर्निहदेव १५०८ (१०) मरतनिदेव १२१८ (११) चामुंडा देव १००८ (१२) वंशीसिहदेव १०६३ (१३) धनसिंडदेव १५८२ (०४) जैनहित्र १९०३ (१५) कलेनिदेव १३१५ (१६) यत्रदेव १६३३ (१७) सोमदेश १६४० (१८) बल्देवसिंहदेव १९६३ (१८) उमेदनिहदेव १६८५ (२०) वनश्रीरवि देव १७१४ (२१) अमरसिंहदेव १००८ ।
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मध्य प्रान्त
एक दूसरे वंशका स्थान था जो १६ वीं शताब्दीमें प्रसिद्ध.शा सब एक राना बावाजी वल्लालशाहने देहलीकी मुलाकात ली थी। इस चांदा राज्यमें बरारका भाग मिला हुआ था।
संग्रामशाहके उत्तराधिकारीके राज्यमें मुसलमान उत्तरसे बार । उसकी विधवा रानी दुर्गावतीको मुगल सेनापतिने सन्त्र १९९१ में हराया और मार डाला।
स नोट-इसके पीछे मुसलमान राज्यके इतिहामझी जरूरत मही है। यहां तकका वर्णन इसलिये किया गया है कि जैन मंदि
में जो प्रतिमाएं विराजमान हैं उनके लेखोंका संग्रह होनेसे इनमेंसे बहुतसे रानाभोंकि नाम मिल जानेकी संभावना है जिससे इतिहासपर बहुत प्रभाव पड़ेगा।
पुरातत्व-उत्तरके जिलों में बहुत स्थानों में प्राचीन और नवीर मैन मंदिर हैं जिनमें प्राचीन मंदिर अब लगभग नष्टमायः हो गए हैं । परन्तु उनके छितरे हुए खंड यह बताने हैं कि ये बहुत मुन्दर बने थे। वर्तमान जैन मंदिरोंका समूह कुंडलपुर (दमोह) में बहुत उपयोगी है जिनकी संख्या ५०से अधिक होगी।
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प्राचीन जैन ' स्मारक ।
( १ ) जबलपुर विभाग । [१] सागर जिला । हमकी चौहद्दी यह है - उनमें झांमी, पन्नाराज्य, विजावर, चरखारी; पूर्व में पन्ना और दमोह द क्षगमें नरसिंहपुर, भोपाल पश्चिम में भोपाल और ग्वालियर । हम जिलेमें २९६२ वर्गमील भूमि है ।
इतिहास - मागर नगरसे उत्तर ७ मील गढ़ी पाहरी है जिसको -गोंद राजाने बसाया था । गोंड़ों के पीछे अहीरोंने (जिनको फौलादिया कहते हैं) रेहली ने किला बनाया। अनुमान १०२३ सन्के जालौन के एक राजपूत निहालसाने अहीरों को हटा दिया तथा सागर व दूसरे स्थान लेलिये। निहालसाके वंशवालोंने करीब ६०० वर्षो तक राज्य किया परन्तु महोवाके चंदेलोंने उनको परास्त कर अपनाकर दाता बना लिया था। चंदेन राजाओं के दो वीर आल्हा और ऊदल बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। इनकी प्रशंसामें जो गीत है उनमें इनकी प्रसिद्धि ५२ युद्धों में बताई गई है ।'
महोबा के एक किसी डांगी सर्दा उदनशाहने सन् १६६० में सागर बसाया । इसने नगरका परकोटा बनाया । उदनशाहके पोते पृथ्वीको प्रसिद्ध बुन्देलाराजा छतरशाहने हटा दिया परंतु जैपुरके राजाने फिर स्थापित किया, तथापि कुईके मुसलमान सर्दारने फिर हटा दिया। तब वह बिलहरोंमें चला गया जहां उसके वंशजोंकपास विलहरा और दूसरे 8 ग्राम विना मालगुजारीके नमीतक पाए जाते हैं । सन् १७३५ में मराठा पेशवा बाजीरावके भतीजेने
१०]
MATTE
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१२] प्राचीन जैन सारका यह ध्वंश स्थान है। यहां एक ऊँची मीनार १०० फुट ऊँचाई पर है । भूमि १५ फुट वर्ग हर तरफ है । इसको राजा मर्दानसिंहने अपनी स्त्रीकी इच्छासे सागर और दमोहको देखनेके लिये। बनाया था।
(6) सागर-यहां नैनियोंकि कई मंदिर हैं। १९०१ में संख्या १०२७ थी। यहांकी बड़ी झलको जिसको सागर कहते हैं लपला बंजाराने बनाया था।
कोजिन साहबकी रिपोर्ट सन् १८९७ से नीचेका हाल विदित हुआ।
(७) मदनपुर-सागर और ललितपुरके मध्यमें प्राचीन नगर है। यहां छः प्राचीन वंश मंदिर हैं जिनमें नगरके उत्तरकी ओर सबसे पुगने तीन जैन मंदिर हैं। झीलके उत्तर पश्चिम दो व 'उत्तर पूर्वमें एक है। यहां संवत् १२१२ से १६९१ तक के कई शिलालेख हैं।
[२] दमोह जिला। इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-पश्चिममें सागर दक्षिणपूर्व नरसिंहपुर, जवनपुर, उत्तरमें पन्ना और उत्तरपुर राज्य । यहां भूमि २८१६ वर्गमील है। यह निना १०वीं शताब्दीमें महोबा के चन्देश रानाओंके राज्यमें शामिल था। चंदेलोंके बनवाए पुराने मंदिर है। १३८३में यह देहल.के गलकोंके हाथमें था। यहाँके स्थान मानने योग्य हैं।
(१) कुंडलपुर-पहाड़ी। दमोहसे पूर्व २० मील। यहां ११
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मध्य प्रान्त ।
[ १३
दि० जैन मंदिर हैं । यहां श्री महावीरस्वामीकी बृहत् मूर्ति बहुत ही मनोज्ञ व दर्शनीय है जिसका आसन ४ फुट ऊंचा है व मूर्ति १२ फुट ऊंची है। यहां २४ लाइनका शिलालेख है जो १७०० सन्का पन्नाके बुन्देल राजा छत्रसालके समयका है। पहाडीके नीचे जो सरोवर है उसको वर्द्धमान सरोवर कहते हैं। यह सं० १७१७ का है । यह जैनियोंका माननीय क्षेत्र है । ग्राममें बड़ा भारी जैन मेला प्रतिवर्ष लगता है । दमोह के परवार जैनी इसके अधिकारी हैं ।
(२) नोहटा - दमोह से दक्षिण पूर्व १३ मील । यह. पहले १२ वीं शताब्दी में चंदेलोंकी राज्यधानी थी। यहां जैन मंदिरों के बहुत खँडहर हैं। स्तंभ व खंड ग्रममें मिलते हैं । जैन मूर्तियां 1 भी यत्र तत्र पड़ी हैं । इनमें श्री चन्द्रप्रभ भगवानकी मूर्ति भी है । एक जैन मंदिर ग्रामके दक्षिण १ मील दूर सड़कपर है जो चहुत पुराना है ।
(३) सिंगोरगढ़ - दमोह से दक्षिण पूर्व २८ मील । यह एक पहाड़ी किला है । जबलपुर - दमोहकी सड़कपर सिंग्रामपुर ग्रामसे ४ मील है | महोवाचे चंदेलराजा वेलाने बनाया परन्तु कनिंघम साहब ८ लाइनके चौकोर खंभेके लेखपरसे इसे गजसिंह प्रतिहर या परिहर राजपूत द्वारा बनाया गया है ऐसा कहते हैं । उस लेखमें है कि गजसिंह दुर्गादेव संवत् १३६४ व सन् १३०७ है । यह परिहार राजपूत हैंहय राजपूतोंके कलचूरी या चेदी वंशकी सन्तान थे ।
1
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प्राचीन जैन 'स्मारक ।
[३] जबलपुर जिला ।
1
इसकी चौहद्दी इस प्रकार है- उत्तरपूर्व मैहर, पन्ना, रीवां राज्य; पश्चिम दमोह दक्षिण नरसिंहपुर, सिवनी, मांडला | यहां ३९१२ वर्गमील भूमि है । इतिहास - नवलपुर से थोड़ी दूर जो तिवार ग्राम है वही प्राचीन नगरं त्रिपुरा या करणवेलका स्थान है जो कलचूरी राज्यकी राज्यधानी था । (देखो शिलालेख नवलपुर, छत्तीसगढ़ और बनारस कनिंघम रिपोर्ट नं ० ९) ये हैहय राजपूत से सम्बन्ध रखते हैं । इस वंशकी एक शाखा रतनपुर में थी जो छत्तीसगढ़ पर राज्य करती थी । इस वंश के राजाओंका युद्ध कन्नौ के राठौड़ व महोबा के चंदेल तथा मालवाके परमारोंके साथ हुआ है । जबलपुरमें पहले अशोकका राज्य था । फिर तुंग वंशने ११२ वर्ष तक सन् ई० से ७२ वर्ष पहलेतक राज्य किया। फिर अंधोंने सन् २३६ तक, फिर गुप्तोंने जो परिव्राजक महारान कहलाते थे। इनके राजाओंके ६ लेख सन् ४७५ और १२८ के - मध्यके पाए गए हैं।
१४]
जबलपुरको पहले दाहल या दमाला भी कहते थे । कलचूरी वंशका सबसे पुराना वर्णन १८० सन्के बुद्धराजके लेखमें है । अनुमान १९ वीं शदीके यह गोंदराजाओंके अधिकारमें था । यह गढ़ी मांडलाका वंश था । राज्यधानी गढ़ी थी। १७८१ में मरहठोंने कबजा किया ।
पुरातत्व - रीढ़ी, छोटा देवरी, सिमरा, पुरेनी, तथा नांदचन्दमें पुराने स्थान हैं। बड़गांवके ध्वंश स्थान जैनियोंके हैं । बहरी नंद, रूपनाथ व तिगवानके ग्रामोंमें भी प्राचीन स्थान हैं ।
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: मध्य प्रान्त।. बहुरीबन्द एक प्राचीन नगर था जिनको कनिंघमने : Tolemy टोलेमीका कहा हुआ-थोलावन Tholahan नाम बताया है। तिवारमें प्राचीनताका चिह्न एक बड़ी नग्न जैन मूर्ति है जिसपर कलचूरी वंशका लेख है। तिगवान एक छोटा नगर बहरीवंदसे २ मील है। इसमें बहुतसे प्राचीन मंदिरके खण्डहर हैं जिनको रेलवे के ठेकेदारोने नष्ट कर दिया है। रूपनायमें अशोकका स्तंम है । यहांक कुछ स्थानोंकाःवर्णन यह है
(१):जबलपुर शहर-यहां कुछ जैन मूर्तिये खुरशैदनी कंपनी के नागमें एक मकान में लगा दी गई है। इनकी खुदाई वहुत बढ़िया है । शहरको ४ मील गढ़ी है जो गोंद वंशकी राज्यधानी थी। इनका प्राचीन किला मदनमहल है जो कि टीला है। इसके नीचे मदनमहल नामका वडानगर वसता था । इमको मदनसिंहने सन् ११००में बनवाया था। नागपुर म्यूजियममें एक लेखमें जबलपुरका नाम नवलीपाटन भी आया है।
(२) वहरीवंद-तहसील सिहोरा-सलामावाद रेलवेप्टेशनसे पश्चिम १२ मील । यहाँ नगरके पाम एक पीपल वृक्षके नीचे एक बड़ी जैन मूर्ति है जो १० फुट २ इंच उंची है। आसनपर ७ लाइनन लेख है (कनिंघम रिपोर्ट नं० ९ ३९) ३री चौथी लाइन नष्ट होगई है। वह लेख जो पढ़ा या वह यह है-०१-संवत १० xx फाल्गुण बदी ९ सोम अं मत् नवार्णदेव विमय रा
ल० २-जो राष्ट्रकूट कुओभन महासमंताधिपति श्रीमद गोहान देवस्य प्रवर्द्धमानस्य ।।
० ३-श्रीमद् गोलप्पथी........मय........
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१८] प्राचीन जैन लारक। आलोंमें कुछ बढ़िया मूर्निय विराजित हैं जिनमें एक जैनधर्मकी , है। र तीर्थकर है नीचे एक स्त्री है जिसकी भुजाओंने एक बालक है जिसके नीचे एक लेख है उसने लिखा है कि नानदित्यकी दी नोना नित्य प्रणाम करती है-जबर १२वीं शताब्दीके हैं।
मा नोट-ऐसी मूर्तियं मानभूम जिले विहारमें कई स्थानों में देसी गई हैं। देखो (प्राचीन जन नारक वंगाल, बिहार, उड़ीसा ट्रट ६९) तथा एक मूर्ति गजशाहो (बंगाल) के रेन्द्ररिमर्च इटोटने नननने जिजित है (देखो बंगाल दि. उड़ीसा प्राचीन जन नारकड १३१)
इनिधनाइकी रिर्टन से नीचे हाल विदित हुआ।
(८) शुभार-उसने पश्चिन १२ नोल उंचर वता है। यहां एक प्रलिड वंभ है जो गाड़े नाल का पापाणका है जिनको ठाना पत्थर कहते है इसके नीचे भागमें पुत समयके अमगेंच ९ लाइनका लेख है जिनमें भिन्नर वंशके दो राजाओंक नाम है उनमें से एक उहाके तानपत्रके प्रसिद्ध राजा हस्तिन् हैं और दूसरे कारीतलाईके ताम्रपत्रके राजा जयनायके पुत्र मर्चनाय हैं।
ये दोनों राजा सनकालीन थे-इन गनाओं नाम नीचे लिखे ९ शिलालेखोंने आए हैं।
नं. नाम सना गुत मंदत कहां रखे हैं १ राजा हन्तिन् १९६ वनारस कालेज
१७३ अलाहाबाद म्यूजियम . ३ राजा जयनाय ७४ कनिंघम साहबके पास
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मध्य प्रान्त ।
[१६
१० Grv
४ राजा जयनाथ १७७ राजा उचहराके पास ५ राजा हस्तिन् १९१ राजा उचहराके पास ६ , सर्वनाथ १९७ , ७ , संखम २०९
• , सर्वनाथ २१४ कनिंघम साहबके पास • ९ राजा हस्तिन् और सर्वनाथ भूभारके स्तम्भपर
नं० के शिलालेखमें पृष्ठपुरी नाम आया है। ___ () पटैनीदेवी-पिथौराकी बड़ी देवी जिसको आजकल पटैनीदेवी कहते हैं। इसकी ४ भुनाएं हैं व साथमें बहुतसी नग्न मूर्तियां हैं जिससे यही समझमें आता है कि यह जैन देवी होनी चाहिये । समुद्रगुप्तके एक शिलालेखमें पृष्टपुरक, महेन्द्रगिरिक, उछारक और स्वामीदत्त नाम हैं। इनमें पहले तीन क्रमसे पिथौरा, महियर और उछहराले लेखोंसे मिलते हैं यह पटेनीदेवी उछहरासे ८ मील है व पिथौरासे पूर्व ४ मील है । इस देवीके चारों तरफ मूर्तियां हैं। ५ ऊपर, ७ दाहनी, ७ वाई व ४ नीचे सर्व २३ हैं। इस देवीकी चार भुजाएं टूट गई हैं, इनके पास नाम भी १०वीं व ११वीं शताब्दीके अक्षरोंमें लिखे हैं। जो मूर्तियां ५ ऊपर हैं। उनपर नाम हैं बहुरूपिणी, चामुराड, पदमावती, विनया और सरस्वती । जो सात वाई तरफ हैं उसके नाम हैं अपराजिता, महामूनसी, अनन्तमती, गंधारी, मानसिनाला, मालनी, मानुजी तथा जो सात दाहनी तरफ हैं उनके नाम हैं जया, अनन्तमती, वैराता, गौरी, काली, महाकाली और वृनंसकला । (नीचेके ४ नाम इस रिपोर्ट में नहीं लिखे हैं ) द्वारपर बाहर तीन मूर्तियां पद्मासन हैं।
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२०]. प्राचीन जैन स्मारक। मध्यकी छत्रसहित श्री आदिनाथजीकी है। आसनपर बैलेंका चिन्ह हैं, दाहनी व वाई तरफकी मूर्तियोंके आसनपर सर्पके चिन्ह हैं तथा दाहनी मूर्तिपर, सात फण व वाईपर पांच फण हैं । ये तीन मूर्तियां प्रगटरूपसे जैनकी हैं इससे मुझे पक्का विश्वास होता. है कि यह पटेनीदेवी जैनियोंकी है । " I feel satisfied that the enshrined goddess must belong to Jains.” इस देवीके दोनों तरफ कायोत्सर्ग आसन नम जैन मूर्तियोंकी दो लाइनें हैं । ये अवश्य जैनकी हैं, 'यह मंदिर लेखके समयसे बहत पुराना है। ( कनिंघम रिपोर्ट नं० ९)
स नोट-मालूम होता है कि मध्यमें देवीकी मूर्ति न होकर किसी तीर्थकरकी जैन मूर्ति होगी जिसे देवी मान लिया. गया है। इसकी जांच अच्छी तरह होनी चाहिये।
(१०) विलहारी-प्राचीन नगर-कटनीसे पश्चिम १० मील भरहुत और जबलपुरके मध्यमें प्राचीन नाम पुष्पवती है। यहां राना गोविंदराव संवत ९१९ या सन् ८६२में राज्य करते थे।
(११) रूपनाथ-वहुरीबन्दसे दक्षिणपश्चिम १३ मील तथा सलेमाबाद स्टे०से पश्चिम १४ मील। यहां रामा अशोकका शिलास्तम्भ है।
. (१२) भरहुत-यहां बौद्ध स्तूप है,। यह जबलपुर और अलाहाबाद के मध्यमें है। सतना और उछहराके मध्य रेलसे २ मील करीब है। अलाहाबादसे १२० व जबलपुरसे १११ मील है।
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"मध्यं प्रान्त
[२१
...(४) मांडला जिला ।
इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तरपश्चिम जबलपुर, उत्तर पूर्व -रीवां, दक्षिण और दक्षिण पश्चिम-बालाघाट व सिवनी, दक्षिणपूर्व · विलासपुर और कवर्धा-राज्य । यहाँ ५०५४. वर्गमील स्थान है।
यहां गढ़ी मांडलावंशने रामनगरके महलमें पांचवीं सदीमें राज्यप्रारम्भ किया तब जादोराय राजपूतने जो गोंद राजाका सेवक था उसकी कन्याको विवाहा और उसके पीछे राजा हुआ । इस वंशमें अंतिम राजा संग्रामसिंह सन् १४८०में हुआ। दुर्गावतीकी वीरता-सन् १९६४ में जन असफखांने चढ़ाई की तब उसकी
रानी दुर्गावती जो अपने छोटे बच्चेकी प्रतिनिधिरूपसे राज्य ~करती थी निकली और सिंगोरगढ़के किलेके पास युद्ध किया। पराजित होनेपर वह मांडलामें गढ़के पास आई और उसने अपना दृढ़ःबल प्रगट किया। वह हाथीपर चढ़कर युद्ध करने लगी। इसने अपनी सेनाको वीरता दिखानेको प्रेरित किया। स्वयं सेनापतिका काम किया-उसकी आंखमें लाल घाव होगया तब भी उसने पीछा न ! दिखाया। अन्तमें जब उसने देखा कि उसकी सेनां असमर्थ होगई
तब उसने अपने हाथीके महावतसे कटार लेकर अपनी छातीमें * मारी और वह मर गई। फिर मुसल्मानोंका राज्य हो गया ।
इसका प्राचीन नाम महिषमंडल या महिषावती संस्कृत साहित्यमें आता है । यह राजा कार्तवीर्यका राज्यस्थान रहा है।
(१) कर्करामठ मंदिर-तहसील डिन्डोरी, डिन्डोरीसे १२ मील ।' यहां किसी समय पांच मंदिर थे उनमेंसे एक मौजूद हैं।
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२२]
प्राचीन जैन सारक। यह विना गारेके फटे हुए पाषाणोंसे बना है और अन्य ध्वंश स्थानोंकी तरह यह भो शायद जैनियोंका ही कार्य है। यहां बहुत सुन्दर शिल्पकी जैन मृतियां हैं। डिन्डोरीसे ९ मीलपर भी दक्षिण और नौमीले १३ वीं शताब्दीके मध्यके जैन मंदिर हैं।
(२) देवगांव-नर्बदा नदी और बुढ़नेरके संगनपर मांडलासे उत्तर पूर्व २० मील यहां भी प्राचीन मंदिर हैं।
(३) रामनगर-यहां आठ राजाओंका राज्य होरहा है-यहां भी कुछ ध्वंश स्थान है।
[५] सिवनी जिला इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तर-नरसिंहपुर, जगलपुर, पूर्व-मांडला, बालाघाट और भंडारा, दक्षिण-नागपुर, पश्चिमछिंदवाड़ा-यहां ३२०६ वर्ग मील स्थान है।
इतिहास-सिवनीमें एक ताम्रपत्र मिला है जिससे जाना जाता है कि शतपुरा पहाड़ीके मैदान पर वाकतक वंशके राजाओंकी एक शाखा तीसरी शताब्दीसे राज्य कर रही थी-उसमें वंश संस्थापकका नाम विंध्यशक्ति है-ऐसे ही लेख अनन्ताकी गुफाओंमें हैं।
पुरातत्त्व-तालुका सिवनीके धनसोर स्थानपर बहुतसे जैन मंदिर हैं । सिबनीसे २८ मील आष्टामें वरघाटपर तीन मंदिर पाषाणके हैं। ऐसे ही लखनादोन पर हैं। कुरईके पास बीसापुरमें गोंद राजा भोपतकी विधवा सोना रानीका बनवाया हुआ पुराना मंदिर है । मुख्य स्थान ये हैं।
(१) चावरी-तहसील सिवनी, यहांसे दक्षिण पश्चिम ६
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२४.]
प्राचीन जैन सारक।
(२) नर्बदा विभाग।
[६] नरसिंहपुर जिला। इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तर-भूपाल, सागर, दमोह, जबलपुर, दक्षिण-छिंदवाड़ा, पश्चिम-हुशंगाबाद, पूर्व-सिवनी और जबलपुर । यहां १९.७६ वर्ग मील स्थान है
यहांके मुख्य स्थान हैं
(१) वरहटा-नरसिंहपुरसे दक्षिण पूर्व १४ मील। यहां बहुतसे प्राचीन पापाण स्तंभ व मूर्तियें मिली थीं इनमें कुछ नरसिंहपुरके टाउनहालके बागमें हैं और कुछ मूर्तिये वहांपर हैं वे जैन तीर्थंकरोंकी हैं। यह बहुत प्राचीन स्थान है-ये दि० जैनकी मूर्तियां कुछ बैठे कुछ खड़े आसन हैं। वर्तमानमें वहां ६ ऐसी मूर्तिये हैं। एक पर चंद्रका चिन्ह है इससे वह चंद्रप्रभु भगवानकी है। वहांके हिन्दू लोग इनको पांच पांडव और कृष्ण मानकर पूजते हैं और यह विश्वास रखते हैं कि इनके पूजनेसे पशुओं के रोग, शीतला, व दूसरे संक्रामक रोग चले जाते हैं। यहां वैशाख सुदीमें एक सप्ताहतक मेला भरता है। प्रबन्ध जबलपुरके राजा गोकुलदास करते हैं। ये मूर्तिये एक छोटे घेरेमें विराजित हैं। सबसे बढ़िया मूर्तियें यात्री लोग वर्लिन और वरसाको यूरोपमें लेगए ।
Best of sculptures said to have been taken to Berlin and Warsa by travellers.
(२) तेंदूखेडा तालुका गाडरवारा । नरसिंहपुरसे उत्तर पश्चिम २२ मील । यहां एक जैन मंदिर है जिसमें पत्थरकी खुदाई
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। मध्य प्रान्त।
२५ अच्छी है। प्राचीनकालमें यह लोहेकी कारीगरीके लिये प्रसिद्ध • था। पासमें लोहेकी- खानें थी । ग्राममें बहुत लुहार काम करते थे अब बहुत कम लोहा निकलता है । यह कारीगरी अब मर गई है।
- 093EES.[७] हुशंगाबाद जिला । इसकी चौहद्दी है, उत्तरमें भूपालः इन्दौर, पूर्वमें नरसिंहपुर, पश्चिममें नीमाड़,दक्षिणमें छिंदवाड़ा, वेतूल और बरार ।
यहां ३६७६ वर्ग मील स्थान है।
इतिहास-यहां राष्ट्रकूटोंका एक ताम्रपत्र मिला है। जिसमें 'लिखा है कि राष्ट्रकूट राजा अभिमन्युने पंच मढीसे ४ मील पेठं पंगारकमें स्थित दक्षिण शिवके मंदिरको उन्तिवातक नामका-ग्राम भेटमें दिया। सातवीं शताब्दीमें रीवां राज्यके नैनपुरमें राष्ट्रकूट वंश स्थापित हुआ। राठोर रानपूत यही राष्ट्रवंशी राजा हैं।
पुरातत्व-यहां भिन्न २ स्थानोंपर कुछ मूर्तियां मिली हैं। सबसे अधिक उपयोगी एक मूर्ति श्री पार्श्वनाथजीकी फणसहित जैन मूर्ति है जो सन्खेरामें मिली व दूसरी एक बड़ी मूर्ति सुहागपुरमें मिली है।
(१)मुहागपुर-हुशंगाबादसे ३२ मील पूर्व है। इसका प्राचीन नाम शोणितपुर है राजा भोजके भाई मुंजने अपनी राज्यधानी उज्जैनसे बदलकर यहां स्थापित की।
(३) टिमरणी-टे• G. I. P. हुशंगाबादसे ५१ मील है। यहां एक खंडित जैन मूर्ति संवत १२६९ या सन् १२०८ की है।
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२६]
प्राचीन जैन सोरक।
[८] नीलाड जिला इसकी चौहद्दी इस प्रकार है। उत्तरमें इंदौर, धार, पश्चिममें इन्दौर, खानदेश, दक्षिण में खानदेश, अमगवती और अकोला, पुर्वमें हुशंगावाद और बेतूल | यहां पहाड़ी और मदान बहुत है।
इतिहास-सन् ५८३ तक यहां गुप्त और हनीने राज्य किया फिर थानेश्वर और कनीना बढेन वंशने सन् ६४८ तक फिर बाकतक राजाओंने राज्य किया, जिनके लेख अजन्टाकी गुफा, अमरावती, सिवनी और छिंदवाड़ा में मिलते हैं। नौमीसे १२ वीं मताब्दी तक धारके परमारोंने राज्य किया। यहां सबसे प्राचीन शिलालेख परमार राजानोंका नानधातामें मिला है इसमें लिखा है कि सन् १०५५ में परमार या पंवार राजा जयसिंहदेवने अमरेश्वरके ब्राह्मणको एक ग्राम भेटमें दिया । दूसरा शिलालेख सन् १२१ (का हरसदमें मिला जिसमें धारके राजा देवपाल देवका नाम है। तीसरा मिद्धवरके मंदिरमें १२२६ का मिला जिसमें देवपालदेवका नाम है। वहीं एक और मिला सन् १९२६का जिसमें राजा जयवर्मनका नाम है । सातवां परमार राजा भोज बहुत प्रसिद्ध हुआ है जो राजा मुंजका भतीना था। राजा भोज सन् १०१० ई० में प्रसिद्ध हुए । इसने ४० वर्ष तक राज्य किया ।
यहांके प्राचीन स्थान हैं।
(१) खंडवा-प्राचीनकालमें जैन समाजका प्रसिद्ध स्थान रहा है । वहुतसे सुन्दर पापाण जो जैन मंदिरोंसे लाए गए हैं शहरके मकानोंमें दिखाई देते हैं। टोलेमीने इसका नाम कोनवन्द
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मध्य प्रान्त।
[२७ लिखा है । अरबके विद्वान अलबेरुनीने इसे ११ वी १२ वीं शताब्दीमें संडवाबो लिखा है . तथा बताया है कि यह जैन पूजाका महान स्थान था।
यह १५१६में मालवाकी राज्यधानी थी इसे. जसवंतराव होलकरने सन् १८०२ में गला डाला फिर सन् १८१८ में इसे तांतिगाटोपनि जलाया। जैन पायाण चार सरोवरों में मिलते हैंसमन्धरकुंड, पद्मकुंड, भीमकुंड और सूर्यकुंड । सबसे बढ़िया जैन मुत्तिय पुराने खंडवाके किलेमें पद्मकुंड पर मिलती हैं (कनिधम जिल्द ९ १० ११३)
(२) घरहानपुर-यह १६३५ में बहुत - बड़ा नगर था Tavernier टेवरनियर यात्री सूरतसे आगरा जाते हुए सन् १६४१ और १६५८में इस नगरमें होकर गया था। वह लिखता है
"In all the province an enormous quantity of very transparent muslins are made, which are exported to Persia, Turkey, Muscovic, Poland, Arabin, Grand Cairo & other placos, some are dyed with various colours and with flowers."
भावार्थ-सब प्रांतभरमें बहुत महीन मलमले बहुत अधिक बनती हैं जो यहांसे फारस, टर्की, मस्को, पोलैंड, अरव, महानकैरो
और दूसरे स्थानोंपर भेजी जाती हैं । कुछमें नाना प्रकारके रङ्ग दिये जाते हैं कुछमें फूल बनाए जाते हैं।
(३) असीरगढ़ किला-तहसील वरहानपुर, खण्डवासे २९ व वरहानपुरसे १४ मील है । चांदनी रेलवे स्टेशनसे ७ मील । यह एक पहाड़ी है जो ८५० फुट ऊँची है । यहां कई राजपूत
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'२८] प्राचीन जैन स्मारक । वंशोंने राज्य किया है । एक प्राचीन जैन मंदिरका स्तम्भ खोद- . नेसे मिला है, जिससे प्रगट होता है कि यह 'शायद उसी जैन वंशके हाथमें था जिनके प्राचीन मकान खण्डवामें बनाए गए थे। इस स्तंभपर पांच राजाओं के नाम हैं। उपाधि वर्मा है, जिनमें से दोने गुप्त राजाओंकी कन्याएं १० वीं या ११ वीं शताब्दीके अनुमान "विवाही थीं। किलेका नाम आसा या आसापूरणीसे या शायद असी 'या हैहय रामाओंके वंशकी प्राचीन उपाधिसे निकला हो।ये हैहय 'राजा इस देशमें महेश्वरसे लेकर नर्बदा तटपर सन् ई० ५००के
पहलेसे राज्य करते थे । ( Tod's Vol. II. P. 442 ). इस 'असीरगढ़की चट्टानों तथा मकानोंपर बहुतसे लेख हैं (C. P. Antiquarian journal No. II)
(४) मानधाता-तालुका खंडवा, यहांसे ३२ मील, मोरटक्का ष्टेशनसे पूर्व ७ मील | पहाड़ीके ऊपर प्राचीन ऐश्वर्ययुक्त वस्तीके चिह्न रूप ध्वंश किले व मंदिर हैं। मुख्य मंदिर सिद्धनाथका है।
ओंकारजीका मंदिर हालका बना है परन्तु जो बड़े २ स्तम्भ इसमें लगे हैं कुछ प्राचीन इमारतोंसे लाए गए हैं । नदीके उत्तर तटपर कुछ वैष्णव और जैनके मंदिर हैं। मानधाताके राजा भीलाल हैं जो अपनी उत्पति चौहान राजपूतोंसे बताते हैं । चौहानोंने इसे भील सर्दारसे सन् १९६५ में ले लिया था।
सिद्धवरकूट-पहाड़ीपर प्राचीनकालमें स्थित पुराने जैन मंदिरोंके ध्वंश स्थान हैं । अब जैन जातिने मंदिरोंका नवीन दृश्य प्रगट कराया है। प्राचीन मंदिरमें कुछ मूर्तियोंपर ता० १४८८ हैं। बहुतसी मूर्तियां श्री शांतिनाथ भगवानकी हैं। पर्वतकी चोटीपर
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३०]
प्राचान जैन स्मारक। किसी गोहाना' के पास तीन ताम्रपत्र सन् ७०९ के हैं, जिसमें राष्ट्रकूट राजा नंदराज द्वारा-एक ब्राह्मणको ग्राम दानका वर्णन है।
(१) कजली कनोजिया-तहसील मुलताई। छिंदवाड़ा जानेवाली सड़कपर विदनूरके पूर्व २४ मील वेल नदीपर मंदिरोंके ध्वंश हैं उनमें जैन मूर्तियां अच्छी कारीगरी की हैं। उनमेंसे कुछ नागपुर म्यूजियममें गई हैं।
(२) श्री मुकागिरि सिद्धक्षेत्र-वर्तमानमें जैन यात्रीगण एलिचपुर होकर जाते हैं जहां मुर्जनापुर ( बरार प्रांत ) से रेल गई है। एलिचपुरसे ६ मीलके अनुमान है। यह पर्वत बहुत मनोहर है पानीका झरना वहता है । ऊपर बहुतसे दिगम्बर जेन मंदिर हैं उनमें बहुतसोंमें प्राचीन मूर्तियें हैं। वार्षिक मेला होता है। यहांसे ३|| करोड़ मुनि भिन्न २ समयमें इस कल्प कालमें मोक्ष पधारे हैं । जिसका आगम प्रमाण यह है। प्राकृत-अचलपुर वर णयरे ईसाणे भाए मेढ़गिरि सिहरे । आहुट्ठयकोडीओ णिव्याण गया णमो तेसिं ॥ १६ ॥
(प्राकृत निर्वाणकांड ) अचलापुरकी दिशा ईशान, तहां मेढ़गिरि नाम प्रधान | साडेतीन कोड़ि मुनिराय, जिनके चरण नमूं चित लाय ॥१८॥
(भैया भगवतीदास कृत) - इसके प्रबंधकर्ता सेठ लालासा मोतीसा एलिचपुर हैं। हीरालाल बी० ए० रुत सी० पी० लेख पुस्तक १९१६ में सफा ७९ पर.दिया है कि यह मुक्तागिरि बदनूरसे ६७ मील है। जैनियोंका पवित्र तीर्थ है। ऊपर ४८ मंदिर हैं जिनमें ८५ मूर्तियां.
