Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीन्यायसिन्धु:
प्रणेता : आचार्यश्रीविजयनेमिसूरिः
Education International
Fon Five & Personal Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
शासनसम्राट्-शताब्दीग्रन्थमाला-पुष्पम् - २
॥ ॐ अहँ नमः ॥ ।। परमकारुणिकगीतार्थत्वादिगुणोपेतनिजचरणविद्याप्रतिभातिशयादिगुणसंस्मारितातीतयुगप्रधान
गुरुवर्यश्रीवृद्धिचन्द्रापरनामश्रीवृद्धिविजयसद्गुरुभ्यो नमः ।। भव्यभव्यानुग्रहविहितानेकग्रन्थसन्दर्भसकलसूरिसार्वभौमशासनसम्राट
तपोगच्छाचार्यभट्टारकश्रीविजयनेमिसूरिसन्दृब्धः ।
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
ACHARYA SRI KAILASSAGARSURI GYANMANDIR SHREE MAHAVIR JAN ARAGHAHA KENDRA
Koba,Gandhinagar-302007. Ph.: (079) 23276252,23276204-05
Fax : (079)23278249
प्रकाशिका : श्रीजैनग्रन्थप्रकाशनसमितिः, खम्भात
वि.सं. २०६४ ई.स. २००७ .
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
SHRI NYAYASINDHU BY ACHARYA SRIVIJAYNEMISOORIJI (JAIN NYAYA)
सम्पादनम् : कीर्तित्रयी
© सर्वेऽधिकाराः स्वायत्ताः
प्रकाशनम् : श्रीजैनग्रन्थप्रकाशनसमितिः, खंभात ।।
प्रथमा आवृत्तिः वि.सं. १९८० द्वितीया आवृत्तिः वि.सं. २०६४, ई.स. २००७
प्रतयः ५००
मूल्यम् : रू. १२०/
आवरणम् : नैनेश सरैया, सूरत ।
प्राप्तिस्थानम् : (१) सरस्वती पुस्तक भंडार
112, हाथीखाना, रतनपोळ,
अमदावाद-३८०००१ (२) श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी स्वाध्याय मंदिर
12, भगतबाग, शेठ आणंदजी कल्याणजीनी पेढी समीप, पालडी, अमदावाद - 380007 दूरभाष : 26622465
मुद्रणम् : 'क्रिष्ना ग्राफिक्स',
966, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-380013 दूरभाष : 079 - 27494393
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
शताब्दी समर्चना पूज्यपाद शासनसम्राट वालवहाचारी आचार्यमहाराज श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजसाहेवना आचार्यपद-शताव्दीवर्पनो अवसर आव्यो अने पूज्यपाद शासनसम्राटश्री द्वारा रचित ग्रंथोना पुनः प्रकाशननी, वर्षोथी अंतरमां सेवेली भावना फरी जागृत थई गई, अने आ स्वरूपे पूज्यश्रीनी भक्ति करवानो 'भाव पूज्यपाद गुरुभगवंत श्रीविजयशीलचंद्रसूरीश्वरजी महाराजसाहेवनी सत्प्रेरणाथी वधु प्रवळ वन्यो.
आम तो नव्यन्यायनी शैलीमा पूज्यश्रीना रचेला स्वतंत्र ग्रंथो के टीका ग्रंथोनुं संपादन ए अमारा गजा उपरांतनुं साहस ज गणाय. छतां पण पूज्यश्रीनी भक्ति स्वरूपे स्वीकारेलुं आ साहस पण अमारा माटे ज्ञाननी नवी दिशा उघाडनाएं वनशे एवी श्रन्द्रा छे.
आ भावना-अन्वये शासनसम्राट्शताव्दी-ग्रंथमालाना प्रथम पुष्परूपे हमणां ज सप्तभङ्गीप्रभानु पुनः प्रकाशन कार्य सम्पन्न थयु. ए पछीना पुष्प तरीके न्यायसिन्धु-ग्रंथy प्रकाशन कार्य पण पूर्ण थयेल छे जे अमारा माटे आनंदनो विषय छे. आ ग्रंथ पण सप्तभङ्गीप्रभानी जेम पूज्यश्रीनी स्वतंत्र रचना ज छे.
__ आ ग्रंथमा जैनदर्शनमान्य प्रमाण - नय अने निक्षेपना स्वरूपनुं वर्णन पूज्यश्रीए नव्यन्यायनी शैलीमां विशद रीते कर्यु छे.
तेमां
सर्वप्रथम, ज्ञान, स्वरूपदर्शन, तेना साकार, निराकार, सविकल्पक, निर्विकल्पक व. भेदोनुं निरूपण; ते अंगेनी वौद्धादि दर्शनोनी मान्यताओ दर्शावीने स्याद्वादशैलीओ तेनुं खंडन करवामां आव्युं छे.
त्यारवाद, न्यायदर्शनमान्य इन्द्रियप्रमाण दर्शावीने जैनदर्शनमान्य इन्द्रियोना स्वरूपनुं वर्णन कर्यु छे. अने कापिलादि दर्शन सम्मत ज्ञानना एकान्त स्वतस्त्व/परतस्त्वनुं निरूपण तथा खंडन करीने स्याद्बादमान्य ज्ञानना स्वतस्त्व-परतस्त्वनी स्थापना करी छे.
ते पछी, वेदोंने अपौरुपेय (नित्य) माननारा तथा सर्वज्ञने नहि माननारा मीमांसकोनो मत दर्शावीने तेमां दोपदर्शन कराववापूर्वक खंडन करीने विस्तारथी सर्वज्ञनी सिद्धि करी छे.
त्यारवाद, वेदान्तमान्य माया - अविद्या - जगतनुं ब्रह्मात्मकत्व व. पदार्थोनुं निरूपण तथा खंडन कर्यु छे अने जैनदर्शन सम्मत उत्पाद-व्यय-धौव्यरूप सत्ता ज नामान्तरे अन्यदर्शनमान्य माया छे ते सिद्ध कर्यु छे.
ते पछी, नैयायिक सम्मत आत्माना नित्यत्व-विभुत्व तथा जगतनुं ईश्वरकर्तृकत्व व. सिद्धान्तोनी विशद चर्चा करीने तेमां दोपो दर्शाव्या छे.
ते पछी, चार्वाक-सांख्यादि मतोनुं विस्तृत निरूपण तथा तेआनुं खंडन कर्यु छे. अन जैनदर्शनमां अन्य दर्शनो कई रीते समावेश पामे छे ते दर्शाववामां आव्युं छे. अने ते रीते स्याद्वाद साथे तेओनुं सख्य स्थापित कर्यु छे.
त्यारवाद, अन्यदर्शनसम्मत प्रमाणोनी संख्या, कथन तथा जैनदर्शनमान्य प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणनी चर्चा विस्तारथी करवामां आवी छे. तेमां पारमार्थिक प्रत्यक्षप्रमाणरूप केवलज्ञान तथा केवलदर्शन युगपत् होय के
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमशः होय - वगेरे चर्चा विविध जैनाचार्योना मत दर्शावीने करी छे.
ते पछी शक्तिवादनी चर्चा मीमांसक-नैयायिकादिना मत-मतान्तरो दर्शावीने करवामां आवी छे.
ते पछी, व्यावहारिक प्रत्यक्ष तथा तदन्तर्गत अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणादि मतिज्ञानना भेदोनुं वर्णन कर्यु छे, अने परोक्षप्रमाणना स्मृति-प्रत्यभिज्ञा व. पांच भेदोनुं वर्णन तथा तेओनुं प्रामाण्य सिन्द्र कर्यु छे. साथे ज अन्यदर्शनसम्मत उपमानादि प्रमाणोनो प्रत्यभिज्ञा व. मां समावेश कर्यो छे अने स्मृति-प्रत्यभिज्ञा व. ने नहि स्वीकारता वौद्धादि मतो- खंडन कर्यु छे.
तथा, अनुमानप्रमाणनी चर्चामां हेतुओना भेदो तथा स्वरूपनुं वर्णन कर्यु छे.
ते पछी, अभावोनुं वर्णन - तेना चार भेदो व. नुं निरूपण विस्तारथी कर्यु छे अने नैयायिकादि भावातिरिक्त अभावने माने छे तेनुं खंडन कर्यु छे, अने अभाव पण भावस्वरूप ज छे एम स्थापित कर्यु छे.
त्यार बाद आगमप्रमाण, विशद निरूपण कर्यु छे तथा तदन्तर्गत शब्दने गुणस्वरूप मानता नैयायिकोर्नु खंडन करी तेनुं पौद्गलिकत्व सिद्ध कर्यु छे.
ते पछी, सप्तभङ्गीमां सकलादेश, विकलादेश, प्रमाणसप्तभङ्गी, नयसप्तभङ्गी व. नी विस्तृत चर्चा करी छे. ते पछी, प्रमाणाभासनी चर्चा करीने प्रमाणनी चर्चा समाप्त करी छे.
त्यार बाद, नयनुं निरूपण करतां नयना भेदोनुं वर्णन तथा बौद्धादि दर्शनोनो विविध नयोमा समावेश दर्शाव्यो छे. अने द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयोनी संख्या विशे जैनाचार्योना मतो दर्शाव्या छे.
ते पछी निक्षेपर्नु संक्षिप्त वर्णन करीने ग्रंथ समाप्त कर्यो छे.
कुल १३३८ श्लोकोमा पथरायेला आ ग्रंथनो मोटो भाग प्रमाणविषयक चर्चामा रोकायेलो छे. नयनी चर्चा संक्षेपमां करेल छे अने निक्षेप तो मात्र वे ज श्लोकमां वर्णव्यो छे.
विशेषमां, ग्रंथना प्रारंभे आ ग्रंथनी विस्तृत विषयानुक्रमणिका आपी पूज्यश्रीओ ग्रंथनो विषयवोध जिज्ञासुओ माटे सुलभ करी आप्यो छे.
ग्रंथना प्रान्तभागे श्लोकोनो अकारादिक्रम तथा विशेषनामोनी सूचि अने उद्धरण परिशिष्टरूपे मूकवामां आव्यां छे.
आ ग्रंथनी रचना वि.सं. १९६६मां थयेली छे अने तेनुं प्रथम प्रकाशन वि.सं. १९८०मां थयेनुं छे.
प्रान्ते, आ सम्पादनमा अमारा मतिमान्द्यने लीधे ग्रन्थकारना आशयविरुद्ध कोई सम्पादन थई गयुं होय तो ते माटे अमो 'मिथ्यादुष्कृत' आपीओ छीओ.
वि.सं. २०६४ कारतक सुद-१ (शासनसम्राट जन्मदिन)
कीर्तित्रयी (मुनिरत्न-धर्म-कल्याणकीर्तिविजयाः)
अमदावाद
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
"षड्दर्शन जिन अंग भणीजे"
(आनन्दघनजी महाराज)
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
: आर्थिक सौजन्य : पू. साध्वीजी श्रीप्रवीणाश्रीजीम.नां शिष्या पू. साध्वीजी श्रीदक्षयशाश्रीजीम.नां शिष्या पू. साध्वीजी श्रीधृतियशाश्रीजीम.नी प्रेरणाथी श्रीपुरुषादानीय पार्श्वनाथ जैन श्वे. मू. पू. संघ,
देवकीनन्दननां श्राविका बहेनो तरफथी.
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुविषयानुक्रमणिका ॥
११-१२ १३-१५
विषयः मङ्गलाचरणम्-आद्यन्ततीर्थङ्करगुरूणां रभरणलक्षणम् ग्रन्थतत्कर्तृनामोट्टनमभिधेयसूचनं च लक्षणमानाभ्यां ज्ञानस्य प्रथमतो निरूपणे बीजमुपदर्शितम् ज्ञानरय स्वरूपतटस्थलक्षणद्वयोपदर्शनम् तटस्थस्वरूपलक्षणविशेषोपदर्शनम् ज्ञानस्वरूपे विषयघटितत्वं परमतेनोपदर्श्य स्वप्रकाशकत्वमावेदितम सूर्यदृष्टान्तेन ज्ञाने रवपरप्रकाशकत्वनिष्टङ्कनम् परप्रकाशेऽनवस्थापादनं गौरवप्रदर्शनं च जनकस्यैव विषयत्वमित्यरयाऽपाकरणम् इन्द्रियसन्निकृष्टार्थस्यैव विषयत्वमित्यस्याऽपाकरणम् लौकिकविषयत्वस्येन्द्रिययोग्यतावच्छेदकत्वखण्डनम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य प्रत्यक्षजनकत्वमपाकृत्य योग्यत्वस्य तत्त्वमुपपादितम् जैनरवप्रकाशवादे प्रभाकरमताद विशेषोपदर्शनेन तदोषपरिहार: परप्रकाशे ज्ञानज्ञानस्याऽसम्भवोपपादनम् रवप्रकाशेऽर्थ प्रवृत्त्युपपादनं परकीयदोषोन्मूलनं च वेदान्तिमताज्जैनमते स्वप्रकाशे विशेषोपदर्शनम् साङ्ख्यमताद् विशेषोपवर्णनम् बौद्धमताद् विशेषप्रदर्शनम् परप्रकाशवादिभ्यो वैशेषिकादिभ्यो वैलक्षण्योपदर्शनम् स्वसंवेदनात्मकं स्वमेव रवरिमन प्रमाणमिति निगमितम प्रमाणस्य लक्षणम् स्वमतव्यवस्थापने परमतखण्डनरयाऽऽवश्यकत्वमुपदर्शितम् निर्विकल्पकस्यैव प्रामाण्यं न तु सविकल्पकस्येत्यभ्युपगच्छतो बौद्धस्य प्रक्रियायां सविकल्पक द्वारा निर्विकल्पस्य प्रामाण्योपदर्शनम् तन्मतेऽनुमानस्य प्रामाण्यप्रदर्शनम् पारमार्थिकसांव्यवहारिकप्रामाण्ययोर्लक्षणं तन्मतेन जैनोक्त प्रमाणलक्षणस्य निर्विकल्पके डव्याप्त्युपदर्शनम् बौद्धोक्ताव्याप्तेर्लक्षणफलोपदर्शनेन बाधतया दोषे पर्यवसानमावेद्याऽपाकरणम तत्रैव प्रमाणत्वेन स्वपरव्यवसायित्वानुमाने पक्षैकदेशे निर्विकल्पके प्रत्यक्षादिना बाधस्योद्धार: तत्र स्वसंवेदने निर्विकल्पक साधकत्वस्याऽपाकरणम् अनुमानस्य निर्विकल्पकसाधकत्वापाकरणं तदुक्तव्याप्त्याद्यसिद्धयुपपादनेन प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्त प्रमाणस्याऽभ्युपगमादेच न तत्साधक त्वम्
१८-१९ २०-२४ २५-२७ २८-३१ ३२-३३ ३४-३५
३६-३७
४५-४६
४८-५०
५२-५४ ५५-६०
६१
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
६३-६७
६८ ६९-७०
७२-७३ ७४-७५
७७-७९
८१-८३
८४
८८-९१
बौद्धाभ्युपगतपारमार्थिक प्रामाण्यलक्षणखण्डनम सविकल्पद्वाराऽर्थोपदर्शकतया निर्विकल्पस्य प्रामाण्यमिति बौद्धसम्मतस्योमूलनम् वस्तुनः कस्याऽपि प्रत्यक्षबुद्धौ विशेषणतया भानासम्भवेन न सविकल्पकप्रत्यक्षतासम्भव इति न तथा तस्य प्रामाण्यमिति बौद्धपूर्वपक्षः । तत्र प्रत्यक्षेऽर्थे शब्दस्य विशेषणतया भानापाकरणम् अर्थे जातेर्विशेषणतया भानखण्डनम् अवयविनो द्रव्यस्य चाऽतिरिक्त स्याउनभ्युपगमेन ताभ्यां वैशिष्ट्यभानस्य व्युदसनम् संयोगविभागाभ्यां कर्मणा च वैशिष्ट्यमानस्याऽपाकरणम् पूर्वत्वादीनामुपाधीनां विशेषणत्वापाकरणम् दण्डादेविशेषणतया भानस्य विध्वंसनम् वस्तुमात्रस्य स्वात्मप्रतिष्ठितत्वेन भूतलाश्रितघटादिबुद्धेर्निरासः सन्निकर्षासम्भवेन देशादितो विशिष्टबुद्ध्यसम्भवः, असन्निकृष्टे तदभ्युपगमे दोषप्रदर्शनं च विशिष्टबुद्धेः कल्पनामात्रत्वोट्टङ्कनेन बौद्धपूर्वपक्षनिगमनम् बौद्धमतखण्डनारम्भः प्रत्यक्षेऽर्थे शब्दवैशिष्ट्यभाने बौद्धोक्त दूषणस्योन्मूलनम् प्रत्यक्षे जातिविषयकत्वव्यवस्थापनम् अनुगतबुद्धेरपोहावगाहित्वस्य बौद्धसम्मतस्य खण्डनम् नाऽऽयातीत्यादिना बौद्धोक्तस्य दोषनिकरस्य नैयायिकसम्मतायां जातावेव सम्भवो न तु जैनसम्मतायामित्यस्य व्यवस्थापनम् जात्यादिविशिष्टबुद्धौ कथञ्चित्तादात्म्यस्यैव संसर्गतया भानं न तु समवायादेरित्यस्य व्यवस्थापनम् तत्र संयोगस्य नैयायिकसम्मतस्याऽपाकरणम् तत्र समवायरय खण्डनम् कथञ्चित्तादात्म्येन जातिविशिष्टबुद्धिनिगमनेन जात्या न विशिष्टबुद्धिरिति वदतो बौद्धस्य शिक्षणम् प्रत्यक्षेऽवयविनो वैशिष्ट्यभानस्योपपादनम् बौद्धोक्तदूषणजालो नैयायिक सम्मतमेवाऽवयविनमाक्रामतीत्यस्योपदर्शनम् स्वमते चलनाचलनाद्यनन्तधर्मकत्वेनाऽवयविनो निष्टङ्कनम् परमाणुपुञ्जेनैव घटाद्यवयविबुद्धिरिति बौद्धमतस्य खण्डनम् गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं नाऽस्तीत्यस्य बौद्धमतस्य खण्डनम् बौद्धोक्तदोषनिकरस्याऽतिरिक्त संयोगे सञ्चारणेन स्वसम्मतपर्यायात्मकसंयोगेन विशिष्टबुद्धरुपपादनम् विभागेन कर्मणा च वैशिष्ट्यस्य प्रत्यक्षे स्वमतेन भानमपपादितम क्षणिकाक्षणिकत्वपक्षे जैनसिद्धान्ते क्रियासम्भवोपदर्शनम् एकान्तक्षणिकत्वस्यैकान्तस्थैर्यस्य चाडसम्भवोपदर्शनम् यत्सत्तत्क्षणिकमिति बौद्धमतमुपपाद्य न्यायमतेन प्रतिबन्धा निराकृतम् तार्किकस्य प्रतिबन्दिबलाद् बौद्धमतखण्डनं न युक्तं किन्तु बौद्धोक्तदोषकदम्बकस्य स्वरूपसहकारिशक्त्यादिकरम्बितेऽर्थेऽवकाश एव नास्तीत्युपदर्शितम्
९२-९६ ९७-९९ १००-१०६ १०७-११०
१११
०
११३ ११४-११५
११६ ११७-११८ ११९-१२३ १२४-१२५
१२६
१२७ १२८-१३५
१३६-१३७
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८ १३९-१४१
१४२-१४५
१४६-१५१ १५२-१५३ १५४-१५५
१५६-१६० १६१-१६२
૨૬૩ १६४-१७२ १७३-१७४
१७६-१७७ १७८-१७९
जैनराद्धान्ते संयोगादिवैशिष्ट्यावगाहिप्रत्यक्षनिगमनम् केवलवर्तमानस्य प्रत्यक्षे भानमिति बौद्धमतस्योमूलनम् पूर्वापरयोः प्रत्यक्षे न भानमित्यस्य खण्डनेन तद्विशिष्टबुद्धेर्निगमनं, सान्निध्यस्य न प्रत्यक्षे नियामकत्वं किन्तु प्रतिनियतयोग्यत्वस्यैवेति दर्शितं च पूर्वापरयोः प्रत्यक्षेडभाने सुगतस्य सर्वज्ञत्वानुपपत्तिरुपदर्शितदण्डादिविशिष्टतया शबलात्मकवस्तुनः प्रत्यक्षस्य प्रतिनियतवचसोल्लेखे बीजमुपदर्शितम् बौद्धाभिमतस्य स्वात्मप्रतिष्ठितत्वस्य जैनमताश्रयणेन युक्तत्वमुपपादितम् वरतूनामन्यसमाश्रितत्वे बौद्धोक्तदूषणस्योद्धार: तत्र शब्दाश्रयतया निरंशमाकाशमभ्युपगच्छतो नैयायिकस्य मतमाशय शब्दस्य पौद्गलिकत्वव्यवस्थापनेन निराकृतम् श्रोत्रस्याऽऽकाशरूपत्वखण्डनम् चक्षुषः प्राप्यकारित्वखण्डनम् चक्षुषस्तैजसत्वापाकरणं विरतरतः तत्रैव तमसः पौद्गलिकत्वप्रदर्शनम् जगतो भिन्नाश्रितत्वनिगमनेन ततः सविकल्पकबुद्धथुपसंहरणम् तदाधारस्य तदाधेयविशिष्टत्वाविशिष्टत्वानेकान्तोपपादनेन सन्निकर्षस्य प्रत्यक्षे सर्वत्राऽनियामकत्वेन चाऽऽवृतदेशस्याऽपि विशिष्टप्रत्यक्षे भानमुपपादितम् योग्यत्वबलात् प्रतिनियतस्यैव पूर्वापरादेः प्रत्यक्ष भानमिति न सर्वस्य सर्वज्ञत्वापत्तिरित्युपदर्शितम्
॥ इति सविकल्पकवादपरिसमाप्तिः ॥ ज्ञाने साकारत्ववादिनां बौद्धानां पूर्वपक्षः तत्र सौत्रान्तिकयोगचारयोर्विशेषोपदर्शनम् स्याद्वादिनो बौद्धमतप्रतिविधानम् तत्र सौत्रान्तिकाभ्युपगतस्य विषयव्यवस्थाहेतोनिगतस्य साकारत्वस्य खण्डनम् वस्तुस्वभावस्य प्रतिकर्मव्यवस्थाहेतुत्वमुपपादितम्, तदनभ्युपगमे दोषश्चोपदर्शितः साकारत्वस्य विषयव्यवस्थाहेतुत्वेऽनवस्थादिदोषोपदर्शनम् सौत्रान्तिकस्य साकारत्वाभ्युपगमे बाह्यासिद्धेरापादनम् बााकारयोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावेनाऽनुमेयानुमापकभावस्याऽपाकरणम् नैयायिकोऽपि स्वभावविशेषमशरणीकृत्य विषयव्यवस्थां कर्तुं न शक्त इत्युपदर्शितम् साकारवृत्त्यभ्युपगन्तुर्वेदान्तिनोऽपि विषयव्यवस्थायां स्वभावस्यैव शरणीकरणीयत्वमिति तन्मते दोषोपदर्शनेन निष्टङ्गितम् बौद्धमतखण्डनातिदेशः साङ्ख्यमते स्वमते साकारानाकारयोरुपयोगयोरुपदर्शनम् अर्थाभिधानप्रत्ययानां समानशब्दाभिधेयत्वादेवाऽर्थशब्दाभिलाप्यत्वं ज्ञानेन तु साकारतयेति निष्टडितम् स्वमते समानशब्दाभिधेयत्वेन ज्ञानार्थयोः कथञ्चिदभेदोपदर्शनम् अनाकारविज्ञानाभ्युपगन्तृवैभाषिकमतखण्डनम्
१८०-१८३
१८४
१८५
१८६
१८७-१८८ १८९-१९० १९१-१९२ १९३-१९६
१९७
१९८-१९९
२००
२०१-२०२ २०३-२०४
२०५ २०६-२०७
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८-२०९ २१०-२११ २१२-२१४
२१५ २१६
२१७-२१८
२१९
२२०-२२२
૨૨૩
२२४
बाह्यापलापिनः साकारविज्ञानाभ्युपगन्तुर्योगाचारस्य मतं खण्डितम् तत्राऽभिन्नोपलम्भविषयत्वाज्ञानार्थयोरभेद इति तन्मतमाशङ्कयाऽपाकृतम् ज्ञानार्थयोरभेदे चित्राकारज्ञानानुपपत्तिः, तत्रातिरिक्तचित्राकारताया अपाकरणं च यथार्थक्रियासार्याद् बाह्ययोर्भेदस्तथा प्रतिभाससाज्ज्ञिानाकारयोरपि भेदरतत्रेति दर्शितम् ज्ञानार्थयोरभेदे ज्ञानं घट इत्याद्यापत्तिर्दर्शिता ज्ञानस्य तादात्म्यं विषयत्वनियामकमिति विज्ञानवाभिमतमपाकृतम सादृश्यस्य ज्ञानाद्यतिरिक्तत्वं व्यवस्थापितम् अर्थापलापे ज्ञानानां मिथोभेदप्रतीतेरनुपपत्तिः, गुरुशिष्यादिव्यवस्थानुपपतिः, मुक्ति रिति ज्ञानादेव मुक्तयापत्तिश्च दर्शिताः अर्थ विनाऽपि वासनाबलाज्ज्ञानानां भेद इत्यस्याऽपाकरणम् ज्ञानमात्रस्य स्वप्नोपमत्वमपाकृतम् ग्राहात्वादर्थस्य मिथ्यात्वे ज्ञानस्य तत्त्वापत्तिरुपदर्शिता विज्ञानवादिनः कथायामप्रवेश उपपादितः वाद्यादीनां वैज्ञानिकं सत्त्वमाशचाडपाकृतम् ज्ञानार्थयोः सदसतोस्तन्मतेऽभेदान्पपत्तिर्दर्शिता बाह्यवादे भेदाभेदादिविकल्पेनाऽर्थरयाऽज्ञानेन ग्रहणं न सम्भवतीत्याशोदाव्य व्युदरता विज्ञानवादिनस्तादात्म्यस्य ग्राह्यत्वनियामकत्वे ज्ञाने क्षणिकताद्यनुमानवैयर्थ्यतदसम्भवादेरुपदर्शनम् तन्मतेडण्वात्मकरय ज्ञानस्याऽसिद्धिः प्रतिपादिता ज्ञानं विनाऽप्यर्थस्य सत्त्वं प्रतिपाद्य दृष्टिसृष्टिखण्डनम् ज्ञानाभावस्याऽर्थाभावासाधकत्वमुपपादितम् बाह्यमपलपतो योगाचारस्य वेदान्तिमताश्रयणमर्थत आपादितम् विरुद्धधर्माध्यासादेकरय वेदान्त्यभ्युपगतस्याऽऽत्मनोऽसम्भवश्चेत् क्षणिकविज्ञानमप्येकं तदा न सम्भवतीत्युपपादितम् एकस्य धर्मद्वयानभ्युपगमे एकस्याऽऽलयप्रवृत्तिविज्ञानद्वयोपादानत्वानुपपत्तिः क्षणिकविज्ञानवादे बन्धमोक्षव्यवस्थानुपपत्तिरावेदिता उदयनाचार्यसम्मतिश्च माध्यमिकस्य शून्यवादिनः प्रश्न: तत्र आत्मादीनां विचारासहत्वं प्रतिज्ञातम् वस्तुत आत्मादीनामभावेऽपि संवृतिसत्त्वाद् व्यवहारोपपादनम् अनवस्थायाः संवृतिसत्त्वस्य शून्यत्वे पर्यवसानं सूचितम् ग्राह्यस्याऽखण्डरूपत्वाद्यपाकरणम् कारणं तदन्यो वा ज्ञानस्य विषयो न सम्भवतीति विकल्पनिकरेणाऽऽवेदितम मानाधीनाया व्यवस्थाया असम्भव आवेदितः ज्ञाने प्रमाभ्रमरूपविशेषनिराकरणम् ज्ञाने भ्रमत्वसाधकस्य बाधितगोचरत्वस्योन्मूलनम् ज्ञानार्थयोरन्योन्यस्मिन् फलकारित्वतदभावयोर्दोषोपदर्शनम्
२२५
२२६ २२७-२२८
२२९ २३०-२३३ २३४-२३८
२३९
२४० २४१-२४२
२४३
२४४-२४७
२४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३
२५४
२५५-२५७
२५८
२५९
२६०-२७२ २७३-२७५
___10
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६-२७८
२७९ २८०-२८१
२८२
ज्ञाने प्रामाण्यस्य भ्रमत्वस्य चाऽसिद्धिरुपपाद्य शून्यत्वनिगमनम् शून्यवादिमतखण्डनम् तत्र जगदलीकत्वसाधक विचारस्य सत्त्वासत्त्वयोर्दोषोपदर्शनम् शून्यत्वस्य तत्साधकप्रमाभावाभावयोरसिद्व्युपदर्शनम् जगतो ज्ञानानधीनं सत्त्वमुपदर्शितम् । ज्ञानस्य जैनमते स्वसंविदितत्वेन संवृतिसत्त्वपक्षदोषोद्धार: शून्यत्ववादिनो ग्राह्यखण्डनस्य खण्डनम् तत्र घटादे: स्थूलत्वाणुत्वाद्युपदर्शनम् क्षयोपशमविशेषादेविषयत्वनियामकत्वमावेदितम कारणखण्डनयुक्ते रपाकरणम् मानावस्थायाः परिहार: जाग्रत्स्वप्नबोधयोर्वैलक्षण्योपदर्शनम् स्वप्नेडप्रथननिराकरणेनाऽन्यथाप्रथनरय व्यवस्थापनम् न्यायसाठ्यजैमिनीयेष्वन्यथाप्रथनं वेदान्ते त्वनिर्वचनप्रथनं स्वप्ने प्रदर्शितम स्वप्ने सत्ख्याति: सदृष्टान्तमुपवर्णिता भ्रमानभ्युपगन्तृप्रभाकरमतमुपदर्शितम् भ्रमाणां वैलक्षण्यमन्यथाप्रथन एवेत्युपदर्शितम् शशशृङ्गादिवाक्याद् बोधोपपत्तिरन्यथाप्रथन एवेतिदर्शितम् भ्रमत्वेऽनुभवः प्रमाणतया दर्शितः, तेन च प्रभाकररयाऽपि प्रतिक्षेपः भ्रमे बाधितार्थाविषयत्वखण्डनस्य खण्डनं बाधकानां व्यवस्थापनेन स्वप्नजाग्रद्दशयोर्भदव्यवस्थापनम् अर्थक्रियाज्ञानप्रामाण्यस्य स्वतस्त्वोपपादनेन शून्यवादिकृततत्खण्डनस्य खण्डनम् शून्यवादिकृतप्रामाण्यासिद्धिखण्डनरय न्यायमीमांसयोरवकाश आवेदितः संवादखण्डनस्य खण्डनं संवादकव्यवस्थापनेन अर्थज्ञानयोाह्यग्राहक भावस्य स्वभावतो व्यवस्थापनम् ज्ञानस्य ग्राहात्वं ग्राहकत्वं च निमित्तभेदेन व्यवस्थापितम् एकान्तवादमवलम्ब्य प्रदर्शितानां दोषाणां स्याद्वादे नाऽवकाश इत्यावेदितम् अर्थसिद्धि प्रामाण्यसिद्धिं चाऽऽवेद्य तन्न्यायेन भ्रमत्वसिद्धिरावेदिता अर्थखण्डनप्रवणस्य शून्यवादिनो नैरात्म्यदर्शनेऽपि नाऽभीष्टसिद्धिः स्याद्वादाश्रयणमन्तरेति दर्शितम
॥ इति शून्यवादिमतखण्डनम् ॥ ज्ञानातिरिक्तस्येन्द्रियादेः प्रमाकरणत्वेन प्रामाण्यं, नैयायिकसम्मतं द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियस्वरूपनिरूपणम् नैयायिकसम्मतस्येन्द्रियस्याऽर्थमतावहेतुत्वमुपपादितम् मनसोडणुत्वमपाकृत्य महत्त्वं व्यवस्थापितम लब्धीन्द्रियक्रमवशान्नेत्रादिज्ञानक्रमस्य मनसोऽनिन्द्रियत्वरय चोपदर्शनम् ज्ञानमात्रस्य स्वांशे प्रमात्वमर्थांशे च कस्यचित् प्रमात्वं कस्यचिच्चाऽप्रमात्वमित्युपदर्शितम्
२८३
२८४ २८५-२८६
२८७
ર૮૮ २८९-२९०
२९१ २९२-२९३ २९४-२९५
२९६ २९७ २९८ २९९
३०० ३०१-३०२ ३०३-३०८
३०९ ३१०
३१२-३१४ ३१५-३१६ ३१७-३१८
३१९
३२०
३२१-३२२
. ३२३-३२५
३२६ ३२७ ३२८ ३२९
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२ ३३३
३३८
जैनमते प्रामाण्याप्रामाण्ययोरुत्पत्तौ परतस्त्वं, ज्ञप्तौ स्वतस्त्वं परतरत्वं च, मीमांसककापिलयोश्च प्रमात्वमुत्पत्तिज्ञप्तिफलेषु स्वत इति दर्शितम्
३३० वेदान्तिनये प्रमात्वस्य स्वतस्त्वं, न्यायनये प्रामाण्याप्रामाण्ययोः परतस्त्वं, बौद्धमतेऽपि तथैवार्थांशमवलम्ब्येति दर्शितम्
३३१ उपदर्शितेष्वेकान्तत्वमानं जैनबाध्यमित्युपदर्शितम् मीमांसकमतोन्मूलनाय प्रामाण्ये गुणजन्यमसाधकमनुमानमुपदर्शितम् मीमांसकसम्मतस्य प्रत्यक्षे गुणबाधकत्वस्य दोषबाधकत्वापत्तिप्रतिबन्धाऽपाकरणम्
३३४ शक्तिरूपप्रमात्वस्य स्वतस्त्वं शक्तिरूपाप्रमात्वस्वतस्त्वप्रतिबन्धाऽपाकृतम् प्रमात्वस्य कारणागतत्वात स्वतस्त्वमित्यस्य ज्ञानत्वभ्रमत्वयोस्तत्त्वापत्तिप्रतिबन्धाऽपाकरणम शक्तिशक्तिरेककारणकत्वं सदृष्टान्तमुपदर्शितम् प्रमायां दोषाभावस्य कारणत्वेऽप्यतिरिक्तभावाजन्यत्वेन स्वतस्त्वमित्यस्य खण्डनम् दोषस्य गुणाभावरूपत्वेन भ्रमस्यैव स्वतस्त्वमिति मीमांसकमते दोषप्रदर्शनम्
३३९ गुणदोषयोः समानमानत्वमुपदर्शितम्
३४० प्रमात्वस्यौत्सर्गिकत्वमपाकृतम्
३४१ प्रमात्वस्यौत्सर्गिकत्वं प्रतिबन्धाऽऽपादितम
३४२-३४३ प्रामाण्यस्य जनकज्ञाने ज्ञप्तिः परत उपदर्शिता
३४४ प्रामाण्यरयाऽर्थक्रियाज्ञाने ज्ञप्ति जिनमत उपपाद्याऽनवस्था परिहृता
३४५ प्रामाण्यरय स्वतो ज्ञप्तौ संशयानुपपत्तिरुपदर्शिता
३४६ प्रामाण्यस्य जैनमते कथञ्चिज्ज्ञानस्वरूपत्वेऽपि तदंशे क्षयोपशमविशेषाभावान्न स्वसंविदितेन ज्ञानेन पूर्वं ग्रहणमिति दर्शितम्
३४७ केवलज्ञाने प्रामाण्यस्य स्वत एव ग्रहणमुपदर्शितम्
३४८ प्रामाण्यस्य ज्ञप्तौ संवादित्वाद्यपेक्षामनङ्गीकुर्वतो मीमांसकस्य बुद्धागमोऽपि प्रमाणं स्यादिति दर्शितम् ३४९ बाधिक बोधकत्वेन बुद्धागमस्याऽप्रामाण्ये बाधाभावस्य प्रामाण्यसाधकमिति दर्शितम
३५० बाधाभावस्य तन्मते संवादितादौ पर्यवज्ञानं दर्शितम् स्वागमे नित्यत्वतः प्रामाण्यमिति मीमांसकाभ्युपगमस्य खण्डनम्
३५२ दोषमुक्त पुरुषापलापतो वेदे प्रामाण्याभ्युपगमेऽप्रामाण्यमेव ततः स्यादित्यावेदितम्
३५३-३५४ एकान्तेन नित्यत्वस्यानित्यत्वस्य चाऽभाव उपदर्शितः शब्दानां ध्वनिव्यङ्गयत्वं मीमांसकसम्मतमपाकृतम्
३५६-३६१ शब्दाप्रत्यक्षनिमित्ततया वायूनामावरणत्वकल्पनमपाकृतम्
३६२-३६६ नित्ये शब्दे क्रमासम्भवप्रदर्शनम्
३६७-३६८ पौगलिकस्याऽपि शब्दस्य मध्यदेशाविनाशश्रुतिप्राप्त्योरुपपादनं सदृष्टान्तम्
३६९-३७० अनित्ये शब्दे परस्य शक्तिग्रहाद्यसम्भवाशङ्कोदाव्य पराकृता
३७१-३७३ जातिशक्ति वादं व्यक्तिशक्तिवादं चापाकृत्य स्वसिद्धान्तितसामान्यविशेषोभयात्मकवस्तुशक्तिवादस्योपदर्शनम् ३७४-३७५ सामान्यविशेषोभयात्मकस्य शब्दस्य शक्तत्वव्यवस्थापनम्
३७६ नित्यत्वेन वेदे दोषाभावादप्रामाण्याभाव इत्यस्य तथैव गणाभावात् प्रामाण्याभाव इति प्रतिबन्धाऽपाकरणम ३७७
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७८ ३७९-३८१
રૂ૮૨
३८३ ३८४-३८५ ३८६-३८७ ३८८-३८९
३९०
३९१
स्मर्यमाणकर्तृकत्वाद् बौद्धागमादिवद् वेदे पौरुषेयत्वव्यवस्थापनम् सिद्धार्थकस्य वचनस्य न प्रामाण्यमित्याशङ्कय निराकृतम् सिद्धार्थात् कर्तुरस्मरणे बौद्धागमादेरपौरुषेयत्वापादनम् सर्वज्ञविचार: तत्र वक्तृत्वत: सर्वज्ञत्वाभावसाधनस्य खण्डनम् आगमात्मक कार्यविशेषेण सर्वज्ञसिद्धिरुपदर्शिता सर्वज्ञे रागादेरात्यन्तिकः क्षयः प्रसाधितः मीमांसकस्य सर्वज्ञानभ्युपगन्तुः पूर्वपक्षः तत्र सर्वज्ञे प्रत्यक्षप्रमाणाभाव उपदर्शितः सर्वज्ञेऽनुमानोपमानयोरभाव उपदर्शितः सर्वज्ञ आगमप्रमाणस्याऽपाकरणम् सर्वज्ञः समानकालिकैभिन्नकालिकैश्च ज्ञातुभशक्योऽर्थापत्तिरपि न तत्र प्रवर्तते इत्युपदर्शितम् अभावप्रमाणादपि न सर्वज्ञसिद्धिरिति दर्शितम् सर्वज्ञानस्योत्पत्त्यसम्भवः, तत्रेन्द्रियस्य तदुत्पादकत्वखण्डनम् सर्वज्ञानस्य नेत्रादिजन्यत्वे प्रतिनियतविषयत्वमेव स्यादित्युपपादितम् सर्वज्ञानस्य मनसाऽप्युपपत्तिरपाकृता सर्वज्ञानस्याउलौकिकसन्निकर्षजत्वमपाकृतम् सर्वज्ञानस्य लिङ्गादुत्पतिरपाकृता लिङ्गजन्यज्ञानवतः सर्वज्ञत्वमपहरिततम् सर्वज्ञानस्योपमानादुत्पत्तिरपाकृता आगमस्य सर्वज्ञानजनकत्वमपाकृतम् सर्वज्ञानस्यार्थापत्त्योत्पत्तिः पराकृता सर्वज्ञानस्याऽभ्यासजन्यत्वमपाकृतम् सर्वज्ञस्य भ्रान्तिज्ञत्वाद् भ्रान्तत्वापादनम् सर्वज्ञानुमाने प्रत्यक्षानुमानबाधोपदर्शनम् सर्वज्ञत्वाद्यभावसाधकानामनुमानानामुपदर्शनम् सर्वज्ञानुमाने उपमानबाधोपदर्शनम् सर्वज्ञानुमाने आगमबाधोपदर्शनम् सर्वज्ञानुमाने अभावप्रमाणबाधोपदर्शनम् सर्वज्ञे कीटादिज्ञानस्य वैयर्थ्यमुपदर्शितम् परदुःखं साक्षात्कुर्वतः सर्वज्ञस्य दुःखित्वापादनम् मीमांसकमतखण्डनम् तत्र प्रत्यक्षतत्पूर्वकानुमानयोः सर्वज्ञत्वसाधकत्वखण्डनस्येष्टापत्त्या परिहार: सर्वज्ञानसाधकानि सामान्यतोदृष्टानुमानानि दर्शितानि आगमस्य सर्वज्ञसाधकत्वं व्यवस्थापितम्
३९२ ३९३-३९५ ३९६-३९७
३९८
३९९ ४००-४०२
४०३ ४०४-४०५
४०६ ४०७-४०८
४०९ ४१०
४११ ४१२-४१३
४१४
४१५ ४१६-४१७
४१८ ४१९ ४२०
४२१
४२२ ४२३
४२४ ४२५-४२८
४२९
13
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं निष्टडितम्
४३०-४३१ अभ्यासाज्ज्ञाने प्रकर्षनिष्ठा सदृष्टान्तमुपवर्णिता
४३२ सर्वज्ञस्य भ्रान्तिज्ञत्वेऽपि न भ्रान्तत्वमिति व्यवस्थापितम
४३३-४३४ सर्वज्ञे प्रत्यक्षानुमानवाधयोरुद्धारः
४३५ सर्वज्ञेऽनुमानबाधरय जैमिन्यादौ मीमांसकत्वादेरनुमानवाधप्रतिवन्द्याऽपाकरणम्
४३६-४३७ सर्वज्ञस्य स्वसमकालिकादिभिनित्वं सदृष्टान्तमुपपादित
४३८-४३९ उपमानस्य सर्वज्ञबाधकत्वमपहस्तितम्
४४० परदुःखसाक्षात्करणेऽपि सर्वज्ञस्य न दुःखित्वमित्युपदर्शितम्
४४१ मीमांसकलक्षणलक्षितस्य प्रमाणस्य निराकरणम्
४४२-४४९ भट्टाभ्युपगतज्ञातताया अपाकरणम्
४५०-४५४ भट्टमते जप्तेर्जानरूपव्यापारानुमापकत्वस्य खण्डनम्
४५५-४५६ प्राभाकरस्य भ्रमस्थले विवेकाख्यातिमभ्युपच्छतो मतं निराकृतम्
४५७-४५९ प्रामाण्यस्य ज्ञप्ताविव कार्येऽपि परतरत्वं व्यवस्थापितम्
४६० वेदान्तिमतखण्डनम्
४६१-४६२ तदभिमतस्याऽऽविद्यकत्वस्याऽपाकरणम्
४६३-४६४ मिथ्यात्वसाधकं न किमपि प्रमाणमित्युपदर्शितम्
४६५ मिथ्यात्वसाधकानुमानस्य तत्साधक दृश्यत्वादेरपाकरणेन खण्डनम्
४६६-४६८ शब्दस्य मिथ्यात्वसाधकत्वं खण्डितम्
४६९ जगतो ब्रह्मात्मकत्वस्य खण्डनम्
४७०-४७१ उत्पादव्ययधौव्यरूपायां सत्तायां मायेति नामान्तरकरणं परस्येति दर्शितम्
४७२-४७३ स्वप्रकाशे ब्रह्मणि अविद्याया असम्भव उपर्शितः
४७४ नियुक्तिकवैदान्तिप्रक्रियाश्रयणस्याऽयुक्तत्वमावेदितम् न्यायमतखण्डनम्
४७६ तत्र तन्मतसिद्धानां प्रमातृप्रमातत्सम्बन्धानामप्रामाणिकत्वमुपदर्शितम्
४७७ आत्मनि नित्यत्वपरममहत्त्वयोरपाकरणम्
४७८ आत्मनि स्वदेहसमानमानावगाहिप्रत्यक्षस्य परममहत्परिमाणबाधकत्वमुपदर्शितम्
४७९ आत्मनोऽपकृष्टपरिमाणत्वेऽपि न जन्यत्वापत्तिरित्युपपादितम्
४८० आत्मनस्तत्परिमाणस्य च कथञ्चिज्जन्यत्वं प्रसाधितम्
४८१ आत्मनः स्वदेहसमानमानत्वे देहावयवखण्डनवृद्ध्यादिना तद्देशखण्डनवृद्धयादिप्रसअनस्येष्टापत्त्या परिहरणम् ४८२ आत्मप्रदेशस्य खण्डितशरीरावयवप्रवेशे युक्तिरुपदर्शिता
४८३ अपकृष्टपरिमाणत्वेनाऽऽत्मनः सावयवत्वादिप्रसङ्गरयेष्टापत्त्या परिहरणम् आरम्भकसंयोगनाशाद् द्रव्यनाश इति न्यायमतस्याऽपाकरणम् आत्मनि देहसमानमानत्वेऽनुमानं दर्शितम्
४८६ नित्यविभ्वात्मवादे बन्धाद्यनुपपत्तिरुपदर्शिता
४८७ अदृष्टस्य सर्वकार्यकारणत्वानुरोधेनाऽऽत्मनो विभुत्वाभ्युपगमस्याऽपाकरणम्
४८८-४८९
४८४ ४८५
14
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०१
५०३
५०७
अदृष्टस्य कारणत्वमपि शक्त्यैवेति न ततोऽप्यात्मविभुत्वमित्युपपादितम्
४९०-४९३ कारणत्वस्य शक्तयात्मकत्वमुपवर्णितम्
४९४ विभुवादे गौरवोपदर्शनम्
४९५-४९८ अरवसंविदितज्ञानवादिनी नैयायिक स्य न ज्ञानसिद्धिर्न वा विभोरात्मनरतत्तच्छरीरनियमसिद्धिर्न वाऽदृष्टात्मनः रवस्वामिभावनियमसिद्धिरिति दर्शितम्, ईश्वरवादारम्भरतत्र सर्वाधिष्ठायकतयेश्वरमङ्गीकुर्वतो नैयायिकस्य पूर्वपक्षः ४९९ ईश्वरानुमानस्य कार्यं सकर्तृकमित्यस्योपदर्शनम्
५०० ईश्वरस्य नित्यत्वविभुत्वे, तज्ज्ञानस्य नित्यत्वसर्वविषयत्वे चोपदर्शिते तदुक्तागमस्य तत्र प्रामाण्यं तत्प्रतिक्षेपकानुमानाप्रवृत्तिश्चेति दर्शितम्
५०२ ईश्वरकर्तृत्वखण्डनम् तवाऽचेतनं चेतनसव्यपेक्षमेव कार्यजनकमित्यस्य खण्डनम्
५०४ कार्यसामान्यस्य कारणसामान्येनैव व्याप्तिर्न तु कषेति दर्शितम्
५०५ कर्तुः कार्यविशेषेण व्याप्तिर्दर्शिता
५०६ इन्द्रमूओं नरकर्तृकत्वापादनप्रतिबन्या कार्यमा सकर्तृकत्वनियमरयोन्मूलनम् शरीररहितस्य कर्तुरुपगमो निराकृतः
५०८ कार्यत्वरय कारणजन्यत्वादिसाधकत्वमेव नेश्वरजन्यत्वसाधकत्वमित्यत्र युक्तिरुद्घाटिता
५०९ कार्यत्वहेतावसिद्धयाधुपदर्शनम्
५१० कार्यत्वसाधकरय सावयवत्वस्य खण्डनम् ज्ञानत्वेन साम्येऽप्यस्मदादिज्ञानविलक्षणमीश्वरज्ञानं नित्यत्वस्वसंचिदितत्वादिनाऽभ्युपगच्छतो नैयायिकरय क्षित्यादिकमप्यकर्तृकत्वेन घटादिविलक्षणमस्त्विति दर्शितम्
५१२-५१४ ईश्वरज्ञानस्य सर्वगतत्वापादनम्
५१५-५१७ कर्तृत्वस्वरूपपर्यालोचनेन दोषोपदर्शनम
५१८-५१९ कर्तुः सकलजनकावगतिमत्वस्याऽपाकरणेन तादृशेश्वरस्याऽसिद्ध्युपदर्शनम्
५२०-५२१ सामान्यतः कार्येण सहाऽनुविधानाभावाच्छरीरस्येव कर्तुरकारणत्वमुपदर्शितम्
५२२ व्यतिरेकाभावान्नेश्वरस्य कारणत्वमित्युपदर्शितम्
५२३-५२४ सर्वदा सर्वकार्यजननप्रसङ्ग ईश्वरकर्तृवादे दर्शितः
५२५ सहकार्यन्तरापेक्षयेश्वरस्य कर्तृत्वमित्यस्य खण्डनम्
५२६-५३१ प्रयोजनाभावादीश्वरस्य प्रपञ्चकरणप्रवृत्त्यनुपपत्त्युपदर्शनम् कारुण्यक्रीडादित ईश्वरप्रवृत्तेरपाकरणम्
५३३-५३४ धर्माद्यपेक्ष्येश्वरस्य विचित्रसृष्टौ स्वातव्यहानिः स्वातव्ये वा सुखिमात्रसज्जननमित्युपदर्शितम्
५३५-५३६ स्वसन्ततौ पापं मोत्पादयतु ज्ञानमुत्पाद्यैव वा तं विनाशयतु तेनाऽपि कारुण्यमीश्वरे भविष्यतीत्यर्थस्योपदर्शनम्
५३७-५३८ दण्डादिकारित्वे ईश्वरस्य नृपसाम्यं पराभिप्रेतं दृष्टान्तदाान्तिकयो।लक्षण्यप्रदर्शनेनाऽपाकृतम्
५३९-५४१ ईश्वरस्य धर्माद्यधिष्ठायकत्वापाकरणम्
५४२ क्षेत्रज्ञाधिष्ठायकत्वेनेश्वरसिद्धिराशङ्कय निराकृता
५४३-५४४ धर्म्यसिद्धेरदोषत्वेन विकल्पतो धर्मिसिद्ध्या चेश्वरे शरीरित्वादिप्रसङ्गस्योपपादनम्
५४५-५४६
15
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनराद्धान्तेऽपीश्वरस्याऽभ्युपगतत्वेन तत्खण्डनं कर्तृत्वखण्डनपरमित्युपदर्शितम्
५४७ तीर्थङ्करे तीर्थकृत्त्वमुपपादितम्
५४८-५४९ कर्मणः पौद्गलिकत्वमुपदर्शितम्
५५० चार्वाकमतोपवर्णनम् तत्र न जीवः स्वर्गादिगामी देहव्यतिरिक्तोऽस्ति न वा परलोकः न च प्रत्यक्षभिन्नं मानमित्याद्युपदर्शितम् ५५२-५५३ भूतस्यैव चैतन्यं सदृष्टान्तमुपवर्णितम्
५५४-५५५ प्रत्यक्षाभावादात्मनोऽसिद्धिरुपदर्शिता अहम्प्रतीतेः शरीरविषयकत्वव्यवस्थापनम् आत्मनि न लिङ्गं नाऽपि व्याप्तिग्रहस्तदुपायतर्कादिसम्भव इत्यनुमानीभाव आवेदितः
५५८-५६२ गौणत्वतोऽनुमानस्याऽप्रामाण्यमुपदर्शितम्
५६३-५६४ सामान्यस्य विशेषस्य तदुभयस्य च साध्यत्वं निराकृतम्
५६५-५६६ अनुमानस्य सम्भावनात्वस्मृतित्वे दर्शिते
५६७ अनुमितित्वस्याऽसत्ख्यात्या भानमुपदर्शितम्
५६८ अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वं व्यवस्थापितम्
५६९-५७० साडूर्यस्याडबाधकत्वत आत्मत्वजातेहगतत्वमुपपादितम् शरीरस्याऽऽत्मत्वे संयोगसन्निकर्षाकल्पनलाघव उपदर्शितः
५७२ ज्ञानरय विभिन्नजातीयकारणप्रभवत्वं वृश्चिकदृष्टान्तेनोपपादितम
५७३-५७४ ज्ञानादेः शरीरधर्मत्वे युक्त्युपदर्शनम् बालस्य स्तन्यपाने प्रवृत्तिः स्वभावात् सदृष्टान्तमुपवर्णिता
५७६-५७७ कार्यकारणभावस्याऽसत्त्वमुपदर्शितम्
५७८ भूतेषु प्रत्येकं चैतन्यस्याऽसत्त्वेऽपि तत्समुदायविशेषे सत्त्वमुपपादितम्
५७९-५८० मृतशरीरे चैतन्याभावे हेतूपदर्शनम् आत्मादेः साधकबाधकप्रमाणयोरसत्त्वेऽपि तन्निषेधकबृहस्पतिसूत्राणामापादनपरतयोपपादनम्
५८२-५८४ चार्वाकमतखण्डनम् तत्राऽनुमानानभ्युपगमे चार्वाकस्य परगताज्ञानादेः परगतस्वर्गाद्यभ्युपगमस्य च ज्ञानं दुश्शक्यमिति दर्शितम् ५८६-५८७ सत्त्वस्य प्रत्यक्षविषयत्वेन व्याप्तावनुमानस्याऽव्याप्तावात्मनश्च सिद्धिरुपदर्शिता
५८८-५८९ मेयव्यवस्थाया मानेन व्याप्तावनुमानस्याऽव्याप्तौ शशशृङ्गादे: प्रमेयत्वस्य चाऽऽपादनम्
५९० आत्मस्वादृष्टेर्निखिलादृष्टेडिभावोपगमे दोषप्रदर्शनम्
५९१-५९३ लोक सिद्धानुमानाभ्युपगमे तदविशेषात् परलोकाद्यनुमानाभ्युपगमोऽपीति दर्शितम्
५९४ प्रत्यक्षे प्रामाण्याभ्युपगमे तत्साधकतयाऽनुमानाभ्युपगमोऽपीति दर्शितम्
५९५ आप्तागमस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापितम्
५९६ स्वर्गादिसिद्धिरावेदिता आगमप्रामाण्याभ्युपगमश्चार्वाक स्याऽऽवश्यक:
५९८-६०० देहस्य चैतन्यमपाकृतं भूतव्यतिरिक्तत्वादिविकल्पनेन
६०१-६०२ मोदकादेः कथञ्चिद्धविर्गुडाद्यभिन्नत्वम्
६०३-६०४
16
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०५ ६०६-६०७ ६०८-६०९
६१०
६१५-६१६ ६१७-६१८ ६१९-६२०
६२२ ६२३-६२७
६२८
६२९-६३३
६३४ ६३५-६३६
प्रत्येकावृत्तेः समुदायावृत्तित्वं च व्यवस्थाप्य चार्वाकोक्तदृष्टान्तोन्मूलनम् प्रत्येक भूतगतायाश्चैतन्यशक्तेरपाकरणम् प्रत्यक्षाभावाच्छशशृङ्गवदात्मा नाऽरतीत्यस्य खण्डनम् परात्मनि स्वात्मनि च मानमुपदर्शितम् । अहमिति प्रतीतेन शरीरविषयत्वं किन्त्वात्मविषयत्वमित्युपपादितम् व्याप्तिग्रहः परेणापि स्वीकरणीयो न चाऽनुमानमन्तराव्यभिचारशङ्काऽपीति दर्शितम् अन्यथानुपपन्नतामात्रस्य सद्धेतुलक्षणस्य सतर्कस्य न चार्वाकशङ्काभीतिरिति दर्शितम् प्रत्यक्षादितो न व्याप्तिग्रहः किन्तूहप्रमाणादिति दर्शितम् शब्दवृत्तेगौणत्वेऽप्यबाधितत्वादनुमानस्य प्रामाण्यं निष्टङ्गितम् पक्षधर्मताया अनुमित्यनङ्गत्वेन पक्षप्रयोगस्य गौणत्वादिविकल्पनमनवसरोपहतमेवेति दर्शितम् पक्षधर्मताया अनुमित्यनङ्गत्वं व्यवस्थापितम् सामान्यविशेषोभयात्मकस्य साध्यत्वेन न चार्वाकदोषावकाश इति दर्शितम् अनुमितेः सम्भावनात्वे तत्र संवादाभिमानात् प्रामाण्याभिमानस्याऽसम्भवः प्रदर्शितोऽनुमितेरावश्यकता च दर्शिता सम्भावनायां प्रमात्वस्य खसंविदितत्वासम्भवः प्रदर्शितः सामान्यस्य सत्त्वं व्यवस्थाप्य तद्विषयत्वेनाऽनुमानस्य प्रामाण्यं दर्शितम् चार्वाकमते संशयात्मिकायाः सम्भावनाया उत्पत्त्यसम्भव उत्पादितः अनुमितेः स्मृतित्वमपाकृतम् असत्ख्यातिं निरस्याऽनुमितित्वस्य तदुपनीतत्वं निराकृत्य प्रत्यक्षत्वस्याडसत्त्वमापादितं च सविकल्पस्याऽप्रमात्वे प्रत्यक्षत्वस्याऽसिद्धिरुपदर्शिता अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वमपाकृतम् आत्मत्वजातेहगतत्वे चाक्षुषत्वप्रसञ्जनम् आत्मत्वस्य देहगतत्वे संयोगसन्निकर्षाकल्पनलाघवस्य स्वमतेन न्यायमतेन च खण्डनम वृश्चिक दृष्टान्तेन ज्ञानस्य विजातीयहेतुभवत्वेऽप्येक जात्यमित्यस्य खण्डनम् अभ्यासस्यैवैकस्य ज्ञानसामान्ये हेतुत्वं व्यवस्थापितम् देहवृद्ध्या नियमेन चैतन्यवृद्धेदेहविकाराच्चैतन्यविकारस्य च खण्डनम् देहस्य चैतन्ये स्मृत्यनुपपत्तिरुपपादिता कार्मणशरीरसिद्धिरुपदर्शिता बालस्य स्तन्यपाने प्रवृत्तिः पूर्वभवसंस्काराधीनैव न तु स्वभावादित्युपपादितम् कार्यकारणभावव्यवस्थापनम् त्रित्वादिदृष्टान्तेन प्रत्येकावृत्तेरपि चैतन्यस्य भूतसमुदायवृत्तित्वमित्यस्य खण्डनम् देहे चैतन्यस्य व्यासज्यवृत्तित्वादिविकल्पनेन खण्डनम् मृतशरीरे प्राणाभावाच्चैतन्याभाव इत्यस्य खण्डनम् मृतशरीरे चार्वाकमते चैतन्यापत्तेदृढीकरणम् व्याप्तिं विना प्रसङ्गस्याऽपि न प्रवृत्तिरिति दर्शितम्
६३८-६४०
६४१ ६४२-६४६
६४७
६४८-६५० ६५१-६५२ ६५३-६५५ ६५६-६५८ ६५९-६६० ६६१-६६२ ६६३-६६८ ६६९-६७१ ६७२-६७५ ६७६-६७७ ६७८-६७९ ६८०-६८३
६८४
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९१
साङ्ख्यमतप्रदर्शनम् तत्र प्रकृतिस्वरूपोपवर्णनम्
६८६ बुद्धेर्महत्तत्त्वस्य स्वरूपोपवर्णनम्
६८७-६८८ ज्ञानस्य प्रमायाश्च स्वरूपोपदर्शनम्
૬૮૭ बुद्धिपुरुषयोरन्योन्यस्मिन् प्रतिबिम्बनतश्चैतन्यकर्तृत्वयोरुपदर्शनम्
६९० पग्वन्धन्यायेन कार्यार्थं बुद्धिपुरुषयोरन्योन्यापेक्षापुरुषभोक्तृत्वादयश्चोपदर्शिताः पुरुषस्य न संसारापवर्गों किन्तु प्रकृतेरेवेति दर्शितम्
६९२ पञ्चविंशतितत्त्वानि कपिलसम्मतान्युपदर्शितानि
६९३-६९६ पञ्चविंशतितत्त्वज्ञानस्य मुक्तिः फलतयोपवर्णिता
६९७ साड्ख्यमतखण्डनम्
६९८ तत्र सत्कार्यवादस्य खण्डनम्
६९९ साङ्ख्यानामसत्कार्यवादनिराक्रिया न स्याद्वादे किन्तु न्यायमत एवेति दर्शितम्
७०० घटादीनां सत्त्वगुणादित्रितयात्मत्वस्याऽपाकरणम्
७०१-७०२ सुखाद्यात्मकस्य बाहास्य बुद्धौ प्रतिबिम्बनतः सातादिनियतपरिणामस्याऽपाकरणम्
७०३-७०४ स्वतुल्यबहिरर्थगुणव्यपेक्षाबुद्धेः सातादिनियतपरिणतिरित्यस्य खण्डनम्
७०५-७०७ बाह्यस्य स्वद्रष्ट्रपुरुषभेदाद् भेदमुपगम्य सातादिनियतपरिणामोपपादनस्य खण्डनम्
७०८ बुद्धौ पैचित्र्यतः सातादिनियतपरिणामसम्भवाद् बाह्यस्य सुखाद्यात्मकत्वोपगमो न कार्य इति दर्शितम् ७०९-७११ आत्मन एव कर्तृत्वादिकं न तु प्रकृत्यादिकल्पनेन कृत्यमिति दर्शितम्
७१२ आत्मनि दुःखाद्यसम्भव आशङ्कय परिहृतः सत्या अपि बुद्धेर्यथा न मुक्तौ कार्ययोगरतथा स्वाभाविकस्याऽपि दुःखादेर्न मुक्तौ सम्भव इति प्रतिपादितम् ७१६-७१७ कार्मणस्यैव भङ्यन्तरेण लिङ्गतयाऽभ्युपगमनं कपिलस्य
७१८-७१९ उत्पादव्ययधौव्यरुपसत्त्वस्यैव प्रकृतिरिति परिभाषेति दर्शितम्
७२० वृत्तिक्रमोऽपि साङ्ख्यस्याऽवग्रहादिमतिक्रमान्नाऽन्य इत्युपदर्शितम्
७२१-७२४ बुद्धिपुरुषयोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावस्य खण्डनम्
७२५ प्रकृतेरेव मोक्षे पुरुष एक एव कल्प्यो न बहवः पुरुषा इत्युपपादितम्
७२६-७२७ मुक्तावात्मनो जडत्वमापादितम्
७२८ सातपरार्थत्वेन साङ्ख्याभिप्रेतस्याऽऽत्मसाधनस्य खण्डनम्
७२९-७३३ पवन्धन्यायेन पुरुषप्रकृत्योः कार्ये प्रवृत्तिरित्यरय खण्डनम्
७३४-७३५ कूटस्थे भोक्तृत्वाद्यसम्भव उपदर्शितः आत्मनि साक्षित्वाद्यनेकधर्माभ्युपगमे स्याद्वाद आयात इति दर्शितम्
७३७ पुरुषतः किञ्चित्फलाप्राप्तेः प्रकृतेः प्रवृत्त्यनुपपत्तिरन्यथेश्वरखण्डनमसङ्गतमित्युपपादितम्
७३८-७३९ न्यायप्रक्रियामाश्रित्येश्वरखण्डने प्रकृतेः प्रवृत्त्यभाव उपदर्शितः
७४० वत्सवृद्ध्यर्थं क्षीरप्रवृत्तिदृष्टान्तेन प्रकृतिप्रवृत्त्युपपादनस्य खण्डनम् प्रकृतिगते बन्धमुक्ती भ्रान्त्या पुरुषः स्वस्मिन्नभिमनुत इत्यस्याऽपाकरणम्
७४२-७४३ बुद्धिगतभ्रान्त्या पुरुषस्य बन्धादेरपाकरणम्
७४४-७४६
18
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टा मयेत्युपेक्षक इत्यादेरीश्वरकृष्णप्ररूपणस्याऽपाकरणम् मुक्तात्मनः प्रति प्रकृतेः सृष्टिप्रसञ्जनम् मुक्तौ बुद्ध्यभावान्न सृष्टिरित्यस्याऽपाकरणम्
बुद्धेर्नाशस्थानाभिषिक्तस्य तिरोभावस्य सदातनत्वेऽसदातनत्वे च दोष उपदर्शितः बुद्धितिरोभावस्य तिरोभावाभ्युपगमे दोष उपदर्शितः बुद्धितिरोभावस्योत्पादाभ्युपगमे दोषोपदर्शनम्
बुद्धितिरोभावस्योत्पादस्य प्राकट्यं रूपस्य सर्वदा प्रकटत्वेऽप्रकटत्वे च दोषोपदर्शनम् उक्त प्राकट्यगतप्राकट्यस्य सर्वदाऽऽविर्भावात्मना परिणतौ कदाचित् तथात्वे च दोष उपदर्शितः बुद्धिविनाशस्य तिरोभावात्मकस्योत्पादानभ्युपगमे दोष उपदर्शितः
तत्त्वे पञ्चविंशतिमितत्वस्य खण्डनम्
सत्त्वादिगुणत्रयस्य प्रत्येकं प्रधानत्वे तत्त्वद्वयस्याऽधिकस्य प्रदर्शनम्
सत्त्वादेः समुदितस्य प्रधानत्वेऽपि समुदायत्वेनैव तत्त्वता प्रत्येक शरतद्भावेऽपि कार्याजनकत्वतो न तथा विवक्षेति विकल्प्य खण्डनं विस्तरतः
सत्त्वादित्रिकस्य निखिलवस्त्वनुगन्तृत्वादियोगत एकतत्त्वत्वरयाऽविचारितरमणीयत्वमुपदर्शितम् सत्तास्वरूपं तत्तन्मतेनोपदर्श्य तस्य तत्त्वान्तरत्वमापादितम्
ज्ञानादीनां तत्त्वान्तरत्वमावश्यकमिति दर्शितम्
ज्ञानादीनां बुद्धितादात्म्याद् बुद्धावन्तर्भावे बुद्ध्यादीनां प्रकृतावन्तर्भाव आपादितः
धर्मिमात्रस्य तत्त्वता विकल्प्य दूषिता मोक्षोपयोगिमात्रस्य तत्त्वतेत्यस्याऽपाकरणम् प्रमाणस्य पृथक्तत्त्वता प्रसञ्जिता
सामान्यस्य तत्त्वान्तरत्वप्रसञ्जनम् आविर्भाव- तिरोभावयोस्तत्त्वान्तरत्वप्रसञ्जनम् आविर्भावतिरोभावयोः कार्यात्मकत्वमपहरिततम्
आविर्भावतिरोभावयोः कारणात्मकत्वे दोषोपदर्शनम्
साङ्ख्यमतखण्डनयुक्तचा पातञ्जलदर्शनस्याऽपि खण्डनमिति दर्शितम्
जैनाभ्युपगतं प्रमात्रा सह ज्ञानस्य कथञ्चित् तादात्म्यं विरोधान्न सम्भवतीति प्रश्नः जैनस्य विरोधभीत्यभावे वेदान्तियोगाचारमाध्यमिक सौत्रान्तिक मताश्रयणप्रसञ्जनम्
तार्किकाभ्युपगतमुक्तचभ्युपगमप्रसञ्जनम्
जैनस्य चार्वाकमताभ्युपगमापादनम्
जैनस्य विरोधभीत्यभावे मुक्तौ बन्धत्वस्य, केवलज्ञाने भ्रमत्वस्य, नये प्रमाणत्वस्य तीर्थङ्करे रागस्य, सिद्धेऽसिद्धत्वस्य बद्धे मुक्तत्वरय, दुष्टेऽदुष्टत्वस्य च प्रसञ्जनम्
माने संशयत्वस्याऽनवस्थादावदोषत्वस्य चाऽऽपादनम्
परमतखण्डकदोषस्य तद्व्यवस्थापकत्वस्य स्वपक्षस्थापक गुणस्य स्वपक्षखण्डकत्वस्य च प्रसञ्जनम् स्याद्वादे एकान्तवादत्वस्य जये पराजयत्वस्य च प्रसञ्जनम् जैनमते विरोधापादनादिदोषाणां खण्डनात्मकं जैनस्य प्रतिविधानम्
19
७४७-७४८
७४९
७५०-७५१
७५२-७५३
७५४-७५५
७५६
७५७
७५८-७६१
७६२-७६४
७६५
७६६
७६७-७७६
७७७ ७७८-७७९
७८०
७८१
७८२-७८४
७८५-७८६
७८७
७८८-७९१
७९२-७९३
७९४-७९८
७९९-८०७
८०८-८०९
८१०-८१२
८१३-८१५
८१६
८१७
८१८-८२१
८२२-८२३
८२४-८२५
८२६-८२७
८२८
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२९ ८३०
तत्र दोषा अपि स्याद्वादानभ्युपगमेन सिद्धयन्तीति दर्शितम् केवलस्याऽसामानाधिकरण्यस्य विरोधलक्षणत्वे दोषोपदर्शनम् देशकालाद्यवच्छेदकगर्भस्य विरोधत्वे तु नोक्तदोषावकाश इति दर्शितः धर्मस्य विरोधलक्षणे प्रवेशो नैयायिक स्याडपीष्ट इत्युपपादितम्
८३२-८३४ अभेदे आधाराधेयभावो वैशेषिकस्याऽपीष्ट इति दर्शितम्
८३५ भेदरयाऽव्याप्यवृत्तित्वमभ्युपगच्छता शिरोमणिना भेदाभेदविरोधलक्षणे व्यवच्छेदक प्रवेश आश्रयणीय इत्युपदर्थ्य ततो भेदविरोधलक्षणे नाऽवच्छेदक प्रवेश इत्यस्य खण्डनम्
८३६-८३९ लक्षणभेदो यथा लक्ष्यभेदात् तथा नयप्रमाणविभेदतोऽपीति विरोधलक्षणेऽवच्छेदकप्रवेशो नयान्माउस्तु प्रमाणात् तु स्यादेवेति दर्शितम
८४०-८४१ भेदस्वरूपे एकान्तस्याद्वादयोर्विशेष उपदर्शितः
८४२ भिन्नाश्रितत्वलक्षणविरोधशालिधर्मद्वयाध्यासाद् धर्मिभेदसाधनेऽन्योन्याश्रयदोषप्रदर्शनम्
८४३ आधारभेदमननमन्तरैव विरोधसिद्धौ न ततो धर्मिभेदसिद्धिरिति दर्शितम्
८४४ बौद्धखण्डनायोक्तप्रकारस्य नैयायिकाश्रयणीयत्वं दर्शितम् न्यायमते कालभेदेनैकत्र परिमाणद्वयापत्तिबौद्धोक्ता दर्शिता
८४६ तत्र परिमाणस्याऽऽश्रयनाशैकनाश्यत्वं न्यायाभिमतमपाकृतम्
८४७-८५० आश्रयाविनाशेऽप्यवगाहनाविशेषबलात् पूर्वपरिमाणस्योत्तरपरिमाणरूपतया परिणमनं सदृष्टान्तमुपपादितम् ८५१-८५३ अनवयवसंयोगतो न परिमाणभेद इति न्यायमतस्याऽपाकरणम्
८५४-८५५ रक्तादीनामपि पाकेन रक्ततरादिभावेन परिणमनमेव, न सर्वथा विनाश इत्युपपादितम
८५६-८५७ कथञ्चिद्भेदाभेदाभ्युपगम एव नैयायिकस्य बौद्धोक्तदोषान्मुक्तिरिति दर्शितम्
८५८ स्याद्वादप्रभावोपवर्णनम
८५९ स्याद्वादस्य सकलागमवैशिष्ट्याधुपवर्णनम् वेदान्त्यादीनामेकान्तत्वाग्रहनिवृत्तौ स्याद्वादिमित्रत्वमुपदर्शितम् सङ्ग्रहनयाभ्युपगन्तृत्वेन स्याद्वादिनो वेदान्तिमैत्र्यमुपदर्शितम्
८६२ स्याद्वादिनो योगाचारेण माध्यमिकेन सौत्रान्तिकेन च सख्यमुपपादितम्
८६३-८६५ नैयायिकरय स्वमित्रत्वमुपदर्शितम्
८६६ व्यवहारनयाभ्युपगन्तृत्वेन चार्वाकसख्यमुपदर्शितम्
८६७ स्याद्वादिन एकरिमन्ननन्तधर्मोपगमो नियतावच्छेदकापेक्षयैवेति दर्शितम्
८६८ मुक्तेः कथञ्चिद् बन्धत्वं प्रमाया भ्रमत्वं तीर्थङ्करस्यापि पूर्वावस्थामाश्रित्य भ्रान्तत्वमिति दर्शितम् ८६९-८७१ स्याद्बादतानालिङ्गने देशेन देशदलनं न तु स्याद्वादतायामिति दर्शितम्
८७२ स्याद्वादे रागादीनां विरुद्धगुणानन्वितत्वमुपदर्शितम् स्याद्वादिसम्मतप्रमाणस्य परापादितस्य संशयत्वस्याऽपाकरणं विरोधाभानोपपादनेन
८७४-८७६ अव्याप्यवृत्तित्वज्ञानस्य विरोधभानप्रतिबन्धकत्वमुपपादितम्
८७७-८७८ रत्नकोशकारमताश्रयणेन शब्दादितः संशयस्य सम्भवेऽपि न स्याद्वादवाक्यात् तत्सम्भव इति दर्शितम् ८७९-८८१ प्रमाणेऽनेकप्रकारतानिरूपिताया एकस्या विशेष्यताया अभावादपि न संशयत्वमिति दर्शितम्
૮૮૨ अनवस्थादिदोषाणां स्याद्वादतत्त्वे दोषत्वाभावेऽपि एकान्ततत्त्वे दोषत्वमेवेति दर्शितम्
૮૮રૂ
C0
८७३
20
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनवस्थादिदोषाणां नयेष्वेकान्तताया उन्मूलनतो व्यवस्थापकत्वमपीति दर्शितम्
हेतूनामपि यदा यस्य प्राधान्येन स्थापकत्वं तदैव न तस्य गुणतः स्यादिति खण्डकत्वं
स्याद्वादिनोऽनुगुणमेवेति दर्शितम्
एकावच्छेदेन विरुद्धधर्मघटनैकत्र न स्याद्रादिनोऽभिमतेति भिन्नावच्छेदेनैकं प्रति साधकत्वबाधकत्वेऽभिमते एवैकस्येति दर्शितम्
स्याद्वादे नयाश्रयणेन स्याद्वाद उपदर्शितः
वादे एकान्तवादिनो जयाभावो न स्याद्धादिन इति दर्शितम्
विरोधाभावेन प्रमाणस्य प्रमातृस्वरूपत्वं प्रमारूपत्वं च नयभेदेन निगमितम् एकस्मिन् ज्ञाने प्रमात्वप्रमाणत्वप्रमातृत्वान्युपपादितानि
नयस्य प्रमाणाद् भेदे युक्तिरुपदर्शिता
नये प्रमाणलक्षणातिव्याप्तेरुद्धरणम्
केवलज्ञानस्यैव मुख्यतः प्रमाणत्वं प्रमात्वं चेति दर्शितम्
मत्यादीनां गुणतः प्रमात्वं प्रथममुपदर्श्य मुख्यतः प्रमात्वमुपपादितम्
प्रमायां भेदांशगोचरत्वेन नयत्वमपीति दर्शितम्
