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७८] प्राचीन जैन स्मारक। सहित दिया हुआ है। यह कुन नदीके तटपर ग्वालियरसे दक्षिण पश्चिम ७६ मील है। एक कोटके भीतर यह मंदिर है, चारों तरफ घर हैं व छोटे कई मंदिर हैं । यह लेख संस्कृतमें ६१ लाइनका है । श्लोकमें हैं । यह जिनमन्दिर निर्मापणकी प्रशस्ति है । इस प्रशस्तिको श्री विजयकीर्ति महाराजने रचा था। जिसको उदयरानने पाषाणमें लिखा था और तिल्हाणने खोदा था ( लाइन ४६, ६०-६१)।
लेखका भाव । लाइन १ से १० तक मंगलाचरण है। पहले श्रीऋषभदेवकी स्तुति है। फिर शान्तिनाथ भगवानकी स्तुति है कि प्रभुने गुणसमुदायको प्राप्त किया है, अज्ञानका आताप नाश किया है, अपनी ज्ञान ज्योतिसे युक्त होनेपर भी जिन्होंने रागादि भावोंको जीत लिया है तथा जो मत्युक्त कामदेवरूपी हाथीके नाश करनेको सिंहके समान है ऐसे शान्तिनाथ महारान हमारे संसारका नयानक रोग नष्ट करें। फिर श्री चन्द्रप्रभुकी स्तुति है कि वे चंद्रनाथ भगवान हमको विपत्तियोंसे बचा जो सर्व जनोंकों आनन्द दाता है इत्यादि (शेप भाव नहीं समझमें आया ।) पश्चात् श्री सन्मति नामधारी श्री महावीरस्वामीकी स्तुति है । जिसने महामिथ्यात्वके मार्गमें जाते हुए रागादि मृगोंको ध्यानकी अग्निसे भन्म कर दिया है व कर्मोके वनको जला दिया है व शोकके वृक्षके समूहको व रतिकी तृण श्रेणीको नाश कर दिया है इत्यादि सो मिनेन्द्र जयवंत हों। फिर श्री गौतम गणधरकी स्तुति है कि जो अपने कार्यको सिद्ध करनेवाले भव्य जीव रूपी कमलोंके समूहके लिये