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________________ मध्य भारत tet . इसने अपने सर्व शत्रुओंकी हाथियोंकी सेनाकी कुम्भस्थलीको विदारण कर दिया था व जिसका निर्मलं यश सिंहके वालोंके समान चारों तरफ फैला हुआ था । जब कि ६ बालक था तब ही उसकी दाहनी भुजाको वीर लक्ष्मीने और समगर आश्रय त्यागकर आश्रित कर लिया था । यह देखकर जब वह छा हुआ तब राज्य लक्ष्मीने उसकी उच्चताके प्रकाश में अहंकार शुक्त होकर सर्व अन्यं मनुष्योंसे घृणा करके उसके सर्व अंगको स्पर्श करनेका संकल्प कर लिया था । वास्तव में वह सूर्य वृथा ही है जबतक कि यह महाराजरूपी सूर्य बड़े २ मानी शत्रुओंके घोर अन्धकारको हटा रहा है, अनीतिगामी तारावलीको ढक रहा है व सर्व जगतमें प्रकाश कर रहा है तथा अपने महत्वकी भयानक किरणोंसे दिगन्त व्यापी होकर पर्वत समान राजाओंको स्पर्श कर रहा है। जब यह दिग्विजय करता था इसके चुने हुए, घोड़ोंके तेज खुरोंसे खण्डित पृथ्वी मंडलसे जो रज उड़ती थी वह उसके शत्रुओंके मुख्य नगर फैल जाती थी और सर्व पदार्थोंको ढक देती थी जो बतलाती थी कि मानों यह प्रलयकाल ही आगया है । इस महाराजाका नगर चडोभ है जिसकी शोभा चहुंओर व्याप्त है । इसके सुन्दर बाजार और उन्नत व्यापारकी महिमा लोगों में प्रसिद्ध • है जो यहां सर्व ओरसे अपने पासकी वस्तुओंको बेचने और खरीदने की इच्छासे आते हैं । 7 नोट - इस ऐतिहासिक वर्णनसे यह पता चला है कि कच्छपद्यात वंशमें महाराजा प्रवराज थे । उनका पुत्र विद्याधर देवका मित्र राजा अर्जुन था जिसने राज्यपालको युद्धमें मारा था । उसका
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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