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________________ (२०) जैन ग्रंथों में इस समयके 'कल्कि' नामक रानाके निर्ग्रन्थ मुनियोंपर भारी अत्याचारोंका उल्लेख है। उत्तरपुराणमें कहा गया है कि उसने परिग्रहरहित मुनियोंपर. भी कर लगाया था। कुछ विद्वान इस करिकराजको हूणवंशी, 'महा दुराचारी मिहिरकुल ही अनुमान करते हैं । कल्किका अधर्मराज्य बहुत समयतक नहीं चला-४२ वर्षके अधर्म राज्यसे भूतलको कलंकितकर कल्कि कुगतिको प्राप्त हुआ और उसके उत्तराधिकारियोंने पुनः धर्मराज्य स्थापित किया । नौवीं दशवीं शताब्दिसे मध्यभारतमें जैनधर्मकी विशेष उन्नति हुई और कीर्ति फैली। 'धारा के नरेशोंने जैन धर्मको खूब अपबाया, 'महासेनसूरि ' ने मुज्जनरेशसे विशेष सन्मान प्राप्त किया और उनके उत्तराधिकारी सिन्धुरानक एक महासामन्तके अनुरोधसे उन्होंने 'प्रद्युम्नचरित' काव्यकी रचना की । ग्वालियर रियासतके शिवपुर परगनान्तर्गत दूवकुंडसे जो सं० ११४५का शिलालेख मिला है उसमें तत्कालिक राजवंश परिचयके अतिरिक्त 'लाटवागट' गणक आचार्योकी परम्परा दी है। इस परम्पराके आदिगुरु देवसेन कहेगये हैं (ए० ७३-७७)। ये देवसेन संभवतः वे ही हैं जिन्होंने संवत् ९९०में दर्शनसार नामक एक जैन ऐतिहासिक ग्रंथकी रचना की थी। इनके बनाये हुए संस्कृत, प्राकृत और भी अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं ! भोजदेवके समयमें अनेक प्रसिद्धर जनाचार्य हुए हैं । ब्रह्मदेव टीकाकारके अनुसार द्रव्यसंग्रह ग्रंथके रचयिता नेमिचन्द्राचार्य भोगदेवके दरबारमें थे। नयनंदि आचायेने अपना अपभ्रंश भाषाक, एक काव्य 'सुदर्शनचरित्र' भी इन्हींके राज्यमें सं० ११००में समाप्त क्रिया था जैसा उसकी प्रशस्तिमें है:
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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