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________________ (२४) जैन समाजमें अन्यत्र तो क्षत्रियत्व बहुत समय से लुप्त हो गया पर राजपूताने में वह अभी २ तक बना रहा है। राजत्व, मंत्रीत्व और सेनापतित्वका कार्य जैनियोंने जिस चतुराई और कौशलसे चलाया है उससे उन्होंने राजपूतानेके इतिहासमें अमर नाम प्राप्त कर लिया है । आदिनाथ मंदिरके निर्मापक विमलशाहने भीमदेव नरेशके सेनापतिका कार्य बहुत अच्छी तरहसे किया था । सोलहवीं शताव्दिमें अकरके भीषण षड्यंत्र जाल में फंसे हुए राणा प्रतापसिंहका उद्धार जिन भामाशाहकी अतुल द्रव्य और चतुराईसे हुआ था वे ओसवाल जातिके जैनी ही थे । अपने अनुपम स्वदेश प्रेम और स्वार्थ त्यागके लिये यदि भामाशाह मेवाड़के जीवनदाता कहे जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी । सन् १७८७के लगभग मारवाड़के महाराजा विजयसिंह के सेनापति और अजमेर के सूवेदार डुमराजने मरहटोंके प्रति घोर युद्धकर अपनी वीरता और स्वामिभक्तिका अच्छा परिचय दिया था । ये ड्रमराज भी ओसवाल जैन जातिके सिंघी कुलके नररत्न थे । इसी प्रकार गत शताव्दिके प्रारम्भिक भाग में वीकानेर राज्यके दीवान और सेनापति अमरचंद्र जीने भटनेरके खान जन्ताखांको भारी शिकस्त दी थी तथा अनेक युद्धों में अपनी वीरताका अच्छा परिचय दिया था । सन् १८१७ ईस्वीमें पिंडारियोंका पक्ष करनेका झूठा दोष लगाकर उनके शत्रुओंने उनके असाधारण जीवनकी असमय ही इतिश्री करा डाली । ये भी ओस1 वाल जैन जातिके वीर थे । और भी न जाने कितने जैन वीरोंके वीरतापूर्ण जीवनचरित्र आज इतिहासकी अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हैं। इन्हीं शताब्दियों में राजपूतानेने ही ढूंढारी हिन्दी के कुछ ऐसे भारी जैन
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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