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________________ 'कलभ्र' कलंचुरिवंशकी ही 'शाखा होंगे। कलंचुरि संवत् सन् २४८ ईस्वीसे प्रारम्भ होता है । अतएव 'पांचवीं शताब्दिमें इनका दक्षिण पर चढाई करना असम्भव नहीं हैं। अय्यन्गारजीका अनुमान है कि सम्भवतः दक्षिणके जैनियोंने ही शेवंरांनाओंसे त्रासित होकर कलभ्रराजाको दक्षिणपर चढाई करनेके लिये आमन्त्रित किया था। इस विषयपर अभी बहुत थोडा प्रकाश पड़ा है। इसकी खोज होनेकी अत्यन्त आवश्यक्ता है। ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दिका जो उदयगिरिसे 'कलिंगके जैन राजा खारवेलका 'लेख मिला है उसमें खारवेलके ‘साथ 'चेतराजवसवधन' विशेषण पाया जाता है । इसकी संस्कृत छाया 'चैत्रराजवंशवर्धन' की जाती है । पर वह 'चेदिराजवंशवर्धन ' भी हो 'सक्ता है जिससे खारवेलका कलचुरिवंशीय होना सिद्ध होता है । अन्य कितने ही कलचुरि नरेशोंने अपनेको 'त्रिकलिङ्गाधिपति' कहा है । आश्चर्य नहीं जो खारवेलका कलचुरिवंशसे सम्बंध हो । प्रोफेसर शेषगिरिरावका भी ऐसा ही अनुमान है। (South Indian Jainizm P. 24) मध्यप्रान्तके कलचुरि नरेश जैनधर्मके पोषक थे 'इसका एक प्रमाण यह भी है कि उनका राष्ट्रकूट नरेशोंसे घनिष्ट सम्बन्ध था और राष्ट्रकूटनरेश जैनधर्मके बड़े उपासक थे। इन दोनों 'राजचंशोंमें अनेक विवाह सम्बन्ध भी हुए थे । उदाहरणार्थ कृष्णराज (द्वि०) ने कोकल्लदेव (चेदिनरेश) की राजकुमारीसे विवाह किया था। कोकलके पुत्र शंकरगंणकी दो राजकुमारियोंको 'कृष्णराजके पुत्र जगत्तुंगने विवाहा था। इसी प्रकार इन्द्रराज और अमोघवर्षने
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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