मानस्य नयसमूहत्वोक्तेराशय उपदर्शितः
मानस्य दुर्नयवचनानामुपदर्शनम्
चार्वाक बौद्धवैशेषिकादीनां प्रत्यक्षाद्येकद्वित्र्यादिप्रमाणाभ्युपगमप्रकार उपदर्शितः जैनमते प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन प्रमाणद्वैविध्यं प्रत्यक्षलक्षणं च दर्शितम् सांव्यवहारिक पारमार्थिकाभ्यां प्रत्यक्षद्वैविध्यमुपदर्शितम्
पारमार्थिकस्य सकलविकलभेदेन द्वैविध्यं केवलज्ञानं सकलमिति च दर्शितम् केवलस्य ज्ञानदर्शनाभ्यां द्वैविध्यं तदुत्पत्त्यादि च दर्शितम् ज्ञानदर्शनयोर्यौगपद्यं क्रमोत्थत्वं यौगपद्यं च मल्लवादिजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणसिद्धसेनदिवाकरमतभेदेन दर्शितम्
तत्र यौगपद्याभ्युपगन्तुर्मल्लवादिन आशय उपवर्णितः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमतं तद्भाष्यादितोऽवसेयमिति दर्शितम् ऐक्याभ्युपगन्तुर्सिद्धसेनदिवाकरस्य मतमुपपादितम् विकलपारमार्थिक प्रत्यक्षनिरूपणम्
तत्र अवधिज्ञाननिरूपणम्
तस्य भवप्रत्ययत्वं गुणप्रत्ययत्वं चोपदर्शितम्
तत्र छायातमःप्रभृतीनां पौगलिकत्वमुपदर्शितम् रूपादीनां चतुर्णां पुद्गलमात्रे सत्त्वं व्यवस्थापितम्
पृथिव्यादिपरमाणुभ्यः पुद्गलैकजातीयेभ्यो शक्ति प्रभावाद् भूम्यादिविचित्रकार्यजनिरुपपादिता
शक्तिविचारः
तत्र मीमांसकस्य शक्त्यभ्युपगमप्रकार उपदर्शितः
शक्तचनभ्युपगन्तुर्नैयायिकस्य मतमुपवर्णितम्
21
८८४
८८५-८८६
८८७-८८८
૮૮૬
८९०
८९१
८९२-८९३
८९४
८९५
८९६-८९७
८९८-९००
९०१ ९०२-९०३ ९०४
९०५-९०६
९०७
९०८
९०९
१०-९११
९१२-९१३
९१४-९१८
१९
९२०-९२३
९२४
९२५
९२६
९२७-९२८
९२९ ९३०-९३१
९३२
९३३
९३४-९३५
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
९५५
९५७
९६३
एकान्तवादिनो मीमांसकरयाऽतिरिक्तशक्तिपक्षे गौरवमुपदर्शितम्
९३६ न्यायमते तृणादिजन्येषु वहिषु वैजात्यकल्पनमुपदर्य शक्तयभ्युपगन्तुमीमांसकमते तदकल्पनलाघवमुपदर्शितम् ९३७-९३८ शक्तिपक्षे सहकारिनियमानुपपत्तितो वैजात्यकल्पनस्य ज्यायरत्वमिति न्यायमतं दर्शितम्
९३९ कारणतायाः सावच्छिन्नत्वमुपपाद्य शक्तेस्तदवच्छेदकत्वं नाऽन्योन्याश्रयादिति न्यायमतमावेदितम्
९४०-९४२ मीमांसकाभिमताया शक्तेः स्वतः स्वाश्रयकारणकलापात् तदन्यस्माद् वोत्पत्तिरिति विकल्प्य न्यायनयेन खण्डनं तस्य च वेदान्तमतेऽप्यतिदेशः
९४३-९४७ न्यायोक्तशक्तिखण्डकदोषाणां न जैनाभ्युपगतशक्तौ स्वरुपसहकारिरुपायामवकाश इति दर्शितम्
९४८ शक्तेः कारणतारूपत्वं स्वरूपशक्ते: स्वरूपं च दर्शितम्
९४९ सहकारिशक्तिनिरूपणम्
९५० उक्तशक्तयोर्वचनान्तरेण परस्याऽप्युपगम इति दर्शितम्
९५१ प्रतिबन्धकतायाः शक्तेः स्वरुपसहकारिभ्यां तद्वैविध्यस्य च प्रदर्शनम्
९५२-९५३ मण्यादिसमवधानाद् वह्नौ दाहानुकूलशक्तेर्नाशः, तदनुकूलशक्ति बलाच्च पुनरतदुद्गव इति दर्शितम्
९५४ मण्यादिभावे दाहानुकूलशक्तेरुद्भवेऽपि न दाह इत्यत्र हेतुरुपदर्शितः उत्तेजकरहितस्य मणेः शक्तिनाशकत्वं दर्शितम्
९५६ शक्तिरूपायाः कारणताया नाऽवच्छेदकापेक्षेति दर्शितम् हेतुत्वस्य शक्त्यतिरिक्तस्य नैयायिकाद्यभिप्रेतस्य खण्डनम्
९५८-९६२ जैनशक्तिवादे न वह्नौ वैजात्यकल्पनं न वा मीमांसकमताविशेष इति दर्शितम् शक्तिरूपहेतुत्वग्रहोपायप्रदर्शनम्
९६४ कारणतावच्छेदकतया पराभिप्रेतानां तद्व्यञ्जकत्वं दर्शितम् तृणादीनामन्वयमात्रादेव जनकत्वमिति व्यवस्थाप्य तस्य जैनं प्रत्यनुगुणत्वं मीमांसकं च प्रति दोषत्वं दर्शितम्
९६६-९६८ पूर्वप्रदर्शितान्योन्याश्रयादिदोषोऽपि न जैनमते इत्युपदिष्टम्
९६९ नैयायिकाभ्युपगतस्य वहृर्वह्नित्वेन दाहं प्रति कारणत्वस्य खण्डनम्
९७०-९७२ नैयायिकसम्मतस्य प्रतिबन्धकाभावकारणत्वस्योन्मूलनम्
९७३-९७४ तक प्रतिबन्धककालेऽप्यन्यप्रतिबन्धकाभावाद् दाह आपादितः
९७५-९७६ प्रतिबन्धकाभावानां कूटत्वेन कारणत्वमाशङ्कय प्रतिक्षिप्तम्
९७७-९८२ प्रतिबन्धकाभावीयप्रतियोगितायां सम्बन्धावच्छिन्नत्वप्रवेशाप्रवेशयोर्दोषोपदर्शनम्
९८३-९८७ प्रतिबन्धकाभावीयप्रतियोगितायां धर्मावच्छिन्नत्वनिवेशस्याऽऽवश्यकत्वमुपदर्य प्रतिबन्धकध्वंसप्रागभावयोरजनकत्वप्रसञ्जनम्
९८८-९८९ प्राचीनमते प्रतिबन्धकात्यन्ताभावस्य कारणत्वं न सम्भवतीति दर्शितम्
९९० नव्यमतेऽपि प्रतिबन्धकात्यन्ताभावस्य कारणत्वं दूषितम्
९९१-९९३ मणिकाले मण्यभावस्य संसर्गाभावान्न दाहापत्तिरिति न्यायमतमाशय खण्डितं स्वरूपसम्बन्धखण्डनेन ९९४-९९८ नैयायिकसम्मतस्य प्रतिबन्धकाभावस्याऽत्यन्ताभावत्वमपि न वस्तुत इति दर्शितम् ।
९९९-१००० प्रतिबन्धकविशेषण उत्तेजकाभावे उक्तदोषा अतिदिष्टाः प्रतिबन्धकाभावानामुत्तेजकानां च पृथगेच कारणत्वमित्याशङ्कय निराकृतम्
१००१-१००३
22
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहकारिशक्तिरेव पराभ्युपगताऽऽधेयशक्तिः शब्देऽपि चाऽर्थबोधफलिका शक्तिरिति दर्शितम् नैयायिकस्य शक्तिखण्डनाशक्तत्वस्याऽवधिज्ञाने रूपिमात्रविषयकत्वस्य न निगमनम् मनः पर्यवज्ञाननिरूपणम्
व्यावहारिक प्रत्यक्षस्येन्द्रियजानिन्द्रियजभेदेन द्वैविध्यं प्ररूपितम् इन्द्रियजानिन्द्रियजप्रत्यक्षयोरुपवर्णनम्
नयनमनसोरप्राप्यकारित्वं श्रोत्रादीनां प्राप्यकारित्वं च दर्शितम् मनसो महत्त्वेऽपि ज्ञानक्रम उपपादितः
इन्द्रियजानिन्द्रियजप्रत्यक्षयोरैकैकशोऽवग्रहादिचतुर्विधत्वमवग्रहस्वरूपं च दर्शितम्
अवग्रहपूर्ववर्तिनि दर्शने नवीनस्याऽसम्मतिरुपदर्शिता
व्यञ्जनावग्रहस्य नयनमनसोरतदभावस्य च प्रदर्शनम्
ईहावायधारणानां निरूपणम्
अवग्रहादीनां स्वावरणक्षयोपशमविशेषक्रमात् क्रमः पूर्वपूर्वस्य कारणत्वाद् वेति दर्शितम्
अवग्रहादिक्रमस्योह्डूनम्
तेषां क्वचित् क्रमानुपलक्षणे बीजमुपदर्शितम्
परोक्षप्रमाणस्य पञ्चविधत्वं तत्राऽऽद्यस्य स्मृतिप्रमाणस्य कारणविषयाकारैर्निरूपणम्
स्मृतेः प्रामाण्यव्यवस्थापनम् मीमांसकोक्ताज्ञातगोचरमतित्वस्य प्रमाणालक्षणत्वमुपवर्णितम्
स्मृतेः प्रामाण्यान्तरतो विविक्तं फलं दर्शितम्
प्रत्यभिज्ञाप्रमाणनिरूपणम्
उपमानस्य प्रत्यभिज्ञायामन्तर्भाव उपवर्णितः
तस्मादयं विसदृश इत्यादीनां प्रत्यभिज्ञात्वमुपदर्शितम्
सुरभिचन्दनमिति ज्ञानस्य परोक्षे प्रत्यभिज्ञानेऽन्तर्भावेन ज्ञानलक्षणप्रत्यासत्तिखण्डनम् सुरभिचन्दनमिति बोधस्य प्रत्यक्षपरोक्षोभयरूपत्वमभ्युपगच्छतो वेदान्तिनोऽपाकरणम् प्रत्यभिज्ञायाः प्रामाण्यमनभ्युपगच्छतो बौद्धस्य मतं निराकृतम्
तर्क प्रमाणनिरूपणं, तस्य व्याप्तिशब्दार्थसम्बन्धकार्यकारणभावाद्यवबोधकत्वं दर्शितम् अनेन गतार्थत्वात् सामान्यलक्षणसन्निकर्षस्याऽनुपगमः, तर्कप्रमाणानभ्युपगन्तुर्वौद्धस्य खण्डनम् अनुमानस्य लक्षणम्, तस्य स्वार्थपरार्थभेदेन द्वैविध्यमुपवर्णितम् लिङ्गस्याऽन्यथानुपपत्तिरेकैव लक्षणमिति दर्शितम्
साध्यपक्षयोर्लक्षणमुपदर्शितम्
परामर्शस्याऽनुमितिहेतुत्वं नैयायिकसम्मतं निराकृतम्
विकल्पात् प्रमाणात् तदुभयाद् वा धर्मिप्रसिद्धिरिति धर्म्यप्रसिद्धेर्दोषतया पराभिप्रेताया अपाकरणम् न्यायावयवानां प्रतिज्ञादीनां क्वचित् सामस्त्येन क्वचिदन्यथाऽप्युपदर्शनं वादे इति सोपपत्तिकमुपदर्श्य बौद्धादीनामपाकरणम्
लिङ्गाद्यवयववाक्यस्य परार्थानुमानत्ववद् वाक्यविशेषादेः परार्थप्रत्यक्षत्वादिकं सदृष्टान्तमुपदर्शितम् वस्त्वंशयोः सदसतोर्विधिनिषेधानुमापकस्योपलब्ध्यनुपलब्धिभेदेन लिङ्गस्य द्वैविध्यमुपदर्शितम्
23
१००४
१००५
१००६-१००८
१००९
१०१०
१०११
१०१२
१०१३
१०१४
१०१५
१०१६-२०१७
१०१८
१०१९
१०२०
१०२१
१०२२-१०२४
१०२५
१०२६
१०२७
१०२८
१०२९
१०३०
१०३१-१०३३
१०३४-१०४०
१०४१-१०४२
१०४३-१०४७
१०४८
१०४९
१०५०
१०५१
१०५२
१०५३-१०५५
१०५६-१०५८
१०५९
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभावे वस्तुगतासदंशत्वोक्तितो नैयायिकाभिमतस्य भावातिरिक्तत्वस्थ खण्डनमावेदितम्
१०६० अभावस्य चतुर्विधत्वोपदर्शनं प्रागभावनिरूपणं च
१०६१ प्रागभावनिरुपणम्
१०६२ ध्वंसनिरूपणम्
१०६३ भेदनिरूपणम्
१०६४ अत्यन्ताभावनिरूपणम्
१०६५ संयोगेन घटादिनिषेधप्रतीतेर्विषयविवेचनम्
१०६६-१०६९ उपलब्ध्यात्मक हेतोद्वैविध्यं तत्र विधिसाधकस्याऽविरुद्धोपलब्धेः षड्विधत्वं च दर्शितम्
१०७० विधिसाधकरय हेतोः कार्यस्वभावाभ्यां द्वैविध्यमेवेति बौद्धमतस्य खण्डनम्
१०७१ तत्र कारणस्य कार्यानुमितौ हेतुत्वमुपपादितम्
१०७२-१०७३ कार्यव्याप्ययोर्हेतुत्वमुपपादितम्
१०७४ पूर्वोत्तरचरयोर्हेतुत्वमुपपादितम्
१०७५ सहचरस्य हेतुत्वं व्यवस्थापितम्
१०७६ विरुद्धोपलब्धेः सप्तविधत्वं निषेधसाधकत्वं बौद्धाभ्युपगतस्याऽनुपलब्धिमात्रेडभावसाधकत्वस्य खण्डनं चोपदिष्टम् १०७७ साक्षान्निषेध्यविरुद्धरय निषेधहेतुत्वमुपपादितम्
१०७८ निषेध्यविरुद्धजनकादयो हेतवोऽतिदेशेन प्रतिपादिताः, अनुपलब्धिरूपहेतो.विध्यं दर्शितं च
१०७९ अविरुद्धानुपलब्धेनिषेधसाधकत्वं विरुद्धानुपलब्धेर्विधिसाधकत्वं च दर्शितम्
१०८० अविरुद्धानुपलब्धेः सप्तप्रकारत्वं विरुद्धानुपलब्धेः पञ्चप्रकारत्वं च दर्शितम्
१०८१-१०८३ आगमप्रमाणनिरूपणम्
१०८४ शब्दे प्रमाणवचनं गौणवृत्त्येति दर्शितम्
१०८५ आप्तस्य लक्षणं तदुक्तस्यैव प्रामाण्यमिति दर्शितम्
१०८६ आप्तो लौकिकालौकिकभेदेन द्विविधः पुरुपितः
१०८७ शब्दस्य पौगलिकत्वं, न तु नैयायिकाभिमतं गुणत्वमिति प्रतिपादितम्
१०८८ निःस्पर्शत्वनिबिडदेशप्रवेशित्वपूर्वोत्तरावयवानुपलम्भसूक्ष्ममूर्ताप्रेरकत्वैः शब्दस्य पोद्गलिकत्वाभावसाधनं नैयायिकस्य खण्डितम्
१०८९-१०९३ आकाशगुणत्वेन शब्दे पौद्गलिकत्वाभावसाधनमपि परस्य प्रतिक्षिप्तम्
१०९४ बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वेन शब्दे पौद्गलिकत्वं साधितम्
१०९५ शब्दरयाऽर्थे स्वाभाविक शक्ति प्रदर्शनम्, सङ्केतमात्रेणार्थप्रकाशकत्वं शब्दे पराभिप्रेतमपाकृतम् १०९६-१०९८ स्वाभाविक शक्तिपक्षे वाच्यवाचकभावव्यवस्था शक्तिद्वयात्मना शब्दार्थहेतुतरतस्या जननं च
१०९९ शक्ते: सर्वार्थगतत्वेऽपि पटादिशब्दानां नियतार्थबोधकत्वं नियतसमयापेक्षयेति दर्शितम्
११००-११०१ सामान्यविशेषोभयात्मकवस्तुनः शक्यत्वमुपदर्शितम्
११०२ शब्दस्य विकल्पमात्रजनकत्वं न तु वरत्वभिधायकत्वमित्यभ्युपगन्तुर्बोद्धस्य पूर्वपक्षः
११०३ तत्र दृश्ये स्वलक्षणे न शाब्दात्मक विकल्पभास्यत्वं न वा तत्र समयग्रहसम्भव इति दर्शितम्
११०४ न च सामान्यमेकं न वा तस्य ज्ञानातिरिक्ताऽर्थक्रियेति तदपि न वायमिति दर्शितम्
११०५ प्रत्येकपक्षदोषतो नोभयस्याऽपि वाच्यत्वमिति दर्शितम्
११०६
24
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दार्थयोस्तादात्म्यतदुत्पत्त्योर्निराकरणे न तात्त्विकः कश्चित् सम्बन्ध इत्युपपादितम्
११०७-१११२ शब्दजन्यबोधरयाऽपोहविषयत्वेनाऽप्रामाण्यमपोहस्वरूपं च दर्शितम्
१११३ शब्दस्याडपोहरूपार्थेन सह कार्यकारणभावसम्बन्धरततश्च वाच्यत्वरय जन्यत्वे वाचकत्वस्य जनकत्वे पर्यवसानमुक्तम् वाचकत्वमप्यपोहे दर्शितम् एकान्तमतखण्डन एव बौद्धोक्तदूषणानां प्रागल्भ्यं न स्याद्वाद इति दर्शितम्
१११६-१११७ शब्देऽर्थप्रकाशजनकत्वं स्वाभाविकं याथार्थ्यायाथायें परापेक्षे इति दर्शितम्
१११८ एकान्तवादिवचनस्य न यथार्थत्वं किन्तु सप्तभङ्गया इति दर्शितम्
१११९ सप्तभङ्गीनिरूपणम्
११२० तत्र वाक्येऽवधारणस्याऽऽवश्यकत्वं दर्शितम्
११२१ कुम्भादावस्तित्वादेः प्रश्ने स्याद्वादरयैव सम्यक्प्रतिविधानत्वमिति दर्शितम
११२२ स्यादरत्येव कुम्भ इत्यादीनां सप्तानां भङ्गानां क्रमेण स्वस्वनिमित्तत उपदर्शनम्
११२३-११२७ सप्तभङ्गादधिको भङ्गो न सम्भवतीत्युपपादितः
११२८ अनेकान्ततावगमकस्य स्यात्पदस्योक्ते भङ्गे आवश्यकत्वं यत् स्वरूपादिना सत्त्वं तदेव पररूपादिनाऽसत्त्वमिति दर्शितम्
११२९-११३० बौद्धमतमाशय प्रतिक्षिप्तम्
११३१-११३६ स्याद्वादासहिष्णोः परस्य पूर्वपक्षः, तत्र प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यरयाऽरितत्वस्य न्यायमतसिद्धसत्तारूपत्वे जैनसिद्धोत्पादव्यधौव्यात्मकसत्तारूपत्वे दोषोपदर्शनम्
११३७-११३९ अस्तित्वस्य कालवृत्तित्वपत्वे दोषः प्रदर्शितः
११४०-११४१ अस्तित्वस्य देशवृत्तित्वरूपत्वे दोषः प्रदर्शितः
११४२-११४३ घटत्वादिनाऽरितत्वस्य नैयायिकेनाऽप्युपगमात् प्रथमभङ्गे व्यधिक रणधर्मावच्छिन्नाभावस्य वेदान्तिनाऽप्युपगमाद् द्वितीयभङ्गे नैकान्तवादाद् विशेष इति दर्शितम्
११४४-११४५ उक्तप्रश्नप्रतिविधानम्
११४६-११४७ उक्त प्रश्नकर्तुः सत्त्वादिकं न प्रतीयते, नाडव्याप्यवृत्ति, न दर्शितार्थभिन्नरूपं, किं वाऽवाच्यमिति चत्वार: पक्षा अभीष्टा न सम्भवन्तीति दर्शितम्
११४८-११५२ प्रथमभङ्गेन विध्यंशरूपास्तित्वं द्वितीयभड्रेन निषेधांशरूपनास्तित्वं प्रतीयत इति दर्शितम् तृतीयादीनामपि भङ्गानां वस्त्वंशबोधकत्वं गौतममताद् विशेषश्च दर्शितः अस्तित्वाद्यंशावच्छेदकत्वस्य धर्मादिगतस्याऽनन्यसिद्धस्य भानप्रतिपादनेन न्यायादितो विशेष उपपादितः ११५५-११५८ वृत्तित्वरूपास्तित्वस्य प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यत्वेऽपि न दोष इति दर्शितम्
११५९ तन्निरूपितवृत्तितायां तस्याऽवच्छेदकत्वं सार्वभौमाभ्युपगम उपदर्शितः
११६० उत्पादव्ययधौव्यरूपसत्त्वस्य प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यत्वे दोषपरिहार:
११६१ कालास्तित्वपक्षे दोषपरिहार: द्वितीयभङ्गे वेदान्तमतादविशेषस्य परिहार:
११६३ वेदान्तमतमुपदर्श्य ततो जैनमते विशेषरयोपदर्शनमभावादिलक्षण्यप्रदर्शनेन
११६४-११७४ व्यधिकरणधर्मस्यैव द्वितीयभड़ेऽवच्छेदकतया भानमित्यपि नास्तीत्युपपादितम्
११७५-११७६ वस्त्वंशानामेव धर्माणां स्याद्वादतो विभजनं न तु विवक्षया काल्पनिकत्वमिति दर्शितम्
25
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभङ्गे वेदान्ताद् स्विरूपासिद्धेर्दोषत्वमपाकृतम्
बाधस्य न हेतुदोषत्वं सत्प्रतिपक्षस्तु दोष एव नेतीत्युपदर्शितम् नवविधा दृष्टान्तदोषाः प्ररूपिताः
शब्दाभासस्य चतुर्विधत्वं प्ररूपितम्
नयनिरूपणम्
नयस्य समासतो द्रव्यपर्ययभेदेन द्वैविध्यं व्यासात् सप्तविधत्वं द्रव्यपर्यययोः सकलमूलत्वं च दर्शितम् द्रव्यनयः प्राधान्येन द्रव्यं पर्यवनयः प्राधान्येन पर्यायमभ्युपगच्छतीति दर्शितम् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमते नैगमसङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्राणां द्रव्यार्थिकत्वं शब्दसमभिरूढैवभ्भूतानां पर्यायार्थिकत्वं सिद्धसेनदिवाकरमते तु ऋजुसूत्रस्य पर्यायार्थिकेऽन्तर्भाव इति विशेषो दर्शितः शब्दनयत्वेनैकेन साम्प्रतसमभिरूढैवम्भूतानामुपादाने नयानां पञ्चविधत्वमिति दर्शितम् सङ्ग्रहनयनिरूपणम्, सङ्ग्रहमूलत्वं वेदान्तनये एकान्ततत्त्वावगाहित्वाच्च तस्य दुर्नयत्वमिति दर्शितम् सङ्ग्रहनाम्नोऽन्वर्थत्वं परापरभेदेन द्वैविध्यं दर्शितम्
परसङ्ग्रहस्य शुद्धत्वमपरसग्रहस्याऽशुद्धत्वं च दर्शितम्
अत्र सङ्ग्रहनयमूलकस्य वेदान्तस्य विशेषांशे बुद्धेर्न प्रमात्वम्, अस्तीति सत्ताभिधायक शाब्दस्य सत्यार्थत्वं न कुम्भादिशब्दानां सर्वानुगामिनः सत्यस्य सत्त्वस्य ब्रह्मरूपत्वं ज्ञानसुखयोश्च ज्ञानघटयोश्चाऽऽध्यासिकः सम्बन्धस्तत्र ज्ञानस्य सत्यत्वं घटादीनामारोप्यत्वम्, इष्टस्याऽनुगामित्वं सच्चिदानन्दस्वरूपत्वं ब्रह्मण इति दर्शितम्
साङ्ख्यमतरयाऽशुद्धत्वं सङ्ग्रहमूलत्त्वमुपपादितम्
योगाचारनयस्य सङ्ग्रहमूलत्वेऽपि ऋजुसूत्रमूलत्वमुपदर्शितम्
चार्वाकनयस्य व्यवहारमूलकत्वं व्यवहारस्य द्रव्यार्थिकत्वं सङ्ग्रहविरोधः, एतन्मते सामान्यबुद्धेर्मिथ्यात्वं, कुम्भादीनां परमाणुसमूहत्वं भूतभिन्नस्यावस्तुत्वं, विशेषस्यैव सत्यत्वं, प्रत्यक्षस्यैव प्रामाण्यं परलोकाभावश्चेति दर्शितम्
नैगमनयनिरूपणम्
न्यायवैशेषिक मीमांसकनयानां नैगमनयमूलत्वं दर्शितम्
सङ्ग्रहव्यवहारयोर्न गुणादिविशिष्टबुद्धेः प्रमात्वं नैगमनये तु तदिति विशेष उपदर्शितः नैगमस्य द्रव्यार्थिकत्वे ऋजुसूत्रादीनां पर्यायार्थिकत्वे हेतुरुपदर्शितः
ऋजुसूत्रनयनिरूपणम्, सौत्रान्तिक वैभाषिक योगाचारमाध्यमिकानां चतुर्णां बौद्धानां
तन्नयानुगामित्वमुपपादितम्
नैगमादीनां चतुर्णामर्थनयत्वं शब्दादीनां त्रयाणां शब्दनयत्वमुपदर्शितम्
शब्दादीनां त्रयाणामृजुसूत्रनयोद्भावत्वमुपदर्शितम्
शब्दनयनिरूपणम्, तन्नये लिङ्गादिभेदादर्थभेद उपदर्शितः
भर्तृहरिमते शब्दनयमूलकत्वं सङ्ग्रहमूलकत्वमपि निर्विकल्पक मतेरभावो विशेषणज्ञानस्य विशिष्टबुद्धिं प्रत्यकारणत्वं सौत्रान्तिकाभिप्रेतनिर्विकल्पक मतेरपाकरणं चेति दर्शितम् समभिरूढनयनिरूपणम्, शाब्दिक नये एतन्नयप्रकृतिकत्वमुपपादितम्
एवम्भूतनयनिरूपणम्
निक्षेपनिरूपणं, नयभेदेन निक्षेपाभ्युपगमप्रकारभेद उपदर्शितः
प्रशस्तिः
26
१२६७
१२६८
१२६९-१२७४
१२७५-१२७७
१२७८
१२७९
१२८०
१२८१-१२८२
१२८३
१२८४
१२८५
१२८६
१२८७-१२९४
१२९५
१२९६
१२९७-१३००
१३०१ १३०२
१३०३
१३०४
१३०५-१३०८
१३०९ १३१०
१३११-१३१४
१३१५-१३१८
१३१९-१३२२
१३२३-१३२५
१३२६-१३२७
१३२८-१३३८
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
।। ओँ अहँ नमः ।। ॥ परमकारुणिकगीतार्थत्वादिगुणोपेतनिजचरणविद्याप्रतिभातिशयादिगुणसंस्मारितातीतयुगप्रधान
गुरुवर्यश्रीवृद्धिचन्द्रापरनामश्रीवृद्धिविजयसद्गुरुभ्यो नमः ॥ भव्यभव्यानुग्रहविहितानेकग्रन्थसन्दर्भसकलसूरिसार्वभौमशासनसम्राट्
तपोगच्छाचार्यभट्टारकश्रीविजयनेमिसूरिसन्दृब्धः
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
मङ्गलाचरणम्
(मालिनीवृत्तम्) जयति ऋषभदेवो वुद्धतत्त्वप्रबन्धः, प्रथित इह जिनानामाद्यतीर्थप्रवक्ता ।। क्षपितनिखिलकर्मावाप्तशुद्धस्वरूपो, विभुरपि मितमाने सिद्धिदेशे य आस्ते ।।१।।
(स्रग्धरावृत्तम्) गर्वाकूपारवादिप्रथितनिजमताकूतविध्वंसलीलासधीचीनस्वपक्षप्रथनपरवचोविस्मिताखण्डलादिः । नेताऽस्मान् पातु वीरो मितनयनिलयो विश्वमाङ्गल्यकर्ता, जन्मिवाताभिपूज्यो जयति जिनवरो योऽन्तिमस्तीर्थकर्ता ।।२।।
(शार्दूलविक्रीडितम्) प्रोद्यत्तत्त्वविवोधबीजविदलन्मिथ्याधरोत्थाङ्कुरप्रोत्सर्पज्जिनभक्तिसन्ततिलता जातोपदेशाम्बुतः । यस्याऽशेषनयाम्वुधेर्मुनिवरस्योद्दामधामौकसः,
श्रीचन्द्रोत्तरवृद्धिनामविदितः स्यान्मङ्गलायाऽत्र सः ।।३।। ग्रन्थकभिधेयादिसूचनम्
(स्रग्धरावृत्तम्) सिद्धान्ताम्भोनिवासं प्रवलपरझषोद्वेगकारिप्रवाहं, मानात्यक्तप्रयोगं सुनयतरिमिलत्स्फीतभङ्गीविलासम् ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सद्रव्यं बद्धतीर्थं गुणमणिनिलयं प्राप्तपर्यायभावं,
सद्वृत्तं न्यायसिन्धुं गुरुचरणरतो नेमिसूरिस्तनोति ।।४।। ज्ञाननिरूपणम्
(मालिनीवृत्तम्) घटपटशकटाद्याः स्वस्वभावानुसारि, व्यवहृतिविषयत्वं यान्ति बुद्धिं विना नो । यत इह तत एव ज्ञानतत्त्वं पुरस्ताद्, भवति मननयोग्यं लक्षणान्मानतश्च ।।५।। व्यवहृतिरिह लोके त्रिप्रकारा यया सा, विबुधजनमता धीर्लक्षणं तत् तटस्थम् । जिनमतप्रथितैषा त्वात्मरूपा कथञ्चि - दिति भवति सदिष्टं लक्षणं तत्स्वरूपम् ।।६।। विसदृशमतिरिष्टा भिन्नतो लक्षणेन, यत इह तत एषा लक्षणादन्यतश्चेत् । भवति ननु विलम्बात् तेन ताटस्थ्यमस्य, स्वयमिह यदि सा स्यात् तत्स्वरूपं तदानीम् ।।७।। कथयति विबुधोऽन्यस्तत्स्वरूपाप्रविष्टं, यदिह तदितरस्माद् भेदकं तत् तटस्थम् । भवति पुनरथाऽन्यत् तत्स्वरूपप्रविष्टं, विसदृशमतिहेतुर्लक्षणं तत्स्वरूपम् ।।८।। विषयविमुखमेतन्न प्रवृत्त्यादिकार्ये, प्रभवति यत उक्तं तेन तस्य स्वरूपम् । विषयघटितमन्यैर्वाह्यवत् स्वस्वरूपं, विशदयति परं तन्नाऽन्यतोऽस्य प्रकाशः ।।९।।
(वसन्ततिलकावृत्तम्) सूर्यो यथाऽयमखिलार्थविभासकोऽपि, मेघावृतत्वविगमे स्वत एव भास्यः । कर्मावृतत्वविगमे च तथैव वोधो - ऽर्थग्राहकोऽपि भवति स्वत एव भास्यः ॥१०॥ यद्यन्यबोधत इह व्यवसायभानं, तस्याऽपि तर्हि परतस्तु भवेत् प्रकाशः । इत्थं व्यवस्थितिलयादनवस्थितिः स्याद्, दोषत्रयाकलितमूर्तिरियं न किं वः ।।११।। यद्यक्षजन्यमतिकारणमिष्टमत्र, बोधे तु मानसभवे प्रतिबन्धकं ते । किं गौरवान्न हि विभेषि विनाऽपि तेन, स्वस्मात् प्रकाश उपपद्यत एव यस्मात् ।।१२।। ग्राह्यो हि वोधजनको यदि सम्मतः स्या - न स्यात् तदा त्वजनकः स्वयमेव भास्यः । व्याप्तिः प्रमाणविषया न हि विद्यतेऽत्र, स्याच्चेत् तदेश्वरमतिः शशशृङ्गकल्पा ।।१३।। जन्यत्वतोऽप्यनुगता विशदावभासि - योगीश्वरप्रमितितो विमुखा न किं सा । किं शुक्लशङ्खगतपीतिमरूपवुद्धे - विनाऽपि जननं न मतं तवाऽस्ति ।।१४।।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
एतेन लौकिकविशेषणसंविधानाद्, योगीश्वरप्रमितिवारणमप्यपास्तम् । साक्षात्करोम्यनुभवस्य बलाद् बुधैर्य - दोषोद्भवेऽप्यभिमतं ननु लौकिकत्वम् ।।१५।। न प्राप्यकार्यभिमतं नयनं ततो नो - ऽध्यक्षा मतिर्भवति हीन्द्रियसम्प्रयोगात् । स्पष्टत्वमेव विवुधैर्जिनतन्त्रविज्ञैः, स्पष्टीकृतं तदिह लक्षणमस्य युक्तम् ।।१६।। तेनेन्द्रियार्थघटनाप्रभवत्वमस्य, स्वीकृत्य यैरिह निरूपितमन्यबुद्धेः । ज्ञानस्य भानमिति तेऽपि विचारमार्गाद्, दूरीकृता विशदयन्तु कथं प्रतिष्ठाम् ।।१७।। योग्यत्वमिन्द्रियनिरूपितमेकमत्र, यैौकिकत्वकलिताद् विषयत्वतोऽथ ।। आश्रित्य मानसभवं कथितं नु बोध - ज्ञानं न तेऽपि सुधियो विबुधाग्रगण्याः ।।१८।। यस्मान्महेशमतिगोचरवृत्तियोगाद्, दोषोत्थधीविषयवृत्तिसमन्वयाच्च । व्याप्तिर्न दर्शितपदे न तथाऽनुकूल - स्तर्को विपक्षविमुखीकरणे समर्थः ।।१९।। किञ्चेन्द्रियार्थघटनैव यदि त्वदिष्टा, प्रत्यक्षवुद्धिजनिका भविता तदानीम् । गन्धेऽपि चाक्षुषमतिर्न कथं रसादौ, घ्राणोद्भवा मतिरियं ह्यखिले समाना ।।२०।। किं वा न मानसमतिस्तत एव धर्म - ऽधर्मे च वोध इव ते समुदेति तस्मात् । योग्यत्वमेव प्रतिवस्तु विलक्षणं च, स्वीकर्तुमिष्टमिति तर्कविदां सुपन्थाः ।।२१।। एतेन चाक्षुषमतौ प्रतिवन्धकाः स्यु - र्गन्धादयो न हि मतिस्तत एव तेषाम् । धर्मादि मानसमतौ च ततो न तस्ये - त्येवं परस्य कथनं न तिरस्कृतं किम् ।।२२।। एकेन्द्रियस्य विषयावपि कर्मरूपे, योग्ये च चन्द्रमसि येन भवेत् प्रकाशः । रूपे न कर्मणि तव स्वयमेव किं नो, जिज्ञासया वुध ! भविष्यति सत्प्रकाशः ।।२३।। ज्ञेये मतौ मतिमति प्रविभक्तमेव, योग्यत्वमिष्टमिह जैनमतानुगानाम् । कार्येकगम्यमिदमत्र ततो न कार्यः, प्रश्नो विकल्परसिकैर्विबुधैरसारः ।।२४।। नाऽत्र प्रभाकरमतेन समानताऽपि, शङ्या यतो हि गुरुणा व्यवसाय एव । प्राधान्यतो घट इति प्रतिपादितोऽत्र, जानाम्यहं घटमिति प्रविभाग एषः ।।२५।। एतेन चेत् स्वविषयत्वमिह प्रसिद्धं, स्यात् स्वप्रकाश उपदर्शितमानतस्ते । तस्य प्रथा यदि तदा विषयत्वसिद्धि - रित्थं निरस्त इतरेतरसंश्रयोऽपि ।।२६।। किञ्चाऽस्य बोधविषयत्वमपेक्ष्य बोधो, न स्वप्रकाश उदितोऽभिनवे तु तन्त्रे । सत्ता यथाऽपरत एव सती तथैव, वोधोऽवभासत इति प्रथितं तु तेन ।।२७।।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
ज्ञानस्य धीरपि भवेन्न परप्रकाशे यस्माद् विशेषणमतिर्जनिका मता ते । पूर्वं विशिष्टमतितः प्रकृते तु तस्या, नो सम्भवो भवति दोषवितानयोगात् ||२८|| अर्थे यतोऽक्षघटना प्रथमक्षणे स्याज्ज्ञानं घटादिविषयं तदनन्तरं ते । पश्चात् ततो मतिमतिर्ननु निर्विकल्पा, तस्माद् विशेषणमतेस्तु विशिष्टबुद्धिः ||२९|| एषा क्षणद्वयगते न विशेषणे स्याज्ज्ञाने विशेषणमतेः समयेऽप्यवृत्तौ । प्रत्यक्षबुद्धिजनको विषयो मतो यत् तत्कार्यकालगत एव न चाऽन्यथाऽपि ||३०||
तत्ताविशेषणमपि प्रथते विनैव सत्त्वं तथैव प्रकृते यदि सम्मतं ते । ज्ञानं यति वद बोधविशेष्यिका धीः कस्मात् तदाऽपि भवितेति बुधाग्रगण्य ! ||३१||
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
आत्मा हि यद्यपि विशेष्यतया प्रधानो, ज्ञानस्य बोधविषयत्वविवक्षणेऽस्ति । अर्थस्तथाऽपि विषयोऽत्र प्रधान एव, यत्नादिकार्यजनने स्वविवक्षया स्यात् ||३२|| एतेन यैरनुमितिस्त्विह लिङ्गबुद्धे - मुख्यत्वसंवलितपक्षविशेष्यतातः । उक्ता स्वतः प्रमितिभाननिराक्रियार्थं, ते खण्डिता अपसरन्तु विचारमार्गात् ||३३|| अस्वप्रकाशविगमस्तु निजप्रकाशो, ब्रह्मात्मवोधगत इत्यभिमन्यमानाः । वेदान्तिनो विधिमुखस्वप्रकाशकत्व स्वीकर्तृजैनविमुखा इति भिन्नमार्गाः ||३४|| वृत्तेस्तु यद्यपि मते स्वत एव भानं तेषां तथाऽपि न जिनागमनीतितस्तत् । यस्माच्च तैर्विषयदेशगतिं प्रकल्प्य, प्रोक्ता हृदः परिणतिर्विषयस्वरूपा ||३५|| वेदान्तिनामिव न कापिलनीतिभाजां ज्ञानप्रकाश इह आर्हतवीथिगानाम् । इष्टो यतो न जड एव भवेत् प्रकाशो, नो वाऽस्ति बिम्बप्रतिबिम्बविकल्पनं सत् ||३६||
-
साङ्ख्यैर्मतं तु विषयप्रतिबिम्बनं हि नेत्रे तथाऽस्य हृदि तस्य प्रधानवुद्धौ । द्वारं त्वहङ्कृतिरपि प्रथितस्तयाऽऽत्मा, कूटस्थनित्य इह बिम्वनतस्तु तद्वत् ||३७|| tas पि धियं स्वत एवं भास्यां, बूते तथाऽपि न जिनागमसिक्तचित्तः । संवेदनं न सविकल्पकमिष्टमस्य, स्वस्माद्धि प्रकटयन्ति जिनानुगास्तु ||३८|| वैशेषिकोऽक्षचरणश्च धियं वदन्तौ, भास्यां परैर्न जिनदर्शितमार्गनिष्ठौ । भट्टो मुरारिरपि नाऽत्र तथा वदन्तौ, ज्ञानं ह्यतीन्द्रियमनुव्यवसायगम्यम् ||३९|| इत्थं प्रसिद्धिपदवीं स्वत एव प्राप्तं ज्ञानं न मानमतिरिक्तमपेक्षते नः । स्याद्वादलाञ्छितपदार्थप्रथासमर्थं तद्गोचरत्वत इति प्रवदन्ति जैनाः || ४०॥
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ प्रमाणलक्षणे बौद्धोक्तदोषपरिहारः -
स्वार्थावगाहि सविकल्पकमत्र सिद्धं, ज्ञानं प्रमाणमिति तत्र तिरस्क्रियां ये । कुर्वन्ति तेऽत्र सुगतानुचरा न जैनैः, किं खण्डिताः स्वमततत्त्वविचारणायाम् ।।४१।। सङ्क्षपतस्तु परकीयमतप्रपशू, प्रोद्भाव्य खण्डनमिहाऽस्य भवेत् तु युक्तम् । न ह्यन्यदीयमतखण्डनमन्तरा य - च्छ्रद्धास्पदं भवति तच्च परीक्षकाणाम् ।।४२।। अक्षोद्भवं भवति वस्त्ववगाहि पूर्व, ज्ञानं विकल्पनधियः पृथगेव तस्मात् । सामान्यगोचरमतिः सविकल्पिका ता - माश्रित्य तद् भवति मानमिमां विना नो ||४३।। लिङ्गोद्भवं तु सविकल्पकमेव तच्च, सामान्यगोचरतयाऽपि भवेत् प्रमाणम् । अर्थोद्भवत्वमिह यत्खलु निर्विकल्प - द्वारा प्रमात्वगमकं च परम्परातः ।।४४।। प्रामाण्यमत्र परमार्थत उक्तमेभिः, सद्गोचरत्वमथ सांव्यवहारिकं तु । संवादकत्वमत एव भवेच्च तस्य, ज्ञानान्तरादधिगतिर्न मते स्वतोऽस्मिन् ।।४५।। संवादकत्वमपि तत्र प्रवर्तकत्वात्, तत्प्राप्तिकारकतयाऽभिमतं च साऽपि । अर्थोपदर्शकतया तत एव बौद्धै - रिं विकल्पकमनंशमतेर्मतं च ।।४६।। तेनाऽऽगतं प्रमितिलक्षणमुक्तमत्र, जैनैर्न सर्वगमनंशमताववृत्तेः । नो निर्विकल्पकमतिर्व्यवसायरूपा, यस्मात् तथा यदि तदा न निरंशताऽस्याः ।।४७।। एतन्न युक्तमिह यद् भवति स्वरूप - निश्चायकं जिनमते ननु लक्षणं तत् । प्रामाण्यलक्षणमिदं च तथैव मान - त्वस्य व्यवस्थितिपरं न तदन्यथा तत् ।।४८।। तल्लक्षणं स्वयमनिश्चितरूपमेव, लक्ष्यव्यवस्थितिपरं न भवेत् ततोऽस्य । सिद्धिः पराभिमतमानत एव वाच्या, मानत्वमस्य गमकं खलु लिङ्गभावात् ।।४९।। एवं स्थितौ भवति वाधतयैव दोषो - ऽव्याप्तिः परेण कथिता न तु सोऽत्र युक्तः । प्रत्यक्षतो भवति किं त्वनुमानतो वा, बाधो न तत्र प्रथमस्तव कल्पनार्हः ।।५०।। नो निर्विकल्पनधियोऽक्षमतिर्भवेन्नो, नाऽस्मद्विशिष्टजनुषामपि सा प्रसिद्धा । संवेदनं स्वत इह प्रमितौ समर्थं, नो सम्मतं क्षणिकताद्यनुमाप्रणेतुः ।।५१।। यस्मात् क्षणक्षयितया सकलाक्षबुद्धि - नीलादिकं तु विषयीकुरुते मतेऽस्मिन् । सा साधयेद् यदि विकल्पमतिं विनाऽर्थं, सत्त्वेन कः क्षणिकतानुमया तवाऽर्थः ।।५२।। स्यात् स्वानुरूपसविकल्पकसंविधाना - न्मानत्वमस्य न च सोऽप्यनुभूयमानः । संवेदनात् स्वत इहाऽपि यदि प्रसिद्धिः, किं स्यात् तदा क्षणिकताऽवगता न तेन ||५३।।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ तस्याऽनुरूपसविकल्पकबोधतश्चेत्, सिद्धिस्तदा किमनवस्थितिरत्र ते नो । तस्मात् त्वयाऽनुमितितोऽत्र निरंशवुद्धेः, स्यात् साधनं तदपि नैव विचारमार्गे ।।५४।। यज्जायतेऽत्र सविकल्पकवुद्धिकाले, तनिर्विकल्पकमिति प्रमिता यदि स्यात् । व्याप्तिस्तदाऽक्षजधियोऽनुमितिप्रसिद्धं, स्यान्निर्विकल्पकमतित्वमिमां विना नो ।।५५।। तत्राऽश्वकल्पनधियः समये त्वयोक्ता, बुद्धिर्गवादिविषया नियमप्रसिद्ध्यै । दृष्टान्तभावममलं प्रतिपद्यते नो, सिद्धिर्यतो न सुगतानुमताऽपि तस्याः ।।५६।। दृष्टा यदैव विपिने भ्रमता मया गौ - रश्वस्तदैव विदितोऽनिलतुल्यवेगः । इत्यादिका स्मृतिरिहाऽभिमता प्रमाणं, यस्मान्न साऽपि सविकल्पकमन्तरा स्यात् ।।५७।। अभ्यासपाटवप्रसङ्गवशाद् यदि स्या - दर्थित्वतोऽथ च निरंशमतेः स्मृतिस्ते । किं न क्षणक्षयधियोऽप्यविकल्पिकायाः, स्यात् तत्स्मृतिः सुगतशिष्य ! तदोक्तहेतोः ।।५८।। सामर्थ्यतद्विरहसङ्घटनाऽपि तस्याः, स्यात् ते कथं वद निरंशमतित्ववादिन्!? । येन त्वयोपगतमप्यनुमोदितं स्या - देकत्र सा तदितरत्र न सेति वाक्यम् ।।५९।। स्मृत्युद्भवाद् भवति सा सविकल्पिकैव, तस्या न जन्म सविकल्पकजन्मकाले । तस्मात् कथं कथय सौगत ! तेऽनुमानं, स्यान्निर्विकल्पकमतिप्रमितौ समर्थम् ? ।।६०।। मानान्तरं न च तवोपगतं यतः स्यात्, तस्याः प्रसिद्धिरिति जैनमतं प्रमाणम् । पूर्वोक्तलक्षणयुतं न कुतोऽपि वाधां, प्राप्नोति न त्वदुपदर्शितमत्र मानम् ।।६१।। यस्मात् स्वलक्षणमतित्वमनंशबुद्धौ, स्वप्नेऽपि कस्यचिदिह प्रथते न चैव ।
तत्पारमार्थिकमिदं शपथैकगम्यं, मानत्वलक्षणमविज्ञजनोपगम्यम् ।।६२ ।। बौद्धोक्तनिर्विकल्पकप्रामाण्यापाकरणम्
अर्थोपदर्शकतयाऽथ निरंशबोधो, मानं विकल्पनधियो जननात तथा च । द्वारं सदेव सविकल्पकमत्र मानं, क्लृप्तं निरंशमतितो व्यवहारकाले ।।६३।। यद्यर्थगोचरतयाऽभिमतो विकल्पः, स्यात् तर्हि तस्य जननादुपदर्शिका धीः । यस्मान्न संशयविपर्ययकारणं धी - निं तथा च सविकल्पकमेव तत्त्वम् ।।६४।। सामान्यगोचरतया यदि मानताऽस्य, सद्गोचरत्वविगमान्न तव प्रसिद्धा । व्यापारताऽपि तत एव निरंशबुद्धेः, स्यादस्य नैव विपरीतमतेरिवाऽर्थे ।।६५।। नो दृश्यकल्प्यविषया मतिरस्ति काचिद्, भेदेऽप्यभेदघटनाऽत्र यया भवेत् ते । नाऽऽरोपितो भवति कोऽपि प्रभुः क्रियायां, तृष्णा कृशा भवति किं मृगतृष्णिकातः ।।६६।।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
किञ्चाऽक्षजाऽत्र सविकल्पकबुद्धिरेव, नेष्टा कुतो भवतु येन निरंशबुद्धेः ।
तद्वारतो नियतगोचरमानता ते, मानप्रसिद्धिपदवीमवलम्बमाना ।।६७।। सविकल्पकखण्डनरूपो बौद्धपूर्वपक्षः -
नन्वत्र बुद्धतनया विविधैर्विकल्पै - दुःसन्दिहानमनसः प्रतिबोधनीयाः । यस्माद् विना नहि विशेषणगोचरत्वं, बुद्धौ मते तव विशिष्टमतित्वमिष्टम् ।।६८।। शब्दो विशेषणतया नहि भासतेऽर्थे - ऽध्यक्षान्न शाब्दिकमतं तत एव युक्तम् । शब्दो न नेत्रविषयो न स वर्ततेऽर्थे, न व्यापको न च ततोऽभिमतो ह्यभिन्नः ।।६९।। स्मृत्याऽपि तस्य नयनोत्थमतौ प्रकाशो - ऽन्योन्याश्रयेण नहि युज्यत एव यस्मात् । उद्बोधकाक्षजधियः स्मरणस्य जन्म, तस्माच्च सेति न भवेदुभयप्रसिद्धिः ।।७०।। जातिः समानमतितो न च सम्प्रसिद्धा, साऽपोहगोचरतयैव यतः प्रसिद्धा । तद्वत्त्वतोऽपि न विशिष्टतया घटादौ, बोधोदयो भवति गौतमतन्त्रसिद्धः ।।७१।। नो युज्यते त्ववयवी व्यतिरिक्त एकः, स्थूलस्ततोऽपि न विशिष्टमतेर्विलासः । द्रव्यं गुणाधिकरणं न च विद्यतेऽत्र, तस्मात् कथाऽपि न विशिष्टधियोऽक्षजायाः ।।७२ ।। बुद्धिघटादिविषया परमाणुपुञ्जाद, द्रव्यं न कोऽपि विषयीकुरुतेऽक्षमध्ये । रूपादयो हि नयनादिमतौ प्रथन्ते, द्रव्याणि नैव तु तदन्यतयेति विज्ञाः ।।७३।। संयोजनं विभजनं च पृथङ् न चाऽस्ति, भावादिहाऽणुनिचयात् कुत एव ताभ्याम् । कर्मप्रसिद्धिरपि येन विशिष्टबोध - स्तद्वत्त्वतोऽक्षजनितोऽनुमतो बुधानाम् ।।७४।। स्थैर्ये तथाऽस्य जननं च भवेत् कथञ्चि - नो वै क्षणक्षयमते सुगतानुगानाम् । अर्थक्रियादिघटना मत एव तस्मिन्, स्थैर्यं त्वविज्ञजनतानुमतं न युक्तम् ।।७५।। पूर्वापरादिविगतं खलु वर्तमान - मेवाऽक्षसन्निधिबलाद् विशदावभासे । बोधे परिस्फुटवपुः प्रथते न चाऽन्यत्, पूर्वादितोऽपि तत एव विशेषणं नो ।।७६।। दण्डीति बुद्धिरपि चाऽक्षसमुद्भवत्वे, किं नो भवेन्नियमतो वद सर्वपुंसाम् । येनैव दण्डसहकारिबलात् समर्थो, दृष्टोऽत्र किन्तु पुरुषो ननु तद्गतैव ।।७७।। दण्डस्तथा न च विशेषणमेव पुंस - स्तस्याऽपि किन्तु स विशेष्यतया मतोऽत्र । पुंसा तु येन पुरुषोपकृतेन दण्डे - नाऽऽलक्षितः फलभवो ननु तेन किं न ? ।।७८।। चेद् वस्तुतो यदि विशेष्यविशेषणत्वे, नैतादृशो विनिमयो भविता तदानीम् । तस्माद् विशिष्टमतिरक्षसमुद्भवा नो, युक्ता निरंशमतिरेव ततोऽर्थतश्च ।।७९।।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ स्वात्मप्रतिष्ठितमिदं जगदेव नो वै, वृत्तिः परस्य परधर्मिणि सम्प्रसिद्धा । तत्त्वेऽनवस्थितिलतापरिवेष्टनं स्या - नो भूतलाश्रितघटादिमतिस्ततोऽपि ।।८०॥ यश्चाऽणुदेश इह येन विशिष्ट इष्टो, नो तस्य नेत्रघटनाऽपि तदावृतत्वात् । योऽनावृतः स तु न तेन भवेद् विशिष्टो, देशादितोऽपि न विशिष्टमतिस्ततोऽक्षैः ।।८१।। किञ्चाऽक्षयोगविमुखानपि भावसार्थान्, प्रत्यक्षबोध इह चेदवगाहते ते । किं नो भवेदखिलतत्त्वप्रकाशिका धीः, सर्वज्ञवत् सकलसत्त्वसमाश्रिताऽपि ||८२॥ पूर्वादिके यदि तु सन्निधिमन्तरा ते, त्वक्षोत्थबोध उपपद्यत एव तर्हि । कस्मादनागतविनष्टपदार्थसार्थे - ऽध्यक्षा मतिर्भवति नैव तथैव भिन्ने ।।८३।। तस्माद् विशेषणमिहाऽथ विशेष्यमाभ्यां, संसर्गमज्ञजनता प्रथमं प्रकल्प्य ।
बोधं विशिष्टविषयं मनुते ततः किं, प्रत्यक्षताद्युपगमोऽपि भवेच्च तस्य ।।८४।। बौद्धमतखण्डनम् -
एतन्न चारु सुगतानुगदर्शितं यत्, सर्वं पलालनिकरस्य समं विभाति । स्याद्वादलाञ्छितपदार्थमहेन्धनेद्ध - बोधाग्निना सममुपैति न च प्रतिष्ठम् ।।८५।। नाऽत्राऽक्षजस्त्वभिमतो निखिलोऽर्थबोधः, शब्दान्वितार्थविषयस्तव येन दोषः । अन्योन्यसंश्रयभवस्मरणेन जन्ये, शब्दावगाहिनि भवेन्नयनोत्थबोधे ।।८६।। जातिः समानपरिणामतया त्वयाऽपि, जैनैरिवैक्यमतिविभ्रमवादिनेष्टा । मन्तुं तथा विधिमुखस्य न प्रत्ययस्य, तुच्छावगाहनतयोपगमोऽपि युक्तः ।।८७।। नाऽपोह एव तव जातिपदाभिषिक्तः, स्यात् तां विनाऽनुगतबुद्धिभवे समर्थः । भेदद्वयाकलितमूर्तिरयं यतस्ते - ऽगोऽन्यत्वरूप इह सम्मत आगमन ।।८८।। गोव्यक्तिभेद उत किं सकलस्य गोर्वा, भेदो निविष्ट इह न प्रथमोऽत्र युक्तः । तत्त्वे हि गोष्वपि परस्परभिन्नभावाद्, गोभिन्नतैव न गवान्यविभिन्नता स्यात् ।।८९।। पक्षो द्वितीय इह तेऽनुमतो यदि स्या - ज्जातिस्तदा स्वरसतस्तत एव सिद्धा । जातिं विनाऽखिलगवप्रतियोगिकस्य, भेदस्य निर्वचनमेव न शक्यते यत् ।।९०।। तत्राऽप्यपोहघटना यदि ते मता स्यात्, किं नाऽनवस्थितिघटा परितस्तदानीम् । जातिर्न तार्किकमताऽत्र मते ततो न, त्वद्दोषभीतिरपि सम्भविनीति विद्धि ।।९१।। स्थानं जहाति नहि पूर्वमितस्तथा वा, नाऽन्यत्र गच्छति न वाऽशवती न जन्या । तद्देशवृत्तिकलिता न च तत्कुतः सा, गोव्यक्तिमात्रनियताऽभ्युपगन्तुमिष्टा ।।९२।।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥श्रीन्यायसिन्धुः ॥
एवं हि दोषसमुदायसमर्थनेन, नैयायिकस्त्यजतु तामतिरिक्तभावाम् । जैनो न किं शबलवस्त्वनुरक्तबुद्धि - स्तां स्वीकरोतु विशदप्रतिभाससिद्धाम् ।।९३।। यस्मात् कथञ्चिदिह जायत एव जाति - र्व्यक्त्युद्भवेऽपि तदनन्यतया तथा सा । तन्नाशतो लयवती धुवभाविनी च, नैतत् त्रयं हि विरहय्य मताऽत्र सत्ता ।।९४।। सा चोर्ध्वता जिनमते प्रथिता च तिर्यक्, स्वद्रव्यमेव प्रथमानुगता घटादौ । साधारणी परिणतिस्तु भवेद् द्वितीया, पूर्वा त्रिकालगमनेयमनल्पदेशा ।।९५।। सामान्यमत्र न विशेषपृथक्स्वरूपं, नो वा स भिन्न इत इष्यत आहेतैर्यत् । एकान्ततोऽपृथगपीह मतं द्वयं नो, जात्यन्तरं भवति तज्जिनसम्प्रदाये ।।९६।। व्यावृत्तिबुद्धिरथ चाऽनुगतत्वबुद्धि - स्तद् वस्तुतो भवति नो समवाययोगात् । तादात्म्यमेव यत आहेततत्त्ववादे, संसर्गताश्रयतयाऽभिमतं कथञ्चित् ।।९७।। भिन्ने हिमे भवति नैव हि विन्ध्यवृत्ति - नॊ वा घटस्य घट एव घटा प्रसिद्धा । तादात्म्यता भवति तेन भिदानुविद्धा, संसर्गमात्रनियता जिनसम्प्रदाये ।।९८।। संयुक्ततापरिणतेस्तु बलादभेदो, द्रव्यद्वयस्य खलु भेद इह स्वरूपात् । तादात्म्यमेव ननु भेदयुतं ततोऽत्र, संयुक्तयोरपि मतं जिनतन्त्रविज्ञैः ।।९९।। एकान्ततोऽक्षचरणानुमतो विभिन्नो, योगो विकल्पमुखजर्जरितस्वरूपः । भिन्ने स किं भवति किं नु भवेदभिन्ने, जात्यन्तरे भवति वा न गतिश्चतुर्थी ।।१००।। आद्ये भवेद् वद कथं न हिमेऽपि विन्ध्य - वृत्तिस्ततो बुधमता तव सम्प्रदाये । चेत् कार्यकारणसमाश्रयणेन नाऽयं, दोषस्तदा भवतु नो मतसिद्धिरेव ।।१०१।। यः सर्वथा भवति सन् न च तस्य जन्म, नो वाऽसतो भवति हेतुबलात् तथा तत् । जात्यन्तरस्य तु भवेदपि ते मतं न, तत्त्वे विवाद इह नैव भवेन्मया ते ।।१०२।। पक्षे द्वितीय इह किं न घटादयः स्युः, स्वात्माश्रिता वद ततो न च सोऽपि युक्तः । अन्त्ये विवादविलयो बुध ! जैनतत्त्वे, श्रद्धा त्वयाऽपि कपटात् प्रकटीकृता यत् ।।१०३।। संसर्ग एष तव किञ्च मते मतोऽस्ति, संसृष्टरूप उत वा विपरीत आद्ये । स्वस्मात् स चेद् यदि तदा न तमन्तराऽपि, किं द्रव्ययोरपि तवाऽनुमतः स विद्वन्! ।।१०४।। चेदन्यतो ननु भवेदनवस्थितिस्ते, तस्याऽपि सम्भवति सोऽन्यत एव यस्मात् । नेष्टाऽनवस्थितिरियं न हि मानसिद्धा, तामन्तराऽपि गतिरस्ति यतः स्वरूपात् ।।१०५।।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ द्वैतीयके न नियमोऽविनिगम्यभावात्, सर्वस्य किं सकल एव ततो न वृत्तिः । युक्तिः समैव समवायनिराक्रियाया - मेषा विशुद्धमतिभिः स्वयमेव चिन्त्या ।।१०६।। वायौ न किं भवति रूपविशिष्टबुद्धि - रेको विभुश्च समवाय इहेष्यते यत् । सम्बन्धसत्त्वनियतैव मतार्थसत्ता, नो चेत् तदा भवतु तस्य प्रयोजनं किम् ।।१०७।। स्याच्चेन्न रूपप्रतियोगिक एष वायौ, वाच्यस्तदा विनिगमो ननु कोऽपि येन | भूम्यादिकेऽस्ति स तु नो पवनादिभावे, ज्ञानाद् व्यवस्थितिरियं च न युज्यते ते ।।१०८।। वायौ हि रूपविरहस्य मतिस्तवेष्टा, सा रूपबुद्धिजनितैव न रूपबुद्धेः । आरोपतावगतिरस्ति विनैव रूपा - भावप्रमाप्रमितिमित्यवधारणीयम् ।।१०९।। चेल्लाघवात् तव प्रथा यदि तस्य तर्हि, नाऽस्त्येव तच्च बुध ! तद्व्यतिरिक्ततायाम् । द्रव्यादिभेदघटनादिप्रकल्पनेन, यद्गौरवं भवति तत्र तदात्मतातः ।।११०।। तादात्म्यतो भवति जातिविशिष्टबुद्धि - स्तादात्म्यमत्र तु कथञ्चिदनन्यतैव । तस्मात् कथं कथय बौद्ध ! विकल्पबुद्धि - रक्षोद्भवाऽपि किमु नैव प्रयाति सिद्धिम् ।।१११।। नो सर्वथाऽवयवतो व्यतिरिक्त एव, स्थूलो घटाद्यवयवी जिनसम्प्रदाये । भिन्नस्ततोऽथ च कथञ्चिदयं ततः किं, तस्माद् विशिष्टमतिरक्षभवा न तस्मिन् ।।११२।। अंशेन वृत्तिरुत किं निखिलात्मनांऽशे, त्वत्सम्मतावयविनोऽप्यथवा न साऽस्ति । इत्यादिदोषभयतो व्यतिरिक्ततैव, स्यात् सर्वथाऽक्षिचरणानुमताऽस्य लुप्ता ।।११३।। सोऽनन्तशक्तिकतया च भवेदनन्त - धर्मा ततोऽवयवसङ्घसमाश्रितोऽपि । किञ्चिच्चलत्यपि न गच्छति संस्थितोऽपि, नो स्थैर्यवान् भवति चित्रमचित्ररूपः ॥११४।। देशेन दृष्ट इह नैव भवेच्च दृष्टो, देशावृतोऽपि तदनावृत एष इष्टः । रक्तोऽप्यरक्त इह नैव विरोधचर्चा - ऽनन्तस्वभाववति वस्तुनि मानसिद्धे ।।११५।। नाऽस्य प्रथा भवति वा परमाणुपुञ्जाद्, यस्मान्महत्त्वमणुषूपगतं त्वया नो । संयुक्तताऽपि न च तेषु तव प्रसिद्धा - ऽदृश्याणुपुञ्जजनितं न च दृश्यपुञ्जम् ।।११६।। रूपादिभिन्नमिह नैव समस्ति किञ्चिद्, द्रव्यं त्वयेति कथितं नहि तच्च युक्तम् । दृष्टं स्पृशामि कनकादि स एव चाऽह - मित्यादिका मतिरुदेति न तद्विना यत् ।।११७।। स्पर्शो न नेत्रविषयो न च रूपमिष्टं, त्वग्गोचरं कथय कस्य भवेत् तथा धीः । द्रव्यं तदाश्रयतयाऽभ्युपगम्यते चेत्, तत्र द्वयोरपि तदा विषयत्वशक्तिः ।।११८।।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
संयोगखण्डनमपि प्रथितं त्वया यत्, तत् तार्किकस्य मतमेव निराकरोतु । पर्यायताऽस्य कथिता ननु येन तस्मिन्, स्याद्वादवादिनि कथं तव दोषपोषः ।।११९।। संयोगिनोऽत्र परमाणव एव किं स्युः, संयोगहेतव उतेतरथाऽऽद्यपक्षे । संयोगकल्पनमनर्थकमेव तेषां, संयोगिता प्रथमतो ननु यत् प्रसिद्धा ।।१२०।। द्वैतीयके तु किमु सातिशयास्तथा स्युः, किं वा न तेऽतिशयतश्च विशिष्टरूपाः । आद्येऽन्यतो यदि तु सातिशयत्वमेषां, किं नाऽनवस्थितिलतापरिवेष्टनं स्यात् ।।१२१ ।। स्वस्माद्धि चेद् यदि तदा त्वविशेषतः किं, देशान्तरस्थितिमतामपि तद्भवेन्नो । दोषादतोऽतिशयशून्यतयाऽपि नैषां, स्वीकारपक्ष उपपद्यत एव युक्त्या ।।१२२।। अव्याप्यवृत्तिरथ तार्किकसम्मतोऽयं, तद्वत्त्वतोऽणुषु कथं नहि सांशता स्यात् । इत्यादिदोषघटना जिनसम्प्रदाये, स्याद्वादलाञ्छिततनौ न भवेच्च तस्मिन् ।।१२३।। संयोगवद् विभजनं च तथैव सिद्धं, नो द्रव्यतस्तदुभयं व्यतिरिक्तमेव । तत्कारणं भवति कर्म तथैव तस्मात्, किं नो विशिष्टमतिरक्षभवा ततो नः ।।१२४।। कर्मोद्भवो भवति नो क्षणिकत्वपक्षे, स्थैर्य भवेदपि न स प्रमितस्तु पक्षः । इत्यादि यत्पुनरिहाऽभिहितं त्वया तत्, स्यादेव तार्किकभयस्य निदानभूतम् ।।१२५।। नो नः क्षणक्षयतयाऽभिमताः पदार्था, एकान्ततो न च तथा स्थिरतालयाश्च । स्याद्वाद एव ननु तत्र निरस्तदोषः, कर्मादिभूतिफलकोऽभ्युपगन्तुमर्हः ॥१२६।। यस्माद् भवेन्न च निरन्वयमेव जन्म, तस्मात् कथं क्षणिकपक्षकृतादरस्त्वम् । पूर्वापरक्षणगताश्च विभिन्नधर्मा - ध्यासात् कथं स्थिरतयैव तथोपगम्याः ।।१२७।। यच्चैकदा भवति यज्जनने समर्थं, तत् सर्वदेति नियमेन प्रसङ्गतो यत् । सामर्थ्यतद्विरहरूपविरुद्धधर्मा - ध्यासान्मतं क्षणिकतानियतं च सत्त्वम् ।।१२८।। अर्थक्रियाजनकतैव मताऽत्र सत्ता, तस्या बलात् क्षणिकता तव सर्वभावे । एतद् द्वयं ननु विचारसहं न यस्मा - नैयायिकैरपि कृता स्थिरताव्यवस्था ।।१२९।। एकं न किञ्चिदपि कारणमर्थकारि, सामग्र्यमेव जनकं तत एव कार्यम् । यस्मात् ततस्तु सहकारिसहायतोऽर्थं, कुर्युर्न कुर्युरपि तद्विरहात् पदार्थाः ।।१३०।। किं वा यथाऽत्र करणाकरणे न काल - भेदे स्थिरे भवत एक पदार्थनिष्ठे । एते तथैव भवतो ननु देशभेदे - ऽप्येकत्र धर्मिणि कथं क्षणिकेऽपि बौद्ध! ।।१३१।।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ यच्चैकदेश इह कार्यजनौ समर्थं, तत् सर्वदेश इत एव करोतु कार्यम् । नो चेद् विरुद्धघटनादिह चाऽपि भेद, एवं तवोपरि कथं न पतेत् प्रसङ्गः ।।१३२।। योऽयं क्षणः प्रकृतकालगतं पदार्थं, कर्तुं समर्थ इह सोऽन्यगतं तथा चेत् । कार्यं त्रिकालगमसौ जनयेत् तथा च, साधु क्षणक्षयमतं भवता न्यगादि ।।१३३।। यो वै क्षणः प्रकृतकालगदेशवृत्ति - कार्योदवे प्रभुरसौ यदि ते समर्थः । कार्यं त्रिकालगतदेशगतं विधातुं, नित्यं विभु प्रथितमेव तदा त्वयाऽपि ।।१३४।। पूर्वप्रसञ्जनभयाद् यदि तद्विरुद्ध - मिष्टं तदा क्षणगतेऽपि भवेच्च भेदः । तत्त्वेऽनवस्थितिघटा तव शून्यता वा, पक्षे क्षणक्षयकथा न तु सावकाशा ।।१३५।। इत्थं स्वबुद्धिविभवो ननु तार्किकेण, व्यक्तीकृतस्तु प्रतिवन्दिबलान्न तत्त्वात् । एकक्षणेऽपि बहुधर्मयुतं पदार्थं, यस्माद् विवेद न च सोऽपि कुतर्कमोहात् ।।१३६।। शक्तिः स्वरूपसहकारिविभेदतोऽत्र, द्वेधा मता घटपटादिपदार्थनिष्ठा । बौद्धोक्तदोषनिवहस्य कुतोऽवकाशः, स्याद्वादवादिनि वृथा प्रतिबन्दिचर्चा ।।१३७।। स्थैर्ये स्थिते क्षणिकताऽनुगते क्रियायाः, किं नोद्भवो न च विशिष्टमतिस्ततः किम् । संयोगतो विभजनाच्च तदुद्भवाद् वा, किं नाऽक्षजा भवतु धीर्विशदावभासा ।।१३८।। यद् वर्तमानमिह केवलमक्षबोधे, वस्तु प्रकाशत इति प्रतिपादितं तत् । ध्यान्ध्यं यतो नहि भवेत् तव केवलस्य, पूर्वापराद्यविषयीकरणेऽवभासः ।।१३९।। ऐक्यं यथाऽत्र प्रतियोग्यनुयोग्यपेक्षं, नो भासते तदुभयं विरहय्य बुद्धौ । भेदस्तथैव प्रतियोग्यनुयोग्यपेक्षः, किं भासतां तदिव केवलशब्दवाच्यः ।।१४०।। भेदः स्वलक्षणतयैव मतो हि तेन, तबुद्धितो यदि भवेत् स गृहीत एव । ऐक्यं स्वलक्षणतयैव मतं कथं न, तच्चाऽपि तर्हि तत एव गृहीतरूपम् ।।१४१।। सान्निध्यतो भवति चाऽक्षमतेविलासः, पूर्वापरौ न विषयीकुरुते ततः सा । इत्यादिकं तव मते न हि युज्यते यत्, सान्निध्यमेव तु न चाऽस्ति पृथक् पदार्थात् ।।१४२।। नैक्यत्वतो ग्रहणमत्र भवेत् तथात्वे, भेदत्वतो ग्रहणमप्यनुमोदितं किम् । धर्मिस्वरूपमुभयत्र समानमेव, तस्मात् कथं न सविकल्पकबुद्धिरक्ष्णः ।।१४३।। रूपे यथैव नयनस्य तथैव गन्धे, सान्निध्यमस्ति नयनान तु गन्धबुद्धिः । योग्यत्वमेव नियतं तत आर्हतानां, ग्राह्यस्वभावगमकं मतमिन्द्रियाणाम् ।।१४४।।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
स्याच्चेदतीतविषये तदनागते वा, तहक्षजाऽपि मतिरस्तु ततश्च तेषाम् । पूर्वापरौ च भजनान्न विना विभिन्नौ, स्तो वर्तमानत इयं क्व तदा कथा ते ? ॥१४५॥ यद्याग्रहस्तव तयोश्च विभिन्नकाल - वृत्तित्वतो न विशदाभमतिस्तदानीम् । सर्वज्ञता सुगततोऽपहृता त्वयैवं, तात्कालिकान्यविषयावगतेरभावात् ॥१४६।। एतेन केवलविशेषणमन्तरैव, बोधो निरंशविशदो ननु वर्तमानम् । अर्थं प्रकाशयति नाऽन्यमिति प्रलापो -ऽप्यस्तङ्गतः सुगतशिष्यगणोपजीव्यः ।।१४७।। दण्डान्वितः पुरुष इत्यपि बुद्धिरक्ष्ण, एवं स्थितौ शबलवस्तुत एव युक्ता । सर्वस्य सा भवति किन्तु विवक्षितोऽर्थो, यः स्यात् स एव वचनप्रथितस्तु लोकैः ।।१४८।। चित्रात्मके घटपटादिपदार्थजाते, यस्यैव येन पुरुषेण कृता विवक्षा । तत्रैव तस्य पुरुषस्य वचोविलासो, ज्ञातेषु सत्स्वपि च धर्मगणेषु बौद्ध ! ॥१४९।। एतावतैव नियमो वचने न चाऽस्ति, बुद्धिस्तु सर्वविषयाक्षभवार्थजन्या । धर्मस्वरूपवदतोऽत्र मतश्च धर्मी, धर्मे विशेषणमपीति जिनानुगानाम् ।।१५०।। धर्मो यथैव न च धर्मिविभिन्नरूपो, धर्मी तथैव न च धर्मविभिन्नरूपः । एकान्ततो हि तत एव विशिष्टबुद्धि - रन्योन्यतोऽस्तु न च काचिदिहाऽस्ति हानिः ।।१५१।। एवं च मुग्धजनताऽपि विचित्ररूपं, पश्यश्च दण्डपुरुषद्वयमेव बद्धम् । पूर्वक्षणेऽपि नयनेन न वक्ति यत् तु, तत्राऽन्यहेतुविरहो न च बुद्ध्यभावः ।।१५२।। स्वात्मप्रतिष्ठितमिदं जगदुक्तवान् यत्, तद्युक्तमेव जिनतन्त्रसमाश्रयेण । भेदेऽप्यभेद इह यत्सकलेषु जैनैः, सत्त्वादिधर्मघटनाकृत उक्त एव ।।१५३।। या चाऽनवस्थितिघटाऽन्यसमाश्रितत्वे, प्रोक्ताऽत्र सूक्ष्ममतिना न च सा तु युक्ता । आकाश आश्रयतयैव मतोऽखिलानां, नाऽस्याऽऽश्रयो भवति कोऽपि कुतोऽनवस्था ।।१५४।। एकप्रदेशवति तत्र तदन्यदेशा - वच्छिन्न एष ननु तिष्ठतु तावताऽपि । साधारतानियम आहेतसम्प्रदाये, उक्तः परैर्निखिलभावगतोऽपि युक्तः ।।१५५।। नन्वत्र तार्किकमतेन विभुर्निरंशः, शब्दाश्रयः प्रथित एष न किं तवाऽपि ।
येनांऽशकल्पनपरिश्रमतोऽपि मुक्तिः, श्रेयस्करी नभसि ते भविता तदानीम् ।।१५६।। शब्दस्य पौद्गलिकत्वव्यवस्थापनम् -
शब्दो गुणो यदि भवेन्ननु युक्तमेतत्, स्यात् किन्तु पौद्गलिक एष मते जिनानाम् । सङ्ग्याक्रियादिमतिरत्र यतो गुणत्वा - भावप्रसाधनपरा विशदा न बाध्या ।।१५७।।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
