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________________ मध्य भारत । [ ७६ सूर्यके समान हैं वे तुम्हारे अंतरंग अज्ञान अंधकार को दूर करें । फिर श्री जिनवाणीकी स्तुति है कि जो श्री जिनेन्द्रके सुखकमलसे निकलकर निर्मल ज्ञानके गंधको विस्तारनेवाली है, इसीसे श्रुतदेवती या सरस्वतीको जगतमें कमलवासिनी कहते हैं । फिर १० से ३१ लाइन तक महाराज विक्रमसिंह और उनके वंशका वर्णन है । कच्छपघातवंशका तिलक तीन लोकमें जिनका निर्मल यश व्याप्त था, इससे पवित्र श्री युवराजका पुत्र अर्जुन राजा था जो भयानक सेनाका पति था, जिसकी गंभीरताकी तुल्यता समुद्र भी नहीं कर सक्ता था व जिसने अपनी धनुष विद्यासे पृथ्वीको या अर्जुनको जीत लिया था, जो श्री विद्याधर देवके कार्य में लीन था व जिसने महान् युद्धमें प्रसिद्ध राज्यपाल राजाको उसके . कंठकी हड्डीको छेदने वाले अनेक वाणोंसे जीत लिया था । जिसने अपने अविनाशी यशसे - जो मोतियोंकी माला व समुद्रका फेन या चंद्र मंडलके समान निर्मल था एकदम तीन लोकको पूर्ण कर दिया था । जिस समय वह प्रस्थान करता था उस समयके उसके बाजोंकी ध्वनि समुद्रकी गर्जना के समान थी व जिसके साथ शीघ्र जाते हुए पर्वत समान हाथीके समूहों में जो घंटोंके शब्द होते थे वे चारों तरफ फैलते हुए एक दूसरेको देखते थे तथा वे आकाश और पर्वतकी गुफा को भी अपने शब्दोंसे भरनेमें चूकते न थे, उनके साथ पर्वतकी गुफाओंसे निकली हुई गूजें भी मिल जाती थीं । उसका पुत्र राजा अभिमन्यु था जो रात्रि दिन अनेक अखंडित गुणों का धारी था, जो गुण चहुं ओरसे आनेवाले शरणा
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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