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मध्य प्रान्त ।
[ ३१
हैं । नीचे नए बने मंदिर में २५ मूर्तियां हैं जो सन् १४८८ से १८९३ तककी हैं। कुछ मंदिरोंमें उनके जीर्णोद्धार किये जानेके लेख हैं । एकमें सन् १६३४ है । हालमें एलिचपुरके वापूशाहने २२०००) खर्चकर सन् १८९६ में जीर्णोद्धार कराया ।
[१०] छिंदवाडा जिलः ।
इसकी चौहद्दी यह है- उत्तर हुशंगाबाद, नरसिंहपुर, पश्चिम वेतूल, पूर्व सिवनी, दक्षिण नागपुर - यहां ४६३१ वर्ग मील स्थान है—
इतिहास - इसका शासन दक्षिणके मलखेड़ में राज्य करनेवाले राष्ट्रकूट वंशके आधीन था । एक ताम्रपत्र इस वंशका वेतूलके मुलताई में, दूसरा वर्धाकी देवली में मिला है। देवलीका ताम्रपत्र सन् ९४० कृष्ण तृ० महाराजके राज्यका है। इसमें कथन है कि एक कनड़ी ब्राह्मणको तालपूरुनशक नामका ग्राम जो नागपुर नंदिवर्द्धन जिलेमें था भेटमें दिया गया । नागपुर नंदिवर्द्धन जिला छिंदवाडा के दक्षिण भागको कहते थे । छिंदवाड़ामें नीलकंठी पर एक स्तम्भ मिला है, जिसपर लेख है कि यह कृष्ण तृ० राजा राज्य में बना । यह नीकंटी महगांवसे अनुमान ४० मील है इसीके निकट तालपुरनशक ग्राम है । नीलकंठीमें ७वीं व ८वीं शताब्दीके मंदिरोंके ध्वंश है । यह स्तम्भ सड़क के किनारे खड़ा है। छिंदवाड़ाके अशबुर्नर सरोवर पर कुछ प्राचीन पाषाण नीलकंठीसे लाए हुए रक्खे हैं । राष्ट्रकूट वंशी राजा सोमवंश या यदुवंशकी संतान हैं ऐसा दूसरा लेखोंसे प्रगट है ।
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३२] प्राचीन जैन स्मारक।
देवगढ़-जो-छिंदवाड़ासे दक्षिण पश्चिम:२४. मील है.। वहां छिन्दवाड़ा और नागपुरका प्राचीन, राज्यवंशी स्थान. था। यह इतना प्रभावशाली हुआ कि इसने मांडला और. चांदाको अपने आधीन किया था।
(१) छिन्दवाडा-यहां गोलगंजमें जैन मंदिर हैं ।
(२) मोहगांव-ता. सौसर-यहांसे : मील, छिंदवाड़ासे ३७ मील । १० वीं शताब्दीके राष्ट्रकूट लेखमें इसका नाम मोहनग्राम है। यहां दो प्राचीन मंदिर हैं।
(३) नीलकण्ठी-ता० छिंदवाड़ा-यहांसे दक्षिण पूर्व १४ मील कुछ मंदिरोंके ध्वंश हैं। एक मुख्य मंदिरके द्वारपर एक. लेख सहित स्तम्भ है, जिस मंदिरके कोम्की भीत २६४ फुट लंबी और १३२ फुट चौड़ी है।
नोट-इन स्थानों में जैन चिन्हों को ढूंढना चाहिये।
HESENTAL
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. ... मध्य प्रान्तः।
[३३
(३) नागपुर विभाग।
[११] वर्धा जिला इसकी चौहद्दी-उत्तरमें अमरावती, पश्चिममें अमरावती व येवतमाल, दक्षिणमें चांदा, पूर्वमें नागपुर । यहां २४२८ वर्ग मील स्थान है।
यहां तीसरी शताब्दी तक अध्र राज्यने राज्य किया । सन् ११३ ई० में विलिवायुकुर द्वि' का राज्य बरारमें था।
देवली-वर्धाले ११ मील व देवगांवसे ॥ मील है। यहां राष्ट्रकूट वंशका एक ताम्रपत्र सन् ९४० का मिला है ।
[१२] नपुर जिला । इसकी चौहदो यह है-उत्तर छिंदवाड़ा, शिवनी। पूर्व भंडाग, दक्षिण पश्चिम चंदा और वर्धा । उत्तर पश्चिम अमरावती। यहां ३८४० वर्गमील स्थान है।
इतिहास-जीसरीसे छठी शताब्दी तक यह जिला वाकातक राजपूत रानाभोंके अधिकारमें था जिनके राज्यमें शतपुरा मैदान व बरार भी शामिल था।
(१) रामटेक-नागपुरसे उत्तरपूर्व २४ मील पहाड़ीके नीचे प्राचीन मंदिर हैं। उनमें कुछ जैन मंदिर हैं, एकमें श्री शांतिनाथकी कायोत्सर्ग १८ फुट ऊंची मूर्ति दर्शनीय मनोज्ञ है।
(२) पर सिदनी-ता. रामटेक नागपुरसे उत्तर १६ मील । यहां एक किलेके ध्वंश हैं, यहां श्वेत पाषाणका एक जैन मंदिर है मूर्ति भी श्वेत पाषाणकी है । अभी भी जैन लोग पूजते हैं।
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३४ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
(३) सावरगांव - नागपुर से ३६ मील, काटोलसे उत्तर १० मील | यहां एक सुन्दर महावीर स्वामीका मंदिर है । नोट- यहां जैन शब्द नहीं है, जांचना चाहिये ।
(४) उमरेर नगर - नागपुर मे दक्षिणपूर्व २९ मील। यहां १०००० कुटी लोग हैं जो हाथसे रेशमकी किनारी सहित रुईके कपड़े बुनते हैं । यहांसे प्रतिवर्ष २ लाख रुपयेका कपड़ा बाहर जाता है | नोट - इनमें कुछ जैन कुष्टी होंगे जैसा मेन्सससे प्रगट है तलाश करना चाहिये ।
(४) नागपुर - यहां कई जैन मंदिर हैं। यहां के म्यूजियम में जैन मूर्तिये इस तरहपर कौजन साहबकी रिपोर्टके अनुसार मन् • १८९७ में थीं ।
दो जैन मूर्तियां हुशंगाबादसे, कुछ जैन मूर्तियोंक भाग खंडवासे, कुछ जैन मूर्तियां चरहानपुरसे व कुछ जैन मूर्तियां नीमार, चिचोटी, वाघनदी और हांजीसे लाई हुई थीं ।
नोट -बरहानपुरकी मूर्तियां अखंडित व पूजा थीं जो वहांसे मिल गई हैं और परवारोंके दि० जैन मंदिर में विराजमान है ।
[१३] चांदा जिला ।
चौहद्दी -उत्तरमें नांदगांव राज्य और भंडारा, नागपुर, वर्धा, पश्चिम और दक्षिणमें येवतमाल और निजाम राज्य, पूर्वमें वस्तर और कंकड़ राज्य व द्रुग | यहां १०१५६ वर्ग मील स्थान है ।
इतिहास - चन्दाके निकट भांदक ग्राम वाकातक वंशकी राज्यधानी थी जिनका शासन बरार, मध्यप्रांत नर्बदा के दक्षिण बाई गंगातकं था। शिलालेखोंसे प्रगट है कि इन राजाओंने चौबीसे
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. मध्य प्रान्त।
[३५ बारहवीं शताब्दी तक राज्य किया फिर गोंद वंशका शासन हुआ। चन्दाके राजाओंको बल्लारशाही कहते थे। गोंद वंशके १९ राजाओंने १७५१ तक राज्य किया । १५ वीं शताब्दीके प्रारम्भमें नौमा राजा वल्लालशाह हुआ । ११ वां हीरशाह हुआ, जिसने चन्दाका किला बनवाया था । इसका पोता कर्णशाह था जिसने हिंदू धर्म धारण कर लिया था (सं० नोट-मालूम होता है कि पहले ये राजा लोग जैनधर्मी होंगे क्योंकि मांढकमें जैन धर्मके. बहुतसे स्मारक हैं )। आईने अकवरीमें कर्णशाह के पुत्रका वर्णन है। यह स्वतंत्र था, अकबरको कर नहीं देना था।
चन्दाका प्राचीन नाम चंद्रपुर था।
पुरातत्त्र-यह जिला पुरातत्वकी सामग्रीसे पूर्ण है जिनमें कथनयोग्य जरूरी सामग्री भांदक, चंदानगर और मारकंडी पर हैं। भांदक, विनवसनी, देवाल तथा घूगुमें गुफाके मंदिर हैं। बल्लालपुरके नीचे वर्धामें पापाण मंदिर हैं। मारकंडी, नेरी, वर्हा, अरमोरी देवटेक,भटाल, भांदक, वैरगढ़,वधनक, केसलावारी, घोरघे पर प्राचीन मंदिर हैं। नोट-इन सबमें जैन स्मारक होंगे। जांच करनेकी जरूरत है।
. (१) भांदक-तहसील वरोरा-यहांसे १२ मील, चन्दासे उत्तरपश्चिम १६ मील । यहां बहुत सुन्दर जैन मूर्तियोंके समूह इधरउधर ग्रामके अंत सरोवरके निकट विराजमान हैं। ग्रामसे दक्षिणपश्चिम १॥ मीलपर वीनासन नामकी बौद्ध गुफा है। __.(२) देवख्वाड़ा-भांदकसे पश्चिम ६ मील। पहाड़ीके ऊपर प्राचीन मंदिर व चार स्तम्भ हैं। चरणपादुका है, गुफाएं हैं। नोट-इसमें भेन चिन्ह अवश्य होने चाहिये, जांचकी जरूरत है।
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प्राचीन जैन स्मारक |
[१४] भंडारा जिला ।
चौहद्दी यह है । उत्तरमें बालाघाट, सिवनी । पूर्वमें छेरीकदन, खेरागढ़ व नांदगांव राज्य । पश्चिममें नागपुर, दक्षिण में चांदा । यहां ३९६९ वर्ग मील स्थान है ।
इतिहास - राघोली ( जि० बालाघाट ) में जो ताम्रपत्र मिला है उसमें डोल वंश के राजाका नाम है । राज्यधानी- श्री वर्धनपुर । रामटेक पास जो नगरवन है वह नंदिवर्द्धनका प्राचीन नाम है । इसे शायद इस वंश के राजाने वनाया हो । सन् ९४० के वर्धाके देवली राष्ट्रकूट ताम्रपत्र अनुसार नगरधन एक प्रसिद्ध स्थान था | ? गढ़के अन्त में भंडाराचा एक भाग मालवा के परमार या पंचारके राज्य में गर्भित | सीतावल्दी (नागपुर) का पाषाण जो मन ११०४-२ का है बनाता है कि उनकी ओरले नागपुर में ऋषि थे ।
३६ ]
यह बहुत सम्भव है कि नागपुर और भंडारा में जो वर्तमान परवार जाति है वह उन अधिकारियोंकी संतान हों, जिन्हें नालबाके राजाओंने यहां नियत किया हो ।
It is possible that the existing Parwar caste of Nagpur and bhandata are a relic of temporary officers in Name of Kings of Malwa. {See Bhandara Gazetter ( 1908). पुरातत्व - यहां तिलोता-खगने पापा के स्तम्भ हैं । अनके पास पद्मापुर में प्राचीन इमारतें हैं। प्राचीन मंदिर अधिकतर हेमदपंत के 'अयाल, चकती, करम्बी, पिंगलई व भंडारा नगरनें हैं । (१) अयाल या अद्यार- भंडारा नक्षिण १७ मील
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मध्य प्रान्त।
३७ यहां श्री महावीरस्वामीका जैन मंदिर प्राचीन है। यहां एक पुरुष प्रमाण कृष्ण पाषाणकी बहुत ही मनोज जैन मूर्ति श्री पार्श्वनाथनीकी एक मकानकी नींव खोदते हुए मिली है।
भंडाराका प्राचीन नाम 'भानार' है ऐसा रतनपुरके सन् ११०० के लेखसे प्रगट है। यह प्राचीन नगर था।
[१५] बालाघाट जिला । ___ चौहद्दी-उत्तरमें मांडल, पूर्वमें विलासपुर, दुग | दक्षिणमें भंडारा । पश्चिममें सिवनी । यहां ३१३२ वर्ग मील स्थान है
इतिहास-यहां लौनी स्थानपर हैहय वंशी राजाओंने राज्य किया था, जिनकी उत्पत्ति संवत् ४१५ या सन् ई० ३५८ के जादोरायसे थी। यह गढ़ाका राजा था। सन् ६३४में १०वां राजा गोपालशाह था जन मांडला प्राप्त हुआ था।
पृरातत्त्व-यहां कटंगीके पास वीसापुरमें, संखर, भीमलाट, भीरीके पास सावरझिरीमें प्राचीन स्मारक हैं।
(१) मीरी-यहां कुछ जैन मूर्तिये हैं।
(२) वाराशिवनी-चुनई नदीपर-यहां परवारोंके सुन्दर जैन मंदिर हैं।
(३) जोगीमढी-ग्राम धीपुर-बहरसे उत्तर पश्चिम १५ व बालाघाटसे ४१ नील । यहां बौद्ध स्नारक हैं व मंदिर हैं। (शायद जनके.भी हों)
(४) धनमुआ-यहां बौद्ध गिलाके प्राचीन मंदिर हैं।
(५) धीपुर-बैहरसे उत्तर पश्चिम १२ मील यहां प्राचीन मंदिर हैं।
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३८]
प्राचीन जैन स्मारक। (४) छत्तीसगढ़ विभाग ।
[१६] द्रुग जिला। चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तरमै बिलासपुर, पूर्वमें रायपुर, दक्षिण कंकड राज्य व पश्चिममें खेरागढ़ नांदगांव गज्य, चांदा ।
यहां स्थान ३८०७ वर्गमील है।
नागपुरा-ता. हुग-यहांसे उत्तर पश्चिम ५ मील । वहां प्राचीन जैन मंदिर हैं और यह कथा प्रसिद्ध है कि आरंग, देववलोदा और नागपुरामें एक ही गतको ये मंदिर बनवाए गए थे।
[१७] रायपुर जिला चौहद्दी यह है कि दक्षिण तरफ महानदीका तट, उत्तर पश्चिम सतपुरा पहाड़ी, दक्षिण पश्चिम महानदी तक खंडित देश ।
यहां ११७२४ वर्गमील स्थान है।
इतिहास-यहां हैहयवंशी, जो कलचूरीके नामसे प्रसिद्ध थे, बहुतकाल राज्य करने रहे । इनका मूल राज्य चेदी देश ( चंबल नदी उत्तरपश्चिमसे लेकर चित्रकूटके उतरपूर्व लवी नदीतक) में था। बुन्देलखंडके दक्षिणपूर्वकी ओर पहाड़ियोंपर इनका आधिपत्य था। रतनपुरमें-इनका शिलालेख सन् १९१४ का मिला है। चेदी राजा कोलके अठारह पुत्र थे। पहला त्रिपुराका राजा था। छोटेमेंसे एकने कलिंग राजाका पुत्रत्व पाया। अपना देश छोड़ गया, उस देशको दक्षिण कौशल देश कहा । यहां चेदी वंशने १०वीं सदीसे सन् १७४० तक राज्य किया।
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मध्य प्रान्त।
[३६ पुरातत्व-यहां बहुत स्मारक हैं ।. उनमेंसे आरंग, राजिन' और सिरपुरके प्रसिद्ध हैं।
बढ़िया मंदिर सिहावा, चिपटी, देवकूट, धंतरी तहसीलमें बलोद जिलेके उत्तर पूर्व खतारी और नरायणपुर, रायपुरनगरके पास देववलोदा और कुंवार पर हैं।
बौद्धोंके स्मारक द्रुग-राजिना, सिरपुर तथा तुरतुरिया पर हैं।
इस जिले में होकर एक बहुत पुरानी व प्रसिद्ध सड़क गंनम और कटकको जाती है । अब उसका पता भांदकके पासले यहां होकर लगता है। भांदक पहले एक बड़ा नगरं था।
(१) आरंग-ता० रायपुर-यहांसे २२ मील | यह जैन मंदिरोंके लिये प्रसिद्ध है। यहांक जैन मंदिरोंके वाहर जैन देवी देवताओंके चित्र हैं। एक मंदिरके भीतर तीन विशाल नन्न मूर्तियां कृष्ण पाषाणकी बहुत स्वच्छ कारीगरीकी हैं। यहां एक बड़ा नगर था व जैनियोंके बहुत मंदिर थे अब यह एक ही रह गया है। यह . भी गिरजाता! यदि सर्वे करनेवाले लोहेकी संलाखोंसे रक्षित न करते। यह मंदिर देखने योग्य है । रायपुर गनटियर सन् १९०९के पृष्ठ२५२ पर इस मंदिरका चित्र दिया है। इसको भांददेवल कहते हैं। इस नगरके पश्चिममें एक सरोवरके तटपर एक छोटा मंदिर महामायाका है। यहां बहुतसी खंडित मूर्तियां रक्खी हैं। एक खंडित पाषाण है, जिसमें केवल १८ लाइन लेखकी रह गई हैं। इस मंदिरके वाड़ेके भीतर तीन नग्न जैन मूर्तियां हैं जिनपर चिन्ह हाथी, शंख व गैंडेके हैं जो क्रमसे श्री अजितनाथ, श्री नेमिनाथ व श्री श्रेयांशनाथकी हैं । (सन् १९०९) से पूर्व करीब ६ या ७ वर्ष हुए
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४०]
प्राचीन जैन स्मारक। यहां एक रत्नकी जैन मूर्ति मिली थी जो ६०००) में दीगई थी। ये सब स्मारक प्रगट करते हैं कि यह आरङ्ग जैनधर्मका बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध स्थान था। यहां अग्रवाल बनिये रहते हैं। (आरङ्गके लेखोंके लिये देखो कनिंघम रिपोर्ट १७ सफा २१ यहां आठवीं शदीके दो ताम्रपत्रोंका वर्णन है) तथा देखो (वगलर रिपोर्ट जिल्द ७ सफा १६०)।
(२) वड़गांव-ता. महासमुद्र । यहांसे उत्तर पूर्व १०मील महानदीकी दाहनी तरफ । यहां अब भी रतनपुरके प्राचीन हैहय राजवंशीके वंशज रहते हैं।
(३) कुर्रा या कुंवर-रायपुरके उत्तर १४ मील । मंधर स्टेशनसे ४ मील । दक्षिण तरफ मिचनी सरोवर तटपर अब चार छोटे मंदिर हैं । पहले ग्राममें यहां बहुत बड़े २ मंदिर थे उनमें मुख्य दो जैन मंदिर थे जिनको खूबचन्द जैन वणिकने कुल्हान नदीकी घाटी बनानेके लिये रीड कमिशनरको दे दिये थे। कई खुदे हुए पाषाण अब भी पड़े हुए हैं । कुछ जैन मूर्तियां भी रह गई थीं जो ग्रामके इधर उधर विराजित हैं। खूबचंद स्वयं कहते . हैं कि उसने स्वयं इस ग्राममें तीन तथा मलकाममें दो जैन मंदिर गिरवा दिये थे।
(४) सिरपुर-(शिलालेखमें श्रीपुर ) महानदीके दाहने तटपर । रामपुरसे पूर्व उत्तर ३७ मील । यह कभी एक बड़ा नगर था। यहां नौमी शताब्दीकी बनी हुई सुन्दर ईटे पाई जाती हैं।
(५) रायपुर-यहां दुधाधारी मठ है, जिस मंदिरके आंगनमें सिरपुरसे लाए हुए पाषाण खंड पड़े हैं। ये बहुत सुन्दर बने हैं
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४२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
और उत्तरीय कलचूरी एक ही वंशके हैं । सन् २४९ से लेकर १२वीं शताब्दी तक उन्होंने दाहल या नर्मदा प्रांत में राज्य किया । उनका चिन्ह सुवर्ण वृषभध्वज था । कर्णदेव राजाकी मोहरपर एक वृषभ है उसके पास चार भुजाकी देवी एक हाथीपर है। हर ओर उसपर अभिषेक होरहा है ।
[१८] विलासपुर जिला ।
चौहद्दी यह है- दक्षिण रायपुर, पूर्वदक्षिण रायगढ़ व सार-. नगढ़ राज्य, उत्तरपश्चिम शतपुरा पहाड़ी ।
यहां ८३४१ वर्गमील स्थान है ।
इतिहास - यहां के शासक रतनपुर और रायपुरके हैहयवंशी राजपुत रहे हैं । जिनका सबसे प्रथम राजा मयूरध्वज हुआ है । इनके पास ३६ किले थे, इसीसे इस प्रांतको छत्तीसगढ़ कहते हैं। वीसवां राजा सन् १००० में सूरदेव व ४६ वां राजा कल्याणशाह था जिसने १९३६ से १९७३ तक राज्य किया ।
पुरातत्व - विलासपुरले उत्तर १६ मील रतनपुर - हैहयवंशका प्राचीन राज्यस्थान था । बहुत सुन्दर मंदिर जंजगिर, पाली व पेंडरा से ५ मील धनपुर में हैं ।
(१) रतनपुर - इसको १०वीं शताब्दी में रत्नदेवने बसाया था । इसके ध्वंश स्थान १५ वर्गमील में हैं । ३०० सरोवर हैं व अनेक मंदिर हैं। यहां महामायाका मंदिर हैं जिसके पास बहुतसी मूर्तियों का ढेर है, उनमें अनेक जैन मूर्तियां हैं ।
(२) अदभार - चन्दनपुर राज्य में विलासपुरसे ४० मील
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मध्य प्रान्त ।
[४३ देवीके प्राचीन मंदिरको भूमिपर एक झोपड़ा है जिसमें एक जैन मृति ई आमन है।
(१) धनपुर-जमींदारी पंडरा-यहाँने उत्तर १ नील। यह . भी प्रसिद्ध प्राचीन स्थान है। धनपुर और रतनपुर दोनोंको हत्य गजपूतोंने बसाया था । भीतर मरोबरसे उत्तर आध नील जाकर के छोटे२ टीले हैं जो प्राचीन ध्वंश मकानोंसे ढके हुए है। इसके पश्चिन ॥ नीलपर छ: नंडिगेंना समूह है । सरोकरके दूसरे तटपर चार बड़े मंदिरोंका नमूह है जो देखनेसे जैनके नाम होने हैं । इमसे थोड़ी दूर एक संभवनाथके नामने सरोवर है, जिसके नटपर बहुतसी जैन मृतियोंक खंड हैं। ये सब नंदिर कुछ पापा कुछ इट और पापाणदोनोंक हैं। पुरानी रीनिकी बहुत बड़ी है जैसी मिग्पुरमें मिलती हैं। कुछ प्राचीन बत्तुएं पेन्डरामें लाई गई है। यहां ४ वर्गमील तक खंड स्थान हानिघम रि० नं. ७ पत्र २३७)
(१) खरोद-महानदीने १ मील द अकलतरा सड़कपर लिवरीनारायणले २ मील ! यहां प्राचीन मंदिर हैं। सबसे बड़ा लक्ष्मेश्वचा है। इसमें चेदी सं० ९३३ या सन् १९८१का पुगना शिलालेख है जिसमें शलिंगगनने लेकर रत्नदेव तृतक हैहय राजाओंग पूर्ण नाम हैं। . (९) मलतर या मलतार-ता० विलासपुर-यहांसे दक्षिण पूर्व १६ नील | यह लीलागर नदीसे ८६० फुट ऊंचा है प्राचीन कलमें प्रसिद्ध स्थान था । बहुतसे प्राचीन मंदिर है जहां बड़ीर नग्न जैन मूर्तियां हैं। उनमेंस बहुतसी उठा ली गई हैं बहुत
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४४]
प्राचान जैन सारक। इधर उधर पड़ी हैं। यहां कई शिलालेख मिले हैं, उनमेंसे एक रतनपुरके कलचूरी राजाओंके सम्बन्धका है जिसमें चेदी सं० ९१९ या ११६७ ई० है, नागपुर म्यूजियममें है।
(५) तुमन-ता. विलासपुर-यहांसे ६० मील । नमींदारी लाका रतनपुरसे ४५ मील हैहय वंशी "जब छत्तीसगढ़ आए तब पहले यहीं वसे" ऐसा सन् १११४ के जजल्लदेव प्रथमके शिलालेखमें कहा है। उसके बड़े कलिंगराजने तुमनमें स्थान जमाया। रत्नदेवने जो जजल्लदेव देवश्च दादा था रतनपुरमें राज्यधानी स्थापित की थी।
(१९) संबलपुर जिला । ___ यहां पाटना राज्यमें कोन्धनके तोप वर्गनेमें तीतलगढ़ है। ग्रामसे एक मील करीब दूर धवलेश्वरका मंदिर है जिसके बाहर श्री पार्श्वनाथजीकी पाषाणकी मूर्ति है ब एक बड़े कमरेके ध्वंश हैं। (देखो सी० पी० कौजिन रिपोर्ट सन् १८९७ जिल्द. १९)
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(२०) लगुजा राज्य इम राज्यकी लखनपुर जमींदारी में रामगढ़ पहाड़ी है। यह लखनपुरसे पश्चिम १२ मील है। "रामगढ़ पहाड़ी" यह २६०० फुट ऊंची है। बंगाल नागपुर रेलवेके खरसिया म्टेशनसे १०० मील है। यहां प्रतिवर्ष यात्री आने हैं। पहाड़के उत्तर भागके पश्चिमी चढ़ानकी तरफ गुफाएं हैं। इसकी उत्तरी गुफाको सीनामें और दक्षिणी गुफाको जोगीमारा कहते हैं।
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मध्य 'प्रान्त
[४५ ___ यहां दो लेख अशोककी लिपिके समान ब्राह्मी लिपिमें देखे गए हैं। जो लेख सीतावेंगा गुफामें हैं वह सन् ई० से पहले ' तीसरी शताब्दीके किसी नाटक काव्यकी प्रशंसामें हैं।
जोगीमाराका लेख मागधी भाषाकी चार लाइनमें है इसमें देवदासी और किसी चित्रकारका नाम है।
इस गुफाकी चौखटपर चित्रकारी है जिसका वर्णन इस प्रकार है
भाग (१)-एक वृक्षके नीचे एक पुरुपका चित्र हैं, बाई तरफ अपसराएं व गंधर्व हैं । दाहनी तरफ एक जलस हाथी सहित है। __ भाग (
२ मे पुरुग, ग. चक नशा अनेक त्याकारक आभूषण हैं।
भाग (३)-इसका आधा भाग स्पष्ट नहीं है । उसमें पुप्प, प्रासाद, सवस्त्र मनुष्य हैं। इसके आगे एक वृक्ष है उनपर एक. पक्षी है और एक पुरुप, बालक है । इसके चारों ओर बहुतसे मनुष्य हैं जो खड़े है, स्त्र रहित हैं जैसा वालक वस्त्र रहित है। मस्तककी वाई तरफ देशोंमें गांठ लगी है।
भाग (४)-एक पुरुप पद्मासनसे बैठा है जो स्पष्टपने नग्न है इसके पास तीन मनुष्य सवस्त्र खड़े हैं इसीके बगलमें ऐसे ही पद्मासन नग्न पुरुष हैं और तीन ऐसे ही सेवक हैं । इसके नीचे एक घर है जिसमें चेत्यकी खिड़की है सामने १ हाथी है और तीन पुरुष सवस्त्र खड़े हैं । इस समुदायके पास तीन घोड़ोंसे जुता हुआ एक रथ है, ऊपर छतरी है । दूसरा एक हाथी सेवक सहित है । इसके दूसरे आधेमें भी पहलेके समान पद्मासन पुरुप
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,४६:
प्राचीन जैन स्मारक। चैत्यखिड़की सहित गृह तथा हाथी आदि चित्रित हैं। (देखो इंडिया आकिलो सर्वे रिपोर्ट १९०३-४ सफा १२३)। .
सं० नोट-इसमें किनहीं महापुरुषोंका दीक्षा लेनेका या भक्तिका दृश्य झलकता है। संभव है ये सब जैन धर्मसे सम्बन्ध . रखते हों इसकी पूरी२ जांच होनी चाहिये।
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(५) बरार विभाग। इतिहास-इसका प्राचीन नाम विदर्भ है। जहां कृष्णकी पट्टरानी रुक्मिणीका भाई रुकमी गज्य करता था। विदर्भले राजा भीमकी कन्या दमयन्ती थी।
सन ई०से तीन शताब्दी पहलेसे अन्ध्र लोगोंका राज्य था। इस अंध्र वंशका २३वां राजा विलिवायुकुर द्वि० (सन् ११३१३८) था जिसने गुजरात और काठियावाड़के क्षत्रपोंसे युद्ध किया था। सन् २३६में यहां क्षत्रपोंने राज्य किया, फिर वाकातक वंशने फिर अमीरोंने फिर चालुक्योंने सन् ७५० तक राज्य किया। फिर . सन् ९७३ तक राष्ट्र कूटोंने । पश्चात् चालुक्योंने फिर देवगिरि यादवोंने फिर मुसल्मानोंका राज्य हुआ।
यहां १७७१० वर्ग मील स्थान है।
चौहद्दी यह है-उत्तरमें सतपुरा पहाड़ी और तापती नदी,. . पूर्वमें मध्य प्रांत वर्षा, पश्चिम वम्बई और हैदराबाद ।
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। : मध्य प्रान्त . [४७ (२१) अमरावती जिला। . इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तरमें एलिचपुर ता० चेतुल, पूर्वमें वर्धा नदी, दक्षिणमें येवतमाल, पश्चिममें अकोला ।
यहां २७५९ वर्गमील स्थान है।
इतिहास-वाकातक राजाओंने यहां राज्य किया, उनकी राज्यधानी चांदा जिलेमें भांदकमें थी। अजन्टा गुफाओंकी १६वीं गुफामें एक लेख है जिसमें ७ बाकातक राजाओंके नाम आए हैं।
(१) भातकुली-अमरावतीसे १० मील। यहां प्राचीन जैन मंदिर हैं जिनमें दि० जैन मूर्ति श्री पार्श्वनाथ स्वामीकी है जो गढ़ी ग्राममें भूमि खोदते मिली थी।
(२) जारद-ता० मोरसी-सकी नदीके तटपर एक जैन मंदिर है।
(२२) एलिचपुर जिला । इसकी चौहद्दी यह है। उत्तर तापती नदी, वेतुल जिला, पूर्वमें अमरावती, दक्षिणमें पूर्ण नदी, पश्चिममें निमावर जिला ! इसमें २६०५ वर्गमील स्थान है।
(३) एलिचपुर-नगर, यह कहावत प्रसिद्ध है कि इसको राजा एलने बसाया था, जो जैनी था। यह राना एलिचपुर जिलेके किसी ग्रामसे सं० १११५ (सन १०५८) में आया था। उस प्रामको अब संजमनगर कहते हैं।
यह एक बलवान राजा था। उस समय यह निला सोमेश्वर । प्रथम चालुक्य बंधी महारामका भाग था। यहां १९०१ के
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४८
प्राचीन जैन सारक। मनुसार २३१ जेनी हैं। जेम मंदिर हैं। यहां होकर श्री मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र (जो वैतुल जिले में निकट है) को यात्री जाते हैं।
(२३) येवतमाल या ऊन जिला।
इसकी चौहद्दी यहं है। उत्तरमें अमरावती पूर्वमें वर्धा, दक्षिणमें पेन गंगा, पंश्चिममें पुसड़ व मंगरूल ता०यहां ३९१० वर्ग मोल स्थान है।
(१) कलम-ता. येवतमाल ! इस ग्रानमें एक भूमिके नीचे श्री चिंतामणि पार्श्वनाथका प्राचीन जन नंदिर है।
(४) अकोला जिला ! इनको चौहद्दी है । उत्तरमें मेलघाट पहाड़ी, पूर्वमें दयोपुर, मुतनापुर, पश्चिममें चिखली, मलकापुर दक्षिणमें मंगरूल वासिम ।
यहां २६७८ वर्ग मील स्थान है।
(१) नरनाल-ता: अकोला-एक पहाड़ी ३१६१ फुट ऊँची है । इसपर चार बहुत ही आश्चर्यकारी पापाणके कुंड हैं। ऐसा समझा जाता है कि इनको मुसल्मानोके पूर्व जैनियोंने बनवाया था।
(२) पातूर-नगर ता० बालापुर । एक पहाड़ीके उत्तरमें दो गुफाएं हैं, जिनके भीतर एक खण्डित पद्मासन मूर्तिका भाग है और मूर्तियां नहीं हैं। तथा खम्भोंपर लेख हैं जो अभीतक (१९०९) तक पढ़ें नहीं गए थे। ये गुफाएं शायद जैनोंकी हों। सं० नोट-जांच होनी चाहिये।
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मध्य प्रान्त |
[ ४
(३) सिरपुर - वासिमसे उत्तरपश्चिम ११ मील । यह जैनियोंका पवित्र स्थान है |
इम्पीरियल गजेटियर बरार सन् १९०९ में नीचे प्रकार कथनं
S
" है " यहां श्री अन्तरीक्ष पार्श्वनाथका मंदिर है जो दिगम्बर जैन जातिका है ( belongs to Digambor Jain Community ) इसमें एक लेख सन् १४०६ का है। इसमें अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ नाम लिखा है। यह मंदिर इस लेखसे १०० वर्ष पहले निर्मापित हुआ था । यह कहावत है कि एलिचपुरके येल्लुक राजाने नदी तटपर इस मूर्तिको प्राप्त किया था और वह अपने नगरको ले, जा रहा था, परन्तु उसे पीछा नहीं देखना चाहिये था । सिरपुर के स्थानपर उसने पीछा फिरकर देख लिया तब मूर्ति नहीं चल सकी। वहीं बहुत वर्षोंतक यह मूर्ति वायुमें अटकी रही ।
अकोला जिलेका गजटियर जो सन १९११ के अनुमान मुद्रित हुआ होगा उसमें मिरपुर के सम्बन्धमें जो विशेष बात है वह यह है । जैन मंदिरके द्वारके मार्गके दोनों तरफ नग्न जैन मूर्तियां हैं तथा चौखटके ऊपर एक छोटी बैठे आसन जैन मूर्ति है । एलराजा मैनी था । इसको कोढ़का रोग था - वह एक सरोवरमें नहाने से अच्छा हो गया । राजाको स्वप्न आया कि प्रतिमा है । वह प्रतिमा लेकर उसी तरह चला तब प्रतिमा सिरपुरके वहां न चल सकी तब राजाने उसी के ऊपर हेमदपंथी मंदिर बनवाया । पीछे . दूसरा मंदिर बनवाया गया। यह मूर्ति एक कुनवी कुटुम्बके अधिकार में रही आई है. जिसको पावलकर कहते हैं । यह बात कही जाती है कि यह मूर्ति इस वर्तमान स्थिति में वैसाख सुदी ३ वि०
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५०]
प्राचीन जैन स्मारक। सं० ५५५को स्थापित हुई थी जिसको करीब १५०० वर्ष हुए।
"Descriptions of list of inscriptions in C. P. & Berar by R. B. Hiralal B. A. 1916 "
नामकी पुस्तकमें सफा १३५ में इस भांति लिखा है “ यह अंतरीक्ष पार्श्वनाथका मंदिर दिगम्बर जैन समाजका है । संस्कृतमें एक बड़ा शिलालेख सन् १४०६ का है परन्तु मि० कौशिनसाहब (Cousin's progress report 1902 P. 3) कहते हैं कि यह मंदिर कमसे कम १०० वर्ष पहले बना है। लेखमें अन्तरीक्ष पार्श्वनाथका तथा मंदिरके बनानेवाले जगसिंहका नाम आया है।"
सं० नोट-ऊपर तीनों लेख पढ़नेसे विदित होता है कि १५०० वर्ष हुए।तब मैंोरेमें मूर्ति स्थापित की गई थी तथा ऊपर दूसरा मंदिर सन् १४०६में बना है । . (४) तिलहारा-तालुका अकोला, यहांसे पश्चिम १७ मील। यहां श्वेताम्बर जैन मंदिर है जो हालमें बना है । मूर्ति सुवर्णकी पद्मप्रभुजीकी है।
(२५) बुलडाना जिला। चौहद्दी यह है कि-उत्तरमें पूर्णनदी, पूर्वमें अकोला, दक्षिणमें निजाम, पश्चिममें निजाम और खानदेश ।
यहां २८०६ वर्गमील स्थान है।
(१) मेहकर-बुलडानासे दक्षिणपश्चिम ४२ मील। यहां बालाजीका एक नवीन मंदिर है, उसमें एक खंडित जैन मूर्ति है उसपर छोटासा लेख है । संवत १२७२ है। इस मूर्तिको आशाधरकी स्त्री पद्मावतीने प्रतिष्ठित कराया था।
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मध्य प्रान्त ।
[ ५१
(२) सातगांव - बुलडानासे पश्चिम दक्षिण १० मील । खास सड़क पर एक विष्णु मंदिरके उत्तर एक प्राचीन जैन मंदिरके चार खंभे अवशेष हैं तथा दो जैन मूर्तियें हैं । एक श्री पार्श्वना
जीकी है उसपर शाका ११७३ या सन् १२९१ है । यह दिगम्वर है । इसके उत्तर पश्चिममें थोड़ी दूर एक पीपल वृक्षके नीचे - बहुतसी प्राचीन जैन मूर्तियोंके खंड हैं । तथा एक चबूतरेपर एक खंडित देवी की मूर्ति है । मस्तकपर फूलों की माला बनी है। उसके ऊपर पद्मासन जैन प्रतिमा है । इसलिये यह जैनियोंकी देवीकी मूर्ति है । ऊपर जिस पार्श्वनाथकी मूर्तिका लेख शाका ११७३ का दिया है वहां पर वह भी लेख है कि इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा तेलुगु जैन कंथतय्या सेठीके पुत्र जैन ने कराई |
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५२]
पास
प्राचीन जैन स्मारक ।
ww
दूसरा भागमध्य भारत-प्राचीन जैन स्मारक।
Imperial Gazetteer of Central' Indin Cal. 1908. इम्पीरियल गजेटियर मध्य भारत कलकत्ता सन् १९०८के अनुसार तथा भिन्नर गजेटियरोंके आधारसे नीचेका वर्णन लिखा जाता है
इस मध्य भारतकी चौहद्दी इस भांति है-उत्तर-पूर्वमें संयुक्त प्रदेश, पूर्वमें मध्यप्रांत, दक्षिण-पश्चिममें खानदेश, रेवाकांठा, पंचमुहाल ।
यहां ७८७७२ वर्गमील स्थान है।
इतिहास-गौतमबुद्धके समयमें वौद्धमतकी पुस्तकोंके आधारसे भारतवपमें सोलह मुख्य राज्य थे। उनमें अवन्ती-राजधानी उज्जैन व वत्सदेश-राज्यधानी कौसाम्बी भी थे। उस समय उत्तरसे दक्षिणतक अर्थात् कौशल देशके श्रावस्तीसे दक्षिणमें पैथन तक पुरानी सड़क थी। वीचमें उज्जैन और महिस्मती (महेश्वर) में ठहरनेके स्थान थे। इस मध्य भारतपर जैनधर्मधारी महाराज चंद्रगुप्त मौर्य व उसके वंशजोंने सन् ई०से ३२१ वर्ष पूर्वसे २३१ वर्ष पूर्वतक राज्य किया। चंद्रगुप्तके पीछे उसके पुत्र विन्दुसारने ( २९७ से २७२ पूर्वतक ) फिर महाराज अशोकने राज्य किया। अशोकने भिलसाके पास सांचीमें और नागोदके भीतर भारहुतमें स्तूप स्थापित कराए। मौर्योंके पीछे सुंगवंशने राज्य किया, उसकी राज्यधानी पाटलीपुत्र थी । इसी वंशमें अग्निमित्र राजा हुआ है जो मालविकाग्निमित्र नाटकका वीर योद्धा था। इसकी राज्यधानी विदिशा (भिलसा) थी।
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५४]
प्राचीन जैन स्मारक । चंदेलोंने राज्य किया । ये सब प्रसिद्ध ऐतिहासिक वंश हैं।
गुर्जर-ये लोग राजपूताना और पश्रिम तटकी भूमि गुजरात . पर बसते थे । इन्होंने मध्य भारतको ८ वीं शताब्दीमें ले लिया । इनकी दो शाखाएं थीं उनमें से परिहार राजपूतोंने बुन्देलखण्ड पर और परमार राजपूतोंने मालवा पर अधिकार किया ।
सन् ८८५ में भोज प्रथमकी मृत्युके पीछे गुर्जरोंकी शक्ति क्षीण हो गई क्योंकि बुन्देलखण्डमें चन्देलवंशी नर्वदाके पास कलचूरी वंशी तथा राष्ट्रकूटोंका प्रभाव बढ़ गया। सन् ९१५ में, मालवाके परमार वंशने इन लोगोंकी सत्ता हटा दी। तब मध्यभारतका शासन इस तरह बढ़ गया कि परमार लोग मालवामें जमे ।। उनकी राज्यधानी उज्जैन और धार हुई: परिहार लोग ग्वालियरमें. डट गए; चंदेले बुन्देलखण्डमें जमे-इन्होंने अपनी राज्यधानी महोबा: और कालिंजरको बनाया । चेदी या कलचूरी वंशज रीवा राज्यमें राज्य करते रहे । जब महमूद गजनीने भारत पर हमला किया तब बुन्देलखंडका चन्देलराजा धंजा और लाहौरके जयपालने मिलकर लम्घानपर सन् ९८८में सुबुक्तगीनके साथ युद्ध किया था। चौथे हमले में महमूदका सामना पेशावरमें लाहोरके आनन्दपालने,. ग्वालियरके तोंवरराजाने, चन्देलमहाराज गंदा (सन् ९९९-१०२५) ने मालवाके परमार राजा (यातो भोज हो या उसका पिता सिंधुराज हो) ने युद्ध किया था।
महमूदके १०३०में मरणके पीछे मुसल्मानोंने १२वीं शताब्दीतक मध्य भारतकी तरफ मुख नहीं किया । सन् १२०६ से १५२६ तक पठान फिर मुगल बादशाहोंने अधिकार रक्खा । सन:
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मध्य भारत।
[५५ १७४३ से मरहटोंने अपना अधिकार जमाया। अहल्यावाईने हुलकर राज्यपर सन् १७६७से १७९५ तक राज्य किया। इसकी न्यायप्रियता व योग्यता भारतमें उदाहरणरूप है।
पुरातत्व-प्राचीन स्मारकके प्रसिद्ध स्थान नीचे लिखे स्थानोंपर हैं-(१) प्राचीन उज्जैन, (२) वेशनगर, (३) धार, (४)मन्दसोर, (५) नवर, (६) सारंगपुर, (७) अजयगढ़, (८) अमर-, कंटक, (९) वाघ, (१०) वरो, (११) बड़वानी, (१२) भोजपुर, (१३) चन्देरी, (१४) दतिया, (१५) धमनार, (१६) ग्वालियर, ; (१७) ग्यासपुर, (१८)खनराहा, (१९)मांड,(२०) नागोद, (२१) नरोद, (२२) ओर्छा, (२३) पथारी, (२४) रीवा, (२५) सांची, : (२६) सोनागिरि, (२७) उदयगिरि, (२८) उदयपुर। .
