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________________ (२१) 'तिहुवर्णनारायणसिरिनिकेउ, तहिं णरवरु पुंगमु भोयदेउ । णिव विक्कमकालहो ववगएसु, एयारह संवच्छरसएसु ।। तहि केवलिचरिउ अमच्छरेण, प्रयणंदिय विरइउ वच्छरेण | तेरहवीं शताब्दीमें आशाधरनी राजपूतानेसे मुसलमानोंके भयसे धारामें आगये थे। धारा और नालछेमें रहकर ही उन्होंने अपने अधिकांश ग्रंथोंकी रचना की। यह समय जैनधर्मकी खूब समृद्धिका था। भेलसाके समीपको 'वीसनगर' जैनियोंका बहुत प्राचीन स्थान है। वह शीतलनाथ तीर्थकरकी जन्मभूमि होनेसे अतिशयक्षेत्र है। जैन ग्रंथोंमें इसका नाम भद्दलपुर पाया जाता है । भट्टारकोंकी गद्दी यहींसे प्रारम्भ होकर मान्यखेट गई थी। इसी समय मध्यभारतमें विशेषतः बुन्देलखण्डमें अनेक जैन मंदिर निर्मापित हुए जिनके अब अधिकतः खण्डहर मात्र शेष रह गये हैं। खजराहाके प्रसिद्ध जैन मंदिर इसी समयके हैं । आगामी तीन चार शताब्दियोंमें मंदिरनिर्माणका कार्य खूब प्रचुरतासे जारी रहा, बड़े२ सुन्दर कारीगरीके मंदिर बनगये और अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठायें हुई। सोनागिरि (दतिया) वड़वानी, नयनागिरि (पन्ना), द्रोणगिरि (बीनावर) आदि अतिशय क्षेत्र इसी समय अनेक मंदिरोंसे अलंकृत हुए । सत्तरहवीं शतादिसे यहां जैनधर्मका ह्रास होना प्रारम्म हुआ। जहां किसी समय हजारों लाखों जैनी थे वहीं अब कोसों तक अपनेको नैनी कहनेवाला ढून्ढ़नेसे नहीं मिलता । वहां अब जैनधर्मका पता उन्हीं मंदिरोंके खण्डहरों और टूटीफूटी हजारों जिनमूर्तियोंसे चलता है। राजपूताना। जैनधर्म ऑदिसे क्षत्रियोंका धर्म रहा है, और इसलिये इसमें
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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