साक्षान्न तस्य यदि किन्तु परम्परातः, सङ्ख्या तदाश्रयगता किमु हेतुगा सा । द्वित्वादिधीहि भवेत् प्रथमे द्वितीये, स्यादेकतामतिलयो बहुकारणोत्थे ।। १५८।। दूरादयं झटिति शब्द उपागतोऽयं, शाङ्खश्रुतिं च बधिरीकुरुते बलीयान् । शैले त्वयं प्रतिहतः पुनरेति कर्णं, द्वारादतोऽयमखिलो मम भाति नो ते ॥ १५९ ॥ इत्यादिधीर्भवति तत्र विना न कर्म, सत्त्वे च तस्य गुणता नहि युक्तिसिद्धा । सर्वा मतिर्मतिमतामुपचारतो नो, मुख्यात् तथाऽभ्युपगमे वद कोऽत्र दोषः || १६० || नाऽऽकाशरूपमिह तु श्रवणं मतं च तत्त्वेऽखिलस्य युगपत्पुरुषस्य बुद्धिः । शब्दे भवेद् व्यवहितेऽपि ततश्च शब्दो, द्रव्यं श्रुतिः परिचितैव तयोस्तु प्राप्तिः || १६१ ।। शक्तिस्तथाऽत्र वहिरिन्द्रियमात्रवृत्तिः, प्रत्येकमेव नियता जिनसम्प्रदाये । तस्याः क्षयाद् वधिरताद्युपपद्यतेऽत्र, नाऽदृष्टकल्पनभवोऽपि महान् प्रयासः ।।१६२ ।। तस्या बलान्नयनजा युगपन्मतिस्तु, सञ्जायते शशिनि शाखिनि चैव विद्वन् ! | संयोगो यदि भवेत् क्रमतस्तदानीं, चन्द्रे च शाखिनि मतिद्वयमेव नैका ||१६३ || चक्षुषस्तैजसत्वापाकरणम्
१४
नो रश्मिमन्नयनमस्ति कुतोऽपि मानात्, सिद्धं यतोऽत्र नयनात् तव निःसृतास्ते । चन्द्रं च शाखिनमपि प्रजवेन गत्वा, संयुज्यमानतनवो ह्यवभासयन्तु ।।१६४||
मध्ये रसादिषु भवेद् यदि रूपमात्र प्रोद्बोधकत्वत इदं ननु तैजसं ते । तस्माच्च दीपकलिकेव समस्ति रश्मि चक्रास्पदं तदपि तन्न विचाररम्यम् ||१६५ ।। प्रत्यक्षबाध इह पक्षगतो हि दोष - श्चक्षुर्न रश्मिसहितं क्वचिदप्यलोकि ।
योग्या न रश्मय इतीक्षणगोचरा नो चेत् तर्हि भास्करकरा अपि किं न रात्रौ ।।१६६ ।।
-
मार्जारचक्षुरिह बाह्यप्रकाशयुक्तं चक्षुष्ट्वतो भवति रूपमतौ समर्थम् । यद् दिवा मनुजनेत्रमिति प्रमाणं, किं नाऽस्त्यदृश्यरविरश्मिषु रात्रिगेषु || १६७ || उद्भूततापरिगताः स्वत एव ते चे - न्मार्जारचक्षुषि पदार्थमतौ समर्थाः । नो तादृशा मनुजचक्षुषि तेन तेषां रात्रौ न सूर्यकिरणस्य भवेद् व्यपेक्षा || १६८ ।। यद् यादृशं भवति दर्शनगोचरस्तत् त्वं स्वीकरोषि यदि तादृशमेव विद्वन्! । नेत्रे दिवा कथमदर्शनगोचरास्ते, रात्रौ न किं रविकरा अपि तादृशाः स्युः ।।१६९ ।।
-
किं वा सुवर्णमपि नेत्रसमानमेवा ऽनुद्भूतरूपमपि ते न प्रकाशकं स्यात् । योग्यत्वमत्र शरणं यदि तैजसत्वं, व्यर्थं तदा नयनगं परिकल्पितं ते ।।१७० ।।
-
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
सूर्यांशवोऽथ यदि सन्निहिता रजन्यां, किं रूपगोचरमतिर्न भवेन्नराणाम् । नैवं कथं भवति तार्किक ! सूर्यरश्मौ, नोलूकपक्षिण इहाऽह्नि मतिर्विशुद्धा ।।१७१।। दीपो यथा भवति रूपमतौ समर्थ - स्तद्वत् तमोऽपि कथमस्य न तैजसत्वम् । रात्रिशरादि तदपेक्ष्य यतो रजन्यां, स्पष्टं विलोकयति तद् व्यभिचारि हेतुः ।।१७२।। नाऽभावता तमस आर्हतसम्प्रदाये, इष्टा तु पौद्गलिकताऽतितरादियोगात् । तेजोऽणुभिर्भवति तस्य जनिस्तथाऽस्मिन्, स्पर्शश्च शीतलतयाऽभिमतो बुधानाम् ।।१७३।। नो जातिभेद इह जैनमतानुगाना - मिष्टेषु पुद्गलतयाऽणुषु सम्मतो यत् ।
तेजोऽणवोऽपि तत एव भवन्ति शीता - स्तज्जं तमः पवनतोऽस्य मतिश्च शीते ।।१७४।। सविकल्पकव्यवस्थापनोपसंहारः -
तस्मान्न चाऽक्षिचरणानुमतोऽत्र शब्दो, नाऽऽकाश आश्रयतयाऽभिमतोऽस्य जैनैः । भिन्नाश्रितं जगदिदं न ततः कथं स्या - नेत्रोद्भवाऽपि सविकल्पनबुद्धिरेषाम् ।।१७५।। येनैव योऽत्र सहितोऽसहितोऽपि तेन, नैकान्ततः किमपि सम्मतमागमेऽस्मिन् । योऽनावृतः स तु न तेन भवेद् विशिष्ट, इत्यादि ते न वचनं वचनीयमेव ।।१७६।। प्राप्तप्रकाशपटु नेन्द्रियमत्र किञ्चा - ऽवष्टब्धदेशमतिरक्षभवा न किं स्यात् ? ।। आधारसङ्घटितमूर्तिरतोऽक्षजन्य, आधेय इष्ट इह भास्यतया च बोधे ।।१७७।। योग्यत्वमत्र फलगम्यमतः प्रतीतौ, यस्यैव यत्र विषयस्य भवेत् प्रकाशः । पूर्वः परो भवतु वा निकटोऽथ दूर - स्तस्याः स एव विषयः सविकल्पिकायाः ।।१७८।। तस्मात् कथं सकलपूर्वपरादिभावः, स्याद् गोचरोऽक्षजधियोऽथ च सर्ववित्त्वम् ।
किं वर्तमानमखिलं तव भासते नो, किं वा तथा निकटवर्तिसमस्तभावाः ? ||१७९।। साकारतावादिबौद्धपूर्वपक्षः -
नन्वेवमस्तु सविकल्पकबोधसिद्धिः, साकारताऽस्य किमु तद्विपरीतता वा । साकारता सुगतशिष्यमता तु तत्र, जागर्ति युक्तिनिवहानुगता न हेया ।।१८०।। आकारमुक्तमिह नैव निरीक्ष्यते य - ज्ज्ञानं तदजनकल्पितमेव सन् नो । साकारपक्षविमुखाद् विषयव्यवस्था, ज्ञानात् तथा न नियताऽन्यमते कथञ्चित् ।।१८१।। कुम्भः पटोऽयमिह नीलमियं च शुक्ति - रेषा नदी पनस एष इयं वनाली । इत्यादिवोधजनिता व्यवहारयोग्या, साकारवादिनि भवेद् विषयव्यवस्था ।।१८२।।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ विज्ञैरपि व्यवहृतौ ननु किं घटाद्या - कारा मतिर्नयनतो विशदावभासा । दीपैर्विना न भवतीति निगद्यते नो - ऽनाकारपक्ष इह तेन बुधैरुपेक्ष्यः ।।१८३।। स्वाकारतार्पकतयैव घटादयः स्युः, सौत्रान्तिकस्य च मते ननु सिद्धिभाजः ।
बाह्यानुरागविमुखीकृतचित्तयोगा - चारस्य तेऽपि नहि बोधविविक्तरूपाः ।।१८४।। बौद्धप्रतिविधानम् -
आपातमात्ररमणीयमिदं हि बौद्ध - सन्तानबालवचनं वचनीयमेव । स्याद्वादवादिन इहाऽपि महास्त्रमेष, स्याद्वाद एव विमुखीकुरुते विपक्षम् ||१८५।। साकारता मतिगता विषयव्यवस्था - हेतुर्मता भवति सा ननु तां विनाऽपि । नेत्रादिना नियमितानियतस्य बोधात्, तत्रैव तन्नियमनं च तथा स्वभावात् ।।१८६।। वस्तुस्वभाव इह पर्यनुयोगतो नो, हेयः स्वहेतुबलतोऽचलितस्वरूपः । किं नाऽन्यथा तव मतेऽपि भवेच्च नीला - कारोऽप्यतादृशतयेति परस्य प्रश्नः ।।१८७।। नीलाद् यथाऽयमभवन्नयनात् तथैव, स्वाकारतार्पकमभूनयनं कथं न । वस्तुस्वभावममलं शरणं विहाय, काऽन्या तवाऽपि गतिरत्र तथैव कल्प्ये ।।१८८।। साकारबोधमतिरस्ति नवा तथा ते, नाऽन्त्ये प्रसिद्धिरपि तस्य भवेत् कथञ्चित् । आद्येऽनवस्थितिमुखान्न भवेद् विमुक्तिः, साकारता यदि भवेन्ननु बोधबोधे ।।१८९।। साकारता न यदि तत्र तदा कथं स्याद्, बोधव्यवस्थितिकथाऽपि भवन्मतेन । किं वा तथैव न कथं विषयव्यवस्था, साकारताविरहितादपि बोधतस्ते ।।१९०।। साकारबोध इह किञ्च न चेत् पदार्थं, बाह्यं तवोपगमतो विषयीकरोति । सिद्धिस्तदा भवतु तस्य कुतो न चाऽर्था - पत्तेर्हि तस्य विषयीकरणं ततो नो ।।१९१।। किञ्चाऽनुमानत इयं न पृथक् त्वयेष्टा, व्याप्तिग्रहं तु विरहय्य न तस्य जन्म । व्याप्तिग्रहोऽप्यविषयीकरणे न तस्य, बाह्यप्रथाविलय एव भवेन्मते ते ।।१९२।। बिम्बानुमा भवति या प्रतिबिम्बनेन, तत्राऽपि बिम्बप्रतिबिम्बनभावबन्धः । आकार एष ननु तादृश इष्यते चेद्, बिम्बप्रसिद्धिरपि तर्हि तदन्यतः स्यात् ।।१९३।। यो वेद बिम्बमतिरिक्तमिहाऽनुबिम्बा - न्मानान्तराद् भवति तत्प्रतिबिम्बहेतोः । तस्यैव बिम्बविषयानुमितिर्न तेषां, साकारता निखिलबोधगता मता यैः ।।१९४।। बोधक्षणे क्षणिकवादिमते न सत्ता - कारार्पकस्य विषयस्य मता ततो नो । स्यादन्यकालगतयोर्मतिबाह्ययोस्ते, विम्बादिकल्पनकथाऽपि विचारमार्गे ।।१९५।।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
बाह्यो यथैव प्रतिबिम्बति ते मतौ किं, तद्वन्मतिर्न प्रतिबिम्बति बाह्य एव । तत्र स्वभावमुररीकुरुषेऽथ किं नो, तेनैव नोऽप्यभिमता विषयव्यवस्था ।।१९६।। एतेन तार्किकमताद् विषयत्वबन्धाद्, ग्राह्याद् विभिन्नतनुतो विषयव्यवस्था । क्षिप्ता स्वभावशरणा यदि ते तदा स्युः, स्याद्वादिनां सुहृद एव न तद्विपक्षाः ।।१९७।। वेदान्तिनामपि मते विषयप्रदेशं, गत्वा मनोऽपि बहिरिन्द्रियकप्रणाल्या । साकारवृत्तिपरिणामभवे घटाद्या - कारत्वयोगि भवतीति न तच्च सत्यम् ।।१९८।। यस्माच्च तैरपि मता विषयव्यवस्था, साकारवृत्तिजनितैव परं च साऽपि । नो चेत् स्वभावशरणा व्यवतिष्ठते नो, तस्मिंस्तु नेत्रगमनादिककल्पनाऽलम् ।।१९९।। बौद्धोक्तवत् कपिलशिष्यनिभालितोऽपि, साकारवाद इह वृत्तिगतो न युक्तः । कूटस्थनित्यपुरुषोऽत्र न युक्तियुक्त - स्तत्प्रक्रिया भवतु येन प्रमाणसिद्धा ।।२००।। साकारबोध इह किञ्च मतोऽपि जैन - बौद्धप्रदर्शितदिशा न तु सोऽभ्युपेतः । ज्ञानं विशेषविषयं प्रतिपाद्यते यत्, साकारमेतदुपयोगतया प्रसिद्धम् ।।२०१।। साकारताविरहितं प्रवदन्ति बोधं, सामान्यगोचरमनल्पविदां वरिष्ठाः । यत्सोपयोग इह दर्शनसंज्ञया वै, नीतः प्रसिद्धिपदवीं जिनतन्त्रविज्ञैः ।।२०२।। अर्थाभिधानमतयो व्यवहारिभिर्य - च्चैकेन सद्व्यवहृतौ तु प्रयुज्यमानाः । शब्देन तेन नहि सिद्ध्यति बोधधर्मः, साकारताऽपि बुध ! तेऽनुमताऽत्र किन्तु ।।२०३।। साकारबोध इह यन न चाऽभ्युपेतः, शब्दाभिलाप्य इह तेन न किं मतः सः । ग्राह्यार्थशक्तवचनान्ननु येन तस्य, न स्याच्च बोध इह सद्व्यवहारयोग्यः ।।२०४।। एकाभिलापविषयत्वबलादभेदो, भेदेऽपि बोधबहिरर्थकयोमतोऽत्र ।
भेदेन सङ्घटितमूर्तिरभेद एव, संसर्गमात्रनियतो यत आर्हतानाम् ।।२०५।। वैभाषिक-योगाचारयोरपाकरणम् -
वैभाषिकः सुगतशिष्य इहाऽल्पविज्ञः, साकारताविरहितार्थमितिं यदाऽपि । बूते तदाऽपि न जिनागमनीतितस्तां, स्पष्टीकरोति तत एव बुधैरुपेक्ष्यः ।।२०६।। बोधं तदर्थमपि येन समानहेतु - सामग्र्यतः स समकालमुवाच बौद्धः । युक्तः स किं यत इह व्यतिरिक्तहेत्वो - भिन्नक्षणे तदुभयोर्जननं प्रसिद्धम् ।।२०७।। ग्राह्यं बहिः स्थितमबाधितबोधभास्यं, किं नर्तकीनयनचेष्टितमीक्ष्यते नो । साधारणं परिषदा तत एव योगा - चारप्रपञ्चितमतं न विचाररम्यम् ।।२०८।।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ नीलादिता भवतु तेऽत्र कुतः प्रमाणाद्, ग्राह्ये न किन्तु मतिमात्रगतैव बौद्ध ! । साकारतादिघटनानियता न बाह्य - मर्थं विना नियतमज्ञ ! तवाऽपि बोधे ।।२०९।। यस्मात् पृथग् भवति यो नियमेन तस्माद्, भिन्नोपलम्भविषयः स निरीक्ष्यतेऽत्र । नीलादिकस्तु मतितो न कदाचिदेव, भिन्नोपलम्भविषयः स कथं तदन्यः ।।२१०।। इत्थं न चाऽनुमितिरत्र तव प्रमाणं, सुस्पष्टदृष्ट इह हि व्यभिचारदोषः ।। भिन्ना प्रभाऽपि नियमेन घटादिना यत्, सार्द्ध प्रकाशविषयो न पृथक्त्वतस्तु ।।२११।। किं वा न चित्रमतिरत्र पृथक् पदार्थात्, संवेद्यते भवतु येन न हेत्वसिद्धिः । नीलाद् विभिन्नतनुरेव यतस्तु पीता - कारो मतो स्फुटवपुः प्रथते न चैक्यात् ।।२१२॥ ज्ञानादभिन्नतनुता यदि चेत् तवाऽर्थे, पीतान्न नीलमपि भिन्नमभेदतः स्यात् । ज्ञानं यदेकमुभयादपृथक्स्वरूपं, चित्रं त्वयैव विनिभालितमत्र चित्रम् ।।२१३।। नो नीलपीतरचितव्यतिरिक्तचित्रा - कारोऽपि चित्रमतिगोऽत्र निरीक्ष्यते जैः । नीलादिभिन्नतनुतैव भवेच्च येन, ते चित्रबुद्धिनियता खलु चित्रताख्या ।।२१४।। अर्थक्रिया घटपटादिपृथक्स्वभावा - नैका विरुद्धघटनात् तत एव बाह्ये । भेदो यथा ननु तथा प्रतिभाससाङ्क - र्यापत्तितो न च कथं मतिगोऽपि भेद: ।।२१५।। किं नो घटोऽयमितिवत् तव सम्प्रदाये, ज्ञानं घटः पटमठविति वाग्विलासः । पूर्वः परोऽथ नियमो न च दृश्यते यो - ऽभिन्नो हि येन प्रथितश्च तयोः प्रयोगे ।।२१६।। तादात्म्यतो विषयता नियता मतेर्हि, ग्राह्यं घटादि यदि तेन मतेरभिन्नम् । सर्वज्ञता सुगततोऽपगता तदा ते, सर्वस्य चैक्यमुत वा तदभिन्नतातः ।।२१७।। नो लाघवाद् भवति मानबहिष्कृताद् वा, वस्त्वैक्यसिद्धिरिह येन तव व्यवस्था । तत्त्वे कथं घटपटादिपदार्थजातो, नैकस्वरूप इति किं न भवेत् प्रसङ्गः ? ।।२१८।। पूर्वं य एव भवता विनिभालितोऽश्वो, दृष्टोऽद्य सैव तु मयेति बहिष्पदार्थे । सञ्जायते मतिरसौ सदृशत्वतस्ते, सादृश्यमत्र मतितो न कथं विभिन्नम् ।।२१९।। नीलस्य बोधत इयं पृथगेव बुद्धिः, पीतत्वगोचरतयेति मतिस्तथा नो । विज्ञानतैव यदि सर्वपदार्थगा स्याद्, वाह्यक्षयाद् भवितुमर्हति तर्हि विद्वन् ! ।।२२०।। बुद्धोऽस्म्यहं परिजना मम सर्वबौद्धा, इत्यादिबुद्धिरिह चेद् यदि चाऽन्त्यजानाम् । किं तर्हि ते न गुरवो भवतां भवेयु - र्लब्धो महानिह गुणः सुगतेन शिष्यात् ।।२२१।।
|
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
किञ्चास्ति मुक्तिरिति बोधत एव मुक्तिः, सम्पत्स्यते तव वृथा सुगतस्य सेवा । प्रेक्षावताऽपि सुगतेन वृथैव शास्त्रे, धर्मप्रदर्शनमकार्यपवर्गसिद्ध्यै ॥ २२२ ।। यद्वासनातिपरिपाकवशाद् विनाऽर्थं, ज्ञानादिभेद इह तेऽनुमतो न सोऽपि । युक्त यतो भवतु साऽपि कथं विचित्रा, बाह्यं विना न परिपाककथाऽपि तस्याः ।। २२३ ।। स्वप्नोपमं यदि तु बोधतयैव सर्वं ज्ञानं ततः सविषयं नहि तद्वदेव । इत्थं तदा तव भवेद् यदि बाधितार्था, जाग्रद्दशामतिरपीह न चैवमेषा ||२२४||
यः स्पष्टबोधविषयः स मृषैव बोध्यः, स्वप्नोपलब्धकनकादिपदार्थवच्चेत् । बोधोऽपि सिद्धिपदवीं न तदाऽत्र गच्छेत्, संवेदनाद् विशदतः स्वत इत्यनर्थः ॥ २२५ ॥ विज्ञानवादमवलम्ब्य तथा कथायां, वादी जयेन्न प्रतिवादिजनं कदाऽपि ।
वादी न चाऽस्ति प्रतिवाद्यपि नैव नो वा, मध्यस्थ इत्यपि विचारय बौद्ध ! चित्ते ||२२६।।
1
वैज्ञानिकं भवति सत्त्वमथाऽत्र तेषां नो पारमार्थिकमिदं तव सम्मतं चेत् । विज्ञानमत्र किमु सत्यतया मतं ते, किं वा भ्रमात्मकमिह प्रथमं यदीष्टम् ||२२७।। नाऽन्यत् तदा भवति सत्त्वमतो मते नो, नामान्तरं भवतु तच्च न तेन हानिः । द्वैतीयके तु निखिलोऽपि विनैव बाधां भ्रान्तः कथं भवतु बोध उपेय आप्तैः ||२२८|| अर्थो ह्यसँस्तवमतोऽथ च तेन वोधो ऽभिन्नः कथं भवतु वा किमु सोऽप्यसन् नो । अर्थोऽथवा भवतु सन् सदभेदवत्वा - न्नोऽभिन्नता सदसतोरुपपद्यते यत् ॥ २२९।। भिन्नं किमर्थमवगाहत एष बोधो ऽभिन्नं च वा न तदुभयव्यतिरिक्तमस्ति । आद्ये कथं न भुवनत्रयवर्तिभाव - सार्थप्रथा भवति ते व्यतिरिक्ततातः || २३०|| द्वैती तु बहिरर्थविलोप एव, विज्ञानवादिमतसेवनयाऽऽगतस्ते । किं वर्तमानमुत तद्व्यतिरिक्तमेवं, ग्राह्यं प्रकाशयति बोध इहाऽऽद्यपक्षे ॥ २३१ ।। आद्ये कथं न हि भवेन्निखिलस्य बोधो, देशान्तरस्थितिमतोऽप्यविशेषतो वः । नो वर्तमानविषया मतिरन्त्यपक्षे, इत्यादिदोषघटना तव किं न विद्वन् ! ||२३२ ।।
-
१९
यो भासते स विषयो बुध ! नो मतोऽत्रा - ऽभिन्नोऽथ भिन्न इति वा नियमो न चाऽस्ति । स्याद् वर्तमानमथ वा विपरीतमेवा - ऽनेकान्ततः सुगतशिष्य ! कथं हि दोषः || २३३ || ज्ञानेऽपि वा भवतु किञ्च मतिः कथं ते, तादात्म्यतः क्षणिकतादिविशिष्टरूपे । तत्त्वे क्षणक्षयितया स्वत एव बोधः सिद्धो भवेदनुमितेरनपेक्षणं स्यात् ॥ २३४॥
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
नाऽनन्तधर्मघटनाऽभिमतैकरूपे - ऽप्यस्त्याश्रये तव यतोऽशविभागतः स्यात् । बोधेऽप्यबोध उत वाऽक्षणिकत्वमिथ्या - रोपादिकल्पनमिति प्रविचारयाऽन्तः ||२३५।। किञ्चाऽनुमानमपि नैव विभिन्नमर्थं स्वस्मात् प्रकाशयति येन ततोऽपि सिद्ध्येत् । ज्ञानं क्षणक्षयितया न च ते मते स्याद्, व्याप्तिप्रसिद्धिरपि सर्वसमन्वयेन ॥ २३६ ॥ एतेन तेऽनुमितितोऽनुमतं च बोधे, तादात्म्यमर्थप्रतियोगिकमप्यपास्तम् । व्याप्तिग्रहस्य विलयादखिलानुमाया, उच्छेद एव नयतस्तव सिद्धिमेति ॥ २३७॥ ज्ञानेषु चेद्यदि विभिन्नधियः प्रकाशो, बाह्येषु तर्हि न स किं नु मतोऽपि येन । द्वेषोऽपि तेषु न भवेत् तव निर्निमित्तो, जन्मान्धताऽपि तव नश्यतु बाह्यदृष्टेः ॥२३८॥ स्थूलो न बोध इह तेऽनुमतश्च किञ्च यस्मात् स्वलक्षणमणूपगतं त्वयैव । अण्वात्मकस्तु न कदाचिदपीक्ष्यते स, बोधः कथं भवतु बोधविभासिताङ्गः ।।२३९ ।। उत्पत्त्यवस्थितिविनाशसमन्वयेन सत्त्वं स्वरूपत इहाऽर्थगतं प्रसिद्धम् । ज्ञानं विनाऽपि न कथं व्यवतिष्ठतेऽर्थो, दृष्ट्याऽर्थसृष्टिपरिकल्पनमप्रमाणम् ||२४०|| योग्योपलब्धिविरहाद् विरहो घटादेः सिद्धिः प्रयाति न तु केवलबुद्ध्यभावात् । योग्यत्वमत्र प्रतियोग्युपलम्भकस्य, स्वव्याप्यभिन्ननिखिलस्य भवेच्च सत्त्वम् ||२४१|| एवं च सन्नपि घटोऽत्र यदा न दृश्यो ऽयोग्यत्वमेव तु तदाऽभ्युपगन्तुमर्हम् । नैतावता विरह एव भवेच्च योगा- चारप्ररूपितदिशा जगतोऽखिलस्य || २४२ ।। प्रद्वेष एष तव चेद् यदि बाह्यभावे, ज्ञाने क्षणक्षयनिरूपणमर्थवन्नो ।
आत्मा त्रिकालकलितो ननु बोधरूपो, वेदान्तिनामिव कथं न मते तवाऽपि || २४३ || सामर्थ्यतद्विरहरूपविरुद्धधर्मा ध्यासादभिन्नतनुरेष मतो न ते चेत् ।
ज्ञानं क्षणक्षयमपि प्रमितं त्वया नो, युक्तं विरुद्धघटनात इहैकरूपम् || २४४।।
"
-
ज्ञानं स्वसन्ततिगतं विदधाति बोधो, नो भिन्नसन्ततिगतं तव सम्मतं तत् । इत्थं विरुद्धघटना क्षणिकेऽपि बोधे, किं स्वान्यसन्ततिसमाश्रयणान्न चाऽस्ति || २४५ ॥ स्वादर्शनान्न परसन्ततिरस्ति तर्हि तेनाऽस्य दृष्टिविरहान्न कथं हासत्त्वम् । संवेदनात् स्वत इहाऽस्य यदि प्रसिद्धिः, किं तर्हि तस्य तत एव भवेन्न सिद्धिः || २४६ || किञ्चाऽऽन्यसन्ततिलये सुगतोऽपि नो ते, सर्वज्ञ इष्ट उत वा निखिलोऽपि स स्यात् । ज्ञानं विलक्षणमथाऽस्य विनैव युक्त्या, नाऽन्यस्य चेतसि पदं विदधाति बौद्ध ! || २४७ ||
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
किञ्चाऽलयाद् भवतु बोधत एव कस्मा - ज्ज्ञानं द्विधा तव प्रवर्तकमालयं च । तत्त्वेऽथ वा शबलवस्तु न किं त्वयाऽपि, तद्वजिनागममतं बहिरादृतं स्यात् ।।२४८।। नो सन्ततिर्भवति किञ्च मता तवैका, स्याच्चेद् विवाद इह नाम्नि तु केवलं स्यात् । वन्धो ! न मुक्तिरपि नो न च वासनादिः, सन्तानतस्तव मतो भविता तदानीम् ।।२४९।। तदुक्तमुदयनाचार्येण - न ग्राह्यभेदमवधूय धियोऽस्ति वृत्ति - स्तबाधने बलिनि वेदमये जयश्रीः ।।
नो चेदनिन्द्यमिदमीदृशमेव विश्वं, तथ्यं तथागतमतस्य तु कोऽवकाशः ? ।। शून्यवादिमतोपदर्शनम् -
सौत्रान्तिकोऽस्तु विमुखो विमुखोऽस्तु योगा - चारो हि तौ न सुगताभिमतार्थविज्ञौ ।। वैभाषिकोऽपि तत एव न युक्तवादी, किं शून्यता भवतु माध्यमिकैर्मता नो ।।२५०।। नाऽऽत्मा न बोध इह नैव घटादिबाह्यः, साकारतादिघटना कुत एव बोधे । सर्वे विचारपदवीमुपनीयमाना - स्तिष्ठन्ति नो यत इमे विबुधैस्तु युक्त्या ।।२५१।। संवृत्तिसत्त्वमुपगीयत एतदेषां, यद्व्यावहारिकप्रथा सकलाऽपि लोके । बाह्यो यथा भवति नैव धिया विना सन्, बुद्धिः सती नहि तथा स्वधियं विनैव ।।२५२।। अन्त्यस्य सत्त्वविगमो यदि बुद्ध्यभावात्, तत्पूर्वपूर्वमपि किं न भवेच्च शून्यम् । स्वेनैव सिद्धिरपि नाऽत्र निजाश्रयेण, बुद्ध्यन्तरानुसरणे त्वनवस्थितिः स्यात् ।।२५३।। ग्राह्योऽणुरूप उत वाऽत्र महान् घटादिः, किं वोभयं न प्रथमोऽत्र प्रतीयतेऽक्ष्णा । अंशादिवृत्तिविलयान भवेद् द्वितीयो, व्याघाततो नहि भवेच्च तृतीयपक्षः ।।२५४।। किं कारणं विषय इष्ट उताऽन्य एव, ज्ञानस्य तत्र प्रथमो यदि सम्मतस्ते । वाच्यस्तदा भवति सातिशयः स हेतुः, किं वा विनाऽप्यतिशयं चरमोऽत्र सन् नो ? ॥२५५।। तत्त्वे प्रथा भवति किं व्यवधानभाजां, हेतुत्वतो न विशदाक्षधियोऽविशेषात् । आधे यदि त्वतिशयोऽतिशयान्तरेण, किं नाऽनवस्थितिरपर्यवसानतस्तत् ।।२५६।। यद्यन्तरातिशयमेव भवेत् स हेतौ, सर्वत्र किं भवति न ह्यविशेषतस्तत् । द्वैतीयकेऽजनकमप्युपगम्यते चेद्, ग्राह्यं तदा न नियमोऽत्र धियां प्रकाश्ये ।।२५७।। किञ्च व्यवस्थितिरियं निखिलेषु मानात्, प्रामाणिकैरुपगता न तु बोधमात्रात् । मानान्तराद् भवति तस्य पुनः प्रसिद्धि - रेषाऽनवस्थितिलतार्थमतावना ।।२५८।।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ भ्रान्तिः प्रमेति नहि बोधगतो विशेषः, स्वप्ने प्रवोधसमये च यतो विशेषः ।। संवादितादिघटनाऽप्युभयोः समाना, नाऽऽपातमात्रमधुरा ह्यविवेकिनां किम् ? ॥२५९।। बोधो भ्रमो भवति बाधितगोचरत्वा - ज्ज्ञानान्तराद् बहुविधोऽत्र विकल्पजालः । ज्ञानान्तरेण किमु तस्य निजस्वरूप - हानिर्भवेत् किमुत तद्विषयस्य लोपः ।।२६०।। आद्ये विनाशजनकात् प्रमितेर्विनाशो, यद्वत् तथा भ्रममतेः स न बोधतोऽस्मात् । किं बाधिता पटमतिर्घटबुद्धितो नो, पूर्वा तथोत्तरजनेरित एव हेतोः ।।२६१।। लोपः सतोऽथ विषयस्य न शक्यतेऽन्त्ये, कर्तुं न कैश्चिदसतोऽपि न युज्यते सः । मिथ्यात्वमस्य स हि बोधयतीति चेत् स, तद्ग्राहकः किमु मतः किमु वाऽन्य एव ।।२६२ ।। चेद् ग्राहकः स्वविषयं स हि बाधतां नो, तत्त्वे भ्रमत्वमपि तस्य भवेत् कथं न ? । अग्राहको यदि तदाऽग्रहणान्न बाधा, स्याद् वा कथं निखिलमेव ततो न बाध्यम् ।।२६३।। मिथ्यात्वबोधनमपीष्टमभिन्नकाले, भिन्नक्षणेऽथ प्रथमो यदि सम्मतस्ते । नो तर्हि पूर्वमतिगोचरबाधनं स्या - दन्त्ये विभिन्नसमयाग्रहणान्न बाधा ।।२६४।। किं वा यथोत्तरमतेः प्रथमा मतिः स्याद्, वाध्या तथैव किमु नोत्तरधीश्च तस्याः । अन्योन्यगोचरविरुद्धमतित्वमाभ्यां, व्यावर्तते न हि यतः प्रथमस्य बाधः ।।२६५।। संवादनं भवति सत्यमतौ यथा ते, ज्ञानान्तराद् भवति तद्वदिहाऽपि किं नो । द्वित्वं न चन्द्रमसि तैमिरिका अनेके, पश्यन्ति किं ह्यभिलपन्ति न किं मिथस्ते ।।२६६।। जाग्रद्दशोत्थमतितो ननु यद्वदेव, स्वप्नोत्थधीविषयबाधनमस्ति तद्वत् । स्वप्नात् प्रबोधविषयस्य न बाधनं किं, नेते दशे अपि मिथो भवतो विभिन्ने ? ॥२६७।। यद्बाधकं तदपि वाध्यमबाधकं स्या - न्मानान्तराच्च तदबाध्यतया मतं चेत् । मानान्तरं तदपि वाध्यतया प्रतीतं, तत्साधकं भवति नेति दृढाऽनवस्था ।।२६८।। संवादकं दपि तत्र मतं भवेत् तत्, किञ्चित्करं किमुत वा न करोति किञ्चित् । आद्ये त्वभिन्नमुत वा व्यतिरिक्तमेव, संवाद्यबुद्धित इदं प्रकरोति तच्च ।।२६९।। संवाद्यबुद्धिजननं प्रथमे न युक्तं, संवादकात् क्वचिदसौ न च दृष्टपूर्वम् । अन्त्येऽतिरिक्तजननेऽपि न पूर्वबुद्धौ, व्यावर्तकं भ्रममतेरभवच्च किञ्चित् ॥२७०।। यश्चोपकार उपदर्शितबुद्धितोऽभूत्, संवाद्यबुद्ध्यसमकालतयैव नाऽस्याः । भिन्नः स वा किमपि तत्र करोति नो वा, तत्राऽनवस्थितिघटा प्रथमेऽनिवार्या ॥२७१।।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
२३ . अन्त्ये विशेषविरहाद भ्रमतुल्यतैवा - ऽसम्बन्धतो भवति तेन हि पूर्वबुद्धेः । अन्त्ये विशेषविरहाद् भ्रमतुल्यतैव, संवादकात् किमपि न क्रियते यतोऽस्याः ।।२७२।। अर्थे फलं किमपि किञ्च करोति वोधो, नो वा करोति यदि किं व्यतिरिक्तमर्थात् । अर्थस्वरूपमुत वा प्रथमेऽनवस्था, पूर्वप्रदर्शितदिशाऽत्र दुरुद्धरैव ।।२७३।। अन्त्ये यथार्थजननं प्रमया तथैव, भ्रान्त्याऽपि किं न न विशेष इहाऽस्ति कश्चित् । बोधः फलं किमपि नाऽर्थगतं विदध्या - दन्त्ये यदा न नियमोऽपि तदा कथञ्चित् ।।२७४।। ज्ञाने घटाद्यपि करोति यदा विशेषो, भिन्नेऽनवस्थितिरिहाऽपि च पूर्वनीत्या । ज्ञानस्वरूपजनने न विशेष एव, कश्चिद् यतो भवतु ते नियमोऽर्थतोऽपि ।।२७५।। प्रामाण्यमर्थघटितं न विनाऽर्थसिद्धिं, ज्ञाने प्रसिद्ध्यति न साऽपि तमन्तरेण । प्रामाण्यबुद्धिमनपेक्ष्य प्रमा न मान्या, तत्त्वेऽप्रमाऽपि तव किं न प्रमाऽभ्युपेया ।।२७६।। प्रामाण्यबुद्धिरपि नैव प्रमास्वरूपा, स्वस्मिन् प्रमात्वमतिमङ्कगतां निवेश्य ।। किं त्वन्यया भवति साऽप्यतिरिक्तबुद्ध्या, सिद्धयेत् प्रमात्मकतयेत्यनवस्थितिश्च ।।२७७।। एवं भ्रमत्वमपि न प्रमितिं विनैव, भ्रान्तौ प्रसिद्ध्यति प्रमाऽपि तथाऽन्यथा स्यात् ।
इत्यादिदोषगणभीतिविविक्तरूपं, शून्यत्वमेव सकलानुगतं तु तत्त्वम् ।।२७८।। शून्यवादिमतखण्डनम् -
एतन्न बौद्धपरिशीलितयुक्तिजालं, युक्तं स्वशिष्यगणमात्रमनोऽधिरूढम् । स्याद्वादलाञ्छितपदार्थतिरस्क्रियायां, सामर्थ्यलेशमपि नैव दधाति यस्मात् ।।२७९।। यं त्वं विचारमधिकृत्य जगद्व्यलीकं, बूषे स सँस्तव भवेदुत वा व्यलीकम् । आये तथैव न भवन्तु समस्तभावाः, किं सिद्धिभाज इतरेऽपि न शून्यता ते ।।२८०।। अन्त्ये स्वयं हसत एव विचारतो न, शून्यत्वसिद्धिरपि येन जगद् व्यलीकम् । प्रामाणिकैः सह कथाऽपि न युज्यते ते, कस्ते भवेच्च प्रतिमल्ल इहाऽल्पविज्ञ ! ।।२८१।। शून्यत्वगोचरप्रमा यदि सम्मताऽस्ति, मानं तदा तव मतेऽपि न शून्यतावत् । नो चेत् तदा प्रमितिगोचरचारिणी नो, स्याच्छून्यता जगति येन भवेत् प्रसिद्धा ।।२८२।। ज्ञानं विनाऽपि जगतः स्वत एव सत्त्वं, संवृत्तिसत्त्वमत एव न सम्मतं नः । ज्ञानानवस्थितिभयान्न ततोऽप्यसत्त्वं, जाग्रत्सु वस्तुषु भवेत् तव रोदनेन ।।२८३।। नाऽऽत्माश्रयो भवति बोधमतेः स्वतस्त्वे, प्रामाणिके विवुध ! दोषतयाऽभ्युपेयः । संवृत्तिसत्त्वमपि जैनमताऽवलम्वाद्, युक्तं न किं व्यवहृतेरुपयोगि लोके ।।२८४।।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
ग्राह्यं विकल्प्य तव खण्डयतोऽत्र भावः कः किं घटादि नहि भासत एव बोधे । तद्भासमानमपि वा न विचारमार्गं, युक्त्या प्रयाति तत एव न चाऽभ्युपेयम् ।।२८५।। आद्यस्तवाऽपि नहि सम्मत इष्यते यत्, संवृत्तिसत्त्वमखिलेष्वपि लोकदृष्ट्या । एकान्तमेव न विचारविशुद्धरूप - मन्त्ये प्रसिद्ध्यतु कथं न जिनोक्तभावः ॥ २८६ ॥ | स्थूलो घटादिररूपतयाऽपि जैनै र्द्रव्यस्वरूपमवलम्ब्य निमित्तभेदात् । इष्टस्तथा स बहुशक्तिसमन्वयेना ऽनेकांशवृत्तिरपि तैश्च कथञ्चिदेकः ||२८७ ।। यत्कारणं भवति तद्विषयस्तदन्यद्, वेत्थं न चाऽत्र नियमो जिनसम्प्रदाये । यत्तत्तदावरणकर्मलयोपशान्त्या - देर्जायते नियतगोचर एव बोधः ||२८८।। यत्कारणं बहुविकल्प्य विचारमार्गाद् दूरीकृतं तदपि वाक्छलमेव सर्वम् । यस्माद् विकल्पनिकरो जनकापलापे, किं कारणं तव मतं किमु वा न चैव ।।२८९ ।। आद्ये विकल्पनिक स्वयमेव तत्राऽप्यालोच्य वाङ्नियमनं भवता विधेयम् । अन्त्ये कथं न जनकं स्थिरतामुपैतु, बाधां विकल्पनिकरान्न च प्रापयत् तत् ।।२९०।। मानं न मानमतिरिक्तमपेक्षते तन्नैवाऽनवस्थितिरपीह विचारतस्ते ।
किं वा विचार उपदर्शित एष तेऽपि, सिद्धिं प्रयातु कथमत्र तथैव बौद्ध ! ||२९१ || स्वप्नेऽस्थिरं चलमसम्भवितात्मजन्मा - द्यालोचनादि च परस्परबाधितं च । ज्ञानं प्रबोधसमये तु विविक्तमस्मा - देवं स्थितौ हि न तयोर्व्यतिरिक्तता किम् ? ।।२९२ ।। यत्काकतालमिव सत्यमताविव स्यात्, स्वप्नेऽपि यद्यपि समानमतेर्विलासात् । संवादितादिघटनाऽन्धपरम्परेवं, किं स्यात् तथाऽपि नहि बाधितगोचरत्वम् ||२९३ ।। सत्यत्वनिर्णयमतिस्तु भवेच्च जाग्रत् स्वस्थप्रबोधमतितोऽर्थविनिर्णयेन । स्वप्नेऽप्यसत्प्रथनमिष्टमनल्पविज्ञे - जैनैर्न यद् भवतु तेन कथं न भावः ।।२९४।। नाऽसन्मतौ तव तु कारणमस्ति किञ्चिन्नो वासनाऽपि नियता तु विना पदार्थम् । किन्त्वन्यथा प्रथनमेव जिनागमज्ञेः, स्वप्ने निरूपितमतोऽन्यप्रथैव तस्मात् ।।२९५।। नैयायिकैरपि न तत्र मतं व्यलीक भानं न वा कपिलजैमिनितन्त्रविज्ञैः । किन्त्वन्यथाप्रथनमेभिरपि प्रशस्तं वेदे त्वनिर्वचनगोचरतैव तस्य ॥ २९६॥ ख्यातिः सतां भवति न त्वसतामभावात्, स्वाकारसंवरणतोऽन्यपरिग्रहाच्च । स्वप्ने प्रथाऽर्थनिकरस्य यथैव शुक्ते श्चाक्वक्यदोषवशतो रजतस्वभावात् ।। २९७।।
-
-
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
प्राभाकरेण भयतस्तव वोधमात्रे, यथार्थ्यमेव प्रथितं भ्रमता विरोधि । भेदाग्रहस्त्वभिमतः स्मरणाक्षबुद्ध्यो - स्तत्ताप्रमोष उपपादित एतदर्थम् ।।२९८।। वन्ध्यासुताच्च खसुमं पृथगेव लोके - ऽसत्त्वाविशेषकलनेऽपि मतं भवेत् तत् । किञ्चाऽन्यथाप्रथन एव तथा विवक्षा - वैचित्र्यमप्यसति तन्न भवेत् कथञ्चित् ।।२९९।। प्रत्येकशब्दसमयाच्छशशृङ्गवाक्याद्, बोधोऽन्यथाप्रथन एव भवेद् गृहीतात् । सङ्केतहेतुघटनाऽपि न च व्यलीके, शाब्दप्रवृत्तिरपि नो नियता विना ताम् ।।३००।। पूर्वं मया रजतरूपतयैव दोषा - च्छुक्तिस्त्वियं विशदतोऽवगता पुरःस्था । । इत्यादिबुद्धिबलतो भ्रमताप्रसिद्धि - नॊ रोदनात् तव भवेदपहातुमर्हा ।।३०१।। प्राभाकरस्य मतमप्यनयैव युक्त्या, किं खण्डितं भवति नो यदि नो मतं सः । आश्रित्य तिष्ठतु तदा न भयस्य लेश - स्तत्तादिमोषमननश्रमतोऽपि मुक्तिः ॥३०२।। एतेन सिद्धमसदेव तवोक्तिजालं, यद् बाधितार्थविषयत्वनिराक्रियार्थम् । येन भ्रमत्वमननं सुदृढं भ्रमे स्यात्, तत्सर्वमेव ननु बाधकमिष्टमिष्टैः ।।३०३।। तद्ग्राहकोऽन्यविषयोऽथ च तुल्यकालः, किं वाऽन्यकाल इति नाऽत्र विशेष इष्ट: । स्याद्वादिना भ्रममतित्वविनिर्णयो यै - स्ते बाधका बुधविकल्पभरेण तेऽलम् ।।३०४।। अन्योन्यगोचरविरुद्धमतित्वसाम्ये - ऽप्येकं भ्रमत्वमपरत्र प्रकाशयेद् यत् । तद्बाधकं भवति तस्य प्रमास्वरूपं, पूर्वं भवेद् भवतु वोत्तरमन्यदेतत् ।।३०५।। शुक्तौ यथोत्तरमतेः प्रथमस्य बाधो, दृष्टस्तथा प्रथमतो न किमुत्तरस्य । किं वर्तमानमपि शौक्ल्यमतिर्न शङ्के, पीतत्वबोधमुपहन्ति जनस्य पूर्वा ||३०६।। द्वित्वं च चन्द्रमसि यद्यपि दोषसाम्यात्, पश्यन्ति येऽपि मिथ एव तमालपन्ति । तेषां तथाऽपि किमु नैक्यमतेः स्मृताया, भ्रान्तित्वनिर्णय उदेति तथाऽऽप्तवाक्यात् ।।३०७।। नैकान्ततो भवति च भ्रमतैव तस्य, चन्द्रे च सत्यमतिताऽपि मताऽऽर्हतानाम् । तस्मात् कथं कथय शून्यतयैव विश्वं, स्वीकार्यमन्धजनताप्रणिगद्यमानम् ।।३०८।। संवेदनात् स्वत उभे च दशे प्रबोध - स्वप्नात्मके प्रतिजनं पृथगेव भातः । प्रामाण्यतद्विरहरूपतया तथाऽत्र, स्वप्ने व्यलीकप्रथनं नहि सर्वथाऽस्ति ।।३०९।। अर्थक्रियावगतिरन्यप्रमां विनैव, मानं स्वतो भवति मानतया गृहीता । तस्यास्तु साधनमतेः प्रमितत्त्वबुद्धि - नैकान्ततः परत एव प्रमात्वबुद्धिः ।।३१०।।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ एतेन गौतममतं तव युक्तिजालान्, मीमांसकस्य च मतं निरुपद्रवं नो । एकान्ततः परत एव प्रमात्वसिद्धि - रेकान्ततोऽपरत एव मता हि ताभ्याम् ।।३११।। यैस्तु प्रमात्वमतिरन्यमतौ प्रसिद्ध्येत्, संवादका ननु भवन्ति त एव बोधाः । तुल्यावगाह्यसमगोचरतादि जैन - नैकान्ततो नियमतश्च मतं तथात्वे ।।३१२।। किञ्चित् करादिकविकल्पभरेण ते चेत्, संवादखण्डनमगर्यमविज्ञ ! तर्हि । सिद्धयेद् विकल्पनिकरोऽपि कथं स्वहेतो - स्तत्राऽप्यरण्यरुदितं निखिलं त्वदुक्तम् ।।३१३।। संवादखण्डनमनेन यदि व्यलीकं, संवादसिद्धिरिह तर्हि भवेदवाध्या । सत्यं मतं यदि तदा नहि सर्वमेव, शून्यं तवोपगमतोऽपि प्रसिद्धिमेतु ।।३१४।। ग्राह्यो जडोऽत्र किमु नो न तथास्वभावात्, किं ग्राहकोऽपि तत एव भवेन्न वोधः । वह्निर्यथा दहति काष्ठमसौ तथा किं, नाऽग्नि स्वभावबलमेव भवेदिहाऽपि ।।३१५।। शून्यत्वसिद्धिरिह ते ननु यैर्विचारैः, सत्यत्वसिद्धिरपि तैर्न कथं जगत्सु । इत्यत्र किं बुध ! तवाऽपि तमन्तराऽस्ति, वादे विपक्षदलने हि गतिर्द्वितीया ।।३१६।। ग्राह्योऽपि बोध इह संविदितो निजेन, नो नो विरोधघटना प्रमिते स्वभावे । स्वेष्टप्रसाधकतया तव सम्मतः किं, नाऽन्येष्टबाधकतयाऽभिमतो विचारः ।।३१७।। ग्राह्यस्वभावपरिणामतया तु बाह्यो, ज्ञानेन बोध इह वोधकतास्वभावः । अर्थेन किं नहि कथञ्चिदनन्तधर्मा, सञ्जायते भवतु येन विकल्पदुष्टः ।।३१८।। एकान्तवादमवलम्ब्य प्रदर्शितो न, दोषोऽत्र जैनसरणौ लभते प्रतिष्ठाम् । आपादनं भवति सर्वमनिष्टरूपं, स्याद्वादवादिनि न तस्य यतोऽवकाशः ॥३१९।। अर्थप्रसिद्धिरपि न प्रमितेविभिन्ना, प्रामाण्यबुद्धिरपि तत्र च पूर्वनीत्या । अन्योन्यसंश्रयघटा नहि विद्यतेऽत्र, भ्रान्तित्वसिद्धिरपि तद्वदिह प्रसिद्धा ||३२०।। अर्थाननर्थजनकाननुचिन्त्य बौद्ध!, नैरात्म्यदर्शनमतं प्रकटीकरोषि । तत्राऽपि तेऽस्ति नहि वासनया विनैव, लोकव्यवस्थितिरतस्तु महाननर्थः ।।३२१।। मा वासनाजलभृतान्धुपरम्परायां, लोकाः पतन्त्विति पदार्थततौ विचिन्त्य ।
लोकोपकाररसिकोऽपि किमर्थमज्ञ !, स्याद्वादतन्त्रममलं न करोषि चित्ते ? ।।३२२।। नैयायिकमतेनेन्द्रियस्वरूपनिरूपणम् -
नैयायिकोपगतमिन्द्रियमप्रमाणं, साक्षात्प्रमाजनकताविरहात् तथा चेत् । अन्नादि तर्हि न परम्परयाऽपि किं तै - मनिं मतं जनकताघटनाच्च तद्वत् ।।३२३।।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
जैनैर्द्विधेन्द्रियनिरूपणमुक्तमत्र, द्रव्येन्द्रियं प्रथमतो द्विविधं च तत्र । शक्तिर्मतोपकरणेन्द्रियमिन्द्रियाणां, निर्वृत्तिरूपमपरं खलु गोलकादि ।।३२४।। भावेन्द्रियं तदिव लब्ध्युपयोगभेदा - दन्त्यं द्विधा प्रथममावरणक्षयादि ।
ज्ञानं द्वितीयमुपयोगतया प्रसिद्धं, साक्षात् तदेव जनकं प्रमितेर्हि मानम् ।।३२५।। तत्खण्डनम् -
किञ्चेन्द्रियं भवति नाऽर्थमतौ समर्थं, कुम्भादिवज्जडतयाऽस्वप्रकाशकत्वात् । तद्रौतिकं तव मतं च सुषुप्तिकाले, किं तूलिकादिषु मतिर्न करोति सत्त्वात् ।।३२६।। नो मानसं भवति चाऽणु यतस्तदाऽस्य, वाह्येन्द्रियेण घटनाविलयान बोधः । स्यादिन्द्रियत्वत इदं च महत्त्वयोगि, नेत्रादिवत् तव मतेन कथं न विद्वन् ! ।।३२७।। लब्धीन्द्रियक्रमविशेषवशात् क्रमोऽपि, नेत्रादिजन्यमतिषूपगतोऽत्र जैनैः । नाऽस्मिन्मते मनस इन्द्रियताऽप्यभीष्टा, प्रोक्तं ह्यनिन्द्रियमिदं जिनतन्त्रविज्ञैः ।।३२८।। स्वांशे प्रमा निखिल एव मतोऽत्र बोधो - ऽर्थे त्वप्रमाऽपि विपरीतप्रकाशकत्वात् ।
याथार्थ्यगोचरमतित्वमिह प्रमात्वं, स्यादप्रमात्वमितरत् तत आर्हतानाम् ।।३२९।। प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वपरतस्त्वविचारः -
एतद् द्वयं स्वजनने परतः स्वतो न, ज्ञप्तौ स्वतश्च परतश्च मतं जिनानाम् । उत्पत्तिबोधनफलत्रितये प्रमात्वं, मीमांसकस्य कपिलस्य मतं स्वतस्तु ।।३३०।। वेदान्तिनोऽपरत एव प्रमात्वमिष्ट - मान्वीक्षिकीमतविदः परतो द्वयं तु । बौद्धैस्तथैव परतः कथितं द्वयं तत्, त्वर्थांशमात्रमवलम्ब्य न च स्वरूपम् ।।३३१।। एकान्तवादमवलम्ब्य प्रवृत्तिभाज, एते न युक्तिपदवीं जिनदेवतानाम् । आश्रित्य याति किमु सिद्धिपदं विदोषा, एकान्ततैव परमेष्वपि युक्तिवाध्या ।।३३२।। सामान्यबोधजनकव्यतिरिक्तहेतु - जन्या प्रमा भवति बोधविशेषतातः । भ्रान्तिर्यथा तव मता व्यतिरिक्तदोष - जन्या तथा गुणभवा प्रमितिर्न किं नः ।।३३३।। प्रत्यक्षतो यदि गुणो नयनादिगोऽत्र, बाध्यस्ततोऽनुमितितोऽपि न चाऽस्य सिद्धिः । दोषोऽपि तर्हि तत एव न च प्रसिद्ध्येद्, भ्रान्तिः प्रमेव जनने स्वत एव किं नो ।।३३४।। ज्ञाने प्रमात्वमथ शक्तिरदृष्टवस्तु - प्रोद्वोधिका भवति सा स्वत एव बोधे । ज्ञानेऽप्रमात्वमपि शक्तिरसत्प्रथाऽर्था, किं न स्वतस्तव तथैव मताऽत्र विद्वन् ! ।।३३५।।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ हेतौ प्रमात्वमथ नाऽस्ति यतो न तस्मा - द्धेतोः प्रमात्वभवनं च मतौ मतं ते । ज्ञानत्वमप्यनुमतं न च तर्हि ते स्यात्, किं वा भ्रमत्वमपि ते स्वत एव तद्वत् ।।३३६।। यत्कारणाद् घटपटादिपदार्थजन्म, शक्तिश्च तेषु तत एव न जायते किम् । नैर्मल्यतो नयनगात् प्रमितिः प्रतीता, प्रामाण्यशक्तिरपि तस्य गुणात् ततोऽस्तु ।।३३७।। मीमांसकैर्न पृथगेव मतोऽप्यभावो, भावाच्च दोषविरहोऽत्र गुणः प्रमायाम् । येनाऽस्तु हेतुरपि न व्यतिरिक्तभाव - जन्यत्वमस्य तत एव भवेत् स्वतस्त्वम् ।।३३८।। दोषोऽथवा भवतु किं न गुणस्वभावा - भावोऽप्रमाजनक इत्यपि भावयाऽन्तः । प्रामाण्यमेव परतोऽस्तु गुणस्वभावात्, स्याद् भ्रान्तिताऽपरत एव विपर्ययेण ।।३३९।। पित्तादिको नयनगोऽथ यथैव दोषो, लोकप्रसिद्धपदवीमवगाहते ते । किं नो तथैव जनताप्रमितो गुणो नः, सिद्धिं प्रयातु न विशेष इहाऽस्ति कश्चित् ।।३४०।।
औत्सर्गिकं भवति बोधगतं प्रमात्वं, तस्मात् स्वतो यदि मतं न च तच्च युक्तम् । हेतुं विना न नियमोऽस्य भवेत् तथा च, किं भ्रान्तिवृत्तिरपि नाऽनियतस्य वाऽस्य ।।३४१।। ज्ञानत्ववनिखिलवोधगतं प्रमात्वं, स्वाभाविकं भवितुमर्हति न क्वचित् तु । दोषान्न तस्य यदि जन्म तदा कथं न, पूर्वोक्तनीतिबलतः परतोऽस्य जन्म ।।३४२।। किं वाऽप्रमात्वमपि तत्समकक्षमेव, स्वाभाविकं न तव सम्मतमत्र विद्वन् ! । किं प्रक्रिया भवतु युक्तिमृते त्वदुक्ता, हास्यास्पदं न शतधाऽपि प्रलप्यमाना ? ।।३४३।। संवादितादिपरहेतुत एव तस्य, ज्ञप्तिस्तथा जनकवोधगतस्य युक्ता । भ्रान्तित्वबुद्धिरिव नाऽत्र विशेषलेशो, लोकानुसारिसरणावुपलक्ष्यते यत् ।।३४४।। अर्थक्रियामतिगतं प्रमितित्वमिष्टं, ज्ञप्तौ स्वतो जिनमतानुगतैस्ततो नो । मानानवस्थितिरपीह भवेच्च येन, प्रामाण्यबुद्धिरखिलेषु परानपेक्षा ।।३४५।। प्रामाण्यसंशयमतिर्न भवेत् स्वतस्त्वे, ज्ञानग्रहे तदपि निश्चितमेव यस्मात् । ज्ञानाग्रहे तु न भवेत् सुतरां यतोऽस्यां, धर्मिग्रहो बुधमतो जनको बुधाग्य ! ।।३४६।। प्रामाण्यमंशमिह बोधगतं विशेष - कर्मक्षयोपशमतो जिनसम्प्रदाये । बोधोऽवगाहत इतीष्यत एवमेव, ज्ञानस्वरूपमपि तत् प्रथते न पूर्वम् ।।३४७।। एतेन केवलमतौ प्रमितित्वबुद्धिः, स्वस्माद् भवेन्निखिलकर्मलयान्न भिन्नात् । इत्युक्तमेव तत एव तदुत्थबोधे, प्रामाण्यसंशयकथाऽपि न सावकाशा ।।३४८।।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
किञ्च प्रमाणमपरं यदि नैव किञ्चित्, संवादितादिकमपेक्षत आत्मसिद्धौ । मीमांसकादृत इवाऽस्तु तथागतोक्तः, प्रामाण्यभागिह तदागम आप्तमान्यः ।।३४९।। बुद्धोक्तवाक्यजनिते यदि न प्रमात्वं, बाधात् तदा भवतु तद्विरहेण बोधे । प्रामाण्यसिद्धिरिति किं परतो न सिद्धि - भङ्गयन्तरात् तव मता प्रमितौ द्विजाय ! ||३५०।। यस्मात् पृथक् तव मते विरहो न तुच्छो, बाधस्य किन्तु स भवेच्च तदन्यभावः ।
संवादिता भवतु वा गुणजन्यता वा, किं वाऽन्य एव परतः प्रमितिस्तु सिद्धा ।।३५१।। वेदापौरुषेयत्वापाकरणम् -
कण्ठदितोऽक्षरजनिर्जनताप्रसिद्धा, तेषां ततिः कथमजन्यतयाऽभ्युपेया । नित्यत्वतो भवतु तेन प्रमाणभावः, कस्मात् त्वदागमगतः पुरुषापलापात् ।।३५२।। दोषाकलङ्कितमतिः पुरुषो न कोऽपि, तस्मात् त्वया श्रुतिरजन्यतयाऽभ्युपेता । प्रामाण्यरक्षणकृते न च सोऽपि कामः, सम्पत्स्यतेऽप्रमितिबुद्धिजनिप्रसङ्गात् ।।३५३।। नो सत्त्वमात्रत इह प्रभवन्ति शब्दाः, शाब्यां परन्तु समयग्रहसव्यपेक्षाः । सङ्केतकर्तृपुरुषा न च दोषमुक्ता - स्तस्मात् कथं कथय मानमतिः श्रुतेः स्यात् ।।३५४।। नैकान्ततो भवति कोऽपि विनाशधर्मा, नित्योऽथवा प्रमितिगोचरसञ्चरिष्णुः । अर्थक्रियाजनिरनित्यत एव नैवं, नो नित्यतो भवति किन्तु तदन्यतो यत् ।।३५५।। कण्ठत्थिता मरुत एव विचित्रशक्ति - सामर्थ्यतस्तव मते ध्वनिशब्दवाच्याः । ये व्यञ्जका अभिमता जनकत्वभाजः, काद्यक्षरस्य च भवन्ति त एव किं नो ।।३५६।। नित्यो विभुश्च तव सम्मत एष कादि - र्व्यङ्ग्यः कथं भवतु तैरविकारिरूपः । अव्यङ्ग्यरूपविगमे च कथं न जन्यः, पूर्वस्वभावविगमादपरस्य लाभात् ।।३५७।। व्यङ्ग्योऽप्ययं यदि तु देशत एव तर्हि, सर्वात्मना भवति देशगतोऽथ देशात् । आद्ये विभुत्वविलयो नियतैकदेश - स्थित्याऽन्तिमे किमनवस्थितिदोषमुक्तिः ॥३५८।। सर्वात्मना यदि तथाऽत्र मतोऽथ कादि - देशान्तरस्थपुरुषैरपि किं न तर्हि । तस्य श्रुतिर्भवतु वा निकटस्थितस्या - ऽप्यश्रावणं तदिव किं न तदेकभावे ।।३५९।। एकेन्द्रियग्रहणयोग्यतयाऽपि वर्णा, व्यङ्ग्या पृथङ् नियतवायुवलात् कथं स्युः । तत्त्वे समाधिकरणेषु विभिन्नतो न, व्यङ्ग्यत्वमत्र विवुधैरवलोकितं यत् ।।३६०।। तस्मात् कथं वद भवेन्न यदैकवर्णो - ऽध्यक्षप्रथामुपगतो निखिलोऽपि कादिः । तत्काल एव प्रमितेः पदवी प्रपन्नो, युक्तं न चाऽवरणकल्पनमेषु युक्त्या ।।३६१।।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ नो वायवो वरणकारिण आप्तमान्या - स्ते व्यञ्जकास्तव यतोऽभिमता वुधाग्र्य! । यद्व्यञ्जकं भवति तत्समजातिकं नो, दृष्टं क्वचिद् वरणकारितया च तस्य ||३६२ ।। शब्दे त्वयाऽऽवरणकारिण आदृताः किं, श्रोत्रेऽथवा यदि पुरस्सरकल्प इष्टः । तत्राऽपि किं वचनवद् विभवो मतास्ते, किं वाऽपकृष्टपरिमाणपवित्रिताश्च ।।३६३।। आद्ये लयो नहि भवेद् विभुतान्वितेषु, नित्यत्वमेव भवताऽऽदृतमत्र यस्मात् । शब्दोपलब्धिकथयाऽपि गतं तथा च, बाधिर्यमेव जगति प्रथितं न किं स्यात् ? ।।३६४।। अन्त्ये न चैकपवनेन विभोस्तु कादेः, स्यादावृतिर्बहव एव ततः प्रकल्प्याः । प्रत्येकमेव न तु तेषु प्रमाणमस्ति, तैरन्तराऽपि च गतिः खलु जन्यपक्षे ।।३६५।। स्याद् व्यञ्जकेन पवनेन विरोधिवायो - स्तद्देशगस्य विलये किमु सर्वदा नो । तत्रस्थतद्वचनबुद्धिरतोऽप्यनेके, कल्प्या गुरुत्वमधिकं किमतः परं स्यात् ।।३६६।। दोषस्त्वयं श्रुतिगतावरणेऽपि तस्मात्, कल्पोऽन्तिमोऽपि कथमत्र तवोपपन्नः । किञ्च क्रमोऽपि नहि युज्यत एव नित्ये, वर्णे द्विधा स हि यतोऽभिमतो वुधानाम् ।।३६७।। देशात् क्रमोऽविरलदेशसमाश्रितेषु, मूर्तेषु पुष्पनिकरेषु यतोऽत्र दृष्ट: । जन्येषु तन्तुवसनेषु च कालजन्यो, दृष्ट: क्रमस्तदुभयं प्रकृते न चाऽस्ति ।।३६८।। वायोर्यथैव गमनेऽपि न मध्यदेशे, स्वारम्भकावयवयोगविनाशजन्यः । नाशस्तथैव वचनस्य भवेन्न नाशो, विश्लेषतोऽवयवकस्य विशेषबन्धात् ।।३६९।। एतेन पौद्गलिकतोपगमे परेण, प्राप्तिःश्रुतेर्नहि भवेद् वचनस्य नाशात् । द्रव्यान्तरप्रबलयोगत इत्यपास्तं, वायोर्न किं तव मतेऽपि तथैव नाशः ।।३७०।। शक्तिग्रहोऽस्ति ननु यस्य न सोऽस्ति शब्द - स्तज्जन्यताऽभ्युपगमे व्यवहारकाले । यो वर्ततेऽथ स भवेन्न गृहीतशक्ति - स्तस्मान्न शाब्दमतिरार्हतसम्प्रदाये ।।३७१।। इत्यादिदोषघटनाऽपि परप्रयुक्ता, स्यात् तस्य येन न मता वचनेषु जातिः । कत्वादिका निखिलकादिगता तु भिन्ना - भिन्ना समानपरिणामतया मता यैः ।।३७२।। तेषां न दोषकणतोऽपि जिनानुगानां, स्पर्शो मते भवति पौद्गलिकेऽपि शब्दे । जाति विना नहि तवाऽपि घटादिकेऽर्थे, शक्तिर्मताऽनुगतजात्यभिधा प्रलापिन् ! ।।३७३।। (युग्मम्) शक्या न जातिरिह वाहनदोहनादि - कार्यान्वयापगमतो हि विशेषभिन्ना । आक्षेपतो भवति नैव मतिस्तु शाब्दी, नो लक्षणाऽप्यनुपपत्तिमतिं विनाऽर्थे ॥३७४।।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
सामान्यतो विरहितो न विशेष एव शक्यस्तथाऽननुगमेन भवेत् परन्तु । एतद्द्वयं भवति भिन्नमभेदयोगि, संसृष्टमेव वचसामिह शक्यमिष्टम् ||३७५।। शक्तस्तथा भवति नाऽनुगतस्वरूपो, नो व्यक्तिरूप इह कादिरसत्त्वयोगात् । सामान्यसंवलित एष विभिन्नरूपो, जन्योऽपि किं नहि भवेद् गमकोऽर्थराशेः || ३७६ || नित्यत्वतोऽस्ति वचसां यदि दोषमुक्ते - न भ्रान्तिबुद्धिजनने पटुता तदा किम् ? | तेनैव तेषु न भवेद् गुणयोगलभ्यं, प्रामाण्यमप्यनुमतं बुध ! ते मते तु ||३७७|| बौद्धागमादिषु यथा पुरुषस्य कर्तुः, स्मृत्या मता पुरुषकर्तृकता तथैव । वेदे स्मृतिर्नहि किमस्ति यतो न तस्य कर्ता प्रसिद्ध्यति पुमान् तव नीतिभीतः ||३७८ || सिद्धार्थकं च वचनं न मतं प्रमाणं, मीमांसकस्य तत एव न कर्तृसिद्धिः ।
विध्यङ्गतां स्तुतिपरत्ववलेन किन्तु, तस्याऽभ्युपेत्य फलवत्त्वमपि प्रशस्तम् ||३७९ ।। एतद्वचो नहि विचारपथं बुधानां, मीमांसकस्य कथमप्यवगाहतेऽत्र ।
स्वार्थे न चेद् यदि प्रमाणमसौ तदाऽस्य, विध्यङ्गताऽपि नियतस्य न भेदतः स्यात् ||३८०||
सर्वस्य सर्वविधिवोधितकर्मयोगः, स्यादर्थवादवचनस्य निरर्थकत्वे । बाध्यार्थकस्य यदि चाऽन्यपरत्वमस्य, नैतावता सकलमेव निजार्थशून्यम् ||३८१|| सिद्धार्थकाच्च वचसः स्मृतिरेव कर्तु - र्नो चेत् तदा सुगतकर्तृकतादिसिद्धिः ।
गमादिषु कथं भविता तथा च, द्वेषोऽपि तेषु भवतामनिमित्तकः स्यात् ||३८२||
सर्वज्ञविचारः
सर्वज्ञ एव यदि कोऽपि भवेन्न वक्ता, युक्तस्तदा पुरुषदोषकृतस्तु दोषः । शब्द परं विदितसर्वपदार्थतत्त्व - स्तीर्थङ्करो न भवतां श्रुतिगोचरः किम् ||३८३||
सर्वज्ञता वचनकर्तृतया विरुद्धा, सिद्धा भवेद् यदि तदा न भवेत् स वक्ता । न त्वेतदस्ति वद काऽत्र तवाऽस्ति युक्तिः, सियेद् यया नहि पुमान्निखिलार्थविज्ञः । ३८४।। स्वार्थावगाहिमतिजन्यमिह प्रसिद्धं वाक्यं प्रमाणमिति तेन विलक्षणेन ।
वक्ता प्रसिद्ध्यति विलक्षण एव लोके, व्याप्तिस्तथैव नियता न विपर्ययेण || ३८५ || दृष्टार्थकं च वचनं न जिनप्रणीतं, बाधां प्रमाणनिकरेण यतो निजार्थे । स्याद्वादलाञ्छिततनौ भजते तदैक्य वाक्यात् तदन्यदपि मानतयैव मान्यम् || ३८६|| एतादृशेन वचनेन निजप्रणेतृ सिद्धौ कथं न सकलार्थविदः प्रसिद्धिः । वाधप्रमाणविगमादपि किञ्च युक्ता, सर्वज्ञसिद्धिरनुमात्मतया प्रमाणम् ||३८७||
३१
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ यद्वृद्धितोऽपचयवानिह यः प्रसिद्धो - ऽत्यन्तप्रकर्षगमने ननु तस्य तस्य । आत्यन्तिकक्षय इतः सकलार्थविज्ञाद्, रागादिदोषघटनाऽप्यतिदूरमार्छत् ।।३८८।। एतेन युक्तिनिकरोऽपि विभोः परस्य, सर्वज्ञतापनयनेऽभिमतो न युक्तः । तत्सम्मतं कथकपद्धतिमत्र युक्त्या - ऽऽनीयोपहन्ति जिनदर्शनविज्ञ इत्थम् ।।३८९।। नन्वप्रमाणकमिहाऽभ्युपगन्तुमर्ह, प्रामाणिकैः किमपि नो तत एव वाच्यम् । सत्त्वे प्रमाणमिह सर्वविदः किमस्ति, प्रत्यक्षमत्र लभते न निजस्वरूपम् ।।३९०।। यस्मात् परात्ममतिगोचरबुद्धिशाली, नाऽस्मद्विधोऽक्षजमतेः कथमप्यशक्तेः । अस्मद्विशिष्टजनुषां मतिरस्य चेत् त - च्छ्रद्धास्पदं जडमतिं विरहय्य कस्य ।।३९१॥ प्रत्यक्षपूर्वकतयैव न चाऽनुमानं, नो वाऽस्य साधकतया प्रथितोऽस्ति हेतुः । नैतादृशे तु विषयेऽस्त्युपमाप्रचारः, शब्दोऽपि नाऽत्र कुरुते मतिमुज्ज्वलाभाम् ।।३९२।। यस्माद् वचो भवति सर्वविदः प्रमाण - मेतादृशे तु विषये न तु चर्मदृष्टेः । सिद्धे तु सर्वविदि तद्वचनत्वसिद्धि - रन्योन्यसंश्रयघटा प्रकृते ततः स्यात् ।।३९३।। एकस्य सिद्धिरिह चेद् यदि भिन्नसर्व - ज्ञोक्तागमादपरतो ननु तस्य कस्मात् । तस्याऽपि भिन्ननिखिलार्थविदुक्तवाक्यात्, सिद्धिर्भवेद् यदि तदा सुदृढाऽनवस्था ।।३९४।। अन्योन्यवाक्यजमतेः प्रभवा न सिद्धि - रन्योन्यसंश्रयलतापरिवेष्टनात् स्यात् । स्याच्चक्रकस्तदतिरिक्तसमाश्रये तु, नैतावता नियतसर्वविदः प्रसिद्धिः ।।३९५।। ज्ञानं तथा निजगतं वचनेन सोऽपि, नोऽध्यक्षमन्यजनवृत्तितयाऽत्र कर्तुम् । सामर्थ्यवानिति न तत्समकालिकैश्च, ज्ञातो भवेन्ननु जनैरपि तत्त्वदृष्ट्या ।।३९६।। नो भिन्नकालपुरुषैर्व्यवधानभाग्भिः, सर्वज्ञता परगता विदिता ह्ययोग्या । तामन्तरा त्वनुपपन्नमिहाऽस्ति किञ्चि - नैवाऽर्थतोऽपि तव सिद्ध्यतु येन विज्ञ ! ॥३९७।। भावो ह्ययं भवति न प्रतिषेधदक्षा - भावप्रमाणविषयोऽस्य ततो न सिद्धिः । नैवोक्तभिन्नमिह तेऽपि मतं प्रमाणं, प्रामाणिकस्य स च केन प्रसिद्धिमेतु ।।३९८।। नोत्पत्तुमर्हति तथा सकलार्थबोधो, हेतुं विना नियतदेशकतादिहानेः । हेतुस्तु तस्य नयनादि यदीन्द्रियं स्यात्, प्रत्यक्षता ननु तदोपगता तव स्यात् ।।३९९।। तत्त्वे न तस्य सकलार्थप्रकाशकत्वं, नेत्रादिना नियमनाद् विषये स्वकीये । यस्मान्न चाक्षुषमतिः प्रतिबन्धकाना - मुच्छेदतोऽप्यविषयेऽत्र जनस्य दृष्टा ।।४००।।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