प्राचीन सिक्के पहली शताब्दीके सांची और भरहुतके स्तूपोंके ; समयके मिलते हैं। गुप्त समयके दो लेख मिलते हैं-एक गुप्त संवत ८२ या सन् ४०१ का; दूसरा सबसे पिछला गुप्त सं० ३०२ या • सन् ६४० का रतलाममें । मंदसोरका शिलालेख जो मालवाके वि० सं०.४९३ या सन् ४३६का है बहुत उपयोगी है । यह इस बातको प्रमाणित करता है कि विक्रम संवतके साथ मालवाकी शक्तिका क्या प्रभुत्व है ? मध्यप्रांतमें चारों तरफ सन ई०से ३०० वर्ष पहलेसे : आजतकके अनेक शिल्प पाए जाते हैं। सन् ई०से ३०० वर्ष पहले बौद्धोंके स्मारक भिलसाके चारों तरफ तथा सबसे बढ़िया सांची स्तूपमें पाए जाते हैं । नागोदमें भरहुतपर जो स्तुप है वह तीसरी शताब्दी पूर्वका है।
जैनियोंके ढंगके बहुतसे मकान व मंदिर थे जो अब लुप्त -
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५६ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
हो गए हैं । उनमें प्रसिद्ध ग्यासपुरके मंदिर हैं, प्राचीन मंदिर खजराहाके हैं तथा उदयपुरके मंदिर हैं। जैनियोंके सोलहवीं शतावीके मंदिर ओर्छा, सोनागिरि (दतिया) में हैं ।
पूर्वी हिन्दी भाषा - इस मध्यप्रांतमें यह भाषा अधिक वोली जाती है। यह उसी प्राचीन भाषाका अपभ्रंश है जिस भाषा में सन ई० से ९०० वर्ष पूर्व श्री महावीर भगवानके तत्व वर्णन किये जाते थे । यही भाषा बादमें दिगम्बर जैनियोंके मुख्य शास्त्रोंकी भाषा होगई ।
इस हिन्दीका अवघी भाग मध्यभारतमें व बघेली भाग बधेलखंडमें पाया जाता है । वघेलीमें बहुत बड़ा साहित्य है जिसकी रक्षा रीवांके राजालोग सदा करते आए हैं । बधेली हिन्दी बोलनेचाले १४०१०१३ हैं ।
जैन धर्म - ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में मध्यभारतके उच्च वर्णोंमें जैनधर्म मुख्यतासे फैला हुआ था । उनके मंदिर व मूर्तियोंके शेष ध्वंश इस प्रांतमें सब तरफ पाए जाते हैं। अभी भी प्राचीन मंदिर खजराहामें, सोनागिरिमें है तथा कई यात्राके स्थान हैं जैसे बावनगजाकी मूर्ति बड़वानीमें । सन् १९०१ में यहां दिगम्बर जैनी ९४६०५ व श्वे० जैनी ३५६७५ थे ।
मध्य में भारतके विभाग ।
(१) वघेलखंड -- इस बघेलखंडमें रीवा, वन्दैर, कैमूर, खुंजना व सिरवू चट्टानें शामिल हैं। प्राचीन बौद्ध पुस्तकोंमें व महाभारत तथा पुराण में इस बघेलखंडका सम्बन्ध हैहय या कलचूरी या चेदी
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मध्य भारत।
[५७
जातिसे बताते हैं। इनका संवत् सन् २४९ ई०से शुरू होता है । उनका मुख्य स्थान नर्वदा नदीपर महिस्मती या महेश्वरपर था। यही उनकी राज्यधानी थी।
छट्ठी शताव्दीमें ये कलचूरी लोग प्रसिद्ध शासक हो गए, क्योंकि वादामी (बीजापुर ) का राजा मंगलिसी लिखता है कि उसने चेदीके कलचूरी राजा बुद्धवर्मनपर विजय प्राप्त की थी। बृहत संहिता नामा ग्रंथमें चेदी लोगोंको प्रसिद्ध मध्यप्रांतकी नाति बताया है। सातवीं शताब्दीके अंतमें कलचूरी लोगोंने बघेलखंडका सर्व प्रदेश लेलिया था तब उनका मुख्य स्थान कालिंजर पर था। इस समय बुन्देलखंडमें चंदेला, मालवामें परमार, कन्नोजमें राष्ट्रकूट व गुजरात और दक्षिण भारतपर चालुक्य राज्य करते थे। कलचूरी लेख है कि उन राजाओंने चंदेलराजा यशोवर्मा (सन् ९२५-५५) से युद्ध किया था । इस यशोवर्माने कालिंजर लेलिया । अब भी कलचूरी लोग १२वीं शताब्दीतक राज्य करते रहे ।
यहां नागोदपर भरहुत स्तूप सन् ई०से तीसरी शताब्दी 'पूर्वका है। .
(२) बुन्देलखंड-इसमें जिला जालोन, झांसी, हमीरपुर और चांदा गर्मित हैं । ११६०० वर्गमील स्थान है। ___ • इसका इतिहास यह है-पहले गोहरवारोंने, फिर परिहारोंने, फिर चंदेलोंने राज्य किया। जिस चंदेलवंशका स्थापक नानक शायद नौमी शताब्दीके प्रथम अर्धभागमें हुआ है। चंदेलोंका चौथा राजा राहिल (सन् १९०-९१०) था । इसने महोवामें रोहिल्यसागर नामका सरोवर तथा एक मंदिर बनवाया जो अब नष्ट होगया है।
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५८] प्राचीन जैन सारक।
इनका सबसे पहला लेख राजा धांगा (९५०-९९) का है जो बहुत बलवान राजा था । इसने महमूदके विरुद्ध सन् ९७८में लाहोरके जयपालको मदद दी थी।
फिर राना गांदा या नंदराय (सन् ९९९-१०२५) ने भी जयपालको महमूदके विरुद्ध मदद दी थी ऐसा मुसल्मान इतिहासकार कहते हैं।
चन्देलोंका ग्यारहवां राजा कीर्तिवर्मा प्रथम था उसका पुत्र सलक्षण था, जिसने चन्दी व दक्षिण कौशलके राजा कर्णको जीत लिया था। इसने महोवामें कीरतिसागर नामका सरोवर तथा अनयगढ़में कुछ मकान बनवाए । पंद्रहवां राजा मदनबर्मा (११३०११६५) वड़ा कठोर राजा था । इसने चेदी राज्यको नीता तथा यह कहा जाता है कि इसने गुजरातको भी विजय किया था।
इसके पीछे परमार्दी देव या वरमाल (११६५-१२०३) हुआ। इसके राज्यमें दिहलीके पृथ्वीरानने सन् १९८२ में बुन्देलखण्डको जीत लिया । कुतबुद्दीनने सन् १२०३ में देशको ध्वंश किया।
चन्देलोंका राज्य इस हदमें था कि पश्चिममें धसान, उत्तरमें जमना नदी, पूर्वमें विन्ध्यापहाड़ी, पश्चिममें वेतवा, कालिंजर, खजराहा, महोबा और अजयगढ़ तक । शिलालेखोंमें इनके देशको जेजक भुकूति या निझोती कहते हैं इसीसे जिझोती ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति है।
बुन्देला लोग यह कहा जाता है कि इनकी उत्पत्ति पंचम या गहर्वासे है। चौदहवीं शताब्दीमें इनका अधिकार जमा हुआ था। ये मऊ, कालिंजर व काल्पीमें बसे । १५०७ ई० में बाबर बाद...
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प्राचीन जैन सारक। मालवाके विक्रम संवत सन् ५७ पूर्वके लेख राजपूतानासे प्राप्त हुए हैं। केवल एक लेख मंदसोरमें संवत ४९३ या सन् ४३६ का प्राप्त हुआ है। ___ चौद्धके समयमें जो भारतमें १६ प्रसिद्ध शक्तिये थीं उनमें अवंति देश भी एक था। उज्जैन बड़ी प्रसिद्ध जगह थी। दक्षिणसे नेपालके मार्गमें उज्जैन पड़ता था। बीचमें महिप्मती तथा . विदिशा या भिलसा भी पड़ता था।
पश्चिमी क्षत्रप-सन् ई० के प्रारम्भमें इन लोगोंने मालवा पर राज्य किया था। मुख्य राजा चास्थाना और रुद्रदमन (सन् १५०) थे। फिर गुप्तों तथा सर्कदहूनोंने राज्य किया । चंद्रगुप्त द्विने सन् ३९०में मालवा लिया । हूनोंमें तुरामन और मिहिर कुल प्रसिद्ध थे, करीब ५०० ई० तक राज्य किया । करीव ६०० सन् ई० के नरसिंह गुप्त बालादित्य मगधवासी और मंदसोरके राजा यशोधर्मनने राज्य किया । सन् ६०६से ६४८ तक प्रसिद्ध कन्नौज राजा हर्षवर्धनने मालवा पर शासन किया । ८०० से १२०० ई० तक मालवा पर. परमार राजपूतोंने राज्य किया जिनकी राज्यधानी पहले उज्जैन फिर धारपर रही । १० वीं से १३ वीं शदीतक १९ राजा हुए हैं उनमें बहुत प्रसिद्ध राजा भोज (सन् १०१०से १८५३) हुए हैं । यह बड़ा विद्वान और वीर था । अन्तमें इस राजाको अहिलवाड़ाके चालुक्योंने और त्रिपुरीके कलचूरियोंने राज्यसे भगा दिया। १२३८ के अनुमान मुसल्मानोंका राज्य होगया।
-REDEEO
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[ ६१
मध्य भारत ।
( १ ) ग्वालियर रेजिडेन्सी ।
इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तरमें चम्बल नदी, दक्षिण में भिलसा, पूर्व में बुन्देलखण्ड और झांसी, पश्चिममें राजपूताना । इसमें ग्वालियर राज्य, राघोगढ़, खरुआ, धानी, पारोन, गढ़ उमरी, भदौरा छोटे राज्य शामिल हैं ।
ग्वालियर राज्य में १७२० वर्गमील उत्तर व ८०२१ वर्ग मील दक्षिणमें कुल २१०४१ वर्गमील स्थान है ।
पुरातत्त्व - प्राचीन उज्जैनको खुदवाने की जरूरत है । सं० नोट- वास्तव में इस पुराने उज्जैनमें जैन प्राचीनताके बहुत चिह्न मिलेंगे ।
पुराने स्मारक भिलसा, वीसनगर व उदयगिरिमें जहां प्रथम शताव्दीके बौद्ध व ४ या ५ शता० के हिन्दू स्मारक देखे जाते हैं। मधकालीन हिन्दू और जैनकी शिल्पकला वरो, ग्वालियर, ग्यारसपुर नरो व उदयपुरमें है । यह शिल्प १० से १३ शताब्दी तकका है, परन्तु कुटवार या कामंतलपुरमें (नूरावादसे उत्तरपूर्व १० मील) तथा पारोली और परावली ( ग्वालियर से उत्तर ९ मील) में ५ वीं
·
या छठी शताब्दी व उसके पहलेके भी स्मारक हैं। तेराहीके पास राजापुरमें एक स्तूप है ।
तेराही, कछवाहा, शिवपुरके पास दूवकुन्डमें प्राचीन स्थान हैं । वालियरसे उत्तर २५ मील सुहानियों में हैं तथा उज्जैन नगरसे उत्तर ५ मील कालियादेहमें प्राचीन स्थान हैं । यह सप्रा नदी की घाटी है । यहां बहुत प्राचीन स्थान हैं ।
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प्राचीन जैन स्मारक |
मुख्य २ स्थान |
(१) वाघ - जि० अमझेरा । मनावरके पास ग्रामके पश्चिम ४ मील बौद्ध गुफाएं हैं जिनको पांच पांडव कहते हैं । यह अजंटाकी गुफाओंके समान ६ तथा ७ शताब्दीकी हैं ।
“६२ ]
(२) वरो - ( बड़नगर ) जि० अमझेरा । यह ग्वालियर राज्यमें • बहुत प्राचीन स्थान है | अब छोटा नगर है, परन्तु इसके पास प्राचीन नगरके ध्वंश शेष हैं जो पथारी नगर तक चले गए हैं । यह ग्राम गयानाथ पहाड़ीकी तलहटीमें है। यह पहाड़ी विंध्यका भाग है जो भिलसाके उत्तर तक आती है । सरोवरोंके निकट हिंदू तथा जैनोंके मंदिर हैं । एक विशाल जैन मंदिर है जिसको जैन मंदिर कहते हैं इसमें सोलह वेदियां हैं जिसमें जैन मूर्तियां हैं । - मध्यमें किसी मुनिका समाधि स्थान है । पन्नाके राजा छत्रसालने १७ वीं शताब्दीमें इस मंदिरको नष्ट किया ।
(३) भिलसा नगर - इसके निकट बौद्धोंके ६० स्तूप सन् ई० से तीसरी शताब्दी पूर्वसे १०० सन् ई० तक हैं । प्रसिद्ध स्तूप- सांची, अन्धेरी, भोजपुर, सातधारा व सोनारी (भोपाल) में हैं ।
(४) वीशनगर - भिलसाके उत्तर पश्चिम प्राचीन नगर है । उसको पाली में चैत्यगिरि लिखा है । यहां बौद्धोंके स्मारक हैं. । यहां उज्जैन के क्षत्रपोंके, नरवरके, नागोंके व गुप्तोंके सिक्के पाए गए हैं ।
जैन शिला लेखों में इसको भद्दलपुर कहा है व १० वें तीर्थंकर - सीतलनाथका जन्म स्थान माना गया है । वार्षिक मेला होता है । • यह नगर - सुंग राजा अग्निमित्रका राज्य स्थान था ।
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मध्य भारत।
[६३ (५) चंदेरी-जिला नरवर-नगर व प्राचीन किला । यहांसे ९ मील दूर पुरानी चन्देरी है जो अब ध्वंश स्थानोंका ढेर है। चन्देलोंने इसे बसाया था। इसका सबसे पहला कथन अलवेरूनी (सन् १०३०) ने किया है। यह सुन्दर तनजेवोंके बनानेमें प्रसिद्ध था (कनिंघम रिपोर्ट नं० २ पत्र ४०२) । चन्देरीके किलेके पास पहाडीपर पुरानी कुछ जैन मूर्तियां अंकित हैं । पुराना किला नग- . रसे २३० फुट ऊंचा है।
कनिंघम रिपोर्ट नं० २में है कि पुरानी चंदेरीको बूढी चंदेरी कहते हैं। यहां चन्देल राजाओंने सन् ७००से ११८४ तक राज्य किया था। यह ३०० फुट ऊंची पहाड़ीपर बसा है। यहां महल है उसके दक्षिण दो वंश मंदिरोंके शेष हैं । इनमेंसे एकमें एक पाषाण है जिसमें १०वीं या ११वीं शताब्दीके अक्षर हैं । इसकी 'थोड़ी दूरपर छोटा कमरा है जिसमें २१ जैन मूर्तिये हैं उनमें १९ कायोत्सर्ग व दो पद्मासन हैं। ये दोनों सुपार्थ तथा चन्द्रप्रभुकी हैं । नई चन्देरीकी पहाड़ीके नीचे एक सरोवर है जिसका नाम कीरतसागर है। . (६) ग्वालियरका किला-प्राचीन नगरके ऊपर ३०० फुट ऊँची पहाड़ी है उसपर किला है । यह किला छठी शताब्दीसे भारतके इतिहासमें प्रसिद्ध है। कहते हैं कि इस किलेको सुरजसेनने स्थापित किया था। यहां एक साधु ग्वालिय रहता था 'उसने सूरजसेनका कष्ट दूर किया था । यह ग्वालियर उसी साधुके नामसे प्रसिद्ध है । शिलालेखमें इसको गोपगिरि या गोपाचल लिखा है। किलेमें राजा तोरामन और मिहिरकुलका शिलालेख
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प्राचीन जैन स्सारका पाया गया है जिन्होंने गुप्तोंके राज्यको छठी शताब्दीमें नष्ट किया था।
नौमी शताब्दीमें यह किला कन्नोनके राजा भोनके आधीन था। इस राजाका लेख सन १७६ का चतुर्भूज नानकें पायाण मंदिर मिला है । कत्रवाहा राजपूतोंने : ० वीं शताब्दीक मध्यसे मन् १९२८ तक राज्य किया । प्रि परिहारोंने इसपर अधिकार किया । लन् १९९६म मुहम्मद गोरीने हमला किया और किलेको ले लिया। सन् २०१३ में परिहारोंने फिर ले लिया और उसे मन १२६२ तक अपने आधीन स्वखा। फिर मुममानोंने मन १३९८ तक अधिकान्ने क्ला. पीछे फिर तोवर राजपूतोंने सन् १९९८ तक अधिकारने लिया। पीछे इब्राहीम लोधीने कवजा किया । नोखर राना मानसिंह (सन १४८६-१९१७) के राज्यों यह ग्वालियर बहुत प्रभुत्वपन था । इसने पहाड़ीकी पूर्व और एक सुन्दर महल बनवाया है। इसकी प्यारी रानी गृजरी मृगर्नेना श्री । तब यह ग्वालियर गान विद्याका केन्द्र था। आईन अकबरीने जिन ३६ गवयों और वाभित्रों का वर्णन है उनमेंसे १५ ने ग्वालिबरने शिक्षा पाई थी इनहींम प्रसिद्ध नानसेन गवैया था।
मन १५२६ में किल्ले बाबरने ले लिया । लक्ष्मण दरवाजैके पास चनु नका मंदिर पहाइमें कटा हुआ ९ नी शताब्दीका है इसीने कन्नौजक राजा भोजका लेख मन् (७६ का है। राजाको गोपगिरि स्वानी कहा है।
जैन मंदिर और मूनिय-क्रिनिंघम रिपोर्ट नं० २) हाथी दरवाजा और साम वह मंदिनके मव्यमें एक जन नंदिर है जिसने
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मध्य भारत।
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मसजिदमें बदला गया है। खुदाई करनेपर एक नीचेको कमरा मिला है जिसमें कई नग्न जैन मूर्तियें हैं और एक लेख संवत ११६५ या सन् ११०८का है। ये मूर्तिये कायोत्सर्ग तथा पद्मासन दोनों प्रकारकी हैं। उत्तरकी वेदीमें सात फण सहित श्री पार्श्वनाथजीकी पद्मासन मूर्ति है। दक्षिणी भीतपर पांच वेदियां हैं जिनमें दो खाली हैं। उत्तरकी वेदीमें दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं। मध्यमें ६ फुट (इंच लम्बा आसन एक मूर्तिका है । दक्षिण वेदीमें दो नग्न पद्मासन मूर्तियां हैं।
उरवाही द्वारपर जैन मूर्तियें-उरवाही घाटीकी दक्षिण ओर २२ नग्न मूर्तियां हैं उनमें ६ लेख संवत १४९७से १५१० अर्थात सन १४४० और १४५३के मध्यके तोमरवंशी राज्यकालके हैं। इनमें नं० १७-२० व २: मुख्य हैं। नं० १७में श्री आदिनाथकी मूर्ति है, वृषभ चिह्न है, इसपर वड़ा लेख नं० १८ संवत १४९७ या सन १४४० का है-डंगरसिंहदेवके राज्यमें स्थापित । सबसे बड़ी मूर्ति नं० २० है जो वावरके कथन अनुसार ४० फुट है, परन्तु वास्तवमें ५७ फुट ऊंची है। पग ९ फुट लम्बा है उससे तीनगुणी लम्बाई है। इस मूर्तिके सामने एक स्तम्भ है जिसके चारों तरफ मूर्तिये हैं। नं० २२ श्री नेमिनाथनीकी मूर्ति ३० फुट ऊंची है।
दक्षिण पश्चिम समूह-उरवाहीकी भीतके वाहर एक थंभा तालके नीचे ५ मूर्तियें हैं । नं० २-एक सोई हुई स्त्रीकी मूर्ति ८ फुट लम्बी है जिसका मस्तक दक्षिणको व मुख पश्चिमको है।
सं० नोट-शायद यह श्री महावीरस्वामीकी माता त्रिशलाकी मूर्ति हो । नं० ३-एक मूर्ति है निसमें स्त्रीपुरुष बैठे हैं, वच्चा गोदमें है। कनिंघम कहते हैं कि मैं समझता हूं कि यह श्री महा
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६६ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
वीरस्वामी राजा सिद्धार्थ और त्रिशला सहित हैं ।
उत्तर पश्चिमी समूह-दोंधा द्वारके उत्तरमें श्री आदिनाथकी मूर्ति है । लेख सं० १९२७ या सन् १४७० का है । I
दक्षिण पूर्वी समूह - गंगोलातलावके नीचे यह सबसे बड़ा और प्रसिद्ध समूह है । यहां १८ मूर्तियें २० फुटसे ३० फुट 'ऊंची हैं तथा बहुतसी ८ फुटसे १५ फुट उंची हैं। ऊपरसे लेकर आध मीलकी लम्बाई में कुलपहाड़ीपर ये मूर्तिय हैं । इनका वर्णन नीचे प्रकार है
ព
नं०
१०
नाम तीर्थकर
अप्रगट
आदिनाथ व ४ और आदिनाथ नेमिनाथ आदिनाथ
...
पद्मप्रभु
...
आदिनाथ
चन्द्रप्रभु २ और
चन्द्रप्रभु
सम्भवनाथ
और
च १ ने मनाथ
सम्भवनाथ
महावीर
आसन
...
कायोत्सर्ग
37
"
"
95
१५
पद्मासन कायोत्सर्ग | २०
97
पद्मासन ६ कायोत्सर्ग २१
१२.
१.२
་་
पद्मासन
ऊंचाई
३० फुट ।
21
कार्य'त्सर्ग
७
१४
૨૪
१.४
91
पद्मासन
कायोत्सर्ग
२१
२१
फुट ग्रुपभ
"
19
११
"
99
"1
19
चिह्न
31
शंख
उपभ
कमल
सम्वत्
शंव.
१ २१ फु: | घोडा
सिंह
५.३०
१५३०
१५२५
१५२५
१५२५
१५२६
अर्द्धचंद्र १५२७
घोड़ा
१५९५
१९२५
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१४ आदिनाथ
१५
३६. १७ कुन्थुनाथ शांतिनाथ । आदिनाथ : 8 और
21
TE
...
२० आदिनाथ
संवत्
004
९८२
3009
मध्य भारत ।
पद्मासन
ލ
३०
कायोत्सर्ग २६
17
99
ग्वालियर के कचवाहा वंशके
राजा ।
| २६ फुट ' ब्रुपम
२८ 39
#3
नाम राजा
लक्ष्मण
वञ्चदाम
मंगल
कीर्ति
१०३७
??v
१०६७
८७
११०७
१११७
११३२
११५२
भुवनपाल
११६१
मधुसूदन
इसी वंशने राजा मानसिंह
सन् १९०६ में हुए ।
२६
२६
૨૬
૨૬
ર૬
८
संवत
१९८६
ܘܐ
:::::
१९१२
भुवन | १२२९
देवपाल | १२३६
पमपाल | १२९१
सूर्यपाल
महीपाल
"}
ऊपरके समूहमें २१ गुफाए हैं ।
ऋचवाहा राजा मुरजसेनने सन २७१ में ग्वालियरको बनाया था।
ग्वालियर के परिहार वंशके
राजा ।
"
H
वकरा
हिरण
[ ६७
१५२५
१५२५
१५२५
१५२५
नाम राजा
परमालदेव
रामदेव
हमीरदेव
कुबेरदेव
रत्नदेव
लोहंगदेव
सारंगदेव
१२६८
१२६९ में गढको अल्तमास
'मुसलमानने लिया ।
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६८ ] . प्राचीन जैन स्मारक ।
ग्वालियरके किले में जैनियोंके प्रसिद्ध लेख । नं. ९-संवत ११६५ या सन् ११०८ जैन मंदिरमें १८-, १४९७ या सन् १४४० मूर्ति आदिनाथ
डूंगरसिंह राज्य २५- ,, १५२६ या सन् १४६९ मूर्ति चंद्रप्रभु २७- , १५३० या सन् १४७३ , आदिनाथ
कीर्तिसिंहे राज्ये . ग्वालियर गजटियर १९०८में कथन है कि यहां जो तानसेन गवैय्या मानसिंहके स्कूल में पढ़कर तय्यार हुआ था वह रीवां महाराज राजा रामचंद्रका दर्वार-गवैय्या था और वह सन् १९६२ तक दर्वारमें रहा, तब उसको बादशाह अकबरने बुला भेना । वादशाहको यह बहुत प्रिय था। आईने अकवरीमें इसको मियां तानसेन व उसके पुत्रको तांतराजखां लिखा है।। ___ग्वालियर दिगम्बर जैनोंका विद्याका स्थान रहा है । सूरजसेनके वंशमें ८ वां राजा तेजकरण था जिसको परिहारोंने सन् . ११२९में हटा दिया।
(७) ग्यारसपुर-मिलसासे उत्तर पूर्व २४ मील। यहां . प्राचीन मकान बहुत दूर तक चले गए हैं। सबसे प्रसिद्ध मकान अठखंभा कहलाता है । यह ग्रामके दक्षिण बहुत सुन्दर मंदिर है, स्तंभ बहुत उत्तम नक्काशीके हैं । एक खंभे पर एक यात्रीका लेख सन् ९८२का है। सबसे सुन्दर पुराना जैन मंदिर पहाड़ीकी नोक पर माताका है जो नौमी या १०वीं शताब्दीका है। इसमें वेदीपर . एक बड़ी दिगम्बर जैन मूर्ति है व ३ या ४ और जैन मूर्तिये हैं।
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मध्य भारत ।
[ ६६
कमरे में बहुतसी जैन मूर्तियें हैं । वज्रनाथ मंदिर भी जैनियोंका है इसमें तीन मंदिर शामिल हैं ।
(८) मंदसोर नगर - एक बहुत प्राचीन नगर है । इसका पुराना नाम दशपुर है | नासिकमें सन् ई० के प्रथम भागका क्षत्रपोंका लेख मिला है उसमें इसका नाम है । एक शिलालेख मंदसोरके पास सूर्य के मंदिर बनानेका सन् ४३७ में कुमारगुप्त प्रथमके राज्यका है। जैन स्मारक बहुत हैं ।
यहांसे दक्षिण पूर्व ३ मील सोंदनी ग्राममें दो सुन्दर स्तम्भ हैं जिनके गुम्बज पर सिंह और वृषभ बने हैं। दोनोंपर जो शिलालेख है उसमें यह कथन है कि मालवाके राजा यशोधर्मन्ने शायद सन् १२८ में मिहरकुलको हराया ।
( Flcet Indian Antiquary Vol. XV. )
(९) नरोद - जि० नरवर अहिरावती नदीपर । यहां एक पाषाणका बड़ा मठ है इसको कोकई महल कहते हैं, इसकी एक भीतपर एक बड़ा संस्कृतका लेख है जिसमें मठके बनानेका वर्णन है । इसमें राजा अवन्तिवर्मनका वर्णन है, शायद ग्यारहवीं शताव्दीका हो । ( कनिंघम रिपो० नं० २ तथा Epigmphica Indica Vol. VII. P. 35 )
(१०) नरवर नगर - सिपरी और सोनागिरके मध्य में नैषधके नलचरित्र में इसका वर्णन है । कर्निघम इसको पद्मावती नगर कहते हैं। यहां नागराजा गणपतिके सिक्के पाए गए हैं जिसका नाम अलाहाबादके समुद्रगुप्तके लेखमें आया है ।
(११) शुजालपुर - जि० सुजालपुर (उज्जैन - भोपाल) रेलवेपर
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७२]
प्राचीन जैन स्मारक। नसे पश्चिम जैन मंदिर हैं जो अनुमान ६०० वर्ष हुए बने होंगे। भादोंमें दो मेले होते हैं।
(१८) भैरोंगढ-पर्गना व जिला उज्जैन । यहांसे १॥ मील सिप्रा नदीपर एक भैरोंका मन्दिर है। एक पवित्र स्थानपर एक पाषाण है जिसको जैनी पूज्य मानते हैं । यहां आपाढ़ सुदी ११, वैशाख सुदी १४ व कार्तिक सुदी १४ को मेले होते हैं।
(१९) भोंरासा-पर्गना सोनकच्छ जिला शाजापुर । 'देवास नगरसे पूर्व १० मील एक ग्राम है जिसमें प्राचीन जैन मंदिरोंके । ध्वंश-काले सय्यदकी कबके पास पड़े हैं। यहां भुवनेश्वर महादेवका जो मंदिर है उसमें खुदे हुए पाषाण लगे हैं जो पुराने जैन मंदिरोंसे लाकर लगाए गए हैं क्योंकि बहुतोंपर जैन मूर्तियां बनी हैं।
(२०) दुवकुंड-पर्गना और जिला शिवपुर | एक उनाड़ ग्राम है । एक पहाड़में खुदे हुए सरोवरके कोनेपर दो प्राचीन मंदिर हैं जिनमें एक मुख्य जैनका है । यह ८१ फुट वर्ग है। इसमें तीन तरफ आठ वेदियां हैं व पूर्व तरफ सात वेदियां हैं, वहीं दरवाजा है। मंदिर व वेदियोंमें बहुत बढ़िया कारीगरीकी खुदाईके दरवाजे हैं । इनमें नग्न मूर्तियां बनी हैं । यह दिगम्बर जैन मंदिर है। इस मंदिरको अमर खंडू मराठाने नष्ट किया था। एक खम्भेपर ५९ लाइनका बड़ा लेख है। यह लेख कच्छपघट (कछवाहां) वंशके राजाओंका है । इस लेखको महाराज विक्रमसिंह कच्छयघटने लिखाया था। इस लेखके दो भाग हैं। पहलेम किसी अर्जुनका व उसकी सन्तानोंका वर्णन है जिसकी प्रशंसा धारके राजा भोजने की थी। दूसरेमें मंदिरके स्थापनका कथन है।
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मध्य भारत।
[७३
यह वि० सं० ११४५ या सन् १०८८ का है। यह लेख बहुत उपयोगी है, क्योंकि इसका सम्बन्ध दूसरे लेखोंसे है।
(Conningham A. S. R. XX P, 99 & Epigraphica Indica I P. 237).
नकल लेख दुवकुंड । Ep. I. Vol, II P. 37. Dubkund (Gwalior) Jain Temples.
(१) ओं नमो वीतरागाय । आ-द्रन्टि-टना ( उत्पा) दपीठं लुठन्म (दा) रख गर्म (द) गुंज (द) लि (म) निष्ठ्यूत साराविणम् (त) (२) (त्पा) वह (चः) रसु--, (तां)
हे (ग) मिवाकरोत्स ऋषभ स्वामी श्रियेस्तात्सता (म्)। विभ्रा-(३) णोगुण संहति हततमस्तापो निज ज्योतिषा, युक्तात्मापि जगति संगत जयश्चक्रे सरागाणि यः उन्माद्यन्म-(४) करध्वजोर्जितगजग्रासोल्लसत्केसरी संसारोग्रगदच्छिदेस्तु स मम श्रीशान्तिनाथो जिनः ॥ जाइयं सस्वखंडित-(५) क्षयमपि क्षीणाखिलोपक्ष यं साक्षादीक्षितमक्षिभिर्दधदपि प्रौदं कलंकं तथा । चिन्हत्त्वाद्यदुपांतमाप्य मततं जात (६) स्तथा ? नंदरुञ्चन्द्रः सर्वजनस्य पातु विपद-: 'श्चन्द्रप्रभोऽर्हन्स नः। शोकानोकहसंकुलं रतितृणश्रेणि प्रणश्यभ्रम (७) त्माध्वगपूगमुद्गतमहामिथ्यात्त्ववातध्वनि । यो रागादिमृगोपघातकृतधीOनाग्निना भस्मसाद भावं कर्म (८) वनं निनायजयतात्सोयं जिनः सन्मतिः।। प्रसाधितार्थगुर्भव्यपंकजाकर ( भास्करः)। अंतस्तमोपहो वोस्तु गो-(९) तमो मुनिसत्तमः॥ श्रीमजिनाधिपति सद्वदनारविंद मुद्गच्छदच्छतरवोध समृद्धगंधम् । अध्यास्य या जंगति
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७४ ] .
