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________________ राजपूताना । [ १७५ गुजरातके सोलंकी राजा भीमदेवका सामंत था। कुछ अनवन होनेसे धंधुक रूठकर मालवाके राजा भोजके पास चला गया तब भीमदेवने विमलशाह जैनको दंडनायक (सेनापति ) नियत कर आबू भेजा, इसने धंधुकको बुलाकर उसका मेल भीमदेवसे करा दिया । तत्र धंधुकसे दिलवाड़ा की भूमि लेकर विमलशाहने यह जिन मंदिर बनवाया । इसमें मुख्य मूर्ति श्री रिषभदेवकी है जिसके दोनों तरफ कार्योत्सर्ग मूर्तियें हैं ! सामने हस्तिशाला है, वहीं विमलशाहकी पापाण मूर्ति अश्वारूढ़ विराजमान है । हस्तिशालामें दस हाथी हैं - जिनमें • ६ हाथियोंको सं० १२०५ में फागुण वदी १० को नेढ़क, आनंदक, पृथ्वीपाल, धीरक, लहरक, मीनकने बनवाया था जो महामात्य थे । एक हाथीको परमार ठाकुर जगदेवने, 'एकको महामात्य धनपालने वि० सं० १२३७ आषाढ़ सुदी को बनवाया । १ को महमात्त्य धवलकने बनवाया । ( नोट - इसमें ९ हाथीके बननेका वर्णन है ।) हस्तिशालाके बाहर परमारोंसे आबूका राज्य छीननेवाले चौहान महाराव लुंढा (लुंभा) के दो लेख वि० सं० १३७२ और १३७३के हैं । 2 इस मंदिर के १ भागको मुसल्मानोंने तोड़ा था तब लछ और बीडाड साहुकारोंने सं० १३७८ चौहान महाराणा तेजसिंह के राज्यमें. जीर्णोद्धार कराया था और तब एक ऋषभदेवकी मूर्ति स्थापित की | दीवार में एक लेख मं० १३५० माघ सुदी १ बघेल (सोलंकी) राजा सारंगदेव के समय का है । 1 (२) लूणवसही - यह नेमनाथका मंदिर है इसको वस्तुपालका और तेजपाल मंदिर भी कहते हैं । ये दोनों वस्तुपाल । 1
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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