यद्यन्यगोचरचरोऽपि भवेत् कदाचि - दक्षान्तरस्य विषयो न तदेन्द्रियाणि । कल्प्यानि नेत्रप्रभृतीनि बहूनि यस्मात्, स्पर्शन्द्रियेण सकलेन्द्रियकार्यभावः ।।४०१।। तस्माद् यदा नयनतोऽस्य मतिस्तदा नो, गन्धादिवस्तुविषया न च सर्ववित्त्वम् । अक्षान्तरादपि जनिर्यदि तस्य तत्रा - ऽप्यक्षान्तरस्य विषयो विषयो न युक्तः ।।४०२।। नो मानसं च बहिरिन्द्रियमन्तरेण, बाह्ये प्रवृत्तिमदतो न ततोऽपि तस्य । युक्ता जनिर्न च तथा विषयं विनैव, प्रत्यक्षबोध उपपद्यत एष विद्वन् ! ।।४०३।। नाऽलौकिको भवति गौतमसम्मतोऽपि, सम्बन्ध इन्द्रियगणस्य समस्तभावैः । प्रत्यक्षबोधजनकोऽभिमतो वुधानां, तत्त्वेऽथवा सकल एव न सर्ववित् ! किम् ।।४०४।। वाच्यत्वतः सकलमेव समानभावात्, सम्बद्धमत्र मनसो भवतां मतेन । तस्मात् समस्तविषयप्रतिभासनं किं, नाऽलौकिकाद् भवितुमर्हति सन्निकर्षात् ।।४०५।। लिङ्गादयं यदि भवेदनुमानरूपो, व्याप्तिग्रहः प्रथमतः सकलेषु वाच्यः । नाऽध्यक्षरूप इह सोऽपि भवेद्धि तस्य, लिङ्गान्तरप्रभवतैव मता त्वया स्यात् ।।४०६।। तत्राऽनवस्थितिलतापरिवेष्टनान्न, मुक्तिः कथञ्चिदपि ते भविताऽनुमायाम् । किञ्चाऽनुमामतिमतो यदि सर्ववित्त्व - मस्मादृशामपि कथं नहि सर्ववित्त्वम् ।।४०७।। वाच्यत्वतः सकलमेव भवेत प्रमेय - मित्यादिकानुमितिरस्ति न किं तथाऽपि । नाऽस्मादृशां यदि भवेदिह सर्ववित्त्वं, किं श्रद्धयाऽपि तव केवलया भवेत् तत् ।।४०८।। सादृश्यबुद्धिजनितोपमितेर्वलान्नो, सर्वज्ञता भवितुमर्हति पुंसि यस्मात् । सादृश्यगोचरतयैव मता बुधाना - मेषा न चाऽन्यविषया प्रमिताऽस्ति लोके ।।४०९।। प्रत्येकशः सकलवस्तुमतौ समर्थ - शब्दोऽथ कोऽपि नहि विद्यत एव लोके । अस्त्यागमः परमसौ बहुविस्तृत्वा - नाऽशेषतोऽध्ययनगोचरसञ्चरिष्णुः ॥४१०।। सर्वं विना किमपि नाऽनुपपन्नमर्था - पत्त्याऽपि सर्वविषयावगतिर्न युक्ता । नाऽभावमानविषयः खलु वस्तुराशि - स्तस्याऽसदर्थकतयैव यतः प्रसिद्धिः ।।४११।। नाऽभ्यासतोऽपि सकलावगमोद्भवः स्या - च्छक्तिं विहाय नहि सोऽपि प्रभुः क्रियायाम् । किं ताप्यमानमपि नीरमनेकशो वै, वह्नित्वमेति निजतत्त्वपरिक्षयेण ।।४१२।। नोल्लङ्घनं च शतशः क्रियमाणमेव - मात्यन्तिकं क्वचिदपि प्रविलोक्यतेऽत्र । व्यापारराशिसहकारिसमन्वयेऽपि, नेत्रेण सौरभमतेर्जननं न दृष्टम् ।।४१३।।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
-
भ्रान्ति तथा परगतामवबोद्धुमीशो, भ्रान्तो भवेदपरथा नहि सर्ववित् स्यात् । ज्ञानं यतः स्वविषयेण विना कृतं न, बोधेऽवभासत इति प्रथितोऽत्र पन्थाः || ४१४ || प्रत्यक्षबाधिततयाऽप्यनुमा प्रतिष्ठां प्राप्नोति सर्वविदि नैव पराभ्युपेता । किञ्चानुमाऽपि परकल्पितपुंसि सर्व ज्ञत्वापवादकतयाऽप्रतिघाऽस्ति किं नो || ४१५ || पुंस्त्वादसावहमिवाऽल्पविदभ्युपेयो, नो सर्वविन्न च तथाऽऽगमसम्प्रणेता । वक्तृत्वतोऽहमिव सोऽपि च सर्वविन्नो, रागादिमानहमिवाऽयमपि प्रमाता ||४१६ || पूर्वापरौ न समयौ निखिलज्ञयुक्तौ, कालत्वतोऽभिनवकाल इव प्रसिद्धः । देशान्तरे प्रकृतदेश इवाऽस्ति नैव, सर्वज्ञ इत्यनुमितीरवधारयाऽन्तः || ४१७।। वक्तृत्वतो भवति तेन समानधर्मा, किं नाऽस्मदादिरित एव भवेच्च सोऽपि । अस्मादृशैश्च सदृशोऽल्पपदार्थवित्त्वात्, तस्मात् कथं भवति नोपमितेस्तु बाधा ||४१८ || शब्दस्त्वलौकिक इहाऽस्ति विधिप्रधानो, नो सिद्धिगोचरचरो न ततोऽस्य बाधः । किन्त्वस्मदादिरचिता वहवः प्रतीता स्तबाधका न भवतां श्रुतिगोचराः किम् ? ||४१९ || स्यात् सर्वविद् यदि तदा तव सम्मतोऽत्र, पञ्चप्रमाणविषयोऽपि भवेन्न चैवम् । तस्मान्न चाऽस्ति स इदं किमु बाधकं नो ऽभावप्रमाणमपि तद्विषयानुमायाः ||४२०|| किञ्चाऽस्य कीटमशकादिमतिः किमर्था, प्रेक्षावताऽपि भवताऽभिमताऽत्र पुंसः । सौख्यास्पदाभिमतसर्वमतिं प्रकल्प्य, नाऽनुग्रहः किमु कृतोऽस्य निजोपदेष्टुः ||४२१ ।। दुःखानुभूतिवशतः खलु दुःखभोगी, दुःखीति लोकसरणौ जनताप्रसिद्धः । दुःखं परस्य विशदप्रमया विजानन्, दुःखी भवेत् सकलविन्नहि किं तवाऽऽप्तः ||४२२|| इत्थं वदन् स्वगृह एव जनैरुपास्यो, मीमांसको भवतु नो बुधमण्डपेऽपि । वाङ्मात्रतोऽत्र नहि सिद्धिमुपैति किञ्चिद्, युक्तिर्न काचिदपि तेन सती प्रयुक्ता ||४२३|| प्रत्यक्षबुद्धिरिह नैव ममाऽपि मान्या, तत्खण्डनं क्षतिकरं न च सर्ववित्त्वे । नैवाऽनुमा तदुदयाऽपि च तत्र मानं, केनोपमानमिह मानतया प्रयुक्तम् ||४२४|| सामान्यतो भवति दृष्टमिहाऽनुमानं, तत्साधनाय निरुपद्रवयुक्तिसिद्धम् । ज्ञानप्रकर्षजनितो वचनप्रकर्षः, किं नाऽस्मदादिनियतो नियमो न येन || ४२५ || स्पष्टैकबोधविषया ननु सर्वभावाः, कस्याऽपि सातिशयवोधवतोऽत्र पुंसः । पञ्चाङ्गुलीवदभिधेयप्रमेयतादे - र्व्याप्तेर्न चाऽत्र विरहो न च दोषलेशः || ४२६ ।।
-
-
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
सामान्यतो भवति यो मतिगोचरः सो - ऽसाधारणेन मतिगोचर इत्यतोऽपि । सत्त्वादिना मतिगता ननु सर्वभावाः, कस्याऽपि बोधविषया नियतस्वरूपैः ।।४२७।। व्याप्तिग्रहोऽपि सुलभो मनसो हतो वा, किं वाऽन्यतोऽस्तु भवतामपि मान्य एषः । धूमानुमानमपि तेन विना कथं स्याद् ?, यत्रोभयोरिति गतिर्भवतैव दत्ता ।।४२८।। सिद्धार्थकस्य वचनस्य च पूर्वनीत्या, प्रामाण्यमत्र भवतामपि सम्प्रसिद्धम् । तत्त्वे च तस्य भवदागमतोऽपि सिद्धि - हस्तस्थरत्नमतिवत् किमु नाऽस्ति विद्वन् ! ।।४२९।। प्रत्यक्ष एव स च केवलवोध इष्टो, जैनैस्तदावरणकर्मलयोऽस्य हेतुः । नाऽक्षोद्भवत्वमिह लक्षणमस्य किन्तु, स्पष्टत्वमेव विशदीकृतमार्हतैर्यत् ।।४३०।। तस्माद् विकल्पनिकरो भवतोऽर्थवान्नो, हेतूद्भवत्वविषये जिनतन्त्रसिद्धः । स्वाभाविको हि गुण आत्मनि बोधरूपो, निःशेषकर्मविलये प्रथते विशुद्धः ।।४३१।। अभ्यासतो भवति नैव प्रकर्षनिष्ठा - ऽन्यौपाधिकस्य प्रकृते तु कथं न सा स्यात् । नैर्मल्यमम्भसि न किं कतकप्रयोगे - ऽत्यन्तप्रकर्षपरिणामि जनेन दृष्टम् ।।४३२॥ भ्रान्तिं तु यद्यपि परस्य स वेत्ति तेन, भ्रान्तत्वमस्य च तथाऽपि न युज्यते यत् । भ्रान्तेः प्रमाणविधयाऽवगतौ भवेत् तद्, भ्रान्तित्वतोऽवगमने तु प्रमातृतैव ।।४३३।। ग्राह्यांशतोऽपि प्रकृतेऽस्ति न तस्य भावो, भ्रान्तो तु तद्विषयताद्यवगाहनेऽपि । यन्नाऽस्ति यत्र ननु तस्य मतौ तु तत्र, तत्किं न तद्विषयताऽस्ति तदप्रमायाम् ।।४३४।। अध्यक्षबाध इह योग्यतया प्रसिद्धे, ग्राह्ये भवेन्नहि परस्तु परस्य योग्यः । त्वदर्शितानुमितितो न भवेच्च वाधा, नैकत्र दर्शनवलान्नियमो हि युक्तः ।।४३५।। मीमांसकत्वमपि जैमिनितोऽन्यथा स्यात्, पुंस्त्वादितोऽपहृतसत्त्वमदर्शनं किम् । रथ्यानरे भवतु नो नियमोऽत्र येन, कश्चिद् विशेष इह नैव निभालितोऽस्ति ।।४३६।। प्राभाकरोऽपि पुरुषत्वसमन्वयेन, मीमांसको नहि भवेत् स इवाऽल्पबुद्धिः । एतादृशानुमितयः स्ववधाय कृत्यो - त्थानं भवेयुरिति तद्धृदये कुरुष्व ।।४३७।। तात्कालिकैरविदिताखिलवेदतत्त्वे - तिौ बभूव तव जैमिनिरत्र यद्वत् । तद्वज्जिनोऽपि विदिताखिलवस्तुतत्त्वो, ज्ञातो विनेयभविकैरिह किं न मान्यः ? ||४३८।। व्याख्यातृतागुणबलेन यथा त्रिवेदी, वेदैकभागविदुषामपि जैमिनिर्वः । ज्ञातो बभूव किमु नोऽपि तथैव नोऽर्ह - त्सिद्धान्तदेशविदुषां विदितोऽखिलज्ञः ।।४३९॥
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
साधर्म्यतो यदि भवेन्नहि सर्ववित् स, मीमांसकोऽपि तव जैमिनिरत्र न स्यात् । सामान्यतोऽथ नियमो वचनस्य चाऽस्ति, बुद्ध्यैव नाऽल्पविषयावगमेन विद्वन् ! ||४४०|| स्वात्मस्थितं ह्यनुभवन् ननु दुःखराशि, स्वाभेदतो भवति कर्मठ ! दुःखभोगी । अन्यात्मनिष्ठमवयन्नपि च प्रमाता, दुःखं कथं भवतु सर्वविदस्य भोक्ता ||४४१ ।। आप्तोक्ततागुणबलाद् वचनं प्रमाणं, प्रामाण्यसिद्धिरपि तत्र ततस्ततोऽस्तु । किञ्च प्रमाणमपि जैमिनितन्त्रसिद्धं नाऽस्ति स्वतो भवतु कस्य प्रमात्वमिष्टम् ||४४२॥ व्यापार एष कथितो ननु तैः प्रमातु- र्याथार्थ्यमर्थनियतं प्रथते हि तस्मात् । व्यापारयुक्त इह कार्यभवे समर्थो, हेतुर्न तं तु विरहय्य पटुः क्रियायाम् ||४४३|| नवीदृशो नियम आद्रियते भवद्भिर्व्यापार इष्ट इह हेतुरथाऽप्यहेतुः । आद्येऽनवस्थितिरथाऽनियमप्रसङ्ग, व्यापारतद्विरहकल्पनया भवेत् ते ||४४४॥ अन्त्ये स्वभावविलयोऽजनको यतो न, व्यापारतापरिगतो विबुधप्रसिद्धः । व्यापारभिन्नजनकस्य च तद्व्यपेक्षा, नो तस्य सेति यदि कोऽत्र विशेष इष्टः || ४४५ || नो तत्स्वभावशरणेन पदप्रसारो, युक्तोऽत्र युक्तिशरणैकप्रकल्प्यरूपे । प्रत्यक्षसिद्धिविषये खलु तत्र तस्या - ऽर्थापत्तितो भवति कल्पनमत्र नैवम् ||४४६|| व्यापार एष किमु जन्यतया मतस्ते, किं वा न जन्य इति नाऽत्र तृतीयकल्पः । आद्ये न हेतुमपेक्ष्य भवेच्च जन्म, निर्हेतुकस्य नियमो नहि युज्यते यत् ||४४७ || व्यापारयुक्त इह चेद् यदि तस्य हेतु - स्तत्राऽप्यपर्यवसितिर्भवतामवार्या । व्यापारमुक्तमपि तज्जनकं मतं चेत्, तस्यैव तर्हि नहि कल्पनमर्थवत् स्यात् ||४४८ || अन्त्ये सदैव विषयावगतिः प्रसक्ता, आत्मा तदन्वित इहाऽस्ति सदा प्रमाता । अन्धोऽपि पश्यतु घटादिपदार्थराशीन् नेत्रादिकं विफलमेव तव प्रसक्तम् ||४४९।। भट्टेन किञ्च स हि नेन्द्रियगोचरस्तु प्रोक्तोऽनुमाविषय एव मतस्तथा च । स्याज्ज्ञातताऽनुमितिहेतुरथाऽस्य किं वा ज्ञप्तिस्तु तेन जनिता प्रथमो न युक्तः ||४५०|| ज्ञानस्य बाह्यविषयेण न चाऽस्ति बन्धो, नो तं विना नियतबाह्यगता तु सा स्यात् । सम्बन्ध इष्ट इह चेत् तव कोऽपि तर्हि, किं ज्ञातताभ्युपगमेन निरर्थकेन || ४५१ || ज्ञानं च सर्वमिह साम्प्रतगोचरं न भूतं भविष्यदपि यद् विषयीकरोति । नो ज्ञातता भवितुमर्हति तत्र तस्माज्ज्ञानं प्रसिद्ध्यतु तयाऽनुमितेः कथं ते ।।४५२ ||
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
किञ्चेष्टतादिकमपि प्रथितं न कस्मादिच्छादयोऽप्यनुमितेर्विषयास्ततः स्युः । ज्ञाता तथा भवति साऽनुमितौ समर्था, तत्राऽनवस्थितिरपर्यवसानतः स्यात् ||४५३ || व्याप्तिग्रहोऽपि च तया सह तस्य वाच्यः, सोऽपि प्रसिद्ध्यति न तामपरां विहाय । एषाऽनवस्थितिलता त्वपरोदिता स्यात्, तस्मात् कथं कथय तस्य तयाऽनुमाऽस्तु ||४५४ || ज्ञप्तिः फलं यदि भवेदनुमापकं सा, स्वेनैव सिद्ध्यति तदोत विभिन्नबोधात् । आधे तयैव निखिलो व्यवहार इष्टः स्यात् तेऽन्यवोधपरिकल्पनमर्थवन्नो || ४५५ || अन्त्ये ऽनवस्थितिनिपातभयान्न मुक्ति - र्ज्ञाता यतो भवति साऽनुमितौ तु हेतुः । व्यापारतोऽस्ति नहि कोऽपि विशेषलेश - स्तस्याः किमर्थमिह कल्पनमादृतं स्यात् ॥ ४५६ ॥
प्राभाकरोऽत्र विषये न कथाधिकारी, संवेदनं भवतु येन तदुक्तमिष्टम् । ज्ञानत्वमेव प्रमितित्वमनेन बोधे, प्रोक्तं भ्रमत्वमपरं न च तस्य किञ्चित् ||४५७||
भेदाग्रहः खलु प्रवर्तक इष्यते तै- र्भ्रान्तिस्थले परमसौ न विचारमार्गे । सुप्तस्य तेन नहि जायत एव यल- स्तुच्छस्ततो नहि स तेऽपि मते भवेच्च ||४५८ ||
भेदाग्रहो भवति ते ननु पर्युदास - वृत्त्या त्वभेदमतिरेव तथा च सिद्धा । भ्रान्त्यात्मिका मतिरिति स्वत एव नैव, बोधत्वतो भवति मात्वमतेः प्रसिद्धिः ||४५९ ॥ ज्ञप्तौ यथैव परतश्च भवेत् प्रमाणं, कार्ये तथैव परतो विनिभालनीयम् । प्रमात्वधिकृता प्रकृते ततो न स्याद्वादपक्षविमुखः परतोऽपि पक्षः || ४६० ||
वेदान्तमतखण्डनम्
मीमांसके प्रतिहते न च सर्ववस्त्व द्वैतप्रवादिमतमप्यनुमोदनीयम् । युक्तिः समा तदुभयोर्हि निराक्रियायां, पूर्वप्रदर्शितदिशा त्ववधारणीया ||४६१ ॥ शून्यत्ववादिमतखण्डनदर्शितोक्त - नीतिस्तथा भवति तस्य निराक्रियायाम् । विज्ञानवादपरिमर्दनयुक्तिजालो - ऽप्यस्त्येव किञ्च तदुपज्ञप्रकारमार्गे ॥ ४६२ ॥
सर्वं सदेव हि विश्वमसत् तथा नो, आविद्यकं भवति किन्त्विह दृश्यवस्तु । एतच्च तैरुपगतं परमत्र तत्त्वं ज्ञात्वाऽपि नो विशदयन्ति तदेव चित्रम् ||४६३ || जात्यन्तरे भवति वस्तुनि नैव दोषः, प्रत्येकपक्षमवलम्ब्य यतोऽस्य वृत्तिः । यद् व्यावहारिकमिदं तव सत्त्वमिष्टं तत् पारमार्थिकतयैव विचारयाऽन्तः ।।४६४।। शून्यत्वमस्य जगतो न विना प्रमाणं, प्रामाणिकस्य निकटे तव सिद्धिमेति । प्रत्यक्षमानमिह सत्त्वप्रसाधकं न मिथ्यात्वसाधकतयाऽभ्युपगन्तुमर्हम् ||४६५ ||
३७
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ मानान्तरं भवति किन्तु ततोऽपि नैव, प्रत्यक्षवाधिततया तदुपैति सिद्धिम् । स्याद्वादतः सकल एव तथा च हेतु - र्जात्यन्तरस्य गमको न तु शून्यतायाः ।।४६६।। दृश्यत्वतो जगति तेऽभिमतं न सिद्धिं, मिथ्यात्वमेति बुध ! दोषततेर्विलासात् । लिङ्गं त्विदं यदि न दृश्यमतो न सिद्धि - तिं यतो भवति लिङ्गमिह प्रमाणम् ॥४६७।। दृश्यं भवेद् यदि तदा स्वयमेव मिथ्या, नाऽन्यानुमाजननशक्तियुतं भवेत् तत् । व्याप्तिस्तथा भवति नाऽत्र न पक्षताऽस्ति, रूपत्रयं तव मतं च न युज्यतेऽस्मिन् ।।४६८।। शब्द: स्वयं तव मते नहि सत्यरूपो, मिथ्यात्वसिद्धिरपि तेन कथं घटेत ? । शक्तिग्रहाद्यपि न चाऽस्ति न शाब्दबोधः, श्रोता न चाऽस्ति न च कोऽपि तवाऽस्ति वक्ता ।।४६९।। ब्रह्मात्मकं यदि भवेत् प्रथितं च विश्व - मद्वैतवाद इह तर्हि तव प्रसिद्धयेत् । स्तम्भो घटः पट इति प्रविभेदतो न, प्रत्यक्षबुद्धिरुपपद्यत एव तत्त्वे ।।४७०।। निष्टङ्कनं भवति चाऽक्षमतेर्घटादे - न स्वान्यभेदकलनां हि विनैव तस्मात् । भेदावगाहिमतितस्तव बाध्यमाना, नाऽद्वैतबुद्धिरपि सिद्धिपथं प्रयाति ।।४७१।। सत्त्वं रजस्तम इति त्रितयस्वरूपा, माया मता मम तु सा निखिलेषु सत्ता । वादोऽपि नाम्नि परमत्र न तत्र काचि - दानिर्जिनैकशरणानुगतप्रकारे ।।४७२।। सत्त्वं स्थितिर्भवति जन्म रजोगुणोऽत्र, नाशस्तमोगुण इति त्रितयात्मकं यत् । सत्त्वं मतं सकलवस्तुगतं जिनानां, तादात्म्यसंवलितभेदयुतं मिथस्तत् ।।४७३।। यत्स्वप्रकाशमिह तत्र तमो न दृष्टं, ब्रह्मस्वरूपनियता कथमस्त्वविद्या । विद्या तथा भवति नो विषयं विनैव, तत्त्वेऽथवा ननु तयोरिह को विशेषः ।।४७४।। वाङ्मात्रतो विशदबोधप्रकाशमानं, विश्वं न चाऽपलपितुं खलु शक्यमन्यैः ।
एवं स्थितौ भवति तन्मतमेव मिथ्या, तत्प्रक्रियाश्रयणमत्र बुधैर्न कार्यम् ।।४७५।। न्यायमतखण्डनम् -
ज्ञानस्वरूपमपि यस्य मते न सिद्ध्ये - नैयायिकस्य न कथाकरणेऽधिकारः । व्यक्तिं विनैव ननु धर्मपरीक्षणं हि, खे चित्रनिर्मितिसमं प्रवदन्ति विज्ञाः ।।४७६।। आत्मा यतो भवति तस्य मते प्रमाता, ज्ञानं प्रमा तदुभयोः समवायवन्धः । एतत् त्रय नहि प्रमाणपथं प्रयाति, प्रामाण्यतत्त्वमननं व तदाऽस्वतोऽस्तु ।।४७७।।
1. नो तस्य गौतमसुतस्य कथाधिकारः इति वा पाठः ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
नित्यो महान् सकलमूर्त्तगतोऽयमात्मा, नैकान्ततो भवितुमर्हति सत्त्वहानेः ।। बौद्धोक्तयुक्तिकवलेन भवेन्न नित्यो, माने महत्यपि न मानमिहाऽस्ति किञ्चित् ||४७८ || प्रत्यक्षतः सकलदेहभृतां स्वदेह - तुल्यात्ममानविषयैव मतिः प्रसिद्धा । प्रत्यक्षबाधिततयाऽनुमितिर्न चाऽत्रा - ऽत्यन्तप्रकृष्टपरिमाण प्रसाधिका स्यात् ||४७९ || नैवाऽपकृष्टपरिमाणतया महत्त्वे, कार्यत्वतो भवति नाशप्रसञ्जनं च । व्याप्तिस्तयोर्नहि प्रयोजकमन्तरेण येनाऽऽत्मनोऽपि विलयोऽर्थत आगतः स्यात् ||४८० || किञ्चाऽस्य मानमपि नस्तनुनामकर्मोद्भूतं मतं भवति तन्न च नित्यमेव । नाशेऽथ तस्य च भवेदनुगामिनोऽपि जीवस्य तत्परिणतस्य लयः कथञ्चित् ||४८१ ।। नो सर्वथा जिनमते विलयोऽस्ति कस्या ऽप्येवं स्थिते न परदर्शितदोषपोषः । यत्खण्डनेऽप्यवयवस्य तनोः करादे स्तद्देशखण्डनमिह प्रवदन्ति वृद्धाः ||४८२ ।। कम्पोपलव्धिरत एव च खण्डितेऽंश, आत्मप्रदेशगमनादुपपद्यते नः । नो नो मनोऽन्तरप्रवेशविकल्पनेन, कम्पोपपादनपरिश्रमदुःखलेशः || ४८३ ॥ एतेन सावयवताऽल्पमहत्त्वयोगात्, संयोगजत्वमुपगम्य विनाशिताऽस्य । तन्नाशतो ननु परेण प्रदर्शिता या सेष्टप्रसञ्जनतया क्षतिकारिणी नो || ४८४ ।। नो प्रक्रियाऽपि परमार्थत इष्यते सा, नैयायिकोपरचिता परमार्हतैस्तु । संयोगनाशमनपेक्ष्य यतो विनाशः, केयूरभावपरिणामककुण्डलस्य ।।४८५।। किञ्चाऽनुमानमपि देहसमानमान, आत्मन्यवाधिततयाऽत्र प्रवर्त्तते नः । यत्रैव यो भवति दृष्टगुणः स तत्र, कुम्भादिवद् भवति चाऽत्र न दोषलेशः || ४८६ | | नित्ये विभौ च नहि कर्मकलापवन्धो ऽभावे च तस्य सुतरां नहि मुक्तियोगः । नो जन्म मृत्युरपि नैव न कर्तृभोक्तृ भावौ तथाऽविचलितात्मनि तार्किकाणाम् ||४८७ || नोऽदृष्टमिष्टमखिलेऽपि च जन्यभावे, हेतुर्बुधाग्र्य ! ननु येन विभुस्तवाऽसौ । सिद्ध्येत् समस्तजनिमत्सु च तस्य योग- सम्पादनार्थमिति भावय तार्किक ! त्वम् ||४८८|| वायोर्गतिर्हुतभुजो ज्वलनं स्वभावात्, स्वस्वस्वभावनियता हि समस्तभावाः । किञ्चाऽपराद्धमणुभिस्तव येन तेषु, नाऽनन्तशक्तिमवलोकयसे स्फुटाभाम् ||४८९ ।। किञ्चाऽस्त्वदृष्टमिह कारणमर्थराशौ, नैयायिकस्य न ततोऽपि विभुत्वसिद्धिः । स्वाधारयोगपरिकल्पनमन्तराऽपि शक्त्यैव यद् भवितुमर्हति हेतुताऽस्य ||४९०||
-
-
-
३९
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ वैचित्र्यमेव शरणं विभुवादिनोऽपि, यलो यतो नहि ततोऽर्थभवे समर्थः । यले कृतेऽपि बहुशो न मुखं प्रयाति, ग्रासो विनैव च करग्रहणं जनानाम् ।।४९१।। आकर्षणं भवति तं च विनाऽपि मान्यं, स्पर्शादयो मणिगुणादयसस्तवाऽपि । सान्निध्यतो न च परोऽस्ति तयोस्तु प्राप्ति - !ऽदृष्टकल्पनमिहाऽपि तव प्रशस्तम् ।।४९२।। शत्रोर्यथा मरणहेतुरयं तथैव, श्येनादियागजनितः सुहृदो न किं स्यात् । उद्देश्यताद्यपरबन्धमुरीकरोषि, चेत् तीलं विभुतयाऽऽत्मप्रकल्पनेन ।।४९३।। संसर्गसङ्घटितमेव न कारणत्वं, शक्त्यात्मकं भवति किन्तु जिनागमे तत् । शक्तिः स्वकार्यनियता नियतात्मभाव - स्थित्या भवेनियतकारणगैव किञ्च ॥४९४।। स्याद् गौरवं तव विरोध्यविरोधकत्वे - ऽवच्छेदकस्य नियतस्य प्रवेशनेन । यस्माद् घटात्मनि मतेर्विरहेऽपि देहा - त्मन्यस्ति बुद्धिघटनैकविभुस्वरूपे ।।४९५।। ज्ञानादिकं प्रति तनोर्जनकत्वमेवं, स्यात् कल्पनीयमिति गौरवमत्र किं न ? ।। आपादकापगमतोऽविभुतामते नो, नाऽऽपत्तिरस्ति तत एव न गौरवं स्यात् ।।४९६।। ज्ञानादिकं च नहि तत्र परप्रकाशे, सिद्धयेत् कुतोऽस्य ननु साश्रयता गुणत्वात् । तत्तच्छरीरनियमोऽपि विभोर्न युक्तो, ज्ञानादि तन्नियमितं सुतरां न च स्यात् ।।४९७।। नाऽदृष्टतोऽपि नियमस्तव युज्यतेऽत्र, तस्यैव यन्न च नियामकमस्ति किञ्चित् ।
स्वस्वामिभावनियमोऽपि कथं तथैवा - ऽदृष्टात्मनोर्नियतयोरुपपद्यते ते ।।४९८।। न्यायमतखण्डने ईश्वरविचारः -
नन्तदर्थमिह सर्वपदार्थविज्ञो - ऽधिष्ठायकोऽक्षिचरणानुमतो महेशः । पश्यन् स एव नियतात्मगतं त्वदृष्टं, स्वस्वामिभावनियमेन करोतु किं नो ।।४९९।। कार्यं सकर्तृकमिति स्वत एव लोकैः, सामान्यतोऽत्र नियमोऽवगतो घटादौ । भूम्यङ्कुराद्यवयवित्ववशात् प्रसिद्धं, कार्यं स्वकर्तृशिवसाधनतत्परं नः ।।५००।। स्यालाघवात् स विभुरेकतयैव मान्यो, ज्ञानाद्यजन्यमत एव भवेच्च तस्य । नित्यत्वतो भवति चाऽविनिगम्यभावा - ज्ज्ञानादि सर्वविषये परमेश्वरस्य ।।५०१।। एतावता सकलवित् सकलप्रणेता, युक्त्या प्रसिद्ध्यति तथा सति तत्र मानम् । शब्दोऽपि तद्विरचितो नहि धर्म्यसिद्धि - दोषादितोऽनुमितितोऽस्य निराक्रियाऽस्ति ।।५०२ ।। इत्यादिगौतमसुतैरुपगीयमानं, न्यायानुसारिपथवर्ति न युक्त्यभावात् । युक्तिः सती भवति वस्तुप्रसाधिका या, नैकान्तवादिमतनिर्भरतो भवेत् सा ।।५०३।।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
नाऽचेतनं भवति चेतनसव्यपेक्ष - मेव स्वकार्यजनने पटुरित्यमन्दैः । व्याप्तिर्मता तव तु येन प्रवृत्तिभाज - स्तत्प्रेरिता अणुमुखाः स्वत एव नैवम् ।।५०४।। नाऽकारणाद् भवति कार्यमतोऽनुमा स्यात्, कार्येण हेतुविषया न ततो महेशः । कर्ता प्रसिद्ध्यति यतो नहि जन्यमात्रे, क; विनाऽभवनमव्यभिचारि दृष्टम् ।।५०५।। यदृष्टिमात्रत इह स्मृतिरस्ति कर्तु - स्तादृम्पदार्थजनको भवतोऽस्तु कर्ता । क्षित्यङ्कुराद्यनुभवेऽपि न जायते यत्, कर्तुः स्मृतिर्न च सकर्तृकमिष्यते तत् ।।५०६।। एकत्र दर्शनबलाद् यदि कार्यमात्रे, कर्ता मतो जनक ईश इहेन्द्रमूर्ध्नः । किं कारणं नहि नरो भवतां मते स्यात्, कुम्भादिवद् भवति सोऽपि मृदो विकारः ।।५०७।। कर्ता शरीररहितो न च सम्प्रसिद्धो - ऽदृष्टोऽपि चेत् तव मतो नियमानुरोधात् । क्षित्यकुराद्यपि घटादिविलक्षणं न, कार्यं तदा किमिह दृष्टमकर्तृकं स्यात् ? ।।५०८।। कार्यत्वतो भवतु कारणजन्यताऽस्य, तत्राऽपि लाघवबलादणुजन्यतैव । भासेत लैङ्गिकमती भवजन्यता तु, नो गौरवप्रतिहता तव नीतिरीतेः ।।५०९।। एकान्ततस्तव मता न च कार्यताऽत्र, पक्षेऽस्त्यतो भवति नो किमु हेत्वसिद्धिः । सामान्यतो भवति साऽव्यभिचारिणी नो, आत्माद्यपक्षगमनादिति चिन्तनीयम् ।।५१०।। एतेन नाऽवयविताऽपि मता तव स्यात्, कार्यत्वसिद्ध्यनुगुणा शशशृङ्गकल्पा । सामान्यतो भवतु सा न तयाऽर्थसिद्धिः, काचित् तवाऽभिलषितेति विचारयाऽन्तः ।।५११।। ज्ञानत्वतो निखिलमेव भवेच्च जन्यं, ज्ञानं तदन्यदपि तेऽनुमतं कथं स्यात् । किं वा तथैव न घटादिविलक्षणं सत्, कार्यं मृदाद्यपि मतं तव कर्त्रजन्यम् ।।५१२।। संवेदनं स्वत इहोपगतं त्वया नो, जीवात्मबोधगतमीश्वरबोधगं तत् । ज्ञानत्वतो भवितुमर्हति नैव तद्वत्, सर्वज्ञता वद तदाऽस्य कथं नु युक्ता ।।५१३।। जात्या समानमपि तन्निखिलावगाहि, स्वात्मावभासि च विलक्षणमिष्टमस्य । कार्यत्वतस्तदिव तुल्यमकर्तृकं च, कुम्भादिनाऽङ्कुरमृदादि विलक्षणं सत् ।।५१४।। जन्यस्य वृत्तिनियमो ननु कार्यभावाद्, यद् येन जन्यमिह तन्नियतं तदस्तु । ज्ञानं तु तत् तव मते नहि जन्यमिष्टं, कस्मात् ततो न सकलात्मगतं भवेत् तत् ।।५१५।। एतेन सर्वविषयत्वप्रसाधिका ते, युक्तिर्भवेत् सकलवृत्तिप्रसाधिकाऽपि । अत्र स्वभाव उररीक्रियतेऽथ तर्हि, कर्तुर्विनाऽपि तत एव न किं मृदादि ? ।।५१६॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः॥ स्यालाघवाद् यदि न सर्वगतः स बोध - स्तेनैव सर्वविषयोऽपि न युज्यतेऽथ । एकत्र तद्विनिगमो न परत्र चेत् तत्, तुल्यं निभालय मृदादिषु कार्यतायाम् ।।५१७।। कर्तृत्वमस्य यदि बोधप्रयलकाम - संसर्ग एव ननु तर्हि समस्तभावे । कर्तृत्वमापतितमस्य ततो न नित्यं, किञ्चित् तवाऽप्यभिमतं स्थिरतामुपैतु ।।५१८।। यद्धेतुगोचरमतिर्ननु तस्य कर्ता, नाऽन्यस्य तद्विगमतो यदि सम्मतस्ते । ज्ञानादि तर्हि नहि केवलमर्थकारि, कार्यव्यवस्थितिरिहाऽन्यवलाद् यतोऽभूत् ।।५१९।। कर्ता न सर्वजनकावगतौ समर्थः, कुम्भादिकार्यजननेऽप्यवलोकितोऽस्ति । यस्माददृष्टमपि कारणमस्त्यदृष्ट - कालादिकं घटपटादिविधानदक्षैः ।।५२०।। एवं समस्तजनकावगतेरभावे - ऽपीशोऽङ्कुरादि विदधातु ततो न तस्य । स्यात् कल्पनं सकलकारणप्रेरकत्वा - दज्ञातहेतुरपि किं न करोतु कार्यम् ? ।।५२१।। सामान्यतो न वपुषाऽनुविधानमस्ति, कार्यस्य तेन नहि कारणमिष्यते तत् । कर्ताऽपि नैव सममस्ति विलोक्यमानं, प्रेक्षावता तदिति सोऽपि न कारणं ते ।।५२२।। न प्रक्रियानुसरणेन भवेद् व्यवस्था, कर्ता प्रसिद्ध्यतु यतो निखिलेऽपि कार्ये । किचाऽन्वयो न नियतो व्यतिरेक एव, किन्त्वत्र कारणतयाऽभ्युपगम्यमाने ।।५२३ ।। ईशस्त्वया सकलकालगतो मतोऽस्ति, काले ततो न विरहोऽस्य तथा न देशे । व्याप्त्याऽन्वयादिति कथं व्यतिरेकशून्ये, हेतुत्वमप्युपगतं तव सिद्धिमेतु ।।५२४।। ज्ञानादयो निखिलकार्यजनौ समर्था, व्यापारतामनुभवन्ति सदैव तस्य । कार्यं ततो निखिलमेव सदैव किं न, सामग्र्यभाजि जनके न जनेर्विलम्वः ।।५२५।। सोऽपेक्षते यदि परं सहकारिणं त - नित्यं भवेदुत ततो व्यतिरिक्तमेव । आद्ये भवेज्जनिमतां न जनेर्विलम्बः, कर्ता सदाऽस्ति सहकारिकरम्बितो यत् ।।५२६।। अन्त्ये स ईश्वरकृतोऽभ्युपगम्यते चेत्, तस्याऽपि किं नहि भवेच्च सदैव जन्म । तत्राऽपि सोऽन्यसहकारिसमाश्रयेण, हेतुर्भवेद् यदि तदा सुदृढाऽनवस्था ।।५२७।। इष्टानवस्थितिरियं हि प्रमाणमूला, विश्वव्यवस्थितिरियं न यतोऽन्तरा ताम् । इत्यादितार्किकवचो न विचाररम्यं, भावावबोधविरहेण प्रवर्तमानम् ।।५२८।। अन्यानि यानि जनकानि त्वयोदितानि, वस्तूनि तान्यपि महेशकृतानि चेत् स्युः । सर्वाणि तानि न भवन्ति सदैव कस्मा - देवं स्थितौ च जनकानि कुतः क्रमेण ।।५२९।।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
तत्राऽनवस्थितिलता न हृदि स्थिता ते, जैनैरपीह ननु सोपगतैव यस्मात् । किन्त्वीदृशस्य समपेक्षण ईश्वरस्या - ऽपेक्षानवस्थितिघटा त्वपरैव काचित् ।।५३०।। तत्कारणानि यदि नेश्वरसम्भवानि, तैरेव किं भवति नो व्यभिचारि लिङ्गम् । प्रेक्षावतां भवति किञ्च प्रयोजनेन, व्याप्ता प्रवृत्तिरिह नेतरथा क्रियायाम् ।।५३१।। सम्प्राप्तकामनिकरस्य महेश्वरस्य, नो ते प्रपञ्चकरणात् किमपीष्टमिष्टम् । क्षित्यकुरादिकमयं विदधातु कस्मात्, प्रेक्षाऽथवा किमु भवेन्न त्वयाऽस्य लुप्ता ॥५३२।। कारुण्यतो भगवतो यदि ते प्रवृत्तिः, सृष्टिर्भवेच्छुभमयी न च तद्विरुद्धा । क्रीडा तु रागनियता न भवेन्महेशे, न क्रीडयाऽपि तत एव जगत्प्रवृत्तिः ।।५३३।। दुःखापनोदनकृते च भवेद् विलासः, किं वा सुखाय तदुभावपि नो महेशे ॥ स्वातन्त्र्यमात्मनियतं सकलेषु पश्यन्, दुःखान्वयं जगदिदं प्रकरोतु कस्मात् ।।५३४।। धर्माद्यपूर्वसहकारिवशान्महेशो, वैचित्र्यशालि जगदेव करोति नाऽन्यत् । एवं मतं यदि तदा परतन्त्रतैव, स्वातन्त्र्यमस्य नहि तेऽभिमतं तु युक्तम् ।।५३५।। धर्मं विलोक्य ननु तेन सुखं करोतु, पापं विलोक्य विरतोऽस्तु च दुःखसृष्टेः । एवं कृते भवति नो परतन्त्रताऽनु - कम्पाऽपि सर्वजनिमत्सु प्रकाशिता स्यात् ।।५३६।। पापं विधाय पुनरस्य विनाशकर्तु - भॊगेन मूढजनतोऽप्यपकृष्टताऽस्य । नूनं भवेन्न नियमोऽस्ति तथा विनाशो, भोगेन कर्मपटलस्य न चाऽन्यथेति ।।५३७।। ज्ञानाग्निनाऽप्यशुभकर्मततेर्विनाशः, शास्त्रे तवाऽपि ननु सम्प्रतिपन्न एव । ज्ञानं स्वसन्ततिगतं न कथं विधाय, सर्वोपकारनिपुणोऽप्यभवन्महेशः ।।५३८।। दण्ड्याय दण्डमिह यन्नृपतिर्ददाति, रागादिदोपकलितो व्यपदिश्यते तत् । दण्ड्यापकारविषये च न कर्तृताऽस्य, शम्भुस्तवाऽभिलषितस्तु ततो विरुद्धः ।।५३९।। राजा स्वतन्त्र इह नैव तथा क्रियायां, मन्त्र्याधनेककरणोपकृतः प्रभुः सः । राज्यक्षयादिभयतो नयमार्गगामी, नैवं शिवस्तव मतोऽखिलकार्यकर्ता ।।५४०।। राजा प्रसन्नहृदयो द्रविणं ददाति, क्रुद्धो हरत्यखिलमेव धनं च किं वा । कोपप्रसादविगतो भवतां महेशः, कस्येष्टकृद् भवतु कस्य च दुःखकारी ? ।।५४१।। धर्मादयो नियमिता नियमेन कार्य, कुर्वन्ति नोऽनियमिता इति शम्भुसिद्धिः । शम्भुः स्वयं यदि न कार्यजनौ प्रभुः स्यात्, सिद्धिस्तदा भवतु तस्य कथं पटिष्ठा ? ।।५४२।।
|
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
नेत्रादिकं नियतगोचरमत्र दृष्टं, क्षेत्रज्ञतोऽनियतगोचरतः स्वकीये ।
ग्राह्ये प्रवृत्तिमदधिष्ठितमेव तद्वत्, क्षेत्रज्ञराशिरपि किं न ततो महेश: ? ।। ५४३ ।।
एतन्न युक्तमनवस्थितिदोषतस्ते ऽधिष्ठायकानुशरणस्य यतो न काष्ठा । विश्रान्तिरस्ति यदि तर्हि न शम्भुसिद्धि- र्व्याप्तेर्लयाद् भवितुमर्हति गौतमानाम् ।।५४४।। पक्षाप्रसिद्धिरिह दोषतया न चेष्टो, जैनैर्यतो भवतु तस्य शरीरिताद्ये । साध्येऽप्रसिद्धिघटना खलु धर्म्यसिद्ध्या, वैकल्पिकी त्वभिमता बुध ! धर्मिसिद्धिः ।।५४५।। किञ्च स्वतन्त्रगमके खलु धर्म्यसिद्धि र्दोषो भवेन्न च प्रसङ्गतयाऽप्यभीष्टे । एवं स्थिते भवतु किं न च कर्तृतादे रीशे शरीरघटनादिप्रसञ्जनं नः || ५४६ || ईशोऽथवा किमु न जैनमतेऽस्ति सिद्धो, धर्म्यप्रसिद्धिवचनं वचनीयमेव । कर्ता परं न च भवेत् तत एव तस्य कर्तृत्वखण्डनपरं शिवखण्डनं नः || ५४७ ।। तीर्थप्रवर्तनपटुर्भवतां मतेऽपि कस्माद् भवेत् स इति नैव परेण चोद्यम् । कामादिदोषरहितोऽपि हि तीर्थकृत्त्व - स्वाभाव्यतो भवति तीर्थकरो जिनेन्द्रः ||५४८ || यत् तेन तीर्थकरनाम शुभैरनेकैः, कर्मार्जितं तदुदयाद् भविकोपकृत्यै । तीर्थं प्रवर्तयति कर्मवशेन सिद्धो, निःशेषकर्मवियुतोऽतनुरार्हतानाम् ||५४९।। नैतद्गुणात्मकमिहाऽभिमतं जिनानां ज्ञानादिवद् भवति पौद्गलिकं परन्तु । स्वाभाविकोर्ध्वगतिमानपि यस्य योगा - दात्मा भवे भ्रमति मत्त इवेह मद्यात् ॥ ५५०||
,
चार्वाकमतप्रदर्शनम्
-
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
-
नन्वत्र गौतमसुतानुमतो न माता, ज्ञानं नवा न च तयोः समवायबन्धः । इत्थं त्वयैव विनिभालितमेतयैव, नीत्या न किं गुरुमतं मतमद्वितीयम् ||५५१ ।। न स्वर्गलोकमनुगच्छति कोऽपि जीवो, देहाद् विभिन्न इह सोऽपि न मानसिद्धः । पूर्वः परो न च भवो नरकादिकं नो, प्रत्यक्षभिन्नमथ मानममानमेव ।।५५२ ।। किं पूजया किमु तथेन्द्रियनिग्रहेण, दारादिभोगविमुखैश्च मुधा तपोभिः । कश्चाऽऽगतोऽत्र परलोकत इत्यविज्ञा, धूर्त्तप्रलापवचनैः किमु वञ्चिता नो ।। ५५३ ।। चत्वारि सर्वजनताक्षजगोचराणि भूतानि सन्ति नहि तद्व्यतिरिक्तमस्ति । तान्येव देहपरिणामविशेषलाभे, किं चेतनानि न भवन्ति यतोऽन्य आत्मा ||५५४।। दृष्टो हविर्गुडकणिक्कसमष्टिरूपे, किं मोदके न हि विचित्ररसप्रकर्षः । किं वा तथा न मदशक्तिरनन्यरूपे, संयोगतः समुदयात्मनि दृष्टपूर्वा ॥ ५५५ ।।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
शृङ्गं शशीयमपि किं न मतं त्वयाऽङ्गा, नो दृश्यते क्वचिदपीति न तन्मतं चेत् । आत्मोपलब्ध इह किं भवता कदाचि - नेत्रादिना ननु यतो न भवेत् स मिथ्या ।।५५६॥ नाऽहं प्रतीतिविषयो भवतामिहाऽऽत्मा, गौरोऽहमित्यनुभवो हि शरीरधर्मः । एकत्र धर्मिणि सहावगतौ प्रवीणो - ऽहं त्वस्य सुख्यहमिति प्रथनं तु मिथ्या ।।५५७।। लिङ्गं न चाऽत्र निरुपद्रवमीक्ष्यते यत्, तेनाऽनुमानमपि तस्य भवेन सिद्धौ । नोऽव्याप्तिबुद्धिमनपेक्ष्य तवाऽनुमायाः, किञ्चोद्भवोऽप्यभिमतो बुध ! लिङ्गजायाः ।।५५८।। व्याप्तिग्रहो भवति न व्यभिचारशङ्का - भङ्गानुकूलमनपेक्ष्य च तत्र तर्कम् । व्याप्तिग्रहं च विरहय्य न तर्कजन्म, तत्राऽपि किं भवति न व्यभिचारशङ्का ।।५५९।। तस्याः क्षयोऽपि यदि तर्कसमाश्रयेण, स्याच्चक्रको भ्रमणतोऽभ्रमणेऽनवस्था । व्याप्तिग्रहोऽक्षजनितः किमु लिङ्गजो वा, तत्राऽक्षजो यदि मतो न च युज्यते सः ।।५६०।। यस्मात् पुरःस्थितपदार्थमतौ प्रवीणं, नेत्रादिकं व्यवहितार्थमतावलं नो । व्याप्तिग्रहो निखिलसाधनसाध्यधर्मि - ग्राही कथं भवतु तेन न लिङ्गजोऽपि ।।५६१।। नैवाऽगृहीतनियमोऽनुमितौ समर्थो, हेतुस्ततो नियमबुद्धिरिहाऽपि लिङ्गात् । तत्राऽपि तद्ग्रहणमन्यत एव लिङ्गा - देषाऽपरा नियमबुद्धिकृताऽनवस्था ।।५६२।। गौणं प्रमाणमिह नैव मतं बुधानां, प्रत्यक्षमात्रमत एव भवेत् प्रमाणम् । गौणात् त्वयाऽनुमितिकारणवृत्तिरुक्ता, गौणत्वतो न तव मानमतोऽनुमानम् ।।५६३।। पक्षो यतो भवति साध्यविशिष्टधर्मी, व्याप्तिग्रहे स तव साध्यपरो मतोऽथ । व्याप्यस्य पक्षघटनाग्रहणे स धर्मी, गौणाद् विना कथय काऽत्र तवाऽस्ति नीतिः ।।५६४।। सामान्यमत्र यदि साध्यतया मतं ते, तत्साधनं भवति तर्हि वृथैव सिद्धेः । किञ्च प्रवृत्तिरपि नैव फलार्थिनां स्या - ज्ज्ञानं विनाऽन्यदिह तस्य यतो न कार्यम् ।।५६५।। व्याप्त्यग्रहाद् भवति नैव विशेषरूपः, साध्योऽन्वयादिघटना न विशेषतो यत् । प्रत्येकपक्षपरिदर्शितदोषतस्तु, नैवोभयं भवति साध्यतयाऽप्यदुष्टम् ।।५६६।। लोके तु धूममतितो गिरिगह्वरे या, धूमध्वजावगतिरस्ति न साऽनुमाख्या । सम्भावना भवति किन्त्वथवा स्मृतिः सा - ऽसंसर्गभानविकला व्यवहारयोग्या ।।५६७।। यच्चाऽस्त्यनुव्यवसितावनुमात्वभान - मस्यास्ततो भवति नाऽनुमितित्वसिद्धिः । यस्मादसन्मतिबलादुपनीतमेवा - ऽसत्ख्यातिबोधविषयोऽनुमितित्वमस्याः ।।५६८।।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ तन्मानसत्वनियतं न परोक्षवृत्ति, किं वाऽस्त्वतो भवति लाघवमत्र पक्षे । सामान्यतो भवति मानसबोधमात्रे, बाह्याक्षवोधजनकं प्रतिबन्धकं यत् ।।५६९।। तस्मिन् परोक्षमतियोगिनि कल्पिते तु, किं गौरवं न प्रतिबन्धकतान्यतातः । प्रत्यक्षता निखिलविज्ञजनप्रसिद्धा, हेया न तर्करसिकैरनुमाऽऽत्मवोधे ।।५७०।। साडूर्य्यदोषघटना तु कुतार्किकाणां, जातित्ववाधकतयाऽभिमता न विज्ञैः । आत्मत्वजातिरपि येन न भूतसङ्के, देहात्मके गुरुमतेन भवेत् प्रसिद्धा ।।५७१।। संयोग इन्द्रियभवे न पृथक् प्रकल्प्यो, व्यापार आत्मविषये मनसोऽपि वोधे । संयोगिनो हि समवायत एव देहे, नेत्रादिना मतिरुदेष्यति तार्किकाणाम् ।।५७२।। शालूकतो भवति गोमयतोऽपि जन्म, शालूकजातिनियमेऽपि च वृश्चिकानाम् । ज्ञानेकजातिनियमेऽपि विभिन्नजाते - हेतोर्भवेत् किमु न बुद्धिजनिस्तथैव ।।५७३।। पित्रोः कदाचिदिह शुक्ररजःसमुत्थो, वोधो रसायनप्रयोगभवः कदाचित् । अभ्यासतो भवति सोऽथ च तेन नाऽऽत्मा, देहात् पृथक् तव प्रसिद्धिमुपैति युक्त्या ।।५७४।। प्रज्ञादिकं प्रतिदिनं च शरीरवृद्ध्या, प्राप्तप्रकर्पमिह सर्वजनप्रसिद्धम् । दृष्ट्वाऽपि देहगुणतां यदि तस्य नैव, मन्ता तदा भवतु तस्य तु को विपक्षः ।।५७५।। वालस्य जन्मसमयेऽपि च दुग्धपाने, वृत्तिः स्वभाववलतो न च वासनातः । शङ्का न तत्र विदुषां खलु युज्यतेऽर्थे, स्वाभाविकी हि वहुधा जगतो व्यवस्था ।।५७६।। शीतं जलं कथय केन कृतं तथाऽग्नि - रुष्णस्वभाव इह केन विनिर्मितोऽभूत् । आकर्षणानुगतशक्तिरयोमणीनां, कस्मादभून्न च तथा प्रकृते वितर्कः ।।५७७।। नो कार्यकारणसमाश्रयणेन कोऽपि, कार्यो विचार इह तर्कवितर्कदक्षैः ।। नो वस्तुतो गुरुमतेऽनुमतः कयोश्चिद्, यत्कार्यकारणतया नियमेन बन्धः ।।५७८।। प्रत्येकशी घटपटादिषु वर्तते नो, त्रित्वादिकं पुनरिदं समुदायवृत्ति । तद्वन्न भूमिजलवह्निमरुत्स्वपि स्यात्, प्रत्येकशश्च किमवृत्त्यपि चेतनत्वम् ।।५७९।। कुम्भादिभावमिह योग्यमवाप्य दृश्यो - ऽदृश्योऽपि चाऽणुनिकरः समुदाय्यभिन्नः । देहस्वभावमवलम्व्य तथैव किं न, भूतानि चेतनतया परिणामवन्ति ।।५८०।। मुक्तात्मनां विबुधगौतमतन्त्रसिद्धौ, ज्ञानादिकस्य विरहोऽपि यथा तथैव । प्राणादियोगविगमे ननु चेतनाया, देहे लयोऽपि मृतके गुरुतन्त्रसिद्धः ।।५८१।।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
आत्मप्रसिद्धिजनकं न यथाऽत्र मानं, तद्बाधकं च न तथैव विभाति मानम् । यस्माद् विचारकतयाऽक्षजवोध इष्टो, नाऽऽप्तैस्तु यद्यपि तथाऽपि भवेत् प्रसङ्गः ||५८२|| यद्यङ्कितस्य शशशृङ्गनिषेधनेऽपि तस्यैव यद् भवति वृत्तिरबाधितस्य ।
आत्माऽस्ति नेति न निषेधविधानमेवं, यद्यस्ति तत्र तव किन्तु किमस्ति मानम् ||५८३ || सर्वत्र तेन वुध ! पर्यनुयोगमात्रं कृत्वा बृहस्पतिरमन्दमतिप्रभावात् । ध्यान्ध्यं विमूढजनचित्तसमाश्रितं तु स्वर्गादिखण्डनगिराऽनयदन्तधाम || ५८४|| चार्वाकमतखण्डनम्
चार्वाकबाललपितं गुरुगौरवेण, मान्यं भवेदनुपसेवितसद्गुरूणाम् । एतद्वचो न च जिनागमतत्त्वनिष्ठा काष्ठाविशुद्धमनसां पुनरार्हतानाम् ||५८५|| चार्वाकमन्दमतयो हि परात्मसंस्था, अज्ञानसंशयविरुद्धमतीरनक्षाः । ज्ञात्वेन्द्रियैर्न प्रभविष्णव आदधाना, बुद्धिं यथार्थविषयामपनेतुमेते || ५८६ ।। स्वर्गादिकं च जिनगौतमतन्त्रविज्ञे - रिष्टं त्वलौकिकमिति प्रमितं त्वया यत् । तन्नाऽक्षजप्रमितितो नयनाद्ययोग्यं, चेष्टादिलिङ्गजनितानुमितेः परन्तु || ५८७।। अध्यक्षगोचरतया नियमोऽस्ति नो वा, सत्त्वस्य तेऽभिमत आद्य इहाऽप्रशस्यः । यस्मात् तथा सति तवाऽपि मते प्रमाणं प्राप्तं भवेदनुमितेर्जनकं विविक्तम् ||५८८|| आत्माऽन्तिमे वद वाऽपि कथं न सत्यो ऽप्रत्यक्षगोचरचरोऽपि मृषाप्रलापिन् ! | व्याप्ता व्यवस्थितिरियं किमु मानतो वा, मेयस्य किं नु तव नैव मतेऽस्ति विद्वन् ! ।।५८९ ।। आद्येऽनुमानमपि किं न करोषि चित्ते, भङ्गयन्तरेण वचसा प्रतिपादितं यत् । अन्त्ये कथं न शशशृङ्गमपि प्रमेयं, सिद्धयेद् बृहस्पतिमतं तु ततो विचित्रम् ।।५९०|| स्वाध्यक्षबोधविगमात् किमु नाऽस्ति जीवो, देहाद् विविक्त उत वा निखिलैरदृष्टेः । आद्ये स्वकीयनयनाद्यपि नैव सिद्धये - दन्धस्य ते किमु घटाद्यपि सिद्धिमेतु ।।५९१ ।। प्रत्यक्षतो नहि कदाचिदपि क्वचिद् वा, कैश्चित् तनोरवगतो व्यतिरिक्त आत्मा । एवं तवाऽभिलषितोऽन्तिमकल्प एषा, बुद्धिर्मताऽक्षजनितोत परैव काचित् ? ।।५९२ ।। कल्पो न चाऽऽद्य इह तेऽभिमतो यतो नो, नेत्रादिकस्य विषया व्यवधानभाजः । अन्त्ये परोक्षमतिरेव भवेत् ततस्ते, मान्याऽनुमाऽपि च मते किमु नैव विद्वन् ! ।।५९३ ।। या लौकिकैरुपगताऽनुमितिर्यथार्था, लोकप्रवृत्तिचतुरा तव सम्मता सा । शास्त्रेऽपि लौकिकपरीक्षकयोर्विशेषो, नो कश्चिदत्र विबुधैरवलोकितो यत् ||५९४||
-
४७
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
प्रामाण्यलक्षणमवाधितगोचरत्वं, संवादितेति तव सम्मतमेतदेव । प्रामाण्यसाधकतयाऽक्षभवे तु बोधे, तत्राऽनुमाभ्युपगमोऽरुचितोऽपि किं नो ।।५९५ ।।
शब्दार्थयोश्च समयग्रहसव्यपेक्षो - बुद्धस्वभाव इह वाचकतादिरूपः ।
संसर्ग आर्हतमते प्रमितोऽस्ति किं नो, आप्तागमोऽपि तव येन न च प्रमाणम् ॥ ५९६ ॥ सर्वज्ञसिद्धिरिह दर्शितनीतितस्ते, मान्यैव तद्वचनतः प्रतिपादिता ये । स्वर्गादयो नहि भवन्ति च तेऽप्यसत्याः, प्रत्यक्षगोचरचराः परमस्य पुंसः । । ५९७ ।। यद्यागमो न च भवेत् तव मानमिष्टं त्वद्वाक्यतो नहि परस्य भवेत् प्रमार्थे । नो वा परोक्तवचनात् तव बोधलेशो, लोके कथाऽपि च परेण निरर्थिका ते ॥ ५९८ || शास्त्रं निरर्थकतयैव गुरुप्रणीतं, वाच्यं न कैश्चिदपि तत्त्वमतावहेतु ।
प्रेक्षावताऽपि गुरुणा स्वयमेव प्रेक्षा कारित्वमात्मनियतं विफलीकृतं किम् ? ।।५९९ ।। किञ्च प्रसिद्धिपदवीं न गुरुस्तवाऽपि शब्दानुमानप्रमिती विरहय्य याति । शाब्दप्रमाणमुररीकुरु लोकदृष्ट्या ऽप्यास्था गुरोरपि मते तव तद् विना नो ||६०० || देहस्वरूपपरिणामबलेन भूतान्येवाऽस्ति चेतनमिति प्रतिपादितं यत् ।
तत्राऽपि किं स च ततो व्यतिरिक्त इष्टो - ऽभिन्नोऽथवा न प्रथमस्तव सम्मतोऽस्ति || ६०१ ||
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
-
तत्त्वे बृहस्पतिविलोकिततत्त्वसङ्ख्या - लोपोऽधिकस्य वचसा च तवैव प्राप्तेः । पक्षो द्वितीय इह ते यदि सम्मतस्तत्, किं नो घटादिषु भवेदविशेषतस्तत् ||६०२||
नो मोदकाद्यपि हविर्गुडकाद्यभिन्न मेकान्ततो जिनमते प्रथितं परन्तु । भिन्नस्वभावगमनाद् व्यतिरिक्ततावत्, स्याद्वादतो भवति भिन्नमभिन्नमेभिः ।।६०३।। प्रत्येकवृत्तिरिह चाऽपि न चेद् रसादि - र्नैयत्यतो भवति तर्हि कथं प्रकृष्टः । यद्वद्धविर्गुडकणिक्कसमुद्भवः स तद्वत् कथं न तिलरेणुजलादिभिः सः ||६०४|| मद्ये न मादनफला समुदाय्यभिन्ने, भिन्नेऽपि किन्तु समवैति मतेऽत्र शक्तिः । चार्वाक ! तत् तदुभयं तव सम्मतं न दृष्टान्तभावममलं प्रतिपद्यतेऽत्र || ६०५ || नो शक्तितो भवति चेतनता मते ते, प्रत्येकभूतपरमाणुगता यतः सा । दृश्या न चाऽस्ति न च तद्व्यतिरिक्ततायां, प्रत्यक्षमानमपरं तव सम्मतं न ||६०६ ।। शक्तिश्च चेतनतया यदि सा विभिन्ना, सम्बन्ध एव भविता न तयोस्तदानीम् । तादात्म्यमेव यदि तेऽनुमतं तयोस्तत्, प्रत्येकशो भवतु चेतनताप्रकाशः ||६०७||
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
नाऽयोग्यमिष्टमिह शृङ्गमतो यदि स्यात्, तद् वै शशे किमु न तन्मतिरक्षजा तत् । प्रत्यक्षबोधविरहाच्च ततो न तस्य, सद्भावसिद्धिरियमेव गतिर्न जीवे ।।६०८।।। आत्मा परो न च परस्य हि चर्मदृष्टे - योग्यस्ततो विशदबुद्धिचरो न चाऽन्यैः । सर्वज्ञबोधविषयास्तु समस्तभावा - स्तत्राऽऽत्मनोऽपि निखिलस्य कथं न भानम् ॥६०९।। चेष्टादिलिङ्गजनिता मितिरस्मदादे - मानं परात्मविषयाऽपि च चर्मदृष्टेः । स्वात्मा स्वसंविदितबोधत एव साक्षात्, सिद्धो न चाऽन्यदिह मानमपेक्षते नः ।।६१०।। तत्राऽहमित्यधिगतिर्न शरीरतोऽस्ति, यस्मात् तमस्यपि महानिबिडे रजन्याम् । देहप्रबोधविरहे नयनादितोऽस्या, भावो जनैः स्वविदितो निरपहृतोऽस्ति ।।६११।। नेत्राद्यजन्यविषयत्ववतस्त्वहं त्वं, स्वाभाविकं भवति नो नयनादियोग्ये । किन्त्वौपचारिकमतो व्यतिरिक्त आत्मा - ऽहन्त्वप्रतीतिविषयो न शरीरमेव ।।६१२।। अत्यन्तसन्निधजने निजकार्यनिष्ठे, द्रष्टाऽहमित्यधिगतिर्ननु लौकिकानाम् । देहे स्वभोगजनकत्वबलात् तथैवा - ऽहन्त्वप्रतीतिरुपपद्यत एव पुंसाम् ।।६१३।। तस्मान सुख्यहमिति प्रमितिम॒षार्था, गौरोऽहमित्यधिगतेरुपचारतैव । आत्मा ममाऽयमिति केवलमुक्तिलासो, देहे त्वयं भवति वस्तुत एव बोधः ।।६१४।। व्याप्त्यग्रहादनुमितिर्न परात्मनश्चेद्, धूमाद्भुताशनमतिस्तव किंनिमित्ता ? | नैवाऽनुमानमिह सम्मतमित्यवाच्यं, पूर्वोक्तदोषगणभीतिमता त्वया तु ।।६१५।। देशान्तरं तव मते न गृहीतमक्षैः, कालान्तरं न तव भूतिविविक्तिमस्ति । तस्मात् कथं कथय ते व्यभिचारशङ्का, स्यादन्तरानुमितिमज्ञ ! परोक्षभावे ।।६१६।। नो पञ्चलक्षणमिहाऽनुमतं तु लिङ्ग, नो वा त्रिलक्षणमथाऽनुपपन्नता या । साध्यं विना भवति हेतुगता तु सैका, सद्धेतुलक्षणमतो न च दोषपोषः ।।६१७।। सा कार्यकारणबलादुत वा स्वभावात्, किं वाऽन्यतः क्वचिदपि प्रथिता यदि स्यात् । लोकप्रवृत्तिविरहादिप्रसङ्गतर्का - जय्या तदा नहि बिभेति च शड्या ते ।।६१८॥ प्रत्यक्षतोऽनुमितितोऽथ च शाब्दतो वा, व्याप्तिग्रहो न च मतो बुध ! जैनतन्त्रे । तत्खण्डनं निखिलमेव सहायकं नो, ाशेन तेऽपि हृदि पल्लविता जिनोक्तिः ॥६१९।। तर्कात्मकः सकलसाध्यसमग्रहेत्वा - क्षेपेण मानमिह जैनमतानुगानाम् । व्याप्तेर्मतावलमयं श्रुतिगोचरः किं, जातः कदाचिदपि ते न गुरोः सकाशे ।।६२०।।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ शब्दप्रवृत्तिरिह चेद् यदि गौणवृत्त्या, नैतावता भवति वाधितगोचरत्वम् । नो तं विना भ्रममतित्वमुपेयमस्या, येन प्रमात्वमविगीततया न सिद्ध्येत् ।।६२१।। हेतोर्न पक्षघटनामितिरार्हतानां, किञ्चाऽनुमाफलतयोपगता मते तु । पक्षप्रयोग इह गौणतयोत मुख्या - दित्यादिपक्षरचनाऽनुचिता विकल्पैः ।।६२२।। अम्भोनिधौ भवति वृद्ध्यनुमोदयेन, चन्द्रस्य दृष्ट्यनुमितिस्तु पिपीलिकादेः । साण्डस्य सञ्चरणतोऽथ च कृत्तिकादेः, पूर्वोदयादनुमितिस्त्वपरोदयस्य ||६२३।। ब्राह्मण्यसाध्यविषयानुमितिश्च पुत्रे, ब्राह्मण्यतः सकललोकमतैव पित्रोः । नैतादृशेष्वपि परिश्रमतो वुधेन, लिङ्गेषु पक्षघटनाऽनुगतिर्विधेया ।।६२४।। यत्रैव यो भवति येन विनाऽत्र हेतुः, साध्येन धर्मिणि यतोऽनुपपन्नरूपः । तत्रैव तस्य गमकः स निजोपपत्त्यै, स्यात् पक्षसाध्यनियमोऽपि च तावतैव ।।६२५।। नाऽम्भोनिधेरुदरवर्त्यनलेन धूमो, दृष्टो गिरौ खलु विनाऽनुपपन्नरूपः ।। तस्मान्न तस्य गमको वद सोपयुक्ता, हेतोऽस्तु पक्षघटना व तव स्थिताऽपि ।।६२६।। हेतौ समस्ति तत एव न धीधनेन, वाच्यानुमाफलतया परमार्थतः सा । किं ज्ञाततादिरपि तत्र च विद्यमानो - ऽभीष्टस्तथा विबुध ! गौतमतन्त्रयुक्त्या ।।६२७।। सामान्यमात्रमिह साध्यतया मतं नो, नो वा विशेष उभयात्मकमेव किन्तु । प्रत्येकपक्षपरिदर्शितदोषजालः, स्याद्वादतन्त्रविमुखो लभतां क्व सिद्धिम् ।।६२८।। सम्भावना नहि प्रमाभिमता प्रमात्वं, संवादतो भ्रमधियाऽवगतं तु तस्याम् । कार्यार्थिनोऽभिमतहेतुप्रवृत्तये स्यात्, संवादितार्थविषयत्वमयी न चाऽस्ति ।।६२९।। सम्भावना हि सविकल्पकबुद्धिरूपा, सा नाऽर्थगोचरतया तव सम्मताऽस्ति । संवादितामतिरपि भ्रम एव तस्यां, चेत् तर्हि किं तव भवेदनवस्थितिर्न ।।६३०।। स्यान्निर्विकल्पकसमुत्थविकल्पभास्य - ग्राहित्वमत्र सविकल्पनमात्रवृत्ति । संवादिता परमसौ न च निर्विकल्पे, तिष्ठत्यतः कथमिह प्रमितित्ववुद्धिः ।।६३१।। सा निर्विकल्पकभवावगतार्थधीत्वं, स्यानिर्विकल्पसविकल्पनमात्रवृत्ति । इष्टा तदानुमितिरेव प्रमात्वसाध्या, तस्माच्छलादभिमता भवतां मतेऽपि ।।६३२।। संवेदनं स्वत इहाऽनुमितेः प्रमात्वे, चाऽस्मन्मते भवितुमर्हति तत्त्वयोगात् । सम्भावना यदि प्रमा तव सम्मता स्यात्, संवेदनं स्वत इहाऽपि भवेन्न चैवम् ॥६३३।।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
सामान्यमत्र नहि तुच्छमबाध्यबोध - ग्राह्यत्वतो नियतलिङ्गजबोधभास्यम् । येन प्रमाऽनुमितिरेव भवेत् स्वतो न, संवेदनं तदवगाहि कथं प्रमात्चे ।।६३४। प्रत्यक्षमेव तव सम्मतमत्र नाऽन्यत्, सम्भावनाऽप्युदयमेतु कथं मते ते । प्रत्यक्षहेतुविरहाद्धि परोक्षवढे - र्भानं भवेन्नहि परन्तु विपर्ययस्य ।।६३५।। कोटिद्वयावगतितो ननु संशयः स्यात्, कोटिद्वयावगतिहेतुरतस्तु वाच्यः । एकैककोटिविषयीकरणे समर्थो, बोधोऽक्षजन्य इति नोभयकोटिभानम् ।।६३६।। स्याच्चेदियं स्मृतिरतो नियतप्रदेशे, वृत्तिस्तदाऽनुमितितो न भवेच्च पुंसाम् । पूर्वानुभूतिविषये स्मृतितः प्रवृत्ति - दृष्टा न सन्निहितधर्मिणि लौकिकानाम् ।।६३७।। नाऽसत्पदार्थविषयावगमेऽस्ति हेतुः, ख्यातिस्ततो भवति सद्विषयैव सर्वा ।। अन्यत्र दृष्टविषयस्य यदन्यदेशे, ज्ञानं भवेद् भ्रममतिस्तु तदेव यस्मात् ।।६३८।। एवं स्थिते त्वनुमितित्वमतियथार्था, कुत्राऽपि चेत् तव मताऽनुमितिस्तदाऽस्ति । नो चेदनुव्यवसितावसतस्तु तस्य, भानं कथं भवितुमर्हति हेत्वभावात् ।।६३९।। अध्यक्षतोऽपि तव बोधगता न सिद्ध्येत्, किञ्चाऽसतोऽप्युपगते मतिगोचरत्वे । तस्यास्त्वनुव्यवसितेर्न कथं तथैवा - ऽसत्ख्यातितो भवति भानमिहाऽक्षवोधे ।।६४०।। नो निर्विकल्पकमतिः स्वत एव सिद्धा, स्वप्नेऽपि भाति ननु येन तयैव सिद्ध्येत् । प्रत्यक्षता स्वनियता किमु शून्यता नो, सिद्ध्येच्च कल्पनमतेर्धमता मते ते ।।६४१।। नो मानसत्वनियतानुमितित्वजाति - र्व्याप्तिग्रहोद्भवमतौ नियमेन भावात् ।। स्यादन्यथा घटपटाद्यपि मानसेऽस्मिन्, सामान्यहेतुवलतः किमु नैव भास्यम् ।।६४२।। तद्व्याप्यवत्त्वविषया मतिरन्यबोधे, त्वत्सम्मतेह प्रतिबन्धकभावतश्चेत् । वोधः सुखादिविषयोऽप्यनुमानहेतौ, सत्त्वे कथं भवतु मानस इष्यते यत् ।।६४३।। भोगोद्भवो नियमतः सुखदुःखभावे, तत्तद्वयं तव मतं यदि बोधमात्रे । जात्यैकयाऽनुगतया प्रतिबन्धकं त - दुत्तेजकं च कथितप्रतिवन्धकेऽथ ।।६४४।। किं लाघवादनुमितिव्यतिरिक्ततां त्वं, त्यक्त्वा न कल्पयसि मानसबोधमात्रे । पूर्वोक्तयुक्तिबलतः प्रतिबन्धकत्वं, तत्त्वेऽनुमा किमु न मानसवोधभिन्ना ।।६४५।। एतेन यैरनुमितिव्यतिरिक्त एव, भोगान्यमानसभवेऽनुगतां तु जातिम् । स्वीकृत्य तद्वति मतं प्रतिबन्धकत्वं, तेषां मतं भवति गौरवतो निरस्तम् ।।६४६।।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ आत्मत्वजातिरिह देहगता यदि स्यात्, किं चक्षुषा भवति नाऽऽत्ममतिस्तु तत्र । ज्ञानादिकं च परदेहगतं न कस्माद्, रूपादिवन्नयनतः स्फुटमेव भाति ।।६४७।। स्वात्मप्रकाश इह जैनमते प्रमाता, संयोगकल्पनभवा गुरुता न चाऽस्ति । न प्राप्यकार्यभिमतं नयनं मनश्च, सम्बन्ध इन्द्रियभवे निखिले न हेतुः ।।६४८।। नाऽपेक्ष्य गौतममतं च तथा लघुत्वं, तत्प्रक्रियात इह यन्नियमेन तस्य । संसर्गता त्रुटिमतेरनुरोधतस्तु, कल्प्यैव नाऽत्र विषयेऽन्यगतिस्तवाऽस्ति ।।६४९।। संयोगिनो हि समवायबलान्न चाऽणो - रूपस्य चाक्षुषमतिर्बुध ! येन तस्मात् । संयोगिनो भवति योग्यतया निवेशो, नो भिन्नजीवपरिकल्पनतो गुरुत्वम् ।।६५०॥ शालूकगोमयभवावपि वृश्चिकौ न, वैचित्र्यतोऽत्र भवतस्तु समानजाती । शालूकतोऽथ च न गोमय इष्यते वा, वैजात्ययोग्यपि च पौद्गलिकत्वभावात् ।।६५१।। अभ्यासशुक्ररसयोगजचेतनासु, वैजात्यमण्वपि न च प्रतिपद्यते जैः । तत्कारणेषु तु तथा तव सम्मतेषु, साजात्यमस्ति न च बोधजडत्वभेदात् ।।६५२।। अभ्यास एव नियतो ननु तेषु हेतु - ! शुक्रशोणितरसायनसेवनादिः । दृष्टो यतो यमलयोस्तु रसायनादेः, साम्येऽपि तेन जनितोऽत्र मतेः प्रकर्षः ।।६५३।। कस्मिंश्चिदेकविषयेऽभ्यसनेन शास्त्रे, शास्त्रान्तरे भवति यन्मतिपाटवादिः । तेनाऽपि सिद्ध्यति बटोरपरप्रयलाद्, बुद्धिविनाऽप्यनुपमाऽभ्यसनप्रकर्षात् ।।६५४।। एतद्भवे नहि यतोऽभ्यसनादिरस्य, जन्मान्तरस्य स तु सिद्ध्यति कार्यलिङ्गात् । कार्येकजातिनियमोऽसति बाधके नो, स्याद्धेतुजातिनियमव्यतिरेकतोऽत्र ।।६५५।। नो देहवृद्धिबलतो नियमेन प्रज्ञा - वृद्धिर्महाजगरनागवरादिकेषु । वृद्धिः क्वचित् तु सहकारिविशेषतोऽस्तू - पादानता नहि तनौ ननु चेतनायाः ॥६५६।। क्षेत्रादिहेतुवशतोऽपि विवृद्धिभाजो, वृक्षादयः किमु भवन्ति न चाऽल्पबीजैः । देहे विकारजननान्नियमेन बोधे, नो वा विकार उपलभ्यत एव किञ्च ।।६५७।। देहैकदेशदलनेऽपि च सात्त्विकानां, ज्ञाने विकारकणिकाऽपि न जायते यत् । स्वात्मैकतानमनसां च विकारलेशो, ज्ञाने न चाऽस्ति विकृतेऽपि शरीरदेशे ।।६५८।। नाऽन्यानुभूतविषयस्मृतिरन्यपुंसो, दृष्टो भवेत् स्मरणमेव न देहपक्षे । बाल्ये विलोकितपदार्थततेर्जराया - मेको न वृद्ध्यपचयाच्च यतः शरीरम् ।।६५९।।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥श्रीन्यायसिन्धुः ॥