प्राचीन जैन स्मारक।
पंकनवासिनी-(१०) ति ख्यातिं जगाम जयतु श्रुतदेवता सा॥ आसीत्कच्छपघातवंशतिलकस्त्रैलोक्यनिर्यद्यशः पांडु श्रीयुवराजमनुर-(११) समद्युभीमसेनानुगः । श्रीमानर्जुनभूपतिः पतिरपामप्यापयत्तुल्यतां नो गांभीर्यगुणेन निर्जित जगद्न्वीधनु-(१२) विद्यया श्रीविद्याधर देव कार्यनिरतः श्रीराज्यपालं हठात्कंठांस्थिच्छिदनेकवाणनिवर्हत्त्वामहत्त्याहवे । (१३) डिंडीरावलिचंद्रमंडलमिलन्मुक्ताकलापोज्ज्वलैस्त्रैलोक्यं सकलं यशोभिरचलेर्योनसमापुरयत् ॥ यस्य (१४) प्रस्थानकालोत्थितनलधिरवाकारवादित्रशब्दावेगानिर्गच्छदद्रिप्रतिमगजघटाकोटिघंटारवाश्या संस-(१५) पंतः समंतादहमहमिकया पूरवंतो विरेमुर्नोरोदोरंध्रभागं गिरिविवरगुरूद्यत्प्रतिध्वानमिश्राः ॥ दिकच-(१६) काक्रमयोग्यमार्गणगणाधाराननेकान गुणानच्छिन्नाननिशं दधद्विधुकला संस्पर्द्धमानातीन् ।सूनु-(१७) च्छिन्नधर्नुगुणंविजयिनोप्याजौ विजिप्तोर्जित, जातो स्मादभिमन्युरन्यनृपतीनामन्यमानस्तृणम् ॥यस्यात्यद्भुत-(१८) बाहवाहनमहाशस्त्रप्रयोगादिषु, प्रावीण्यप्रविकस्थितं प्रथुमति श्रीभोजपृथ्वीभुजा च्छत्रालोकनमात्रजात-(१९) भयतोहप्तादि भंगप्रदस्यास्य स्याद् गुणवणने त्रिभुवने को लब्धवर्गणः प्रभुः ॥ तुरगखरखुरानोत्खातधात्री-(२०) समुत्थं स्थगयदहिमरश्मेमडलं यत्प्रयाणे । प्रचुरतररजोन्याशेषतेजस्वितेजोहतिमचिरत-(२१) एवाशंसतीवॉनिवारम् ॥ शरदमृतमयूखखदंशुप्रकाशप्रसरदमितकीर्त्तिव्याप्तदिक्चक्रवालः । अजनि विजय.(२२) पाल: श्रीमतो स्मान्महीशः शमितसकलधात्री-मंडलक्लेशलेशः।। भयं यच्छत्रूणां त्रिदशतरुणी वीक्षितरणे । (२३) क्रमेणाशेषाणां व्यतरदसदप्यात्मनि सदा। सतोप्यंशन्नादादवनिवलयस्याधिकमतोबुधा
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७८] प्राचीन जैन स्मारक। सहित दिया हुआ है। यह कुन नदीके तटपर ग्वालियरसे दक्षिण पश्चिम ७६ मील है। एक कोटके भीतर यह मंदिर है, चारों तरफ घर हैं व छोटे कई मंदिर हैं । यह लेख संस्कृतमें ६१ लाइनका है । श्लोकमें हैं । यह जिनमन्दिर निर्मापणकी प्रशस्ति है । इस प्रशस्तिको श्री विजयकीर्ति महाराजने रचा था। जिसको उदयरानने पाषाणमें लिखा था और तिल्हाणने खोदा था ( लाइन ४६, ६०-६१)।
लेखका भाव । लाइन १ से १० तक मंगलाचरण है। पहले श्रीऋषभदेवकी स्तुति है। फिर शान्तिनाथ भगवानकी स्तुति है कि प्रभुने गुणसमुदायको प्राप्त किया है, अज्ञानका आताप नाश किया है, अपनी ज्ञान ज्योतिसे युक्त होनेपर भी जिन्होंने रागादि भावोंको जीत लिया है तथा जो मत्युक्त कामदेवरूपी हाथीके नाश करनेको सिंहके समान है ऐसे शान्तिनाथ महारान हमारे संसारका नयानक रोग नष्ट करें। फिर श्री चन्द्रप्रभुकी स्तुति है कि वे चंद्रनाथ भगवान हमको विपत्तियोंसे बचा जो सर्व जनोंकों आनन्द दाता है इत्यादि (शेप भाव नहीं समझमें आया ।) पश्चात् श्री सन्मति नामधारी श्री महावीरस्वामीकी स्तुति है । जिसने महामिथ्यात्वके मार्गमें जाते हुए रागादि मृगोंको ध्यानकी अग्निसे भन्म कर दिया है व कर्मोके वनको जला दिया है व शोकके वृक्षके समूहको व रतिकी तृण श्रेणीको नाश कर दिया है इत्यादि सो मिनेन्द्र जयवंत हों। फिर श्री गौतम गणधरकी स्तुति है कि जो अपने कार्यको सिद्ध करनेवाले भव्य जीव रूपी कमलोंके समूहके लिये
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मध्य भारत ।
[ ७६
सूर्यके समान हैं वे तुम्हारे अंतरंग अज्ञान अंधकार को दूर करें । फिर श्री जिनवाणीकी स्तुति है कि जो श्री जिनेन्द्रके सुखकमलसे निकलकर निर्मल ज्ञानके गंधको विस्तारनेवाली है, इसीसे श्रुतदेवती या सरस्वतीको जगतमें कमलवासिनी कहते हैं ।
फिर १० से ३१ लाइन तक महाराज विक्रमसिंह और उनके वंशका वर्णन है ।
कच्छपघातवंशका तिलक तीन लोकमें जिनका निर्मल यश व्याप्त था, इससे पवित्र श्री युवराजका पुत्र अर्जुन राजा था जो भयानक सेनाका पति था, जिसकी गंभीरताकी तुल्यता समुद्र भी नहीं कर सक्ता था व जिसने अपनी धनुष विद्यासे पृथ्वीको या अर्जुनको जीत लिया था, जो श्री विद्याधर देवके कार्य में लीन था व जिसने महान् युद्धमें प्रसिद्ध राज्यपाल राजाको उसके . कंठकी हड्डीको छेदने वाले अनेक वाणोंसे जीत लिया था । जिसने अपने अविनाशी यशसे - जो मोतियोंकी माला व समुद्रका फेन या चंद्र मंडलके समान निर्मल था एकदम तीन लोकको पूर्ण कर दिया था । जिस समय वह प्रस्थान करता था उस समयके उसके बाजोंकी ध्वनि समुद्रकी गर्जना के समान थी व जिसके साथ शीघ्र जाते हुए पर्वत समान हाथीके समूहों में जो घंटोंके शब्द होते थे वे चारों तरफ फैलते हुए एक दूसरेको देखते थे तथा वे आकाश और पर्वतकी गुफा को भी अपने शब्दोंसे भरनेमें चूकते न थे, उनके साथ पर्वतकी गुफाओंसे निकली हुई गूजें भी मिल जाती थीं ।
उसका पुत्र राजा अभिमन्यु था जो रात्रि दिन अनेक अखंडित गुणों का धारी था, जो गुण चहुं ओरसे आनेवाले शरणा
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८.]
प्राचीन जैन लोरका गकि लिये आधार रूपये व जिसकी प्रभा चंद्रज्योतिको जीन्ती श्री द जो अन्य राजाओं के समान गिनता था व जिमने बड़े विजयी राजाओंको जीत लिया था व जिसका धनुष-बाण कमी वंचित नहीं होता था।
जो प्रवीणता यह घोड़े व रोंक चलने व गावकि प्रयोगादिमें दिखाता था, उसनी महिमा प्रसिद्ध भोजराजान वर्णन की थी. निमक छत्रको देखने नाबसे बड़े २ मानी त्रु भयो माग जाने थे. ऐस गनांके गुणोंजो कान भरनेमें तीन लोकमें कौन कवि मन्ध हो सका है।
जन का प्रयाण करता था मोटे २ रजक वाइल पृथ्वीसे उसने ना भूनिएर योनि खुर पड़ने थे। और वे सूर्यमंडलको भान्छादित करते हुए यह नदिन्य वागी कल्ले थे कि वास्तव में अन्य नत्र नेनान्वयों ने इसके सामने नट हो जावेगा।
इन प्रसिद्ध गाजाला पुत्र कुमार विजयपाल था जिमने शरदकालक चन्द्रमाको किरणक समान प्रकाशनान अमर्यादित यशने
हुँदिशाको च्यात कर दिया था और निमने पृथ्वीमंडलक मत्र कशा नाश कर दिया था।
यह राज विद्वानोंक हृदय में बहुत आश्चर्य उत्पन्न करता था जब यह देवियोंमे देखने योग्य युद्धन कनसे सर्व शत्रुओंको नय उत्पन्न कर देता था। यद्यपि वह स्वयं उनसे पृथ्वी नहीं लेता था त्यापि अपनी पृथ्वीन लेशनात्र भो उनको नहीं लेने देता था। इस रानान पुत्र प्रसिद्ध विक्रमसिंह हुआ जिसका नाम पराक्रम, मिहने समान होनेने सार्थक था, क्योंकि अपने वीय्यक प्रभावमे
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मध्य भारत
tet
. इसने अपने सर्व शत्रुओंकी हाथियोंकी सेनाकी कुम्भस्थलीको विदारण कर दिया था व जिसका निर्मलं यश सिंहके वालोंके समान चारों तरफ फैला हुआ था ।
जब कि ६ बालक था तब ही उसकी दाहनी भुजाको वीर लक्ष्मीने और समगर आश्रय त्यागकर आश्रित कर लिया था । यह देखकर जब वह छा हुआ तब राज्य लक्ष्मीने उसकी उच्चताके प्रकाश में अहंकार शुक्त होकर सर्व अन्यं मनुष्योंसे घृणा करके उसके सर्व अंगको स्पर्श करनेका संकल्प कर लिया था । वास्तव में वह सूर्य वृथा ही है जबतक कि यह महाराजरूपी सूर्य बड़े २ मानी शत्रुओंके घोर अन्धकारको हटा रहा है, अनीतिगामी तारावलीको ढक रहा है व सर्व जगतमें प्रकाश कर रहा है तथा अपने महत्वकी भयानक किरणोंसे दिगन्त व्यापी होकर पर्वत समान राजाओंको स्पर्श कर रहा है। जब यह दिग्विजय करता था इसके चुने हुए, घोड़ोंके तेज खुरोंसे खण्डित पृथ्वी मंडलसे जो रज उड़ती थी वह उसके शत्रुओंके मुख्य नगर फैल जाती थी और सर्व पदार्थोंको ढक देती थी जो बतलाती थी कि मानों यह प्रलयकाल ही आगया है । इस महाराजाका नगर चडोभ है जिसकी शोभा चहुंओर व्याप्त है । इसके सुन्दर बाजार और उन्नत व्यापारकी महिमा लोगों में प्रसिद्ध • है जो यहां सर्व ओरसे अपने पासकी वस्तुओंको बेचने और खरीदने की इच्छासे आते हैं ।
7
नोट - इस ऐतिहासिक वर्णनसे यह पता चला है कि कच्छपद्यात वंशमें महाराजा प्रवराज थे । उनका पुत्र विद्याधर देवका मित्र राजा अर्जुन था जिसने राज्यपालको युद्धमें मारा था । उसका
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८२] प्राचीन जैन स्मारक । पुत्र अभिमन्यु था जिसकी महिमा महाराज भोजने की थी, उसका पुत्र विजयपाल था, विजयपालका पुत्र विक्रमसिंह था । इसीके राज्यमें यह शिला लेख लिखा गया।
इस कच्छपघात वंशके दो शिलालेख और हैं। एक वि०सं० ११५० का ग्वालियरके सासवहु मंदिरपर है जिसमें लक्ष्मण, वजदामन, मंगलराज, कीर्तिराज, मूलदेव, देवपाल, पद्मपाल और महीपाल राजाओंका क्रम है।
दूसरा नरवरका ताम्रपत्र है जो वि० सं० ११७७का वीर- ' सिंह देवका है जो गगणसिंहदेव फिर शारदसिंहदेवके पीछे हुआ था । ये भिन्नर वंश हैं जो ग्वालियरके आसपास राज्य करते थे। इस लेखमें जो राजा विजयपाल हैं यह वही नृपति विजयाधिराज हैं, जिनका वर्णन बयानाके शिलालेख वि० सं० ११०० में है। यह वयाना दूबकुण्डसे ८० मील उत्तर है। यह बयानाका लेख भी जैन शिलालेख है। यहां जो राजा भोजका कथन है यह मालवाके परमार भोजदेव ही हैं । लेखमें जो विद्याधरदेवका कथन है यह चंदेलके राजा हैं जो गंडदेवके पीछे हुआ व इसके पीछे विनय पालदेवने राज्य किया है।
दूधकुण्डका प्राचीन नाम चडोभ था । लाइन ३२से ३९में जैन व्यापारी रिपि और दाहड़की वंशावली दी है | जायसपुरसे आए हुए वणिक वंशरूपी आकाशने सूर्य के समान 'प्रसिद्ध धनवान सेठ जासूक था जो सम्यग्दृष्टी था व श्रीजिनेन्द्र चरणकी पूनामें व श्रद्धानपूर्वक पात्रोंको चार प्रकारका दान देनेमें लीन था। इसका पुत्र जयदेव था जो जिनेन्द्रकी भक्ति में भ्रमर
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मध्य भारत ।
[८३
समान था, निर्मल कीर्तिवान था व सजनोंक लिये उत्तम चारित्र. चान था। उसकी स्त्री यशोमति थी जो अपने रूपसे, 'शीलमे, कुलसे सर्व स्त्रीके गुणोंमें शिरमौर थी व पृथ्वीमें प्रसिद्ध थी। उस स्त्रीके दो पुत्र हुए एक ऋपि दूसरे दाहड, जो सुंदर मूर्ति थे तथा पूर्व दिशामें सूर्य चन्द्रके समान शोभनीक थे। ये धनके उपार्जनमें व्यवहारकुशल थे । इन दोनोंमेंसे बड़े भाई ऋपिको अनेक महल व कोटसे शोभित नगरमें राजा विक्रमने श्रेष्ठीपद प्रदान किया था।
फिर लाईन ३९ से ४८ तकमें उस समयके जैन आचार्योका वर्णन है।
श्रीलाट वागट गणके उन्नत पर्वतके मणि रूप निर्मल दर्शनज्ञान चारित्रके कारण व अनेक. आचार्य जिनकी आज्ञाओ मस्तक चढ़ाते हैं ऐसे गुरु देवसेन महाराज प्रसिद्ध हुए। जिन्होंने निश्चय व्यवहार रूप दोनों प्रकारके सिद्धांतको निर्वाध बुद्धिसे जानकर प्रमाण मागसे ग्रन्थोंमें संकलित किया, जिससे वे परम ऐश्वर्यको प्राप्त हुए व जिनके हाथमें मानो मुक्ति ही आगई। उनके शिप्य कुलभूषण मुनि हुए जो दिगम्बर मुनियोंमें मुख्य थे व सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके अलंकारसे भूपित थे। उनके शिप्य श्रीदुर्लभसेन आचार्य थे जो रत्नत्रयमई आभरणसे शोभित थे जो सर्व शास्त्रको पढ़कर आत्म स्वरूप में लीन थे व परम धैर्यवान थे। इनके शिप्य श्री शांतिसेन गुरु थे जिन्होंने अस्थानके स्वामी राजा भोजकी सभामें अपनी वादकलासे सैकड़ों मदयुक्त वादियोंको जीत लिया था जिन्होंने पंडित अम्बरसेन
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८४]
प्राचीन जैन स्मारका
आदि विद्वानोंपर आक्रमण किया था। यह शास्त्र समुद्रके पारगामी थे। उनके शिष्य श्री विजयकीर्ति थे जो अपने गुरुके चरणकमलकी आरधनाके पुण्यसे निर्मल बुद्धिके धारी थे व शुद्ध रत्नत्रयके पालक थे इन्होंने ही रत्नोंकी मालाके समान इस प्रशतिको लिखा है। लाइन ४८ से ५३ तक श्री जिन मंदिरके निर्माताओंका वर्णन है।
श्री विजयकीर्ति महाराजसे परमागमका सारभूत उपदेश पाकर कि यह लल्ली, बंधु सुहृदका समागम व यह आयु या शरीर नाशवंत हैं । इस धर्मस्थानके रचनेका प्रारंभ सजन दाहडने और उनके साथी विवेकवान कूकेक, पुण्यात्मा मुर्पट, शुद्ध व धर्म कर्ममें निपुण देवधर व मद्दिचन्द व अन्य चतुर श्रावकोंने किया। लक्ष्मण व जिनभक्त गोष्ठिकने भी मदद दी। इन्होंने अमृतके समान वेत जिन मंदिर उच्च शिखर सहित तीन जगतको आनंद देनेवाला सुन्दर बनवाया । लाइन १४ से ६० तक गद्यमें महाराज विक्रमसिंहने जो जिनमंदिरको दान किया उसका कथन है । इन जिन मंदिरके रक्षण, पूजन, सुधार व जीर्णोद्वारके लिये महाराजाधिराज श्री विक्रमसिंहने अपने दिलमें पुण्य राशिक अमर्याद प्रसारको धारणकर हरएक अन्नकी गोणीपर एक विंशोपक नामका कर विठाया व महाचक्र ग्राममें चारगोणी गेहूं बोने योग्य खेत तथा रजनन्हक पूर्व एक वाग कूपसहित प्रदान किया तथा दीपनादिक लिये कुछ बड़े तलके प्रदान किये और आज्ञा की कि आगके राजा दरावर इस आनाको माने किजिसकी भूमि है उसीका उसको फल मिलना चाहिये। लाइन में प्रशस्ति लिखनेवाले
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'मध्य भारत।
उदयराज व खोदनेवाले तील्हणका वर्णन है। संवत ११४५ भादों सुदी ३ सोमवार ।।
नोट-इससे विदित होता है कि दूबकुंडमें देवसेन दिगंबराचार्य बहुत प्रसिद्ध होगए हैं तथा राजा भोज मालवाधीशके • समयमें शांतिसेन मुनिने वाद करके विजय प्राप्त की थी। जायसपुर निवासी ही जायसवाल जातिके लोग हैं । यह जायसंपुर अवधका जायस है या दूसरा है सो पता लगाना योग्य है।
"जैसवाल जातिके लिये यह लेख बड़े महत्त्वका है । राजा विक्रमसिंह भी जैन भक्त प्रतीत होता है।
(२१) गढवल-परंगना सोनगच्छ जिला शोजापुर । सोनकच्छसे उत्तर ६ मील प्राचीन ग्राम है । यह बहुत प्राचीन स्थान है। बहुतसे पुराने सिक्के मिलते हैं। बहुतसे मंदिर ध्वंश पड़े हैं। जैन मूर्तिये बहुतसी हैं जिनमें एक ९ फुट लम्बी है व दूसरी १४ फुट लम्बी है, परन्तु इसके पग खंडित हैं।
(२२) खिलचीपुर-नि० मंदसोरं ग्रामके उत्तर एक कूएंपर सूवतेहून मिहिरकूलके विजयिता राजा यशोधर्मनका कथन है। सन् ५३३-५३४ । इस कुएको किसी दक्षने संवत ५८० में बनवाया था।
(२३) कोटवल या कुटवार-पर्गना नूराबाद जिला तोबरगढ़। नूरावादके उत्तर-पूर्व १० मील एक पहाड़ीपर बसा है। प्राचीन नाम कमंती भोजपुर या कमंतलपुर है । बहुत प्राचीन स्थान है। पुराने सिक्के मिलते हैं। एक वर्ग मील तक ध्वंश स्थान हैं। एक महावीरजीके मंदिरके बाहर कुआं १२० फुट गहरा है ।
.
"
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८६.]
प्राचीन जैन स्मारक। (२४) मउ-परगना महगांव जि. भिंड-महगांवसे १६ मील । यहां श्री पार्श्वनाथजीके नामसे कुंआरमासमें एक बड़ा जैन धार्मिक मेला हुआ करता है।
(२५) पानविहार-पर्गना उन्जेन-यहांसे उत्तर ८ मील । यहां ग्राममें पुराने जैनमंदिरोके ध्वंश हैं। बहुतसे 'खुदे हुए पत्थर जो पहले जैन मंदिरोंमें लगे थे बहुतसे मकानोंकी भीतोंपर लगे देखे जाते हैं।
(२६) राजापुर या मायापुर-पर्गना पिछार जि० नरवर। महुअर नदी पर ग्रामके उत्तरपूर्व करीब १ मीलपर एक पाषाणका बौद्धस्तूप है जो ४९॥ फुट लम्बा है । इसको कोठिलामठ कहते हैं । यह दर्शनीय है।
(२७) सुहानियां (सोनियां या सिहोनिया) पर्गना गोहड़ निला तोंवरघार । यह बहुत ही प्राचीन ऐतिहासिक ग्राम है।
लश्करसे पूर्व ३८ मील कटवरसे उत्तर पूर्व १४ मील है। असनी नदीके वाएं तटपर है। इसको ग्वालियरके संस्थापक सूरजसेनके बुजुर्गोंने स्थापित किया था। कनिंघम साहबने यहां शिलालेख वि. सं. १०१३, १०३४ व १४६७ के पाए हैं। ग्रामके पश्चिम एक स्तम्भ हैं जिसको भीमकीलाट कहते हैं दक्षिणकी ओर कई दिगम्बर जैन मूर्तियां हैं । इस नगरको कन्नौनके विजयचंदने सन् ११७०में ले लिया था। यहां किलेके दक्षिण आध मील पर एक बडी जैन मूर्ति १५ फुट ऊंची है । जिसपर सं० १४६७ है। इसके पास दो जैन मूर्तियें छः छः फुट ऊंची हैं। सर्व ही नग्न कायोत्सर्ग हैं। श्रावक लोग पूजते हैं।
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मध्य भारत।
[८७
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(२८) मुन्दरसी--पर्गना सोनकच्छ जि० शोजापुर । शोजापुरसे पश्चिम ११ मील । यहां सन् १०३२ में राजा सुदर्शन राज्य करते थे । एक जैन मंदिर है जिसमें लेख सं० १२२१का है।
(२९) सुसनेर-पर्गना सुसनेर नि० शोजापुर-शोजापुरसे उत्तर ३६ मील । यहां प्राचीन जैन मंदिर है।
(३०) तेरही-पर्गना व जि० ईसागढ़ | नरोदसे दक्षिण पूर्व ८ मील । यहां बढ़िया पुरातत्व है। दो प्राचीन मंदिर हैं। एकमें बढ़िया खुदाई है। यहां दो खम्भे पड़े हैं उनपर भी लेख हैं। एकमें यह कथन है कि यहां मधुवेनी नदी (जो अब महुअर कहलाती है) हैं । एक युद्ध महा सामंताधिपति उंदभट्ट और गुणराजके मध्यमें हुआ था जिसमें प्रसिद्ध वीर चांडियाना भाद्र वदी ४ सं० ९६० शनिबारको मारा गया था । यह लेख बहुत उपयोगी है क्योंकि उदंभट्टका नाम ९६४ संवतके सय्यादरीके लेखमें आता है। यह कन्नोजके राजाके आधीन था । ।
(३१) उनचोड-पर्गना सोनकच्छ-यहांसे दक्षिण पूर्व २८ मील एक पापाण भीत है। एक द्वार जैन मंदिरोंके ध्वंशोंसे बनाया गया है।
' (३२) उन्दास-पर्गना उज्जैन-इसको जबरावाद, कहते हैं । यह उज्जैनसे पूर्व ४ मील है। यहां एक बड़ा सरोवर है जिसको । रत्नागरसागर कहते हैं। उसका तट जैन मंदिरोंके अंशोंसे बनाया गया है।
(३३) सारंगपुर-भिलसासे पश्चिम ८० मील व आगरसे पूर्व दक्षिण ३४ मील । यहां सन् ई० से १०० से ५०० वर्ष पूर्वके पुराने सिक्के पाए जाते हैं ।
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६० ]
प्राचीन जैन सारक। रामपुर-भानपुर जिला-यहां २१२३ वर्गमील स्थान है। बहुतसे प्राचीन स्थान यहांपर हैं जो इसे महत्वका स्थान प्रगट करते हैं । सातवींसे ९ मी शताब्दी तक यह बौद्धोंका स्थान रहा है। धमनेर, पोलादनगर और खोलवीमें बौद्ध गुफाएं हैं । नौमीसे १४ वीं शताब्दी तक यह परमार राजपूतोंका एक भाग था जिनके राज्यके बहुतसे जैन मंदिर अवशेष हैं । इस वंशका एक शिलालेख हालमें मोरी ग्राममें मिला है जो गरोट पर्गनामें है । शामगढ़ स्टेशनसे ६ मील है।
निमाड़ जिला-यहां ३८७१ वर्गमील स्थान है। प्राचीन बौद्धकालमें यह उपयोगी ऐतिहासिक जगह थी। यहां दक्षिणसे उज्जैन तक मार्ग एक तो महिष्मती या महेश्वर होकर जाता था दूसरा पश्चिममें ८ चीकलदा और ग्वालियर राज्यमें वाघ होकर 'जाता था । सराऐं पाई जाती हैं। तीसरी शताव्दीमें इसके उत्तरीय भागपर हैहय वंशवालोंका राज्य था जिन्होंने महिष्मतीको राज्यधानी बनाया था। नौमी शताब्दीमें मालवाके परमारोंने राज्य किया था। उनके राज्यके चिह्न जैन व अन्य मंदिरोंमें मिलते हैं जैसे उन, हरसुद, सिंधाना और देवलापर ।
इन्दौरके प्रसिद्ध स्थान । (१) धमनेर-गुफाऐं-झालरापाटनसे दक्षिण पश्चिम ५० मील । चन्दवाससे पूर्व २ मील, शामगढ़ स्टेशनसे १३ मील है। यहां बौद्ध और ब्राह्मणकी गुफाएं हैं । १४ वीं बौद्ध गुफां प्रसिद्ध है। इसको बड़ी कचहरी कहते हैं । भीमका बाजार नामकी गुफा
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मध्य भारत।
[१ बहुत ही सुन्दर है जिसमें ५वीं, छठी शताब्दीके मध्यकी बौद्ध मूर्तियां हैं । ब्राह्मण गुफाएं ८ वीं और ९ शताब्दीके मध्यकी हैं । नं० १३की गुफाको छोटाबाजार कहते हैं। यहां १५ मूर्तियां हैं जो जैन या वौद्धकी होंगीं। ऐसी गुफाएं पोलाद नगर (गरोटके पास), खोलवी, आवर, वेनैगा (झालावार), हातीगांव, रैणगांव (टोंक) में हैं। ये सव २० मीलकी चोड़ाईमें हैं । धमनेरकी पहाड़ी १४० फुट ऊंची है। घेरा २ या ३ मीलकी है। सबसे बड़ा दर्शनीय एक पाषाणका मंदिर धर्मनाथनी पहाड़ीपर है । यह एल्लूराके कैलास मंदिरके समान है। यह जैनका होना चाहिये, जांचकी जरूरत है।
(२) महेश्वर-नीमाड़ जिला, नर्मदानदीके उत्तर तटपर प्राचीन नगर है । इसको चोली महेश्वर कहते हैं । चोली इसके उत्तर ७ मील पर है। इसका नाम रामायण, महाभारत व वौद्ध साहित्यमें आया है। यह दक्षिण पैथनसे श्रावस्ती जाते हुए. मार्गमें पड़ता है। उस मार्गमें मुख्य ठहरनेके स्थान हैं। महिष्मती, . उजैन, गोणद्ध, भिलसा, कौसम्वी व साकेत इस नगरीका हैहयवंशी राजाओंसे जो चेदीके कलचूरी राजाओंके बुजुर्ग थे प्राचीन सम्बन्ध रहा है । कलचूरियोंके अधिकारमें मध्य भारतका पूर्व भाग नौमीसे बारहवीं शताब्दी तक था । इस वंशका प्रसिद्ध राजा कार्तवीर्यार्जुन इस नगरीमें रहता था ऐसा माना जाता है। पश्चिमी चालुक्य राजा विनयदित्यने सातवीं शताब्दीमें यहांके हैहय वंशियोंको पराजित किया तब महिप्मती उसके अधिकारमें आगया । इसके नीचे हैहय राजाओंने गवर्नरके रूपमें कार्य किया। कात्यायनने पाणिनी व्याकरणकी टीकामें इस नगरीका नाम लिखा है। यह नगरी रंगीन
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२]
प्राचीन जैन स्मारक।
सारी व रेशमी पाड़की धोतीके बनानेके लिये प्रसिद्ध था।
सं० नोट-यहां पोरवाड़ दि० जैनियोंका मुख्य स्थान रहा है।
(३) ऊन-परगना खड़गांव-यहांसे ११ मील । नीमाड़ जि० बहुत प्राचीन स्थान है। यहां १२ वीं शताब्दीके जैन मंदिर हैं। एक मंदिरमें धारके परमार राजाओंका लेख है। यह नरमदाके दक्षिण सनावद स्टेशनसे ६० मील है। खजराहाके मंदिरोंके समान यहां भी विशाल मंदिर जैन और हिन्दू दोनोंके हैं। जैन मंदिरोंको विना सम्हालके छोड़ दिया गया है। ये मंदिर दिगम्बर जैनियोंके हैं जिनके माननेवाले इस प्रदेशमें बहुत कम रह गए हैं परन्तु 'हिन्दू मंदिरोंमें अब भी पूजा पाठ जारी है। ग्रामकी उत्तरी हद्दकी
ओर जैन मंदिर हैं जिनमेंसे दो मंदिरोंको चौवारादेरा कहते हैं। चौबारा देहरा नं० २ का शिखर कुछ गिर गया था । यह बहुत ही उपयोगी मंदिर सर्व समूहके मध्यमें है क्योंकि इसमें मंदिरोंके बननेकी मितीका पता लगता है। इस मंदिरके अन्तरालमें तीन 'शिलालेख हैं, जिनसे प्रगट होता है कि मुसल्मानोंके अधिकारके पहले यह मंदिर बच्चोंके लिये विद्यालयके काममें आता था। एक छोटे वाक्यमें मालंबाके उदयदित्य राजाका नाम है जिससे प्रमाणित होता है कि ये मंदिर उसके समयसे पहले बने थे । दूसरे लेखमें मात्र संस्कृत व्याकरणके कुछ सूत्र हैं, तीसरा लेख एक सर्पके ऊपर सर्पवन्ध रचनामें अंकित है, इसमें स्वर और व्यंजन अक्षर दिये हैं। चौवारा देहरा नं. १ में जैन मूर्तियां नहीं रही हैं किन्तु चौवारा देहरा नं० २ और ग्वालेश्वरके जैन मंदिरमें दिगम्बर जैनोंकी बड़ी २ मूर्तियां हैं। दोनों ही मंदिर मध्यका
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मध्य भारत।.
लीन भारतीय शिल्पकलाके सुन्दर नमूने हैं, यद्यपिग्वालेश्वरके मंदिरका नकशा चौवारा देहरा नं० २ से बहुत बढ़िया है। ये दोनों ही मंदिर खड़गांवसे उन जानेवाली सड़कपर हैं । इस चौवारा देरा नं० २ के गर्भग्रहमें तीन दिगम्बर जैन मूर्तियां एक. आसनपर खड़ी हैं। इनमेंसे एक पर विक्रम सं० १३ मालूम. होता है । ग्वालेश्वर मंदिरके गर्भग्रहमें एक पहाड़ीपर तीन बड़ी दिगम्बर जैन मूर्तियां एक आसनपर हैं। प्रछाल करनेको मस्तक. तक पहुंचनेके लिये सीढ़ी बनी हैं जैसे खनराहामें श्री ऋषभदेवके. मंदिरमें हैं। चौवारा देरा नं० १ और खड़गांव उन सड़कके. मध्यमें और भी मंदिर हैं (A. S. R. 1918-19 P. 17 ), चौवारा देहरामें एक बड़ी मूर्तिपर वि० सं० १९८२ है । जैनाचार्य रत्नकीर्ति हैं। ग्वालेश्वर मंदिरमें एक दि० जैन मूर्ति १२॥ फुट ऊंची है । कुछ मूर्तियोंपर सं० १२६३ है।
(४) विजवार या विजावड-पर्गना कटाफोर जिला नीमाड। इंदौरसे पूर्व ४९ मील व नीमावरसे पश्चिम ३३ मील । यहां कई जैन मंदिरोंके खण्डहर हैं। वंदेर पेखान नामकी पहाड़ीपर बहुतसी जैन मूर्तियां स्थापित हैं । इन मंदिरोंके सुन्दर खुदाईके पाषाणोंको महादेवके मंदिरके बनानेमें काममें लाया जारहा है। ग्रामके उत्तर १०वीं या ११वीं शताब्दीके बहुत बड़े जैन मंदिरके शेष हैं । इन ध्वंशोंमें तीन बड़ी दिगम्बर जैन मूर्तियां हैं (१) ५ फुट ३ इंच ऊँची (२) ६ फुट ३ इंच ऊंची, नासिका और भुना नहीं है (३) ८ फुट ३ इंच ऊंची २ फुट १० इंच आसनपर चौड़ी,. हाथ नहीं हैं । यह शांतिनाथजीकी मूर्ति है । आसनके लेखमें
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६४ ]
प्राचीन जैन स्मारक। सं० १२३४ फागुन वदी ६ है । एक त्रिकोण पाषाण पड़ा है जो ४ फुट ३ इंच लम्बा २ फुट ४ इंच ऊंचा है। ऊपर ? मूर्ति हैं। ऊपर छत्र इंदुभीवाजे व गंधर्वदेव हैं। यहां दतोनी नामकी धारा है जिसके घाट और सीढ़ियोंपर जैन मंदिरके पापाण लगे हैं। जो पहाड़के नीचे बीजेश्वर महादेवका मंदिर है उसकी भीतोमें ‘पद्मासन और खडगासन जन मूर्तियां लगी हैं तथा जैन मंदिरके शिखरको तोड़कर इस मंदिरका शिखर बनाया गया है।
(4) चोली-पर्गना महेश्वर जि० नीमाड़-महेश्वरसे उत्तर 'पूर्व ८ मील-यहां कुछ प्राचीन जैन मंदिरोंके वंश हैं।
(६) देहरी-पग० चिकल्दा नि. नीमाइ-चिकलदाने उत्तर १४ मील । यहां श्री पार्श्वनाथका एक जैन मंदिर है।
(१) देपालपुर-इन्दोरमे उत्तर पश्चिम ३० मील | इस नगरको धार वंशके देवपाल परमार (सन् १२१८-१९३०) ने वसाया था। कई जैन मंदिर हैं जिनमें से दो वि०म० १९४८ और १६५९ है।
देपाल और बनदियाके मध्यमें एक कई नीलका वड़ा सरोवर है। इसको राजा देवपालने बनवाया था जिसके तटपर एक प्राचीन बड़ा जैन मंदिर है जो वनदिया ग्राममें है। जिसमें लेख है कि श्री आदिनाथकी मूर्ति वमाख मुदी ३ मंगलवार मं० १९४८ को स्थापित की गई थी। . (८) ग्वालनघाट-जि० नीमाड़, सदवा किलाने १० मील। यहां आधील जाकर वीजासन देवीका मंदिर है । चतमें मला भरता है।
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६६ ]
प्राचीन जैन स्मक
ब्राह्मणों में द्वेष था । एक जैन मंदिरको अब रामका मंदिर ब्राह्मणोंने मान लिया है और रामको "जैन मंजन जवरेश्वर राम" कहते हैं। यह स्थानीय कहावत है कि १४वीं शताब्दी में कोथड़ी में बहुत जैनलोग रहते थे उनके बनाए हुए मंदिर थे । जैनियोंमें और सर्कारी अफसरों में कुछ गैर समझ होगई तब उन्होंने नगरको छोड़ दिया और थोड़ी दूर जाकर बसगए, उसको भी क्लोदिया नाम दिया । हिन्दुओंने जैन मूर्तियें मंदिरसे हटा दीं और उनके स्थानपर राम लक्ष्मण सीताकी मूर्तियें रख दीं ।
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अभी भी जैन लोग कोठड़ीमें पूजाके लिये आते हैं, परन्तु जबतक कोठड़ी परगनेमें रहते हैं वे कुछ खाते पीते नहीं हैं, पूजाके पीछे वे पिरावा ग्रामनें जाकर भोजन करते हैं ।
(१३) माचलपुर - पर्गना जीरापुर जि० काली संघले पूर्व ६ मील । सरोवरपर दो जैन अच्छी कारीगरी है ।
रामपुर - भानपुरा मंदिर हैं जिनमें
(१४) मोरी - प० भानपुर जिला रा० भा० | यहां कई बहुत सुन्दर जैन मंदिरोंके अवशेष हैं । एकमें लेख १२ वीं शताब्दीका है। इन मंदिरोंको नाइके घोरी बादशाहोंने नष्ट किया था ।
(११) नीमावर - पर्ग ० नीमावर - नर्मदा नदीपर, अलेवरुनीने ११ वीं शताब्दी में इसका नाम लिया है। यहां परमारोंके समयका लाल पाषाणका एक सुन्दर जैन मंदिर है ।
(१६) रायपुर - पर्ग० सुनेल जि० रा० भा०- झालरापाटनले दक्षिण १२ मील | यहां ग्रानमें प्राचीन जैन मंदिर हैं ।
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मध्य भारत।
[६७ (१७) संदलपुर-डि० नीमावर-यहांसे उत्तर १५ मील । ग्राममें मंदिर मूलमें जैनका था उसको हिन्दुओंने सन् १८४१ में महादेवका मंदिर बना लिया । ।
(१८) सुन्दरसी-जि० महीदपुर-यहां कई प्राचीन जैन मंदिर हैं।
(१९) पुरा गिलन-बलियासे कोठड़ी जाते हुए सड़कपर एक ग्राम । यहां १ सरोवरपर ११ वीं या १२ वीं शताब्दीका एक प्राचीन जैन मंदिर है। द्वारके ऊपर तथा मंदिरकी वाई ओर कुछ जैन मूर्तियें हैं। पहली मूर्तिमें श्री महावीर स्वामीके माता पिता हैं जो वृक्षके नीचे बैठे हैं उनके हरएक दासी हैं। आसनपर घुड़सवारोंकी पंक्ति है। वृक्षके ऊपर तीन जैन मूर्तिये हैं। दूसरी मूर्ति खड़े आसन श्री पार्श्वनाथनीकी है। दो मूर्तिये शासनदेवीकी हैं जिनमें लेख है । उसमें महन्तारिकादेवी लिखा है । प्रतिष्ठाकारिका रूपिणी दोनोंमें मस्तक नहीं है । देवी सिंहासनपर बैठी है, एक पग फैला हुआ है। चार हाथ हैं, दाहने हाथमें बच्चा है। नीचे सिंह हैं । सरोवरके पास वहुत जैन मूर्तियें हैं।
(२०) चैनपुर-भानपुराका चंद्रावत किला जो एक बड़े टीलेके नीचे है । ग्रामसे दूर व भानपुरसे नवली जाते हुए गाड़ीके भार्गके पास एक बड़ी दि० जैन मूर्ति भूमिपर विराजित है। यह '१३ फुट ३ इंच ऊँची व ३ फुट ८ इंच चौड़ी है।
(२१) संधारा-नीमचसे झालरापाटन जाते हुए पुरानी फौजी सड़कसे ३ मील । यहां बहुत प्राचीनता है । यहां दो जैन मंदिर
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६८] प्राचीन जैन सारक। हैं उनको तम्बोलीके मंदिर कहते हैं । खुदे हुए खम्भे हैं। बड़ा .. मँडप है। वेदीघरका पाषाण द्वार स्वच्छ है। वेदीमें एक पद्मासन जैन मूर्ति है । वेदीकी कोठरीकी छतमें तीन छोटे खुदे हुए आले हैं, मध्यका सबसे बड़ा है वे आदिनाथजी भक्तिमें हैं। दोनों मंदिर दि० जैनोंके हैं। अव भी पूजा होती है, दोनोंमें बड़ा श्री आदिनाथका प्राचीन है। दूसरा भी आदिनाथका है । इसका जीर्णोद्धार हुआ है । अब मूर्तिये नवीन स्थापित हैं।'
(२२) किथुली-जिस टीलेपर नवली और तक्षकेश्वर ग्राम. हैं उसके नीचे एक प्राचीन जैन मंदिर है । इस मंदिरका मण्डप जैन चित्रकारीका दर्शनग्रह है । मंडपमें जिनकी मूर्तिये धातुकी व सफेद, काले व पीले पापाणकी हैं। गर्भ गृहमें बड़ा कमरा है जिसमें तीन आले हैं, मध्यमें पद्मासन श्रीमहावीरस्वामी हैं व अगल बगल खड़गासन दि० जैन मूर्तियें हैं । वेदीमें बहुतसी. दि जैन मूर्तियें हैं। मूलनायक एक बड़ी मूर्ति श्री पार्श्वनाथ भगवानकी है। ___ (२३) कुकदेश्वर-रामपुरासे पश्चिम १० मील । नीमचसे झालरापाटन जाते हुए सड़कपर | ग्रामके मध्यमें एक जैन मंदिर श्री पार्श्वनाथनीका है कृष्ण पाषाणकी मूर्ति है और भी नवीन जैन मूर्तियें हैं।
(२४) राजोर-नर्मदा नदीपर-नीमावरसे ५ मील । यहां पुरातत्त्व स्मारक हैं । एक प्राचीन जैन मंदिर है, एक सण्डित जैन मूर्ति अवशेप. है।
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मध्य भारत।
[ (३) भोपाल एजन्सी-भोपाल राज्य।
इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-दक्षिण पूर्व मध्य प्रांत, उत्तरमें राजपूताना और ग्वालियर, पश्चिममें कालीसिंध | यहां ११६९३ वर्ग मील स्थान है।
भोपाल राज्य में ६९०२ वर्ग मील है।
पुरातत्व यहां सांचीमें स्तुप सुन्दर है। यहां भोजपुरमें एक सुन्दर जैन मंदिर है । एक बड़ी मूर्ति महिलपुरमें है, चारों तरफ मंदिर है। इसमें खुदाई सुन्दर है। समसगढ़में-जो भोपालमे १० मील है-खडित मंदिर हैं वहां तीन बड़ी मूर्तियं अभी भी खड़ी हुई हैं। नरवर ग्राम सांचरके मंदिरोंके मसालेसे बना है । जामगढमें एक १२वीं शताब्दीका मंदिर है। यहांक मुग्यस्थान नीचे प्रकार हैं
मुख्य स्थान । (१) भोजपुर-तहसील ताल-यहां एक बड़ा शिव मंदिर है उसमें ४० फुट ऊंचे चार खंभे हैं। इसके पास एक जैन मंदिर १४ से ११ फुट है जिसमें तीन जैन तीर्थकरकी मूर्तियां हैं उनमेंसे एक बहुत बड़ी मूर्ति श्री महावीरस्वामीकी २० फुट ऊंची है दूसरी दो श्री पार्श्वनाथजीकी हैं । यह मंदिर १२वीं या १३वीं शताब्दीका होगा। भोजपुरके पश्चिम एक बड़ी झील है जिसको धारके राजा भोजने (१०१०-५३), शायद बनवाया है ।
(R. A. S. TOE. TIII. I'. So ard Indian antiquary Vol. XVIII P. 348).
