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मध्य भारत ।
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समान था, निर्मल कीर्तिवान था व सजनोंक लिये उत्तम चारित्र. चान था। उसकी स्त्री यशोमति थी जो अपने रूपसे, 'शीलमे, कुलसे सर्व स्त्रीके गुणोंमें शिरमौर थी व पृथ्वीमें प्रसिद्ध थी। उस स्त्रीके दो पुत्र हुए एक ऋपि दूसरे दाहड, जो सुंदर मूर्ति थे तथा पूर्व दिशामें सूर्य चन्द्रके समान शोभनीक थे। ये धनके उपार्जनमें व्यवहारकुशल थे । इन दोनोंमेंसे बड़े भाई ऋपिको अनेक महल व कोटसे शोभित नगरमें राजा विक्रमने श्रेष्ठीपद प्रदान किया था।
फिर लाईन ३९ से ४८ तकमें उस समयके जैन आचार्योका वर्णन है।
श्रीलाट वागट गणके उन्नत पर्वतके मणि रूप निर्मल दर्शनज्ञान चारित्रके कारण व अनेक. आचार्य जिनकी आज्ञाओ मस्तक चढ़ाते हैं ऐसे गुरु देवसेन महाराज प्रसिद्ध हुए। जिन्होंने निश्चय व्यवहार रूप दोनों प्रकारके सिद्धांतको निर्वाध बुद्धिसे जानकर प्रमाण मागसे ग्रन्थोंमें संकलित किया, जिससे वे परम ऐश्वर्यको प्राप्त हुए व जिनके हाथमें मानो मुक्ति ही आगई। उनके शिप्य कुलभूषण मुनि हुए जो दिगम्बर मुनियोंमें मुख्य थे व सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके अलंकारसे भूपित थे। उनके शिप्य श्रीदुर्लभसेन आचार्य थे जो रत्नत्रयमई आभरणसे शोभित थे जो सर्व शास्त्रको पढ़कर आत्म स्वरूप में लीन थे व परम धैर्यवान थे। इनके शिप्य श्री शांतिसेन गुरु थे जिन्होंने अस्थानके स्वामी राजा भोजकी सभामें अपनी वादकलासे सैकड़ों मदयुक्त वादियोंको जीत लिया था जिन्होंने पंडित अम्बरसेन