सन्तानतोऽप्यनुभवस्मरणात्मबोधौ, नो हेतुजन्यविधयाऽत्र प्रकल्पनीयौ । बाल्ये भवेत् प्रथमतो ननु चेतना ते, कस्मान्न मातृगतचेतनतात एषा ।।६६०।। तत्त्वेऽथवा भवतु मात्रनुभूतवस्तु - जातस्मृतिर्न कथमत्र शिशोस्तु बाल्ये । पूर्वापरानुगतकार्मणदेहतोऽन्य - स्मान्नो भवेच्चपलताद्युपसर्पणं च ।।६६१।। देहः स चाऽऽत्मनियतोऽध्यवसायभेदाद्, बन्धस्वरूपपरिणामतयाऽऽत्मनैव । संस्थापितः प्रकृतितोऽथ च देशतश्च, स्थित्याऽनुभावत इति प्रविभाग इष्टः ।।६६२।। वृत्तिर्न चेष्टजनकत्वमतिं विनैव, ज्ञानं द्विधा त्वनुभवस्मृतिभेदतोऽत्र । बालस्य चाऽनुभवहेतुवियोगतो नो, जन्मक्षणेऽनुभवबोधभवोऽभ्युपेयः ॥६६३।। किन्तु स्मृतिर्भवति साऽनुभवं विना नो, नैवाऽनुभूतिरिह जन्मनि तस्य यस्मात् । संस्कारतः परभवानुभवात्मलाभात्, सा स्तन्यपानसुखसाधनतावभासा ।।६६४।। एवं स्थिते तव तु कारणमन्तरा चेत्, स्वाभाविकी यदि प्रवृत्तिरसौ मता तत् । किं सर्वदा सकलगोचर एव यलो, नोदेति हेतुनिरपेक्षतया स्वभावात् ॥६६५।। शैत्यं जले भवति कारणमन्तरा नो, नैवोष्णताऽनलगता जनकं विनाऽत्र । शक्तिः स्वकार्यनियता जनकं विनाऽय - स्कान्तादिगा जिनसुतैर्न च सम्मताऽस्ति ।।६६६।। किञ्च स्वभाववचनं न निरर्थकं ते, वाच्यं तु किञ्चिदपि तस्य भवेदवश्यम् । भूतातिरिक्तमभिधेयमनिष्टमेव, भूतात्मकं भवति तन्न विशेषकृत् ते ।।६६७।। यस्माद् घटाद्यपि मतं तव भूतमध्ये, स्तन्यादिपानविषया कृतिरस्य किं नो । व्यावृत्तितो भवति यश्च विशेषभावो, नो तात्त्विकः स तु मिथोऽपि च सम्भवी यत् ।।६६८॥ धूमार्थिनां नियमतो ह्यनले प्रवृत्ति - स्तृप्त्यर्थिनां तु ननु भोजनपानकादौ । नो कार्यकारणमतिं विरहय्य किञ्च, स्यादन्यथा जगदिदं न कथं निरीहम् ।।६६९।। दण्डादिकं यदि भवेन्न च कुम्भहेतुः, किं तद्विनाऽपि वद कुम्भभवो न ते स्यात् ? | यो यस्य नो भवति हेतुरसौ विना तं, दृष्टो यथा पटकटादि विनैव दण्डम् ।।६७०।। यस्योद्भवो नियमतस्त्ववधेर्यतः स्यात्, पूर्वोऽवधिर्भवति कारणमेव सोऽयम् । तं स्वीकरोषि यदि किं न तदा स्वनीत्या, हेतुत्वमप्यनुमतं वचनान्तरेण ।।६७१।। त्रित्वादिकं च समुदायिषु खण्डशश्चे - नो सत् तदा न समुदायगतं भवेत् तत् । नो सर्वथा समुदितः समुदायिभिन्नः, स्याद्वादवाद्यभिमतो बुध ! तत्त्वदृष्ट्या ।।६७२ ।।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ नो सर्वथाऽवयवरूपतयैव जैनैः, कुम्भादयोऽवयविनोऽभिमतास्तथात्वे । अर्थक्रियामतिवचांसि विभेदतो न, स्युर्वो मतेऽवयविनोऽवयवाद्यतोऽत्र ।।६७३।। शक्त्याऽऽत्मना च महदाद्यपि मानमासीत्, कुम्भात्मकाणुनिचयेषु मते जिनानाम् । नैवाऽसतो हि शशशृङ्गवदेव जन्मा - ऽभीष्टं ततो भवति चेतनता न भूते ।।६७४।। भिन्नं न चाऽस्त्यणुचयान्महदादि मानं, स्याद्वादवाद्यभिमतं च कथञ्चिदेव । तत्प्रक्रिया तव मते घटते न चैका - न्तोच्छेदभीतित इति प्रविचारयाऽन्तः ।।६७५।। देहे तु चेतनतयाऽभ्युपगम्यमाने, व्यासज्यवृत्तिरिह चेतनताऽन्यथा वा । आद्ये बहुत्वमिव नाऽणुचयात्मकेऽस्मिन्, कस्याऽप्यणोर्विगमतो ननु सा तव स्यात् ।।६७६।। अन्त्ये कथं न बहवोऽभ्युपगम्यमाना - स्तत्तच्छरीरनियता मतिगोचराः स्युः । ऐक्यानुभूतिरपि नैव विभिन्नरूपे, चैतन्ययोगिनि सुखादिधियस्तथा स्यात् ।।६७७।। छेदेऽपि किञ्च शिरसोऽन्यसमाश्रिता सा, किं नाऽस्ति येन मरणं शिरसो वियोगात् । प्राणोत्क्रमात् तव मते न च चेतनाया, युक्तः क्षयोऽपि खलु भूतसमाश्रितायाः ।।६७८।। प्राणत्वजातिरपरा न मते तवाऽस्ति, यन्त्रादितस्तनुगतात् पवनाद् विशेषः । प्राणस्य सिद्ध्यतु कुतो यदि वा विशेषो, जातिं विनाऽप्यभिमतोऽत्र तदाऽऽत्मसिद्धिः ।।६७९।। आयुःक्षयात् प्रबलकर्मपराहतेश्च, कश्चिन्मृतो भवति न त्वपरः समाने । रोगे चिकित्सनविधौ च चिकित्सके च, पथ्ये तथैव करणे परिचारकेऽपि ।।६८०।। आयुः क्षयो न न च कर्म विरुद्धमस्ति, भूतात् परं तव मते निरुजे शरीरे । किं कारणं वद न येन तु चेतनत्वं, दोषत्रयोपशमने मृतकेऽविकारे ।।६८१।। नैव ज्वरादिकृतमस्ति तदोष्णतादि, युज्येत येन ननु तत्र विकारिभावः । नैवाऽविकारिणि निजस्य गुणस्य दृष्टो, हासः परं स तु विवृद्धिमुपैति भूयः ।।६८२।। किञ्चिद् विलक्षणतयाऽभिमतं च भूतं, वैगुण्यतो भवति यस्य चितां विनाशः । भूतस्वभावघटनाव्यतिरिक्त एष, आत्मप्रयोगजनितो ननु तत्स्वभावः ।।६८३।। व्याप्ति विना न च प्रसङ्गप्रवृत्तिरस्ति, व्याप्तिग्रहोऽभिमत एव प्रसङ्गकर्तुः ।
तत्त्वेऽनुमानमपि किं न भवेत् प्रमाणं, किं वा न चाऽऽगममतिः प्रमितिर्विविक्ता ।।६८४।। साङ्ख्यमतप्रदर्शनम् -
नन्वेतदर्भकमतं भवतां विचित्र - युक्तिप्रथाविदलितं शतशोऽल्पमानम् । किं कापिलं मतमपि प्रथितं निरस्तं, कूटस्थनित्य इह येन भवेन्न चाऽऽत्मा ।।६८५।।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
कर्तृ प्रधानमिह सत्त्वरजस्तमोभि - रेकं सदेव च गुणैस्त्रितयात्मकं यत् । व्याप्य स्थितं त्रिभुवनं परिणामयोगि, नित्यं क्रियारहितमज्ञमनन्यतन्त्रम् ॥६८६।। तस्यैव सत्त्वगुणवृद्धिकृता त्ववस्था, बुद्धिर्गुणत्रयमयी महदादिवाच्या । आमोक्षमात्मनियता तत एव पुंसो - ऽभेदाद् भवो भ्रमकृतोऽपरिणामिनोऽपि ।।६८७।। एकात्मसंसृतिविमुक्तिवशाद् यतो न, सर्वात्मसंसृतिविमुक्तय आप्तमान्याः । तस्माद् भवन्ति बहवः पुरुषास्तथैव, स्युर्बुद्धयो मतिसुखादिगुणास्तु तासु ।।६८८।। तवृत्तिरत्र कपिलानुमतं प्रमाणं, ज्ञानं घटोऽयमिति सैव जनप्रसिद्धम् । आत्मा तदाऽऽलिखित एव प्रमाफलं स्या - दन्योन्यमेव प्रतिबिम्बनमिष्यतेऽत्र ।।६८९।। बुद्धिर्जडाऽपि पुरुषप्रतिविम्बनेन, चैतन्यतापरिगतेव विभात्यभेदात् । तद्वत् पुमान् भवति तत्प्रतिबिम्वनेन, कर्तेव बोधविषयः स्वयमप्यकर्ता ।।६९०।। पङ्ग्वन्धयोरिव परस्परसव्यपेक्षा, बुद्ध्यात्मनोभवति कार्यजनौ समर्था । भोक्तृत्वतो विषयसाक्षितया पुमांस - श्चैतन्यभावनियता विभवोऽथ नित्याः ।।६९१ ।। आत्मा न संसरति नाऽपि विमुच्यते यत्, कूटस्थनित्यमत एव तमामनन्ति ।। वुद्ध्यात्मना प्रकृतिरेव च बद्ध्यते सा, तत्त्वप्रबोधजनने तु विमुच्यते वै ।।६९२।। तत्त्वं न चाऽन्यवुधदर्शनतन्त्रसिद्ध, तत् पञ्चविंशतितया कपिलोक्तमेव । तत्र त्रयं प्रथमदर्शितमन्यदित्थं, बुद्धेरहंकृतिरसावपि पूर्ववत् स्यात् ।।६९३।। घाणत्वगक्षिरसनाश्रुतिसंज्ञकानि, ज्ञानेन्द्रियाणि च भवन्ति ततस्तथैव । कर्मेन्द्रियाणि वचनग्रहणादिकर्म - कारीणि पञ्च कपिलानुमतानि तानि ।।६९४ ।। वाक्पाणिपादसहिते भवतश्च पायू - पस्थे मनस्तदुभयात्मकमेवमस्मात् । तन्मात्रसंज्ञकतया प्रथितानि पञ्च, भूतानि षोडशगणः समुदेत्यहन्त्वात् ।।६९५।। भूतेभ्य एभ्य इतराणि भवन्ति पञ्च, भूतानि तानि च महान्ति मतानि विज्ञैः । आकाशवाय्वनलजीवनपार्थिवानि, तत्त्वान्तरं भवति नो जनितं च तेभ्यः ।।६९६।। मुण्डी शिखी भवतु वाऽस्तु गृही कपाली, यो वेद कापिलमतप्रथितं च तत्त्वम् ।
पूर्वप्रदर्शितमिदं गृहिणीव तस्य, मुक्तिः सदा भवति सन्निहिताऽप्रयलात् ॥६९७।। साङ्ख्यमतखण्डनम् -
इत्यादि कापिलमतं न विचाररम्यं, प्राधान्यमेव प्रकृतौ नहि सिद्धिमेति । सत्कार्यवादमवलम्ब्य भवेच्च तस्य, सिद्धिर्गुणत्रयमयस्य न चाऽन्यथाऽपि ।।६९८।।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
एकान्ततः परमसौ तव युज्यते नो, निष्पादनं भवति कारणकूटतो यत् । सिद्धस्य नोऽन्यनिरपेक्षतया परन्तु, साध्यस्य पूर्वमसतस्तु कथञ्चिदेव ।।६९९ ।। या चाऽसतो जनिनिराकरणेऽस्ति युक्तिः, सा स्यात् परोपगतनीतिपथे त्वदुक्ा । स्याद्वादतन्त्रविमुखे न तु सर्वविज्ञ मानप्रथापरिगते सबलात्मकेऽपि ॥ ७०० || सत्त्वं सुखं भवति दुःखमयं रजोऽथ, मोहस्तमो गुण इति त्रितयात्मकं चेत् । बाह्यं घटादि ननु तर्हि प्रधानसिद्धि - र्युक्ता तदात्मकतया तव नैतदेवम् ॥७०१ || सातानुभूतिविषयः सुखमिष्यते स्व - संवेदनात्मकतया तदपि प्रमातुः । ज्ञानात्मकं भवति तन्न घटादि वाह्यं दुःखं तथा तदिव नो न च मोहरूपम् ||७०२ || बाह्यं सुखात्मकमतो नयनादितोऽस्य, बुद्धौ तु बिम्बप्रतिबिम्वनभावतश्चेत् । सातात्मिका परिणतिर्न तथा कथं स्याद्, दुःखात्मिकाऽपि च तदैव ततस्तथा सा || ७०३ ॥ तात्कालिकं यदि रजस्तमसी व्यपेक्ष्य, सत्त्वं विवृद्धमत एव सुखं न दुःखम् । तद्दर्शनेऽपि ननु तर्हि समानकालं, किं पश्यतां भवति नो सुखमेव बाह्यम् ||७०४ || इष्टोऽथ ते यदि महानपि देहभेद - भिन्नो गुणत्रययुतस्तत एव यस्याम् ।
बुद्धौ भवेदुपचयो ननु यस्य तस्यां तस्य स्वतुल्यबहिरर्थगुणव्यपेक्षा || ७०५।।
"
=
एवं स्थिते भवति सत्त्वगुणप्रकर्षे, बुद्धौ सुखात्मप्रतिबिम्वनमर्थराशेः । सत्त्वोदयादथ च तद्विपरीततः स्याद्, दुःखादिजन्मनियमोऽप्युपपन्न एवम् ||७०६ || नन्वेतदप्यनुपपन्नमवेहि यस्मात् सत्त्वादिवृद्ध्युपचयादि भवेत् कथञ्चित् । भिन्नत्वयोगिषु महत्सु समानकाले, बाह्ये कथं भवतु चैकतयाऽवभाते ॥ ७०७ || एकक्षणेऽपि यदि बाह्यघटादिवस्तु, स्वद्रष्टृभेदवशतस्तु विभिन्नमेव । तस्मात् सुखादिगुणवृद्ध्युपमर्दनाभ्यां भिन्नावभासि प्रतिविम्वनमस्ति तर्हि ||७०८ || एकान्ततत्त्ववचनं तव नैव सिद्धये दैक्येऽपि भेदघटनोपगमेन किञ्च ।
गुणत्रयसमाश्रयणं विनाऽपि, बुद्धौ भविष्यति सुखादि विचित्रतातः । । ७०९ ।। एतेन किञ्चिदिह किञ्चिदपेक्ष्य सत्त्व - रूपात्मना जननतः सुखकारि तस्य । दुःखात्मना तु जननादथ दुःखकारि, मोहात्मना जननतो ननु मोहकारि ||७१०|| एतन्निरस्तमथ वाऽत्र कथं नु पक्षे, यो यस्य दुःखजनकोऽथ स एव तस्य । कालान्तरे भवतु मोहजनौ समर्थ, आनन्दहेतुरपि सैव कथं च भावः ॥ ७११॥
-
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
आत्मा तु चेतनतया तव सम्मतो यः, कर्ता स एव सुखदुःखफलोपभोक्ता । अस्तु प्रधानमहदादि निरर्थकं ते, कूटस्थता किमिह सत्त्वविरोधिनी नो ।।७१२।। स्वाभाविकस्य विगमो न कदाचिदस्ति, दुःखादिकं पुरुषगं यदि चेत् तदाऽस्य । मुक्तावपि प्रकटनं च भवेत् स्वभावात्, तस्मात् सुखादिगुणतो वियुताः पुमांसः ।।७१३।। एकाश्रितत्वमिह कर्तृतया सुखादेः, प्रत्यक्षतः प्रथत एव न कर्तृताऽपि । युक्ता तथाऽऽत्मनि सुखादिगुणैर्विहीने, इत्येतदप्यनुचितं कपिलानुगानाम् ।।७१४।। दुःखादि तस्य खलु कार्मणदेहयोगा - ज्जैनैर्मतं भवति तद्विगमेऽस्य नाशः । मुक्तौ सुखादि निजरूपमबाधमस्य, स्वाभाविकस्य नहि तैरपि नाश इष्टः ।।७१५।। बुद्धिः सती तव मते न विनाशमेति, आत्यन्तिकं भवति किं न कदाचिदस्याः । मुक्तावपि प्रथमवन्निजकार्ययोगः, स्वाभाविकः सकल एव सुखादिभावः ।।७१६।। तस्माद् यथा तव मते महतां प्रवृत्ति - मुक्तात्मनः प्रति सतामपि नो तथा नः । देहादियोगविगमात् पुरुषेषु सत्सु, मुक्तौ स्वभावबलतोऽपि न दुखभीतिः ।।७१७।। किञ्च त्वयाऽपि किमु नो जिनसम्प्रदायो - ऽभीष्टोऽत्र लिइतनुकल्पनया प्रमातुः । यत्कार्मणं जिनमते प्रथितं तदेव, भङ्गयन्तरेण कपिलेन प्रदर्शितं यत् ।।७१८।। तद् बुद्ध्यहङ्कृतिमनोनियतं शरीरं, तन्मात्रभूतघटितं दशभिस्तथाऽक्षैः । लिङ्गं मतं तव जिनागमतस्तु सिद्धं, तत् पुद्गलात्मकमिति प्रविचारयाऽन्तः ।।७१९।। यच्च त्रयात्मकतया प्रथितं प्रधानं, तज्जैनतत्त्वसरणौ निखिलेषु सत्त्वम् । उत्पत्त्यवस्थितिलयेषु गुणत्रयस्या - ऽन्तर्भावनं च बुध ! केवलमत्र कार्यम् ।।७२०।। वृत्तिक्रमोऽपि तव तत्त्वत एव नाऽस्ति, भिन्नो जिनोक्त्यवगतान् मतिधीक्रमाच्च । आलोचनं तव मते बहिरिन्द्रियाद् य - ज्जैनैर्मतं च तदवग्रहनामधेयम् ।।७२१।। यन्मानसं तव मतेऽर्थविशेषधर्म - संस्पर्शि निर्णयमतेः प्रथमं विवेकात् । सम्भावनं तदपि जैनमते प्रसिद्ध - मीहाख्यकं परमसौ वहिरिन्द्रियाच्च ।।७२२ ।। या निर्णयात्मकमतिर्मनसा तवाऽस्ति, या वाऽस्त्यहङ्कृतिवशादभिमानरूपा । बुद्धयुद्भवाऽध्यवसितिश्च मताऽथ या सा, सर्वाऽप्यवायमतिभेदतया जिनेष्टा ।।७२३।। शक्त्यात्मना स्मृतिभवाऽनुगुणाऽथ वृत्ति - र्बुद्धौ तवाऽस्त्यभिमता ननु याऽऽर्हतानाम् । सा धारणाऽऽवृतिलयक्रमतः परन्तु, तेषां क्रमो जिनमतः करणक्रमान्नो ।।७२४।।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ यत्र द्वयोर्भवति भिन्नसमाश्रितत्व - मव्यापिता तदुभयोः प्रतिबिम्बनं स्यात् । अन्योन्यमत्र न विभोः पुरुषस्य युक्तो, बुद्ध्या तु बिम्बप्रतिबिम्बनभावबन्धः ।।७२५।। कूटस्थनित्यपुरुषस्य कदाचिदस्ति, मुक्तिर्न ते भवति सा प्रकृतेः परन्तु । एवं स्थिते तु पुरुषा बहवः किमर्थ - मिष्टास्त्वया प्रकृतिवत् किमु नैक एव ।।७२६।। एकोऽप्युपाधिविगमात् क्वचिदेव मुक्तो, दुःखादियोगविगमोऽपि तथा क्वचित् तु । बिम्बादिकल्पनमपि प्रतिदेहमेव, भिन्नं भविष्यति विभोः पुरुषस्य यस्मात् ।।७२७।। किञ्च स्वतोऽस्य विषयेण न चाऽस्ति सङ्गो, बुद्धयादिकल्पनमतो भवता न्यगादि । मुक्तौ तु बुद्धिविगमाज्जडतैव तस्य, ह्यर्थप्रबोधविरहे न निजप्रकाशः ।।७२८।। सनातरूपमखिलं च परार्थमेव, दृष्टं यतः शयनभोजनचन्दनादि । तस्मात् प्रधानमहदादि तदात्मकं स - दात्मानमन्यमनुमापयतीति तत्र ।।७२९।। आत्मा परस्तव मतो विभुतादिधर्मा - ऽनेकात्मको भवतु तेन परस्ततोऽपि । पूर्वप्रदर्शितदिशा त्वपरस्तथा च, नैवाऽनवस्थितिभयात् पुरुषप्रसिद्धिः ।।७३०।। त्रैगुण्यमेव यदि हेतुतया मतं ते, तन्नाऽऽत्मवृत्ति तत एव परो न तस्मात् । आत्माऽपि तर्हि तव नैव परः प्रसिद्ध्येत्, त्रैगुण्यशून्य इह योऽभिमतस्ततः सः ।।७३१।। देहार्थमेव शयनाद्युपभोग्यमिष्टं, देहो न किं तव मतस्त्रिगुणस्वरूपः । तद्वत् पुमानपि परस्त्रिगुणस्वरूपः, सिद्धयेत् ततो भवति हेत्वप्रसिद्धिरेवम् ।।७३२।। त्रैगुण्ययोग्यपि यथा न तव प्रधानं, कार्यं मतं जनककोट्यनवस्थयैवम् । तस्याऽर्थमेव सकलं प्रकरोति वस्तु, नो कस्यचित् तदिति किं न मतं तवाऽभूत् ।।७३३।। किञ्चाऽप्रयोजकमिदं व्यभिचारशङ्का - नाशोद्यतोऽस्ति न हि तर्क इह प्रगल्भः । पङ्ग्वन्धयोरिव तदा न प्रवृत्तिबोधौ, संयोगकल्पनवशादुभयोस्तु युक्तौ ।।७३४।। चैतन्यतापरिगतौ पुरुषौ मिथोऽभि - प्रायार्थवोधकुशलावलमर्थसिद्धौ । अन्यादृशे तु प्रकृते पुरुषप्रधाने, दृष्टान्तमात्रत उपेयगतिं न यातः ।।७३५।। कूटस्थतापरिगते पुरुषे न युक्तं, भोक्तृत्वमन्यसहकारिवशात् तथैव । साक्षित्वमप्यविकृतस्य न लोकसिद्ध - दृष्टान्तमात्रबलतोऽस्य बुधैरुपेयम् ।।७३६।। साक्षित्वमस्य विभुताऽथ च चेतनत्वं, कूटस्थता-त्रिगुणतादि मिथो विविक्तम् । व्यावृत्तिभेदबलतो न विभिन्नतां किं, शास्त्येकतो वद मतं न मतं त्वया नः ।।७३७।।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
-
-
प्रेक्षावतां न विफलाऽत्र प्रवृत्तिरस्ती त्येतावतैव भवतेशनिराक्रियेष्टा । सैषा तथा सति भवेत् प्रकृतेर्न भोगा र्था निष्फला पुरुषतो फलसिद्ध्यभावात् ।।७३८।। जाड्यात् प्रवृत्तिरफलाऽपि मता त्वयाऽस्या, युज्येत सा यदि भवेत् सफलाऽत्र पुंसः । किन्तु प्रवृत्तिरखिला जड एव तेऽतः, सामान्यतः सफलता नियता प्रवृत्तौ ||७३९|| अन्यप्रसिद्धिमवलम्ब्य निराक्रिया चे दीशस्य तर्हि तत एव प्रधानभङ्गः । नैयायिकैरिह यतो न जडस्य वृत्ति - र्यलात्मिकाऽभ्युपगता प्रकृतौ कुतः सा ||७४०|| वत्सस्य वृद्धिरिह वास्तविकी स्वहेतोः, क्षीरादतीन्द्रियप्रयलबलप्रवृत्तात् । युक्ता तथा न पुरुषस्य सृतेरभावे, मुक्तिः समस्ति तव या प्रकृतेस्तु जन्या ||७४१ || यत्तत्वदृष्टिमवलम्ब्य न तत्त्वतोऽस्ति, बन्धो न मुक्तिरपि बोधमयस्य पुंसः । किन्तु प्रधानगतमेव पुमान् द्वयं तद् भ्रान्त्याऽभिमन्यत इति प्रथितं न सत्यम् ॥ ७४२ ।। बोधः सदैव पुरुषस्य निजस्वरूप स्तं चाऽन्यथा न प्रकृतिः कुरुते कदाचित् । भ्रान्तिर्न विम्बप्रतिबिम्बनतो ऽतिरिक्ता, सा नाऽऽत्मनो भवितुमर्हति पूर्वनीत्या ||७४३ || बुद्धौ भवेदपि च सा न च तेन बद्धो, ह्यात्मोपचारबलतोऽपि परेण वाच्यः । स्यादन्यथा किमु परोऽपि न तेन बद्धो, मुक्तः पुमान् स इव सर्वगतोऽविशेषात् ॥ ७४४|| सर्वस्य सर्वगतता तव सम्प्रदाये, पुंसो मता युगपदेव ततोऽस्तु बन्धः । मुक्तिश्च बुद्धिप्रतिबिम्बनताऽविशेषादन्यस्ततो न च यतोऽभिमतो विशेषः ||७४५ || स्वस्वामिभाववचनं नहि युज्यते ते ऽसङ्गित्वमस्य कपिलेन यतो निरुक्तम् । तत्राऽपि किञ्च न नियामकमस्ति किञ्चित्, कूटस्थता निखिलपुंनियताऽविशिष्टा ॥ ७४६ ॥ दृष्टा मयेति पुरुषः प्रकृतेरुपेक्षा - कारी तथोपरमति प्रकृतिस्तु दृष्टा । इत्यादिकं मननमीश्वरकृष्णवाचो, लब्धं न मुक्तिफललाभनिदानभूतम् ॥७४७।। यस्मात् समानविषयाः पुरुषास्तु सर्वे, सन्त्येव बुद्धिनिकरेषु समस्वभावाः । व्यापि प्रधानमपि सर्वसमानमेव, किं कारणं युगपदेव न ते विमुक्ताः ||७४८ || मालिन्यमस्य नितरां तव मुक्तिकाले, छिन्नं ततोऽम्भसि शशीव न किं प्रसन्ने । तस्मिन् प्रधानममलं प्रतिबिम्बनादि, बुद्ध्यादिकं च विदधातु सुबन्धनाय ||७४९ ।। बुद्धिर्न चाऽस्ति तत एव न बद्ध्यतेऽसौ यस्मात् प्रधानमपि वुद्धिबलेन तस्मिन् । विम्बादिकल्पनमुखेन करोति वन्ध - मित्यादि शून्यवचनं कपिलानुगानाम् ॥७५०।।
-
५९
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सत्कार्यमेव कपिलेन निरूपितं य - नाशो न कस्यचिदपि तस्य मतेऽस्ति तत्त्वात् । बुद्ध्यादिकं न विलयं तत एव तस्मिन्, यातीत्यतो भवतु बन्धनमेव पुंसः ।।७५१।। नाशस्तिरोभवननामक इष्यते चेत्, तत् सर्वदाऽपि किमु वा क्वचिदेव काले । आद्ये सदैव विलयान्महतः सदैव, मुक्तिर्भवेत् पुरुषगा न तु भेदबोधात् ।।७५२।। अन्त्ये त्वसज्जननमेव मते तवाऽपि, प्राप्तं तथा सति घटाद्यपि किं तथा नो । पूर्वं तिरोहिततया यदि तस्य सत्त्वं, नित्यैव सा तव तदा किमु वाऽस्त्यनित्या ।।७५३।। आद्ये तिरोभवनमेव तिरोहितं ते, यत् सर्वदा भवतु तेन सदैव बन्धः ।। बुद्धेः सदा स्फुरणतः पुरुषस्य यस्माद्, बिम्बादिकल्पनघटा त्वनपायिनी ते ।।७५४।। अन्ते तिरोभवनमेव पुनस्त्वयाऽस्या, वाच्यं विनाशघटनानुपगन्तृणाऽङ्ग! । तत्राऽनवस्थितिकृतान्तमुखप्रवेशो, दुर्वार एव तव तत्त्वरसप्रहाणेः ।।७५५।। उत्पद्यते तव मतेऽथ तथा विनाशो, बुद्धेस्तिरोभवननामक इष्यते यः । नोत्पादवानुत मतो यदि पूर्वकल्प - स्तत्राऽनवस्थितिघटा त्वपरोदिता तत् ।।७५६।। प्राकट्यमेव कपिलेन तवोक्तमावि - वाख्यया जनितमत्र न चाऽऽत्मलाभः । तत् सर्वदा प्रकटमेव मतं त्वया चे - न्मुक्तिः सदैव पुरुषस्य तदा मते ते ।।७५७।। तत् सर्वदाऽप्रकटमेव मतं त्वया चेद्, बन्धः सदैव पुरुषस्य तदा मते ते । प्राकट्यमस्य प्रकटं क्वचिदेव काले, चेत् सम्मतं तव तदा ननु तत्र वाच्यः ।।७५८।। प्राकट्यगा प्रकटता तव सर्वदाऽऽवि - र्भावात्मना परिणता क्वचिदेव वा स्यात् । आद्ये पुनर्भवतु मुक्तिरनर्गलैव, पुंसः सदैव हि तिरोभवनाच्च बुद्धेः ।।७५९।। अन्त्ये तु सा प्रथममस्ति नवेति तत्र, पक्षोऽन्तिमो यदि तदा स्वमतप्रकोपः । किं वा तथैव न घटादिपदार्थसार्थः, पूर्वं ह्यसन्नपि मतो जनिमान् बुधाग्य ! ।।७६०।। आद्ये तिरोहिततयैव तु तस्य सत्त्वं, मुक्तिप्रसङ्गभयतो भवताऽनुमोद्यम् । तत्राऽपि किं प्रकटमस्ति तिरोहितत्वं, किं वा न तत् प्रकटमित्यपि चोद्यमेव ।।७६१ ।। नोत्पादवान् यदि मतस्तव बुद्धिनाशो, व्योमादिवद् भवतु तर्हि स नित्यमेव । तत्त्वे सदैव पुरुषस्य न बन्धलेशो, मुक्तिः परन्तु गृहिणीव समीपगा स्यात् ।।७६२।। व्योमोत्पलादिवदसावथ वा ह्यसन् स्या - द्धत्वन्तरानुदयतो न तु सन् कदाचित् । एवं च शाश्वतिकबुद्धिनियोगतोऽस्य, बन्धः सदैव पुरुषस्य भवेन्मते ते ।।७६३।।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
इत्यादिदोषघटना स्वयमेव बुद्धौ, बुद्ध्यादिभावमधिकृत्य च तेऽप्रयलात् । पूर्वोक्तयुक्तिमननादनसूययाऽऽवि - भूता कुतर्कबलतो न विघट्टनीया ।।७६४।। यत् पञ्चविंशतिमितं भवता न्यदर्शि, तत्त्वं न तत्त्वमिदमप्यविचारितं यत् । सत्त्वादिकं त्रितयमत्र प्रधानमिष्टं, प्रत्यकेशः किमु मिथो घटनात्मकं वा ? ||७६५।। आद्ये प्रधानमपि नैकमनेकरूपं, तत्त्वत्रयं भवतु किन्तु ततो द्वयं वै । तत्त्वं त्वदुक्तगणनादधिकं प्रविष्टं, न्यूनत्वनिग्रहभवं न च किं भयं ते ? ||७६६।। अन्त्ये समष्टिपरिणामतयैव तेषां, तत्त्वस्वभाव उररीक्रियते त्वया किम् ? । प्रत्येकशोऽथ परमस्य न वै विवक्षा, कार्याक्षमत्वत इह प्रथमो न युक्तः ।।७६७।। यस्मात् पृथक् समुदयः समुदायितो नो, मान्योऽतिरिक्तकलसादिनिराकरिष्णोः । एकान्तवादलयभीतिमता न शक्यं, वक्तुं कथञ्चिदतिरिक्तपदार्थजातम् ।।७६८।। एवं च तद् यदि पृथङ् न च तत्स्वरूपं, सत्त्वादिकं समुदयात्मनि तत्त्वतैषाम् । नो युज्यते भवतु वा खसुमाद्यलीक - पुञ्जे न किं तव मता बुध ! तत्त्वताऽन्या ।।७६९।। पक्षोऽन्तिमो यदि तवाऽभिमतस्तदाऽत्र, वाच्यस्तया न जनकं किमु कार्यमात्रे । तत्त्वान्तरे न जनकं किमु वा न तत्र, कल्पस्तवाऽभिलषितः प्रथमस्तु युक्तः ।।७७०।। यस्मात् सदैव भवतोऽभिमतोऽत्र भावः, स्वस्वस्वभावसमभावतयाऽन्यथा वा । पुंसो विनाऽपरिणतो व्यवतिष्ठते नो, तत्त्वत्रयं च जनकं समभावकार्ये ।।७७१।। तत्त्वान्तराजननतो यदि तत्त्वता नो, स्यात् तर्हि ते चरमपक्ष इहाऽस्त्वविघ्नः । तत्स्वीकृतौ कथय किं न महत्सु भूते - ष्वस्तङ्गताऽभ्युपगता बुध ! तत्त्वता ते ।।७७२।। यत्सङ्घतो भवति कार्यमसौ यदि स्यात्, तत्सन्निविष्टजनकाजनितं तदा तु । न स्यान्महागुणसमूहभवोऽसमूहात्, सत्त्वादिकान् न तु तथोपगमोऽप्यभीष्टः ।।७७३।। सामग्यतो भवति कार्यजनिन चैक - हेतोस्ततस्तव मते नयनादयोऽपि । तत्त्वस्वभावममलं न पृथक्त्वतो वै, गच्छेयुरित्यपि महाँस्त्वयि दोषदण्ड: ।।७७४।। अर्थक्रियाजनकतैव न तत्त्वताया, नैयत्यतस्तव मता बुध ! येन तस्याः । प्रत्येकशी विगमतस्त्रिषु तत्त्वताया, राहित्यतो विभजनं न भवेद्धि हीनम् ॥७७५।। कूटस्थनित्यपुरुषस्य यतस्त्वयैवा - ऽकिञ्चित्करस्य गणना खलु तत्त्वमध्ये । स्पष्टीकृता शपथमात्रत एव तस्मात्, सत्त्वत्रिकस्य तव तत्त्वगणेऽनिवेशः ।।७७६।।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सत्त्वादिकं निखिलवस्त्वनुगन्तुकत्वा - दन्योन्यसंश्रयसमुद्भवरोधनाच्च । तुल्यान्वयित्वविरहान्वयतश्च भेदे - ऽप्येकं मतं यदि तदाऽस्त्वविचारितं तत् ।।७७७।। अर्थक्रियाजनकता सुगतेन सत्ता, नैयायिकैरभिमता परजातिरेषा । उत्पत्त्यवस्थितिलयान्वयिता तु जैनै - वेदान्तिनाऽप्यभिमता त्रिविधा विचित्रा ।।७७८।। तद्वत् त्वयाऽप्यनुगता निखिलेषु तत्त्वे - ष्वेका सदादिमतितोऽभ्युपगन्तुमिष्टा । उक्तेषु तत्त्वनिकरेष्वनिवेशनेन, तत्त्वान्तरं भवतु सा न च किं मते ते ।।७७९।। ज्ञानादयस्तव मता ननु बुद्धिधर्मा - स्तेषां न तत्त्वत इहाऽभिमतं पृथक्त्वम् । तत्त्वान्तरत्वमत एव निरुक्ततत्त्वे - ष्वप्राप्तितो न च कथं तव सम्मतं च ।।७८०।। तादात्म्यतो यदि मते तव धर्मितत्त्वे, तेषां निवेश इति न व्यतिरेकिणस्ते । व्यक्तं प्रधानजनितं महदाद्यभिन्नं, कस्मात् त्वयैव पृथगत्र निरूपितं तत् ।।७८१।। चेत् तत्त्वता तव मते यदि धर्मिमात्रे, धर्मी तदा तव मतः किमु धर्मभिन्नः । धर्मत्वयोग्यपि च वा प्रथमे प्रधानाद्, भिन्नं न किञ्चिदपि तत्त्वमनिन्दितं स्यात् ।।७८२।। किं वा प्रधानमपि नैव भवेच्च तत्त्वं, धर्मादभिन्नतनुतोपगताऽस्य यस्मात् । तादात्म्यमेव च तवाऽपि कथञ्चिदिष्टं, यद्धमधर्मिघटनानिपुणं न चाऽन्यत् ।।७८३।। ज्ञानादयोऽपि किमु नैव मते तवाऽन्य - पक्षे भवन्तु बुध तत्त्वतया प्रसिद्धाः । को वाऽपराध इह धर्मगणस्य येन, द्वेषश्च तेषु कपिलेन प्रकाशितोऽभूत् ।।७८४।। मोक्षोपयोगि यदि तत्त्वतया तवेष्टं, तत्त्वं तदाऽपि मतिरेव निरूपणीया । ग्राह्यं विना मतिनिरूपणमेव नो चे - दिच्छादयोऽपि विषयाः समुपासनीयाः ।।७८५।। बुद्ध्यात्मभेदमतिरेव हि मुक्तिहेतु - बुद्ध्यात्मनोभवतु भेदमतावपेक्षा । अन्यन्न किञ्चिदपि तज्जननेऽत्र साक्षा - दे॒तुः किमर्थमथ तस्य निरूपणं च ।।७८६।। मोक्षोऽपि मानविषयं समभीप्स्यते 1 - मनिं विना न प्रकृतिर्महदादयो वा । आत्माऽथवाऽत्र विबुधैरुपगन्तुमिष्टा, मानं पृथग् भवतु तत्त्वत एव तत्त्वम् ।।७८७।। सामान्यमेव भवतोऽभिमतं च शक्तं, शक्यं विधेयमपि किं न पृथक् च तत्त्वम् । तादात्म्यतो यदि विशेषत एव तस्य, नो वा पृथक् कथनमस्ति तदाऽज्ञतैव ।।७८८।। सामान्यमेव प्रथमं सकलानुगामि, वाच्यं विशेषमननं तत एव यस्मात् । तादात्म्यतो भवति लाघवमत्र पक्षे, सामान्यतोऽनुगमने सुलभोऽवबोधः ।।७८९।।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
आलोचनात्मकधियो जनकानि यानि, ज्ञानेन्द्रियाणि तव पञ्च मतानि तानि । सामान्यतत्त्वमनने तु न भेदभाञ्जि, ज्ञानेन्द्रियत्वमखिलेषु यतः समानम् ।।७९०।। कर्मेन्द्रियत्वमपि तत्त्वमथैकमेव, कर्मेन्द्रियेषु न च भिन्नतयाऽभ्युपेयम् । भूतत्वमेकमथ भूतगणेषु तत्त्व - मित्यादि लाघवमवेहि समानभावे ।।७९१।। त्वत्प्रक्रिया हि निखिलैव निरङ्कुशाऽऽवि - र्भावात् तिरोभवनतश्च प्रसिद्धिमेति । तस्माद् द्वयं तदपि तत्त्वतयैव वाच्यं, नाऽतत्त्वतो भवति तत्त्वनिरूपणं यत् ।।७९२।। उक्तेषु तत्त्वनिवहेषु निवेशनं न, यस्मात् तयोर्भवति तद्व्यतिरिक्ततैव । जिज्ञासितस्य च निरूपणमिष्टमिष्टै - स्तत्तद्वयोर्यदि तदा चतुरस्रमत्र ।।७९३।। कार्यात्मकं द्वयमिदं यदि तत्समग्र - कार्यस्वरूपमुत वाऽभिमतं तु किञ्चित् । आद्ये भवेत् किमु पृथक् प्रतिकार्यमेव, किं वक्रमेव निखिलात्मकमाद्यपक्षे ।।७९४।। किं सर्वथैक्यमनयोर्ननु कार्यतस्ते, किं वा कथञ्चिदिति कल्प इहाऽऽदिमश्चेत् । सत्कार्यवादपरिनिष्ठिततत्त्वबुद्धे - रुत्त्पत्तिनाशघटना तव सर्वदा तत् ।।७९५।। अन्त्ये न किं जिनमतं तव सम्मतं यत्, स्याद्वाद एव शरणं तव तत्त्वसिद्धौ । किञ्चाऽन्यभावमवलम्ब्य तथापृथक्त्वं, प्राप्तं द्वयं भवति तेन पृथक् च तत्त्वम् ।।७९६।। एकः समग्रजनिमन्नियतः सदात्मो - त्पादो विनाश इति तेऽभिमतो द्वितीये । तत् किं प्रधानमिव तत्त्वतया न मान्यौ, तावप्यभेद इह भेदसमन्वितो यत् ।।७९७।। नो वाऽस्ति ते विनिगमो ननु येन किञ्चित्, कार्यात्मकत्वमुभयोरुपपद्यतेऽन्त्ये । उत्पत्तिनाशघटना क्वचिदैव किञ्च, कार्ये भवेत् तदुभयोश्च तदात्मतातः ।।७९८।। स्यात् कारणात्मकतयोपगमोऽनयोस्ते, तत् किं प्रधानमुत वा निजहेतवः स्युः । प्रत्येकशो यदि मतः प्रथमोऽत्र पक्षो, नो सर्वदोदयविनाशप्रसञ्जनं किम् ।।७९९।। किञ्च प्रधानमनुमाविषयस्तवैकं, तत्तद् द्वयं यदि तदा न तयोर्विशेषः । उत्पद्यते घट इति प्रथते यदा धीः, कुम्भो विनश्यति मतिश्च तदा न किं स्यात् ।।८००।। किं वा यदैव तव कश्चिदपीह भाव, उत्पद्यते विलयमेत्यथ वा तदैव । किं कार्यमात्रमपि नो जनिमद्विनाशि, वेत्यत्र को नियमकृद् वद साङ्ख्यविज्ञ ! ।।८०१।। किञ्च त्वया त्रिगुणसाम्यमकार्ययोग - मिष्टं प्रधानमनयोस्तु तदात्मतायाम् । न स्यात् तयोः सकलकार्यलयं विहाय, प्रत्यक्षसिद्धिघटना ननु लौकिकानाम् ।।८०२।।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
यद्वत् प्रधानमनुमानमतिं विना नो, लोकस्य सिद्धिपदवीमुपयाति तद्वत् । नाशोद्भवावपि तदात्मतयाऽक्षवोधे, स्यातां न चैव विषयाविति तर्कपन्थाः ||८०३ || किञ्च प्रधानमपि नैक्यविभुत्वयोगि, तत्त्वे भवेद् विविधरूपसमन्वयेन । पादप्रसारणमबाध्यकथञ्चिदुक्त्या, स्यात् ते तदा यदि जिनागमतत्त्वनिष्ठा ||८०४ || उत्पद्यते ननु यदैव कटादिभावो, हेम्नि स्थिते भवति कुण्डलभावनाशः । किं नो तदैव विबुधैकपदार्थचिन्ता - यामप्यभेद इह तत्प्रकृतेर्न युक्तः ॥ ८०५ || पक्षोऽन्तिमो यदि मतस्तव तर्हि सोऽपि युक्त्या न सिद्धिमुपगच्छति बाध्यमानः । हेतुर्मतस्तव यतो न च कार्यकाले स्वस्वस्वभावसहितोऽचलितस्वभावः ॥ ८०६ ॥
"
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
किञ्च द्वयं जनिमतां प्रथमं तव स्याद्धेतोस्तदैव नियमेन यतोऽस्ति वृत्तिः । नाशक्षणे स्वसमये च न हेतुसत्ता, स्वस्वस्वरूपनियताऽस्ति विभिन्नभावात् ||८०७ || इत्यादिदोषघटना कपिलानुगानां, नो केवलं भवति किन्तु समानतन्त्रे | पातञ्जलेऽपि च तथैव सुबुद्धिभाजां स्पष्टीभविष्यति किमत्र प्रयत्नतो नः ||८०८|| तेनाऽपि तत्त्वमननं कपिलानुसारि, यस्मात् कृतं परमनेन महेश्वरोऽपि । कर्ता तो भवति तस्य निराक्रिया तु, पूर्वप्रदर्शितदिशेशनिराक्रियातः ||८०९ || जैनमते विरोधापादनम् -
-
नन्वस्तु लक्षणमिदं निरुपद्रवं वस्तादात्म्यमस्य च पुनर्नहि भेदमिश्रम् ।
मात्रा सहोपगतमस्ति कथञ्चिदुक्ति - व्याजात् प्रकाशिततनु प्रमया प्रसिद्धम् ||८१०|| अग्निर्जलेन रविणा सह चन्द्रबिम्बं नक्तं दिवा हिमगिरिर्मलयाचलेन । काकः पिकेन विरहः प्रतियोगिना चेद्, वर्तेत ते ननु तदेदमपि प्रसिद्ध्येत् ||८११ ।। नोऽस्म्यहं प्रतिपदं प्रतिवादियुक्ति - व्रातं कथञ्चिदिति मन्त्रवरेण कामम् । हन्तुं प्रभुः किमिह युक्तिगवेषणेन, गर्वस्त्वयं तव विरोधभयेन भग्नः ||८१२ ।। नो चेद् विरोधहरिभीतिरलं कथञ्चिद्, वादं कलङ्कमिव चेतसि वाक्प्रपञ्चैः । त्वं स्वीकरोषि बुध ! केवलमात्ममात्रं, दुर्मत्तदन्तिवरमाश्रय निर्विकारम् ||८१३|| विज्ञानतां जडगतामुपगम्य योगा - चारेण सख्यमपि किं न कृतं त्वयाऽभूत् । शून्यत्वमप्रतिहते निखिलेषु सत्त्वा - बाध्यं वदन् कुरु गुरुं बुध ! बुद्धपुत्रम् ||८१४|| स्थैर्ये स्थितेऽपि च विरोधविलोपकर्त्रा - ऽनित्यत्वमस्य जगतो बुध ! बौद्धनीत्या । स्वीकृत्य किं न भवता व्यवहारलोपि, सौत्रान्तिकेन सह सख्यमकारि नव्यम् ||८१५।।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
भावोऽप्यभाव इति तेऽभिमतो विरोधा - भावावगाहिनयसूत्रणतत्परस्य । तत्त्वे सुखं न किमु दुःखविनाशरूपं, स्वीकृत्य तार्किकमताऽभिमताऽस्तु मुक्तिः ।।८१६।। भूतत्वतोऽप्यभिमतं न च चेतनत्वं, यत् सर्वथा तव विरुद्धमतो निबोध । चार्वाकबाललपितं हृदि बुद्धिशालिन् !, कृत्वा गुरुं गुरुतया स्मर तत्त्वदृष्ट्या ।।८१७।। स्याद्वादिनस्तव मते ननु मुक्तिदेवी, किं बन्धतां शिरसि नैव दधात्यनिष्टाम् । कस्तां बुधो विहतमोहनरेन्द्रदर्पः, सेवेत तत्त्वरसिको हितमात्रकामः ।।८१८।। ज्ञानं तथा सकलवस्त्वगाहि मान्यं, नो सर्वथाऽभ्रमतयैव तवाऽत्र विद्वन् ! । किन्तु भ्रमत्वमपि तत्र तथा च तेऽर्हन्, भ्रान्तः कथं विशदयत्विह तत्त्वराशिम् ।।८१९।। वस्त्वंशमात्रविषयोऽपि मतो नयस्ते, मानत्वयोग्यपि भवेदविरोधवादे । तत्खण्डनं स्वमतखण्डनमेव तस्मा - नैयायिकादिमतखण्डनमप्ययुक्तम् ।।८२०।। रागादिदोषरहितोऽपि च सर्वदृश्वा, तीर्थङ्करो भवतु रागयुतो मते ते । सिद्धोऽप्यसिद्ध इह बद्धजनोऽपि मुक्तो, दोषान्वितोऽपि तव किं न च दोषमुक्तः ।।८२१।। मानं तवाऽभिलषितं परिपूर्णवस्तु - प्रद्योतकं तदपि संशयरूपमेव । यस्माद् विरुद्धघटनाविषयैव बुद्धि - रेकत्र धर्मिणि मता बुध ! संशयाख्या ।।८२२।। ये चाऽनवस्थितिमुखास्तव दोषसङ्का - स्ते सर्वथा न खलु दोषतयैव मान्याः । इत्थं च वादिनिवहान् वद कैः प्रकारै - र्वादे प्रजेष्यसि परोक्तिविभेददक्षैः ।।८२३।। एकान्तवादभयतो न च सर्वथा ते, दोषाः परोक्तमतखण्डन एव दक्षाः । तत्स्थापका अपि न किं भवितार एते, साधु त्वयाऽभिनव एव प्रकार इष्टः ।।८२४।। ये वा स्वपक्षमननोद्भवतत्परास्ते, लिङ्गादयो गुणतया प्रतितन्त्रसिद्धाः । ते किं स्वपक्षदलना अपि नो भवेयु - र्लब्धो विपक्षगणतोषकरो गुणोऽपि ।।८२५।। स्याद्वाद एव तव किञ्च न सर्वथा स्यात्, स्याद्वादताश्रय इह स्वमतप्रकोपात् । एकान्तवादघटनाऽपि च पाक्षिकी किं, मान्या ततो न च यतो न नयाङ्घिसेवा ।।८२६।। वादे पराभवघटा सुलभा तथा ते, एकान्ततो हि जय एव न चाऽस्ति विद्वन् ! ।
स्याद्वादिनः परपराभवमिश्रितः स, स्वीकारयोग्य इति किं न करोषि चित्ते ।।८२७।। जैनमते विरोधपरिहारः -
इत्थं च वादिनिवहैरुपगीयमानो, दोषप्रपञ्च इह जैनमते न दोषः । एकान्ततत्त्वमननव्यतिरिक्तपक्षे, स्याद्वादिनां क्व नु भवेद् गुणदोषचर्चा ।।८२८।।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ स्याद्वादतत्त्वमननश्रमपूर्विका नो, दोषांशमात्रघटनाऽपि समस्ति किञ्च । स्याद्वादतत्त्वमननाश्रमपूर्वकास्तु, दोषाः प्रसिद्धिपदवीमपि नैव यान्ति ।।८२९।। एकाश्रितत्वविरहः किमु वो विरोधः, सामान्यतोऽस्ति किमु वा सविशेष एषः । नैयायिकैर्न प्रथमो विरहेण साक - मव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिन इष्यते सः ।।८३०।। पक्षोऽन्तिमो यदि तदा ननु देशकाला - वच्छेदकेन घटितोऽभिमतः स ते स्यात् । धर्मादयोऽप्यभिमता मम विज्ञ ! तत्रा - ऽवच्छेदकांशविधयेति न दत्तदोषः ।।८३१।। धर्मादिसङ्कटनमत्र न केवलं नो, नैयायिकस्य च मतेऽनुमतं यतस्तत् । संयोग इष्ट इह तेन गुणत्वसत्त्व - मेयत्वधर्ममुखतो न च देशवृत्तिः ।।८३२ ।। संयोगतो भवति देशगतोऽथ वह्निः, स्याद् व्याप्यवृत्तिरपि यत् समवायतः सः । संसर्गभेदघटनाऽपि विरोधकोटौ, नैयायिकैरनुमतैव विरोधसिद्ध्यै ।।८३३।। काले विशेषणतया ननु द्रव्यतादे - रव्याप्यवृत्तिरपि वाच्यप्रमेयतादे: । यद्व्याप्यवृत्तिरिह तार्किकसम्मतोऽस्ति, तज्जैनतत्त्वसरणौ न विरोधभङ्गः ।।८३४।। वैशेषिकस्य च मतेऽभिमताः पदार्थाः, सप्तैव तेष्वनुमताः प्रतियोगिताद्याः । ते स्वाश्रयान्नहि भवन्ति पृथक्त्ववन्त, एकत्र धर्मिणि तथाऽऽश्रयधर्मभावः ।।८३५।। अव्याप्यवृत्तिरिह किञ्च मतोऽपि भेदो, न्याये शिरोमणिमुखैर्वहुभिस्तु नव्यैः । वाच्यो विरोध इह तैरपि कोऽप्यपूर्वो, भेदस्थलेऽपि स च किं न भवेन्मते नः ।।८३६।। एतेन गीतमितरैरिह यद्विरोध - मात्रस्य नैकमपि लक्षणमस्ति किञ्चित् । किन्तु पृथग् भवति लक्षणमत्र लक्ष्य - भेदात् तथा च न जिनानुमतप्रसिद्धिः ।।८३७।। भेदो यतो न च बुधैरिह देशकाला - वच्छेदकानुसरणेन मतोऽर्थनिष्ठः । स व्याप्यवृत्तिरपि तु प्रथितस्ततश्चा - ऽवच्छेदको न च तदीयविरोधकुक्षौ ।।८३८।। अस्तगतं तदिह तार्किकभूषणैर्हि, नव्यैः शिरोमणिमुखैरपि युक्तिजालैः । स्याद्वादतत्त्वरसलेशभवप्रयत्नै - ाये निरूपितमिदं न च किं यथार्थम् ।।८३९।। किं वा यथा तव मते ननु लक्ष्यभेदात्, तल्लक्षणं पृथगिह व्यवहारहेतुः । तद्वत् कथं नयप्रमाणविभेदतो न, लक्ष्यस्वरूपमपि भिन्नमिहाऽऽर्हतानाम् ।।८४०।। तत्त्वे नयैकवलतो न च लक्षणेऽस्त्व - वच्छेदकस्य घटना प्रमितेः कथं नो । दुर्नीतिमात्रपरिकल्पितमर्थशून्य - मेतत् परन्तु न च तत्त्वदृशां मनोज्ञम् ।।८४१।।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
एकान्ततत्त्वघटना ननु यस्य पक्षे, भेदो विरुद्धबलतोऽभिनवस्तु तस्य । भेदः सदैव परिपन्थिदलेन येषां तेषां समग्रनययोगवतां क्व भीतिः ||८४२ || भेदे स्थिते तु निजधर्मिषु धर्मयोः स्याद्, भिन्नाश्रितत्वबलतस्तु विरोधसिद्धिः । तस्माच्च भेदघटना निजधर्मिषु स्यादन्योन्यसंश्रयघटा कथमत्र न स्यात् ||८४३ || आधारभेदमननां च विनैव मानात्, तद्ग्राहकाद् यदि विरोधघटा प्रसिद्धा । मानात् तदाऽनुभवतो न कथं विरुद्ध धर्माश्रयोऽस्त्विह कथञ्चिदनन्यतावान् ||८४४|| एषैव युक्तिरिह बौद्धनिराक्रियायां, नैयायिकैरपि मता स्थिरपक्षहेतुः ।
नो चेद् विरोधहतिरेव भवेद् घटादौ, सामर्थ्यतद्विरहयोः स्थिरताप्रथायाम् ||८४५|| एकत्र परिमाणद्वयोपपादनेन नैयायिकमतखण्डम्
किञ्चाऽपरः सुगतशिष्यप्रदर्शितोऽस्य, दोषो महान् भवति तत्त्वत ऐक्यवादे || यस्मात् स्थितेऽपि किमु धर्मिणि कालभेदा - देकत्र भिन्नपरिणामसमन्वयो नो । ८४६ ।। द्रव्यस्य नाशजनितो यदि तस्य नाशो, रूपस्य किं नहि तथैव विनाश इष्टः । पूर्वापरैक्यविषयावगतेस्तु तत्र, नो द्रव्यनाश इति चेत् प्रकृतेऽपि तुल्यम् ||८४७।। द्रव्यान्तरोपजननादथ वा तु पूर्व द्रव्येऽविनाशिनि भवेत् पृथगेव मानम् । साजात्यदोषबलतो न पृथक् प्रतीतिः, पूर्वस्य तेन न विनाशप्रकल्पनाऽपि ॥ ८४८ || तेनैकदीर्घतरतन्तुवितानताना भ्यां यत्र वस्त्रजनिरंशुप्रयोगताऽस्ति ।
-
नो खण्डतन्तुभवनं न च पूर्वतन्तु - नाशोऽपि तत्र कणभक्षसुतैरुपेयम् ||८४९ ।। तन्त्वंशुयोगजनकादुभयत्र वस्त्रं, सञ्जायतां किमपि नाऽत्र च दूषणं वः । यस्माद् विरोधनियमोपगमे न मूर्त्तानां मूर्त्तयोरथ च मानमिहाऽस्ति किञ्चित् ||८५०|| किञ्चाऽवगाहनविशेषवशाच्च पूर्व मानं द्वितीयपरिमाणतयाऽविनाशे ।
द्रव्यस्य किं परिणतं न भवेत् ततश्च द्रव्यान्तरोपजननं न पृथक् प्रकल्प्यम् ||८५१ ॥ दृष्टोऽवगाहनविशेषबलाच्च लोष्ठः, कार्पासकादित इहाऽल्पतनुर्गरिष्ठः । आरम्भकावयवगा तु बहुत्वसङ्ख्या, तत्र स्थिताऽपि न विलक्षणमानहेतुः ||८५२ || संयोगिपुद्गलवलादवगाहनस्य, वैशिष्ट्यतोऽपि परिमाणविशेष इष्टः । दुग्धं हि पारदविनिर्मितपात्रपीतं, वान्तं मितं न्वितरथाऽधिकमानमेव ||८५३ || एतेन योऽप्यवयवान्यजलादिवस्तु संसर्गतोऽवयविनो न हि मानभेदः । स्वारम्भकावयवयोगभवे तु तस्मिन् नाशो नवीनजननात् प्रथमस्य युक्तः ||८५४ ||
1
-
६७
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ व्यासज्यवृत्तिरिह वस्त्रघटादिभावो, नैकत्र तिष्ठति परन्तु समग्र एव । स्वारम्भके यत इति प्रथितो निरस्तो, मार्गोऽक्षपादसुतकल्पित एष कष्टः ।।८५५।। रक्तं यदेव प्रथमं ननु रूपमासीत्, पाकेन रक्ततरमत्र तदेव जातम् । इत्यादिसर्वजनसिद्धप्रतीतितो हि, रूपादयोऽपि परिणामितयाऽभ्युपेयाः ।।८५६।। उच्छेद एव यदि रक्तगुणस्य पाकात्, पूर्वस्य तर्हि वद कोऽत्र भवेद् विशेषः । रक्तस्तु रक्ततरतां समुपैति नाऽन्य - च्छ्यामादिकं परमसौ बुध ! रक्तिमानम् ।।८५७।। तस्मात् कथञ्चिदिह भिन्नमभिन्नमर्थं, रूपादिकं यदि करिष्यसि वोधनिष्ठम् ।
स्थैर्यं भविष्यति तदैव तव प्रसिद्धं, बुद्धान्वयादविहतं न तु सर्वथैक्ये ।।८५८।। स्याद्वादप्रभावोपवर्णनम् -
मानैकदृष्टिरपि किं न विरोधरक्षा, कुर्वन्नयानुसरणेन विभज्य धर्मान् । स्याद्वादमन्त्रशरणोऽर्हति विज्ञ ! वक्तु - मेकत्र धर्मिणि निरस्तसमस्तदोषान् ।।८५९।। स्याद्वाद एष सकलागमतो विशिष्टः, सर्वे नया इह यतोऽभिमता निविष्टाः । तेषां न खण्डनमिहाऽऽर्हततत्त्वविज्ञैः, स्यान्मण्डनं परमसौ नयमेलनेन ।।८६०।। वेदान्तिकापिलमुखाः परवादिनोऽन्ये, एकान्ततत्त्वमननाविरता भवेयुः । स्याद्वादिनां किमिति नो सुहृदस्तदा ते, मोक्षानुसारिसरणौ क्व विरोधचर्चा ।।८६१।। इष्टस्तु सङ्ग्रहनयो मम तेन युक्तो, ब्रह्मात्मवादिभिरपीह सखित्वमग्र्यम् । किं पुद्गले न ममताविरतिर्जिनानां, स्वात्मन्यनन्यसुखसिद्धिमुपागतानाम् ।।८६२।। आत्मप्रदेशघटनावशतो न किं नो, ज्ञानान्वयित्ववशतोऽथ च पुद्गलादेः । चैतन्यमिष्टमत एव भवेच्च योगा - चारेण सख्यमपि विज्ञ ! कथञ्चिदत्र ॥८६३।। रागो न पुत्रकनकादिषु नश्वरेषु, योग्योऽविनश्वरनिजात्मसुखे प्रशस्ते । इत्येतदर्थमिह शून्यतयैव नेष्टं, विश्वं किमङ्ग ! न च माध्यमिकेन सख्यम् ।।८६४।। इष्टो न किं बुध ! जिनैर्ऋजुसूत्रनामा, विज्ञैर्नयः क्षणिकता न कथञ्चिदिष्टा । सौत्रान्तिकोऽपि मम किं न सुहृद् भवेत् स, एकान्तवादकलुषावृत एव नो चेत् ।।८६५।। किं तार्किक ! त्वमिह तर्कपरायणोऽपि, स्याद्वादमाश्रयसि चेन्नयसङ्गमिश्रम् । नो नः सुहृद् भवसि येन न चाऽऽश्रयामो, मुक्तिं तवाऽभिलषितां हितसिद्धिरूपाम् ।।८६६।। किं नास्तिकोऽपि गुरुदोषकलङ्कितोऽपि, चार्वाकबाल इह चेदधमो नयेषु । स्याद्वाददत्तहृदयो न सुहृद् यतो न, किं व्यावहारिकनयोऽपि मतो जिनानाम् ।।८६७।।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
स्याद्वादवाद्यपि हि सर्वमनन्तधर्मा - धारं वदन् नियतधर्मसमाश्रयेण । स्पष्टीकरोति पृथगेव निरूपकस्या - ऽवच्छेदकस्य भजनात इह स्वरूपम् ।।८६८।। मुक्त्यात्मना परिणतोऽपि य एव जीवो, बन्धात्मना परिणतोऽभवदेष पूर्वम् । पूर्वापरादिसमयादिप्रवेशतः किं, नो मुक्तिरप्यनुमता मम बन्धमिश्रा ।।८६९॥ कर्मावृतत्वसमये वितथावभासा - ज्ज्ञानं भ्रमात्मकमिहाऽभिमतं यदेव । कर्मावृतत्त्वविगमेऽवितथावभासा - ज्ज्ञानं प्रमात्मकमथाऽभिमतं तदेव ।।८७०।। कैवल्यजन्मसमयात् प्रथमं जिनोऽपि, भ्रान्तो मयाऽभ्युपगतोऽखिलतत्त्ववेत्ता । तीर्थङ्करः स तु यदा प्रमया तदानी - मालिङ्गितो न च किमत्र यथार्थवक्ता ।।८७१।। देशेन देशदलनं ननु सम्मतं नो - ऽनेकान्तवादघटनाविरहित्वकाले । स्याद्वादतैव बुध ! सर्वनयेषु यत्र, तत्राऽर्थतत्त्वमननार्थक एव यलः ।।८७२।। रागादयोऽपि च विरुद्धगुणान्विता नो, नो सम्मताः समनिरूपकधर्मतोऽत्र । पूर्वोक्तदोषघटना मम येन किन्त्व - वच्छेदकादिभजनानुगताश्च ते तु ।।८७३।। मानं ममाऽभिलषितं परिपूर्णवस्तु - प्रद्योतकं भवति निर्णयरूपमेव । यस्मादनन्तघटनाविषयैव बुद्धि - रेकत्र धर्मिणि प्रमाभिमतार्थवत्त्वात् ।।८७४।। नाऽनन्तधर्मविषयत्वत एवमस्य, सन्देहता भवितुमर्हति निर्णयस्य । दोलायमानतनुरेव तु बोध इष्टो, यत्संशयो बुधवरैर्न तु निर्णयात्मा ।।८७५।। दोलायमानतनुता तु विरोधभाना - ज्ज्ञाने भवेन्न तु विभिन्नप्रकाशकत्वात् । माने तु नाऽस्ति नियतस्य च देशकाला - वच्छेदकस्य मननेन विरोधभानम् ।।८७६।। यस्मात् समुच्चयमतिर्भवतां मतेऽपि, नो संशयात्मकतया प्रथिताऽविरोधे । अव्याप्यवृत्तिमतिरत्र विरोधभान - स्यैतावता बुध ! मता प्रतिबन्धिकाऽपि ।।८७७।। शब्दो नियन्त्रिततया तत एव विद्वन् !, नो संशयात्मकमतिप्रगुणो मतस्ते । किञ्चाऽत एव न च सत्प्रतिपक्षतोऽपी - ष्टः संशयोऽनुमितिरूपतया बुधाग्य ! ।।८७८।। चेद् रनकोशकृदनिश्चयरूपशाब्द - लिङ्गोत्थधीमननतत्पर आप्त इष्टः । तर्यस्तु संशयमतिर्ननु शब्दलिङ्ग - जन्या परं न भजनाङ्कितशब्दतः सा ।।८७९॥ नो संशयत्वमिह तेन मतं हि कार्या - वच्छेदकं भवति चाऽर्थसमाजतस्तत् । सन्देहताघटकधर्मसमाजहेतु - सामग्रयकूटघटनार्थसमाजवाच्या ।।८८०।।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ अव्याप्यवृत्तिमतिशून्यतयैव सार्द्ध, कोटिद्वयावगमको निपुणोऽन्यथा नो । सन्देहबुद्धिजनने न कथञ्चिदुक्ता - वव्याप्यवृत्तिमतिसन्निधितोऽस्ति सा तु ।।८८१।। किञ्च प्रमाणमतिगा न विशेष्यतैकै - कत्राऽस्त्यनेकगप्रकारतया निरूप्या । भिन्ना परन्तु तत एव न संशयत्व - मापाद्यमानमिह युज्यत आक्षपादैः ।।८८२॥ ये चाऽनवस्थितिमुखा मम दोषसङ्काः, स्याद्वादतत्त्वविषये नहि ते तु दोषाः । एकान्ततत्त्वमनने तु कथं न दोषा, जय्या मयैव प्रतिपक्षिजना हि दोषैः ।।८८३।। सर्वे नया जिननयेऽभिमताः कथञ्चित्, तत्त्वप्रवेशबलतो न च किं तथा च । तत्स्थापका अपि भवन्ति त एव दोषा, एकान्ततैव परमेष्वपि तैर्निवार्या ।।८८४।। प्राधान्यगौणविधया द्विविधोऽत्र मार्गः, स्याद्वादिनां सकलवस्तुगतः प्रसिद्धः । एकत्र चैकसमये नियतैकहेतो - रेको द्वयं न पुरुषः प्रथितुं समर्थः ।।८८५।। एवं स्थिते भवति यस्य प्रधानभावात्, संस्थापना ननु यतो गुणतस्ततो नो । एतावता भवति खण्डकताऽपि तस्य, स्याद्वादिनामनुगुणैव प्रमाणभाजाम् ।।८८६।। किं विस्मृतं च भवता जिनतन्त्रविज्ञैः, सन्दर्शितं हि शतशोऽत्र प्रकारभेदात् । एकत्र धर्मिणि विरुद्धपदार्थसार्थ - संयोजनं न च निरूपकतोऽद्वितीयात् ।।८८७।। यस्यैव यो भवति साधक आर्हतानां, तस्यैव बाधकतयाऽभिमतः स किन्तु । स्याद्वादनीतिशबला भजनां विना नो, क्वैकान्तवादिगणतोषकरोऽयमर्थः ।।८८८।। स्याद्वादसिद्धिप्रवणे नयसिद्धिभाजा, द्वेषो नयैकशरणे न च मुक्तिभाजाम् । स्याद्वादपक्षविमुखो नय एव नाऽस्ति, येन प्रसक्तिरपि तस्य भवेच्च तेषाम् ।।८८९।। वादे पराभवघटा सुलभा तु ते स्या - देकान्ततोऽत्र जय एव न चाऽस्ति यस्मात् । स्याद्वादिनां स तु पराभवमिश्रितोऽस्ति, स्वीकारयोग्य इति किं न करोपि चित्ते ।।८९०।। तस्मात् प्रमाणमनवद्यमिह प्रमातृ - रूपं प्रमाऽपि च भवेन्नयभेदतस्तत् । द्रव्यावगाहिनयतो हि प्रमात्रभिन्नं, पर्यायगोचरनयात् तु प्रमास्वरूपम् ।।८९१।। किञ्चाऽर्थगोचरतया प्रमितौ प्रमात्वं, स्वात्मप्रकाशकतया तु प्रमाणभावः । अर्थावगाहनघटा परतो विभिन्ना - ऽभिन्नात्मबोधरचना स्वत एव यस्मात् ।।८९२।। बोधः स्वपूर्वमतितो जननात् प्रमात्मा, स्वोदीच्यबोधफलतोऽथ प्रमाणरूपः । बोधात्मनाऽऽत्मनियतश्च प्रमातृरूपो, ह्यन्वर्थता भवति तेन प्रमाणतादे: ।।८९३।।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ नयविचारः -
अर्थेकदेश इह नाऽर्थतया प्रसिद्धो, ह्यर्थांश एव स तु विज्ञजनैर्निरुक्तः । तद्गोचरोऽर्थविषयत्ववियोगतस्तु, प्रोक्तो नयो वुधवरैरधिकः प्रमाणात् ।।८९४ ।। एवं च लक्षणगतोऽभिमतोऽर्थशब्दः, स्याद्वादलाञ्छितपदार्थपरो नयज्ञैः ।
नाऽतिप्रसञ्जनमतोऽस्य भवेन्नयेषु, वस्त्वंशमात्रविषयेषु मते जिनानाम् ।।८९५।। मुख्यतः केवलज्ञानमात्रस्य प्रामाण्यमुपदर्शितम् -
मुख्यं प्रमाणमिह केवलबोध एव, सैव प्रमा भवति वस्तुप्रकाशकत्वात् । यः सर्वविद् भवति सैव पदार्थमेकं, वेत्तीति यनयविदां प्रथितोऽत्र पन्थाः ।।८९६।। एकत्र धर्मिणि यतो निखिलस्य बन्धः, साक्षात्परम्परतया च मतो बुधानाम् । युक्तस्ततो निखिलवस्तुमतौ घटादेः, संसर्गिणोऽवितथबोध इमां विना नो ।।८९७॥ मत्यादयस्त्विह तु यद्यपि मानमध्ये, प्रोक्तास्तथाऽपि गुणतः प्रमितित्वभाजः । यस्मादसर्वविषयाः प्रथिता मतेऽस्मि - नक्षायिकत्वत इमे जिनतन्त्रविज्ञैः ।।८९८।। भेदस्त्वभेदसहितः प्रथमं निरुक्तः, संसर्ग आर्हतमते निखिलेषु यस्मात् । तस्माद् घटादिमतयोऽपि प्रमा अभेदां - शालम्बनात् खलु भवन्ति प्रधानभावात् ।।८९९।। कुम्भोऽयमित्यवगतिस्तु घटत्वमेकं, कुम्भेऽवभासयतु मात्वमथाऽपि तस्याः । सत्त्वादयोऽप्यवगतास्तदभिन्नतादा - त्म्यादेकताश्रयतयाऽऽश्रयतो यतोऽस्याम् ।।९००।। भेदांशगोचरतया तु नयत्वमस्यां, सुस्पष्टमर्थविषयत्वलयाद् विभाव्यम् । यत् सर्वथा विबुध ! मानविभिन्नरूपे, नो सम्मता सुनयता नयकोविदानाम् ।।९०१।। मानं च यैर्नयसमूहतया निरुक्तं, तेषामपि प्रथमदर्शित एव भावः । नो चेन्नया इह प्रमामतितो विभिन्ना, दुर्नीतितोऽथ च कथं न विवेचनीयाः ।।९०२।। एवं च नाऽन्धसमुदायवदस्य वस्त्व - द्रष्टृत्वमज्ञजनसञ्जितमस्ति किञ्च । नो यौगपद्यत इहाऽघटनान्नयानां, मानापलापघटना जिनदेवतानाम् ।।९०३।। अस्त्येव कुम्भ इति दुर्नयवाग्विलासः, स्याच्छब्दयोजनबलात् स च मानशब्द: ।
अस्तीति नीतिवचनं पुनरत्र विज्ञै - भैदेन तद्विभजनं कृतमेव शब्दैः ।।९०४।। प्रमाणविचारः -
प्रत्यक्षमेव गुरुसम्मतमत्र मानं, बौद्धोऽनुमानसहितं तदवेति मानम् । वैशेषिकोऽपि च तदेव करोति चित्ते, साङ्ख्यस्तु शब्दसहितं तदुरीकरोति ।।९०५।।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ तच्चोपमानसहितं ननु गौतमीयाः, प्राभाकरास्तदपि कल्पनतो विमिश्रम् ।। भाट्टास्त्वभावसहितं बुवते तदेव, वेदान्ततत्त्वविदुषामपि मान्यमस्ति ।।९०६।। सक्षेपतो भवति तद् द्विविधं जिनानां, प्रत्यक्षमेकमपरं च परोक्षमिष्टम् ।। यत्राऽनुमादिमतितोऽधिकधर्मभानं, स्पष्टं तदार्हतमतं प्रथमं प्रमाणम् ।।९०७।। द्वैविध्यमस्य पुनराहतसम्प्रदाये, तत्राऽदिमं भवति सांव्यवहारकाख्यम् । स्यात् पारमार्थिकमनन्यसहायजीवा - पेक्षानिजावरणकर्मलयादितोऽन्यत् ।।९०८।। साकल्यवद् विकलतावदिति द्विधाऽन्त्यं, स्यान्निर्निजावरककर्मलयात् तु तत्र । यद् द्रव्यपर्ययसमग्रप्रकाशशालि, तत् केवलं प्रथममादिमदक्षयं च ।।९०९।। तज्ज्ञानदर्शनभिदा द्विविधं बुधेन्द्र - रुक्तं समग्रनिजगोचरभाजि पूज्यैः । स्वस्वस्वभावबलतो व्यवधानशून्य - मुत्पत्तिमद् भवति तत्परहेतुशून्यम् ।।९१०।। ग्राह्यक्षयोदयवशात् तु कथञ्चिदस्य, नाशोदयावपि मतौ जिनसम्प्रदाये ।