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१०२ ]
प्राचीन जैन स्मारक।
होता था। ऐसी तनजेवको व्यापारी लोग बाहर नहीं भेज सके थे किंतु सब तनजेब बादशाह मुगल और उनके दरवारियोंके वास्ते भेजी जाती थी । अब यह सब शिल्प नष्ट होगया है।
(६) देवास राज्य (मालवा एजन्सी)
मालवा एजन्सीमें ८८२८ वर्गमील स्थान है। हद्द है-उत्तर और पश्चिम राजपूताना, दक्षिणमें भोपावर और इंदौर, पूर्व में भोपाल।
इसमें ४४ राज्य शामिल हैं। देवासका वर्णन यह है
पुरातत्त्व-सारंगपुरमें है व देवाससे दक्षिण ३ मील नागदा ग्राममें है। यह पहले राज्यधानी रहाहै। यहां बहुतसे जैन मूर्तियों के ' और हिंदू मंदिरोंके अवशेष हैं। . (१) सारंगपुर-कालीसिंध नदीके पूर्वीय तटपर मकसी टेशनसे ३० मील व इन्दौरसे ७४ मील। यह बहुत प्राचीन स्थान है। यहां उज्जैनके घोड़ा चिन्हके पुराने सिक्के सन् ई० से १००० से ५०० वर्ष पूर्वके पानीमें वहते हुए मिले हैं। बहुतसे जैन और हिन्दू मंदिरोंके खण्ड भीतोंमें लगे हैं। यह सुन्दर तनजेवोंके लिये प्रसिद्ध था । यहां पहले एक किला हिन्दू और जैन खण्डहरोंसे बनाया गया था। ये बँडहर इन्दौरके सुन्दी पर्गनेके तुङ्गजपुरसे लाए गए थे। अब दीवाल व द्वार शेष है उसपर एक लेख जीर्णोद्वारका सन् १९७८ का है। ___ .बहुतसे जैन प्राचीन स्मारक हैं जिनमें एक तीर्थकरकी मूर्तिपर सं० ११७८ है। एक जैन मंदिरके भीतर संवत १३१९ की मूर्ति है।
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मध्य भारत।
[१०३
सुनातखांका पुत्र वाज बहादुर सन् १९६२के करीब स्वतंत्र होगया । इसकी रूपवान स्त्री रूपमती मालवामें अपनी गानविद्या व कविताके लिये प्रसिद्ध होगई है। बहुतसे उसके बनाए गीत अब भी गाए जाते हैं। बाज़ भी गान विद्यामें चतुर था।
(२) मनासा-पर्गना बगौड़-तोमरगढ़के नीचे वसा है।
(३) नागदा-प० देवास-यहांसे ३ मील | यहां पुराने कोट व पुराने मंदिरोंके शेप हैं । पालनगरमें बहुतसी जैन मूर्तियें देखी जाती हैं । यह पहले बहुत प्रसिद्ध स्थान था ।
(७) सीतामउ राज्य । यह इंदौरसे १३२ मील है। मन्दसोरसे इसका सम्बन्ध है। यहां तीतरोदमें-जो सीतामऊसे ६ मील पूर्व है-एक श्री आदिनाथजीका श्वे. जैन मंदिर है। [८] पिरावा ष्टेट (टोंक सम्बन्धी)।
उत्तर पश्चिममें इन्दौर, दक्षिणपूर्व ग्वालियर है । यहां सन् १९९१में १९ सैकड़ा जैनी थे। नगरके मंदिरोंमें जो शिलालेख हैं उनसे प्रगट है कि यह पिरावानगर ११वीं शताब्दीसे प्रसिद्ध है।
(९) नरसिंहगढ़ ष्टेट । इसकी चौहद्दी यह है । उत्तरमें राजगढ़, इन्दौर; दक्षिणमें ग्वालियर, भोपाल, पूर्वमें भोपाल; पश्चिममें ग्वालियर और देवास । यहां ७४१ वर्गमील स्थान है।
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M
१०४ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
(१) विहार - प्राचीन नाम भद्रावती - पर्ग० नरसिंहगढ़ - यहांसे दक्षिण ७ मील |
यह जैनधर्मका एक समय मुख्य केन्द्र था । वर्तमान ग्रामके ऊपर जो पहाड़ी है उसपर बहुतसे जैन स्मारक मिलने हैं. उन्होंने एक विशाल जैन मूर्ति है जो गुफाके पाषाणमें टी हुई है | यह ८॥ फुट ऊँची है, मस्तक नहीं रहा है । आसनपर वृषभक्का चिन्ह हैं इससे यह श्री आदिनाथजीकी है । पर्वतपर गुफाके पास एक शतखम्भा महल है यह १९ खन ऊँचा है । इसको संवत १३०४ में करणशनने बनवाया था ।
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(४) छपेरा - प० छपेरा - नरसिंह से पश्चिम ४६ मील | यहां श्री पार्श्वनाथजीका जैन मंदिर है जिसमें चार मूर्तिये हैं। उनमेंसे तीन में संवत १९४८ व एकमें संवत १७९७ है ।
(३) पाचोर - प० पाचोर । नरसिंह से पश्चिम २४ मील आगरा बम्बई सड़कपर | इसका प्राचीन नाम पारानगर है । यह बहुत प्राचीन जगह है, क्योंकि जब यहां खुदाई की जाती है तब खंडित जैन मूर्तियोंके शेष मिलते हैं ।
(१०) जावरा राज्य ।
यहां मन्दसोरसे थारोढ़ जाते हुए बाईखेड़ा ग्राम है, इसमें एक नव्यकालीन श्री पार्श्वनाथजीका जैन मंदिर है । इसमें १२
स्तम्भ हैं। मव्यमें पद्मासन जैन मृर्ति है । लेख १२वीं शताब्दीका है । द्वारपर श्रीमाल जातिके शामदेव वणिकका नाम है ।
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मध्य भारत।
[१.५ (११) राजगढ़ राज्य। विहार ग्रामसे ३ मील कोटरा ग्राम है जहां एक गुफामें मस्तक रहित जैन मूर्ति है।
(१२) सैलाना राज्य । सैलाना-नामली प्टेशन (राजपूताना मालवा रे०) से १० मील उत्तर है । नगरमें ३ जैन मंदिर हैं ।
(१३) भोपावर एजन्सी-धार राज्य ।
भोपांवर एजन्सीमें ७६८४ वर्ग मील स्थान है । चौहद्दी है-उत्तरमें रतलाम, इन्दौर; दक्षिणमें खानदेशः पूर्वमें नीमाई, भूपाल पश्चिममें रेवीकोटा । यहां २६ राज्य शामिल है ।
धार राज्य-यहां ७७५ वर्ग मील स्थान है। यह परमारोंकी प्रसिद्ध राज्यधानी है। परमारोंने यहां नौमीसे तेरहवीं शताब्दी तक राज्य किया था।
(१) धारानगर-यह प्राचीन नगर है । पहले राज्यधानी उजैन थी। पांचवे राजा वैरीसिंह द्वि०ने नौमी शताब्दीके अंतमें धारमें राज्यधानी स्थापित की। महाराज मुंज वाकपतिके राज्य (९७४-९९५) में सिंधुराजके राज्य (९९५-१०१०) में और राजा भोजके राज्य (१०१०-१०५३) में धार विद्याका केन्द्र था। ये राजा स्वयं साहित्य व काव्यके रचनेवाले थे और साहित्यके
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१०६]
. प्राचीन जैन स्मारक ।
महान रक्षक थे । धारपर सन् १०२०में अनहिलवाड़ाके चालूक्य राजा जयसिंहने तथा सोमेश्वर चालुक्य राजाने १०४०में चढ़ाई की तब राजा भोजको भागना पड़ा। .
धारमें बहुतसे प्रसिद्ध मकान हैं । सन् १४०५में जैन मंदिरोंको तोड़कर दिलावरखांने लाट मसजिद बनवाई और उसका नाम लाट इस लिये रक्खा कि एक लोहेका खम्भा या लाट अभी तक बाहर पड़ा हुआ है । यह ४३ फुट ऊंचा था पर अब इसके टुकड़े हो गए हैं। इसकी ठीक उत्पत्तिका पता नहीं है, परन्तु यह ख्याल किया जाता है कि यह अर्जुनवर्मन परमार (सन् १२१०१८) के समयमें शायद किसी युद्धकी विजयकी स्मृतिमें वना होगा।
यहीं अलाउद्दीनके समयमें (१२९६-१३१६) मुसल्मान साधु निजामुद्दीन औलिया हो गया है। राजा भोजका एक विद्यालय था उसको भी १४ वीं या १५ वीं शताब्दीमें और हिन्दुओंके. ध्वंश मकानोंको लेकर मसजिद बना लिया गया है। बहुतसे पाषाण उसमें ऐसे लगे हैं जिनमें संस्कृत व्याकरणके सूत्र लिखे । हैं । यह मसजिद पुराने मंदिरोंके स्थानपर है। यहीं एक मंदिर सरस्वतीका था। जिसको धारानगरीका भूषण माना गया था । दो स्तंभोंपर एक सर्पवन्धमें संस्कृत काव्य लिखा है
(A . R. 1902-3, A. S. R. W. I. 1904-6 B. R.A. S. Vol. XXI P. 339. 54).
नव सहशांक चरित्र पद्मगुप्त कविने रचा है उसमें भोनके पिता सिंधुराजका जीवनचरित्र है, उसमें धारका वर्णन एक श्लोक अच्छा दिया है।
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प्राचीन जैन स्मारक |
(३) कडोड - पर्ग ० धार - यहांसे १४ मील उत्तर पश्चिम जैन
१०८ ]
मंदिर हैं ।
(४) सादलपुर - पर्ग ० धार - यहांसे १२ मील प्राचीन जैन मंदिर हैं ।
(५) तारापुर - पर्ग धरमपुर - यहां ग्राममें एक जैन मंदिर है जिसको किसी गोपालने सन् १४७४ में बनवाया था ।
[१४] बडवानी राज्य |
इसकी चौहद्दी यह है । उत्तरमें धार, उत्तर पश्चिममें अली1 राजपुर, पूर्वमें इन्दौर, दक्षिण पश्चिम खानदेश । यहां ११७८ वर्ग मील स्थान है । यहां सेसोदिया राजाओंका राज्य है जिनका सम्बन्ध उदयपुरके राणाओंसे है ।
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वडवानी नगर-टेशन मऊ छावनीसे ८० मील | नगरसे पांच मील बावनगजा पहाड़ी है । यह जैनियोंका बहुत प्रसिद्ध. तीर्थ है । पर्वतकी चोटी पर एक छोटा मंदिर पुराने मंदिरोंके खंडोंसे बनाया गया है । और भी मंदिर हैं। श्री ऋषभदेवकी मूर्ति 1 पहाड़पर कोरी हुई है इसको बावनगजा कहते हैं, यह ८४ फुट ऊंची है। पर्वत पर नीचे और भी मंदिर है । पौष सुदी पूर्णिमाको मेला भरता है । बहुत दि० जैन यात्री आते हैं । यह पर्वत २१११ फुट ऊंचा है। वड़वानीका प्राचीन नाम सिद्धनगर है । यहां एक पुराना मंदिर है जो सिद्धनाथका मंदिर प्रसिद्ध है । यह मूलमें जैन था । अब महादेव पधरा दिये गये हैं ।
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मध्य भारत।
[१०६
यह बडवानी तीर्थ दिगम्बर जैनियोंका पूज्यनीय तीर्थ है। उनके शास्त्रोंमें यह प्रमाण है कि रावणके भाई कुंभकरण और रावणके पुत्र इन्द्रजीतने यहां मुक्ति पाई। इनके चरणचिह्न पर्वतकी चोटीके मंदिर में अंकित हैं। ' प्रमाणबडवाणी परणयरे दक्षिण भायम्मि चूलगिरि सिहरे । इन्दजीद कुम्भयणो णिचाण गया णमो तेसिं ।। १२ ॥
(प्राकृत निर्वाणकांड) भाषावडवाणी वडनयर मुचंग, दक्षिण दिश गिरित्रूल उत्तंग । इन्द्रजीन अरु कुम्भकर्ण, ते वन्दी भवसायर तर्ण ॥१३॥
(भापा निर्वाण कांड ) पश्चिम विभागकी रिपोर्ट सन् १९१६ में चाननगनानीकी मूर्तिक सम्बन्धमें इंजीनियर मि० पेजने लिखा है कि बावनगजाकी मूर्ति कहीं कहीं खण्ड होगई है इसलिये इसकी रक्षार्थ यह उचित है कि जो भाग मूर्तिक ठीक हैं उनपर नीचे लिखा मसाला लगा देना चाहिये जिससे पाषाण बना रहे-" Szarebuney's fluid - stone preservative " जहां २ मध्यमें खण्ड होकर चट्टान निकल आई है वहां Portlund Cement चारकोलके साथ लगाना चाहिये । जिस तरह होसके मूर्तिकी रक्षा करनी चाहिये क्योंकि यह मूर्ति बहुत प्राचीन है।
१५] झाबुआ राज्य । बारी-झाबुआसे १६ मील। यहां ग्राममें एक जैन मंदिर है।
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११०] प्राचीन जैन स्मारक । [१६] ओरछाराज्य [बुंदेलखंडएजंसी]
बुन्देलखंड एजंसीमें ९८५२ वर्ग मील स्थान है। इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तरमें जालान, हमीरपुर, वांदा; दक्षिणम सागर, दमोह, पूर्वमें वधेलखंड, पश्चिममें झांसी, ग्वालियर । इसमें २४ राज्य हैं, सन् १९०१में यहां जैनी १२२०७ थे।
ओरछाराज्य-इसमें २०८५ वर्गमील स्थान है। उत्तर पश्चिममें झांसी है, पूर्वमें चरखरी है, दक्षिणमें सागर, बीजावर और पन्ना है।
बनारसके गोहवारोंकी संतान बुन्देला राजपूत हैं। पहला बुन्देला राजा सोहलपाल हुआ जो १३वीं शताब्दीमें था । यह अर्जुनपालका पुत्र था। सन् १२६९से १५०१तक आठ रानाओंने राज्य किया। १९०१में राना रुद्रप्रताप हुए। १५३१में उसके पुत्र भारतीचंद हुए। फिर इसका भाई मधुकरशाह हुआ, इसका पुत्र रामशाह था (१९९२-१६०४ ) इसीके भाई वीरसिंहदेवने ग्वालियरमें अनत्रीके पास अबुलफजलको मारडाला था ( आईने । अकबरी) और १६०५ से १६२७ तक राज्य किया था । यह . बहुत ही प्रसिद्ध था। फिर झुझारसिंहने फिर उसके पुत्र पहाड़- . सिंहने १६४१से १६५३ तक, फिर सुनानसिंहने (१६६३-७२) फिर इन्द्रमणिने (१६७२-५)फिर जसवंतसिंहने (१६७२-८४) फिर भागवतसिंहने (१६८४-८९) फिर उद्योतसिंहने (१६८९ -१७३५) फिर पृथ्वीसिंह (१७३५-५२) फिर सावंतसिंहने (१७९२-६५) इसकी उपाधि महेन्द्र थी फिर हातीसिंहने
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मध्य भारत।
[१११
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(१७६५-६८) फिर मानसिंहने (१७६८-७९) फिर भारतीचंदने (१७७५-७६) फिर विक्रमजीतने (१७७६-१८१७) फिर धरमपालने (१८१७-३४) फिर तेनसिंहने (१८३४-४१) फिर सुजानसिंहने (१८४१-१८५४) फिर हमीरसिंहने (१८५४ -१८७४) पीछे उसके भाई प्रतापसिंह राज्य कर रहे हैं । सन् १९०१में यहां जैनी १८८४ थे।
(१) ओरछानगर-झांसीके पाम-वीरसिंहदेवका बड़ा मकान व किला है, तथा जहांगीर महाल है । बहुतसे मंदिर फैले पड़े हैं निनमें सबसे बढ़िया चतुर्भुज मंदिर है।
(२) अहार ता० बलदेवगढ़-यह किसी समय जैनियोंका प्रसिद्ध स्थान था। बहुतसी खंडित जैन मूर्तिये इसके चारों तरफ छितरी हुई हैं।
(३) जटारिया-ता. जटालिया-वर्तमानमें जो यहां जैन मंदिर है उसमें बहुतसी मूर्तिये १२ वीं शताब्दीकी है। ये सब दिगम्बर जैन हैं। उनमें मुख्य श्री आदिनाथ, पारशनाथ, शांतिनाथ, चन्द्रप्रभु भगवानकी हैं।
(४) पपौनी-ता० टीकमगढ़-यहांसे उत्तरपूर्व ८ मील । इसका प्राचीन नाम पम्पापुर है यह प्राचीन स्थान है । जैनी तीर्थ मानते हैं। बहुतसे मंदिर हैं।
(१७) दतिः इसकी चौहद्दी है-उत्तरमें ग्वालियर, जालान; दक्षिणमें ग्वालियर झांसी; पूर्वमें संथार, झांसी, पश्चिममें ग्वालियर ।
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११४ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
सरोवरोंके शेषांश हैं । यह कहावत है कि इसको परमालदेव या परमाददेव चंदेल राजा ( ११६५ - १२०३ ) के मंत्री बच्छराजने बसाया था । यहां भितारिया ताल प्रसिद्ध है । सन् १३७६ का शिलालेख मिला है जिसमें नगरको बच्छुम लिखा है । (२) नाचना यह गंजसे २ मील | प्राचीन नाम कुथारा है । यह १३वीं शताव्दीमें सोहालपालके राज्यमें प्रसिद्ध था। यहां गुप्त समयके दो ध्वंश पुराने हिन्दू मंदिर हैं ।
(१) अजयगढ - नगर व गढ़-जिस पर्वतपर यह किला है उसको केदार पर्वत कहते हैं। यह १७४४ फुट ऊँचा है। शिलालेखमें नाम जयपुर दुर्ग है । यह किला नौमी शताब्दी के अनुमान बना था । बहुत प्राचीन जैन मंदिरोंकी सुन्दर शिल्प कारीगरी मुसल्मानोंके बनाए मकानोंकी भीतोंपर दिखलाई पड़ती है । पर्वतपर बहुतसे सरोवर हैं। तीन जैन मंदिरोंके ध्वंश अभी तक खड़े हैं। इनकी रचना १२ वीं शताब्दीकीसी है और खजराहाके मंदिरोंसे मिलते जुलते हैं । पाषाणोंपर बहुत बढ़िया खुदाई है । ये मंदिर किसी समय बहुत ही सुन्दर होंगे । अनगिनती खंडित मूर्तियें, 'खम्भे, आसन पड़े हुए हैं। यहांके मकानोंमें सन् १९४१ से १३१५ तक चंदेल राजाओंके कई लेख मिले हैं।
M
(Cunningham A. S. R Vol. VII P. 45 and XXI P. 46 ),
( २० ) छत्तरपुर
राज्य ।
इसकी चौहद्दी यह है - उत्तरमें हमीरपुर । प्रयेनें केननदी, पन्नाव; पश्चिममें बीजावर और चखानी । दक्षिण में विजावर और पन्ना दमोह | इसमें १९१८ वर्गमील स्थान है । इसको १८वीं शतः
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मध्य भारत।
[११५
ब्दीके पिछले भागमें कुंवर सोनशाह पोवार या पमारने वसाया था।
यहां बहुत प्रसिद्ध पुरातत्त्वके स्मारक खजराहामें व राजगढ़के पास केननदीके पश्चिम मनियागढ़में हैं । राजगढ़ पुराना किला है इसको अठकोट कहते हैं । जंगलमें बहुतसे ध्वंश स्थान हैं।
(१) खजराहा छत्रपुरके पास । यह मंदिरोंके लिये प्रसिद्ध है । शिलालेखोंमें इसका प्राचीन नाम खजूरवाहक है। चांद भाटने इसे खजूरपुर या खजिनपुर कहा है । नगरके द्वारपर दो सुवर्ण रंगके खजूरके वृक्ष हैं । प्राचीन कालमें यह बहुत प्रसिद्ध जगह थी । यह निझोती राज्यकी राज्यधानी थी जिसको अब बुन्देलखण्ड कहते हैं । हुईनसांग चीन यात्रीने भी इसका वर्णन किया है । यहांके मंदिर सन् ९५० से १०५० तकके हैं । यहांके लेख बहुत उपयोगी हैं । इन मंदिरोंके तीन भाग हैं-(१) पश्चिमीययहां शिव और विष्णुके मंदिर हैं । (२) उत्तरीय-एक बड़ा और कुछ छोटे मंदिर हैं । सब विष्णुके हैं व कई खंड या ढेर हैं। (३) दक्षिण पूर्वीय भाग विलकुल जैन मन्दिरोंसे पूर्ण है। इनमें , चौसठ योगिनी घनटाईका मंदिर सबसे पुराना है । इसमें बड़े सुन्दर खम्भे हैं। इसके शेषांश छठी या ७ वीं शताब्दीके हैं जो ग्यारसपुरके मंदिरोंके समान हैं। एक चंदेललेख सन् ९९४ का है।
(Cunnimgham Vol. II P. 413 & Vol. VII P. 5, Vol. X P. 16, Vol. XT: P.55 and Epigraphica Indica Vol. I P. 121)
कनिंघम जिल्द दोमें है कि यह खजराहा महोवासे दक्षिण ३४ मील है। घंटाई जैन मंदिर नं० २१ में चहुतसी खंडित जैन मूर्तियें हैं । एकपर लेख है संवत ११४२ श्री आदिनाथ, प्रतिष्ठाकारक श्रेष्ठी वीवनशाह भार्या सेठानी पद्मावती । नं० २२
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१९६ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
- का जैन मंदिर प्राचीन छोटा श्री पार्श्वनाथजीका है । तीन लाइन.. मूर्तियोंकी हैं। ऊपर १ मूर्ति पद्मासन है | नीचे दो लाइनमें खड़े आसन मूर्तियें हैं । नं० २३ - २४ श्री आदिनाथ और पार्श्वनाथजीके क्रमसे हैं | मंदिर नं० २९ सबसे बड़ा व सबसे सुन्दर है यह ६० फुटसे ३० फुट है । एक जैन साहूकार ने इसका जीर्णोहार कराया था । मध्यवेदी के कमरे के द्वारपरं नग्न पद्मासन जैन मूर्ति है । इसके बगल में दो नग्न खड़े आसन हैं । द्वारके बांईं तरफ १९ लाइनका लेख है जिसमें है कि धंग राजाके राज्य में संवत् १०११ या सन् ९९४ में भव्यपाहिलने जिननाथके इस मंदिर को एक बाग दान किया | इस खजराहाका वर्णन संयुक्त प्रांतके प्राचीन जैन स्मारक पृष्ठ ४१ से ४३ तकमें दिया है । घंटाईके मंदिर में श्री शांतिनाथकी मूर्ति १४ फुट ऊंची है । इसपर " सं० २०८५ श्रीमान् आचार्य पुत्र श्री ठाकुर श्री देवधरसुत सुतश्री, शिविश्री, चंद्रेयदेवाः श्रीशांतिनाथस्य प्रतिमा कारितेति" है । नकल एक लेखकी
खजराहाका लेख |
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". (Ep. Indica Vol. I Ins. No. 111 of a Jain Temple on left door Jumb of temple of Jain Nath at out of 1011'
Sanyat. }
(१) - ओं ॥ संवत १०११ समये ॥ निजकुलधवलोयं (२) दिव्यमूर्ति स्वशील, शमदमगुणयुक्त सर्व्व - ( ३ ) सत्त्वानुकंपी । स्वजनजनित तोषो धांगराजेन (४) मान्य, प्रणमति जिननाथो यं भव्य पाहिल (५) नामा ॥ १ ॥ पाहिलवाटिका १ चंद्रवाटिका २, (६) लघुचंद्रवाटिका ३, शंकरवाटिका ४, पंचाई (७) तलवाटिका ५, जमवाटिका ६, धंगवाड़ी, (८) पाहिलवंशे तु क्षये क्षीणे अपरवंशो
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मध्य भारत।
[११७
यः कोपि (९) तिष्ठति तस्य दासस्य दासोऽयं मम दतिस्तु पार (१०) येत् ॥ महाराज गुरु श्रीवासवचंद्रः वैशाख (११) सुदी ७ सोम दिने ।
उल्था । संवत १० ११ में पवित्रकुली सुंदरमूर्ति शील, शम, दम युक्त, व्यावान, स्वनन परिजनका उपकारी, भव्य पाहिल जो धांगराजासे मान्य है सो श्री जिननाथको नमस्कार करता है। मैंने पाहिलबाग, चंद्रयाग, लघुचंद्रवाग, शंकरवाग, पंचाइलबाग, आमवाग तथा धांगवाडी दान की है, पाहिलवंशके नाश होनेपर जो कोई वंश रहे उसके दासोंका मैं दास हूं सो मेरे इस दानकी रक्षा करे । महाराज गुरु श्री वासवचंद्रके समयमें वैशाख मुदी ७ सोमवार ।
लेख नं० ८ (ए० ई० पृष्ठ १५३) एक जैन मूर्तिपर-“ओं संवत .१२१५ माघ सुदी ५ श्रीमन् मदनवर्मदेव प्रवर्द्धमान विजयराज्ये गृह पतिवंशे श्रेष्ठिदेदू तत्पुत्र पाहिल्लः पाहिल्लांगरुह साधुसाल्हे तेनेयं प्रतिमा कारितेति । तत्पुत्राः महागण, महीचंद्र, सिरिचंद्र, निनचंद्र, उदयचंद्र प्रभृति । संभवनाथं प्रणमति नित्यं मंगलं महाश्रीः रूपकार रामदेवः ।"
। उल्था । भावार्थ-मदनवर्मदेवके राज्यमें संवत १२१५ में गृहपति कुलधारी देदू उसके पुत्र पाहिल, पाहिलके पुत्र साल्हेने प्रतिमा कराई उसके पुत्र महागण आदि नमस्कार करते हैं ।
नोट-गृहपतिकुल शायद परिवार वंश हो ।
(२) छत्रपुर नगर-वांदासे. ६४मील । यहां बुद्धेदलाल और अमरसिंह चौधरीके बनाए जैन मन्दिर हैं।
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१२० ] - प्राचीन जैन स्मारक । खयाल किया जाता है कि प्राचीन कौसाम्बी नगरका यही स्थान है। यहां एक सुन्दर किला है जिसको रेहत कहते हैं । इसको करणदेव चेदो (१०४०-७०) ने बनवाया था। इसका २॥ मीलका घेरा है । भीतें ११ फुट मोटी हैं व मूलमें २० फुट ऊंची थीं। इसके चारों तरफ खाई थी जो ५० फुट चौड़ी व ५ फुट गहरी. थी। यहां मंदिर अधिकतर ब्राह्मणोंके हैं, यद्यपि कुछ दिगम्बर जैन मूर्तियां चंद्रेहीके पास मिलती हैं । सोननदीके पूर्व एक बड़ा स्थान है व सुन्दर मंदिर हैं। मोरापर तीन समुदाय गुफाओंके हैं जिनको दुरादन, छेवर व रावण कहते हैं । ये चौथीसे नौमी शतान्दीकी हैं। कुछोंमें मूर्तिये हैं।
___ यहांके मुख्य स्थानोंका वर्णन
(१) अमरकंटक-सहडोलसे २५ मील एक ग्राम । यह मैकाल पहाड़ीका (नो ३००० फुट ऊँची है) पूर्वीय कोना है। यहांसे नर्बदानदी निकली है ऐसा प्रसिद्ध है । यहां कपिलधाराका जलपतन है । पांडव भीमके चरणचिह्न हैं । यहां खजराहाके समान बहुत ही बढ़िया मंदिर हैं जिनको करणदेव चेदी (१०४०-७०) ने बनवाया था। १४ दूसरे मंदिर हैं।
(Cunn : A. S. R. Vol. VII. P. 22 ... . (२) वांधोगढ़-कटनीके पास तालुका रामनगर-यहां पुराना किला है । यह प्राचीन ऐतिहासिक नगह है। जिस पहाड़ी पर यह किला है वह २६६४ फुट ऊंची है । उसीमें वमनिया पहाड़ी शामिल है । १३ वीं शताब्दीमें करणदेव कलचूरी राजकुमारीके साथ वघेलाको मिला ( Cunni. Vol. VII P. 22 )
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मध्य भारत।
[१२१ . (३) सुहागपुर-सहडोलसे २ मील एक ग्राम । यहां एक बड़ा महल है जो पुरानी इमारतोंसे बना है । वहुतसे खम्भे मंदिरोंसे लिये गए हैं। उनमें बहुतसे जैन मुर्ति व पापाणोंके स्मारक हैं। मह प्राचीन जैनियोंका स्थान था। वहुतसी जैन तीर्थकरोंकी मूर्तियां चारों तरफ दिखलाई देती हैं । इस ग्रामसे दक्षिण पूर्व १ मील. पुरानी वस्तीके खंडहर हैं।
यह विलासपुरके पास घाटीके कौनेमें है। चेदी राजाओंके बिल्हारीके शिलालेखमें इसका नाम सौभाग्यपुर है । स्थानीय ठाकुरके घरमें बहुतसे प्राचीन पाषाण हैं उनमें नीचे प्रकार भी पाषाण हैं ।
(१) जैन देवी सिंहासनपर बैठी, भुजाओं में एक जैन बालक है, एक आम्रवृक्षके नीचे बैठी है। वृक्षके ऊपर एक पद्मासन जैन मूर्ति है । उसके ऊपर सिंहासन पर दूसरी पद्मासन जैन मूर्ति है इसके हरतरफ बगलमें एक खड़े आसन जिन हैं व खड़े इन्द्र हैं। (२) एक वठे आसन शासनदेवी है जिसकी १२ भुजाएं हैं। ऊपर पद्मासन मूर्ति श्री पार्श्वनाथकी है । (३) एक सुन्दर मूर्ति ऋपभदेवकी है । वैलका चिह्न है।
(४) रीवांनगर-गीमसौन नामके पुराने नगरसे एक बहुत सुन्दर ख़ुदाईका हार यहां लाया गया है । यह नगर यहांसे पूर्व १२ मील है।
(५) अल्हाघाट-ता० हूजूर-यह प्रसिद्ध स्थान है । इसमें नरसिंहदेव कलचूरी राजाका लेख वि० सं० १२१६ का है।
(६) भूमकहर-ता० रघुराजपुर-सतनासे उत्तर पश्चिम ७. मील। यहां एक पुराना किला है जिसको वघेलोंने बनवाया था ।
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१२२ ]
प्राचीन जैन स्मारक। अब ध्वंश है । पानीके झरनेके पास बहुतसे जैन तीर्थङ्करोंकी मूर्तियोंसे अंकित पाषाण हैं। इनको लोग पांच पांडव कहते हैं। --
(७) गूर्गीमसौन-ता. हुजूर (गढ़) रीवांसे १२ मील । यहां कुछ दि० जैन मतियां चारों ओर मिलती हैं। प्राचीन कौसा-. . म्बीका स्थान है ( ऊपर देखो)
(८) मुकुन्दपुर-ता० हुजूर-रीवांसे दक्षिण १० मील पुराने किलेके ध्वंश हैं। खजराहाके समान यहां बहुतसी जैन मूर्तियां चारों तरफ मिलती हैं।
(९) मार या मूरी-ता० वरडी। यहां ४ थी से नौमी शताब्दीकी कुछ गुफाएं हैं।
(१०) पाली-ता० सुहागपुर-हिन्दुओंके मंदिरोंमें प्राचीन जैन मूर्तियोंके बहुतसे स्मारक देखे जाते हैं।
. (११) पियावान-ता० रघुराजनगर-सेमरियासे ७ मील । यहां दाहालुके कलचूरी राजा गांगेयदेवका लेख चेदी सं० ७८९ या सन् १०३८ का मिलता है। (२३) नागोद राज्य या उंछहरा राज्य।
• यह राज्य सतनासे पूर्व है। यहां ६०१ वर्गमील स्थान है। यहां परिहार राजपूतोंके वंशज राज्य करते हैं। सन् १३४४ में यहां राजा धारासिंह थे व सन् १४७८में यहां राजा भोज थे। यहां प्राचीन स्मारक बहुत हैं परन्तु उनकी अभीतक खोज नहीं की गई है। यहाँपर होकर मालवा और दक्षिण भारतसे कौसाम्बी और श्रावस्तीको मार्ग गया था। भरहुतके पास एक सुन्दर बौद्ध स्तूप पहले मौजूद था
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मध्य भारत।
[१२३ जिसके अंश कलकत्ता म्यूजियममें गए हैं । यहां सांची स्तूपके समान था । इसके एकद्वारपर सन ई०से पहली या दूसरी शताब्दी पहलेका लेख संग वंशका था । दूसरे मुख्य स्थान लालपहाड़ पर हैं जो इस स्तूपके पास एक पहाड़ी है । यहां बड़ी गुफा है व सन् ११५८ का कलचूरी वंशका शिला लेख है । संकरगढ़
और खोली पर भी कई उपयोगी लेख सन् ४७५ से १५४ तकके' पाए गए हैं । भूमारा, मझगावां, करीतलाई व पटैनी देवी पर भी स्मारक हैं। पटैनीदेवी पर चौथी या पांचमी शताब्दीका गुप्त वंशीय समयका एक छोटा सुरक्षित मंदिर है इसमें १०वीं या ११ वीं शताब्दीके कुछ जैन स्मारक हैं। (देखोवर्णन जिला जवलपुर)
पश्चिम भाग अर्कीलाजिकल सरवे रिपोर्ट सन् १९२०में विशेष कथन यह है कि पटैनीदेवीके मंदिरके ऊपर तीन आले हैं। हरएकमें जैन मूर्तियां हैं । भीतर मंदिरमें देवीकी मूर्ति और पीछे पाषाणमें १२ वीं शताब्दीकी जैन मूर्तियां अंकित हैं। मुख्य मूर्तिके हर तरफ नौ हैं। पहली लाइनमें मध्यमें श्री नेमिनाथ हैं। इसके हरतरफ २ खड़े आसन जिन हैं अन्तमें एक जिन बैठे हुए आलेमें हैं । वाऐंसे दाहनेको जो लाइन है उसमें ये नाम देवियोंके हैं (१) यहुरूपिणी (२) चामुंड (३) सरस्वती (४) पद्मावती (५) विजया (६) अपराजिता (७) महामनुसी (८) अनंतमती (९) गांधारी (१०) मानुसी (११) ज्वालामालिनी (१२) भानुसी (१३) वजसंकला (१४) भानुजा (१९) जया (१६) अनन्तमती (१७) वैरोता (१८) गौरी (१९) महाकाली (२०) काली (२१) बुधदाघी (२२) प्रजापति (२३) वाहिनी ।,
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१२४ ]
प्राचीन जैन लारक।
(२४) जसो या जस्सो राज्य ।
यह नागोदके पास है । यहां ७२९ वर्गनील न्यान है। यह नसेवरी नगरक, अपनंच है । यहां नहलो महेन्द्रनगर हते हैं। यहां अप्परपुती बोर हदीनगरने इतने जैन और हिन्दुऔर स्मारक केले पड़े हैं। (CES TO ZIP.99 ) इस महल्के पुराने हास्न बहुतसी जैन मूर्तियां लगी हैं।
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[ १२५.
