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(१६) दक्षिण यात्रा प्रारम्भ हुई जिसका केवल जैनधर्मके ही नहीं भारतवर्षके इतिहासपर भी भारी प्रभाव पड़ा। विक्रमादित्य नरेशके सबन्धमें आधुनिक विद्वानोंका मत है कि विक्रम संवत्के प्रारम्भ कालके समय किसी उक्त नामके रानाका ऐतिहासिक अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, पर जैन ग्रन्थोंमें महावीरस्वामीके ४७० वर्ष पश्चात् उनैनीके राजा विक्रमादित्यका उल्लेख मिलता है व उनके जीवनकी बहुतसी घटनायें भी पाई जाती हैं । 'कालिकाचार्य कथानक' के अनुसार विक्रमादित्यने महावीरस्वामीसे ४७० वर्ष पश्चात् विदेशियों (शकों से युद्धकर उन्हें परास्त किया और अपना सम्बतू चलाया। इसके १३५ वर्ष पश्चात शकोंने विक्रमादित्यको हराया और दूसरा संवत् स्थापित किया । स्पष्टतः उक्त दोनों संवतोंका अभिप्राय क्रमशः विक्रम और शक संवत्से है, पर इन संवतोंके चीच १३५ वर्षका अन्तर होनेसे शकोंके विजेता विक्रम और उनसे पराजित होनेवाले विक्रम एक नहीं माने जासक्ते । जो हो पर अनेक जैन ग्रन्थ यह प्रमाणित करते हैं कि उस समय एक बड़ा प्रतापी विक्रमादित्य नामका नरेश हुआ है जो जैनधर्मावलम्बीथा। इसका समर्थन इस बातसे भी होता है कि 'वैताल पंचविंशतिका' 'सिंहासन द्वात्रिंशिका' आदि विक्रमादित्यसे सम्बन्ध रखनेवाले कथानक जैनियोंने ही विशेष रूपसे अपने ग्रन्थ भंडारोंमें सुरक्षित रक्खे हैं।
गुप्तवंशी राजाओंके समयमें यद्यपि जैनधर्मको विशेष उत्तेजन नहीं मिला, तथापि राज्यमें शांति होनेसे उसका प्रचार होता रहा। इसी समयमें 'हूग ' जातिके विदेशी लुटेरों कमणसे देश की भारी क्षति हुई और मध्यमारतमें जैन धर्म को विशे। हानि हुई।