उत्पत्त्यवस्थितिलयान्वयिताऽपि सत्ता, युज्येत तेन ननु तत्र न चाऽन्यथा सा ।।९११।। प्रमाणविचारे ज्ञानदर्शनयोयौंगपद्यविचारः -
तच्च द्वयं युगपदेव समामनन्ति, श्रीमल्लवादिप्रमुखा व्यवहारमाप्ताः । शुद्धर्जुसूत्रमुपगम्य द्वयं क्रमोत्थं, प्राहुः श्रुतैकरसिका जिनभद्रमुख्याः ।।९१२ ।। एकं तु सङ्ग्रहनयस्य समाश्रयेण, वादी समादिशति यौक्तिकसिद्धसेनः । इत्थं विरोधविमुखा ननु सूरिपक्षा, नो ज्ञस्य मोदमिह कस्य ददत्यनल्पम् ।।९१३।। यद् यस्य कार्यमिह तत्तत इष्टमन्य - च्छाद्मस्थिकं भवतु तच्च तदन्यकालम् । ज्ञानेन तुल्यसमयं त्विह दर्शनं स्यात्, स्वाभाव्यतो रविगताविव तापदीप्ती ।।९१४।। नैवेह 'जं समय'मित्यपि सूत्रमन्यै - र्वाच्यं विघातकतया समयस्य यस्मात् । तुल्यार्थतैव प्रमिता समयार्थता नो, तत्त्वेऽर्हतो नहि भवेदुभयस्य योगः ।।९१५।। हेत्वोस्तदावरणकर्मविनाशयोश्च, स्याद् यौगपद्यबलतोऽपि च यौगपद्यम् । नाऽत्राऽनयोमिथ उपैमि च हेतुभावं, छद्मस्थवद् भवतु येन न यौगपद्यम् ।।९१६।। यत् साद्यपर्यवसितत्वविधायि सूत्रं, तद् यौगपद्यमत एव भवेद् यथार्थम् । द्रव्यादिगोचरतयाऽस्य गतिर्न युक्ता, प्रश्नोत्तरे अपि यतो न तथा प्रतीते ।।९१७॥ इत्थं प्ररूपयति युक्तिकदम्बमत्र, वादी विपक्षमतखण्डनमल्लमल्लः । तत्पक्षमागमविरोधमहाप्रचण्ड - वातैः क्षिपन्ति जिनभद्रमुखाः श्रुतज्ञाः ।।९१८।।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
तद्भाष्य एव मतमस्य तु सप्रपञ्च - मालोकनीयमनवद्यमकुण्ठवोधैः । दृश्याऽत्र तन्मतरहस्यविदोऽपि सूरेः, श्रीहेमचन्द्रविबुधस्य प्रगल्भवृत्तिः ।।९१९।। सामान्यगोचरतया खलु दर्शनं त - ज्ज्ञानं तदेव तु विशेषप्रकाशकत्वात् । अस्पृष्टगोचरतयाऽथ च दर्शनं स्या - नेत्रादिधीवदिति वक्ति च सिद्धसेनः ।।९२०।। एकक्षणे तदुभयावृतिकर्मनाशा - देकं द्विधर्मकमिदं भवदर्थतः स्यात् ।। सामग्र्यभाजि जनके न जनेर्विलम्बो, दृष्टो यतो भवति तत् क्रमिकं द्वयं नो ।।९२१।। नो यौगपद्यमपि तत्र ततो नयज्ञै - र्वाच्यं तथाऽनुपगमागमभङ्गभीत्या । पार्थक्यतः कथनमप्यनयोः श्रुते तु, धर्मद्वयावगतये न पृथक्त्वसिद्ध्यै ।।९२२ ।। इत्यादितन्मतरहस्यमखण्ड्यमन्यै - विस्तारतस्त्वभयदेवकृतेः सुवृत्तेः । ज्ञेयं बुधैरमलबोधविधानद? - र्भाव्या परस्परविरोधहतिश्च बुद्ध्या ।।९२३।। ज्ञानं द्विधा विकलमार्हतसम्प्रदाये, तत् पारमार्थिकतयाऽभिमतं यदन्त्यम् ।
नो क्षायिकं भवति तेन समग्रता नो, स्यात् पारमार्थमबहिःकरणोद्भवत्वात् ।।९२४।। अवधिज्ञाननिरूपणम् -
ज्ञानं भवेद् भवगुणोद्भवमत्र रूपि - द्रव्यार्थमावरणकर्मलयोपशान्तेः । यत्तद् बुधैरवधिबोध इति प्रतीतं, भ्रान्तिर्विभङ्ग इति तस्य च कीर्त्यतेऽत्र ।।९२५।। उत्पत्तिमात्रत इदं खलु नारकेषु, देवेषु चेति भवहेतुतया प्रसिद्धम् । सद्दर्शनात्मगुणतो भवतीह नृणां, यस्माद् गुणोद्भवमिदं तु तथा तिरश्चाम् ।।९२६।। छायातमःक्षितिजलानलवायुचित्त - द्रव्याणि पुद्गलभवान्यथ रूपवन्ति । क्रोधादिकर्मपटलं च तथाऽऽगमज्ञै - रिष्टं त्वनुगवरसाद्यणुबन्धजन्यम् ।।९२७।। यद्वन्न गौतमनये कठिनादिभिन्न - स्पर्शोऽपि पाकवशतः पृथिवीविकारः । भिन्नः परन्तु पृथिवीत्वसमानभाव - स्तद्वन्न किं भवतु पुद्गल एकजातिः ।।९२८।। स्पर्शान्त इष्ट इह यः खलु गौतमेन, भूमौ स एव च जलाद्यणुपुद्गलेषु । उद्भूतमेव सकलं न च तत्समुत्थे, कार्येऽखिलेऽप्यभिमतं परतैर्थिकानाम् ।।९२९।। वैशेषिकस्य च मते परमाणुमात्र - पाके घटादिपिठरस्य यथैव नाशे । जातेऽपि सृष्टिरपरा परमाणुमात्रा - च्चित्रा तथैव न च पुद्गलतोऽपि किं सा ॥९३०।। पाकप्रभेदघटना यदि तत्र तेषां, शक्तिप्रभेदभजना न च तत्र किं नः । । शक्त्यैकजातिरपि पुद्गल एव भिन्नान्, भूम्यादिकान् सृजति नाऽत्र कुतर्कबाधः ।।९३१।।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ शक्तिविचारः -
मीमांसको विहतशक्तिरबाध्यमानां, शक्तिं परैर्यदि न साधयितुं समर्थः । किं तावता जिनमताखिलतत्त्वविज्ञाः, स्याद्वादशक्तिशरणा न च शक्तिमन्तः ।।९३२।। वह्नौ स्थितेऽपि मणिसन्निधितो न दाहो, यज्जायते भवति तद्विगमे च दाहः । सत्त्वेऽपि सूर्यमणिसन्निधितो मणेर्वा, वह्नौ ततः श्रुतिविदा ननु शक्तिरिष्टा ।।९३३।। नैयायिकैः पुनरिहाऽनुभवापलाप - दोषाङ्कुरैरधिककल्पनभीतिमद्भिः । स्याद्वादमुद्रितपदार्थविवेकशून्यैः, सा लाघवोहबलशालिभिरिष्यते नो ।।९३४।। दाहे मणेस्तु प्रतिबन्धकता तथा त - द्राहित्यमस्य जनकं द्वयमेव कल्प्यम् । नैयायिकस्य रविकान्तमणेस्तु तस्मि - त्रुत्तेजकत्वमत एव न शक्तिचर्चा ।।९३५।। मीमांसकस्य तु भवेद् व्यतिरिक्तशक्ति - पक्षे गुरुत्वमपरापरशक्तियोगात् । तज्जन्मनाशपरिकल्पनतो गुरुत्व - मेकान्ततत्त्वमननानिपुणस्य किञ्च ।।९३६।। वहौ तृणादिजनिते पृथगेव किञ्च, वैजात्यमक्षचरणानुगतैः प्रकल्प्य । हेतुत्वमभ्युपगतं नियतं तृणादे - स्तत्तद्विलक्षणहुताशनजातिमत्सु ।।९३७।। वह्नित्वजातिमति नो व्यभिचारतः स्या - हेतुत्वमस्य तु तृणत्वमणित्वधर्मः । शक्त्यैव किन्तु दहनार्जिकया ततो नो, वैजात्यकल्पनमिह श्रुतिपाठकानाम् ।।९३८।। फूत्कार एव सहकृत् तृणतोऽग्निभावे, नो मन्थनादि नियमो न समानशक्तौ । शक्त्याऽन्यया तदुपपादनयत्नवत्सु, वैजात्यमेव वरमित्यपि योगपन्थाः ।।९३९।। नो हेतुता भवति जातिरखण्डधर्मो, नो वा सखण्ड इह किन्तु भवेत् तथा च । नाऽस्याः स्वतो भवति धीरत एव साव - च्छिन्नत्वमभ्युपगतं नियमेन तस्याम् ।।९४०।। एवं स्थिते यदि भवेदिह शक्तिरेवा - ऽवच्छेदिका जनकताग्रहणात् तदाऽस्याः । पूर्वं ग्रहोऽभिमत एव सखण्डबोधो - ऽवच्छेदकावगमनं न यदन्तरेण ।।९४१।। शक्तिस्त्वतीन्द्रियतयाऽक्षभवावबोध - ग्राह्या भवेन्नहि परन्त्वनुमानवेद्या । सा चाऽनुमा जनकतामतिमन्तरा नो - ऽन्योन्याश्रयः स्फुटमिहेति च गौतमीयाः ।।९४२।। शक्तिस्तथा भवति किं स्वत एव किं वा, स्वाधारकारणबलादथ वाऽन्यहेतोः । स्वस्मात् स्वजन्म नहि युज्यत एव नैकं, यत्कार्यकारणतयाऽभिमतं जनानाम् ।।९४३।। आद्ये न चेदभिमतो जनकं विनैव, शक्तेर्भवस्तव तदा नियता न सा स्यात् । स्वाधारकारणगता त्वपरा द्वितीये, शक्तिर्मता यदि तदात्वनवस्थितिवः ।।९४४।।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
शक्तिं विनैव यदि शक्तिरुपेयतेऽस्मात्, किं नो भवेत् त्वदुपदर्शित एव दोषः ।। नाऽऽधारदेशनियमो भविताऽन्तिमे ते, शक्तेर्यतोऽन्यजनकादुपपत्तिरस्याः ।।९४५।। यद्वद् गुणादिसमवायिषु वस्तु विद्वन्, सञ्जायते न जनकव्यतिरिक्तभावे । शक्तिस्तथैव भवता समुपासनीया - ऽऽधारस्ततो जनक एव तवाऽपि मान्यः ।।९४६।। शक्तिं विना भवति नैव स चाऽपि शक्तः, शक्तौ त्वदुक्तनयतो ह्यनवस्थितिस्ते । इत्यादिदोषभयतो न च शक्तिसिद्धि - वेदान्तिनामपि मते भवितेति यौगाः ।।९४७।। नैतेऽक्षपादसुततोऽभिमतास्तु दोषा, जैनोक्तशक्तिविषये प्रभवन्ति तत्त्वे । शक्तिः स्वरूपसहकारिविभेदतो य - ज्जैनैर्द्विधा प्रकटिता ननु तैरवाध्या ।।९४८।। या हेतुता जनकगा ननु सैव शक्ति - जर्जात्यादिवद् भवति साऽनुगता कथञ्चित् । साधारकारणबलाच्च तदात्मभूतो - त्पन्ना स्वरूपनियता निजशक्तिरिष्टा ||९४९।। या स्वान्यकारणसमग्रसमन्वयोत्था, स्वस्मिन् स्वभिन्नजनकेषु च कार्यतः प्राक् । यामन्तरेण नहि कार्यभवे समर्थो, वह्यादिको भवति सा सहकारिशक्तिः ॥९५०।। एषा द्विधाऽपि वचनान्तरतोऽन्यतन्त्रे - ष्वप्यस्ति सिद्धिविषयो न जिनककल्प्या । यद्योग्यतात्मकफलोपहितत्त्वभेदा - द्धेतुत्वमत्र कथितं द्विविधं च हेतौ ।।९५१।। हेतौ यथा जनकशक्तिरनन्यरूपा, शक्तिस्तथैव प्रतिबन्धकतास्वरूपा ।। दाहादिकार्यजननाक्षमतानुकूला, मण्यादिभावनियता तदनन्यरूपा ।।९५२।। साऽपि स्वरूपसहकारिविभेदतोऽत्र, द्वेधाऽऽश्रयस्य जनकात् प्रथमा तु तत्र । उत्तेजकापगमसन्निधितो द्वितीया, सोत्तेजके सति न जायत एव यस्मात् ।।९५३।। मण्यादिभावसहचारबलाद् विनाशः, किं वाऽस्तु दाहजनकानलहेतुतायाः । शक्तेस्तदुद्भवफला त्वपराऽपि शक्ति - वह्नौ समस्ति तत एव पुनर्भवोऽस्याः ।।९५४।। मण्यादिकेऽग्निनिकटेऽपि च दाहशक्तिः, शक्त्या स्वजन्मफलया मुहुरेव जाता । मण्यादिनाशकवशादवतिष्ठते नो, नो तावता भवति दाहभवोऽपि तस्याः ॥९५५।। मण्यादिकेष्वपगतेषु तु सैव दाहं, वहिस्थिता ननु करोति मते जिनानाम् । उत्तेजकाननुगतः पुनरत्र शक्ते - मण्यादिको भवति नाशकृदन्यथा नो ।।९५६।। शक्त्यात्मिका जनकताऽभिमता यतो ना - ऽवच्छेदकस्य तत एव भवेद् व्यपेक्षा । नो जात्यखण्डनियतोऽभिमतस्त्वयाऽप्य - वच्छेद्यतानियम इत्यवधारयाऽन्तः ।।९५७।।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
हेतुत्वमत्र यदि शक्तिपदाभिलप्यं, नो तर्हि दुर्वचतया तदलीकमेव । नैयत्यतो जनिमतां व्यवधानशून्य पूर्वक्षणानुगतता नहि हेतुता ते ।। ९५८ ।। तत्त्वेन किं गगनमप्यनुमोदितं स्याद्धेतुत्वतस्तव बुधाग्र्य ! घटादिकार्ये । दण्डत्वदण्डपरिणामकुलालहेतु - वैशाखनन्दनमुखाः किमु हेतवो नो ।। ९५९ ।। सङ्केततोऽभिनवतोऽभिनवाऽन्यथासि - द्वत्वं स्वलक्षणवलादुपगम्य तेषाम् । तद्भिन्नतां जनकलक्षणसन्निविष्टां स्वीकुर्वतोऽपि तव विज्ञ ! न दोषमुक्तिः ||९६० ।। यस्माद् विभाग इह तेऽभिमतो न हेतुः, संयोगकार्यजनने खलु तादृशोऽपि । न तत्र पञ्चविधमस्ति तवाऽन्यथासिद्धत्वं च नव्यमपि कार्यमपेक्ष्य तत् तु ॥ ९६१ ।। यद्यन्न यं प्रति जनेष्विह सम्प्रसिद्धं, हेतुत्वतो जनकलक्षणगास्तु तेषाम् । भेदा मता यदि तदा निखिलज्ञभिन्न दुर्बोधता भवतु लक्षणगोऽत्र दोषः ||९६२ ॥ वैजात्यकल्पनकथाऽपि न चाऽत्र वह्नौ, नो वा तृणारणिमणित्वमुखैश्च धर्मैः । शक्तिस्वरूपजनकत्वमुपेयतेऽव - च्छेद्यं न जैमिनिनयादविशेषताऽपि ॥ ९६३॥ शक्तिग्रहोऽन्वयविलोकनसव्यपेक्षात् सञ्जायते च जनके व्यतिरेकबोधात् । ऊहाख्यबोध इति सोऽभिमतो जिनानां व्याप्तिग्रहात्मकतयाऽपि स एव सिद्धः || ९६४ ॥ तद्व्यञ्जकास्तृणमणित्वमुखास्तु धर्मा, नो व्यञ्जकेषु नियमोऽस्ति तवाऽप्यभेदात् । यद्व्यञ्जकत्वमिह लिङ्गतयाऽऽदृतोऽस्ति, नानाविधेषु च विशेषगुणेषु पुंसः ||९६५ ।। वैकल्पिकी भवति यत्र तु हेतुता वो, वेदप्रमाणविषयो व्यतिरेकतो न । तत्राऽस्ति किञ्च जनकत्वमतिस्तथैव, किं नाऽन्वयैकमतितो ननु साऽपि लोके ॥ ९६६ ॥ एवं स्थिते दहनहेतुतया प्रसिद्धा, ये वै तृणारणिमणिप्रमुखाः पदार्थाः ।
तेषां भवेज्जनकताऽन्वयमात्रबोधा - दित्यादयोऽननुगुणा न जिनानुगानाम् ॥ ९६७ ॥
-
-
मीमांसकोपरि पतेदपि दोष एषो ऽवच्छेद्यतानियमतो जनकत्व इष्टा । शक्तिस्तृणादिषु वयं प्रतिपादयामो ऽखण्डां तु तां जनकतात्मतयैव तेषु ||९६८ || अन्योन्यसंश्रयघटा तत एव नो नो, मीमांसकस्य भवेदपि सोक्तनीत्या । नैवाऽनवस्थितिघटाऽपि च हेतुतात्म शक्तौ गौतमसुतैरुपगीयमाना ।। ९६९ ।। वत्वितो यदि तु कारणताऽनलस्य, दाहं प्रति प्रतिभया ननु गौतमानाम् । वह्नित्वमस्य सकलं प्रति निर्विशेषं, किं तर्हि शान्तिरनलान्न पिपासितानाम् ।। ९७० ।।
-
-
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
साधारणी भवतु वहिगता तु जातिः, किन्त्वन्वयादिमतितोऽवगता विशेषात् । दाहं प्रतीत्य जनकत्वनिरूपकत्व - वत्त्वेन नो तृडुपशान्तिमुखेऽपि कार्ये ।।९७१।। इत्याक्षपादवचनं वचनीयमेव, मण्यादिकेऽपि सति यन्न च वह्नितस्तत् । दूरं प्रयाति वद कस्य लयेन दाहो, नो जायते हुतभुजोऽविचलात् तदानीम् ।।९७२।। मण्याद्यभाव इह तु प्रतिवन्धकाभा - वत्वेन हेतुरत एव न चाऽग्निमात्रात् । दाहो न वा भवति तद्गतशक्तिसिद्धि - रित्येतदप्यनुचितं वचनं च तेषाम् ।।९७३॥ भावात् पृथङ् नहि यतोऽस्ति प्रमाणसिद्धो - ऽभावो नृशृङ्गवदसौ न च कारणं स्यात् । आधार एव विरहो जिनसम्प्रदाये, मण्यादिकस्य हुतभुग्गतशक्तिरूपः ।।९७४।। किञ्चाऽक्षपादमतदर्शित एव भिन्नो - ऽभावोऽस्त्वसौ नहि भवेज्जनकस्तु दाहे । तत्त्वे मणौ सति न किं प्रतिवन्धकस्य, मन्त्रादिकस्य विरहादनलेन दाहः ।।९७५।। यत्कारणं भवति तत्समजातिकस्य, सर्वस्य कार्यजननात प्रथमं न सत्त्वम् । इष्टं यतो न भुवनत्रयवर्त्तिदण्ड - मात्रस्य कुम्भजननात् प्रथमं ह्यपेक्षा ।।९७६।। मण्यादिकस्य विरहो निखिलोऽथ हेतु - स्तद्धेतुता नियमिताऽनुगतेन केन । कूटत्वतोऽथ प्रतिबन्धकमात्रशून्य - त्वस्थेन चेत् क्वचिदपीह तदा न दाह: ।।९७७।। सर्वस्य किञ्चिदपि कार्यमपेक्ष्य यस्मात्, प्रत्येकशोऽस्ति प्रतिबन्धकतैव लोके । दाहोपघातनिपुणप्रतिबन्धकानां, राहित्यकूटमिह चेज्जनकं तदा तु ।।९७८।। भङ्गयन्तरेण भवताऽपि च शक्तिरिष्टा, नैपुण्यमर्थवलतो हि न शक्तिभिन्नम् । शक्तिं विना निपुणता प्रतिबन्धकेषु, दाहोपघातफलिका न च काचिदेका ।।९७९।। यद्यन्य एव ननु कोऽपि तवाऽत्र मान्यो, नैपुण्यताश्रयतया वुध ! तर्हि वाच्यः । किं कारणं स मणिमन्त्रमुखेषु येन, नाऽन्यत्र नैव हि विशेष इहाऽन्यभावात् ।।९८०।। कूटत्वमत्र गुणरूपतया न तेष्व - भीष्टं यतः स नियमेन च द्रव्यवृत्तिः । किन्त्वन्यदेव मतिगोचरताविशेष - रूपं भवेन्न तु भवेत् प्रकृतोपयोगि ।।९८१।। हेतुत्ववोधजननाय यतस्त्वयैवा - ऽवच्छेदकोऽप्यभिमतो मतिगोचरोऽत्र । नैवाऽन्तरेश्वरमतिं प्रकृतस्य तस्या - ऽवच्छेदकस्य तु भविष्यति रूपसिद्धिः ।।९८२।। दूरेऽस्तु बोधघटना ननु रूपमेव, नो यस्य किञ्च प्रतिबन्धकशून्यताऽपि । संसर्गतो नियमिताऽभिमताऽन्यथा वा, नाऽन्यस्तु कल्प इह तेऽपि मतो बुधाग्य ! ।।९८३।।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सत्त्वे मणेरपि यतो विरहोऽस्य भिन्न - सम्बन्धतोऽस्ति न च दाहभवस्ततस्तु । आद्यः परन्त्वभिमतो न च सोऽपि युक्तः, संसर्ग इष्ट इह नोऽनियतस्तु कश्चित् ।।९८४।। यस्मान्न कश्चिदपि तस्य समाश्रये त्व - सम्बन्धपक्षत इहाऽपि भवेद् विशेषः । स्यात् त्वन्मतः स नियतो ननु तर्हि वाच्य - स्तादात्म्यमेष उत वा व्यतिरिक्त एव ।।९८५।। भेदो भवेच्च प्रतिबन्धकशून्यताऽऽद्ये, नो वै विरोधघटना प्रतियोगिनाऽस्य । एवं च किं भवति सप्रतिबन्धकेऽपि, देशे न दाहघटना बुध ! तेऽविशेषात् ।।९८६।। अन्त्ये तु येन प्रतिबन्धकता भवेत् स, संसर्ग एव नियतो ननु सन्निविष्टः । तद्वेदतोऽपि प्रतिबन्धकशून्यतास्तु, भिन्नाः कथं स्युरिह तेऽनुगतेन वाच्याः ।।९८७।। किञ्चोभयादिप्रतियोगिकशून्यताऽपि, मण्यादिकस्य च भवेज्जनिका तथा च । सत्त्वे मणेरपि न किं तव दाहभावो - ऽवच्छेदको निविशते यदि तत्र धर्मः ।।९८८।। ध्वंसो भवेन्न जनको न च प्रागभावो, मण्यादिकस्य बुध ! तर्हि तवैव शास्त्रे । यस्मात् तयोर्नहि मता प्रतियोगितायां, संसर्गधर्मघटना फलशून्यतातः ।।९८९।। एवं च सिद्ध इह ते प्रतिबन्धकात्य - न्ताभाव एव जनकः स तु नैव युक्तः । प्राचीनपद्धतिविलोपभयाद् यतस्तै - स्ताभ्यां च तस्य नहि देशसमानतेष्टा ।।९९०।। ध्वंसोऽपि यत्र प्रतिबन्धकभावराशेः, कार्योद्भवो विबुध ! तत्र जनप्रसिद्धः । चेन्नव्यतार्किकनयाश्रयणेन सोऽत्य - न्ताभावतो ननु भवेत् प्रतिबन्धकानाम् ।।९९१।। नित्यस्त्वया स तु मतो विभुरेकरूपः, सत्त्वे मणेरपि तथैव च तत्र देशे । वल्यादिहेतुसहितः किमु नैव दाह - कार्यं करोति मणिशून्य इव प्रदेशे ॥९९२ ।। मण्यादिसत्त्ववलतो यदि तत्र दाह - सामर्थ्यमेव विहतं ननुः शक्तिसिद्धिः । किञ्च स्वभावविगमेन विनाशिताऽपि, स्यात् तस्य तेन न भवेत् स च नित्यरूपः ।।९९३।। संसर्गतो भवति कार्यजनौ समर्थो, हेतुः स्वयं न तु तथा च भवेन्न तत्र । दाहो मणौ सति यतो विरहस्य नैव, संसर्ग इष्यत इति प्रलपन्ति यौगाः ।।९९४।। संसर्ग इष्ट इह नो व्यतिरिक्तरूपः, किन्तु स्वरूपमिदमप्युभयस्वरूपम् । नित्यत्वतो न मणिताविरहो विनष्टो, नाऽऽधार एवमथ किं न च तस्य स स्यात् ।।९९५।। संसर्गता न यदि तस्य तदा त्वयेष्टा, रूपद्वयस्य च विशिष्टमतेरभावात् । कस्माद् विशिष्टमतिरेव तदा ततो नो, तद्योग्यताविगमतो यदि शक्तिसिद्धिः ।।९९६।।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
अन्योन्यसंश्रयघटाऽपि विलोक्यतेऽत्र, योग्यत्वतो भवति धीरनया च तद् यत् । भ्रान्त्याऽऽत्मबुद्धिजननाय च योग्यताऽपि सत्त्वे मणेरपि कथं न भवेत् त्वयेष्टा ॥ ९९७ ॥ बुद्धौ प्रमात्वमपि तत्र निवेश्यते चेत्, सम्बन्धसत्त्वबलतस्तदपीह तर्हि । किञ्चैतदेव भवतो हृदये विचिन्त्या - ऽन्योन्याश्रयः प्रथममेव प्रदर्शितोऽत्र ।। ९९८ ।।
एतादृशस्य विरहस्य न युक्तमत्यन्ताभावता कथनमप्यविशेषतो वः । भेदादितो भवति नो खलु रूढमेव, योगेऽपि सम्भवति तद्वचनं बुधाय ! ।। ९९९ ।। तादात्म्यतापरिणतिर्न कदाऽपि यत्र, यस्याऽस्त्यसौ भवति तद्विगमः परन्तु । अत्यन्ततापरिगतः प्रतिबन्धकस्य, नैतादृशोऽस्ति स तु दाहभवेऽपि काले । १०००|| उत्तेजकस्य विरहोऽपि मणौ निवेश्यः, कूटत्वतो भवति नाऽत्र गतिर्द्वितीया पूर्वप्रदर्शितदिशा सकलोऽपि दोष स्तत्राऽपि तार्किकमते विनिभालनीयः || १००१ || स्वातन्त्र्यतोऽथ प्रतिबन्धकशून्यतानां हेतुत्वमभ्युपगतं मम दाहकार्ये । उत्तेजका अपि तथैव च कारणानि, पूर्वोक्तदोषघटना न च विद्यतेऽत्र ||१००२।।
युक्तं न चैतदपि दाहसमानता नो, तत्त्वे यतो नियतकारणतो मता सा ।
नो वृश्चिकेऽस्ति नियमोऽयमवाच्यमेत च्छक्त्याऽऽर्हतानुमतया ननु सोऽस्ति यस्मात् ||१००३ ।।
आधेयशक्तिरधिकाऽन्यमतप्रसिद्धा, नो नो मताऽस्ति नहि सा सहकारिशक्तिः ।
शब्देऽपि बोधफलिकाऽभिमतार्थवन्ध स्तद्व्यञ्जकस्तु समयोऽभिमतो जिनानाम् ||१००४ ||
मनःपर्यवज्ञाननिरूपणम्
-
तस्मादशक्त इह शक्तिनिराक्रियायां नैयायिकस्त्यजतु पुद्गलजातिभेदान् । स्याद्वादवाद्यवधिबोधमपेतदोषं ज्ञो रूपिमात्रविषयं प्रकटीकरोतु ॥ १००५||
"
-
चारित्रशुद्धिजनितात् क्षयशान्तितो यो, हृत्पर्ययावरणकर्मण आविरस्ति । बोधो हृदिस्थपरिणामकदम्बनिष्ठो, हृत्पर्ययोऽत्र विकलोऽभिमतो द्वितीयः ||१००६ || यच्चिन्त्यते मनसि किञ्चिदपीह वस्तु, यैस्तन्मनो भवति तत्परिणामशालि । द्रव्यात्मकं तदपि वेत्ति पुमान् विशिष्टो, हृत्पर्ययाख्यमतिभृद् विषयस्तथाऽस्य ||१००७ || साक्षात् स यद्यपि मनोगतभावमेव, जानाति नो विषयमस्य तथाऽपि वेति । लिङ्गान्मनोगतविकल्पभरात् तु तत्त दाकारतोऽनुमितितस्तमपि प्रमाणात् ||१००८||
७९
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
व्यावहारिकप्रत्यक्षनिरूपणम् -
स्याद् व्यावहारिकमथाऽपरसव्यपेक्ष जीवान्निजावरणकर्मलयोपशान्तेः । तस्येन्द्रियोद्भवमनिन्द्रियजन्यमेवं, द्वैविध्यमत्र कथितं जिनतन्त्रविज्ञैः ।। १००९।। तत्रेन्द्रियाण्यभिमतानि नयेऽत्र पञ्च ज्ञानं ततो भवति सद्विषयावभासि । ज्ञानं मनोद्भवमनिन्द्रियजन्यमत्र, यस्मादनिन्द्रियतया मन इष्यते ज्ञैः ||१०१० || न प्राप्यकार्यभिमतं नयनं मनश्चाऽधिष्ठानभिन्नगतवस्तुप्रकाशकत्वात् । श्रोत्रादिकं त्वभिमतं ननु प्राप्यकार्य धिष्ठानदेशगतवस्तुप्रकाशकत्वात् ||१०११। नाऽत्राऽणुमानमपि जैनपदार्थविज्ञे - रिष्टं मनो महदिदं प्रतिपादितं तु । ज्ञानक्रमावरणकर्मलयोपशान्ति - भेदक्रमादुपगतो न मनोऽणुभावात् ॥ १०१२।
अवग्रहादिस्वरूपनिरूपणम्
एतद् द्वयं त्वथ चतुर्विधमार्हताना मेकैकशो मतमवग्रहनामधेयम् । ज्ञानं भवेत् प्रथममक्षघटादियोग्या वस्थानसञ्जनितदर्शनजन्यमत्र || १०१३।। सन्मात्रगोचरमवग्रहपूर्ववर्त्ति, यद् दर्शनं तदिह नैव मतं नवीनैः । किन्त्वक्षपातसमनन्तरमेव सत्त्व व्याप्यप्रकारकमवग्रहज्ञानमिष्टम् ||१०१४।।
-
-
-
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
यच्चेन्द्रियस्य विषयेण समं नयज्ञैः, संयोजनं मतमवग्रहभेदरूपम् । तद्व्यञ्जनं न मनसो नयनस्य चाऽस्ति, योगस्तयोर्नहि मतो विषयेण यस्मात् ।। १०१५।। यः स्यादवग्रहधियाऽवगतो विशेष, ईहाख्यबोध इह तस्य विशेषधर्मैः ।
सम्भावनात्मकतया स च संशयात् स्याद् - भिन्नस्त्ववग्रहभवान्नियमेन पश्चात् ||१०१६।। ईहाग्रहावगतवस्तुविनिर्णयात्मा, बोधस्त्ववाय इति जैनमतप्रसिद्धः ।
तिष्ठन् स एव समयं ननु कञ्चिदत्र, स्याद् धारणा-स्मृतिपटुर्निजशक्तियोगात् ॥ १०१७|| एवं क्रमोत्थनिजकर्मलयोपशान्ते स्तेषां क्रमो भवति किञ्च तथोपलब्धेः । स्यात् पूर्वपूर्वमथवोत्तरबुद्धिहेतु - र्नो साङ्ख्यवत् तु करणक्रमतः क्रमोऽत्र ।।१०१८।। तस्मात् स्थितं सदवगाहिमतिस्तु पूर्वं तस्मान्मनुष्य इति वृक्ष इति प्रकारा । प्राय नेन मिथिलास्थजनेन भाव्यं, सैवाऽयमित्यवगतिक्रम आर्हतानाम् ||१०१९ || यत्राऽपि न क्रमतयाऽवगतिर्जनानामभ्यासगोचरपदार्थप्रकाशकेषु । बोधेषु तत्र शतपत्रविभेदवत् स्याच्छीघ्रोद्भवत्वबलतोऽनुपलक्षणं तु ।।१०२०।।
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ परोक्षप्रमाणनिरूपणम् -
मानं परोक्षमथ पञ्चप्रकारमिष्ट - मस्पष्टता भवति लक्षणमस्य युक्तम् । संस्कारजन्यमनुभूतचरं तदित्या - कारं मतं स्मरणमत्र प्रमाणमाद्यम् ।।१०२१।। ज्ञातार्थभासकतया यदि मानताऽस्य, नेष्टाऽनुमाऽपि तत एव तदा न मानम् । व्याप्तिग्रहो निखिलदेशगसाध्यहेतु - ग्राही यतः प्रथमतो नियमेन तस्याः ।।१०२२।। तन्न्यूनगोचरतया यदि मानताऽस्या - स्तद्वत् स्मृतेरपि भवेन्नहि मानता किम् । यस्मान्न चाऽनुभवगोचरमात्रभास - स्तस्यां समस्ति परमर्थविशेषभानम् ।।१०२३।। यद्वत् प्रमात्वमनुमानमतौ स्वतन्त्रं, तद्वत् स्मृतेरपि न चाऽत्र विशेषलेशः । किञ्च स्मृतिर्यदि प्रमा न भवेत् तदा नो, व्याप्तिस्मृतेरप्रमितेरनुमा प्रमा ते ।।१०२४।। धारावगाहिप्रमितौ न यतोऽस्ति वृत्ति - रज्ञातगोचरमतित्वमलक्षणं तत् । मीमांसकाभिमतमस्य परन्तु पूर्व - सन्दर्शिताद् भवति लक्षणतः प्रमात्वम् ।।१०२५।। भूयः स्मृतेर्भवति किञ्च गुरौ च देवे, भक्तिर्दृढा भवति मित्रगणेषु मैत्र्यम् । स्रेहः सुतादिषु महानधिकस्तु शत्रौ, द्वेषोऽनुभूतिमतितोऽस्य फलं विविक्तम् ।।१०२६।। ज्ञानं भवेदनुभवस्मृतिहेतुकं सा-मान्यादिगोचरकसङ्कलनास्वरूपम् । यत्रोपमादिघटनाऽप्यथ प्रत्यभिज्ञा-नं तत् प्रमाणमपरं जिनतन्त्रसिद्धम् ।।१०२७।। सादृश्यबुद्धिरिह जैमिनितन्त्रसिद्धा - शक्तिप्रमाऽक्षचरणानुमतोपमा या । साऽन्तर्गताऽत्र न भवेदधिकं प्रमाणं, तेनोपमानमिति जैनमतप्रसिद्धिः ।।१०२८।। तस्मादयं विसदृशो गवयस्य शक्यो, नाऽयं स एव स च दीर्घतरस्तथाऽस्मात् । ह्रस्वो लघुर्गुरुरयं स च तस्य पुत्र, इत्यादिका भवति सङ्कलनैव बुद्धिः ।।१०२९।। न ज्ञानलक्षणमतोऽभिमतो जिनानां, संसर्ग इन्द्रियगणस्य तु गौतमोक्तम् । ज्ञानं यतः सुरभिचन्दनमित्यभिज्ञा - रूपं परोक्षमिह न त्वपरोक्षरूपम् ।।१०३०।। वेदान्तिभिः सुरभिचन्दनबोध इष्टो - ऽवच्छेदवृत्तिवशतो द्विविधस्वरूपः । प्रत्यक्षता भवति चन्दनवृत्तियोगात्, सौरभ्यवृत्तिघटनाच्च परोक्षताऽपि ।।१०३१।। सौरभ्यवृत्तिरपि तैः स्मरणस्वरूपा - ऽभ्यस्तस्थलेऽभ्युपगताऽनुमितिः क्वचित् तु । चैतन्यमेकमथ तद्वययोगशालि - ज्ञानं प्रमेत्यभिमतं तदवद्यमेव ।।१०३२।। पूर्वक्रमेण तदुभाववगत्य लोकः, पश्चाद् विशिष्टमवगच्छति धीविशेषात् । यस्मात् ततो भवति तद्व्यतिरिक्तमेव, ज्ञानं परोक्षमथ तद्वयतस्तु जन्यम् ।।१०३३।।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सामान्यधर्मविरहात् स्थिरवस्त्वभावा - नेदं प्रमाणमिति बुद्धसुता वदन्ति । सामान्यसिद्धिबलतः स्थिरसाधनाच्चा - ऽभिज्ञाप्रमाणमिति जैनकुलोद्भवास्तु ।।१०३४।। किञ्चैकताभ्रमनिमित्तमवश्यमेभिः, सादृश्यमभ्युपगतं क्षणिकेषु तत्र । सादृश्यमस्ति यदि तर्हि प्रमाणमेवा - ऽभिज्ञा भवेत् सदृशवस्त्ववगाहिनी यत् ।।१०३५।। सादृश्यमेषु यदि नैव विलक्षणेषु, भावेषु तेऽभिमतमस्ति तदाऽप्यभिज्ञा । मानं विलक्षणतयाऽणुसमूहमेव, यस्मात् प्रकाशयति तेऽपि मते बुधाग्य ! ।।१०३६।। नो वै विलक्षणतयाऽप्यणवो मतास्ते, ते सम्मताः प्रचयमात्रतयैव विद्वन् ! । मानं तथाऽपि प्रचयाल्पमहत्वभासा - ऽभिज्ञा कथं न तव सङ्कलनास्वरूपा ।।१०३७।। नीलादिरूपमणुमात्रमथाऽभिधत्से, तद्पताऽप्यणुगतोपगता किमर्थम् । वैचित्र्यतो मतिगताद् यदि वा मता सा, पूर्वोक्तधर्मघटनाऽपि न किं तथैव ।।१०३८।। स्याद् वासनैव सदृशादिधियोऽनुकूला, नीलादिबुद्धिरपि किं न तयैव ते स्यात् । चित्रा तु सा विषयमन्तरतो मता चेत्, सर्वाऽपि धर्मघटना तव तर्हि मान्या ।।१०३९।। केशादिवस्तुविषया यदि न प्रमाणं, नैतावता भ्रममतिः सकलाऽप्यभिज्ञा । अध्यक्षमेकमनृतं द्विसुधांशुभासं, दृष्टं समग्रमपि तन्न तथैव सिद्धम् ।।१०४०।। यद् दृष्ट्यदृष्टिजनितं नियमस्य साध्य - हेत्वोस्त्रिकालगतयोरवगाहि तत् स्यात् । तर्कप्रमाणमिदमत्र न तं विना स्या - दित्यादिरूपमनुमाप्रमितौ समर्थम् ।।१०४१।। शब्दार्थयोरपि भवेदत एव मानात्, सामस्त्यतोऽवगत आहेतसम्प्रदाये । संसर्ग आप्तवचनोद्भवबोधहेतुः, स्यात् कार्यताधवगमोऽप्यत एव मानात् ।।१०४२।। सामान्यलक्षणमलौकिकसन्निकर्ष, नैवाऽऽमनन्ति चरितार्थमनेन जैनाः । बौद्धाः कुतर्करसिका हतबुद्धयस्तु, नेच्छन्ति तर्कमिह मानतया प्रसिद्धम् ।।१०४३।। तेषां मते घटपटाद्यपि नैव सिद्ध्ये - न्मानं विना नहि प्रमेयगतिः प्रसिद्धा । संवादलिङ्गजनितानुमितिं विना नो - ऽन्ध्यक्षोऽपि सिद्ध्यति प्रमाणतयाऽत्र बोधः ।।१०४४।। नैवाऽनुमा नियतलिङ्गमतिं विना स्यात्, तर्कं विना न नियमग्रह एव कोऽपि । अध्यक्षवोध इह तद्विषयो न यस्मान्-नैवाऽनवस्थितिभयादनुमाऽपि तत्र ।।१०४५।। शून्यत्वपक्षमपि माध्यमिकप्रदिष्टं, मानं विना न च तथैति प्रसिद्धिमार्गम् । सामान्यगोचरतया यदि मानता नो, किं नाऽनुमानमपि तर्हि निरस्तमेभिः ।।१०४६।।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
या चाऽत्र दोषघटना ननु तैरभीष्टा, सर्वाऽपि साऽनुमितिबोधगताऽपि तेषाम् ।
तद्दोषखण्डनप्रकारगतेस्तु तत्रा - ऽऽदिष्टोहगाऽपि सकला परिभावनीया ।।१०४७।। अनुमाननिरूपणम् -
स्याल्लिङ्गबुद्धिनियमस्मृतितोऽनुमानं, साध्यावभासकमिदं द्विविधं च तत्र । स्वार्थं स्वतो भवति यद् वचनं परार्थं, लिङ्गादिकस्य तु भवेदुपचारतस्तत् ।।१०४८।। लिङ्गस्य लक्षणमिहाऽनुपपत्तिरेव, साध्यं विना न तु पराभिमतं त्रिकादि । यस्मात् त्रिलक्षणयुतोऽपि भवेन्न हेतु - स्तामन्तरेण गमकः सुगतानुगानाम् ।।१०४९।। साध्यं त्वबाधितमभीप्सितमप्रतीत - मिष्टं न चाऽन्यदिह लक्षणमस्य युक्तम् । धूमादिना भवति यत्र तु वह्रिसिद्धि - धर्मी स एव ननु पक्षपदाभिलप्यः ।।१०५०।। नो गौतमानुमतमत्र मतं च साध्य - व्याप्यस्य पक्षघटनामननं तृतीयम् ।। हेतुत्वतो भवति किन्तु विनाऽपि तेन, द्वाभ्यां प्रदर्शितदिशाऽनुमितेर्हि जन्म ।।१०५१।। धर्मिप्रसिद्धिरिह जैनमतानुगानां, मानाद् यथा खलु विकल्पमतेस्तथैव । धर्म्यप्रसिद्धिरत एव जिनागमज्ञै - र्दोषत्वतो नहि मता परतन्त्रसिद्धा ।।१०५२।। ये न्यायशब्दत इहाऽभिमता प्रतिज्ञा - हेत्वादयः त्ववयवाः परबुद्धिहेतुः । उद्भावनं जिनमते प्रथितं च तेषां, सामस्त्यतः क्वचिदिह क्वचिदन्यथाऽपि ।।१०५३।। विज्ञः परो यदि तदा ननु हेतुरेव, वाच्यो यतोऽनुमितिरस्य तु तावतैव । व्याप्तिस्मृतेर्जडमतिस्तु परो यदि स्यात्, सर्वेऽपि तस्वयवाः प्रतिपादनीयाः ।।१०५४।। एतेन बुद्धकपिलादिसुतोपगीत - मेकान्ततोऽत्र नियतावयवात्मकस्य । न्यायस्य वाद उपदर्शनमस्तमेषु, न्यूनादिनिग्रहभवोऽपि महाननर्थः ।।१०५५।। गौणं परार्थमनुमानमवैति विद्वान्, लिङ्गादिकावयवकीर्तनमत्र तद्वत् । स्वाध्यक्षगोचरपदार्थमतिप्रवीणं, प्रत्यक्षमप्यथ परार्थमवैति वाक्यम् ।।१०५६।। पश्योदयाचलगतं रविबिम्बमङ्ग, पश्याऽस्तपर्वतगतं शशिबिम्बमेवम् । वाक्यं परार्थमुदितं जिनतन्त्रविज्ञा, अध्यक्षमेव गुणतः समुदाहरन्ति ।।१०५७।। पूर्वं निजस्मृतिपथं समुपागतेऽथ, मेये परस्मृतिकृते वचनं परार्थम् । उक्तं बुधैः स्मरणमेव तु गौणवृत्त्या, मानान्तरेष्वपि च तत् स्वयमूहनीयम् ।।१०५८।। वस्त्वागमे सदसदंशतया जिनानां, सिद्धं द्विरूपमनुमाजनकं च तस्य । लिङ्गं द्विधा विधिनिषेधप्रथाप्रवीण - मुक्तं बुधैस्तदुपलम्भतदन्यभेदात् ।।१०५९।।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
अभावनिरूपणम् -
तत्राऽसदंशवचनेन च तार्किकाणां, भावातिरिक्तविषये विरहादिवाणी । एकान्तवादपरिनिष्ठितबुद्धिभाजां क्षिप्ता नृशृङ्गवचनादिसहोदराऽभूत् ||१०६०|| इष्टश्चतुर्विधतया स जिनानुगानां यः कार्यपूर्वसमये स च प्रागभावः । मृत्पिण्डमेव कलशात् प्रथमं च तत्र, तिष्ठेत् तदात्मकतयाऽभिमतं न चाऽन्यत् ||१०६१।। यन्नाशतो भवति यस्य जनिः स एव सामान्यतो नियमतः स च प्रागभावः । यस्मान्मतः क इह पिण्डविभिन्नरूपो, दृष्टो मृदो भवतु गौतमसम्मतो यः ||१०६२ ।। यज्जन्मतो भवति तस्य निवृत्तिरेव ध्वंसः स एव ननु तस्य मतो जिनानाम् । ध्वंसो घटस्य च कपालकदम्बरूपा दन्यस्ततोऽक्षचरणानुमतो न युक्तः ||१०६३ ||
-
रूपान्तराद् भवति यस्तु विलक्षणः स, आत्मा निजस्य कथितो ननु भेदनामा । नाऽऽधारतः परमयं पृथगेव युक्तो, यो गौतमैरभिहितो ऽनुपलभ्यमानः ॥ १०६४ || कालत्रयेऽपि च जडे ननु चेतनाया, याऽयोग्यता चिति जडस्य च तत्स्वरूपा । तादात्म्यतापरिणतेर्विनिवृत्तिरत्यन्ताभाव इष्ट इह नाऽऽश्रयतोऽतिरिक्तः ||१०६५ || संयोगिनो भवति यो विरहोऽथ यस्य, नाऽऽत्यन्तिकः स तु भवेदिह तस्य किन्तु । संयुक्ततापरिणतेः खलु नाशप्राग भावादिकः स प्रथमोत्तरकालिकायाः || १०६६ || संयोग एव नहि यस्य कदाऽपि यत्र, स्यात् तत्र तस्य विरहो ननु दर्शितोऽपि । संयोगसङ्घटितमूर्तिरयं परन्तु, प्राप्तेस्तु वा भवति सोऽस्खलितप्रचारः ||१०६७॥ किं वा घटादिप्रतियोगिकता जलाद्या - धारानुयोगिकतया सहिता यतो नो । प्राप्तौ ततस्तदुभयोर्विरहस्वभाव - स्तत्तत्प्रतीतिविषयोऽस्त्विह नव्यनीत्या || १०६८ || बोधानतिक्रमणतो विरहस्तु सोऽपि ज्ञेयो बुधैरपरथा न च वस्तुसिद्धिः । स्याद्वादिनः सकलमेव हि वस्त्वनेक रूपं ततोऽत्र कथमैकिकवादयोगः || १०६९ || हेतुनिरूपणम् -
-
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
तुर्बुधैर्य उपलब्धितया प्रदिष्टो द्वैविध्यमस्य गदितं प्रथमोऽविरुद्धः । षोढा विधौ जनकजन्यनियम्यपूर्व - पश्चात्स्वकालचरमुख्यप्रभेदतोऽलम् ।।१०७०।। एतेन सौगतमतं विधिसाधकं तु कार्यस्वभावभजनाद् विविधं निरस्तम् । यस्मादिह प्रथमदर्शितलक्षणस्य, सद्भावतोऽन्यदपि लिङ्गतयैव भाति ॥ १०७१।।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
तत्राऽन्यकारणसमग्रसमन्वितः सन् हेतुर्न कार्यजननेऽनियतोऽत्र यस्मात् । तत्कारणं भवति कार्यमतिप्रवीणं, बौद्धैर्न किं तदपि दर्शितमस्ति शास्त्रे ||१०७२ | रात्रौ रसादनुमितिर्ननु तैर्निरुक्ता, रूपस्य सा भवति हेत्वनुमाप्रणाल्या । यस्मात् तयोः समसमूहसमन्वयेन, तैरेव तुल्यजनकोद्भवता मता च ॥ १०७३ ।। धूमाद्धुताशनमतिस्त्विह कार्यलिङ्गाद्, व्याप्यात् तथा भवति सत्त्वमतिर्गुणादिः । छायादितोऽवगतिरेवमनोकहादे - र्नो तुल्यकालगतयोरिह कार्यतादेः || १०७४ ।। या कृत्तिकोदयबलाच्छकटानुमास्ति, पूर्वाच्च सा सहचरान्न च बौद्धहेतोः । या चाऽनुमा शकटतो ननु कृत्तिकायाः, साऽप्युत्तरात् सहचरान्न तु कार्यलिङ्गात् ।।१०७५।।
या निश्चितात् सहचरादनुमा रसादे, रूपान्न सा सुगतनिश्चितहेतुमात्रात् । तस्माद् विधिप्रवण उक्तदिशा निरुक्तः, सर्वोऽविरुद्ध इह नो द्वयमेव बौद्ध ! ||१०७६ || अन्त्यो विरुद्ध इह सप्तप्रकारकोऽस्ति, तैः स्यान्निषेधविषयाऽनुमितिस्ततश्च । बौद्धैस्त्वभावविषयानुपलब्धिमात्राद्, या सम्मताऽनुमितिरत्र न सैव मान्या ||१०७७ || साक्षाद् विरुद्ध इह चाऽऽद्यप्रकार इष्टः, स्याद्वाद आर्हतमतो ननु दुर्नयानाम् । एकान्तवादनिकरप्रतिषेधवोधो, यस्मात् ततो भवति तत्त्वप्रबोधहेतुः ॥ १०७८।। अन्ये विरुद्धजनकादिविभेदतः स्युः, पूर्वप्रदर्शितदिशा षडिति प्रधार्यम् । हेतुस्तथाऽऽर्हतमतेऽनुपलब्धिरूपो, द्वैविध्यवान् विधिनिषेधमतिप्रवीणः || १०७९॥ तत्राऽविरुद्धविषयानुपलब्धिहेतुः स्याद् यस्य तस्य स निषेधमतौ समर्थः । अन्यो विरुद्धविषयानुपलब्धिरूपो, हेतुर्विधायकतयाऽभिमतो जिनानाम् ||१०८०।। ज्ञेयः स्वभावसहकालिकपूर्वकाल - पाश्चात्यकार्यजनकाधिकवृत्त्यभावैः ।
आद्यो निषेध्यविषयस्य तु सप्तभेदो, हेतुर्निषेधगमको मत आर्हतेऽस्मिन् ॥१०८१॥ इष्टः स्वभावसहकालिकहेतुकार्य - न्यूनाश्रयापगमभेदत आर्हतानाम् । अन्त्यो विरुद्धविषयस्य तु पञ्चभेदो, विध्यङ्गतापरिगतोऽनुपलव्धिहेतुः || १०८२ ।। दृष्टान्ततः स्वयमिहाऽऽकलयन्तु विज्ञा, भेदान् विशेषविषयान् ननु किञ्च वादे । बौद्धान् स्वभावनियतानुपलब्धिहेतु - प्रोक्तृन् जयन्तु भजनानियतप्रकारैः || १०८३॥ आगमप्रमाणनिरूपणम्
,
स्यादाप्तवाक्यजनितोऽन्वयबोधनामा, व्याप्त्यादिबोधविरहेऽपि च जायमानः । मानान्तरत्वनियतोऽननुमादिधीत्वात्, वैशेषिकाविहत आगम आर्हतानाम् || १०८४||
८५
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६
शब्दे तु मानवचनं नहि मुख्यवृत्त्या, किन्तूपचारबलतो जनताप्रसिद्धम् । यस्मादनिन्द्यमुपयोगगतं प्रमाण त्वं नाऽन्यनिष्ठमिति जैनमतप्रसिद्धम् ||१०८५ ||
-
वाच्यं यथास्थितमबाधितमेव बुद्ध्वा ज्ञानानुसारिवचनं य इहाऽभिधत्ते ।
आप्तः स एव वचनं च तदुक्तमेवा
शब्दपौद्गलिकत्वविचारः
भेदादलौकिक इहाऽभिमतो जिनादिः ।
आप्तो द्विधा भवति लौकिकतद्विभिन्न पित्रादिको भवति लौकिक आप्तवाक्यो क्त्या नित्यशब्दमतखण्डनमिष्टमत्र || १०८७ ।।
शब्दार्थसम्बन्धविचारः
-
-
-
-
तत्खण्डनं प्रथममेव तु मानसामा न्यस्याऽभिधानसमये कृतमत्र युक्त्या ।
जन्योऽपि वर्ण इह पौद्गलिको जिनाना - मिष्टो न गौतमसुताभिमतो गुणात्मा || १०८८ || निःस्पर्शतानिबिडदेशप्रवेशितादेः, पूर्वोत्तरावयवदर्शनशून्यतातः ।
चेत् सूक्ष्ममूर्तचलनाननुकूलतातः, शब्दो न पौद्गलिक इत्यतिमन्दमेव ।। १०८९।। आद्ये सिद्धिघटनामल एव हेतौ वाग्वर्गणाधिकरणं न तु खं च कादेः । स्पर्शाश्रयाश्रिततया तदभावरूपो, निःस्पर्शतापदमतो न च हेतुरत्र ।। १०९० ।। स्पर्शाश्रयत्वमनुमामतितः प्रसिद्धं, शब्दाश्रयेऽनुपवनप्रतिकूलवातैः । दूरस्थसन्निहितदेह्युपलम्भभावा भावाश्रयाश्रयतया तु मृगाण्डवद् वः ||१०९१।। अर्हद्वचः प्रमितमेव जिनानुगानां, स्पर्शाश्रयत्वमिह नाऽनुमया प्रसाध्यम् । आप्तागमे स्फुरति को जडबुद्धिभिन्नो, मानान्तराश्रयणतत्पर ईक्षितो ज्ञैः ||१०९२ ॥ हेतुर्द्वितीय इह नाऽव्यभिचारिरूपो, गन्धाश्रयेण ननु यद्व्यभिचारिताऽस्य । सौदामिनीप्रभृतिभिश्च तथा तृतीयो, धूमेन तुर्य इह किं न तथैव दुष्टः ।। १०९३ ।। शब्दे भवेत् खगुणता यदि तर्हि तेन, स्यात् तस्य पौद्गलिकताविरहप्रसिद्धिः । रूपादिवन्न खगुणो बहिरिन्द्रियेण ग्राह्यत्वतो भवति चर्मदृशां तु शब्दः ||१०९४ ।। रूपादिवद् भवति पौद्गलिकस्तु शब्दो, बाह्येन्द्रियग्रहणता न तमन्तरेण । आकाशसिद्धिरवगाहनहेतुभावा ज्जैनागमे न तु तदाश्रिततादिसिद्ध्या ।।१०९५।।
-
-
ऽसंवादिताविरहतो भवति प्रमाणम् ||१०८६||
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
-
-
स्वाभाविकार्थगमिका ननु शक्तिरर्थे, शब्दस्य सा समयतोऽवगताऽत्र हेतुः । सङ्केतमात्रबलतोऽर्थप्रकाशको न, शब्दो न वाऽर्थरहितः सुगतप्रसिद्ध्या ||१०९६।।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
इच्छैव तार्किकमता समयाभिधाना, नेशस्य सा त्विह हि जैमिनिसंश्रितानाम् । शब्दात् तथा सति भवेन्नहि शाब्दवोधः, किन्त्वस्मदादिसदृशस्य भवेत् तथा च ।।१०९७।। शब्दोऽर्थबोधकतया पुरुषेण यद्वत्, सङ्केतितस्तदिव तद्गमकत्वतश्चेत् ।। सङ्केतितोऽर्थ इह तर्हि विपर्ययेण, स्याद् वाच्यवाचकघटा न तयोर्मता किम् ।।१०९८।। नाऽस्मन्मते भवति पर्यनुयोगयोगः, शक्त्या व्यवस्थितिघटाप्रसरोऽस्ति यस्मात् । शब्दार्थहेतुबलतो जननं च तस्याः, शक्तिद्वयात्मकतया न विरोधमेति ।।१०९९।। " प्रत्येकशोऽपि पटकुम्भमठदिशब्दाः, शक्ता घटादिषु पदार्थकदम्बकेषु । स्वव्यञ्जकैस्तु समयैर्नियतार्थनिष्ठैः, स्युस्तेऽपि तन्नियतबोधविधानदक्षाः ।।११००।। एतेन शक्तिरिह वास्तविकी घटादि - शब्दस्य ते यदि घटादिषु तर्हि न स्यात् । एकस्य भिन्नसमयेन विभिन्नदेश - माश्रित्य भिन्नविषयत्वमिति प्रभग्नम् ।।११०१।। सामान्यमात्रमथ जैनमते न शक्यं, नो वा विशेष उभयात्मकमेव वस्तु । स्याद्वादतश्च शबलात्मकमेकतादे - नों तत्र दोषघटना सुगतानुगानाम् ।।११०२।। शब्दा विकल्पजनने निपुणा न चाऽत्र, वस्तुस्वलक्षणमपि प्रभवोऽभिधातुम् । दृश्यं स्वलक्षणमतो न विकल्पभास्यं, शक्तिग्रहोऽपि न च तत्र भवेद् विकल्पात् ।।११०३।। किञ्चाऽनुगाम्यपि न तत् तत एव तत्र, सङ्केतसंस्करणमप्यफलं प्रतीमः । एवं क्षणैकनियते ग्रहसव्यपेक्षो, दुःशक्य एव समयः स्थिरपक्षबाधात् ।।११०४।। सामान्यमेकमपि न प्रमितं विकल्प - ग्रासान्न वृत्तिरपि तस्य भवेत् क्वचित् तु । अर्थक्रियाऽपि मतितो न भवेद् विभिन्ना, किञ्चाऽस्य तेन समयः फलवान्न चाऽत्र ।।११०५।। प्रत्येकपक्षपरिदर्शितदोषजालो, यस्माद् भवेदुभयपक्षगतस्ततो न । स्यात् तद् द्वयं च निरुपद्रवमत्र वाच्यं, नो वाचकं भवति वस्तु तथैव नीत्या ।।११०६।। शब्दार्थयोर्भवति कोऽपि न तात्त्विकः सं-सर्गो यतो भवतु तेन मतिश्च तस्य । इष्टः स चेद् भवति तर्हि स जन्यभाव - स्तादात्म्यरूप उत वा नहि तात्त्विकोऽन्यः ।।११०७।।
अन्त्येऽर्थरूप इह ते यदि शब्द इष्टः, कण्ठदितो नहि तदाऽस्य भवेत् प्रवृत्तिः । कियाऽर्थपूरितमिदं भुवनत्रयं स्या - च्छब्दप्रपूरितमहर्निशमेव तस्मिन् ।।११०८।। .. प्रत्यक्षबाध इह दुर्धर एव दोषो, दण्डादितो घट इवाऽत्र न तस्य शब्दः । नो चक्षुषा घटविलोकनकाल एव, तद्वाचकं च ननु पश्यति कोऽपि जन्तुः ।।११०९।।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ शब्दात्मकोऽपि न भवेदत एव चाऽर्थो, वैरूप्यदर्शनभयो [भयत्र तुल्यः । किञ्चाऽग्निदुग्धतुरगादिपदप्रवृत्तौ, दाहादिकं मुखगतं तदभेदतः स्यात् ।।१११०।। दोषादतो भवति नैव च शब्दतोऽर्थो, नाऽर्थाच्च शब्दघटना तत एव दोषात् । आद्योऽपि पक्ष इह तेन भवेद् व्युदस्तः, शब्दार्थयोर्जननमन्यत एव यस्मात् ।।११११।। अर्थोद्भवो यदि तु शब्दत आदृतः स्याद्, दारिद्र्यशून्यमखिलं जगदेव तर्हि । शब्दस्य चाऽर्थवलतो यदि जन्म मान्यं, कादम्बरीप्रभृतिकाव्यभवो न तर्हि ।।१११२।। तस्मादपोहविषयैव च शब्दतो धी - रर्थक्षयाद् भवति नैव प्रमाणमेषा । नाऽपोह इष्ट इह बाह्यपदार्थरूपः, स्यात् कल्पनात्मकतया प्रतिविम्बनात्मा ।।१११३।। शब्दस्य तेन सह कारणभाव एव, संसर्ग इष्ट इह सौगतसम्प्रदाये । जन्यत्वपर्यवसितैव तु वाच्यताऽत्र, हेतुत्वपर्यवसितं ननु वाचकत्वम् ।।१११४।। वाच्यत्ववद् भवति वाचकताऽप्यपोहे, शब्दे स्वलक्षणतया न च सोक्तनीत्या । तादात्म्यविभ्रमवशादुभयोस्त्वपोहात्, स्याद् वाच्यवाचकतयाऽवगतिश्च लोके ।।१११५।। इत्यादिकं जिनमतेऽप्यनुकूलमेव, एकान्तवादमतखण्डनयुक्तिजालम् । बौद्धप्रदर्शितमतो न च शाब्दबोधो - ऽनेकान्ततत्त्वविषयेष्वपि नैव मानम् ।।१११६।। एकान्तवस्तुनि भवेद् यदि शक्तियोगो, नो तावता भवतु तस्य निराक्रियाऽत्र । स्याद्वादभूषितपदार्थकदम्बकेषु, नो कश्चिदप्यनुपपन्नतयाऽस्ति भावः ।।१११७।। अर्थप्रकाशजनकत्वमनन्यलभ्यं, स्वाभाविकं भवति दीपवदस्य किन्तु ।
याथार्थ्यतादिघटना गुणदोषजन्या, स्याच्च प्रणेतृपुरुषादिपरव्यपेक्षा ।।१११८।। सप्तभङ्गीविचारः -
एकान्तवादिवचनं तत एव सप्त - भङ्गात्मकत्वविरहान्न यथार्थरूपम् । स्याद्वादलाञ्छितपदार्थमतिप्रवीणा, मानात्मना परिणता त्विह सप्तभङ्गी ।।१११९।। सा प्रश्नतो विधिनिषेधनयोर्विवेक - सामस्त्यतो विविधकल्पनयाऽविरोधात् । स्यात्कारलाञ्छितवचोघटनाऽत्र यस्मात्, स्यात् सप्तधैकविषये प्रतिधर्ममेव ।।११२०।। वाक्येऽवधारणमनुक्तमपीष्यते ज्ञैः, स्यादन्यथाऽनभिमतार्थनिवारणं नो । तत्त्वे निरर्थकतया जलताडनादि - तुल्यं वुधः क इह तं तु वदेत् परार्थम् ।।११२१।। कुम्भोऽस्ति नाऽस्त्युत किमित्यपरेण पृष्टो, वाद्यस्ति नाऽस्त्युभयमेव वदन् प्रमाता । स्याद्वादतो भवति सप्तनयावलम्बी, नैकान्ततो भवति नीतिपथावलम्वी ।।११२२।।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
स्यादस्ति कुम्भ इति यः प्रथमोऽत्र भङ्गः, स्वद्रव्यभावसमयाश्रययोगतः सः । स्यानास्ति कुम्भ इति योऽभिमतो द्वितीयो - ऽन्यद्रव्यभावसमयाश्रयसंश्रयात् सः ।।११२३।। स्यादस्ति नाऽस्ति च घटोऽभिमतस्तृतीयो, भङ्गः क्रमादुभययोगनिरूपकाभ्याम् । तद्धर्मयोर्विधिनिषेधनयोर्विवक्षा - वैचित्र्यतोऽत्र परप्रश्नवशाच्च युक्तः ।।११२४।। यत्रोभयोर्युगपदेव भवेद् विवक्षा - ऽवक्तव्य एव घट इत्यपरानुयोगात् । भङ्गश्चतुर्थ उभयोश्च निरूपकाभ्यां, स्यात्कारलाञ्छिततनुर्ननु तत्र बोध्यः ।।११२५।। भङ्गत्रयेण सह प्रश्नविशेषतस्तु, तुर्यस्य सङ्घटनतोऽत्र भवन्ति भङ्गाः । अन्त्ये त्रयो निजनिरूपकभेदयोगैः, प्रत्येकशी जिनसुताभिमता विविक्ताः ।।११२६।। तुर्यस्य चाऽऽद्यघटनान्ननु पञ्चमः स्यात्, षष्ठो द्वितीयघटनात् तु मतो जिनानाम् । भङ्गो मतस्त्विह तृतीयविमिश्रणेन, ज्ञैः सप्तमो न च ततोऽप्यधिकोऽस्ति भङ्गः ।।११२७।। यस्माद् द्वितीयघटनात् प्रथमस्य सिद्धो, भङ्गस्तृतीय इति तेन भवेन्न भिन्नः । अन्यस्य सङ्घटनतः पुनरुक्तता स्यात्, सिद्धोऽथवा भवति भङ्ग इतीष्यते नो ।।११२८।। स्यादव्ययं पदमतो यदि नोक्तिरस्या - ऽनेकान्ततावगमकस्य तदोक्तभङ्गाः । सत्त्वादिकं घटपटादिगतं यथा स्वै - द्रव्यादिभिः परगतैश्च तथा वदेयुः ।।११२९।। कुम्भादिकस्य निजरूपहतिश्च तत्त्वे, सर्वात्मता भवतु वा न ततो व्यवस्था । स्याच्छब्दसङ्घटनतस्तु कथञ्चिदेव, सत्त्वादिकावगमका न तु सर्वथा ते ॥११३०।। यत् सत्त्वमत्र निजधर्मवशात् तदेवा - ऽसत्त्वं परैरिति भवेत् प्रथमान्न भिन्नः । भङ्गो द्वितीय इति तन्नियता न चाऽन्ये, भङ्गा इहेति सुगतानुगताः पठन्ति ।।११३१।। तेषां कथं निजमतक्षतितो न भीती, रूपत्रयं भवति लिङ्गगतं न यस्मात् । तत्राऽपि साध्यवति यद् गमकस्य सत्त्वं, तत् स्याद् विपक्षगणतो नियमादसत्त्वम् ।।११३२।। किञ्चैकता यदि तु भावनिषेधयोः स्या - न स्यात् प्रवृत्तिरिह नैव निवर्तनं तत् । भावो यतो न च निषेधविभिन्नरूपो, नो वा निषेध इह भावविभिन्नरूपः ।।११३३।। कुम्भोऽयमित्यवगतेस्तु प्रवृत्तिरिष्टा, सत्त्वे तु सा भवितुमर्हति न त्वसत्त्वे । कुम्भो न चाऽयमिति बुद्धिवलानिवृत्ति - रेकान्तसत्त्वमनने न भवेच्च तद्वत् ।।११३४।। अव्याप्यवृत्तिविषयोपगमे तु युक्ता - ऽवच्छेदकस्य नियतस्य सदादिभावे । संयोजना विधिनिषेधनयोर्विरोध - रक्षार्थमत्र न तु तद्विपरीतपक्षे ।।११३५।।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सत्त्वं तथा च सुगतादिमते घटादे - रेकान्ततः सकलधर्मवलात् प्रसक्तम् । किं वा ह्यसत्त्वमनयोर्नहि पक्षयोस्तु, वृत्तिनिवृत्तिरुत वा विषयापहारात् ।।११३६।। नन्वस्तिता यदि तु तार्किकगोत्रसिद्धा, सत्तात्मिका तव मता परजातिरत्र । सा व्याप्यवृत्तिकतयैव कथं करोत्व - वच्छेदकस्य नियतस्य तदा व्यपेक्षाम् ।।११३७।। स्वस्मिन्न सा न च तथाऽन्यसमानभावे - ष्वस्तित्वबुद्धिरपि तत्र कथं घटेत । उत्पत्त्यवस्थितिलयत्रितयस्वरूप - मस्तित्वमिष्टमथ चेत् स्वमतावलम्बात् ।।११३८।। नो तर्हि युज्यत इदं त्रितयं घटत्वा - घेकैकधर्मबलतो न मतं यतस्ते । यस्मात् त्रयोऽपि मिथ एव विरोधशीला, एकत्र धर्मिणि विना न विभिन्नधर्मः ।।११३९।। वृत्तित्वमिष्टमथ कालनिरूपितं ते - ऽस्तित्वं तदा स यदि तार्किकगोत्रमान्यः । सिद्धान्तभङ्ग इह तर्हि महाननर्थो, दोषः पतेत् त्वयि भवेच्च न कालगं तत् ।।११४०।। स्याद् वर्तनात्मकतया निजतन्त्रसिद्धः, कालस्तथाऽपि न च स व्यतिरिक्तरूपः । किन्त्विष्यते नवपुराणतयोपलभ्य - मानो घटादिरिति ते न निजात्मनिष्ठाः ।।११४१।। सा वृत्तिताऽधिकरणात्मकदेशतोऽथा - ऽभीष्टाऽस्तिता तव बुधाग्य ! निरूपिता या । द्रव्येष्वनंशिषु तदा न च तस्य योगो, यस्मादनाश्रिततया प्रमितानि तानि ।।११४२।। स्वक्षेत्रतोऽपि तव किञ्च घटादिभावे - ष्वस्तित्वमिष्टमिह तन्न भवेच्च युक्तम् । क्षेत्रं यतोऽधिकरणापरनामधेयं, स्वापेक्षमेव न भवेनिजवृत्तितायाम् ।।११४३।। अस्तित्ववान् घट इहाऽभिमतो घटत्वाद्, यैस्तेऽक्षपादमत दर्शित एव मार्गः । स्यात्कारशब्दबलतोऽपि न चाऽऽद्यभङ्गे, एकान्ततत्त्वमननादधिकं प्रविष्टम् ।।११४४।। यश्च द्वितीय इह तेऽभिमतोऽस्ति भङ्गो, वेदान्तिदर्शनमतादधिको न सोऽपि । वेदान्तिभिर्ननु पटादिसमानधर्मैः, कुम्भाश्रयत्वविरहो घटवत्यपीष्टः ।।११४५।। भङ्गद्वये प्रतिहते न भवन्ति चाऽन्ये, भङ्गा यतस्तदुभयाश्रयणात् प्रवृत्ताः । इत्यादिकं जिनमतानवबोधलब्धं, ध्यान्ध्यं परे प्रकटयन्ति कुमार्गगत्या ।।११४६।। पूर्वप्रदर्शितविकल्पभरैः किमिष्टं, सत्त्वादिकं घटगतं न प्रतीयते वा । नाऽव्याप्यवृत्ति किमु वा न च दर्शितार्थ - भिन्नस्वरूपमथवा तदवाच्यमेव ।।११४७।। आद्यः समस्तजनसिद्धप्रतीतिलोप - भीत्यैव नो बुधवरैः समुपासनीयः । आदानहानविषयौ भवतो न यला - वेकान्ततत्त्वमनने न ततो द्वितीयः ।।११४८।।
:
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