राजपूताना ।
तीसरा भाग । प्राचीन जैन स्मारक - राजपूताना -
राजपूतानाकी चौहद्दी इस प्रकार है:
पश्चिममें सिंध | उत्तर पश्चिममें पंजाब, वहावलपुर । उत्तर और उत्तर पूर्व में पंजाब । पूर्वमें संयुक्त प्रदेश, ग्वालियर । दक्षिणमें मध्य भारत और बम्बई ।
इसमें १३०४६२ वर्गमील स्थान हैं इसीमें अजमेर, मड़वाड़ा भी शामिल हैं जो २७११ वर्गमील है ।
इसकी व्यवस्था यह है कि:- राज्य जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर पश्चिम और उत्तर में हैं । शेखाघाटी (जैपुरका भाग) और 1 अलवर उत्तर पूर्वमें हैं । जैपुर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, बूंदी, कोटा, झालावाड़ पूर्व और दक्षिण पूर्वमें हैं। परतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर दक्षिणमें और सिरोही दक्षिण पूर्व में हैं । मध्यमें अजमेर, मडवाड़ा प्रांत, किशनगढ़, शाहपुर, लावा और टोंकका एक भाग है ।
यहां आवू पहाड़ ५६५० फुट ऊंचा है ।
इतिहास - यहां भी बौद्धोंका राज्य था । महाराज अशोकके शिलालेखके दो पाषण वैराटमें हैं जो राज्य जैपुरमें है । सन् ई० से दूसरी शताब्दी पहले वैकटीरियाके ग्रीक या यूनान लोग उत्तर और उत्तर पश्चिमसे आए । उनके विजय प्राप्त देशोंमें यहां प्राचीन शहर नगरी ( इनको माध्यमिक भी कहा है ) था नो
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प्राचीन जैन स्मारक ।
चित्तौड़ के निकट है तथा कालीसंघ नदीके चारों ओरका देश हैं । ग्रीक बादशाहोंमेंसे अपोलोदस और मिनैन्दर इन दोके सिक्के उदयपुर राज्य में पाए गए हैं। दूसरीसे चौथी शताब्दी तक सीढ़िया या शक लोग दक्षिण और दक्षिण पश्चिममें बलवान रहे । गिरनार पर्वतके पास जो १५० सन् ई० का शिला लेख है उसमें वर्णित है कि रुद्रदमन मारु (माड़वाड़) और साबरमती नदीके चहुंओर देशका शासक था । मगधके गुप्त वंशने चौथीसे छठीं शताब्दी तक राज्य किया जिसको राजा तोरमान के आधिपत्यमें श्वेत नोंने नष्ट किया । सातवीं शताब्दीके प्रथम अर्द्ध में थानेश्वरके राजपूत हर्षवर्द्धन और कन्नौनके वैश्य हर्षवर्द्धनने देशमें शासन किया और ना तक विजय प्राप्त की, उसमें राजपूताना भी शामिल था । हुइनसांग चीन यात्री (६२९ - ४५ ) के समय में राजपूताना के चार विभाग थे ।
(१) गुर्जर - जिसमें बीकानेर, पश्चिम राज्य और शेखावाटी - का भाग शामिल था । (२) वैराट - जिसमें जैपुर, अलवर और टोंकका भाग था । (३) मथुरा - जिसमें तीन पूर्वीय राज्य भरतपुर, धौलपुर और करौली थे । (४) वदरी - जिसमें दक्षिण और कुछ मध्यभारत के राज्य शामिल थे ।
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सातवीं और ग्यारहवीं शताब्दीके प्रारम्भके मध्य में राजपूतानामें बहुतसे वंश उठ खड़े हुए। गहलोट या सेशाद्री वंशज गुजरातसे आए और मेवाड़के दक्षिण पश्चिम भागको ले लिया । उनका सबसे प्राचीन लेख ता० ६४६ का राजपूतानामें मिला है । पीछे रिहरों राज्य किया जिन्होंने अपना शासन जोधपुरके मांदोर में
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राजपूताना ।
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प्रारम्भ किया | फिर आठवीं शताव्दीमें चौहान और भाटियोंने राज्य किया जो क्रमसे सांभर और जैसलमेर में बसे । दशवीं शताव्दीमें परमार और सोलंकी दक्षिण पश्चिममें बलवान हुए । अब राजपुतानामें तीन वंश प्रसिद्ध हैं-सेसोदिया, भाटिया और चौहान । इनमें से पहले दो तो अपने मूलस्थानोंमें जमे रहे जब कि चौहान सिरोही बूंदी, कोटामें फैल गए । जादोवंशजोंने ११वीं शताब्दी में करोलीमें स्थान जमाया । कछवाहा वंशज ग्वालियरसे जैपुर में सन् ११२८ में आए | राठौर वंशज कन्नौजसे माड़वाड़में १३वीं शताब्दी में आए।
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पुरातत्व - जैपुरके वैराटमें दो अशोक के शिलालेख हैं तथा सन् ई० से तीसरी शताब्दी पहलेका लेख चित्तौड़के पास नगरी स्थानपर है । झालावाड़ में खोलवीपर पहाड़में कटे मंदिर तथा गुफाएं सन् ७०० से ९०० तककी हैं । ये बौद्धोंका पुरातत्व है । 1 जैनियोंके बहुत प्रसिद्ध कारीगरीके मंदिर ११ वीं व १३ वीं शताब्दीके आबू पहाड़में दिलवाड़ेपर हैं तथा इसी कालके अनुमानका एक जैन कीर्तिस्तम्भ वित्तौड़ा में है, तौभी सबसे पुराने जैन मंदिर परतापगढ़ में सुहागपुरा के पास हैं। बांसवाडामें कालिंजरामें हैं तथा जैसलमेर और सिरोहीके कई स्थानोंपर हैं, और पुराने जैन स्मारकों के शेष भाग उदयपुर के पास अहार में तथा राजगढ़ में और अलवर राज्य के पारनगर में हैं ।
हिन्दुओं का पुरातत्त्व बयाना (भरतपुर) में एक पापाणका स्तंभ सन् ३७२ का है। मुकुन्दद्वागमें पंचवी शताब्दीका ध्वंश स्थान है । ११ वीं शताब्दी के ध्वंश मंदिर झालरापाटनके पास
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प्राचीन जैन स्मारक।
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चन्द्रावतीमें हैं खुदे हुए मंदिर उदयपुरमें वरोली पर व नागदा-पर क्रमसे नौमी और ग्याहरवीं शताब्दीके हैं तथा चितौड़में एक जकस्तम्भ १५ वीं शताब्दीका है।
जैनियोंकी संख्या-सन् १९०१ में २॥ कौसदी भी अर्थात कुल जनी ३४२५९६ थे जिनमें ३२ सेकड़ा दिगम्बरी, ४६ मैकड़ा श्वेताम्बरी मूर्तिपूजक तथा शेष स्थानकवासी थे। [१] उदयपुरराज्य (उदयपुर रोजडेन्सी)
उदयपुर रेजिडमी या मेवाड़में ४ राज्य हैं। उदयपुर, वांसवाडा, डूंगरपुर और परतापगढ़ ।
इसकी चौहद्दी-उत्तरमें अजमेर, मरवाडा और शाहपुर, उत्तर पूर्वनें जपुर और बुंदी ! पूर्वनें कोटा, और टोंक; दक्षिणमें मध्यभारत पश्चिममें अरावली पहाड़।
सन् १९०१ में यहां जनी ६ फी मदी थे।
उदयपुर राज्य-इमनी चौहती-उत्तरमें अजमेर मडवाडा और शाहपुर, पश्चिन, नोवपुर और सिरोही । दक्षिणपश्चिममें इंडर राज्य; दक्षिगर्ने इंगरपुर, बांसवाडा, परतापगढ़ । पूर्वमें नीमच ! उत्तरपूर्वनें जपुर । वहां १२६९१ वर्गमील स्थान है।
इतिहास-मेवाडके महाराणा अपने दमें बहुत ऊंचे हैं। इनकी उत्पत्ति श्रीरानन्द्रक पुत्र कुशम है। इस वंशने अपनी कन्या किली मुसल्मानको नहीं विवाही, किन्तु उनसे भी सम्बन्ध बन्द किया जिन्होंने कन्या मुममानको दी थी। कुशके कंगनोंका अंतिम राजा अवयन मृमित्र हुआ है। इसकी
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राजपूताना।
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कुछ पीढ़ी पीछे कनकसेनसे काठियावाड़में वल्लभीका राज्य स्थापित किया गया । वर्वर आक्रमणकारोंके सामने वल्लभीके राजाओंका पतन हुआ उनका मुखिया शिलादित्य मारा गया। उसकी गर्भवती रानीसे उत्पन्न गुहादिसने ईडर और मेवाड़में राज्य किया। इससे गोहलट वंश उत्पन्न हुआ । गुहादित्यके पीछे छठा राजा महेन्द्र द्वि० था जिसका नाम वापा प्रसिद्ध था। इसकी राज्यधानी उदयपुरके उत्तर नागदापर थी । इस बापाने चित्तौड़पर चढ़ाई की जहां मोरी जातिके मानसिंह तव राज्य कर रहे थे । बापाने इसको हटा दिया और वहां सन् ७३४ में अपना राज्य स्थापित किया तथा रावलकी उपाधि धारण की।
इनका समाचार १४वीं शताब्दीके प्रारम्भ तक विदित नहीं हुआ । इस १४वीं शताब्दीके प्रारम्भमें रतनसिंह प्रथम महाराणा था तब बादशाह अलाउद्दीनने सन् १३०३में चढ़ाई की । रतनसिंह युद्ध में मारा गया और चित्तौड़का किला ले लिया गया। पीछे राणा हमीरसिंहने चित्तौड़को फिर हस्तगत किया । यह सन् १३६४ में मरा । राणा लक्षसिंह या लाखा (१३८२-९७) के समयमें जावरमें चांदीकी खानें मिलीं। पीछे प्रसिद्ध राणा कुंभ (१४३१६८) हुआ जिसने गुजरातके मुहम्मद खिलजी कुतुबुद्दीनको हरा दिया और चित्तौड़में अपनी विजयकी स्मृतिमें जयस्तम्भ स्थापित किया। इसने बहुतसे किले बनवाए जिनमें मुख्य कुंभलगढ है। राणा रायमलने १४७३ से १५०८ तक राज्य किया फिर राना संग्रामसिंह या राना सांगा हुए । इनके समयमें मेवाड़ बहुत ऐश्वर्ट युक्त था। राणा सांगाने बावर वादशाहसे सन् १९२७में
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प्राचीन जैन सारक।
गया। ध्वंश स्थानोंको धूलकोट कहते हैं । यहां १०वीं शताब्दीके 'वार लेख तथा सिक्के मिले हैं। कुछ पुराने जैन मंदिर अभी भी मिलते हैं। पुराने हिन्दू मंदिरोंके अवशेष भी मिलते हैं जिनमें वढ़िया खुदाई है।
( Sce 1. Todd antiquities to Rajputana Vol. II 1832. Fergusson architecture 1848).
(२) विजोलिया-यह बूंदीके कोनेपर है। उदयपुर शहरसे ११२ मील उत्तर पूर्व है व कोटासें पश्चिम ३२ मील है। इसका प्राचीन नाम विन्ध्यावली है। यहां श्री पार्श्वनाथ भगवानके पांच जैन मंदिर हैं, एक मध्यमें व चार चार तरफ हैं । १२ वीं शताब्दीके एक महलके अवशेष हैं। १२ वीं शताब्दीके दो पाषाण लेख भी हैं। एकमें अनमेरके चौहानोंकी वंशावली चाहूमानसे सोमेश्वर तक दी है। श्री पार्श्वनाथ मंदिरके सरोवरके उत्तरओर भीतके पास महुवा वृक्षके नीचे पाषाण पर यह लेख है। इसमें यह लेख है कि पृथ्वीराजके पिता सोमेश्वरदेवने एक ग्राम
खेना भेट किया । लेख लिखाया महाजनने संवत १२२६ या सन् ११६९में ( 1. A. S. Sengul Vol. LV P. 1 P. 40 ). तथा दूसरेमें एक जैन काव्य है जिसका नाम उन्नतशिपरपुराण, है, यह अभी प्रगट नहीं है।
(Tod. Raj. Vol, I] Cunningham A. S. of N. India Vol.
यहां जो जैन मंदिर हैं उनको अजमेरके चौहान राजा सामेश्वरके समयमें सन् १९७० में एक महाजन लोलाने बनवाए थे । इनमेंसे एकके भीतर एक छोटा मंदिर और है। पापाणलेखका सन् भी ११७० है।
VI P. 234-52).
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राजपूताना।
॥ १३३ ___ Archeolgy progross report of W. India 1905 में विशेष वर्णन यह है कि मध्य मंदिरके सामने दो चौकोर स्तम्भ हैं जिनमें जैनाचार्योंके नाम हैं । तथा खास मंदिरके सामने एक खंभेवाला कमरा है जिसको नौचौकी कहते हैं । इसीके उत्तर चट्टानोंमें ऊपर कहे दो लेख हैं। पहला लेख ११ फुट छ इंच व ३ फुट ६ इंच है । दूसरा १५ फुट और ५ फुट है। लोला महाजनने या तो पार्श्वनाथका मंदिर बनवाया हो या जीर्णोद्धार किया हो । इसने सात छोटे मंदिर और वनवाए थे। ये मंदिर इनसे भिन्न होंगे। मध्य मंदिरमें एक लेख किसी यात्रीका है जो वि. सं. १२२६ चाहपान राज्यका है। A. P. R. V. India 1906 में यहांके लेखोंकी नकल दी है। नं. २१३७-३८ में जैन दि० आचार्योके नाम इस तरह हैंमूलसंघ सरस्वती गच्छ वलात्कारगण कुंदकुंदान्वयी वसंतकीर्तिदेव विशालकीर्तिदेव, दमनकीर्तिदेव, धर्मचंद्रदेव,रत्नकीर्तिदेव,प्रभाचंद्रदेव, पद्मनंदि, शुभचंद्रदेव । इनमेंसे पहले लेख पर सं० १४८३ फागुण सुदी ३ गुरौ निपेधिका जैन आर्या वाई आगमश्री।
(सं. नोट-यह आर्यिका आगमश्रीकी स्मृति है।) दूसरेपर फागुण सुदी २ बुधौ सं. १४६५ निपेधिका शुभचन्द्र शिप्य हेमकीर्तिकी । जिनपर ये दो लेख हैं उसी खमेपर किसी साधुके
चरणचिन्ह हैं व एक तरफ भट्टारक पद्मनंदिदेव तथा दूसरी तरफ 'भट्टारक शुभचन्द्रदेव अंकित है। इस लेखका नं. २१३९ है। नं. २१४१ पार्श्वनाथ मंदिरके द्वारपर लेख है-महीधरका पुत्र मनोरथका नमस्कार हो सं० १२२६ वैसाख वदी ११ ।
(३) चित्तौड़-यह प्रसिद्ध किला है, एक तंगपहाड़ी पर है .
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जो ५०० फुट ऊंची है तथा ३ मील लम्बी व आध मील चौड़ी है। चित्तौड़का प्राचीन नाम चित्रकूट है, जो मोरी राजपूतोंके सर्दार चित्रंगके नामसे प्रसिद्ध है। इन मोरी राजपूतोंने सातवीं शताब्दीके अनुमान यहां राज्य किया था जिनका ध्वंश महल अव भी दक्षिण भागमें है । वापा रावलने सन् ७३४में इसे मोरियोंसे लेलिया । यह मेवाड़की राज्यधानी सन् १९६७ तक रहा फिर राज्यधानी उदयपुर नगरमें बदली गई । जर्नलने एसिया सोसायटी बंगाल नं० ५५ पृष्ठ १८में है कि चित्तोरगढ़के महलकी भीतरी सहनमें एक लेख नं० ५ है जो कहता है कि वैशाखसुदी ५ गुरुवार सं० १३३५को रावल तेजसिंहकी धर्मपत्नी जैतल्लदेवीने श्यामपा
र्श्वनाथनीका मंदिर बनवाया, इसके लिये उसके पुत्र रावल कुमार-- सिंहने भूमि प्रदान की । कनिंघम रिपोर्ट नं० २३में सफा १०८में है कि गणेशपोलपर एक खंभेके ऊपर एक लेख सं० १९३८का है जिसमें जैन यात्रियोंका लेख है। प्रसिद्ध जैनकीर्तिस्तंभके विषयमें लिखा है कि यह ७५॥ फुट ऊंचा है, ३२ फुटका व्यास नीचे व १५ फुट ऊपर है । यह बहुत प्राचीन है । इसके नीचे एक पाषाणखंड मिला था जिसमें लेख था-श्री आदिनाथ व २४ जिनेश्वर, पुंडरीक, गणेश, सूर्य और नवग्रह तुम्हारी रक्षा करें . सं० ९५२ वैसाख सुदी ३० गुरुवार ॥
यहां सबसे प्राचीन मकान जैन कीर्तिस्तम्भ है जो ८० फुट ऊंचा है जिसको बधेरवाल महाजन जीजाने १२वीं या १३वीं शताब्दीमें जैनियोंके प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथकी प्रतिष्ठामें वनवाया। यहां प्रसिद्ध जयस्तम्भ भी है जो १२० फुट ऊंचा है
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राजपूताना |
इसको राणा कुंभने सन् १४४२ और १४४९ के मध्य में अपनी मालवा और गुजरातकी विजयकी स्मृतिमें बनवाया ।
रामपाल द्वारके सामने एक जैन मठ है जिसको अब पहरेवालोंका कमरा Guard Room कर लिया गया है। इसमें एक लेख सन् १४८१ का है जो कहता है कि कुछ जैन प्रतिष्ठित पुरुषोंने यहां दर्शन किये थे ।
दक्षिणकी तरफ नौलखा भंडार और बड़े२ स्तम्भोंका कमरा है जिसको नौ कोठा कहते हैं । इन इमारतोंके बीचमें बड़े सुन्दर खुदे हुए छोटे जैन मंदिर हैं जिनको सिंगारचौरी कहते हैं । इनमें कई शिलालेख हैं । एक लेख कहता है कि इसको राणा कुंभके खजांचीके पुत्र भंडारी वेलाने श्री शांतिनाथजीकी प्रतिष्ठामें बनवाया था । दरवारके महलके पास एक पुराना जैन मंदिर है जिसको सतीस देवरी कहते हैं । इसके आंगन में बहुतसी कोठरियां हैं । Archealogical ourvey of India for 1905-6 में पृष्ठ ४३-४४ पर जो वर्णन दिया है वह यह है कि जैन कीर्तिस्तम्भ बहुत पुरानी इमारत है जो शायद सन् १९०० के करीब बनी थी । यह स्तंभ दिगम्बर जैनियोंका है। बहुत से दिगंबर जैनी- राजा कुमारपालके समयमें ( १२वीं शताब्दीका मध्य ) पहाड़ीपर रहते होंगे ऐसा • मालूम होता है । इंंग्रेजी शब्द हैं
It belongs to the Digambar Jains, many of whan seem to have been upon the hill in Kumarpal's time.
राजा कुम्भके जयस्तम्भके नीचे जो पुराना मंदिर है उसके लेखसे प्रगट है कि गुजरातके सोलंकी राजा कुमारपालने इस पर्वत के दर्शन किये थे । राजा कुंभके राज्यके समयमें यद्यपि श्वेताम्बर जैन
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। प्राचीन जैन स्मारक।
थोड़े होंगे तोभी उस समयके वने जैन मंदिर श्वेताम्बरों द्वारा बनाए गए थे।
कीर्तिस्तम्भ चौमुख मृतिको धारताहुआ एक महत्त्वशाली स्तम्भ है । जो पुराने खुदे हुए पाषाणोंका देर इस स्तम्भके नीचे है उसमें ऐसी चौमुख मूर्तिका भाग है कि जो इस स्तम्भके शिखर पर अच्छी तरह विराजित होगी (देखो चित्र १ चौमुख मूर्ति पृष्ठ ४४) इसको समवशरणके ऊपरी भागसे मुकाबला किया गया है। (देखो चित्र १८ B)-ऐसे स्तम्भ जिनको कीर्तिम्तम्भ कहते हैं व जो जैन मंदिरके सामने स्थापित किए जाते हैं उनमें चौमुख मूर्तिक उपर १ छतरी होती है। यदि इस कीर्तिस्तम्भका सम्बन्ध मूलमें किसी मंदिरसे होगा तो यह मंदिर शायद उस स्थानपर होगा जहां वर्तमानमें पूर्व ओर अब पापणका ढेर है।
जो वेताम्बर जैन मंदिर अब इस स्तम्भके पास दक्षिण पूर्वमें है उसका सम्बन्ध इस स्तंभसे नहीं है, क्योंकि वह ३५० वर्ष पीछे बना था। इस मंदिरके शिखरके भीतर. देखनेसे माल्टम होता है कि इस शिखरके भीतरी भागमें जो खुदे हुए पाषाण हैं वे प्रगट करते हैं कि यहां पासने पहले कोई दूसरा मंदिर होगा। इस कीर्तिस्तम्भनी नरम्मत सारने सन् १९०६ में की थी जिसके लिये महाराणा उदयपुरने २२०००) खर्च किया । जीर्णोद्धारक पहले ऊपर तोरण न थे सो फिरसे वनादिये गए हैं। टट ४९ पर है कि डा० जी० आर० भंडारकरके कथनानुसार दक्षिण कालेज लाइब्रेरीमें एक प्रशस्ति है जिसको " श्री चित्रकूट दुर्ग महावीरप्रसाद प्रशस्ति" कहते हैं जिसने चारित्रगणिने वि०
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सं० १४९६में संकलन किया व जिसकी नकल वि० सं० १९०८ में की गई। यह प्रशस्ति कहती है कि यह कीर्तिस्तम्भ मूलमें सन् ११०० के अनुमान रचा गया था, किन्तु राणा कुंभके समयमें सन् १४५०के अनुमान इसका जीर्णोद्धार हुआ। इस लेखमें किसी शिलालेखकी नकल है जो श्री महावीरस्वामीनीके जैन मंदिरमें • मौजूद था तथा कीर्तिस्तम्भ उसके सामने खड़ा था। यह लेख कहता है कि इस मंदिरको उकेशा जातिके तेजाके पुत्र चाचाने वनवाया था। यह लेख यह भी कहता है कि गणराज साधुके पुत्रोंने इस मंदिरका जीर्णोद्धार किया और नवीन प्रतिमाएं स्थापित की। इस कामको उनके पिताने वि०सं० १४८५ (सन् १४२८)में मोकलनी राणाकी आज्ञासे शुरु किया था। यह लेख यह भी कहता है कि धर्मात्मा कुमारपालने यह ऊंची इमारत कीर्तिस्तम्भ नामकी वनवाई । मंदिरकी दक्षिण ओर यह कैलाशकी शोभाको छिपाता है। . . स० नोट-जो मूर्तियां इस कीर्तिस्तम्भपर बनी हैं वे सव दि. जैन हैं । यदि कुमारपालने बनाया हो तो यह मानना पड़ेगा कि कुमारपाल या तो दिगम्बर जैन होगा या दि० जैन धर्मका प्रेमी होगा।
पृष्ट ४४ में १७ नं.के चित्र में इस स्तम्भका फोटो है। यह फोटो २ वालिस्तका है । नीचेसे आधबालिस्त जाकर खड़े आसन दि० जैन मूर्ति है दोनों तरफ दो इन्द्र हैं । इसके ऊपर ३ वैठे आसन, मूर्ति हैं। उसके ऊपर एक मंदिरके मध्यमें तीन खडे आसन जैन मूर्तियें उनके ऊपर और वगलमें ७ लाइन पद्मासन मूर्तियोंकी हैं वे
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प्राचीन जैन स्मारक ।
सात लाइन की मूर्तियें क्रमसे २४ - २४-२१-१८-१२-१२-१२: हैं। ऊपर दो शिखर हैं । १॥ वालिस्त ऊपर शिखरकी ऊपरी - भागके नीचे आठ बैठे आसन मूर्तियें हैं, ये सब मूर्तियें दि० जैन हैं ।
हमने इस चित्तौड़गढ़ की यात्रा ता० २९ अप्रैल १९२३ को डाकटर पदमसिंह जैनीके साथ की थी उससे जो विशेष हाल विदित हुआ वह इस प्रकार है
ऊपर जाकर सिंगारचवरीके वहां व आसपास जो जैन मंदिर हैं उनका हाल यह है :- १ जैन मंदिर जो पहले ही दिखता है इसके द्वारपर बीचमें पुद्मासन पार्श्वनाथजीकी मूर्ति है व यक्षादि हैं, भीतर वेदी में प्रतिमा नहीं है- शिखर पाषाणका बहुत सुन्दर : है । इस मंदिर के स्तम्भमें यह लेख है - " सं० १९०५ वर्षे राणा श्री लाषा पुत्र राणा श्री मोकल नंदण राणा श्री कुंभकर्णकोष व्यापारिणा साहकोला पुत्ररत्न भंडारी श्री वेलाकेन भार्या वील्हण - देवि जयमान भार्या रातनादे पुत्र भं० मूंधण्ड भं० धनराज भं० कुरपालादि पुत्रयुतेन श्री अष्टापदाह श्री श्री श्री शांतिनायक मूलनायक प्रासादकारितं श्री जिनसागर सूरि प्रतिष्ठितं श्री खरतर गच्छे... रं राजंतु श्री जिनराजसुरि श्री जिनवर्द्धनसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनसागरसूरि पट्टांभोजाकनंदात् श्री जिनसुंदरसूरि प्रसा-दतः शुभं भवतु । उदयशील गणिनं नमीति । यह लेख श्वेताम्बरी है । इसके थोड़ा पीछे जाकर एक जैन मंदिर है जो पुराना है व पड़ा है तथा दिगम्बरी मालूम होता है। भीतर वेदीके कमरे के द्वारपर पद्मासन मूर्ति पार्श्वनाथ व यक्षादि, भीतर प्रतिमा नहीं । शिषर बहुत सुन्दर है । इसकी फेरीमें पीछे तीन मूर्ति पद्मासन प्राति
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राजपूताना ।
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हार्य सहित अंकित हैं । इसकी एक बगलमें एक खड़गासन दि० जैन मूर्ति हैं, दूसरी बगलमें १ खडगासन १ हाथ ऊंची है। ऊपर पद्मासन हैं ।
आगे जाकर सप्तवीसदेवरीके नामका बड़ा जैन मंदिर है, द्वार पर पद्मासन छोटी मूर्ति है, छतपर कमल आबूजीके मंदिरके अनुसार हैं। भीतर दूसरे द्वारपर पद्मासन मूर्ति फिर वेदीके द्वारपर पद्मासन वेदी खाली है । छतपर कमेल व देवी आदि हैं । यह तीन चौकेका मंदिर है। इसके १ बगलमें दूसरा जैन मंदिर है, द्वार पर पद्मासन भीतर द्वार पर पद्मासन पास में खड़गासन मूर्ति है । दूसरी बगल में जैन मंदिर द्वारपर पद्मासन । पीछे १ मंदिर शिखर में खड़गासन व पद्मासन व द्वारपर पद्मासन | यह मंदिर श्वेताम्बरी मालूम होता है । पासमें दूसरा खे० जैन मंदिर द्वारपर पद्मासन, वेदीके I द्वारपर पद्मासन । आगे चलकर श्रीकृष्ण राधिकाका मीराबाईका मंदिर है, जैन मंदिर के पाषाण खंड लगे हैं उनमें पद्मासन जैन मूर्ति है ।
आगे जाकर जो जयस्तम्भ राजा कुंभका है उसके भीतर ऊपर जानेको मार्ग है जिसमें ११३ सीढ़ी हैं भीतर सब तरफ अन्य देवोंकी मूर्तियां कोरी हुई हैं । ९ खन हैं, दो शिलालेख हैं। आगे जाकर जो प्रसिद्ध जैन कीर्तिस्तंभ या मानस्तंभ आता है यह सात खनका है, चारों तरफ खड़गासन और पद्मासन दि० जैन मूर्तियां अंकित हैं । भीतर चढ़नेको ६७ सीढ़ी हैं। ऊपर छत तोरण द्वार सहित है । हरएक तोरणमें पांच पांच खड़गासन दोनों तरफ ऐसे चार तरफ चार तोरण हैं। छतके कोनेमें चार मूर्ति हैं। इस मानस्तंभमें पाषाणकी कारीगरी देखने योग्य है । 'यह दि० जैनोंका मुख्य
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प्राचीन जैन स्मारक ।
स्मारक है । इसके नीचे एक तरफ जैन मंदिर है, द्वार व आलोंपर पद्मासन मूर्तियें हैं ।
इस प्रसिद्ध कीर्तिस्तम्भमें Imperial Gasetteer of India. ( Rajputana ) 1908 में तो यह लिखा है कि इसको एक बघेरवाल महाजन जीजाने बनवाया जब कि Archeological survey of India 1905-6 पृष्ठ ४९ में चित्रकूट दुर्ग महावीरप्रसाद प्रशस्तिके आधारसे यह लिखा है कि राजा कुमारपालने इस कीर्तिस्तंभको बनवाया । दोनों में कौनसी बात ठीक है इसकी खोज लगानी चाहिये । परंतु A. P. RK. of W. India 1906 में इस जैन कीर्तिस्तंभ सम्बन्धी पांच पाषाणोंके लेखका भाव दिया है नं० २२०५ से २३०९ तकके कि इनमें जैन सिद्धांतों की प्रशंसा है व एक प्रगटपने कहता है, कि इस स्तम्भको घेरवाल जातिके किसी जीजा या जीजकने वनवाया । हमारी रायमें यह बात ठीक मालूम होती है।
ऊपरके कथनानुसार श्री महावीर स्वामीके मंदिर पर लिखी हुई प्रशस्तिकी नकल संस्कृतमें पूना भंडारकर ओरियन्टल इंस्टिट्यूटमें देखनेको मिली नं ० ११३२ । १८९१-९९ है | इसमें १०२ श्लोक हैं । मंगलाचरण हैजिनवदनसरोजे या विलासं विशुद्ध, इयनयमयपक्षाराजहंसीव धत्ते । कुमतसुमतनीरक्षीरयोर्दू व्यक्तिकर्त्री, जनयतु जनतानां भारतीं भारती सा ॥ १ ॥ अंतमें है “ इति श्री चित्रकूटदुर्गमहाबीरप्रासाद प्रशस्तिः चचारुचक्रचूड़ामणि महोपाध्याय श्री चारित्ररत्नगणिभिर्विरचिताः । संवत १५०८ प्रजापति संवत्सरे देवगिरौ महाराजधान्यां इदं प्रशस्ति
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राजपूताना।
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लेखि | यह प्रशस्ति मनोहर काव्योंमें है नकल छपने योग्य है। इसका भाव यह है कि राजा मौकल सुपुत्र कुम्भकरणके राज्यमें गुणराज सेठ थे उनके बड़ोंमें धनपाल सेठ थे जिन्होंने आशापल्ली में मंदिर बनवाया था। गुणराजने सं० १४५७में संघ सहित यात्रा गिरनार व सेजयकी की व १४६८में दुर्भिक्ष पड़ा था तब खूब दान किया । १४७०में सोपारक तीर्थकी यात्रा की। इसके ५ पुत्र थे उनमें तीसरा निलय था । इसको राजा मोकल बहुत मानता था । इसने इस चित्रकूट दुर्गपर जिन मंदिर बनवानेका प्रवन्ध किया। तब वहां चंद्रगुच्छीय देवेन्द्रसरिके शिप्य सोमप्रभसूरि उनके सोमतिलक उनके देवसुन्दर गुरु उनके सोमसुंदर गुरु थे उनसे उपदेश पाकर गुणराजने मंदिर राजा मोकलकी आज्ञासे बनवाया । गुणराज केशवंश तिलक था। सोमसुंदरके शिप्य चारित्ररत्नगणिने इस प्रशस्तिको १४९५ संवतमें रचा। प्रतिमा स्थापनका श्लोक है "तत्र श्री जिनशासनोन्नतिकररेत्युदभुतैरुत्सर्वनद्यां श्रीवरसोमसुंदरगुरु प्रष्टैःप्रतिष्ठापितां । वर्षे श्रीगुणराजसाधुतनयाः पंचाष्ठरत्नप्रभो न्यास्यं तत्प्रतिमामिमामनुपमा श्रीवर्द्धमानप्रभोः ॥१०॥
(१) नगरी-चित्तौड़से उत्तर करीव ७ मील वेराच नदीके दक्षिण तटपर । यहां वेदलाके रविका राज्य है, वहुत ही पुरानी जगह है। यह किसी समयमें बहुत प्रसिद्ध नगर था-प्राचीन नाम माध्यमिक है। यहां सन् ई०से पहलेके सिक्के व खंडित लेख मिले हैं। कुछ लेख विकटोरिया हॉल लाइब्रेरी उदयपुरमें हैं। यहां दो बौद्ध स्तूप हैं व एक पत्थरकी बौहोंकी इमारत है जिसको हाथीका पारा कहते हैं।
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प्राचीन जैन स्मारक।
शताब्दीमें गुजरातसे लाई गई थी। भील लोग इसको कालाजी कहते हैं ( Indian Intiquary Vol. I ) यह मूर्ति खास दिगम्बरी है। आसपास और वेदियोंमें भी चारों ओर दि० जैन मुर्तियें हैं। जीर्णोद्धारके लेखोंमें भी दि. महाजनोंका वर्णन है। ।
(१०) उदयपुर शहर-यहां कुल १५९७६ की वस्तीमें ४५२० जनी हैं।
(११) नागदा-यहांसे उत्तर १४ मील एकलिंगजीके पास एक जैन मंदिर है जिसको अदभुतजीका मंदिर कहते हैं। यह इसलिये प्रसिद्ध है कि यहां सबसे बड़ी श्री शांतिनाथजीकी मूर्ति ६|| फुटसे ४ फुट है। सं० १४९४ है। इस नामका प्राचीन नाम नागहरिद है।
(H. Cousin A. S. of Western India 1905 ) में है कि इस शांतिनाथकी मूर्तिको राजा कुम्भकरणके राज्यमें सारंग महाजनने प्रतिठा कराई थी। भीतके सहारे भृमिपर तीन बड़ी मूर्तियां श्री कुंथनाथ, अभिनन्दननाथ व अन्य १ है। इस मंदिरके पास दूसरा मंदिर श्री पार्श्वनाथ भगवानका है इसमें मूल मंदिर, गर्भमंडप, सभामंडम, फिर दूसरा बड़ा मंडप, सीढ़ियां व चौथा मंडप है। मंडपके पाप्त कई छोटी मंदिरकी गुमटियां हैं जिनमें जो दाहनी तरफ हैं, उनको राणा मोकलके राज्यमें सं० १४८६में एक पोड़वाड़ महाननने बनवाया था। इस पार्श्वनाथ मंदिरके उत्तरमें दूसरा एक प्राचीन ध्वंश मंदिर राजा कुमारपालके समयका है। एक लिंगकी पहाड़ीके नीचे एक मंदिर जनियोंका पद्मावतीके नामसे है, भीतर तीन छोटे मंदिर हैं, दाहनी तरफ
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राजपूताना ।
[ १४५.
चौमुखी मूर्ति है, शेप खाली हैं। लेख सं. १३५६ और १३९१ के. हैं। यहां पार्श्वनाथकी मूर्ति होनी चाहिये । यह दिगम्बर जैनोंका है। मंडपमें एक मुर्ति श्वे० रक्खी है जो कहीं अन्यत्र से लाई गई है । इसपर राजा कुंभकरण व खरतरगच्छका लेख है। एक वेदीपर एक पापाण है जिसके मध्यमें एक ध्यानाकार जिन मूर्ति है, ऊपर व अगलबगल शेप तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं ।
A. P. R. of W. India 1906 में यहां के कुछ लेखों की नकल दी है ।
नं. २२४३में - ३ लेख हैं (१) ओं संवत् १३९१ वर्षे चैत्र चढ़ी ४ रवौ देवश्री पार्श्वनाथाय श्री मूलसंघ आचार्य शुभचंद्र चोद्यागान्वये गुणधरपुत्र कोल्हा केल्हा प्रभृति आलाकं जीर्णोद्धारकं कारायितम् ।
(२) सं १३५६ वर्ष आषाढ़ वदी १३ गोरईसा तेड़ालसुत संघपति वासदेवसंघरायेण नागदहती श्रीपार्श्वनाथ |
(३) १ - नागहरादपुरे राणा श्री कुंभकरण राज्ये । २ - आदिनाथ विम्बस्य परिकरः कारितः
३ - प्रतिष्टितः श्री खरतरगच्छेय श्रीमति वर्द्धनसूरि४ - भिः उत्कीर्णवम् सूत्रधार धरणाकेण श्रीः
न. २२४२ में--सं. १४८६ वर्षे श्रावण सुदी ९ शनौ राणा श्री मोकराज्ये श्री पार्श्वनाथ मंदिरमें पोड़वाड़ जैन बनियेने देवकुलिका बनवाई |
(११) पुर - उदयपुरसे उत्तर पूर्व ७२ मील, जिला मिलबाड़ा | भिलवाड़ा स्टेशनसे पश्चिम ७ मील । यह विक्रमादित्यसे
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प्राचीन जैन स्मारक। पहलेका वसा हुआ था । यह कहा जाता है कि पोरवाल महाजनोंका नाम इसी स्थानसे प्रसिद्ध हुआ है।
. (१२) दिलवाड़ा-दिलवाड़ा प्टेटमें उदयपुर शहरसे उत्तर १४ मील | इस नगरको मेवाड़के प्राचीन राजाओंमेंसे एक भोगादित्यके पुत्र देवादित्यने बसाया था। यहां तीन जैन मंदिर १६ वीं शताव्दीके हैं जिनको "जैनकी वस्सी" कहते हैं। पहला मंदिर एक बहुत बढ़िया इमारत है यह श्री पार्श्वनाथनीका है । मध्यमें , चड़ा मंडप है, एक एक मंडप हर दो तरफ है और एक वेदीका कमरा है जिसमें कुछ दूसरे पुराने मकानोंके पापण लगे हैं और कई बहुत प्राचीन मूर्तियें हैं । उसी हातेमें एक छोटा मंदिर है जिसमें १२६ मूर्तियां हैं जो कुछ वर्ष हुए निकटमें खुदाईसे मिली थीं। दूसग मंदिर श्री ऋषभदेवनीका है जिसमें एक बड़ा मंडप है । इसमें प्राचीन भाग उत्तरमें वेदीका कमरा है जिसकी खुदाई बहुत सुन्दर है। तीसरा मंदिर भी श्री ऋपभदेवका छोटा है।
(१३) मांडलगढ़-जि० उदयपुर पहाड़ीपर एक मंदिर श्री ऋपभदेवनीका है । वालेश्वर मंदिरके हारपर ब हारके पास दो खंभोंकी चौखटपर १० जिन मूर्ति दैठे आसन हैं। मंडपमें दक्षिण तरफ एक जैन मूर्ति चौखटपर खुदी है।
(१४) करेड़-उदयपुरसे पूर्न ४१ मील । यह उदयपुर लाइ- . नमें पला स्टेशन है । ग्रामके बाहर एक बड़ा संगमरवान मंदिर श्री पार्श्वनाथ स्वामीका है. इसके चारों तरफ बड़ी जीयाल है। मूर्ति श्रीपार्श्व ० का सं० १६५६ है, यहां सुदो पौषमें मेला होता है। - म अनेकसी मंदिग्के - एक मजद बनव दी।
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राजपूताना।
[ १४७ (१५) कैलवाडा-नि० कुम्भलगढ़ । किलेके नीचे २ जैन मंदिर हैं, उनमें १ बड़ा है जिसमें २४ देहरी हैं जो कुम्भलगढके किलेके समयमें बनी हैं।
(१६) नादलाई-एक पहाड़ी किला जिसको जयकाल कहते हैं । इसको जैन लोग सेव॒जय पर्वतके समान पवित्र मानते हैं । यहां सोनिगरोंके पुराने किलेके शेषांश हैं, यहां १६ मंदिर हैं जिसमें बहुतसे जैनोंके हैं । किलेके भीतर एक श्री आदिनाथनीका जैन मंदिर है, इसमें लेख है-सं० १६८८ वैशाख सुदी ( शनी महारान जगतसिंहराज्ये विजयसिंह सूरितपगच्छ-इसमें कथन है कि नदलाईके जैनोंने उस मंदिरका जीर्णोद्धार किया जिसको मूलमें अशोकके पोते राजा सम्प्रतिने बनवाया था। ग्रामके बाहर पर्वतके नीचे बहुतसे जैन मंदिर हैं जिनमें अंतिम मंदिर श्री सुपार्श्वनाथका है। इसके सभामंडपमें श्री मुनिसुव्रतकी मूर्ति है जिसमें लेख है कि नदुलाईके पोड़वाड़ नाथाकने वि० सं० १७२१में जेठ सुदी ३को अभयराजराज्ये विजयसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराई। ग्रामके दक्षिण पूर्व दूसरी पहाड़ी पर श्री नेमिनाथजीका जैन मंदिर है । स्तंभोंपर दो लेख हैं इसमें प्राचीन लेख सं० १२९५ का आसौज वदी १; उस समय नदुलदगिक (नदलई) में रायपालदेव राज्य करते थे तब गोहिलवंशीय उद्धारणके पुत्र राजदेवने जो रायपालदेवके आधीन था-उसकरका वीसवां भाग नदुलईके मंदिरकी पूजाके लिये दिया, जो उन लदे हुए बैलोंसे बसूल होता था जो नंदलाई होकर जाते थे । दूमरा लेख सं० १४४३ कार्तिक
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मंदनेश्वरका It showd temple is Jain मंदिर सन् १०८० में अपने पिताकी स्मृतिमें बनवाया विजयराज सन् ११०० में जीवित था ऐसा लेख कहता है।
(२) कालिंजर-चांसवाड़ासे दक्षिण पश्चिम १७ मील। यहां . सुन्दर जैन मंदिरके ध्वंश हैं जिनमें बहुतसे शिपर है व कई कमरे हैं जिनमें जैन मूर्तियां हैं। इसमें खुदाई बढ़िया है। यहां तीन . शिलालेख हैं जो पढ़े नहीं गए। यह जैन व्यापारियोंका मुख्य व्यापारका केन्द्र था। मराम लुटेरोंने इसे नष्ट किया व व्यापारियोंको भगा दिया।
(See Heber Journey uppr provinces of India Vol. II 1828.)
(३) परतावगढ़ राज्य । चौहद्दी-उत्तर पश्चिममें उदयपुरपश्चिम, दक्षिण-बांसवाड़ा, दक्षिण रतलाम, पूर्व जावरा, मंदसोर, नीमच। यहां ८८६ वर्गमील स्थान है।
वीरपुर-सुहागपुरके पास । यहां एक जैन मंदिर है जो . २००० वर्षका पुराना कहा जाता है।
प्राचीन मंदिर परतापगढ़से दक्षिण २ मील वीरडियापर · तथा नीनारमें है। जांच नहीं हुई। परतावगढ़से ७॥ मील पश्चिम देवलिया या देवगढ़में २ जैन मंदिर हैं।
परतावगढ़ शहरमें ११ जैन मंदिर हैं व २७ सैकड़ा जैनी । हैं। कुल राज्यमें ९ सैकड़ा जैनी हैं जिनमें १६ सैकड़ा दिगम्बरी ३७ सैंकड़ा क्षे० मंदिर मागी व ७ सैकड़ा हूंढिया है।
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राजपूतांना ।
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(४) जोधपुर राज्य ( पश्चिम राजपूताना राज्य रेजिडेन्सी । )
इस रेजिडेन्सीकी चौहद्दी - उत्तरमें बीकानेर, चहाबलपुर पश्चिम में सिरोही । दक्षिण में गुजरात । पूर्वमें मेवाड़, अजमेर, मरवाड़ा व जैपुर | यहां ७ शदी जैनी हैं। इसमें जोधपुर, जैसलमेर व सिरोही राज्य शामिल है जो पश्चिम व दक्षिण पश्चिममें है ।
जोधपुर राज्य - यह राजपूतानामें सबसे बड़ा राज्य है। यहां . ३४९६३ वर्गमील स्थान है । चौहद्दी - उत्तर में बीकानेर, उत्तर पश्चिम में जैसलमेर, पश्चिममें सिंघ, दक्षिणपश्चिम- कच्छकी खाड़ी, दक्षिण में पालनपुर व सिरोही, दक्षिणपूर्व में उदयपुर, उत्तरपूर्वमें जयपुर ।
इतिहास - यहां के राजा राठौरवंशी हैं और अपनी उत्पत्ति श्री रामचंदजीसे बताते हैं। राठौर वंशका मूल नाम राष्ट्रकूटवंश है । इस वंशका नाम अशोक के लेखोंमें आया है कि ये लोग दक्षि- ' णके शासक थे । उनका अतिप्रसिद्ध पहला राजा अभिमन्यु ५ वीं या छठी शताव्दीमें हुआ है । राष्ट्रकूट वंशका १९वां राजा जब दक्षिणमें राज्य करता था तब उसको चालुक्योंने भगा दिया । उसने कन्नौड़ में शरण ली, जहां इस वंशकी शाखा नौमी शताब्दीके अनुमान बस गई- उनके सात राजा हुए, सातवें राजा जयचंदको मुहम्मद गोरीने सन् १९९४ में हरा दिया । वह गंगामें डूब गया। इसका पोता श्याहजी सन् १२१२ में राजपूतानामें आकर वसा उसीसे यह राठौरवंशी जोधपुरके राजा हैं ।
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जोधपुर गजेटियर सन् १९०९ से विशेष इतिहास यह
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प्राचीन जैन स्मारक।
मालूम हुआ कि दक्षिणमें सन् ९७३के पहले १९ राजा हो चुके थे । आठवीं शताब्दीके मध्यमें १६वें राजा दन्तीदुर्गाने चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा द्वि०को परास्त किया। उसको हटाकर उसके चाचा कृष्ण प्रथमने राज्य किया जिसके राज्यमें एलोराका कैलाश मंदिर बनाया गया था। कृष्णके पीछे तीसरा राजा गोविन्दराज तृ० हुआ । इसने लाड़ देश ( मध्य और दक्षिण गुजरात ) को जीता
और अपने भाईको सुपुर्द कर दिया । मालवा भी उसे दिया और आप पल्लव और कांची राज्यको जीतने गया। गोविन्दराजके पीछे . अयोश्चर्प प्रथमने मान्यखेड़ (जि० हैदरावाद) में ६२ वर्ष राज्य किया । यह दिगंबर जैनधर्मका अनुयायी था He patronised Digalpber sect of Jaios and was follower of that creed. सन् ९७३में ध्रुवराष्ट्र कन्नौजमें आया। वहां गाहड़वाल या गहरवार नामका नया वंश स्थापित किया । इस वंशके सात राजा हुए-(१) यशोविग्रह, (२) :महीचंद्र, (३) चंद्रदेव, (४) मदनपाल, (५) गोविन्दचंद्र, (६) विजयचंद्र, (७) जयचंद्र (पृथ्वीराजके समयमें)। ___ जोधपुरके महाजन-नौ सैकड़ा महाजन हैं जिनमें पांचमें चार भाग जैनी हैं। महाजनोंमें ओसवाल, पोरवाल, अग्रवाल, सरावगी (अर्थात् खंडेलवाल) तथा महेश्वरी हैं। उनमें सबसे अधिक ओसवाल हैं जिनकी संख्या १०७९२६ है इनमें ९८ सैकड़ा जैनी हैं।
__ ओसवाल जैन- ये ओसवाल लोग भिन्न २ जातिके राजपूतोंकी संतान हैं जो दूसरी शताब्दीमें जैन धर्मी हुए थे । उनका नाम ओसवाल इसलिये प्रसिद्ध है कि वे ओसा या ओसरांज नग
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राजपूताना।
[१५३ रके वासी थे । इस ओसा नगरके ध्वंश अभीतक जोधपुरसे उत्तर ३९ मीलके अनुमान पाए जाते हैं। (जोधपुर गजटियर ४० ८६) उनके मुख्य विभाग हैं-मोहनोत, भंडारी, सिंधी, लोढ़ा (इसके भी चार विभाग हैं जिनमेंसे एकको बादशाह अकवरके खजांची टोडरमलके नामसे पुकारा जाता है) और मेहता (जिनमेंसे भंडसाली हैं
जो मूलमें भारती राजपूत हैं और ओसवालोंके चौधरी कहलाते हैं)। - यहां महेश्वरी २०२८८ हैं जिनकी उत्पत्ति चौहान, परिहार और सोलंकी राजपूतोंसे है।
. पोड़वाल-पाटन (गुजरात)के राजपूत हैं जहां उन्होंने ७०० वर्ष हुए जैनधर्म धारण किया था। कोईका मत है कि इनकी उत्पत्ति पुर नगरसे है जो उदयपुरके भिलवाड़ाके पास एक प्राचीन नगर है।
सरावगी-(८४ भागवाले) इनकी संख्या यहां १३१९५ है, ये ही खंडेलवाल हैं।
अग्रवाल-कुल १०३३ हैं उनकी उत्पत्ति राजा अग्रसे है जिसकी राज्यधानी अग्रोहा (पंजाब)में थी।
कुल जेनी १३७३९३ हैं जिनमें ६० सैकड़ा श्वेताम्बरी २२ सैकड़ा ढूंढ़िया व १८ सैकड़ा दिगम्बरी हैं जो कि प्राचीन हैं (Who are ancient ) ( सफा ९१ जोधपुर गजेटियर ) - पुरातत्त्व-यह जोधपुर पुरातत्त्वमें बहुत बढ़िया है । वहुत ही प्रसिद्ध स्मारक वाली, भिनमाल, डीडवाना, जालोर, मन्दोर नादोल, नागौर, पाली, राणापुर और सादरीमें हैं ।
मुख्य स्थान । (१) वाली-जि० हुकूमत-फालना स्टेशनसे दक्षिणपूर्व ५
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मील । यहांसे १० मील दक्षिण वीजापुर ग्रामके बाहर हथुन्डी या हस्तिकुंडी नामके एक प्राचीन नगरके अवशेष हैं, यह राठौर राजपूतोंकी सबसे पुरानी. जगह थी । एक शिलालेख सन् ९९७का है जिसमें १० वीं शताब्दीके ५ राजाओंके शासनका वर्णन है। वे राजा हैंहरिवर्मन, विदग्ध (९१६), मन्मथ (९३९) धवल और बालप्रसाद । दांतीवाड़ा, दयालना और खिनवालपर जैन मंदिर हैं।
(२) भिनमाल-जि. जसवन्तपुरा, इसको श्रीमाल या भिल्लमाल भी कहते हैं। यह आबूरोड स्टेशनसे उत्तर पश्चिम ५० मील व जोधपुरसे दक्षिण पश्चिम १०५ मील है, यह छठीसे ९ मी शताब्दीके मध्य में गूजरोंको प्राचीन राज्यधानी थी। यहां एक सिंहासनपर एक राजाकी पाषाणकी मूर्ति है। पुराने मंदिर हैं। एक संस्कृत लेख है जिसमें परमार और चौहान राजाओंके नाम हैं। यहांसे दक्षिण पूर्व १४ मील सुन्दर पहाड़ी है इस पर चामुन्डदेवीका पुराना मंदिर है । यहां पुराना लेख है जिसमें सोनिगरा (चौहान) राज्यके १९ राजाओंका व घटनाओंका वर्णन है। A. S. R. W. I. of 1908 से विदित हुआ कि यह श्रीमाल जैनियोंका प्राचीन स्थान है। ऐसा श्रीमाल महात्म्यमें है। यहां जाकब तालावके तटपर उत्तरमें गननीखांकी कब है। इसकी पुरानी इमारतके ध्वंशोंमें एक पड़े हुए स्तम्भपर एक लेख अंकित है जिसमें लेख है वि० सं० १३३३ राज्य चाचिगदेव पारापद गच्छके पूर्ण चन्द्रसूरिके समय श्री महावीरजीकी पूजाको आश्विन वदी १४ को १३ दुम्भा व ८ विसोपाक दिये। एक पुरानी मिहरावमें एक जैन मूर्ति कित है। जाकब तलावकी
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प्राचीन जैन स्मारक |
पश्चिम ८५ मील | सातलमेर ग्राम के बाहर दो मील तक वंश स्थान है। यहां एक बड़ा जैन मंदिर है और ठाकुरके बंशके मृत प्राप्तोंके स्मारक हैं ।
(७) रानापुर - (रेंनपुर ) जि० देसूरी - फालना प्टेशनसे पूर्व १४ नील व जोधपुरने दक्षिण पूर्व ८८ मील । यहां प्रसिद्ध जैन मंदिर है । जो मेवाडके राणा कुम्भके समय १९ शताब्दी बना था । यह बहुत पूर्ण है । मंदिरका चबूतरा २००४२२९ फुट है । मध्यमें बड़ा मंदिर है जिसमें 2 वेदी हैं । प्रत्येक्रम श्री आदिनाथ विराजमान हैं । दूसरे खनपर चार बेदी हैं। आंगनके चार कोनेपर १ छोटे मंदिर हैं। सब तरफ २० शिपर हैं जिसको ४२० स्तम्भ आश्रय दिये हुए हैं । संगमर्मर का खुदा हुआ मानस्तंभ द्वारपर है, उसमें लेख हैं जिनमें मेवाड़ के राजाओंके नाम बापा रावलसे राणा कुंभा तक हैं ।
( See J. Fergusson history of India 1338 P. 240-2).
इस मंदिर के हरएक शिपरके समुदायनें जो मव्य शिपर है वह तीन खनका ऊँचा है। जो खास द्वारके सामने है वह ३६ फुट व्यासका है उसे १६ खम्भे यांभे हुए हैं । १९०८ की पश्चिम भारतकी रिपोर्टमं है कि इस बड़े मंदिरको - जो चौमुखा मंदिर श्री आदिनाथजीका है - पोड़वाड़ महाजन धरणकने सन् १४४० में वनवाया था । दो और जैन मंदिर हैं उनमें एक श्री पार्श्वनाथजीका १४वीं शताब्दीका है ।
(८) सादरी नगर - जि. देसूरी | प्राचीन नगर जोधपुरसे दक्षिण पूर्व ८० नील | यहां बहुतसे जैन मंदिर हैं ।
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राजपूताना।
[१५७ (९) कापरदा-जि. हकूमत । यहां एक जैन मंदिर है जो इतना ऊंचा है कि ५ मीलसे दिखता है । यह १६ वीं शताब्दीके अनुमानका है। यह जोधपुरसे दक्षिण पूर्व २२ मील है । विसालपुरसे ८ मील है।
(१०) पीपर नि. वेलारा-जोधपुरसे पूर्व ३२ मील व रेन स्टेशनसे दक्षिण पूर्व ७ मील । इस ग्रामको एक पल्लीवाल ब्राह्मण पीपाने बसाया था । यह कहावत है कि इसने सर्पको दूध पिलाया, उसने सुवर्णको पाषाण बना दिया, तब उसने सर्पको स्मृतिमें सम्पू नामकी झील बनवाई व अपने नामसे ग्राम वसाया ।
(११) वारलई-देसुरीसे उत्तर पश्चिम ४ मील। यहां सुन्दर दो जैन मंदिर हैं-एक श्री नेमिनाथजीका सन् १३८६का व दूसरा श्री आदिनाथजीका सन् १५४१ का।
(१२) दीदवाना नगर-मकराना प्टेशनसे उत्तर पश्चिम ३० मील व जोधपुर शहरसे १३० मील । यह २००० वर्ष पुराना है । प्राचीन नाम द्रुद्वाणक है। यहां खुदाई करने पर एक पाषाण मूर्ति मिली थी जिस पर सं० २५२ था। वर्तमान सतहसे नीचे २० फुट जाकर मट्टीके .वर्तन मिलते हैं। यहांसे दक्षिण पूर्व दौलतपुरामें एक ताम्रपत्र संवत् ९५३का पाया गया है जो कन्नौजके महाराज राजा भोजदेवका है (Epigraphica Indica Vol.v) यहां निमककी झील है ३॥ मील x १॥ मील, जिसमें २ लाख वार्षिक आमदनी है । (सन् १९०९)।
(१३) जसवन्तपुरा-आबूरोड प्टेशनसे उत्तर पश्चिम ३० मील । पर्वतके नीचे एक नगर है इसके पश्चिममें सुन्दर पहाड़ी है | इसपर पर्वतमें कटा हुआ एक चामुंडदेवीका मंदिर है इसमें
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प्राचीन जैन स्मारक ।
कई शिलालेख हैं जिनमें सबसे पुराना सन् १९६२ का है. इसमें सोनिगरा या चौहान वंशके १९ राजाओंके नाम व घटनाएं हैं । यह पहाड़ी ३२८२ फुट ऊंची है । यहीं रतनपुर ग्राम में श्री पार्श्वनाथजीका जैन मंदिर सन् १९७९ का है इसमें दो लेख सन् १९९१ और १२९१ सन्के हैं ।
(१४) घटियाला - जि० हुकुमत | जोधपुरसे उत्तर पश्चिम १८ मील | यह पुराना ग्राम है। यहां ध्वंश जैन मंदिर है जिसको माताजीकी साल कहते हैं। एक पाषाण पर प्राकृत भाषाका लेख है उससे विदित हैं कि मछोदर (मान्दोर) के परिहार या प्रतिहार वंश के राजा कुक्कुकने सन् ८६१ में बनवाया था। इस वंशके राजा कन्नौज या महोदय के प्रतिहार वंशी राजाओंके आधीन नाड़वाड़में राज्य करते थे ।
(१५) ओसियान या ओसिया या उकेसा - जोधपुरसे उत्तर ३० मील यह ओसवाल महाजनोंका मूल स्थान है । यहां एक जैन मंदिर है जिसमें एक विशाल मूर्ति श्री महावीर स्वामीकी है। यह मंदिर मूलमें सन् ७८३ के करीव परिहार राजा वत्सराजके समयनें बनाया गया था। इसके उत्तर पूर्व मानस्तंभ है जिसमें सन् ८९९ है । सन् १९०७ की पश्चिम भारतकी प्राग्रेस रिपोर्टसे विदित है कि यह तेवरीसे उत्तर ११ मील है | इसका पूर्वनाम नेलपुर पट्टन था । ऊपर कहे हुए प्राचीन मंदिर को लेकर यहां १२ नंदिर हैं । हेमाचायेके शिष्य रत्नप्रभाचार्यने यहां के राजा और प्रजा सबको जेनी बना लिया था ऐना ही ओसवाल लोग व हैं।
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राजपूताना।
[१५६ . श्रीजिनसेनकत हरिवंशपुराणमें प्रतिहारराजा वत्सराजका , कथन है (सन् ७८३-८४)। ' (१६) वारमेर-नि० मैलानी-जोधपुर शहरसे दक्षिण पश्चिम १३० मील | यहांसे करीव ४ मील उत्तर पश्चिम जूना वगरमेर नगरके ध्वंश हैं। २ मील दक्षिण जाकर तीन पुराने जैन मंदिर हैं। सबसे बड़े मंदिरनीके एक स्तंभपर एक लेख सन् १९९५ का है जो कहता है कि उस समय वाहड़मेरुमें महाराजकुल सामन्तसिंहदेव राज्य करते थे। एक दूमरा लेख संवत् १३५६का है, श्री आदिनाथ भगवानका नाम है। यह जूना वारमेर हतमासे दक्षिण पूर्व १२ मील है । ___ (१७) मेरत नगर-मेरतरोडप्टेशनके पास जोधपुरसे उत्तर पूर्व ७३ मील । इसको जोधाके चौथे पुत्र दूदाने १४८८ के करीव वसाया था। इसके उत्तर पूर्व फालोदी ग्राममें सुन्दर और ऊंचा जैन मंदिर श्री पार्श्वनाथका है । वार्षिक मेला होता है ।
(१८) पालीनगर-(माडा: पाली) जोधपुर रेलवेपर बांदी नदीके तटपर | जोधपुर नगरसे दक्षिण ४५ मील। यहां एक विशाल - जैन मंदिर है जिसको नौलखा कहते हैं । यह अपने बड़े आकार,
सुन्दर खुदाई काम व किलेके समान दृढ़ताके लिये प्रसिद्ध है। इसमें बहुतसा काम चारों तरफ बना है जिसमें भीतरसे ही जाया जासक्ता है, केवल बाहर एक ही द्वार है मे ३ फुट चौड़ा भी नहीं है । भीतर आंगनमें एक मसजिद भी है जो शायद इस लिये बनाई हो कि यहां नुसल्मान लोग ध्वंश न कर सकें। किसी समयमें पाली एक वडा नगर था . यहांके ब्राह्मणोंको पल्लीवाल कहते हैं। यहां ..
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प्राचीन जैन स्मारक।
द्वारमें दो तीन लेख हैं इसमें चाहमान राजा सामंतसिंहका नाम है । जोधपुरमें मुंशी देवीप्रसादके घरमें एक पाषाणका पहिया है उसमें एक बड़ा लेख है जिसमें हथुडीका नाम हस्तीकुंडी आता है । इसमें राष्ट्रकूट वंशजोंके नाम हैं, १० वीं शताब्दीमें यह राष्ट्रकूटोंकी राज्यधानी थी । हस्तिकुंडया गच्छके जैनाचार्योकी नामावली दी है । (J. B. A. S. Vol. LXII P. L. P. 309 ) इस लेखका पाषाण वीजापुर ( वलीगोदवाड़में ) ग्रामसे दक्षिण ३ मील एक जैन मंदिरके द्वारके पास लगा हुआ था। यह पुराने हस्तिकुंडके खंडहरोंमें पाया गया और वीनापुरकी जैनधर्मशालामें लाया गया। इसमें ६२ लाइन संस्कृतकी हैं । पहले ४१ श्लोककी प्रशस्ति सूर्याचार्यकृत है जो वि० सं० १०५३ (९९७ ई०) माघ सुदी १३ को रची गई थी। इसमें है कि धवलके राज्यमें हस्तिकुंडिकामें शांतिभट्ट या शांत्याचार्यने श्री ऋषभदेवकी प्रतिष्ठा की और उस मंदिरमें स्थापित की जिसको धवलगनाके वावा विदग्धने यहां बनवाया था । लाईन् से ६ में वंशावली दी है। लाइन २३से ३२ तक दूसरे लेखमें उसी मंदिरक , धवलके पिता
और बावाद्वारा भूमिदानका वर्णन है। इसमें वंशावली दी है-राजा हरिमनके पुत्र विदग्ध राष्ट्रकूटवंशी उनके पुत्र म्ट बलभद्र मुनिकी कृपासे सं०९७३में विदग्ध रानाने दान दिया।०९९६में मम्मटने उसीको बढ़ादिया। धवल मम्मटका पुत्र था। धवल राज्यका वर्णन पहले लेखमें लाइन १० से १२में है कि मं० १०५३में उसका सम्बन्ध राजा मुंजराज, दुर्लभराज, मूलराज और धरणी वराहसे था। यह मुंजराज मालवाका राना था, इसको बासमति मुंग भी
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कहते थे । मुंजराजने मेवाड़ या मेड़ापातापर हमला किया था तब मेवाड़ के राजाको छवलने मदद दी थी । इस छवलने महेन्द्रराजको भी मदद दी थी जब उसपर दुर्लभराजने हमला किया था जो. शायद हर्षके लेखके अलसार चाहमान विग्रहराजका भाई था । इसने धरणीवराहको भी मदद दी थी जब उसपर मूलराजने हमला किया था । यह चालुक्य मूलराज है जिसका सबसे अन्तका लेख वि० सं० १०३१का है ।
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माड़वाड़ी राठौड़ों में हथंडी बहुत प्रसिद्ध जगह है । यह राठौड़ हस्तिकुंडके राष्ट्रकूटोंके वंशज हो सक्ते हैं ।
(२४) सेवादी - वीजापुरसे उत्तर पूर्व ६ मील - यहां श्री महावीरस्वामीका जैन मंदिर है, कुछ मूर्तियां जैनाचार्योंकी हैं उनके आसनपर वि० सं० १२४५ संदेरक गच्छ है ।
मंदिरके द्वारपर कई लेख हैं - (१) वि० सं० ११६७ चाहमान राजा अश्वराज पुत्र कटुक - धर्मनाथ पूजार्थ । (२) वि० सं० ११७२ शांतिनाथ पूजार्थ कटुकराज द्वारा
< द्रम्माका दान |
(३) वि० सं० १२१३ - नडुलके दंडनायक बेजाद्वारा । (२९) घनेरवा - सेवादीसे उत्तर पूर्व ६ मील - पहाड़ी के नीचे श्री महावीरस्वामीका जैन मंदिर ११वीं शताब्दीका है । (२६) वरकाना - जि० देसूरी - यहां श्री पार्श्वनाथका जैन मंदिर १६वीं शताब्दीका है ।
(२७) संदेरवा - यह यशोभद्रसूरि द्वारा स्थापित संद्रक जैन गच्छका मूल स्थान है । यहां श्री महावीरस्वामीका जैन मंदिर है
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१६४ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
जिसके द्वारपर एक लेख है कि सं० १२२१ माघ वदी २ को केल्हणदेव राजाकी माता आणलदेवीने राजाकी सम्पत्ति से श्री महावीरस्वामीकी पूजाके लिये दान किया था। यह राष्ट्रकूट वंशी सहुलाकी पुत्री थी | सभामंडपके खंभे पर ४ लेख हैं - १ है सं० १२३६ कार्तिक वदी २ बुधे कल्हणदेवके राज्यमें थंथाके पुत्र रहाका और पल्हाने श्री पार्श्वनाथभीके लिये दान किया ।
(२८) कोरता - संदेरवासे दक्षिण पश्चिम १६ मील । यहां तीन जैन मंदिर हैं जो १४ वीं शताब्दीके हैं ।
(२९) जालोर - नगर जि० जालोर । जोधपुरसे दक्षिण ८० मील | यहां एक किला है उसमें तोपखाना तथा मसजिद है जो जैन और हिन्दू मंदिरोंके ध्वंशोंसे बनाई गई है। यहां बहुतसे लेख हैं व तीन जैन मंदिर श्री आदिनाथ, महावीर व पार्श्वनाथके हैं जो इनके लेखोंसे प्रगट है । वे लेख हैं
(१) सं० १२३९ चाहमान वंशी कीर्तिपालके पुत्र समरुमेंह के राज्य में आदिनाथ का मंदिर श्रीमाल बनिया यज्ञोवीरने बनवाया । (२) सं० १२२१ में श्री पार्श्वनाथ के मंदिरमें चालुक्य राजा कुमारपालने जवालीपुर ( जालोर) के कंचनगिरिके किलेपर श्री हेमरिकी आज्ञासे कुवेरविहार बनवाया । (३) सं० १२४२ चाहमान वंशी समरसिंहदेवकी आज्ञासे यशोवीर भंडारीने मंदिरका जीर्णोद्धार किया । (४) सं० १२९६ श्री पार्श्वनाथ मंदिरके तोरण और ध्वजाकी प्रतिष्ठा पूर्णदेवाचार्यने की । (५) एक लेख सं० १९७४ परमार राजा विशालके समयका है | किला ८०० गजसे ४०० गज है । यहां दो जैन मंदिर और हैं एक सं० १६८३
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राजपूताना।
[१६५ में जयमलने वनवाया, इसमें विशाल आकारकी एक कुन्थुनाथजीकी मूर्ति है इसको विजयदेवसूरिकी आज्ञासे सामीदारक ओसवालने सं० १६८४में प्रतिष्ठा कराई। दूसरे जैन मंदिरमें तीन विशाल मूर्तिये श्री महावीर, चंद्रप्रभु और कुंथुनाथजीकी हैं, इनपर लम्बा लेख है-प्रतिष्ठाकारक मुहनोत्र गोत्रकी वृहद शाषाके जयमल्ल ओसवाल सं० १६८१ राठोड़ महाराज गजसिंहके राज्यमें ।
(३०) केकिंद-मेरतासे दक्षिण पश्चिम १४ मील शिव मंदिरके पास एक जैन मंदिर श्री पार्श्वनाथका है । इसके खंभेपर लेख है-सं० १६६५ राठौड़वंशी मल्लदेवके परपोते उदयसिंह । इनके पोते सारसिंहके पुत्र गजसिंहके राज्यमें जोगा ओसवाल और उसके पोते नापीने सकुटुम्ब सं० १६५९में श्री उज्जयंत और सेत्रुञ्जयकी यात्रा की व सं० १६६४में अर्बुदगिरी ( आबू ), राणापुर ( सादोदीसे दक्षिण ६ मील ) नारदपुरी (नादोल जि० देसूरी ) व शिवपुरी ( सिरोही) की यात्रा की व मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा विजयदेवसूरिने कराई । मूल मंदिरके सम्बन्धमें एक छोटा लेख एक मूर्तिके आसनपर है सं० १२३० आषाढ़ सुदी ९ किष्किन्धा (केकिंद) में (सु)विधिकी मूर्ति स्थापित की।
(३१) चारलू-बागोदियासे उत्तर ४ मील यहां १३ वीं शताब्दीका एक श्री पार्श्वनाथका जैन मंदिर है।
(३२) ऊनोतरा-बारलूसे पश्चिम ४ मील। यहां भी १३ वीं शताब्दीका एक जैन मंदिर है। . (३३) सुरपुरा-वारलूसे उत्तर पूर्व ३ मील । यहां श्री नेमिनाथका जैन मंदिर है । लेख १२३९का है।
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१६८ ]
प्राचीन जैन सारक।
१६०६२ वर्गमील जगह है जिसमें एक बड़ा भारतीय रेतीला जंगल है। इसका राजा कृष्णवंशी यदुवंशी है, सालिवाहनका पोता भाटी जादों बहुत वीर था व प्रसिद्ध हुआ है। जैसवाल रावलने जैसलमेर सन् ११५६में बसाया था।
यहां विरसिलपुरका किला दूसरी शताब्दीका व तनातका किला (वीं शताव्दीका है।
(१) जैसलमेर नगर-वार्मेर स्टेशनसे ९० मील है। यहां २३२ जैनी हैं। पहाड़ीपर किला है, किलेके भीतर जैन मंदिर हैं, जो बहुत सुन्दर हैं व इनमें अच्छी खुदाई में, इनमें कई मंदिर १४०० वर्षके पुराने हैं। श्री पार्श्वनाथजीका मंदिर बहुत ही बढ़िया है जिसको जैसिंह चोलाशाहने सन १३३२में बनवाया था। यहां प्राचीन जैन शास्त्रोंके भंडार हैं जिनकी अच्छी तरह खोज नहीं की गई है।
(२) लोडरवा-जैसलमेरसे १० मील । यहां एक जैन मंदिर श्री पार्श्वनाथजीका १००० वर्ष के करीब प्राचीन है।
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(६) सिरोही राज्य। इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तर पश्चिम जोधपुर; दक्षिणमें पालनपुर, दांता, ईडर; पूर्वमें उदयपुर, आबू पहाड़ व चंद्रावतीका प्राचीन नगर । यहां १९६४ वर्गमील स्थान है। पिंडवाराके पास वसन्तगह नामका पुराना किला है इसमें राजा चर्मलाटका लेख सन् ६२५ का है । इस राज्यमें ११ सैकड़ा जेनी हैं कुल संख्या १७२२६ (१९०१ के अनुसार ) है।
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राजपूताना।
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(१) नांदिया-पिंडवारासे पश्चिम ५ मील। यहां एक बहुत सुरक्षित जैन मंदिर श्री महावीर स्वामीका ९०० वर्षका पुराना है । वाहरकी भीतमें लेख सन् १०७३का है।
(२) झारोली-ग्राम सिरोहीसे पूर्व १४ मील व पिंडवारासे २ मील । यहां श्री शांतिनाथका जैन मंदिर है जिसके स्तम्भ व मिहराव आबूके विमलशाहके मंदिरसे मुकाबला करते हैं । एक श्री रिपभदेवकी मूर्तिपर सन् ११७९का लेख है प्रतिष्ठाकारक देवचन्द्रसूरि हैं। इस मंदिरमें एक शिलालेख है जिसमें परमार राना धारावर्ष सं० १२५६ है। यह मूलमें श्री महावीर मंदिर था । धारावपकी राना श्रृंगार देवीने कुछ भूमि दान की थी। यह शृंगारदेवी नाडोलके चौहान राना केल्हणदेवकी पुत्री थी।
(1) मीरपुर-सिरोहीसे दक्षिण पश्चिम ९ मील । यहां गोदीनाथके नामसे एक जैन मंदिर १४वीं शताब्दीका है । इसके पास नीन नए मैन मंदिर हैं जिनमें कुछ मूर्तियां पुरानी हैं उनमें तीनपर मं० ११९९ व दोपर १२८९ है। ये दूसरे मंदिरसे लाई गई हैं।
(४) मुंगथल-खराड़ीसे दक्षिण पश्चिम ५ मील । यहां १५ वीं शताब्दीका जैन मंदिर है । जो श्री महावीर स्वामीका है, खंभोंपर लेख है। सबसे पुराना है सं० १२१६ वैसाख वदी ९ सोमे, यह कहता है कि वीसलने जासावाहुदेवीकी स्मृति में .एक स्तंभ वनवाया। दो और लेख हैं-१ सं१ १४२६ वैसाख सुदी ८ रचौ श्रीपाल पोड़वाड़ने कुछ जीर्णोद्धार किया। दूसरा कहता है कि नन्नाचार्यकी संतानमें कक्कसरिके पट्टमें सत्यदेवसूरिने मूर्ति
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१७० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
स्थापित की । आबूके मंदिरके लेख नं० २ में इस स्थानको मंदस्थल लिखा हैं ।
(५) पतनारायण - मुंगथलसे उत्तर पश्चिम ६ मील | यहां पतनारायणका गिरवार मंदिर है जिसमें द्वार पुराना है जो जैन मंदिर लाया गया है ।
(६) ओर - कीवरली प्टे० से ४ मील दक्षिण व खराड़ीसे उत्तर पूर्व ३ मील । इसका प्राचीन नाम ओद ग्राम है । यहां श्री पार्श्वनाथका जैन मंदिर है । लेख संवत् १२४२ है उसीमें नाम ओद ग्राम है व महावीर स्वामी मंदिर लिखा है। यहां विडलाजी मंदिरके द्वारपर जैन मूर्ति है । यह द्वार जैन मंदिरका है जो चंद्रावतीसे लाया गया ।
(७) नीतोरा - राहड़े प्टे० से उत्तर पश्चिम ४ मील है । यहां श्री पार्श्वनाथका जैन मंदिर है । एक प्रतिमा संगमर्मरकी हैं जिसके आसनपर चक्रका चिह्न है । इस प्रतिमाको बाबाजी कहते हैं। यहां क्षेत्रपालकी मूर्तिके ऊपर एक बैठे आसन मूर्ति है इसपर लेख है सं० १४९१ वैसाख सुदी २ गुरु दिने यक्ष बाबा मूर्ति ।
(८) कोजरा - नीतोरासे उत्तरपूर्व १० मील । यहां १२वीं शताब्दीका संभवनाथजीका जैन मंदिर है । खंभेपर लेख है । सं० १२२४ श्रावण वदी ४ सोमे श्री पार्श्वनाथदेव चैत राणाराव । यह मूलमें श्री पार्श्वनाथ मंदिर था ।
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(९) वामनवारजी - कोजरासे १० मील व पिंडवारा प्टे० से मील | यहां मुख्य मंदिर श्री महावीरजीका १४वीं या १९वीं शताब्दीका है जिसको वामनवारजी कहते हैं। एक छोटे मंदिरपर
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राजपूताना।
[१७१ लेख है सं० १९१९ प्राग्वाट (पोडवाड ) वनिया वीरवातकका ( वीरवाड़ा यहांसे १ मील)।
(१०) बलदा-वामनवारजीसे ६ मील | यहां १४वीं वा १५वीं शताब्दीका जैन मंदिर है। मुख्य वेदीमें श्री महावीरस्वामीकी मूर्ति है मं० १६९७ है। मंदिर मूर्तिसे प्राचीन है। द्वारके आलेपर एक लेख है सं० १४८३ जेठ सुदी ७ गुणभद्रने अपने बुजुर्ग बलदेवग्मे बनाए हुए मंदिरका जीर्णोद्धार किया ।
(११) कलार-सिरोहीसे उत्तरपूर्व ६ मील । यहां आदिनाथका मंदिर १५वीं शताब्दीका है १४ स्वप्न बने हैं। महाराणी सोई हुई हैं। लिखा है-महाराणीउसालादेवी चतुर्दशस्वप्नानि पश्यति।'
(१२) पालदी-सिरोहीसे उत्तरपूर्व १० मील | यहां सात स्तम्भोंपर लेख हैं सं० १२४८ आषाढ़ वदी १ शुक्र व दीवालके वाहर एक पाषाणपर है सं० १२४९ माघ सुदी १० गुरु महाराज श्री केल्हणदेव और उसके पुत्र जयलसिंहदेव ।
(१३) वागिन-पालोदीसे १ मील | २ जैन मंदिर श्री आदिनाथजीके हैं। एक बड़ा १२ या १३ शताब्दीका है । दो खंभोंपर लेख सं० १२६४के हैं। मुख्य मंदिरके द्वारपर है सं०. १३५९ सामंतसिंहदेवके राज्यमें वाघसेनका दान हुआ।
(१४) उथमन-पालोदीके उत्तरपूर्व १॥ मील | यहां जैन मंदिर है, जिसमें १ सुन्दर संगमर्मरकी मूर्ति है। यहां आलेमें एक लेख मं० १२५१का है कि धनासवके पुत्र देवधरने अपनी स्त्री धारामतीके द्वारा श्री पार्श्वनाथके मंदिरको दान कराया।
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१७२]
प्राचीन जैन स्मारक । (१५) लास-पालोदीसे उत्तर पश्चिम १० मील यहां २ जैन मंदिर हैं एक श्री आदिनाथजीका है।
(१६) जावल--यहां १४वीं शताब्दीका श्री महावीरजीका जैन मंदिर है।
(१७) कातन्द्री-सुख्य मंदिरमें एक लेख है कि वि० सं० १३८९ फागुण सुदी - सोमे सर्व संघने समाधिमरण किया । नाम दिये हुए हैं।
(१८) उदरत-धन्धापुरसे २ मील। यहां एक जैन मंदिर है।
(१९) जीरावल-रेवाधरसे उत्तर पश्चिम ५ मील । पर्वतके नीचे जैन मंदिर है जो नेमिनाथका प्रसिद्ध है। यह मूलमें पार्श्वनाथ मंदिर था । पुराना लेख सं० १४२१का व पिछला सं० १४८३ का ओसवाल बनिया विशालनगर व कल्वनगर ।
(२०) वरमन-देवधर और मनधारके मध्य सुकली नदीके. पश्चिम एक प्राचीन नगर था । ग्रामके दक्षिण श्रीमहावीरस्वामीका जैन मंदिर सं० १२४२ का है।
(२१) सिरोही या सिरणवा-पिंडवाड़ा प्टे० से १६ मील महाराव सैसमलने सन् १४२५ में वसाया। जैन मंदिर देरासरीके नामसे प्रसिद्ध है। चौमुखजीका मंदिर मुख्य है। जो वि० सं० १६३ ४में बना था।
(२२) पिंडवाड़ा-यहां श्री महावीर स्वामीका जैन मंदिर सं० १४६६ का है।
(२३) अजारी-पिंडवाड़ासे ३ मील दक्षिण | श्री महावीर . '. स्वामीका जैन मंदिर। एक सरस्वतीकी मूर्तिके नीचे सं०१२६९ है। ।
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• राजपूताना ।
(२४) वसंतगढ़ - अजारीसे ३ मील दक्षिण । यहां टूटे हुए जैन मंदिर हैं - एक तहखाने में मूर्तियां मिलीं । एकपर लेख है सं० १५०७ राणा श्री कुंभकरण राज्ये वसंतपुर चैत्ये । यहां कुछ धातुकी मूर्तियां निकली थीं जो पिंडवाड़ाके जैन मंदिरमें हैं, एकपर सं ० ७४४ है ।
(२१) वासा - रोहड़ा टे० से १ || मील उत्तरपूर्व । यहां जगदीश नामका शिवालय है इसपर एक जैन मूर्ति है । यह पहले जैन मंदिर था ।
(२६) कालागरा- वासासे २ मील | यहां श्री पार्श्वनाथका जैन मंदिर था, अब पता नहीं है। एक लेख सं० १३००का मिला है । उस समय चंद्रावतीका राजा आल्हणदेव था ।
(२७) कामद्रा - कीवरली स्टे० से ४ मील उत्तर | आवृके निकट ] यहां प्राचीन जैन मंदिर है, चौतरफ जिनालय हैं । एकके ऊपर तं० १०९१ का लेख है। एक और प्राचीन जैन मंदिर था जिसके पत्थर रोहेडीके जैन मंदिरमें लगे हैं।
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(२८) चंद्रावती-आबूरोड स्टे ० से ४ मील दक्षिण । यह प्राचीनं. नगर था, दूरर तक खंडहर हैं । यह परमार राजाओंकी राज्यधानी था । आवृके दिलवाड़ेके प्रसिद्ध नेमनाथ मंदिरके बनानेवाले मंत्री वस्तुपालकी स्त्री अनुपम देवी यहांके पोड़वाड़ महाजन गागांके पुत्र धरणिगकी पुत्री थी ।
(२९) गिरवर - मधुसूदनसे करीब ४ मील पश्चिम | मूंगथलीसे ? मील मधुसूदन है । यहां टूटा हुआ जैन मंदिर है । विष्णु मंदिरका द्वार चन्द्रावतीसे लाया गया है, ऊपर जैन मूर्ति है ।
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प्राचीन जैन स्मारक। .. (३०) दताणी-गिरवरसे ६ मील उत्तरपश्चिम। यहां १ जैन मंदिर है।
(३१) हणाद्री-आबूके पश्चिम पर्वतसे ११ मील | वस्तुपालके मंदिरके शिलालेखोंमें सं० १२८७में इस गांवका नाम हंडाउद्रा आया है । यहां १ जैन मंदिर है।
(३२) सणापुर-हणाद्रेसे १२ मील उत्तरपूर्व, यहां जैन मंदिर १२वीं शताब्दीका है।
(३३) पालड़ीगांव-सिरोहीसे १२ मील उत्तरपूर्व । जैन मंदिर है उसमें चौहान राजा केल्हणदेवके कुंवर जैतसिंहका लेख सं० १२३९का है।
(३४) वागीण-पालड़ीसे २ मील । जैन मंदिरमें लेख चौहान रा० सामंतसिंह सं० १३५९ ।
(३५) सीवरा-सिरोहीसे १२ मील पूर्व झालोहीसे इमील उत्तर । श्री शांतिनाथका जैन मंदिर, लेख सं० १२८९ देवड़ा विजयसिंह।
(३६) आबू पर्वत-आरावला ( अर्बली ) सिरोहीसे दक्षिण पूर्व । ऊंचाई ५६५० फुट व समान भूमिसे ४००० फुट ऊंचा, ऊपर लम्बा १२ मील, चौड़ा. करीब ३ मील | आबृरोड़ प्टेशनसे १८ मील सड़क ऊपर है । यहां दिलवाड़ामें श्री मैन प्रसिद्ध मंदिर श्री आदिनाथ और नेमनाथके हैं । इनमें पुराना व सुन्दर विमलशाह पोड़वाड़का बनवाया विमलंवसही नामका श्री आदिनाथ मंदिर है जो वि० सं० २०८८में समाप्त हुआ था। उस समय आबूपर परमार वंशका राना धंधुक राज्य करता था । यह
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राजपूताना ।
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गुजरातके सोलंकी राजा भीमदेवका सामंत था। कुछ अनवन होनेसे धंधुक रूठकर मालवाके राजा भोजके पास चला गया तब भीमदेवने विमलशाह जैनको दंडनायक (सेनापति ) नियत कर आबू भेजा, इसने धंधुकको बुलाकर उसका मेल भीमदेवसे करा दिया । तत्र धंधुकसे दिलवाड़ा की भूमि लेकर विमलशाहने यह जिन मंदिर बनवाया । इसमें मुख्य मूर्ति श्री रिषभदेवकी है जिसके दोनों तरफ कार्योत्सर्ग मूर्तियें हैं ! सामने हस्तिशाला है, वहीं विमलशाहकी पापाण मूर्ति अश्वारूढ़ विराजमान है । हस्तिशालामें दस हाथी हैं - जिनमें • ६ हाथियोंको सं० १२०५ में फागुण वदी १० को नेढ़क, आनंदक, पृथ्वीपाल, धीरक, लहरक, मीनकने बनवाया था जो महामात्य थे । एक हाथीको परमार ठाकुर जगदेवने, 'एकको महामात्य धनपालने वि० सं० १२३७ आषाढ़ सुदी को बनवाया । १ को महमात्त्य धवलकने बनवाया । ( नोट - इसमें ९ हाथीके बननेका वर्णन है ।) हस्तिशालाके बाहर परमारोंसे आबूका राज्य छीननेवाले चौहान महाराव लुंढा (लुंभा) के दो लेख वि० सं० १३७२ और १३७३के हैं ।
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इस मंदिर के १ भागको मुसल्मानोंने तोड़ा था तब लछ और बीडाड साहुकारोंने सं० १३७८ चौहान महाराणा तेजसिंह के राज्यमें. जीर्णोद्धार कराया था और तब एक ऋषभदेवकी मूर्ति स्थापित की | दीवार में एक लेख मं० १३५० माघ सुदी १ बघेल (सोलंकी) राजा सारंगदेव के समय का है ।
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(२) लूणवसही - यह नेमनाथका मंदिर है इसको वस्तुपालका और तेजपाल मंदिर भी कहते हैं । ये दोनों वस्तुपाल
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प्राचीन जैन स्मारक। . तेजपाल अनहिलवाड़ पाटनके पौड़वाड़ महाजन अश्वराज (आसराज) के पुत्र थे । धोलकाके सोलंकी राणा (विधेलवंशी ) वीरधवलके मंत्री थे । तेजपालने अपने पुत्र लूणसिंह व स्त्री अनुपम देवी के हितार्थ करोड़ों रुपये लगाकर वि० सं० १२८७ में यह मंदिर बनवाया। इन मंदिरोंकी छतोंमें जैन कथाओंके भी चित्र हैं। इस नेमनाथ मंदिरोंमें दो बड़े शिलालेख हैं । एक ७४ श्लोकोंका काव्य धोलकाके राणा वीरधवलके पुरोहित तथा कीर्तिकौमदी, सुखोत्सव आदि काव्योंके कर्ता कवि सोमेश्वर रचित है। इसमें वस्तुपाल तेजपालके देशका वर्णन, अर्णो राजासे वीरधवल तक वघेल राजाओंकी नामावली, आबूके परमार राजाओंका हाल व मंदिरकी प्रशंसा है।
दूसरा लेख गधमें मंदिरके वार्षिकोत्सव आदिक वर्णनमें है। इसमें अनेक ग्रामोंके महाननोंके नाम हैं जो प्रतिवर्ष उत्सव करते । थे। ५२ जिनालय और हैं। यहां शिल्पके नमूने दो सुन्दर आले हैं इनको देवराणी निठाणीके आले कहते हैं । उनको तेजपालने अपनी दूसरी स्त्री सुहड़ादेवीके श्रेयके लिये बनवाया था। यह सुहड़ादेवी पाटनके मोड़ महाजन ठाकुर (ठक्कुर) जाल्हणके पुत्र ठाकुर आसाकी पुत्री थी । ऐसा उनपर खुदे हुए लेखोंसे प्रगट , है-उस समय गुजरातमें पोड़बाड़ और मोढ़ जातिके महाजनोंमें परस्पर विवाह होता था। दोनों आलोंपर सहश नकल है। एककी नकल इस भांति है:... “ ॐ संवत १२९७ वर्षे वैशाख सुदी १४ गुरौ प्राग्वाट ज्ञातीय चंडप्रचंड प्रसाद महं (महंत) श्री सोमान्वये महं श्री असरान
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राजपूताना ।
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सुतमहं श्री तेजःपालेन श्रीमत्पत्तन वास्तव्य मोढ़ जातीय ठ०
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जाल्हण सुतं ठ० आससुतायाः ठकुराज्ञी संतोषाकुक्षि संभूताया. महं श्री तेजःपाल द्वितीय भार्या मह श्री सुहड़ादेव्याः श्रेयोर्थं ..... ( आगेका भाग टूट गया है) ।
इस मंदिर की हस्तिशाला में संगमर्मरकी १० हथनियां हैं जिनपर १० सवारों की मूर्तियां थीं, अब नहीं रही हैं। इस संबंधी वंशवृक्ष नीचे प्रकार है
चंडप
1 चंडीप्रसाद
सोमसिंह 1 अश्वराज
1
1
लूणिक मल्लदेव वस्तुपाल
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जैत्रसिंह
तेजःपाल
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लवणसिंह
इन हथनियोंके पीछेकी पूर्व भीतिमें १० आले हैं उनमें इन १० पुरुषोंकी स्त्रियोंकी मूर्तियें पत्थर की खड़ी हैं, हाथोंमें पुष्पमाला हैं । वस्तुपालके सिरपर पाषाणका छत्र है । मूर्तिके नीचे प्रत्येक पुरुष व स्त्रीका नाम है। पहले आलेमें चार मूर्तियां खड़ी हैं वे आचार्य उदयसेन, विजयसेन हैं व तीसरी मूर्ति चंडप व चौथी चंडपकी स्त्री चामल देवी की है। उदयसेन विजयसेनके शिष्य. थे। यह नागेन्द्रगच्छंके साधु व वस्तुपालके कुल गुरु थे। मंदिरजीकी
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प्राचीन जैन सारका प्रतिष्ठा विजयसेन हीने कराई थी। इस अपूर्व मंदिरको शोभन नाम शिल्पीने वनवाया था। मुसल्मानोंने इसको भी तोड़ा तब पेथड संघपतिने जीर्णोद्धार कराया। लेख स्तम्भपर है संवत नहीं है।
वस्तुपालके मंदिरसे थोड़े अंतरपर भीमासाह (या भैंसासाह) का बनवाया हुआ मंदिर है। इसमें १०८ मन तौलकी सर्व धातुकी श्री आदिनाथकी मूर्ति है जो वि०सं० १५२५ फागुण सुंदी १को गुर्नल श्रीमाल जातिके मंत्री मंडनके पुत्र पुत्री सुन्दर तथा गंदाने स्थापित की । इसके सिवाय दो मंदिर श्वे० व दो मंदिर दिगंवरी हैं। आबूके मंदिर संगमर्मरकी अपूर्व खुदाईके हैं, करोड़ों रुपयोंकी लागतके हैं । जगतभरमें प्रसिद्ध हैं।
(३७) अचलगढ़-दिलवाड़ासे ५ मील उत्तरपूर्व । यहां -सोलंकी राजा कुमारपाल कृत शांतिनाथका जैन मंदिर है उसमें तीन मूर्तियां हैं। एक पर वि० सं० १३०२ है । पर्वतपर चढ़के कुंथुनाथका जैन मंदिर है। इसमें पीतलधातुकी मूर्ति सं० १९२७की है और उपर जाके पार्श्वनाथ, नेमनाथ व आदिनाथके मंदिर हैं। आदिनाथका मंदिर. चौमुखा.है व प्रसिद्ध है नीचे व ऊपर चारर पीतलकी बड़ी मूर्तियां हैं। कुल १४ मूर्तियां हैं तौल १४४४ -मन है। इनमें सबसे पुरानी मूर्ति मेवाड़ राजा कुंभकर्ण (कुंभ) के समा वि० सं० १५१८की प्रतिष्टित है।।
(३८) ओरिया-अचलगढ़से २ मील उत्तर | इसे कनखल तीर्थ कहते हैं। यहां श्री महावीरस्वामीका जैन मंदिर है। एक ओर पार्श्वनाथ व दूसरी ओर श्री शांतिनाथ हैं।
और ऊपर का चौमुखा है
१४ मूर्तियां
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राजपूताना ।
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(७) जैपुर राज्य -- ( जैपुर रेजिडेन्सी) ।
'इसमें राज्य जैपुर, किशनगढ़ व लावा शामिल हैं । इसकी चौहद्दी यह है- उत्तर में बीकानेर, पंजाब, पश्चिममें जोधपुर, अजमेर; दक्षिण में शाहपुर, उदयपुर, बुन्दी, ग्वालियर, पूर्वमें करौली, भरतपुर, अलवर। यहां १६४५६ वर्गमील स्थान है ।
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जैपुर राज्य - यहां १११७९ वर्गमील जगह है। यहां रामचंद्रके वंशज कचवाहा राजपूत राज्य करते हैं । पहला राजा वालियर का वज्रदामन था । इसने जैपुर राज्यको कन्नौज राज्यसे ले लिया, आप स्वतंत्र हो गया । ऐसा ग्वालियरके लेख सन् ९७७ से प्रगट है। पहले आंबेर में राज्यधानी थी, सवाई जैसिंह द्वि० आंबेरमें सन् १६९९ में हुआ । इसका मरण सन् १७४३ में हुआ । इसने राज्यधानी आंवेरसे जैपुरमें सन् १७२८ में बदली । यह राजा वैज्ञानिक ज्ञान और कलाके लिये प्रसिद्ध था । इसने बहुतसे गणितके ग्रंथ संस्कृतमें उल्था कराए और ज्योतिषचक्र के दृश्यके मकान जैपुर, दिहली, बनारस, मथुरा, उज्जैन में बनवाए जिसमें इसने डी ० ला हाइर अंग्रेजके ज्योतिष के हिसाबको शुद्ध कर दिया । यह राजा एक अपूर्व विद्वान था ।
पुरातत्व - आंबेर, वैराट, चाटसु, दौसा, व रणथंभोरकेकिलेमें हैं ।
यहां ७ फीसदी जैनी हैं । १९०१ में ४४६३० थे ।
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प्राचीन जैन स्मारक।
यहांके मुख्य स्थान (१) आम्बेर-जैपुरसे उत्तरपूर्व ७ मील। यह बहुत प्राचीन नगह है। यहां सन् ९५४का लेख मिला है। कई जैन मंदिर हैं।
(२) वैराट-ता. वैराट-जैपुरसे उत्तरपूर्व ४२ मील। बहुत प्राचीन स्थान है । यहां महारान अशोक (सन् ई०से २५० वर्ष पूर्व) के दो शिलालेख हैं। नगरके १ मीलकी हद्दमें बहुतसे संवेके सिक्के मिले हैं। यहां पांच पांडव अपने परदेश भ्रमणके समय ठहरे थे। यह प्राचीन मत्स्य प्रान्तकी राज्यधानी थी। चीनी यात्री हुइनसांग यहां सन् ६१४ में आया था। यहां एक पार्श्वनाथका दि० जैन मंदिर है। यहां एक मूर्तिपर शाका १५०९ हीरविजय लिखा है।
(६) चाटस् या चाकसू-चादसू प्टे० से २ मील प्राचीन नगर है । सन् ई० से १७ वर्ष पहले प्रसिद्ध विक्रमादित्यका स्थान था। यहां तांबेकी भीत थी। इससे इसको ताम्बा नगरी कहते हैं। यहां सेसोदिया जातिके राजा राज्य करते थे।
(४) झूझनू-शेखावाटीमें, जैपुरसे उत्तर पश्चिम ९० मील ! यहां १०.०० वर्षका प्राचीन जैन मंदिर है ।
(५) खडेला-निजामत तोरावाटीमें जयपुरसे उत्तर पश्चिम ५५ मील। स० नोट-यह खंडेलवाल जातिकी उत्पत्तिका स्थान है।
(६) नरैना-निजामत सांभर । यहां दादूपन्थका स्थापक दादू अकबर बादशाहके समयमें रहता था। यह सन् १६०३में मरा है। इसका मरण स्थान यहां एक झीलके पास है । इसकी पुस्तकका नाम वाणी है।
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प्राचीन जैन सारक ।
(१) वयाना-प्राचीन नाम श्रीपथ है। दो पुराने हिन्दू मंदिर हैं जिनको मुसल्मानोंने मसजिद बना लिया है । हरएकमें संस्कृतमें शिलालेख हैं-एकमें है सन् १०४३ जादोवंशी राजा विजयपालने यहां दक्षिण पश्चिम २ मीलपर विजयगढ़का किला बनवाया जिसको विदलगढ़ किला कहते हैं । किलेमें पुराना मंदिर है उसके लाल खंभेपर एक लेख राजा विष्णुवईनका है जो सन् ३७२में समुद्रगुप्तके आधीन था। राना विजयपाल जिसकी संतान करौलीमें राज्य करती है ११वीं शताब्दीमें महमूद गजनीके भतीजे मसूद सालारसे मारा गया। यहां जन मंदिर है जिसमें नरोलीसे निकली हुई १० दिगम्बर जैन मूर्तियां विराजित हैं, ये कूप खोदते निकली थीं। वि० सं० ११९३ है। जो चिन्ह स्पष्ट हैं उनसे झलकता है कि वे ऋषभदेव, संभवनाथ, पुष्पदंत, विमलनाथ, कुंथनाथ, अरहनाथ, नेमिनाथकी मूर्तियां हैं।
(२) कामा-भरतपुरसे ३६ मील उत्तर। यहां पुराना किला है। हिंदू मूर्तियोंके बहुतसे. खण्ड एक मसमिदमें हैं जिसे चौरासी खंभा कहते हैं। हरएक खंभेपर कारीगरी है । एकपर संस्कृतमें लेख है। इसमें सूरसेनोंका वर्णन है । ता० नहीं है। शायद (वीं शताब्दीका हो। एक विष्णुके मंदिर बनानेका वर्णन है। सं० नोट-यहां जैन मंदिर है व संस्कृतका प्राचीन शास्त्र भंडार है।
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प्राचीन जैन .स्मारक।
(१३) झालावाडा राज्य । इसकी चौहद्दी यह है-उत्तर पूर्व कोटा, पश्चिम रामपुर । भानपुर, आगरा; दक्षिण पश्चिम सीतामऊ, जावरा; दक्षिण देवास, पूर्वमें घिरावा । यहां ८.१० वर्गमील स्थान है।
चंद्रावती-झाकरापाटन नगरके निकट अति प्राचीन नगर चन्द्रावती है। वर्तमान नगरके दक्षिण ओर है. .। कहते हैं इस : नगरको मालवाके राजा चन्द्रसेनने बसाया था जो अबुलफजलके कथनानुसार प्रसिद्ध विक्रमादित्य राजाके पीछे राजा हुआ था । कनिंघम साहब कहते हैं कि यहां सन् ई०से ६००से १००० वर्ष पूर्वके प्राचीन ताम्बेके सिक्के मिले हैं। चन्द्रभागा नदीके तटपर जो ध्वंश हैं उनमें सीतलेश्वर महादेवका बहुत बड़ा मंदिर सन् .६००का है। इन ध्वंसोंके उत्तर सन् १७९६में नया नगर वसाया गया। इसमें एक जैन मंदिर है जो पहले पुराने नगरमें सामिल था। सं० नोट-झालरापाटण नगरमें कई जैन मंदिर हैं व श्रीशांतिनाथकी दर्शनीय मूर्ति व कई दि० जैन मुनियोंके समाधिस्थान हैं ।
[१४] बीकानेर राज्य । चौहदी है-उत्तर पश्चिम वहावलपुर, दक्षिण पश्चिम जैसलमेर, दक्षिण-माड़वाड़, दक्षिण पूर्व जैपुर शेखावाटी, पूर्वमें लाहोर-हिसार।
यहां २३८११ वर्गमील स्थान है। इसको सन् १४६५में , माड़वाड़के राजा वीकाने वप्ताया था। यहां चार शदी जैनी हैं। कुल संख्या १९०१ में २३.४ ०३ थी।
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राजपूताना।
[१६१ शिलालेख । सिहोर राज्य-(१) गटयाली-एक जैन मंदिरके स्तम्भमेंधनियाविहार नामके जैन मंदिरको मामावती नामका खेत नोनाने सं० १०८५में दान किया ।
(२) नांदिया-जैन मंदिरके स्तम्भपर इस स्तम्भको सं० १२९८में भीमने अपने पिता रौरकमणके हितार्थ स्थापित किया जो रौर पुनसिंहके पुत्र थे।
सन् १९१२-१३।
झालरापाटन शहर-सात सलाकी पहाड़ीपर स्तम्भ हैं (१) समाधि स्थान सं० १०६६ नेमिदेवाचार्य और बलदेवाचार्य । (२) सं० ११६६ समाधि श्रेष्ठी पापा। (३) सं० ११७० समाधि श्रेष्ठी सांधला, (४) सं० १२९९ मूलसंघ देवसंघ (लेख अस्पष्ट)।
राज्य गंगधार-जैन मूर्तियोंपर नीचेके लेख हैं। (१) सं० १३३० कुम्भके पुत्र सा कादुआ द्वारा । (२) सं० १३५२ सा आहदके पुत्र देदा द्वारा । (३) सं० १५१२-श्री अभिनंदन मूर्ति भंडारी गना द्वारा। (४) सं० १९२४ श्रीश्रेयांसमूर्ति जयताके पुत्र श्रावक मंडन,,
सन् १९१४ भरतपुर वयाना यादव राना विजयपाल करौलीका एक स्तंभ मिला है । इसपर काम्पकगच्छके जैन श्वेतांवर आचार्य विष्णुसूरि और माहेश्वरसूरीके नाम हैं । सं० ११०० में माहेश्वरसूरीकी समाधि हुई।
मेवाड-अहार-जैन मंदिरके आलेमें-जिसको नावन नेवरान कहते हैं-गुहिलराज नरवाहाके समयका अनुमा० . १० और १०३४ का लेख है।
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प्राचीन जैन -स्मारक।
(6) खेड़ा-जैन मंदिरकी एक पाषाण मूर्तिपर सं० १९३१ . मूलसंघ सरस्वतीगच्छ महाराज कीर्तिसिंहदेव ।
(७) नौगमा-श्री अनंतनाथके दि जैन मंदिरमें सं. १९४५ 'साहिलवाल जातिके साहवलिय, मूलसंघ कुंद० भ० पदमनंदिदेवके शिष्य भ० शुभचंद्रदेवके शिष्य मंडलाचार्य धर्मकीर्ति द्वारा ।
(८) नौगमा-वहीं एक पापाण मूर्तिपर सं० १९४८ भ० जिनचंद्र मूलसंघ, जीवराज पापड़ीवाल । .
(९) लक्ष्मणगढ़-जैन मंदिरमें पीतलकी मूर्ति पार्श्वनाथ सं० १९९५ साहसंग्राम भा० कनकारदे पुत्र साह लहुमा स्त्री पूंगीने, मूलसंघ भ० शुभचंद्रदेव द्वारा ।
(१०) अलवर शहर-एक पाषाण जो अब एक ठाकुरके घरमें है पहले जैन मंदिरकी भीतपर था । यह लिखता है कि अलवरमें श्री पार्श्वनाथका जैन मंदिर योगिनीपुर (दिहली )के 'हीरानंदने जो सं० १६८५में अंगलपुर ( आगरा ) में रहते थे,
ओसवालवंशीय बृहत् खरतरगच्छके जिनचंद्रसूरिके शिष्य वस्वकरंगकलश द्वारा बनवाया। . (११) मौजीपुर-श्वे. जैन मंदिरमें सीतलनाथकी पाषाण मूर्तिपर-सं० १६९४ हाड़ोयावासी हूमड़ जाति उत्तरेश्वर गोत्र मिहता साधारणके पुत्र लाला और गलाने, मूलसंघ कुंद० सर० गच्छ बलात्कारगण भट्टारक चांदिभूषण गुरुद्वारा।
(१२) लक्ष्मणगढ़-दि० जैन मंदिर-पाषाण मूर्ति सं० १६६ खंडेलवाल साह गोत्र छाजूके पुत्र सारणमलके पुत्र गूजरने मूलसंघ नंद्यानाय.भा चंद्रकीर्ति द्वारा ।
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________________ राजपूताना। [196 (6) परनापगढ़ देवलिया-श्वे. जैन मंदिरमें पार्श्वनाथकी पीतलकी मूर्ति सं० 1373 ढंढलेश्वरावटकू नगरके श्रीमाल ठाकुर खेताकने अजितदेवसूरि द्वारा (7) वहीं-शांतिनाथकी पीतलकी मूर्ति सं० 1393 प्राग्वाट (पोडवाड़) ज्ञातिके व्यवहारी आल्हा मा० सुमलदेवीने / (8) वहीं-शांतिनाथ मूर्ति सं० 1394 वदालम्बी नगरके श्रीमाल प्रभाकने / (9) वहीं मूर्ति पार्श्वनाथ सं० 1452 श्रेष्ठी करमसिंहे पंचतीर्थके पुत्र जैताकने साधु पूज्य पसचन्द्रसरि / (10) वहीं-पीतलमूर्ति पार्श्व० सं० 1479 हूमड़ श्रेष्ठी गोइन्दा मा० गौरादेवी तपागच्छ सोमसुन्दर सूरि / / (11) वहीं-पीतल मूर्ति विमलनाथ सं० १४८३श्रीमाल ठाकुर सादाके पुत्र वेला,वरिया, मेड़ाने नागेंद्रगच्छके पदमसुरिद्वारा। (12) वहीं—सीतलनाथकी पीतलमूर्ति सं० 1909 हूमड़ ठाकुर तेजाने मूलसंघ म० सकलकीर्तिद्वारा। (13) वहीं-पीतल मूर्ति पद्मप्रभु सं० 1518 श्रेष्ठी सामाके पुत्र गड़कने प्राग्वाद नाति, तपागच्छ पंथौली ग्रामके लक्ष्मीसागर सुरिद्वारा। (14) वहीं-पीतल मूर्ति मादिनाथ पंचकल्याणी सं०१५२१ हूमड़ श्रेष्ठी नासल मूलसंघी भ० सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति। . (15) परतापगढ़-साधवारा मंदिर-पीतल मूर्ति 24 जिन सं० 1446 व्यवहारी गंगाने पीपलगच्छके गुणरत्नसूरि द्वारा / (16) परताप-झांसदी-रिषभदेवका दि० जैन मंदिर,