बाधां विनैव न च सत्त्वमतिर्नयज्ञै - ौन्तेति बोधविषयोऽभ्युपगन्तुमिष्टा । तस्मादवश्यमवलम्व्य यथार्थमर्थ - मेषोद्गतेति सकलप्रतिपन्नमेतत् ।।११४९।। उक्तेषु सत्त्वनिकरेषु यदाऽस्ति दोषः, सत्त्वं तदा भवतु किं न च तैर्विभिन्नम् । स्यादस्ति भङ्गविषयो न ततस्तृतीयः, पक्षोऽपि मान्य इह तत्त्वपरीक्षकाणाम् ।।११५०।। पक्षश्चतुर्थ इह चेद् यदि वाद्यभीष्टः, सामान्यतो भवति किं तदवाच्यमत्र । किं वा विशेषत इति प्रथमो न युक्तः, सत्त्वादिशब्द इह तत्प्रतिपादको यत् ।।११५१।। अन्त्ये विशेषवचनाप्रतिपादनेऽपि, क्षीरादिगा मधुरतेव न तस्य लोपः । विध्यात्मता घटपटादिकवस्तुरूप - मग्नाऽस्तिशब्दत इहाऽभिमता जिनानाम् ।।११५२।। वस्तूच्यते विधिनिषेधकरम्वितं झै - रंशाविमौ तु भवतोऽस्य निजस्वरूपौ । स्यात्कारयोजनबलादविरोधतस्तौ, भङ्गद्वयेन प्रथितौ भवतो नयज्ञैः ।।११५३।। वस्त्वंशवोधकतयाऽभिमतास्तु भङ्गा, अन्येऽपि वस्त्ववगतिस्त्विह सप्तभङ्गया । नो गौतमादिमततोऽप्यविशेषताऽत्र, वस्त्वंश एव ननु वस्तुतया मतस्तैः ।।११५४।। आपेक्षिके यदि तु वस्तुगतेंऽशमात्रे - ऽवच्छेदकत्वमपि तस्य तदा त्वपूर्वम् । द्रव्यादिगं प्रमितितोऽवगतं तदेव, नो तार्किकादिभिरभीष्टमनन्यसिद्धम् ।।११५५।। तैर्जात्यखण्डसमभावविभिन्नमात्रे - ऽवच्छिन्नतानियममात्रबलाद् घटादौ । सामान्यमभ्युपगतं ननु वृत्तिताद्य - वच्छेदकं न तु जिनाभिमतं तदेव ।।११५६।। अव्याप्यवृत्तिघटना ननु यादृशस्या - ऽवच्छेदकस्य मननादभिमन्यते तैः । अस्तित्वधर्मभजनाऽपि च तादृशेना - ऽवच्छेदकेन प्रथिता जिनसम्प्रदाये ।।११५७।। तैः किन्तु देशसमयद्वयमात्रमेवा - ऽवच्छेदकं प्रथितमीदृशमार्हतैस्तु । धर्मादयोऽप्यभिमता अनुभूतिसिद्धा, एतादृशा इति कथं मतयोर्न भेद: ।।११५८।। वृत्तित्वरूपमपि तेन यदीष्यतेऽत्रा - ऽस्तित्वं तदाऽपि न च दोषगणप्रचारः । तद्वृत्तिता भवति तेन निरूपिताऽप्य - वच्छेद्यभावनियताऽनुमता परैस्तु ।।११५९।। व्याप्तिस्वरूपमननावसरे हि सार्व - भौमैः प्रदर्शितमिदं वचनान्तरेण । तद्युक्तितो भवति देश इव स्वकाले, वृत्तित्वमस्तिपदवाच्यमदुष्टमेव ।।११६०।। उत्पत्त्यवस्थितिलयात्मकताऽपि सत्ता, स्यादस्तिता यदि तदाऽपि न दोषपङ्कः । एकक्षणे त्रितयमस्ति विभिन्नधर्मः, प्रत्येकशः समुदयात् तु निरुक्तरूपैः ।।११६१।।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ यद्वर्तनात्मकतया निजसंश्रयेण, कालास्तिता नहि घटादिषु तन्न युक्तम् । नो सर्वथा जिनमतेऽनुमतो ह्यभेदो, भेदोऽपि किन्तु तत एव कथं न सा स्यात् ।।११६२ ।। स्यादस्ति भङ्ग उपपद्यत एव तस्माद्, वस्त्वंशबोधकतया प्रथमो जिनानाम् । नैव द्वितीय इह वेदमतप्रवेशाद्, भङ्गोऽप्यसिद्धिकवलायत आर्हतानाम् ।।११६३।। यद्यप्यभावघटना प्रतियोग्यवृत्ति - धर्मेण तैरपि मता व्यवहारकाले । मिथ्यात्वमप्यखिलगं तत एव तेषां, सिद्धिं प्रयाति विरहय्य न तं यतस्तत् ।।११६४।। स्वाधारनिष्ठविरहप्रतियोगितैव, मिथ्यात्वमिष्टमखिलानुगतं च तेषाम् । तत्पारमार्थिकतया विरहं घटादे - रादाय सिद्ध्यति सतो व्यवहारकाले ।।११६५।। अद्वैतहानिभयतः स च केवलात्मा - ऽऽधारस्वरूप उपदर्शित एभिरत्र । एवं च जैनमततुल्यतया प्रतीति - रस्त्येव तस्य विबुधाग्य ! तथाऽपि नैवम् ।।११६६।। यस्मादभाव इह तैर्द्विविधः प्रदिष्ट, एकस्तु तत्र चितिरूपतयैव सिद्धः । अन्यो घटादिविरहो व्यवहारतो य - स्तत्साम्यता भवति जैनमते न चैव ||११६७।। यस्मादयं घटपटादिवदेव माया - जन्यो मतोऽधिकरणाद् व्यतिरिक्तरूपः । प्राचीनपद्धतिसमाश्रयणेऽप्यभेदै - कान्तस्ततो भवति कल्पितभेदमूर्तिः ।।११६८।। जैनैर्मतोऽधिकरणेन समं तु तस्य, भेदोऽप्यभेद इव तुल्यतयाऽविशेषात् । द्रव्यादिनाऽपि च तथैव गुणादिकस्य, भेदो न कल्पिततया श्रुतिवादिवत् तु ।।११६९।। वस्त्वंशताविधिनिषेधनयोर्न तेषा - मिष्टा परन्तु तदुभावपि वस्तुभूतौ । एवं च धर्मविधयैव मतं च धर्मे - ऽवच्छेदकत्वमपि तैः प्रतियोग्यवृत्तौ ।।११७०।। तस्मिन् द्विधा भवति जैनमते तु धर्मे - ऽवच्छेदकत्वमविगानतया प्रसिद्धम् । एकं तु धर्मविधयोभयसिद्धमन्य - दव्याप्यवृत्तिघटनाभजनानिमित्तम् ।।११७१।। यस्मादसत्त्वमिह नैव पटादिभाव - मात्रेण कुम्भगतमिष्टमितोऽन्यथाऽपि । द्रव्यादिभिस्त्वभिमतं तत एव सप्त - भङ्गी मता जिननये तु सहस्रभङ्गी ।।११७२ ।। एकं तु धर्ममधिकृत्य मताऽत्र सप्त - भङ्गी बुधैर्विधिनिषेधविवक्षया वै । वस्त्वंशमेकमधिकृत्य हि सप्तधैव, शङ्का तथैव वचनं च तथैव युक्तम् ।।११७३।। यद्धर्मयोर्विधिनिषेधनयोर्विरोधा - देकत्र वस्तुनि घटा न विना निमित्तैः । भिन्नैस्ततोऽधिकरणादिगमन्यदेवा - ऽवच्छेदकत्वमिह यन्ननु तच्च धर्मे ।।११७४।।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
धर्मोऽपि नो नियमतः प्रतियोग्यवृत्ति - नास्तित्वसङ्घटनतत्पर आर्हतानाम् । धर्मांशमात्रमवलम्ब्य भवेच्च येन, भने द्वितीय इह वेदनयप्रवेशः ।।११७५।। सद्व्यतादिषु घटादिगतेषु सत्सु, वक्ता विवक्षति यमेव प्रधानभावात् । तेनाऽस्ति कुम्भ इह न त्वविवक्षितेन, नास्तित्वमिष्टमत एव भवेच्च तेन ।।११७६।। नो कल्पनारचित एव विवक्षयाऽस्ति, धर्मो यतो भवतु संवृतिसत्त्वमत्र । वस्त्वंशताश्रयतया स्थित एव धर्मे, स्याद्वादतो विभजना तु विवक्षयैवम् ।।११७७।। इत्थं व्यवस्थित इहाऽऽश्रयकालद्रव्या - वच्छेदकैरपरवस्तुगतैर्द्वितीयः । भङ्गो न वेदनयसम्मत एवमन्या - ऽवच्छेदकत्वमननादथ धर्मतोऽपि ।।११७८।। वस्त्वंशगोचरतया तु यदा प्रसिद्धौ, भङ्गौ तदा न कथमत्र तृतीयभङ्गः । पूर्वप्रदर्शितदिशोभययोगसिद्धो, ह्यशान्तरावगमहेतुरनन्यलभ्यः ।।११७९।। धर्मद्वयस्य युगपत् तु विवक्षितस्य, प्राधान्यतः किमपि नो वचनं यतोऽस्ति । वस्त्वंशतामुपगतस्य चतुर्थभङ्गो - ऽवक्तव्यरूप इह तत्प्रतिपत्तिभेदात् ।।११८०।। नन्वत्र वेदनय आगत आर्हतानां, यस्मादनिर्वचनमिष्टमिदं तु विश्वम् । दृश्यं यथा श्रुतिविदां भवतां तथैव, नो चेद् विशेष इह कोऽपि निरूपणीयः ।।११८१।। नोच्चैरिदं श्रुतिविदा वचनीयमार्हत् - स्याद्वादतत्त्वमनने सकलस्य यस्मात् । इष्टा नयस्य घटना भजनाविदां किं, नैकान्तताऽनभिमता परमत्र तत्त्वात् ।।११८२।। वस्त्वंश एव वचनाविषयत्वमिष्टं, किञ्चाऽत्र जैननयवर्त्मनि तुर्यभङ्गात् । नो वै तथा श्रुतिविदां मतमीदृशं त - न्मिथ्यात्वलक्षणतयाऽनुमतं परन्तु ।।११८३।। तैः सर्वथैव सदसत्त्ववियोगरूपा - वक्तव्यता त्वभिमता ननु मायिकेषु । जैनैः पुनः सदसदात्मकवस्तुनिष्ठा - ऽवक्तव्यता तदतिरिक्ततयैव गीता ।।११८४।। अंशः स चाऽपि वचनीयतया - ऽभ्युपेतोऽवक्तव्यशब्दरचना ननु तत्र यस्मात् । एकान्तवादमनने तु चतुर्थभङ्गो, व्याघाततो नहि भवेदुपदर्शनीयः ।।११८५।। भङ्गत्रयं तदपरं त्वथ पूर्वयोगात्, तुर्यस्य यज्जिनमतं तदपि प्रसिद्धम् । पूर्वप्रसिद्धिबलतोऽधिगतांशभिन्नां - शानां प्रबोधजनकं भजनान्वितं च ।।११८६।। वस्त्वंशगोचरतया प्रतिधर्ममेषा, वस्तुप्ररूपकतयैव विवक्षया वै । तस्मात् स्थिता विधिनिषेधनयोः परेषां, सन्देहनाशनिपुणा ननु सप्तभङ्गी ।।११८७।।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
९४
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ धर्मान् समादिशति वस्तुगतानशेषा - नैक्यस्य पर्ययनयादुपचारवृत्त्या । द्रव्यार्थतस्तदपृथक्त्वप्रधानभावा - देषा नयानुगमना प्रतिभङ्गमेव ।।११८८।। कालात्मरूपगुणिदेशफलस्वदेश - संसर्गबन्धवचनैः प्रथिताऽष्टभिः सा । द्रव्यार्थपर्ययनयार्पणतो ह्यभेद - भेदौ प्रधानगुणवृत्तित आदिशन्ती ।।११८९।। कालो य एव खलु वस्तुगतस्य चैक - धर्मस्य सैव तदभिन्नतया परेषाम् । द्रव्यार्थतो भवति तेन समस्तवस्त्वं - शज्ञापकोंऽशविषयोऽपि सदादिभङ्गः ।।११९०।। अस्तित्वनिष्ठमिह यत् खलु धर्मतादि, तन्नास्तितादिगतमात्मसमानभावात् । द्रव्यार्थतो भवति तद्गुणताऽविशिष्टा, धर्मेष्वभेदत इतोऽपि समग्रबोधः ।।११९१।। एकस्य यस्तु गुणिदेश इह प्रसिद्धो - ऽन्येषां स एव गुणिदेशसमानभावात् । द्रव्यार्थतो भवति चैकमुखेन भङ्ग, एकोऽप्यशेषघटनावगतिप्रवीणः ।।११९२ ।। यत् स्वानुरागकरणं फलमेकधर्मा - दत्राऽस्ति धर्मिणि तदेव विशेषणत्वात् । धर्मान्तराच्च सकलस्य फलैक्यभावाद्, द्रव्यार्थतोऽवगमकोऽभिदयैकभङ्गः ।।११९३।। एकस्य देश इह यो निखिलस्य सैव, द्रव्यार्थतो भवति देशसमानभावात् । धर्मेषु चैक्यमत एकमुखेन सर्वा - नेकोऽपि बोधयति भङ्ग इति प्रमाणम् ।।११९४।। संसर्ग इष्ट इह यो निजदेशतो वै, एकस्य सैव निखिलस्य तदेकभावात् । द्रव्यार्थतो निखिलधर्ममतिप्रवीण, एकोऽपि दर्शितदिशाऽभिदयैव भङ्गः ।।११९५।। सम्बन्ध एवमिह वस्तुगतः सदादे - रेकस्य यो भवति सैव परस्य नाऽन्यः ।। द्रव्यार्थतो जिननयेऽभिदया प्रधाना - देकोऽपि सर्वघटनागमकोऽत्र भङ्गः ।।११९६।। संसर्गतो भवति यद्यपि नाऽस्य भेदा - भेदात्मकत्वसमभावतयाऽत्र भेदः । भेद: प्रधान इह नैव परन्त्वभेदः, किं तावता भवति नैव तथाऽपि भेदः ।।११९७।। यश्चाऽस्तिशब्द इह सत्त्वविशिष्टरूपे, इष्टः स एव निखिलात्मनि तत्र शक्तः । द्रव्यार्थतो वचनशक्तिसमानभावा - देकोऽपि चैकमुखतो निखिलेषु भङ्गः ।।११९८।। पर्यायनीतिबलतोऽप्युपचारतोऽत्र, तैरष्टभिश्च प्रतिभगमनन्तभेदान् । साऽभेदतत्त्वमवलम्ब्य प्रमाणसप्त - भङ्गी समादिशति चैकमुखेन धर्मान् ।।११९९।। तैरष्टभिर्भवति भेदप्रधानभावात्, पर्यायनीतिबलतो यदि मुख्यवृत्त्या । द्रव्यार्थतस्तदुपचारबलात् तदा तु, सा नीतिजैकमुखतो न समग्रनिष्ठा ।।१२००१
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
प्रत्येकमेव प्रतिभङ्गमनन्तधर्मे, सत्त्वादिकं भवति वस्तुनि भिन्नभावात् ।
एकैकनीतिबलतोऽवगतं तु सप्त-भङ्गत्या द्विधा भवति सा निखिलैर्हि भङ्गैः ॥१२०१॥ सकलादेश-विकलादेशविचारः -
स्यादस्ति कुम्भ इति यः प्रथमोऽत्र भङ्गः, स्यान्नास्ति कुम्भ इति योऽभिमतो द्वितीयः । स्यात्कारलाञ्छिततनुश्च मतश्चतुर्थो - ऽवक्तव्यकुम्भ इति तत्त्रितयं प्रमाणम् ।।१२०२।। सर्वान् समादिशति वस्तुगतानखण्ड - वस्त्वंशबोधनवलादभिदैकमानात् । एतत् त्रयं न तु सखण्डतदंशवोध - कार्यन्यभङ्गनिकरो विकलस्वभावः ।।१२०३।। इत्यामनन्ति ननु केचिदभङ्गभङ्ग - रूपार्थतत्त्वमननानिपुणाः परं ते । सर्वेऽपि धर्मविधयांऽशतया च भिन्ना, भङ्गेष्वतो न सकलासकलस्वभावौ ।।१२०४।। अंशो ह्यखण्ड इह चेद् यदि सत्त्वरूपः, किं तावता सकलबोधफलोऽस्य भङ्गः । द्रव्यादभेदघटनाबलतो नयाच्चेत्, तत् किं सखण्डमुखतो न तथाऽन्यभङ्गः ।।१२०५।। अंशद्वयस्य घटनाच्च सखण्डरूपा, धर्मा भिदांशमवलम्ब्य प्रकाशमानाः ।। नाऽभेदवृत्तिवलतो मिथ एव भङ्गै - रन्यैः समस्तघटनानुगताः स्फुरेयुः ।।१२०६।। अंशस्त्वखण्ड इह तत्त्वत एव भेदां - शाभानतोऽभिमुखयत्यखिलांशमेव । स्वात्मन्यभेदमननान्निजरूपमात्र - भानात् समग्रविषयोऽपि मतोऽस्य भङ्गः ।।१२०७।। एतन्न युक्तमविकल्पनबोधरूपो - ऽखण्डस्य बोध इह तेऽभिमतोऽन्यथा वा । आद्ये न शाब्दमतिता न च मानताऽस्य, यस्मादुभावपि विकल्पनबोध एव ।।१२०८।। अन्त्ये विकल्पकतया नियतं प्रकारा - द्यालम्बनोऽनुमत एव तवाऽपि सोऽपि । भेदांशगोचरतया निखिलांशबोध - निष्ठो न दर्शितनयादिबलं विना सः ।।१२०९।। वाक्यत्वतो भवति भेदमतिप्रवीणो, नोच्चारणं सफलमस्य विना तथात्वम् । स्यादन्यथैवपदयोजनमर्थवन्नो, भनेऽप्यखण्डविषये ननु भेदभानम् ।।१२१०।। अंशे भवेन्नियमतोऽत्र सखण्डरूपे, ग्राह्यांशयोर्यदि तु भेदमतिस्तदाऽपि । नाऽखण्डधर्मविषयेऽपि निरूपकस्या - ऽवच्छेदकस्य किमु भेदमतिस्तु भङ्गे ।।१२११।। किञ्चांऽशयोर्भवतु भेदमतिस्तथाऽपि, भिन्नोऽश इष्ट इह तवयमेलने यः । नो तस्य भेदमतिरस्ति विभिन्नतोऽशात्, तस्मादभेदमननं किमु नोऽशमात्रे ॥१२१२।। किं वा ययोरपि प्रतीयत एव भेदः, स्वस्वाभिधायकवचःप्रतिपाद्यभावात् । किं नो तयोरपि परस्परमिष्टवस्त्वं - शाभेदतो मतिरभिन्नतया सखण्डैः ।।१२१३।।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ स्याद् वाउंशयोरपि विशिष्टतयाऽत्र भेदा - भेदात्मवन्धनबलान्मतिरेव शाब्दी । भङ्गात् सखण्डविषयादभिदाप्रधाना, भेदावगाहनपरा निरुपद्रवाऽथ ।।१२१४।। श्रीदेवसूरिप्रभृतेरमुमेव भावं, बोधे फले तु सकलासकलार्थताभ्याम् । भङ्गेषु हेतुषु विभाव्य प्रगल्भ एको, विद्वानुपैति सकलासकलस्वभावौ ।।१२१५।। द्रव्यार्थजात्यभिदया तु समग्रमेकं, द्रव्यार्थभेदमुपगम्य प्रवृत्त आद्यः । पर्यायजात्यभिदया च समग्रमेकं, पर्यायभेदमुपगम्य तथा द्वितीयः ।।१२१६।। भङ्गश्चतुर्थ इह तद्युगपद्विवक्षा - सिब्बैक्यमेकमुपगम्य प्रवृत्त एवम् । इत्थं त्रयोऽपि सकला ननु चाऽद्वितीयां - शं ख्यापयन्त इतरे विकलास्तु भङ्गाः ।।१२१७।। स्यात् सङ्ग्रहो व्यवहृतिश्च नयौ समग्रा - देशस्य मूलमितरे त्वितरस्य चैवम् । नाऽन्योक्ततत्त्वघटनाघटनत्वतः स-खण्डांशतद्विगमते ननु भङ्गनिष्ठे ।।१२१८।। यद्वन्नरे नरमतौ न सखण्डधीत्वं, सिंहेऽथवा हरिमतौ ननु तद्वदेव । उक्तं त्रिभङ्गविषयेऽपि मतिष्वखण्ड - बुद्धित्वमर्थत इमेऽपि भवन्त्यखण्डाः ।।१२१९।। यद्वद् भवेन्नरहरौ नरसिंहबुद्धौ, नाऽखण्डधीत्वमुभयांशसमन्वयेन । तद्वत् सखण्डमतितेतरभङ्गगार्थे, बोधेष्वतोऽर्थत इमे तु मताः सखण्डाः ।।१२२०।। तत्त्वार्थभाष्यविवृतौ वुधसिद्धसेन, एतन्मतं ननु विचारितवाननिन्द्यम् । सूक्ष्मेक्षिकात इह नैव विरोधलेशो - ऽप्यस्तीत्यकुण्ठमतयः परिभावयन्तु ।।१२२१।। भङ्गत्रये तु सकला विकलान्यभङ्गे - ष्वेषेति किञ्च वचनं नयवादतः स्यात् । स्याद्वादतस्तु प्रतिभङ्गमियं समग्र - देशाऽथवाऽभ्युपगता विकलस्वभावा ।।१२२२।। पञ्चप्रकारमिह जैनमतं परोक्ष - मानं व्यवस्थितमनन्यगतेस्ततश्च । यत् कुत्रचित् प्रथितमस्ति चतुर्विधत्वं, मानस्य तत् परनयान्न निजागमात् तु ।।१२२३।। सख्यास्वरूपविषयाश्च प्रयोजनं च, तेषां जिनागममता विदिता यथार्थाः । ते चाऽन्यतन्त्रगदिताः कथिता नयज्ञै - राभासतापरिगताः खलु युक्त्ययोगात् ।।१२२४।। द्वित्त्वं प्रमाणगतमत्र समासतोऽस्ति, व्यासाद् बहुत्वमपि दर्शितमेव पूर्वम् । चार्वाक-बौद्ध-कपिलादिप्रदर्शितो य, आभासरूप इह तत्त्ववियोगतः सः ।।१२२५।। ज्ञानात्मकं भवति मानमनन्यभास्य - मर्थावगाहि सविकल्पनरूपमत्र । सन्दिग्धतादिरहितं विपरीतमस्मा - दाभासमन्यनयसिद्धमुदाहरन्ति ।।१२२६।।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
सामान्यमस्य विषयः सविशेषमिष्ट - मन्योन्यसंवलितमेव यथार्थभावात् । तदिनमन्यनयसिद्धमवस्तुभावा - दाभासमस्य तु वदन्ति जिनागमज्ञाः ।।१२२७।। सामान्यमत्र कथितं द्विविधं तु तिर्य - गूर्ध्वत्वभेदभजनादनुगामि रूपम् ।। आद्यं समानपरिणामतया प्रसिद्धं, देशानुगाम्यभिमतं घटतादिनाम ।।१२२८।। द्रव्यस्वरूपमिह जैनमतप्रसिद्धं, कालत्रयानुगतमन्त्यसमानभावात् ।
तच्चोर्ध्वतेति निजपर्ययमात्रकाला - स्तित्वान्मृदाद्यभिमतं कलशाद्यभिन्नम् ।।१२२९।। षड्द्रव्यविचारः -
द्रव्याणि षड् जिनमते प्रथितानि तत्र, यश्चोपयोगगुणवान् स च जीव इष्टः । यः पुद्गलस्तदितरो ननु सोऽत्र रूपा - द्यालिङ्गितोऽभिमत आर्हततत्त्वविद्भिः ।।१२३०।। धर्मास्तिकाय इह जैनमतेऽस्ति लोका - काशस्थितो गमनलिङ्गवलात् प्रसिद्धः । शून्यत्वतो भवति यस्य च नो ह्यलोका - काशे गतिर्गतिमतोऽपि च पुद्गलादे: ।।१२३१।। मीनादयो जलचरा गतिमन्त एव, नैव स्थले जल इव प्रभवन्ति गन्तुम् । तस्माद् यथा जलसहायवशाच्च गन्तुं, शक्तास्तथाऽन्य इह धर्मवशाच्च तेऽपि ।।१२३२।। देशादयस्तु बहवोऽननुगामिभावात् तद्व्यक्तितादित इह प्रभवन्ति नैव । धर्मस्तदर्थकतयैव मतोऽनुगामी, एकोऽप्यशेषगतिमत्सहकारिरूपः ।।१२३३॥ धर्मास्तिकाय इव जैनमते प्रसिद्धो - ऽधर्मास्तिकाय इह तत्समदेशवृत्तिः । स्थित्यर्थता भवति तस्य तदा त्वलोका - काशेऽस्थितिः स्थितिमतां विरहेऽस्य युक्ता ।।१२३४।। कोऽप्यस्ति नो विनिगमो यत एव तस्मा - नाऽऽशक्यमत्र किमु तवयकल्पनेन । एकेन सिद्ध्यति फले विवुधेन किञ्च, मानं परोक्षविषये जिनवाक्यमत्र ।।१२३५।। रूपादियोगविरहाद् गगनादिवन्नो, नेत्रादिना तदुभयोर्मतिरस्ति लोके । युक्त्या द्वयं भवति लोकगतं प्रसिद्धं, जैनागमोऽपि ननु तत्र करोति बुद्धिम् ।।१२३६।। यश्चाऽवगाहनफलोऽभिमतः स एवा - ऽऽकाशाभिधो विभुरनन्तप्रदेशयुक्तः । सर्वाश्रयो भवति साश्रयतावलेन, पक्ष्यादिकेषु निखिलानुगतोऽप्यभिन्नः ।।१२३७।।
शब्दो हि पौद्गलिक एव मतो जिनेन, तस्याऽऽश्रितत्ववलतो गगनस्य नैव । सिद्धिस्तु गौतमसुतानुमता परन्तु, ज्ञेया प्रदर्शितदिशा गगनप्रसिद्धिः ।।१२३८।। यद्वर्तनात्मकतया परिणामि तत्त्वं, कालात्मकं भवति तत् तत एव नाऽन्यः । कालोऽत्र गौतमसुतानुमतो विभुस्तु, नित्योऽखिलाधिकरणोऽखिलकार्यहेतुः ।।१२३९।।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
९८
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ कालं च केचिदिह जैनमतेऽपि भिन्न - माहुस्तमक्षचरणानुमतं परं नो । द्रव्याणि षड् ननु मतानि नयेन तेषां, पञ्चाऽन्यथा त्वभिमतानि भवन्ति विज्ञैः ।।१२४०।। आकाशदेशविषयैव हि दिक्प्रतीति - भिन्ना ततो भवति दिङ् न जिनानुगानाम् । आशा तु गौतमसुतस्य विभिन्नताया - माशासु नैव सफला तत एव किञ्च ।।१२४१।। द्रव्यं मनो भवति पुद्गलरूपमेव, नो न्यायसम्मतमतोऽधिकता न चाऽस्य ।
क्षित्यादयोऽप्यभिमता ननु पुद्गलेषु, नो न्यूनता भवति तेन नये जिनानाम् ।।१२४२।। पर्यायनिरूपणम् -
पर्यायसंज्ञक इहाऽभिमतो विशेषो, द्वैविध्यमस्य गुणपर्ययभेदतः स्यात् । द्रव्येण तुल्यसमयः समये गुणोऽत्र, यश्च क्रमाद् भवति पर्ययनामकः सः ।।१२४३।। रूपादयस्तु सहभावितया गुणाः स्यु - नीलादि पर्ययतयाऽभिमतं च तेषाम् । प्राप्त्यादयोऽप्यसहभावितयैव पर्या-याः सम्मता न च भवन्ति गुणा जिनानाम् ।।१२४४।। उत्क्षेपणादिकमपि प्रमितं परेण, कर्मेति यद् भवति पर्ययभेद एतत् । जातिर्विशेष इति चाऽभिमतः पदार्थो, भिन्नः परेण ननु यो न च सोऽत्र सिद्धः ।।१२४५।। तादात्म्यतो भवति तार्किकसम्मताऽत्र, वैशिष्ट्यबुद्धिरपि नो समवायसिद्धिः । तबुद्धितो भवति नाऽपि निरुक्तभावा - दन्यस्त्वभाव उपपद्यत आर्हतानाम् ।।१२४६।। साक्षात्परम्परितभेदत आर्हताना - मिष्टं फलं द्विविधमस्य प्रमाणराशेः । स्वस्वावृतिक्षयशमादिफलं तु साक्षा - दानादिकं तु गुणतोऽभिमतं द्वितीयम् ।।१२४७।। या स्यान्निवृत्तिजनिकाऽभिमता तु सैव, हानात्मिका मतिरियं तु न केवलोत्था । या च प्रवृत्तिजनिकाऽभिमताऽत्र सा तू-पादानबुद्धिरपरा न च केवलात् सा ।।१२४८।। माध्यस्थ्यवृत्तिजनिकाभिमता परा या, सोपेक्षिका मतिरियं खलु केवलात् स्यात् । मत्यादितस्त्विह चतुर्विधवोधतः स्या - देतत्त्रयस्य भजनाऽनियतप्रवृत्त्या ।।१२४९।। एतत्फलं नहि प्रमाणत एव भिन्नं, यद्गौतमानुमतमेकनयावलम्वात् ।
नाऽभिन्नमेव सुगतानुमतं च भिन्ना - भिन्नं परन्तु नययुग्मवलात् प्रसिद्धम् ।।१२५०।। प्रमाणाभासविचारः -
या व्यावहारिकमतिस्त्विह दोषजन्या - ऽऽभासात्मिका भवति साऽप्रमितिर्मताऽथ । भ्रान्त्यात्मकस्त्ववधिबोध उदाहृतोऽत्रा - ऽऽभासो विभङ्ग इति चाऽऽर्हततत्त्वविद्धिः ।।१२५१।।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
भ्रान्त्यात्मको न चरणप्रविशुद्धिजन्यो, हृत्पर्ययो न सकलावरणक्षयोत्थः । बोधश्च केवलिन इत्यनयोर्न चैवा - ऽऽभासो मतो जिनवचोमृतपूतचित्तैः ।।१२५२ ।। अन्यानुभूतिजनितोऽननुभूतभावे, या च स्मृतिर्भवति दोषवशाज्जनानाम् । भ्रान्त्यात्मिका ननु मताऽऽर्हततत्त्ववेत्रा, साऽऽभासतापरिगताऽन्यसमाश्रितत्वात् ।।१२५३।। अन्यस्मृतौ भवति या ननु प्रत्यभिज्ञा - ऽध्यक्षादिबोधविषयेऽभिमता तु तस्याः । आभासता सति च सङ्कलनात्मकत्वे, केशादिगोचरतयाऽप्रमितित्वभावात् ।।१२५४।। यः साध्यसाधनतया मतयोर्विनाऽपि, व्याप्ति प्रकाशयति तां विषयापहारात् । तर्को भ्रमात्मकतया स मतो मतझै - राभासरूप इह जैनमतप्रसिद्धः ।।१२५५।। बाधादिदोषकलुषार्थतयाऽनुमाना - भासो मतो बहुविधो जिनतत्त्वविद्भिः । दोषत्रयं भवति धर्मानुसारि पक्षा - भासस्तदित्यनुमतं ननु तत्र जैनैः ।।१२५६।। धर्म्यप्रसिद्धिरिह नैव मतस्तु दोषो, यस्माद् विकल्पबलतोऽपि च धर्मिसिद्धिः । सर्वज्ञधर्मिणि ततोऽभिमतोऽस्तितादे - र्वाधाद्यभावगमकादनुमाऽऽर्हतानाम् ।।१२५७।। साध्यप्रसिद्धिरिह जैनमतेऽस्ति पक्षा - भासस्ततो ह्यनुमितेः प्रतिवन्ध इष्टः । अर्थान्तरत्वमपि दोष इहाऽस्ति पक्षा - भासस्ततो नहि यतोऽभिमतार्थसिद्धिः ।।१२५८।। बाधः परैरपि मतो ननु लिङ्गदोषः, किन्त्वत्र सोऽभिलषितः खलु धर्मिदोषः ।
प्रत्यक्षतोऽनुमितितोऽथ च शब्दतः स्या - न्मानान्तरादपि च सोऽभिमतो जिनानाम् ।।१२५९।। हेत्वाभासविचारः -
लिङ्गस्य दोष इह जैनमते त्रिधैवा - ऽनैकान्तिकोऽभिलषितो व्यभिचारनामा । तत्राऽऽदिमो भवति साध्यविपर्ययाभ्या - मेकत्र धर्मिणि घटा गमकस्य हेतोः ।।१२६०॥ सन्दिग्धनिश्चयप्रभेदत इष्यतेऽसौ, जैनैर्द्विधा भवति तद्वयतोऽत्र यस्मात् । तर्काख्यवोधजननप्रतिवन्धता न, व्यानिधया न च तथाऽनुमितिस्तदुत्था ।।१२६१।। सन्देहहेतुरत एव च कीर्त्यतेऽसौ, साधारणात्मकतयोभयबोधकत्वात् । यत्रोभयोः सहचरप्रतिलम्भमात्रं, तत्रैव संशयमतिः प्रथिता नयज्ञैः ।।१२६२।। सन्दिग्धसङ्घकतया व्यभिचारिहेतु - रेतावता जिननयेऽपि मतो नयज्ञैः । एकान्तता नियम एव ततो विरोधे - ऽनैकान्तिकत्ववचनं च तथाऽत्र योगात् ।।१२६३।। साध्येन नैव सहवृत्तिरसौ विरुद्धो, हेतुर्द्वितीय इह लिङ्गगतस्तु दोषः । तर्कप्रबोधविगमोऽभिमतस्ततोऽपि, नो संशयात्मकमतिप्रवणो विरुद्धः ।।१२६४।।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
-
किन्त्वस्य साध्यविरहेण विनोपपत्तिर्नैवाऽस्त्यतो भवति तद्विरहानुमाऽत्र । किञ्चाऽस्य साध्यविरहप्रतिबन्धतो ज्ञे रिष्टं विरुद्ध इति नाम निजार्थयुक्तम् ||१२६५|| अन्यस्त्वसिद्धिरिति हेतुगतस्तृतीयो दोषो द्विधा जिनमतेऽभिमतो नयज्ञैः । वादिद्वयान्यतरभेदबलात् स्वरूपा - त्वप्रसिद्धिरिति सोऽभिमतो न चाऽन्यः || १२६६ || पक्षे तु हेतुविरहोऽभिमतः स्वरूपा - सिद्धिर्नयेऽक्षचरणानुमते न जैनैः । यस्मान्न पक्षघटनामतिरार्हतानां हेतौ मताऽनुमितिहेतुतया तृतीया || १२६७।। बाधस्तु दर्शितदिशा ननु पक्षदोषो, नो हेतुदोष इति तद्रजनं यथार्थम् । दोषो न चेष्ट इह सत्प्रतिपक्षनामा, नो न्यूनताविभजने तत आर्हतानाम् ||१२६८ ।। दृष्टान्तदोषभजना नवधाऽन्वयेन, स्यादत्र तावदथ च व्यतिरेकतोऽपि । दृष्टान्तधर्मिणि मतः प्रथमस्त्वसिद्धिः, साध्यस्य सिद्धिजनकस्य तथोभयस्य ।। १२६९|| लिङ्गस्य लिङ्गिन इहाऽभिमतश्च तत्र, सन्देह एवमुभयोरपि सम्मतः सः । सोऽनन्वयश्च कथितोऽकथितान्वयश्च स्याद् व्यत्ययात् तदुभयान्वयदर्शनं च ।।१२७० ।। अन्यस्तु तत्र विरहाप्रतिपत्तिरेवं, साध्यस्य सिद्धिजनकस्य तथोभयोश्च । सन्दिग्धसाध्यविरहोऽभिमतस्तथाऽत्र, सन्दिग्धलिङ्गविरहो जिनसम्प्रदाये || १२७१ ।। सन्दिग्धसाध्यगमकोभयशून्यताऽथ, व्याप्तेरकीर्तनमपि व्यतिरेकयोश्च ।
तद्दर्शनं च विपरीतत एवमत्र, व्याप्तेरभाव उभयोर्व्यतिरेकयोश्च ।। १२७२ ।। स्यान्न्यायदोष इह चोपनयोपसंहा - राभासभेदभजनाद् द्विविधो जिनानाम् । दृष्टान्तधर्मिणि वचोगमकस्य पक्षे, साध्यस्य वा यदि तदा प्रथमोऽत्र दोषः || १२७३ || साध्योपदर्शनवलाद् गमकोपसंहारस्तु द्वितीय इह जैनमते प्रसिद्धः । एषामुदाहृतिपदं स्वयमेव विज्ञै - र्भाव्यं स्थलेषु विविधेषु विवेकदृष्ट्या ॥ १२७४ || शब्दस्त्वनाप्तपुरुषोच्चरितोऽत्र शब्दा - भासश्चतुर्विधतयाऽपि मतोऽन्यभेदैः । आकाङ्क्षया विरहितानि पदानि यत्र, वाक्यं बुधैरिह खलु प्रथमं तदिष्टम् ।।१२७५ ।। यद्बाधितार्थविषयं तदयोग्यशब्द - सङ्केतगोचर इहाऽभिमतं द्वितीयम् । आसत्तिशून्यपदसङ्घटितं तु वाक्य - मिष्टं तृतीयमिह सन्निधिशून्यनाम ॥ १२७६।। अन्येच्छ्योच्चरितवाक्यमथाऽन्यबोधे - च्छोच्चारितत्वमतिगोचर इष्टमन्त्यम् । एतन्नयानुसरणाद् विवुधैर्विचार्य, सर्वे नया जिनमतानुगता यतो वै ।।१२७७।।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०१
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ नयविचारः -
प्रक्रान्तमाविषयभागविधिप्रवीणो, ज्ञेयो नयस्तदितरांशनिषेधकुण्ठः । नामानि प्रापकनिवर्तकसाधकोप - लम्भावभासकमुखानि बहूनि तस्य ।।१२७८।। द्रव्यार्थपर्ययप्रभेदत एष इष्टो, द्वेधा तथाऽर्थमननेन समासतोऽत्र । व्यासात् तु सप्तविध आर्हततत्त्वविद्धि - रुक्तोऽथ दर्शितनयौ सकलस्य मूलम् ।।१२७९।। द्रव्यं प्रधानत उपैति न पर्ययं तु, द्रव्यार्थिको गुणतयोपगमोऽस्य तस्मिन् । पर्यायमात्रमुपगच्छति पर्ययोऽपि, प्राधान्यतो न कुनयत्वप्रसक्तिरस्य ।।१२८०।। द्रव्यार्थिकस्य खलु नैगमसङ्ग्रहर्जु - सूत्रा मता विभजना व्यवहारमिश्राः । शब्दस्तथा समभिरूढसमन्वितैव - म्भूतोऽपरस्य जिनभद्रमते नयस्य ।।१२८१।। श्रीसिद्धसेनकृतिनस्तु मते न चर्नु - सूत्रस्य सम्मत इहाऽऽदिनये प्रवेशः । अन्यत् समानमुभयोर्मत एव सप्त, स्युबै नया न च विरोधघटाप्रथाऽत्र ।।१२८२।। शब्देन साम्प्रतमुखस्य न यन्नयस्यो - पादानतोऽपि ननु पञ्च नयाः प्रसिद्धाः । ते देशप्रस्थकवसत्युपनीतिभिः स्युः, शुद्धा यथाक्रममनिन्धधिया विभाव्याः ।।१२८३।। तत्राऽऽदिमो भवति सङ्ग्रहनामधेयो, वेदान्तदर्शनभवस्तत उच्यते ज्ञैः । एकान्ततत्त्वमननाश्रयणात् परन्तु, दुर्नीतिताऽस्य कथिता नयताऽन्यथा तु ।।१२८४।। सगृह्णतः सकलमेव तु भावराशिं, सत्त्वादिना भवति सङ्ग्रहताऽस्य युक्ता । इष्टः परापरतया द्विविधः स तत्र, सत्त्वादिना सकलगोचर आदिमस्तु ।।१२८५।। शुद्धः स एव कथितोऽन्यनयाप्रवेशाद, द्रव्यार्थिको भवति भेदगुणोऽप्यभेदात् । द्रव्यादिभावमननादपरो निरुक्तो - ऽशुद्धोऽन्यनीतिघटनाच्च तथाविधोऽपि ।।१२८६।। नो सङ्ग्रहे घटपटादिविशेषबुद्धे - झेंपो मतोऽनुभववाधभयाद् बुधानाम् । किन्तु प्रमा भवति सा न विशेषभागे, बाधादिति श्रुतिशिखानुगता वदन्ति ।।१२८७।। अस्तीति सङ्ग्रहनयाभिमतस्तु शब्दः, सत्ताभिधायकतया सकलानुगामी । सत्यार्थको न तु घटादिविशेषशक्तः, कुम्भादिशब्द इति ते प्रतिपादयन्ति ।।१२८८।। यच्चाऽनुगामि ननु सत्यतया मतं तत्, सामान्यतोऽत्र नियमो जनताप्रसिद्धः । सर्पादिबोधविषयेऽनुगता त्विदन्ता, रज्ज्वादिधर्मिणि यथा स्फुटमैक्षि लोकैः ।।१२८९।। सत्त्वं समग्रविषयानुगतं न चैवे - दन्त्वादि तेन मतमत्र तदेव सत्यम् । ब्रह्मस्वरूपमिदमिष्टमतो न चाऽस्मा - ज्ज्ञानं सुखं च प्रविभक्तमनन्यवेद्यम् ।।१२९०।।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ज्ञानं घटीयमिति सर्वजनप्रसिद्धः, संसर्गमेकमवगाहत एव वोधः । नो तात्त्विको भवति सोऽथ ततः श्रुतिझै - राध्यासिकोऽभिमत उक्तनयावलम्बात् ।।१२९१।। संसर्ग इष्ट इह तात्त्विक आगमज्ञै - र्यदिन्नदेशसमयाश्रितयोयोर्न । आध्यासिकस्तु स हि कल्पितभेदमिश्रा - भेदात्मकस्तदुभयोर्नहि सत्यतायाम् ।।१२९२।। एकं त्ववश्यमत एव भवेदसत्य - मारोप्य रूपजड एव तथाऽभ्युपेयः । ज्ञानं समग्रविषयानुगतं तु सत्यं, सत्त्वात्मकं भवति सङ्ग्रहगोचरोऽत्र ।।१२९३।। इष्टस्वरूपमपि सर्वपदार्थगामि, तद्वन्मतं श्रुतिनये ननु सत्त्वरूपम् । सत्यं त्रिरूपमत एव वदन्ति तज्ज्ञा, ब्रह्मस्वरूपमखिलार्थगतं स्वसिद्धम् ।।१२९४।। यत्कापिलं मतमिह प्रथितं प्रधान - रूपं जगत् तदपि सङ्ग्रहमूलमेव । बुद्ध्यादिभेदमननात्मतया परन्तु, शुद्धं भवेन्न खलु तद् व्यवहारमिश्रम् ।।१२९५।। ज्ञानैक्यवादमननप्रवणोऽपि योगा - चारो न शुद्धनयदर्शितमार्गगामी । यत्सङ्ग्रहो भवति यद्यपि मूलमस्य, किं नो तथाऽपि ऋजुसूत्रनयव्यपेक्षा ।।१२९६।। चार्वाकदर्शनमथ व्यवहारनाम - धेयानयादभवदेष नयोऽस्य मूलम् । द्रव्यार्थिकः स्थिरपदार्थविधायकत्वात्, सोऽपीष्यतेऽस्य खलु सड्ग्रहतो विरोधः ।।१२९७।। सामान्यबुद्धिरिह कल्पितगोचरत्वा - न्मिथ्यैव नो भवति वस्त्ववगाहिनी सा ।। कुम्भादयोऽप्यणुचयानहि भेदभाजो, नो भूतभिन्नमिह किञ्चिदपि प्रसिद्धम् ।।१२९८।। लोकव्यवस्थितिरियं सकलाऽपि यस्मा - न स्याद् विशेषमननव्यतिरेकतोऽत्र । तस्माद् विशेष इह तैर्व्यवहारदृष्ट्या, सामान्यतो विरहितोऽनुमतो यथार्थः ।।१२९९।। प्रत्यक्षमेकमिह मानतयाऽभ्युपेतं, लोके यतो भवति तन्नियता व्यवस्था । नो पारलौकिककथाऽपि परोक्षमाना - भावान्मतेति गुरुदर्शितमार्गकाष्ठा ।।१३००।। इष्टोऽथ नैगमनयोऽनुगतस्वभाव - ग्राही विशेषविषयोऽपि परो नयज्ञैः । पूर्वप्रदर्शितनयद्वयमेलनात्मा, भिन्नो न चाऽयमिति केऽपि वदन्ति विज्ञाः ।।१३०१ ।। काणाद-गौतमनयावत एव जातो, मीमांसकस्य च नयोऽपि नयादमुष्मात् । नैके गमा इह भवन्ति यतस्ततोऽस्मिन्, स्यान्नैगमोक्तिघटना ननु योगतोऽपि ।।१३०२ ।। नो सङ्ग्रहे न च मतो व्यवहारनीती, बोधो विशिष्टविषयस्तु प्रमास्वभावः । अस्मिन्नये गुणप्रधानविवक्षया स्याद्, वैशिष्ट्यधीरवितथा न च किं गुणादेः ।।१३०३।।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
द्रव्यार्थिको भवति चाऽयमपि स्थिरार्थ - ग्राहित्वतोऽनुगतभावप्रकारकत्वात् । इष्टा वुधैस्तु ऋजुसूत्रमुखा नया पर्यायार्थिकाः क्षणिकतोपगमप्रवृत्ताः ।।१३०४।। इष्टो नयो बुधवरै ऋजुसूत्रनामा, सौत्रान्तिकादिनयमूलतया प्रसिद्धः । यद् भूतभाविसमयाननुगामिवर्त-मानं मतं ऋजुतया कुटिलं तदन्यत् ।।१३०५।। तत् सूत्रयत्यनुमितिप्रमितेर्हि सत्त्वात्, सौत्रान्तिको भवति तन्नयमार्गगामी । वैभाषिकोऽपि च तथा क्षणभङ्गपक्ष - संसूचनेन ऋजुसूत्रनयैकनिष्ठः ।।१३०६।। ज्ञाने मता कुटिलता स्थिरतेव भिन्ना - र्थग्राहिता तदुभयान्वयशून्यमत्र । ज्ञानं ऋजु प्रकटयत्यत एव योगा - चारोऽपि किं न ऋजुसूत्रनयावलम्बी ।।१३०७।। नो सत्यतार्थनियता न च बोधगा त - न्मिथ्यात्वमेतदुभयानुगतं ऋजुत्वम् । तत् सूत्रयन् किमिह माध्यमिको न शून्य - वादी भवेच्च ऋजुसूत्रनयोपगन्ता ।।१३०८।। प्राधान्यतोऽर्थमननप्रवणा इमे तु, चत्वार आर्हतमतेऽर्थनयाः प्रतीताः । अन्ये तु शब्दमुखतोऽर्थमतिप्रवीणाः, शब्दादयोऽत्र ननु शब्दनया मता जैः ।।१३०९।। शब्दादयस्तु ऋजुसूत्रनयोद्भवाः स्यु - रस्थैर्यवादघटना तत एव यस्मात् । वैचित्र्यतोऽथ च भवन्ति मिथो विभिन्ना, नैतावता भवति मूलनयेऽपि भेदः ।।१३१०।। एकक्षणेऽपि मनुतेऽर्थगतं पृथक्त्वं, लिङ्गादिभेदबलतो ननु शब्दनामा । इष्टो नयो न च पुनः स समानलिङ्ग - पर्यायशब्दवशतोऽर्थगतं पृथक्त्वम् ।।१३११।। यस्मात् तटोऽथ च तटी तटमित्यशेष - लिङ्गप्रवृत्तिवलतोऽभिमतो विभिन्नः । शब्दात् तटो न च तथा ऋजुसूत्रतः स, एकक्षणेऽभिमत इत्यतिरिक्त एषः ।।१३१२।। दाराः प्रियेति वचनाननुगामिभावाद्, भार्यार्थगोऽप्यभिमतो नयतस्तथाऽस्मात् । भेदः परन्त्विह भवेदपरोऽपि लिङ्ग - भेदात् प्रभेद इति सूक्ष्मधिया विचार्यम् ।।१३१३।। कालाद् बभूव भविता भवतीति भिन्नाद्, भेदस्तथा भवति मेरुगिरौ च शब्दात् । अस्म्यस्त्यसीतिपुरुषादिविभेदतोऽपि, भेदस्तथैव पुरुषादिगतोऽ- शब्दात् ।।१३१४।। एतन्नयप्रकृतिकस्तु भवेन्नयः स, विज्ञेन भर्तृहरिणा य इहोपदिष्टः । किन्त्वस्य सङ्ग्रहनयप्रकृतित्वमेवं, शब्दात्मविश्वमननप्रगुणत्वयोगात् ।।१३१५।। ब्रह्मस्वरूपमपि तेन मतश्च शब्द, ओंकाररूपमिति तज्जनितं हि विश्वम् । शब्दात्मकं प्रणवरूपविभुस्वसिद्ध - ब्रह्मात्मतत्त्वमननेन मतेऽस्य मुक्तिः ।।१३१६।।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ज्ञानं तथा किमपि शब्दसमन्वयेन, नैवाऽन्तरा भवति भर्तृहरेर्मते वै । नो निर्विकल्पकमतिस्तत एव तस्मिन्, नो वा विशेषणमतेस्तु विशिष्टबुद्धिः ।।१३१७।। सौत्रान्तिकस्य तु मते ऋजुसूत्रमूले, या निर्विकल्पकमतिः प्रथमाऽक्षमात्रात् । सैव प्रमा भवति शब्दघटाविहीना, तत्खण्डनं भवति भर्तृहरेर्मते च ।।१३१८।। व्युत्पत्तिभेदबलतः खलु शब्दभेदा - दर्थप्रभेदघटनानिपुणो नयज्ञैः । उक्तो नयः समभिरूढ इति प्रसिद्धो, रूढिर्न शक्तिरिह केवलमत्र योगः ।।१३१९।। पर्यायता भवति तेन नये न चाऽस्मिन्, शब्देषु हस्तिगजकुम्भिमतङ्गजेषु । सर्वत्र नीतिरियमेव मतो नयो जै - रेतन्नयप्रकृतिकः खलु शाब्दिकानाम् ।।१३२०।। द्रव्यार्थिको भवति यद्यपि शाब्दिकानां, नित्याक्षरादिमननात् तु नयस्तथाऽपि । शब्दे स्ववाचकतयोपगते निजांशे, पर्यायताविगमतः स कथञ्चिदस्मात् ।।१३२१।। व्युत्पत्तिहेतुरिह योऽभिमतः स एव, शब्दप्रवृत्तिजनको न तु तद्विभिन्नः । व्युत्पन्नधर्मघटना तु यदा कदाऽपि, शक्ये स्थिता भवति शब्दप्रवृत्तिहेतुः ।।१३२२।। व्युत्पत्तिगोचरघटासमकाल एव, शब्दप्रवृत्तिरिह वस्तुनि नाऽन्यकाले । एवं प्ररूपयति योऽभिमतः स एव - म्भूतो नयो बुधवरैरपरोऽन्तिमश्च ।।१३२३।। अस्मिन्नये गमनकर्मणि वर्तमाने, गोशब्दवृत्तिरुपपद्यत एव गोषु । तिष्ठत्सु नैव न च दोहनकर्मकाले, तच्छब्दवृत्तिरमला गतिशून्यतातः ।।१३२४।। एवं च नो व्यवहृतेर्विलयप्रसङ्ग - भीतिः समस्ति वितथार्थवती यतः सा । किं वोपचारबलतो व्यवहारभावो - ऽस्मिन् युज्यते न तु स मुख्यतयेति तत्त्वम् ।।१३२५।।
(स्रग्धरावृत्तम्) निक्षेपविचारः -
निःक्षेपा ये प्रतीता जिनवरतनयैर्व्यापकत्वेन विज्ञै - श्चत्वारो द्रव्यभावौ मितिनयनिपुणैः स्थापनानामनी च । ते सर्वे सङ्ग्रहस्याऽभ्युपगमविषया नैगमस्याऽपि तद्वत्, नाऽसङ्ग्राह्यास्तथाऽमी व्यवहृतिऋजुसूत्रोपगन्त्रोश्च मार्गे ।।१३२६।। शब्दाद्या भावमात्रे त्रय इह तु नयाः सम्प्रतीता नयज्ञै र्द्रव्यं नैवर्जुसूत्रो मनुत इति विदुः सिद्धसेनानुगास्तु ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
नेच्छन्ति स्थापनां तु व्यवहृतिनिपुणा आमनन्तीति केचि
दन्ये नो सङ्ग्रहस्याऽभ्युपगमविषयो नामभिन्नेयमाहुः ।। १३२७ ।।
॥ अथ प्रशस्तिः ॥
( शार्दूलविक्रीडितम् )
ये दोषैकविलोकिनोऽपरगुणासंस्पृष्टवामाशया
स्तेषां यद्यपि नैव मोदकणिकाऽप्यस्मत्कृतेः स्यादतः ।
-
ऐदम्पर्यविदस्तु ये सुमनसो धन्या गुणग्राहिण
स्तेषां किं न तथाऽपि तत्त्वमनने स्यादस्य मुल्लीनता ॥ १३२८||
सिद्धान्ताप्रतिपन्थियुक्तिकलिता नव्यप्रचारोन्मुखा,
प्राचीनोक्तिकृतादरा नयघटासङ्घट्टजातप्रथा ।
सङ्कीर्णार्थविवेचनैकरसिका सद्वृत्तिप
सिन्धोरस्य ततोक्तिभङ्गलहरी मोदं विधत्तात् सताम् ।।१३२९।। दुर्योधागमसूत्रमात्रघटिते मार्गे दुरूहावधी,
गच्छन्नाऽन्यमनाः स्खलन्नपि जनो नो हास्यपात्रं विदाम् । श्लाघ्यः किन्तु भवेत् स यावति गतोऽस्याऽंशेऽस्खलंस्तावति, प्रायस्तादृगहं भवेयमपि चेत् तत्कुण्ठिता हे शठाः ! ||१३३०।। ये शब्दार्थगताः प्रमादवशतो दोषाः प्रमावाधका, ग्रन्थेऽस्मिन्नयतोऽपि बाधविधुरा जाता विबोधस्य मे । तान् विज्ञाः ! क्षपयध्वमर्हदनुगा दोषप्रणाशोद्धुरा, याचे साञ्जलिरेतदेव भवतोऽहं नेमिरिष्टं मुहुः || १३३१ || (मन्दाक्रान्ता)
यस्मिन् साक्षात्करवदरवत् सर्वद्रष्टा जिनेन्द्रः, प्राप्तैश्वर्यो विभुरपि निजं स्वत्वमाधत्त वीरः । यत्रोत्कर्षं कमपि गतवान् श्रीसुधर्माऽऽर्यव
यं च प्रापुश्चरणनिरताः सूरयोऽन्येऽप्यनल्पाः ॥। १३३२।। पारम्पर्याद्यमुपगतवान् ख्यातकीर्त्तिप्रतापः, सूरिर्हीरोऽनघगुरुतपोगच्छपद्मांशुमाली ।
१०५
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ सूरेस्तस्याऽनु चरणरतः सेनसूरिः प्रकामं, यत्रोद्योतोऽभवदमितधीः सद्गुणवातधाम ।।१३३३।। यत्र प्राप्तस्तदनु विजयालिङ्गितो देवसूरिः, सिद्धान्ताम्भोनिधिरधिगताशेषनीतिप्रपञ्चः । सूरिः सिंहोऽप्यनु तत इह ख्यातकीर्तिर्बुधाग्र्यो, यं प्राप्याऽभूज्जिनवरमतोल्लासविस्तारकर्ता ।।१३३४।। पट्टे तस्मिन् समजिनसुतख्यातसाम्राज्ययोगे सम्यक्सूत्रोक्तविधिचरणावाप्तयोगैकलभ्ये । गीतार्थायप्रविततयशोवृद्धिचन्द्राङ्घिसेवोद्रेकप्राप्तामलशिवपथोल्लासिदीक्षाश्रुतस्य ।।१३३५।। गम्भीराप्तागममतविबाधादिप्रज्ञप्तियोगोनीतेः शास्त्राकलनमहितस्तुत्यहेमादिसूरेः । त्यक्तानार्यप्रथितविविधापातरम्यवजस्य, जैनश्रद्धासमफलरसास्वादिनो नेमिसूरेः ।।१३३६।। लक्ष्मीचन्द्राश्रयणसुभगेवाऽमितानन्ददात्री, दीपाली यत्प्रथमदिवसे सत्समारम्भवत्याम् । ऋत्वचंड्रोडुपतिमितसंवत्सरे(१९६६) मासि चोर्जे, सिन्धुस्तस्यां मधुपुरपुरे जन्मतिथ्यां प्रपूर्णः ।।१३३७।।
(स्रग्धरावृत्तम्) सन्त्येवेह प्रसिद्धाः सुविहितविषया माननीतिप्रवन्धा, येषां नो न्यायसिन्धुः कलयति तुलनामेष नव्यप्रचारः । किं न प्राप्तार्थसिद्धिस्तदपि मितरुचावर्थशब्दान्वयाभ्या
मासूर्येन्दुप्रचारं स्थितिमनुभवतु प्राज्ञपाठ्यस्तथाऽस्तु ।।१३३८।। ।। इतिश्रीतपोगच्छाचार्यश्रीविजयदेवसूरिविजयसिंहसूरिपट्टपरम्पराप्रतिष्ठितगीतार्थत्वादि
गुणोपेतनिजचरणविद्याप्रतिभातिशयादिगुणसंस्मारितातीतयुगप्रधानगुरुवर्यश्रीवृद्धिचन्द्रापरनामवृद्धिविजयचरणकमलमिलिन्दायमानान्तेवासिसंविग्नशाखीयतपोगच्छाचार्यभट्टारकश्रीविजयनेमिसूरिविरचितं
श्रीन्यायसिन्धुप्रकरणम् ।।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
श्लोकानामकारादिक्रमः
श्यपता
ना
२८१
४५६
११०८ १०७७
७४०
१२७१ १२६६ १२५४ ५२९ १२५३ १०७९ १२७७
३०५
७५५
अंशः स चाऽपि वचनीय अंशद्वयस्य घटनाच्च सखण्डरूपा अंशस्त्वखण्ड इह तत्त्वत एव भेदां० अंशे भवेनियमतोऽत्र सखण्डरूपे अंशेन वृत्तिरुत किं निखिलात्मनांऽशे अंशो ह्यखण्ड इह चेद् यदि सत्त्वरूपः अक्षोद्भवं भवति वस्त्ववगाहि पूर्वं अग्निर्जलेन रविणा सह चन्द्रबिम्बं अत्यन्तसन्निधजने निजकार्यनिष्ठे अद्वैतहानिभयतः स च केवलात्मा० अध्यक्षगोचरतया नियमोऽस्ति नो वा अध्यक्षतोऽपि तव बोधगता न सिद्धयेत् अध्यक्षबाध इह योग्यतया प्रसिद्ध अन्ते तिरोभवनमेव पुनस्त्वयाऽस्या अन्त्यस्य सत्त्वविगमो यदि बुद्ध्यभावात् अन्त्ये कथं न बहवोऽभ्युपगम्यमाना० अन्त्ये तु येन प्रतिबन्धकता भवेत् स अन्त्ये तु सा प्रथममस्ति नवेति तत्र अन्त्ये त्वसज्जननमेव मते तवाऽपि अन्त्ये न किं जिनमतं तव सम्मतं यत् अन्त्ये न चैकपवनेन विभोस्त कादेः अन्त्ये यथार्थजननं प्रमया तथैव अन्त्ये विकल्पकतया नियतं प्रकारा० अन्त्ये विशेषवचनाप्रतिपादनेऽपि अन्त्ये विशेषविरहाद् भ्रमतुल्यतैवा० अन्त्ये स ईश्वरकृतोऽभ्युपगम्यते चेत् अन्त्ये सदैव विषयावगतिः प्रसक्ता अन्त्ये समष्टिपरिणामतयैव तेषां अन्त्ये स्वभावविलयोऽजनको यतो न
११८५ अन्त्ये स्वयं हसत एव विचारतो न १२०६ अन्त्येऽनवस्थितिनिपातभयान्न मुक्ति० १२०७ अन्त्येऽर्थरूप इह ते यदि शब्द इष्टः १२११ अन्त्यो विरुद्ध इह सप्तप्रकारकोऽस्ति ११३ अन्यप्रसिद्धिमवलम्ब्य निराक्रिया चे० १२०५ अन्यस्तु तत्र विरहाप्रतिपत्तिरेवं ४३ अन्यस्त्वसिद्धिरिति हेतुगतस्तृतीयो ८११ अन्यस्मृतौ भवति या ननु प्रत्यभिज्ञा० ६१३ अन्यानि यानि जनकानि त्वयोदितानि ११६६ अन्यानुभूतिजनितोऽननुभूतभावे ५८८ अन्ये विरुद्धजनकादिविभेदतः स्युः ६४० अन्येच्छयोच्चरितवाक्यमथाऽन्यबोधे० ४३५ अन्योन्यगोचरविरुद्धमतित्वसाम्ये०
अन्योन्यवाक्यजमतेः प्रभवा न सिद्धि० २५३ अन्योन्यसंश्रयघटा तत एव नो नो ६७७ अन्योन्यसंश्रयघटाऽपि विलोक्यतेऽत्र
अभ्यास एव नियतो ७६० अभ्यासतो भवति नैव प्रकर्षनिष्ठा० ७५३ __ अभ्यासपाटवप्रसङ्गवशाद् यदि स्या० ७९६ अभ्यासशुक्ररसयोगजचेतनासु ३६५ अम्भोनिधौ भवति वृद्ध्यनुमोदयेन २७४ अर्थक्रिया घटपटादिपृथक्स्वभावा० १२०९ अर्थक्रियाजनकता सुगतेन सत्ता ११५२ अर्थक्रियाजनकतैव न तत्त्वताया
अर्थक्रियाजनकतैव मताऽत्र सत्ता ५२७. अर्थक्रियामतिगतं प्रमितित्वमिष्टं ४४९ अर्थक्रियावगतिरन्यप्रमां विनैव ७६७ अर्थप्रकाशजनकत्वमनन्यलभ्यं ४४५ अर्थप्रसिद्धिरपि न प्रमितेविभिन्ना
३९५ ९६९
९९७
९८७
६५३ ४३२
६२३
२१५
৩৩২
७७५ १२९
२७२
३४५
३१०
१११८ ३२०
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
२०३
२८६
२३२
८९४
१११२
अर्थाननर्थजनकाननुचिन्त्य बौद्ध ! अर्थाभिधानमतयो व्यवहारिभिर्य० अर्थ फलं किमपि किञ्च करोति बोधो अर्थे यतोऽक्षघटना प्रथमक्षणे स्या० अथैकदेश इह नाऽर्थतया प्रसिद्धो अर्थो ह्यसँस्तवमतोऽथ च तेन बोधो० अर्थोद्भवो यदि तु शब्दत आदृतः स्याद् अर्थोपदर्शकतयाऽथ निरंशबोधो अर्हद्वचः प्रमितमेव जिनानुगानां अव्याप्यवृत्तिघटना ननु यादृशस्या० अव्याप्यवृत्तिमतिशून्यतयैव सार्द्ध अव्याप्यवृत्तिरथ तार्किकसम्मतोऽयं अव्याप्यवृत्तिरिह किञ्च मतोऽपि भेदो अव्याप्यवृत्तिविषयोपगमे तु युक्ता० अस्तङ्गतं तदिह तार्किकभूषणैर्हि अस्तित्वनिष्ठमिह यत् खलु धर्मतादि अस्तित्ववान घट इहाऽभिमतो घटत्वाद अस्तीति सङ्ग्रहनयाभिमतस्तु शब्दः अस्त्येव कुम्भ इति दुर्नयवाग्विलासः अस्मिन्नये गमनकर्मणि वर्तमाने अस्वप्रकाशविगमस्तु निजप्रकाशो आकर्षणं भवति तं च विनाऽपि मान्यं आकारमुक्तमिह नैव निरीक्ष्यते य० आकाशदेशविषयैव हि दिक्प्रतीति० आत्मत्वजातिरिह देहगता यदि स्यात् आत्मप्रदेशघटनावशतो न किं नो आत्मप्रसिद्धिजनकं न यथाऽत्र मानं आत्मा तु चेतनतया तव सम्मतो यः आत्मा न संसरति नाऽपि विमुच्यते यत् आत्मा परस्तव मतो विभतादिधर्मा० आत्मा परो न च परस्य हि चर्मदृष्टे० आत्मा यतो भवति तस्य मते प्रमाता आत्मा हि यद्यपि विशेष्यतया प्रधानो
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ३२१ आत्माऽन्तिमे वद तवाऽपि कथं न सत्यो० ५८९
आद्यः समस्तजनसिद्धप्रतीतिलोप० ११४८ २७३ . आद्यस्तवाऽपि नहि सम्मत इष्यते यत् २९ आद्ये कथं न हि भवेनिखिलस्य बोधो आद्ये तिरोभवनमेव तिरोहितं ते
७५४ २२९ आद्ये तिरोहिततयैव तु तस्य सत्त्वं ७६१ आद्ये न चेदभिमतो जनकं विनैव
९४४ ६३ आद्ये प्रधानमपि नैकमनेकरूपं
७६६ १०९२ आद्ये भवेद् वद कथं न हिमेऽपि विन्ध्य १०१ ११५७ आये लयो नहि भवेद् विभुतान्वितेषु ३६४ ८८१ आद्ये विकल्पनिकरे स्वयमेव तत्रा०
२९० १२३ आद्ये विनाशजनकात् प्रमितेविनाशो
२६१ ८३६ आद्ये ह्यसिद्धिघटनामल एव हेतौ
१०९० ११३५ आद्येऽनुमानमपि किं न करोषि चित्ते ५९० ८३९ आधारभेदमननां च विनैव मानात
८४४ ११९१ आधेयशक्तिरधिकाऽन्यमतप्रसिद्धा
१००४ ११४४ आपातमात्ररमणीयमिदं हि बौद्ध० १२८८ आपेक्षिके यदि तु वस्तुगतेंऽशमात्रे ११५५ ९०४ आप्तो द्विधा भवति लौकिकतद्विभिन्न० १०८७ १३२४ आप्तोक्ततागुणबलाद् वचनं प्रमाणं
४४२ आयुः क्षयो न न च कर्म विरुद्धमस्ति ६८१ ४९२ आयुःक्षयात् प्रबलकर्मपराहतेश्च .. ६८० १८१ आलोचनात्मकधियो जनकानि यानि
७९० इच्छैव तार्किकमता समयाभिधाना
१०९७ ६४७ इत्थं च वादिनिवहैरुपगीयमानो
८२८ ८६३ इत्थं न चाऽनुमितिरत्र तव प्रमाणं ५८२ इत्थं प्ररूपयति युक्तिकदम्बमत्र
९१८ ७१२ इत्थं प्रसिद्धिपदवी स्वत एव प्राप्तं
४० ६९२ इत्थं वदन् स्वगृह एव जनैरुपास्यो ४२३ ७३० इत्थं व्यवस्थित इहाऽऽश्रयकालद्रव्या० ११७८ ६०९ इत्थं स्वबुद्धिविभवो ननु तार्किकेण
१३६ ४७७ इत्याक्षपादवचनं वचनीयमेव
९७२ ३२ इत्यादि कापिलमतं न विचाररम्यं
६९८
१८५
३४
२११
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०९
९२३
परिशिष्ट-१ इत्यादिकं जिनमतेऽप्यनुकूलमेव इत्यादिगौतमसुतैरुपगीयमानं इत्यादितन्मतरहस्यमखण्ड्यमन्यै० इत्यादिदोषघटना कपिलानुगानां इत्यादिदोषघटना स्वयमेव बुद्धौ इत्यादिदोषघटनाऽपि परप्रयुक्ता इत्यादिधीर्भवति तत्र विना न कर्म इत्यामनन्ति ननु केचिदभङ्गभङ्ग० इष्टः स्वभावसहकालिकहेतुकार्य० इष्टश्चतुर्विधतया स जिनानुगानां इष्टस्तु सङ्ग्रहनयो मम तेन युक्तो इष्टस्वरूपमपि सर्वपदार्थगामि इष्टानवसथितिरियं हि प्रमाणमूला इष्टो न किं बुध ! जिनैर्ऋजुसूत्रनामा इष्टो नयो बुधवरै ऋजुसूत्रनामा इष्टोऽथ ते यदि महानपि देहभेद० इष्टोऽथ नैगमनयोऽनुगतस्वभाव० ईशस्त्वया सकलकालगतो मतोऽस्ति ईशोऽथवा किमु न जैनमतेऽस्ति सिद्धो ईहाग्रहावगतवस्तुविनिर्णयात्मा उक्तेषु तत्त्वनिवहेषु निवेशनं न उक्तेषु सत्त्वनिकरेषु यदाऽस्ति दोषः उच्छेद एव यदि रक्तगुणस्य पाकात् उत्क्षेपणादिकमपि प्रमितं परेण उत्तेजकस्य विरहोऽपि मणौ निवेश्य: उत्पत्तिमात्रत इदं खलु नारकेषु उत्पत्त्यवस्थितिलयात्मकताऽपि सत्ता उत्पत्त्यवस्थितिविनाशसमन्वयेन उत्पद्यते तव मतेऽथ तथा विनाशो उत्पद्यते ननु यदैव कटादिभावो उद्भूततापरिगता: स्वत एव ते चे० एकं तु धर्ममधिकृत्य मताऽत्र सप्त० एकं तु सङ्ग्रहनयस्य समाश्रयेण
१२९३ १३० ७९७ ९२१ १३११ ७०८ ५०७ ८९७ १५५ ११९४ ११९२ ३९४ ६८८ ६९९ ८४२ ७०९
१११६ एकं त्ववश्यमत एव भवेदसत्य० ५०३ एकं न किञ्चिदपि कारणमर्थकारि
एक: समग्रजनिमन्नियतः सदात्मो० ८०८ एकक्षणे तदुभयावृतिकर्मनाशा० ७६४ एकक्षणेऽपि मनुतेऽर्थगतं पृथक्त्वं ३७२ एकक्षणेऽपि यदि बाह्यघटादिवस्तु १६० एकत्र दर्शनबलाद् यदि कार्यमाने १२०४ एकत्र धर्मिणि यतो निखिलस्य बन्धः १०८२ एकप्रदेशवति तत्र तदन्यदेशा० १०६१ एकस्य देश इह यो निखिलस्य सैव ८६२ एकस्य यस्तु गुणिदेश इह प्रसिद्धो० १२९४ एकस्य सिद्धिरिह चेद् यदि भिन्नसर्व० ५२८ एकात्मसंसृतिविमुक्तिवशाद् यतो न ८६५ एकान्ततः परमसौ तव युज्यते नो १३०५ एकान्ततत्त्वघटना ननु यस्य पक्षे । ७०५ एकान्ततत्त्ववचनं तव नैव सिद्ध्ये० १३०१ एकान्ततस्तव मता न च कार्यताऽत्र ५२४ एकान्ततोऽक्षचरणानुमतो विभिन्नो ५४७ एकान्तवस्तुनि भवेद् यदि शक्तियोगो १०१७ __ एकान्तवादभयतो न च सर्वथा ते ७९३ एकान्तवादमवलम्ब्य प्रदर्शितो न ११५० एकान्तवादमवलम्ब्य प्रवृत्तिभाज ८५७ एकान्तवादिवचनं तत एव सप्त० १२४५ एकाभिलापविषयत्वबलादभेदो १००१ एकाश्रितत्वमिह कर्तृतया सुखादेः ९२६ एकाश्रितत्वविरहः किमु वो विरोधः ११६१ एकेन्द्रियग्रहणयोग्यतयाऽपि वर्णा २४० एकेन्द्रियस्य विषयावपि कर्मरूपे ७५६ एकोऽप्युपाधिविगमात् क्वचिदेव मुक्तो ८०५ एतत्फलं नहि प्रमाणत एव भिन्न १६८ एतद् द्वयं त्वथ चतुर्विधमार्हताना० ११७३ एतद् द्वयं स्वजनने परत: स्वतो न ९१३ एतद्भवे नहि यतोऽभ्यसनादिरस्य
५१०
१००
१११७
८२४
३१९
३३२ १११९ २०५
७१४
८३०
३६०
२३
७२७
१२५० १०१३ ३३०
६५५
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
१०७१ १०१८ ७६९ ९०३ १३२५
१५२
८९५ २४२
९९०
२७८ ५२१
१५०
७१०
६३९ ९६७
१४७
८८६
एतद्वचो नहि विचारपथं बुधानां एतन्न चारु सुगतानुगदर्शितं यत् एतन्न बौद्धपरिशीलितयुक्तिजालं एतन्न युक्तमनवस्थितिदोषतस्ते० एतन्न युक्तमविकल्पनबोधरूपो० एतन्न युक्तमिह यद् भवति स्वरूप० एतन्नयप्रकृतिकस्तु भवेन्नयः स एतन्निरस्तमथ वाऽत्र कथं नु पक्षे एतादृशस्य विरहस्य युक्तमत्य० एतादृशेन वचनेन निजप्रणेतृ० एतावता सकलवित् सकलप्रणेता एतावतैव नियमो वचने न चाऽस्ति एतेन किञ्चिदिह किञ्चिदपेक्ष्य सत्त्व० एतेन केवलमतौ प्रमितित्वबुद्धिः एतेन केवलविशेषणमन्तरैव एतेन गीतमितरैरिह यद्विरोध० एतेन गौतममतं तव युक्तिजालान् एतेन चाक्षुषमतौ प्रतिबन्धकाः स्यु० एतेन चेत् स्वविषयत्वमिह प्रसिद्ध एतेन तार्किकमताद् विषयत्वबन्धाद् एतेन तेऽनुमितितोऽनुमतं च बोधे एतेन नाऽवयविताऽपि मता तव स्यात् एतेन पैद्गलिकतोपगमे परेण एतेन बुद्धकपिलादिसुतोपगीत० एतेन युक्तिनिकरोऽपि विभोः परस्य एतेन यैरनुमितिव्यतिरिक्त एव एतेन यैरनुमितिस्त्विह लिङ्गबुद्धे० एतेन योऽप्यवयवान्यजलादिवस्तु० एतेन लौकिकविशेषणसंविधानाद् एतेन शक्तिरिह वास्तविकी घटादि० एतेन सर्वविषयत्वप्रसाधिका ते एतेन सावयवताऽल्पमहत्त्वयोगात् एतेन सिद्धमसदेव तवोक्तिजालं
३८० एतेन सौगतमतं विधिसाधकं तु
एवं क्रमोत्थनिजकर्मलयोपशान्ते० २७९ एवं च तद् यदि पृथङ् न च तत्स्वरूपं ५४४ एवं च नाऽन्धसमुदायवदस्य वस्त्व० १२०८ एवं च नो व्यवहतेविलयप्रसङ्ग० ४८ एवं च मुग्धजनताऽपि विचित्ररूपं १३१५ एवं च लक्षणगतोऽभिमतोऽर्थशब्दः ७११ एवं च सन्नपि घटोऽत्र यदा न दृश्यो ९९९ एवं च सिद्ध इह ते प्रतिबन्धकात्य० ३८७ एवं भ्रमत्वमपि न प्रमितिं विनैव ५०२ एवं समस्तजनकावगतेरभावे०
एवं स्थिते तव तु कारणमन्तरा चेत्
एवं स्थिते त्वनुमितित्वमतियथार्था ३४८ एवं स्थिते दहनहेतुतया प्रसिद्धा
एवं स्थिते भवति यस्य प्रधानभावात् ८३७ एवं स्थिते भवति सत्त्वगुणप्रकर्षे ३११ एवं स्थिते यदि भवेदिह शक्तिरेवा० २२ एवं स्थितौ भवति बाधतयैव दोषो० २६ एवं हि दोषसमुदायसमर्थनेन १९७ एषा क्षणद्वयगते न विशेषणे स्या०
एषा द्विधाऽपि वचनान्तरतोऽन्यतन्त्रे० ५११ एषैव युक्तिरिह बौद्धनिराक्रियायां ३७० ऐक्यं यथाऽत्र प्रतियोग्यनयोग्यपेक्षं १०५५ औत्सर्गिकं भवति बोधगतं प्रमात्वं ३८९
कण्ठादितोऽक्षरजनिर्जनताप्रसिद्धा ६४६ कण्ठोत्थिता मरुत एव विचित्रशक्ति० ३३ कथयति विबुधोऽन्यस्तत्स्वरूपाप्रविष्टं ८५४ कम्पोपलब्धिरत एव च खण्डितेऽश १५ कर्ता न सर्वजनकावगतौ समर्थः ११०१ कर्ता शरीररहितो न च सम्प्रसिद्धो० ५१६ कर्तृ प्रधानमिह सत्त्वरजस्तमोभि० ४८४ कर्तृत्वमस्य यदि बोधप्रयत्नकाम० ३०३ कर्मावृतत्वसमये वितथावभासा०
७०६ ९४१
२३७
१४० ३४१
३५२ ३५६
४८३ ५२० ५०८
६८६
५१८
८७०
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट - १
कर्मेन्द्रियत्वमपि तत्त्वमथैकमेव
कर्मोद्भवो भवति नो क्षणिकत्वपक्षे कल्पो न चाऽऽद्य इह तेऽभिमतो यतो नो कस्मिंश्चिदेकविषयेऽभ्यसनेन शास्त्रे
काणाद- गौतमनयावत एव जातौ कारुण्यतो भगवतो यदि ते प्रवृत्तिः कार्यं कर्तृकमिति स्वत एव लोकैः कार्यत्वतो भवतु कारणजन्यताऽस्य कार्यात्मकं द्वयमिदं यदि तत्समग्र० कालं च केचिदिह जैनमतेऽपि भिन्न० कालत्रयेऽपि च जडे ननु चेतनाया कालात्मरूपगुणिदेशफलस्वदेश० कालाद् बभूव भविता भवतीति भिन्नाद् काले विशेषणतया ननु द्रव्यतादे० कालो य एव खलु वस्तुगतस्य चैक० किं कारणं विषय इष्ट उताऽन्य एव किं तार्किक ! त्वमिह तर्कपरायणोऽपि किं नास्तिकोऽपि गुरुदोषकलङ्कितोऽपि किं नो घटोऽयमितिवत् तव सम्प्रदाये किं पूजया किमु तथेन्द्रियनिग्रहेण किं लाघवादनुमितिव्यतिरिक्ततां त्वं किं वा घटादिप्रतियोगिकता जलाद्या० किं वा न चित्रमतिरत्र पृथक् पदार्थात् किं वा न मानसमतिस्तत एव धर्मे० किं वा प्रधानमपि नैव भवेच्च तत्त्वं किं वा यथा तव मते ननु लक्ष्यभेदात् किं वा यथाऽत्र करणाकरणे न काल० किं वा यथोत्तरमतेः प्रथमा मतिः स्याद् किं वा यदैव तव कश्चिदपीह भाव किं वा ययोरपि प्रतीयत एव भेदः किं वा सुवर्णमपि नेत्रसमानमेवा० किं वाऽप्रमात्वमपि तत्समकक्षमेव किं विस्मृतं च भवता जिनतन्त्रविज्ञ:
७९१
१२५
५९३
६५४
१३०२
५३३
५००
५०९
७९४
१२४०
१०६५
११८९
१३१४
८३४
११९०
२५५
८६६
८६७
२१६
५५३
६४५
१०६८
२१२
२१
७८३
८४०
१३१
२६५
८०१
१२१३
१७०
३४३
८८७
किं सर्वथैक्यमनयोर्ननु कार्यतस्ते किञ्च त्वया त्रिगुणसाम्यमकार्ययोग० किञ्च त्वयाऽपि किमु नो जिनसम्प्रदायो० किञ्च द्वयं जनिमतां प्रथमं तव स्या०
किञ्च प्रधानमनुमाविषयस्तवैकं किञ्च प्रधानमपि नैक्यविभुत्वयोगि
किञ्च प्रमाणमतिगा न विशेष्यतैकै०
७९५
८०२
७१८
८०७
८००
८०४
८८२
३४९
६००
२५८
किञ्च स्वतन्त्रगमके खलु धर्म्यसिद्धि०
५४६
किञ्च स्वतोऽस्य विषयेण न चाऽस्ति सङ्गो ७२८
६६७
१२१२
६७
९७५
८२
किञ्च स्वभाववचनं न निरर्थकं ते किञ्चांऽशयोर्भवतु भेदमतिस्तथाऽपि किञ्चाऽक्षजाऽत्र सविकल्पकबुद्धिरेव किञ्चाऽक्षपादमतदर्शित एव भिन्नो० किञ्चाऽक्षयोगविमुखानपि भावसार्थान् किञ्चाऽनुगाम्यपि न तत् तत एव तत्र किञ्चाऽनुमानत इयं न पृथक् त्वयेष्टा किञ्चाऽनुमानमपि देहसमानमान किञ्चाऽनुमानमपि नैव विभिन्नमर्थं किञ्चाऽन्यसन्ततिलये सुगतोऽपि नो ते किञ्चाऽपरः सुगतशिष्यप्रदर्शितोऽस्य
११०४
१९२
४८६
२३६
२४७
८४६
७३४
८९२
८५१
२२२
४९०
४२१
२७
४८१
२४८
३१३
किञ्च प्रमाणमपरं यदि नैव किञ्चित् किञ्च प्रसिद्धिपदवीं न गुरुस्तवाऽपि
किञ्च व्यवस्थितिरियं निखिलेषु मानात्
किञ्चाऽप्रयोजकमिदं व्यभिचारशङ्का ० किञ्चाऽर्थगोचरतया प्रमितौ प्रमात्वं किञ्चाऽवगाहनविशेषवशाच्च पूर्व० किञ्चाऽस्ति मुक्तिरिति बोधत एव मुक्ति: किञ्चाऽस्त्वदृष्टमिह कारणमर्थराशी किञ्चाऽस्य कीटमशकादिमतिः किमर्था किञ्चाऽस्य बोधविषयत्वमपेक्ष्य बोधो किञ्चाऽस्य मानमपि नस्तनुनामकर्मो० किञ्चाऽऽलयाद् भवतु बोधत एव कस्मा० किञ्चित् करादिकविकल्पभरेण ते चेत्
१११
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
किञ्चिद् विलक्षणतयाऽभिमतं च भूतं किञ्चेन्द्रियं भवति नाऽर्थमतौ समर्थ किञ्चेन्द्रियार्थघटनैव यदि त्वदिष्टा किञ्चेष्टतादिकमपि प्रथितं न कस्मा० किञ्चकता यदि तु भावनिषेधयोः स्या० किञ्चैकताभ्रमनिमित्तमवश्यमेभिः किञ्चोभयादिप्रतियोगिकशून्यताऽपि किन्तु स्मृतिर्भवति साऽनुभवं विना नो किन्त्वस्य साध्यविरहेण विनोपपत्ति० कुम्भः पटोऽयमिह नीलमियं च शुक्ति० कुम्भादिकस्य निजरूपहतिश्च तत्त्वे कुम्भादिभावमिह योग्यमवाप्य दृश्यो० कुम्भोऽयमित्यवगतिस्तु घटत्वमेकं कुम्भोऽयमित्यवगतेस्तु प्रवृत्तिरिष्टा कुम्भोऽस्ति नाऽस्त्युत किमित्यपरेण पृष्टो कूटत्वमत्र गुणरूपतया न तेष्व० कूटस्थतापरिगते पुरुषे न युक्तं कूटस्थनित्यपुरुषस्य कदाचिदस्ति कूटस्थनित्यपुरुषस्य यतस्त्वयैवा० केशादिवस्तुविषया यदि न प्रमाणं कैवल्यजन्मसमयात् प्रथमं जिनोऽपि
कोटिद्वयावगतितो ननु संशयः स्यात् कोऽप्यस्ति नो विनिगमो यत एव तस्मा० ख्यातिः सतां भवति न त्वसतामभावात् गम्भीराप्तागममतविबाधादिप्रज्ञप्तियोगो० गर्वाकूपारवादिप्रथितनिजमताकूतविध्वंसलीला० गोव्यक्तिभेद उत किं सकलस्य गोर्वा गौणं परार्थमनुमानमवैति विद्वान् गौणं प्रमाणमिह नैव मतं बुधानां ग्राह्यं बहिः स्थितमबाधितबोधभास्यं ग्राह्यं विकल्प्य तव खण्डयतोऽत्र भावः ग्राह्यक्षयोदयवशात् तु कथञ्चिदस्य ग्राह्यस्वभावपरिणामतया तु बाह्यो
६८३
३२६
२०
४५३
११३३
१०३५
९८८
६६४
१२६५
१८२
११३०
५८०
९००
११३४
११२२
९८१
७३६
७२६
७७६
१०४०
८७१
६३६
१२३५
२९७
१३३६
२
८९
१०५६
५६३
२०८
२८५
९११
३१८
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
ग्राह्यांशतोऽपि प्रकृतेऽस्ति न तस्य भावो ग्राह्यो जडोऽत्र किमु नो न तथास्वभावात् ग्राह्यो हि बोधजनको यदि सम्मतः स्या० ग्राह्योऽणुरूप उत वाऽत्र महान् घटादि: ग्राह्येोऽपि बोध इह संविदितो निजेन घटपटशकटाद्याः स्वस्वभावानुसारि घ्राणत्वगक्षिरसना श्रुतिसंज्ञकानि चत्वारि सर्वजनताक्षजगोचराणि चारित्रशुद्धिजनितात् क्षयशान्तितो यो चार्वाकदर्शनमथ व्यवहारनाम० चार्वाकबाललपितं गुरुगौरवेण
चार्वाकमन्दमतयो हि परात्मसंस्था चित्रात्मके घटपटादिपदार्थजाते
चेत् तत्त्वता तव मते यदि धर्मिमात्रे चेदन्यतो ननु भवेदनवस्थितिस्ते
चेद् ग्राहकः स्वविषयं स हि बाधतां नो चेद् रत्नकोशकृदनिश्चयरूपशाब्द० चेद्वस्तुतो यदि विशेष्यविशेषणत्वे चेल्लाघवात् तव प्रथा यदि तस्य तर्हि चेष्टादिलिङ्गजनिता मितिरस्मदादे० चैतन्यतापरिगतौ पुरुषौ मिथोऽभि० छायातम:क्षितिजलानलवायुचित्त०
छेदेऽपि किञ्च शिरसोऽन्यसमाश्रिता सा जन्यत्वतोऽप्यनुगता विशदावभासि० जन्यस्य वृत्तिनियमो ननु कार्यभावाद् जयति ऋषभदेवो बुद्धतत्त्वप्रबन्धः जाग्रद्दशोत्थमतितो ननु यद्वदेव
जाड्यात् प्रवृत्तिरफलाऽपि मता त्वयाऽस्या जातिः समानपरिणामतया त्वयाऽपि
जाति: समानमतितो न च सम्प्रसिद्धा जात्यन्तरे भवति वस्तुनि नैव दोषः जात्या समानमपि तन्निखिलावगाहि जैनैर्द्विधेन्द्रियनिरूपणमुक्तमत्र
४३४ ३१५
१३
२५४
३१७
५
६९४
५५४
१००६
१२९७
५८५
५८६
१४९
७८२
१०५
२६३
८७९
९
११०
६१०
७३५
९२७
६७८
१४
५१५
१
२६७
७३९
८७
७१
४६४
५१४
३२४
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
९६५
४९
जैनैर्मतोऽधिकरणेन समं तु तस्य जैनोऽस्म्यहं प्रतिपदं प्रतिवादियुक्ति० तच्च द्वयं युगपदेव समामनन्ति तच्चोपमानसहितं ननु गौतमीयाः तज्ज्ञानदर्शनभिदा द्विविधं बुधेन्द्र० तत् सर्वदाऽप्रकटमेव मतं त्वया चेद् तत् सूत्रयत्यनुमितिप्रमितेहि सत्त्वात् तत्कारणानि यदि नेश्वरसम्भवानि, तत्खण्डनं प्रथममेव तु मानसामा० तत्ताविशेषणमपि प्रथते विनैव तत्त्वं न चाऽन्यबुधदर्शनतन्त्रसिद्ध तत्त्वान्तराजननतो यदि तत्त्वता नो तत्त्वार्थभाष्यविवृत्तौ बुद्धसिद्धसेन तत्त्वे न किं गगनमप्यनुमोदितं स्या० तत्त्वे न तस्य सकलार्थप्रकाशकत्वं तत्त्वे नयैकवलतो न च लक्षणेऽस्त्व० तत्त्वे प्रथा भवति किं व्यवधानभाजां तत्त्वे बृहस्पतिविलोकिततत्त्वसङ्ख्या० तत्त्वेऽथवा भवतु मात्रनुभूतवस्तु० तत्राऽनवस्थितिलता न हृदि स्थिता ते तत्राऽनवस्थितिलतापरिवेष्टनान्न तत्राऽन्यकारणसमग्रसमन्वितः तत्राऽप्यपोहघटना यदि ते मता स्यात् तत्राऽविरुद्धविषयानुपलब्धिहेतुः तत्राऽश्वकल्पनधियः समये त्वयोक्ता तत्राऽसदंशवचनेन च तार्किकाणां तत्राऽहमित्यधिगतिर्न शरीरतोऽस्ति तत्राऽऽदिमो भवति सङ्ग्रहनामधेयो तत्रेन्द्रियाण्यभिमतानि नयेऽत्र पञ्च तद् बुद्ध्यहङ्कृतिमनोनियतं शरीरं तद्ग्राहकोऽन्यविषयोऽथ च तुल्यकालः तद्भाष्य एव मतमस्य तु सप्रपञ्च० तद्वत् त्वयाऽप्यनुगता निखिलेषु तत्त्वे०
११६९ तवृत्तिरत्र कपिलानुमतं प्रमाणं ८१२ तद्व्यञ्जकास्तृणमणित्वमुखास्तु धर्मा ९१२ तद्व्याप्यवत्त्वविषया मतिरन्यबोधे
६४३ ९०६ तन्त्वंशुयोगजनकादुभयत्र वस्त्रं
८५० ९१० तन्यूनगोचरतया यदि मानताऽस्या०
१०२३ ७५८ तन्मानसत्वनियतं न परोक्षवृत्ति
५६९ १३०६ तर्कात्मकः सकलसाध्यसमग्रहेत्वा० ६२० ५३१ तल्लक्षणं स्वयमनिश्चितरूपमेव १०८८ तस्मात् कथं वद भवेन्न यदेकवर्णो० ३६१ ३१ तस्मात् कथं सकलपूर्वपरादिभावः
१७९ ६९३ तस्मात् कथञ्चिदिह भिन्नमभिन्नमर्थं
८५८ ७७२ तस्मात् प्रमाणमनवद्यमिह प्रमातृ०
८९१ १२२१ तस्मात् स्थितं सदवगाहिमतिस्तु पूर्वं
१०१९ ९५९ तस्मादपोहविषयैव च शब्दतो धी०
१११३ ४०० तस्मादयं विसदृशो गवयस्य शक्यो
१०२९ ८४१ तस्मादशक्त इह शक्तिनिराक्रियायां
१००५ २५६ तस्माद् यथा तव मते महतां प्रवृत्ति० ७१७ ६०२ तस्माद् यदा नयनतोऽस्य मतिस्तदा ४०२ ६६१ तस्माद् विकल्पनिकरो भवतोऽर्थवानो ५३० तस्माद् विशेषणमिहाऽथ विशेष्यमाभ्यां ४०७ तस्मान्न चाऽक्षिचरणानुमतोऽत्र शब्दो १०७२ तस्मान्न सुख्यहमिति प्रमितिम॑षार्था
६१४ ९१ तस्मिन् द्विधा भवति जैनमते तु धर्मे० १९७१ १०८० तस्मिन् परोक्षमतियोगिनि कल्पिते तु
५७० ५६ तस्या बलानयनजा युगपन्मतिस्तु
१६३ १०६० तस्याः क्षयोऽपि यदि तर्कसमाश्रयेण ५६० ६११ तस्याऽनुरूपसविकल्पकबोधतश्चेत्
५४ १२८४ तस्यैव सत्त्वगुणवृद्धिकृता त्ववस्था
६८७ १०१० तात्कालिकं यदि रजस्तमसी व्यपेक्ष्य ७०४ ७१९ तात्कालिकैरविदिताखिलवेदतत्त्वै०
४३८ ३०४ तार्किक ११९, १२३, १२५, १३६, १५६, १७१, १९१, ९१९
४८७, ४८८, ५२८, ५७२, ८३४, ८३९, ७७९
८६६, ९९१, १०६०, १०९७, ११३७, ११४०,
तार्किक० इति १२८ तमपृष्ठे वाच्यम् ।
४३१ ८४
१७५
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
११५५, १२४६
तादात्म्यतापरिणतिर्न कदाऽपि यत्र तादात्म्यतो भवति जातिविशिष्टबुद्धि० तादात्म्यतो भवति तार्किकसम्मताऽत्र तादात्म्यतो यदि मते तव धर्मितत्त्वे
तादात्म्यतो विषयता नियता मतेहि
तीर्थप्रवर्तनपटुर्भवतां मतेऽपि
तुर्यस्य चाऽऽद्यघटनात्र पञ्चमः स्यात् तेनाऽपि तत्त्वमननं कपिलानुसारि तेनाऽऽगतं प्रमितिलक्षणमुक्तमत्र तेनेन्द्रियार्थघटनाप्रभवत्वमस्य तेनैकदीर्घतरतन्तुवितानताना० तेषां कथं निजमतक्षतितो न भीती
तेषां न दोषकणतोऽपि जिनानुगानां तेषां मते घटपटाद्यपि नैव सिद्धये० तैः किन्तु देशसमयद्वयमात्रमेवा० तैः सर्वथैव सदसत्त्ववियोगरूपा० तैरष्टभिर्भवति भेदप्रधानभावात् तैर्जात्यखण्डसमभावविभिन्नमात्रे ०
त्रित्वादिकं च समुदायिषु खण्डशश्चे० त्रैगुण्यमेव यदि हेतुतया मतं ते त्रैगुण्ययोग्यपि यथा न तव प्रधानं
त्वत्प्रक्रिया हि निखिलैव निरङ्कुशाऽऽवि०
दण्डस्तथा न च विशेषणमेव पुंस० दण्डादिकं यदि भवेन्न च कुम्भहेतुः दण्डान्वितः पुरुष इत्यपि बुद्धिरण दण्डीति बुद्धिरपि चाऽक्षसमुद्भव दण्ड्याय दण्डमिह यन्नृपतिर्ददाति दाराः प्रियेति वचनाननुगामिभावाद् दाहे मणेस्तु प्रतिबन्धकता तथा त दीपो यथा भवति रूपमतौ समर्थ० दुःखादि तस्य खलु कार्मणदेहयोगा० दुःखानुभूतिवशतः खलु दुःखभोगी
१०००
दुःखापनोदनकृते च भवेद् विलासः दुर्बोधागमसूत्रमात्रघटिते मार्गे दुरूहावधौ दूरादयं झटिति शब्द उपागतोऽयं १२४६ दूरेऽस्तु बोधघटना ननु रूपमेव
१११
७८१
२१७
५४८
११२७
८०९
४७
१७
८४९
११३२
३७३
११५८
११८४
१२००
दृश्यं भवेद् यदि तदा स्वयमेव मिथ्या दृश्यत्वतो जगति तेऽभिमतं न सिद्धिं दृष्टा मयेति पुरुषः प्रकृतेरुपेक्षा० दृष्टा यदैव विपिने भ्रमता मया गौ० दृष्टान्ततः स्वयमिहाऽऽकलयन्तु विज्ञा दृष्टान्तदोषभजना नवधाऽन्वयेन दृष्टार्थकं च वचनं न जिनप्रणीतं दृष्टो हविर्गुडकणिक्कसमष्टिरूपे दृष्टोऽवगाहनविशेषबलाच्च लोष्ठः देशात् क्रमोऽविरलदेशसमाश्रितेषु १०४४ देशादयस्तु बहवोऽननुगामिभावात् देशान्तरं तव मते न गृहीतमक्षैः देशेन दृष्ट इह नैव भवेच्च दृष्टो देशेन देशदलनं ननु सम्मतं नो० देहः स चाऽऽत्मनियतोऽध्यवसायभेदाद् देहस्वरूपपरिणामबलेन भूता० देहार्थमेव शयनाद्युपभोग्यमिष्टं देहे तु चेतनतयाऽभ्युपगम्यमाने देहैकदेशदलनेऽपि च सात्त्विकानां दोलायमानतनुता तु विरोधभाना० दोषस्त्वयं श्रुतिगतावरणेऽपि तस्मात् दोषाकलङ्कितमतिः पुरुषो न कोऽपि दोषादतो भवति नैव च शब्दतोऽर्थो दोषोऽथवा भवतु किं न गुणस्वभावा० द्रव्यं प्रधानत उपैति न पर्ययं तु द्रव्यं मनो भवति पुद्गलरूपमेव द्रव्यस्य नाशजनितो यदि तस्य नाशो द्रव्यस्वरूपमिह जैनमतप्रसिद्धं
११५६
६७२
७३१
७३३
७९२
७८
६७०
१४८
द्रव्याणि षड् जिनमते प्रथितानि तत्र
७७
५३९
१३१३
९३५
१७२
७१५
४२२
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
५३४
१३३०
१५९
९८३
४६८
४६७
७४७
५७
१०८३
१२६९
३८६
५५५
८५२
३६८
१२३३
६१६
११५
८७२
६६२
६०१
७३२
६७६
६५८
८७६
३६७
३५३
११११
३३९
१२८०
१२४२
८४७
१२२९
१२३०
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
५५१ १५६ ६८ ११८१ ३९० ११३७ ८१० ४४४
७०७
४९९
६८५ १८० ७५२ ५०५ ५०४
द्रव्यान्तरोपजननादथ वा तु पूर्व० द्रव्यार्थजात्यभिदया तु समग्रमेकं द्रव्यार्थपर्ययप्रभेदत एष इष्टो द्रव्यार्थिकस्य खलु नैगमसङ्ग्रहर्जु० द्रव्यार्थिको भवति चाऽयमपि स्थिरार्थ० द्रव्यार्थिको भवति यद्यपि शाब्दिकानां द्वित्त्वं प्रमाणगतमत्र समासतोऽस्ति द्वित्वं च चन्द्रमसि यद्यपि दोषसाम्यात द्वैतीयके तु किमु सातिशयास्तथा स्युः द्वैतीयके तु बहिरर्थविलोप एव द्वैतीयके न नियमोऽविनिगम्यभावात् द्वैविध्यमस्य पुनराहतसम्प्रदाये धर्मं विलोक्य ननु तेन सुखं करोतु धर्मद्वयस्य युगपत् तु विवक्षितस्य धर्मादयो नियमिता नियमेन कार्य धर्मादिसङ्घटनमत्र न केवलं नो धर्माद्यपूर्वसहकारिवशान्महेशो धर्मान् समादिशति वस्तुगतानशेषा० धर्मास्तिकाय इव जैनमते प्रसिद्धो० धर्मास्तिकाय इह जैनमतेऽस्ति लोका० धर्मिप्रसिद्धिरिह जैनमतानुगानां धर्मो यथैव न च धर्मिविभिन्नरूपो धर्मोऽपि नो नियमतः प्रतियोग्यवृत्ति धारावगाहिप्रमितौ न यतोऽस्ति वृत्ति० धूमाद्भुताशनमतिस्त्विह कार्यलिङ्गाद् धूमार्थिनां नियमतो ह्यनले प्रवृत्ति ध्वंसो भवेन जनको न च प्रागभावो ध्वंसोऽपि यत्र प्रतिबन्धकभावराशेः न ज्ञानलक्षणमतोऽभिमतो जिनानां न प्रक्रियानुसरणेन भवेद् व्यवस्था न प्राप्यकार्यभिमतं नयनं ततो नो० न प्राप्यकार्यभिमतं नयनं मनश्चा० न स्वर्गलोकमनुगच्छति कोऽपि जीवो
८४८ नन्वत्र गौतमसुतानुमतो न माता १२१६ नन्वत्र तार्किकमतेन विभुनिरंशः १२७९ नन्वत्र बुद्धतनया विविधैर्विकल्पै० १२८१ नन्वत्र वेदनय आगत आर्हतानां १३०४ नन्वप्रमाणकमिहाऽभ्युपगन्तुमर्ह १३२१ नन्वस्तिता यदि तु तार्किकगोत्रसिद्धा १२२५ नन्वस्तु लक्षणमिदं निरुपद्रवं व० ३०७ नन्वीदृशो नियम आद्रियते भवद्भि० १२१ नन्वेतदप्यनुपपन्नमवेहि यस्मात् २३१ नन्वेतदर्थमिह सर्वपदार्थविज्ञो० १०६ नन्वेतदर्भकमतं भवतां विचित्र० ९०८ नन्वेवमस्तु सविकल्पकबोधसिद्धिः ५३६ नाशस्तिरोभवननामक इष्यते चेत् १९८० नाऽकारणाद् भवति कार्यमतोऽनुमा स्यात् ५४२ नाऽचेतनं भवति चेतनसव्यपेक्ष० ८३२ नाऽत्र प्रभाकरमतेन समानताऽपि ५३५ नाऽत्राऽक्षजस्त्वभिमतो निखिलोऽर्थबोध: ११८८ नाऽत्राऽणुमानमपि जैनपदार्थविज्ञैः १२३४ नाऽदृष्टतोऽपि नियमस्तव युज्यतेऽत्र १२३१ नाऽनन्तधर्मघटनाऽभिमतैकरूपे० १०५२ नाऽनन्तधर्मविषयत्वत एवमस्य १५१ नाऽन्यत् तदा भवति सत्त्वमतो मते नो ११७५ नाऽन्यानुभूतविषयस्मृतिरन्यपुंसो १०२५ नाऽपेक्ष्य गौतममतं च तथा लघुत्वं १०७४ नाऽपोह एव तव जातिपदाभिषिक्तः ६६९ नाऽभावता तमस आर्हतसम्प्रदाये ९८९ नाऽभ्यासतोऽपि सकलावगमोद्भवः स्या०
नाऽम्भोनिधेरुदरवर्त्यनलेन धूमो
नाऽयोग्यमिष्टमिह श्रृङ्गमतो यदि स्यात् । ५२३ नाऽलौकिको भवति गौतमसम्मतोऽपि १६ नाऽसत्पदार्थविषयावगमेऽस्ति हेतुः १०११ नाऽसन्मतौ तव तु कारणमस्ति किञ्चि० ५५२ नाऽस्मन्मते भवति पर्यनुयोगयोगः
१०१२ ४९८ २३५ ८७५ २२८ ६५९
६४९
८८ १७३
४१२
९९१
६२६
१०३०
६०८
४०४ ६३८ २९५ १०९९
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
२५१
१३२६
६४१
४७८
४८५
२०९
नाऽस्य प्रथा भवति वा परमाणुपुञ्जाद् नाऽहं प्रतीतिविषयो भवतामिहाऽऽत्मा नाऽऽकाशरूपमिह तु श्रवणं मतं च नाऽऽत्मा न बोध इह नैव घटादिबाह्यः नाऽऽत्माश्रयो भवति बोधमतेः स्वतस्त्वे निःक्षेपा ये प्रतीता
जिनवरतनयैर्व्यापकत्वेन विज्ञै० निःस्पर्शतानिबिडदेशप्रवेशितादेः नित्यत्वतोऽस्ति वचसां यदि दोषमुक्ते० नित्यस्त्वया स तु मतो विभुरेकरूपः नित्ये विभौ च नहि कर्मकलापबन्धो० नित्यो महान् सकलमूर्तगतोऽयमात्मा नित्यो विभुश्च तव सम्मत एष कादि० निष्टङ्कनं भवति चाऽक्षमतेर्घटादे० नीलस्य बोधत इयं पृथगेव बुद्धिः नीलादिता भवतु तेऽत्र कुतः प्रमाणाद् नीलादिरूपमणुमात्रमथाऽभिधत्से नीलाद् यथाऽयमभवन्नयनात् तथैव नेत्रादिकं नियतगोचरमत्र दृष्टं नेत्राद्यजन्यविषयत्ववतस्त्वहं त्वं नैकान्ततो भवति कोऽपि विनाशधर्मा नैकान्ततो भवति च भ्रमतैव तस्य नैक्यत्वतो ग्रहणमत्र भवेत् तथात्वे नैतद्गुणात्मकमिहाऽभिमतं जिनानां नैतेऽक्षपादसुततोऽभिमतास्तु दोषा नैयायिकैः पुनरिहाऽनुभवापलाप० नैयायिकैरपि न तत्र मतं व्यलीक० नैयायिकोपगतमिन्द्रियमप्रमाणं नैव ज्वरादिकृतमस्ति तदोष्णतादि नैवाऽगृहीतनियमोऽनुमितौ समर्थो नैवाऽनुमा नियतलिङ्गमतिं विना स्यात् नैवाऽपकृष्टपरिमाणतया महत्त्वे नैवेह जं समयमित्यपि सूत्रमन्यै०
११६ नो कल्पनारचित एव विवक्षयाऽस्ति ११७७ ५५७ नो कार्यकारणसमाश्रयणेन कोऽपि
५७८ १६१ नो गौतमानुमतमत्र मतं च साध्य०
१०५१ नो चेद् विरोधहरिभीतिरलं कथञ्चिद् ८१३ २८४ नो जातिभेद इह जैनमतानुगाना०
१७४ नो तत्स्वभावशरणेन पदप्रसारो
४४६ नो तर्हि युज्यत इदं त्रितयं घटत्वा० ११३९ १०८९ नो दृश्यकल्प्यविषया मतिरस्ति काचिद्
नो ३७७ नो देहवृद्धिबलतो नियमेन प्रज्ञा०
६५६ ९९२ नो नः क्षणक्षयतयाऽभिमता: पदार्था १२६ ४८७ नो निर्विकल्पकमतिः स्वत एव सिद्धा
नो निर्विकल्पनधियोऽक्षमतिर्भवेन्नो ३५७ नो नीलपीतरचितव्यतिरिक्तचित्रा०
२१४ ४७१ नो पञ्चलक्षणमिहाऽनुमतं तु लिङ्गं ६१७ २२० नो प्रक्रियाऽपि परमार्थत इष्यते सा नो भिन्नकालपुरुषैर्व्यवधानभाग्भिः
३९७ १०३८ नो मानसं च बहिरिन्द्रियमन्तरेण १८८ नो मानसं भवति चाऽणु यतस्तदाऽस्य ३२७
नो मानसत्वनियतानुमितित्वजाति० ६४२ नो मोदकाद्यपि हविर्गुडकाद्यभिन्न०
६०३ ३५५ नो युज्यते त्ववयवी व्यतिरिक्त एका ७२ ३०८ नो यौगपद्यमपि तत्र ततो नयज्ञै०
नो रश्मिमन्नयनमस्ति कुतोऽपि मानात् १६४ ५५०
नो लाघवाद् भवति मानबहिष्कृताद् वा ९४८
नो वायवो वरणकारिण आप्तमान्या० ९३४ नो वाऽस्ति ते विनिगमो ननु येन किञ्चित् ७९८ २९६ नो वै विलक्षणतयाऽप्यणवो मतास्ते
१०३७ ३२३ नो शक्तितो भवति चेतनता मते ते
६०६ ६८२ नो संशयत्वमिह तेन मतं हि कार्या० ५६२ नो सङ्ग्रहे घटपटादिविशेषबुद्धे०
१२८७ १०४५ नो सङ्ग्रहे न च मतो व्यवहारनीतौ १३०३ ४८० नो सत्त्वमात्रत इह प्रभवन्ति शब्दाः ३५४ ९१५ नो सत्यतार्थनियता न च बोधगा त० १३०८
४०३
५४३ ६१२
९२२
१४३
२१८
३६२
८८०
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०१ २१९ १०३३ ११४७
१३५
७६
४१७
११५१
१२७८ ५७५ ४३० ४७९ ५९२ ३३४ ६१९
परिशिष्ट-१ नो सन्तितिर्भवति किञ्च मता तवैका नो सर्वथा जिनमते विलयोऽस्ति कस्या० नो सर्वथाऽवयवतो व्यतिरिक्त एव नो सर्वथाऽवयवरूपतयैव जैनैः नो हेतुता भवति जातिरखण्डधर्मो नोच्चैरिदं श्रुतिविदा वचनीयमाई० नोत्पत्तुमर्हति तथा सकलार्थबोधो नोत्पादवान् यदि मतस्तव बुद्धिनाशो नोल्लङ्घनं च शतशः क्रियमाणमेव० नोऽदृष्टमिष्टमखिलेऽपि च जन्यभावे पक्षश्चतुर्थ इह चेद् यदि वाद्यभीष्टः पक्षाप्रसिद्धिरिह दोषतया न चेष्टो पक्षे तु हेतुविरहोऽभिमतः स्वरूपा० पक्षे द्वितीय इह किं न घटादयः स्युः पक्षो द्वितीय इह तेऽनुमतो यदि स्या० पक्षो यतो भवति साध्यविशिष्टधर्मी पक्षोऽन्तिमो यदि तदा ननु देशकाला० पक्षोऽन्तिमो यदि तवाऽभिमतस्तदाऽत्र पक्षोऽन्तिमो यदि मतस्तव तर्हि सोऽपि पङ्ग्वन्धयोरिव परस्परसव्यपेक्षा पञ्चप्रकारमिह जैनमतं परोक्ष० पट्टे तस्मिन् समजिनसुतख्यातसाम्राज्ययोगे पर्यायता भवति तेन नये न चाऽस्मिन् पर्यायनीतिबलतोऽप्युचारतोऽत्र । पर्यायसंज्ञक इहाऽभिमतो विशेषो पश्योदयाचलगतं रविबिम्बमङ्ग० पाकप्रभेदघटना यदि तत्र तेषां। पापं विधाय पुनरस्य विनाशकर्तु० पारम्पर्याद् यमुपगतवान् ख्यातकीर्तिप्रतापः पित्तादिको नयनगोऽथ यथैव दोषो पित्रोः कदाचिदिह शुक्ररजःसमुत्थो पुंस्त्वादसावहमिवाऽल्पविदभ्युपेयो पूर्वं निजस्मृतिपथं समुपागतेऽथ
३९२
२४९ पूर्वं मया रजतरूपतयैव दोषा० ४८२ पूर्वं य एव भवता विनिभालितोऽश्वो ११२ पूर्वक्रमेण तदुभाववगत्य लोकः ६७३ पूर्वप्रदर्शितविकल्पभरैः किमिष्टं ९४० पूर्वप्रसञ्जनभयाद् यदि तद्विरुद्ध० ११८२ पूर्वादिके यदि तु सन्निधिमन्तरा ते ३९९ पूर्वापरादिविगतं खलु वर्तमान० ७६२ पूर्वापरी न समयौ निखिलज्ञयुक्तो ४१३ प्रक्रान्तमाविषयभागविधिप्रवीणो ४८८ प्रज्ञादिकं प्रतिदिनं च शरीरवृद्ध्या
प्रत्यक्ष एव स च केवलबोध इष्टो ५४५ प्रत्यक्षतः सकलदेहभृतां स्वदेह १२६७ प्रत्यक्षतो नहि कदाचिदपि क्वचिद् वा १०३ प्रत्यक्षतो यदि गुणो नयनादिगोऽत्र
प्रत्यक्षतोऽनुमितितोऽथ च शाब्दतो वा ५६४ प्रत्यक्षपूर्वकतयैव न चाऽनुमानं ८३१ प्रत्यक्षबाध इह दुर्धर एव दोषो ৩৩০ प्रत्यक्षबाध इह पक्षगतो हि दोष० ८०६ प्रत्यक्षबाधिततयाऽप्यनुमा प्रतिष्ठां
प्रत्यक्षबुद्धिरिह नैव ममाऽपि मान्या १२२३ प्रत्यक्षमेकमिह मानतयाऽभ्युपेतं १३३५ प्रत्यक्षमेव गुरुसम्मतमत्र मानं १३२० प्रत्यक्षमेव तव सम्मतमत्र नाऽन्यत् ११९९ प्रत्येकपक्षपरिदर्शितदोषजालो १२४३ प्रत्येकमेव प्रतिभङ्गमनन्तधर्मे १०५७ प्रत्येकवृत्तिरिह चाऽपि न चेद् रसादि० ९३१ प्रत्येकश: सकलवस्तुमतौ समर्थक ५३७ प्रत्येकशब्दसमयाच्छशशृङ्गवाक्याद् १३३३ प्रत्येकशो घटपटादिषु वर्तते नो ३४० प्रत्येकशोऽपि पटकुम्भमठादिशब्दाः ५७४ प्रद्वेष एष तव चेद् यदि बाह्यभावे ४१६ प्राकट्यगा प्रकटता तव सर्वदाऽऽवि० १०५८ प्राकट्यमेव कपिलेन तवोक्तमावि०
११०९
१६६
४१५ ४२४ १३०० ९०५ ६३५ ११०६ १२०१ ६०४ ४१० ३०० ५७९
११००
२४३
७५९
७५७
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
२०७
१९५
२६०
४३७
बाद्धागमा
५९५
प्राणत्वजातिरपरा न मते तवाऽस्ति प्राधान्यगौणविधया द्विविधोऽत्र मार्गः प्राधान्यतोऽर्थमननप्रवणा इमे तु प्राप्तप्रकाशपटु नेन्द्रियमत्र किञ्चा० प्राभाकरस्य मतमप्यनयैव युक्त्या प्राभाकरेण भयतस्तव बोधमात्रे प्राभाकरोऽत्र विषये न कथाधिकारी प्राभाकरोऽपि पुरुषत्वसमन्वयेन प्रामाण्यबुद्धिरपि नैव प्रमास्वरूपा प्रामाण्यमंशमिह बोधगतं विशेष० प्रामाण्यमत्र परमार्थत उक्तमेभिः प्रामाण्यमर्थघटितं न विनाऽर्थसिद्धि प्रामाण्यलक्षणमबाधितगोचरत्वं प्रामाण्यसंशयमतिर्न भवेत् स्वतस्त्वे प्रेक्षावतां न विफलाऽत्र प्रवृत्तिरस्ती० प्रोद्यत्तत्त्वविबोधबीजविदलन्मिथ्याधरोत्थाङ्कुर० फूत्कार एव सहकृत् तृणतोऽग्निभावे बाधः परैरपि मतो ननु लिङ्गदोषः बाधस्तु दर्शितदिशा ननु पक्षदोषो बाधां विनैव न च सत्त्वमतिर्नयज्ञैः बाधादिदोषकलुषार्थतयाऽनुमाना० बालस्य जन्मसमयेऽपि च दुग्धपाने बाह्यं सुखात्मकमतो नयनादितोऽस्य बाह्यो यथैव प्रतिबिम्बति ते मतौ किं बिम्बानुमा भवति या प्रतिबिम्बनेन बुद्धिः सती तव मते न विनाशमेति बुद्धिर्घटादिविषया परमाणुपुञ्जाद् बुद्धिर्जडाऽपि पुरुषप्रतिबिम्बनेन बुद्धिर्न चाऽस्ति तत एव न बद्ध्यतेऽसौ बुद्धोक्तवाक्यजनिते यदि न प्रमात्वं बुद्धोऽस्म्यहं परिजना मम सर्वबौद्धा । बुद्धौ प्रमात्वमपि तत्र निवेश्यते चेत् बुद्धौ भवेदपि च सा न च तेन बद्धो
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ६७९ बुद्ध्यात्मभेदमतिरेव हि मुक्तिहेतु०
७८६ ८८५ बोधं तदर्थमपि येन समानहेतु० १३०९ । बोध: सदैव पुरुषस्य निजस्वरूप०
७४३ १७७ बोधः स्वपूर्वमतितो जननात् प्रमात्मा ८९३ ३०२ बोधक्षणे क्षणिकवादिमते न सत्ता० २९८ बोधानतिक्रमणतो विरहस्तु सोऽपि
१०६९ ४५७ बोधो भ्रमो भवति बाधितगोचरत्वा०
बौद्धागमादिषु यथा पुरुषस्य कर्तुः । ३७८ २७७ बौद्धोक्तवत् कपिलशिष्यनिभालितोऽपि २०० ३४७ बौद्धोऽपि यद्यपि धियं स्वत एव भास्यां ३८ ब्रह्मस्वरूपमपि तेन मतश्च शब्द
१३१६ २७६
ब्रह्मात्मकं यदि भवेत् प्रथितं च विश्व० ४७० ब्राह्मण्यसाध्यविषयानुमितिश्च पुत्रे
६२४ ३४६ भङ्गत्रयं तदपरं त्वथ पूर्वयोगात्
११८६ ७३८ भङ्गत्रये तु सकला विकलान्यभङ्गे० १२२२ भङ्गत्रयेण सह प्रश्नविशेषतस्तु
११२६ ९३९ भङ्गद्वये प्रतिहते न भवन्ति चाऽन्ये ११४६ १२५९ भङ्गश्चतुर्थ इह तयुगपद्विवक्षा०
१२१७ १२६८ भङ्गयन्तरेण भवताऽपि च शक्तिरिष्टा ९७९ ११४९ भट्टेन किञ्च स हि नेन्द्रियगोचरस्तु १२५६ भावात् पृथङ् नहि यतोऽस्ति प्रमाणसिद्धो० ९७४ ५७६ भावेन्द्रियं तदिव लब्ध्युपयोगभेदा० ३२५ ७०३ भावो ह्ययं भवति न प्रतिषेधदक्षा०
भावोऽप्यभाव इति तेऽभिमतो विरोधात ८१६
भिन्नं किमर्थमवगाहत एष बोधो० ७१६ भिन्नं न चाऽस्त्यणुचयान्महदादि मानं
६७५ भिन्ने हिमे भवति नैव हि विन्ध्यवृत्ति० ६९० भूतत्वतोऽप्यभिमतं न च चेतनत्वं ८१७ ७५०
भूतेभ्य एभ्य इतराणि भवन्ति पञ्च ६९६ ३५० भूयः स्मृतेर्भवति किञ्च गुरो च देवे १०२६ २२१ भेदः स्वलक्षणतयैव मतो हि तेन १४१ ९९८ भेदस्त्वभेदसहित: प्रथमं निरुक्तः ७४४ भेदांशगोचरतया तु नयत्वमस्यां
९०१
४५०
३९८
१९६
२३०
७३
८९९
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
११९
४३६
९३६ ४६१
४५८ ४५९ ८४३ ९८६ ८३८ ६४४ ४१४
३३८
९३२ ९६८ ५८१
४३३
८६९
२५९ १२५२ ९७७ ९५६ ९५५ ९५४ . ९९३
८९६ ६९७ ७८५ ७८७
२८०
परिशिष्ट-१ भेदाग्रहः खलु प्रवर्तक इष्यते ते० भेदाग्रहो भवति ते ननु पर्युदास० भेदे स्थिते तु निजर्मिषु धर्मयोः स्याद् भेदो भवेच्च प्रतिबन्धकशून्यताऽऽद्ये भेदो यतो न च बुधैरिह देशकाला० भोगोद्भवो नियमत: सुखदुःखभावे भ्रान्ति तथा परगतामवबोद्भुमीशो भ्रान्तिं त यद्यपि परस्य स वेत्ति तेन भ्रान्तिः प्रमेति नहि बोधगतो विशेषः भ्रान्त्यात्मको न चरणप्रविशुद्धिजन्यो मण्यादिकस्य विरहो निखिलोऽथ हेतु० मण्यादिकेष्वपगतेषु तु सेव दाहं मण्यादिकेऽग्निनिकटेऽपि च दाहशक्तिः मण्यादिभावसहचारबलाद् विनाश: मण्यादिसत्त्वबलतो यदि तत्र दाह० मण्याद्यभाव इह तु प्रतिबन्धकाभा० मत्यादयस्त्विह तु यद्यपि मानमध्ये मद्ये न मादनफला समुदाय्यभिन्ने मध्ये रसादिषु भवेद् यदि रूपमात्र० मा वासनाजलभृतान्धुपरम्परायां माध्यस्थ्यवृत्तिजनिकाभिमता परा या मानं च यैर्नयसमूहतया निरुक्तं मानं तवाऽभिलषितं परिपूर्णवस्तु० मानं न मानमतिरिक्तमपेक्षते त० मानं परोक्षमथ पञ्चप्रकारमिष्ट० मानं ममाऽभिलषितं परिपूर्णवस्तु० मानान्तरं न च तवोपगतं यतः स्यात् मानान्तरं भवति किन्तु ततोऽपि नैव मानैकदृष्टिरपि किं न विरोधरक्षां मार्जारचक्षुरिह बाह्यप्रकाशयुक्तं० मालिन्यमस्य नितरां तव मुक्तिकाले मिथ्यात्वबोधनमपीष्टमभिन्नकाले मीनादयो जलचरा गतिमन्त एव
९७३
या
८९८ ६०५ १६५ ३२२ १२४९
मीमांसकत्वमपि जैमिनितोऽन्यथा स्यात् मीमांसकस्य तु भवेद् व्यतिरिक्तशक्ति० मीमांसके प्रतिहतं न च सर्ववस्त्व० मीमांसकैर्न पृथगेव मतोऽप्यभावो मीमांसको विहतशक्तिरबाध्यमानां मीमांसकोपरि पतेदपि दोष एषो० मुक्तात्मनां विबुधगौतमतन्त्रसिद्धो मुक्त्यात्मना परिणतोऽपि य एव जीवो मुख्यं प्रमाणमिह केवलबोध एव मुण्डी शिखी भवतु वाऽस्तु गृही कपाली मोक्षोपयोगि यदि तत्त्वतया तवेष्टं मोक्षोऽपि मानविषयं समभीप्स्यते जै० यं त्वं विचारमधिकृत्य जगद्व्यलीकं यः सर्वथा भवति सन् न च तस्य जन्म यः साध्यसाधनतया मतयोर्विनाऽपि यः स्पष्टबोधविषयः स मृषैव बोध्या यः स्यादवग्रहधियाऽवगतो विशेष यच्च त्रयात्मकतया प्रथितं प्रदानं यच्चाऽनुगामि ननु सत्यतया मतं तत् यच्चाऽस्त्यनुव्यवसितावनुमात्वभान० यच्चिन्त्यते मनसि किञ्चिदपीह वस्तु यच्चेन्द्रियस्य विषयेण समं नयज्ञैः यच्चैकदा भवति यज्जनने समर्थं यच्चैकदेश इह कार्यजनौ समर्थं यज्जन्मतो भवति तस्य निवृत्तिरेव यज्जायतेऽत्र सविकल्पकबुद्धिकाले यत् तेन तीर्थकरनाम शुभैरनेकैः यत् पञ्चविंशतिमितं भवता न्यदर्शि यत् सत्त्वमत्र निजधर्मवशात् तदेवा० यत् साद्यपर्यवसितत्वविधायि सूत्रं यत् स्वानुरागकरणं फलमेकधर्मा० यत्काकतालमिव सत्यमताविव स्यात् यत्कापिलं मतमिह प्रथितं प्रधान०
१०२ १२५५ २२५ १०१६ ७२० १२८९ ५६८ १००७ १०१५ १२८ १३२ १०६३
९०२
८२२ २९१ १०२१
८७४
५४९
७६५ ११३१
६१ ४६६ ८५९ १६७ ७४९ २६४ १२३२
९१७
११९३ २९३ १२९५
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥
१०२४ ९४६ १२२० ९२८ १२१९ ११६२ १२३९ २२३
३८८
१०६२ ७२२ ११४५
८१
१२३७ ११९८ २७१
यत्कारणं बहुविकल्प्य विचारमार्गाद् यत्कारणं भवति तत्समजातिकस्य यत्कारणं भवति तद्विषयस्तदन्यद् यत्कारणाद् घटपटादिपदार्थजन्म यत्तत्वदृष्टिमवलम्ब्य न तत्त्वतोऽस्ति यत्र द्वयोर्भवति भिन्नसमाश्रितत्व० यत्र प्राप्तस्तदनु विजयालिङ्गितो देवसूरिः । यत्राऽपि न क्रमतयाऽवगतिर्जनाना० यत्रैव यो भवति येन विनाऽत्र हेतुः यत्रोभयोर्युगपदेव भवेद् विवक्षा० यत्सङ्घतो भवति कार्यमसौ यदि स्यात् यत्स्वप्रकाशमिह तत्र तमो न दृष्टं यद् दृष्ट्यदृष्टिजनितं नियमस्य साध्य० यद् यस्य कार्यमिह तत्तत इष्टमन्यः यद् यादृशं भवति दर्शनगोचरस्तत् यद् वर्त्तमानमिह केवलमक्षबोधे यदृष्टिमात्रत इह स्मृतिरस्ति कर्तु० यद्धर्मयोविधिनिषेधनयोविरोधा० यद्धेतुगोचरमतिर्ननु तस्य कर्ता यद्बाधकं तदपि बाध्यमबाधकं स्या० यद्बाधितार्थविषयं तदयोग्यशब्द० यद्यक्षजन्यमतिकारणमिष्टमत्र यद्यङ्कितस्य शशशृङ्गनिषेधनेऽपि यद्यन्तरातिशयमेव भवेत् स हेतौ यद्यन्न यं प्रति जनेष्विह सम्प्रसिद्ध यद्यन्य एव ननु कोऽपि तवाऽत्र मान्यो यद्यन्यगोचरचरोऽपि भवेत् कदाचि० यद्यन्यबोधत इह व्यवसायभानं यद्यप्यभावघटना प्रतियोग्यवृत्ति० यद्यर्थगोचरतयाऽभिमतो विकल्पः यद्यागमो न च भवेत् तव मानमिष्टं यद्याग्रहस्तव तयोश्च विभिन्नकाल यद्वत् प्रधानमनुमानमतिं विना नो
२८९ यद्वत् प्रमात्वमनुमानमतौ स्वतन्त्रं ९७६ यद्वद् गुणादिसमवायिषु वस्तु विद्वन् ! २८८ यद्वद् भवेन्नरहरौ नरसिंहबुद्धौ ३३७ यद्वन्न गौतमनये कानादिभिन्न० ७४२ यद्वन्नरे नरमतौ न सखण्डधीत्वं ७२५ ___ यद्वर्तनात्मकतया निजसंश्रयेण १३३४ यद्वर्त्तनात्मकतया परिणामि तत्त्वं १०२० यद्वासनातिपरिपाकवशाद् विनाऽर्थं ६२५ यवृद्धितोऽपचयवानिह य: प्रसिद्धो० ११२५ यन्नाशतो भवति यस्य जनिः स एव ७७३ यन्मानसं तव मतेऽर्थविशेषधर्म० ४७४ यश्च द्वितीय इह तेऽभिमतोऽस्ति भङ्गो १०४१ यश्चाऽणुदेश इह येन विशिष्ट इष्टो ९१४ यश्चाऽवगाहनफलोऽभिमतः स एवा० १६९ यश्चाऽस्तिशब्द इह सत्त्वशिष्टरूपे १३९ यश्चोपकार उपदर्शितबुद्धितोऽभूत् ५०६ यस्माच्च तैरपि मता विषयव्यवस्था ११७४ यस्मात् कथञ्चिदिह जायत एव जाति० ५१९ यस्मात् क्षणक्षयितया सकलाक्षबुद्धि० २६८ यस्मात् तटोऽथ च तटी तटमित्यशेष० १२७६ यस्मात् परात्ममतिगोचरबुद्धिशाली १२ यस्मात् पुरःस्थितपदार्थमतौ प्रवीणं ५८३ यस्मात् पृथक् तव मते विरहो न तुच्छो २५७ यस्मात् पृथक् समुदयः समुदायितो नो । ९६२ यस्मात् पृथग् भवति यो नियमेन तस्माद् ९८० __यस्मात् सदैव भवतोऽभिमतोऽत्र भावः ४०१ यस्मात् समानविषया: पुरुषास्तु सर्वे ११ यस्मात् समुच्चयमतिर्भवतां मतेऽपि ११६४ यस्मात् स्वलक्षणमतित्वमनंशबुद्धौ
यस्मादभाव इह तैर्द्विविधः प्रदिष्ट ५९८ यस्मादयं घटपटादिवदेव माया०
यस्मादसत्त्वमिह नैव पटादिभाव० ८०३ यस्माद् घटाद्यपि मतं तव भूतमध्ये
१९९
९४
५२
१३१२ ३९१ ५६१ ३५१ ७६८ २१० ७७१
७४८
८७७
६२
११६७ ११६८ ११७२ ६६८
१४६
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
१२१
२४१
३९३
१३३ ८५६ ८७३ ८२१
१९
८६४
यस्माद् द्वितीयघटनात् प्रथमस्य सिद्धो । ११२८ योग्यत्वमिन्द्रियनिरूपितमेकमत्र यस्माद् भवेन च निरन्वयमेव जन्म । १२७ योग्योपलब्धिविरहाद् विरहो घटादेः यस्माद् वचो भवति सर्वविदः प्रमाण
योऽयं क्षण: प्रकृतकालगतं पदार्थ यस्माद् विभाग इह तेऽभिमतो न हेतुः ९६१ रक्तं यदेव प्रथमं ननु रूपमासीत् यस्मान कश्चिदपि तस्य समाश्रये त्व० ९८५ रागादयोऽपि च विरुद्धगुणान्विता नो यस्मान्महेशमतिगोचरवृत्तियोगाद्
रागादिदोषरहितोऽपि च सर्वदृश्वा यस्मिन् साक्षात्करबदरवत् सर्वद्रष्टा जिनेन्द्रः १३३२ रागो न पुत्रकनकादिषु नश्वरेषु यस्यैव यो भवति साधक आर्हतानां ८८८ राजा प्रसत्रहृदयो द्रविणं ददाति यस्योद्भवो नियमतस्त्ववधेर्यतः स्यात् ६७१ राजा स्वतन्त्र इह नैव तथा क्रियायां या कृत्तिकोदयबलाच्छकटानुमाऽस्ति १०७५ रात्रौ रसादनुमितिर्ननु तैर्निरुक्ता या चाऽत्र दोषघटना ननु तैरभीष्टा १०४७ रूपादयस्तु सहभावितया गुणाः स्यु० या चाऽनवस्थितिघटाऽन्यसमाश्रितत्व १५४ रूपादिभिन्नमिह नैव समस्ति किञ्चिद् या चाऽसतो जनिनिराकरणेऽस्ति युक्तिः ७०० रूपादियोगविरहाद् गगनादिवन्नो या निर्णयात्मकमतिर्मनसा तवाऽस्ति ७२३ रूपादिवद् भवति पौद्गलिकस्तु शब्दो या निश्चितात् सहचरादनुमा रसादे १०७६ रूपान्तराद् भवति यस्तु विलक्षणः स या लौकिकैरुपगताऽनुमितियथार्था
५९४ रूपे यथैव नयनस्य तथैव गन्धे या व्यावहारिकमतिस्त्विह दोषजना० १२५१ धर्म्यप्रसिद्धिरिह नैव मतस्तु दोषो या स्यानिवृत्तिजनिकाऽभिमता तु सैव १२४८ लक्ष्मीचन्द्राश्रयणसुभगेवाऽमितानन्ददात्री या स्वान्यकारणसमग्रसमन्वयोत्था
९५० लब्धीन्द्रियक्रमविशेषवशात् क्रमोऽपि या हेतुता जनकगा ननु सैव शक्ति० ९४९ लिङ्गं न चाऽत्र निरुपद्रवमीक्ष्यते यत् युक्तं न चैतदपि दाहसमानता नो
१००३ लिङ्गस्य दोष इह जैनमते त्रिधैवा० ये चाऽनवस्थितिमुखा मम दोषसङ्घा: ८८३ लिङ्गस्य लक्षणमिहाऽनुपपत्तिरेव ये चाऽनवस्थितिमुखास्तव दोषसङ्घा० ८२३ लिङगस्य लिङिगन इहाऽभिमतश्च तत्र ये दोषैकविलोकिनोऽपरगुणासंस्पृष्टवामाशया० १३२८ लिङ्गादयं यदि भवेदनुमानरूपो ये न्यायशब्दत इहाऽभिमता प्रतिज्ञा० १०५३ लिङ्गोद्भवं तु सविकल्पकमेव तच्च ये वा स्वपक्षमननोद्भवतत्परास्ते
८२५ लोकव्यवस्थितिरियं सकलाऽपि यस्मा० ये शब्दार्थगता: प्रमादवशतो दोषाः प्रमाबाधका १३३१ लोके तु धूममतितो गिरगह्वरे या येनैव योऽत्र सहितोऽसहितोऽपि तेन १७६ लोप: सतोऽथ विषयस्य न शक्यतेऽन्त्ये यैस्तु प्रमात्वमतिरन्यमतौ प्रसिद्धयेत् ३१२ वक्तृत्वतो भवति तेन समानधर्मा यो भासते स विषयो बुध ! नो मताऽत्रा० २३३ वत्सस्य वृद्धिरिह वास्तविकी स्वहेतोः यो वेद बिम्बमतिरिक्तमिहाऽनुबिम्बा०
१९४
वन्ध्यासुताच्च खसुमं पृथगेव लोके० यो वै क्षण: प्रकृतकालगदेशवृत्ति
१३४ वस्तुस्वभाव इह पर्यनुयोगतो नो योग्यत्वमत्र फलगम्यमतः प्रतीतो
१७८ वस्तूच्यते विधिनिषेधकरम्बितं जै०
५४१ ५४० १०७३ १२४४ ११७ १२३६ १०९५ १०६४ १४४ १२५७ १३३७ ३२८
५५८
.
१२६० १०४९ १२७० ४०६ ४४ १२९९ ५६७ २६२ ४१८ ७४१ २९९ १८७ ११५३
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
३५
८६१
३६
३३१
२२७
८३५
वस्त्वंश एव वचनाविषयत्वमिष्टं वस्त्वंशगोचरतया तु यदा प्रसिद्धौ वस्त्वंशगोचरतया प्रतिधर्ममेषा वस्त्वंशताविधिनिषेधनयोन तेषा० वस्त्वंशबोधकतयाऽभिमतास्तु भङ्गा वस्त्वंशमात्रविषयोऽपि मतो नयस्ते वस्त्वागमे सदसदंशतया जिनानां वह्नित्वजातिमति नो व्यभिचारतः स्या० । वह्नित्वतो यदि तु कारणताऽनलस्य वह्नौ तृणादिजनिते पृथगेव किञ्च वह्नौ स्थितेऽपि मणिसन्निधितो न दाहो वाक्पाणिपादसहिते भवतश्च पायू० वाक्यत्वतो भवति भेदमतिप्रवीणो वाक्येऽवधारणमनुक्तमपीष्यते ज्ञैः वाङ्मात्रतो विशदबोधप्रकाशमानं वाच्यं यथास्थितमबाधितमेव बुद्ध्वा वाच्यत्वतः सकलमेव भवेत् प्रमेय० वाच्यत्वत: सकलमेव समानभावात् वाच्यत्ववद् भवति वाचकताऽप्यपोहे वादे पराभवघटा सुलभा तथा ते वादे पराभवघटा सुलभा तु ते स्या० वायोर्गतिर्तुतभुजो ज्वलनं स्वभावात् वायोर्यथैव गमनेऽपि न मध्यदेशे वायौ न किं भवति रूपविशिष्टबुद्धि० वायौ हि रूपविरहस्य मतिस्तवेष्टा विज्ञः परो यदि तदा ननु हेतुरेव विज्ञानतां जडगतामुपगम्य योगा० विज्ञानवादमवलम्ब्य तथा कथायां विज्ञैरपि व्यवहतौ ननु किं घटाद्या० विषयविमुखमेतन प्रवृत्त्यादिकार्ये विसदृशमतिरिष्टा भिन्नतो लक्षणेन वृत्तिक्रमोऽपि तव तत्त्वत एव नाऽस्ति वृत्तित्वमिष्टमथ कालनिरूपितं ते०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ११८३ वृत्तित्वरूपमपि तेन यदीष्यतेऽत्रा०
११५९ ११७९ वृत्तिर्न चेष्टजनकत्वमतिं विनैव
६६३ ११८७ वृत्तेस्तु यद्यपि मते स्वत एव भानं ११७० वेदान्तिकापिलमुखाः परवादिनोऽन्ये ११५४ वेदान्तिनामपि मते विषयप्रदेशं
१९८ ८२० वेदान्तिनामिव न कापिलनीतिभाजां १०५९ वेदान्तिनोऽपरत एव प्रमात्वमिष्ट० ९३८ वेदान्तिभिः सुरभिचन्दनबोध इष्टो०
१०३१ ९७० वैकल्पिकी भवति यत्र तु हेतुता वो ९६६ ९३७ वैचित्र्यमेव शरणं विभुवादिनोऽपि
४९१ ९३३ वैजात्यकल्पनकथाऽपि न चाऽत्र वह्नो ९६३ ६९५ वैज्ञानिकं भवति सत्त्वमथाऽत्र तेषां १२१० वैभाषिक: सुगतशिष्य इहाऽल्पविज्ञ: २०६ ११२१ वैशेषिकस्य च मते परमाणुमात्र०
९३० ४७५ वैशेषिकस्य च मतेऽभिमता: पदार्थाः १०८६ वैशेषिकोऽक्षचरणश्च धियं वदन्ती
३९ ४०८ व्यङ्गयोऽप्ययं यदि तु देशत एव तर्हि ३५८ ४०५ व्यवहतिरिह लोके त्रिप्रकारा यया सा १११५ व्याख्यातृतागुणबलेन यथा त्रिवेदी
४३९ ८२७
व्यापार एष कथितो ननु तैः प्रमातु० ४४३ ८९० व्यापार एष किमु जन्यतया मतस्ते ४४७ ४८९ व्यापारयुक्त इह चेद् यदि तस्य हेतु० ४४८
व्याप्तिं विना न च प्रसङ्गप्रवृत्तिरस्ति ६८४ १०७ व्याप्तिग्रहो भवति न व्यभिचारशङ्का०
५५९ १०९ व्याप्तिग्रहोऽपि च तया सह तस्य वाच्यः ४५४ १०५४ व्याप्तिग्रहोऽपि सुलभो मनसो हतो वा ४२८ ८१४ व्याप्तिस्वरूपमननावसरे हि सार्व०
११६० २२६ व्याप्त्यग्रहादनुमितिर्न परात्मनश्चेद्
६१५ १८३ व्याप्त्यग्रहाद् भवति नैव विशेषरूप: ५६६
व्यावृत्तिबुद्धिरथ चाऽनुगतत्वबुद्धि० व्यासज्यवृत्तिरिह वस्त्रघटादिभावो
८५५ ७२१
व्युत्पत्तिगोचरघटासमकाल एव व्यत्पत्तिगोचरयास
१३२३ ११४० व्युत्पत्तिभेदबलतः खलु शब्दभेदा०
१३१९
३६९
९७
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
રરૂ
१२८३ १५७ ८७८
६९
९४२
परिशिष्ट-१ व्युत्पत्तिहेतुरिह योऽभिमतः स एव १३२२ शब्देन साम्प्रतमुखस्य न यन्नयस्यो० व्योमोत्पलादिवदसावथ वा ह्यसन् स्या० ७६३ शब्दो गुणो यदि भवेन्ननु युक्तमेतत् शक्तस्तथा भवति नाऽनुगतस्वरूपो ३७६ शब्दो नियन्त्रिततया तत एव विद्वन् ! शक्तिं विना भवति नैव स चाऽपि शक्तः ९४७ शब्दो विशेषणतया नहि भासतेऽर्थे० शक्तिं विनैव यदि शक्तिरुपेयतेऽस्मात् ९४५ शब्दो हि पौद्गलिक एव मतो जिनेन शक्ति: स्वरूपसहकारिविभेदतोऽत्र
१३७ शब्दोऽर्थबोधकतया पुरुषेण यद्वत् शक्तिग्रहोऽन्वयविलोकनसव्यपेक्षात् ९६४ शालूकगोमयभवावपि वृश्चिको न शक्तिग्रहोऽस्ति ननु यस्य न सोऽस्ति शब्द० ३७१ शालूकतो भवति गोमयतोऽपि जन्म शक्तिश्च चेतनतया यदि सा विभिन्ना ६०७ शास्त्रं निरर्थकतयैव गुरुप्रणीतं शक्तिस्तथा भवति किं स्वत एव किं वा ९४३ शीतं जलं कथय केन कृतं तथाऽग्नि० शक्तिस्तथाऽत्र बहिरिन्द्रियमात्रवृत्तिः १६२ शुक्तौ यथोत्तरमतेः प्रथमस्य बाधो शक्तिस्त्वतीन्द्रियतयाऽक्षभवावबोध०
शुद्धः स एव कथितोऽन्यनयाप्रवेशाद् शक्त्यात्मना स्मृतिभवाऽनुगुणाऽथ वृत्तिः । ७२४ शून्यत्वगोचरप्रमा यदि सम्मताऽस्ति शक्त्यात्मिका जनकताऽभिमता यतो ना० ९५७ शून्यत्वपक्षमपि माध्यमिकप्रदिष्टं शक्त्याऽऽत्मना च महदाद्यपि मानमासीत् ६७४ शून्यत्वमस्य जगतो न विना प्रमाणं शक्या न जातिरिह वाहनदोहनादि० ३७४ शून्यत्ववादिमतखण्डनदर्शितोक्त० शत्रोर्यथा मरणहेतुरयं तथैव
४९३ शून्यत्वसिद्धिरिह ते ननु यैर्विचारैः शब्दः स्वयं तव मते नहि सत्यरूपो ४६९ शृङ्गं शशीयमपि किं न मतं त्वयाऽङ्गा शब्दप्रवृत्तिरिह चेद् यदि गौणवृत्त्या ६२१ शैत्यं जले भवति कारणमन्तरा नो शब्दस्त्वनाप्तपुरुषोच्चरितोऽत्र शब्दा० १२७५ श्रीदेवसूरिप्रभृतेरमुमेव भावं शब्दस्त्वलौकिक इहाऽस्ति विधिप्रधानो ४१९ श्रीसिद्धसेनकृतिनस्तु मते न चर्जु० शब्दस्य तेन सह कारणभाव एव
१११४ संयुक्ततापरिणतेस्तु बलादभेदो। शब्दा विकल्पजनने निपुणा न चाऽत्र ११०३ संयोग इन्द्रियभवे न पृथक् प्रकल्प्यो शब्दात्मकोऽपि न भवेदत एव चाऽर्थो १११० संयोग एव नहि यस्य कदाऽपि यत्र शब्दादयस्तु ऋजुसूत्रनयोद्भवाः स्यु० १३१० संयोगखण्डनमपि प्रथितं त्वया यत् शब्दाद्या भावमात्रे त्रय इह तु नया:
संयोगतो भवति देशगतोऽथ वह्निः सम्प्रतीता नयज्ञै०
१३२७ संयोगवद् विभजनं च तथैव सिद्धं शब्दार्थयोरपि भवेदत एव मानात्
१०४२ संयोगिनो भवति यो विरहोऽथ यस्य शब्दार्थयोर्भवति कोऽपि न तात्त्विका सं० ११०७ संयोगिनो हि समवायबलान्न चाऽणो० शब्दार्थयोश्च समयग्रहसव्यपेक्षो०
५९६ संयोगिनोऽत्र परमाणव एव किं स्युः शब्दे तु मानवचनं नहि मुख्यवृत्त्या १०८५ संयोगिपुद्गलबलादवगाहनस्य शब्दे त्वयाऽऽवरणकारिण आदृताः किं ३६३ संयोजनं विभजनं च पृथङ् न चाऽस्ति शब्दे भवेत् खगुणता यदि तर्हि तेन १०९४ संवादकं यदपि तत्र मतं भवेत् तत्
१२३८ १०९८ ६५१ ५७३ ५९९ ५७७ ३०६ १२८६ २८२ १०४६ ४६५ ४६२ ३१६ ५५६ ६६६ १२१५ १२८२
९९
५७२ १०६७ ११९ ८३३ १२४ १०६६
६५०
१२०
८५३ ७४ २६९
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
१२६१
६२९
संवादकत्वमपि तत्र प्रवर्तकत्त्वात् संवादखण्डनमनेन यदि व्यलीकं संवादनं भवति सत्यमतौ यथा ते संवादितादिपरहेतत एव तस्य संवाद्यबुद्धिजननं प्रथमे न युक्तं संवृत्तिसत्त्वमुपगीयत एतदेषां संवेदनं स्वत इहाऽनुमितेः प्रमात्वे संवेदनं स्वत इहोपगतं त्वया नो संवेदनात् स्वत उभे च दशे प्रबोध० संसर्ग इष्ट इह तात्त्विक आगम ० संसर्ग इष्ट इह नो व्यतिरिक्तरूप: संसर्ग इष्ट इह यो निजदेशतो वै संसर्ग एष तव किञ्च मते मतोऽस्ति संसर्गता न यदि तस्य तदा त्वयेष्टा संसर्गतो भवति कार्यजनौ समर्थो संसर्गतो भवति यद्यपि नाऽस्य भेदा० संसर्गसङ्घटितमेव न कारणत्वं सङ्केततोऽभिनवतोऽभिनवाऽन्यथासि० सङ्क्षपतस्तु परकीयमतप्रपञ्चं सङ्क्षपतो भवति तद् द्विविधं जिनानां सङ्ख्यास्वरूपविषयाश्च प्रयोजनं च सङ्ग्रह्णतः सकलमेव तु भावराशि सङ्घातरूपमखिलं च परार्थमेव सत्कार्यमेव कपिलेन निरूपितं य० सत्त्वं तथा च सुगतादिमते घटादे० सत्त्वं रजस्तम इति त्रितयस्वरूपा सत्त्वं समग्रविषयानुगतं न चैवे० सत्त्वं सुखं भवति दुःखमयं रजोऽथ सत्त्वं स्थितिर्भवति जन्म रजोगुणोऽत्र सत्त्वादिकं निखिलवस्त्वनुगन्तृकत्वा० सत्त्वे मणेरपि यतो विरहोऽस्य भिन्न० सत्यत्वनिर्णयमतिस्तु भवेच्च जाग्रत् सद्रव्यतादिषु घटादिगतेषु सत्सु
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ४६ सन्तानतोऽप्यनुभवस्मरणात्मबोधौ
६६० ३१४ सन्त्येवेह प्रसिद्धा: सुविहितविषया २६६ माननीतिप्रबन्धा
१३३८ ३४४ सन्दिग्धनिश्चयप्रभेदत इष्यतेऽसौ २७० सन्दिग्धसज्ञकतया व्यभिचारिहेतु०
१२६३ २५२ सन्दिग्धसाध्यगमकोभयशून्यताऽथ
१२७२ ६३३ सन्देहहेतुरत एव च कीर्त्यतेऽसौ
१२६२ ५१३ सन्मात्रगोचरमवग्रहपूर्ववर्ति
१०१४ ३०९ सम्प्राप्तकामनिकरस्य महेश्वरस्य
५३२ १२९२ सम्बन्ध एवमिह वस्तुगतः सदादे० ११९६ ९९५ सम्भावना नहि प्रमाभिमता प्रमात्वं ११९५ सम्भावना हि सविकल्पकबुद्धिरूपा
६३० १०४ सर्वं विना किमपि नाऽनुपपन्नमर्था० ४११ ९९६ सर्वं सदेव नहि विश्वमसत् तथा नो ४६३ ९९४ सर्वज्ञ एव यदि कोऽपि भवेन्न वक्ता ३८३ ११९७ सर्वज्ञता वचनकर्तृतया विरुद्धा
३८४ ४९४ सर्वज्ञसिद्धिरिह दर्शितनीतितस्ते
५९७ ९६० सर्वत्र तेन बुध ! पर्यनुयोगमात्रं
५८४ सर्वस्य किञ्चिदपि कार्यमपेक्ष्य यस्मात् ९७८ ९०७ सर्वस्य सर्वगतता तव सम्प्रदाये
७४५ १२२४ सर्वस्य सर्वविधबोधितकर्मयोगः
३८१ १२८५ सर्वात्मना यदि तथाऽत्र मतोऽथ कादि० ३५९ ७२९ सर्वान् समादिशति वस्तुगतानखण्ड० । ७५१ सर्वे नया जिननयेऽभिमताः कथञ्चित् ८८४ ११३६ सा कार्यकारणबलादुत वा स्वभावात्
सा चोर्ध्वता जिनमते प्रथिता च तिर्यक् १२९० सा निर्विकल्पकभवावगतार्थधीत्वं
६३२ ७०१ सा प्रश्नतो विधिनिषेधनयोविवेक० ४७३ सा वृत्तिताऽधिकरणात्मकदेशतोऽथा० ११४२ ७७७ साकल्यवद् विकलतावदिति द्विधाऽन्त्यं ९०९ ९८४ साकारता न यदि तत्र तदा कथं स्याद २९४ साकारता मतिगता विषयव्यवस्था० १८६ ११७६ साकारताविरहितं प्रवदन्ति बोधं
२०२
४२
१२०३
६१८
११२०
१९०
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
२०४
५६५ ११०२ ६२८ ११०५ ७८९ ७८८ १०४३ १२२७
५७१
४४०
२४४ ५९ ९५३ १३२९
३७९
साकारबोध इह किञ्च न चेत् पदार्थ साकारबोध इह किञ्च मतोऽपि जैनै० साकारबोध इह येन न चाऽभ्युपेतः साकारबोधमतिरस्ति नवा तथा ते साक्षात् स यद्यपि मनोगतभावमेव साक्षात्परम्परितभेदत आर्हताना० साक्षाद् विरुद्ध इह चाऽऽद्यप्रकार इष्टः साक्षान्न तस्य यदि किन्तु परम्परातः साक्षित्वमस्य विभुताऽथ च चेतनत्वं साङ्ख्यैर्मतं तु विषयप्रतिबिम्बनं हि सातानुभूतिविषयः सुखमिष्यते स्व० सादृश्यबुद्धिजनितोपमितेर्बलान्नो सादृश्यबुद्धिरिह जैमिनितन्त्रसिद्धा० सादृश्यमेषु यदि नैव विलक्षणेषु साधारणी भवतु वह्निगता तु जाति: साध्यं त्वबाधितमभीप्सितमप्रतीत० साध्यप्रसिद्धिरिह जैनमतेऽस्ति पक्षा० साध्येन नैव सहवृत्तिरसौ विरुद्धो साध्योपदर्शनबलाद् गमकोपसंहा० सान्निध्यतो भवति चाऽक्षमतेविलासः सामग्रयतो भवति कार्यजनिर्न चैक० सामान्यगोचरतया खलु दर्शनं त० सामान्यगोचरतया यदि मानताऽस्य सामान्यतो न वपुषाऽनुविधानमस्ति सामान्यतो भवति दृष्टमिहाऽनुमानं सामान्यतो भवति यो मतिगोचरः सो० सामान्यतो विरहितो न विशेष एव सामान्यधर्मविरहात् स्थिरवस्त्वभावा० सामान्यबुद्धिरिह कल्पितगोचरत्वा० सामान्यबोधजनकव्यतिरिक्तहेतु० सामान्यमत्र कथितं द्विविधं तु तिर्य० सामान्यमत्र न विशेषपृथक्स्वरूपं सामान्यमत्र नहि तुच्छमबाध्यबोध०
१९१ सामान्यमत्र यदि साध्यतया मतं ते २०१ सामान्यमात्रमथ जैनमते न शक्यं
सामान्यमात्रमिह साध्यतया मतं नो १८९ , सामान्यमेकमपि न प्रमितं विकल्प० १००८ सामान्यमेव प्रथमं सकलानुगामि १२४७ सामान्यमेव भवतोऽभिमतं च शक्तं १०७८ सामान्यलक्षणमलौकिकसन्निकर्ष १५८ सामान्यस्य विषयः सविशेषमिष्ट० ७३७ साङ्क-दोषघटना तु कुतार्किकाणां ३७ साधर्म्यतो यदि भवेन्नहि सर्ववित् स ७०२ सामर्थ्यतद्विरहरूपविरुद्धधर्मा० ४०९ सामर्थ्यतद्विरहसङ्घटनाऽपि तस्या:० १०२८ साऽपि स्वरूपसहकारिविभेदतोऽत्र १०३६ सिद्धान्ताप्रतिपन्थियुक्तिकलिता नव्यप्रचारोन्मुखा ९७१
सिद्धान्ताम्भोनिवासं प्रबलपरझषोद्वेगकारिप्रवाह १०५० सिद्धार्थकं च वचनं न मतं प्रमाणं १२५८ सिद्धार्थकस्य वचनस्य च पूर्वनीत्या १२६४ सिद्धार्थकाच्च वचसः स्मृतिरेव कर्तु० १२७४ सूर्यांशवोऽथ यदि सन्निहिता रजन्यां १४२
सूर्यो यथाऽयमखिलार्थविभासकोऽपि
सूया यथाऽयमाख ७७४ सोऽनन्तशक्तिकतया च भवेदनन्त०
सोऽपेक्षते यदि परं सहकारिणं त० ६५ सौत्रान्तिकस्य तु मते ऋजुसूत्रमूले
सौत्रान्तिकोऽस्तु विमुखो विमुखोऽस्तु योगा० । ४२५ सौरभ्यवृत्तिरपि तैः स्मरणस्वरूपा० ४२७ स्थानं जहाति नहि पूर्वमितस्तथा वा ३७५ स्थूलो घटादिरणुरूपतयाऽपि जैन० १०३४ स्थूलो न बोध इह तेऽनुमतश्च किञ्च । १२९८ स्थैर्य तथाऽस्य जननं च भवेत् कथञ्चि० ३३३ स्थैर्ये स्थिते क्षणिकताऽनुगते क्रियायाः १२२८ स्थैयें स्थितेऽपि च विरोधविलोपका० ९६ स्पर्शान्त इष्ट इह यः खलु गौतमेन ६३४ स्पर्शाश्रयत्वमनुमामतितः प्रसिद्ध
४२९ ३८२
१७१
१०
११४
९२०
५२६ १३१८ २५० १०३२
५२२
९२
२८७
२३९
७५
८१५
९२९
१०९१
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
७०
३२९
स्पर्शो न नेत्रविषयो न च रूपमिष्टं स्पष्टैकबोधविषया ननु सर्वभावा: स्मृत्याऽपि तस्य नयनोत्थमती प्रकाशो० स्मृत्युद्भवाद् भवति सा सविकल्पिकैव० स्याच्चेदतीतविषये तदनागते वा स्याच्चेदियं स्मृतिरतो नियतप्रदेशे स्याच्चेन्न रूपप्रतियोगिक एष वायौ स्यात् कारणात्मकतयोपगमोऽनयोस्ते स्यात् सङ्ग्रहो व्यवहतिश्च नयौ समग्रा० स्यात् सर्वविद् यदि तदा तव सम्मतोऽत्र स्यात् स्वानुरूपसविकल्पकसंविधाना० स्यादव्ययं पदमतो यदि नोक्तिरस्या० स्यादस्ति कुम्भ इति य: प्रथमोऽत्र भङ्गः स्यादस्ति कुम्भ इति यः प्रथमोऽत्र भङ्गः स्यादस्ति नाऽस्ति च घटोऽभिमतस्तृतीयो स्यादस्ति भङ्ग उपपद्यत एव तस्माद् स्यादाप्तवाक्यजनितोऽन्वयबोधनामा स्याद् गौरवं तव विरोध्यविरोधकत्वे० स्याद् वर्तनात्मकतया निजतन्त्रसिद्धः स्याद् वासनैव सदृशादिधियोऽनुकूला स्याद् वाऽशयोरपि विशिष्टतयाऽत्र भेदा० स्याद् व्यञ्जकेन पवनेन विरोधिवायो० स्याद् व्यावहारिकमथाऽपरसव्यपेक्ष० स्याद्वाद एव तव किञ्च न सर्वथा स्यात् स्याद्वाद एष सकलागमतो विशिष्टः स्याद्वादतत्त्वमननश्रमपूर्विका नो स्याद्वादवाद्यपि हि सर्वमनन्तधर्मा० स्याद्वादसिद्धिप्रवणे नयसिद्धिभाजां स्याद्वादिनस्तव मते ननु मुक्तिदेवी स्यानिर्विकल्पकसमुत्थविकल्पभास्य० स्यान्यायदोष इह चोपनयोपसंहा० स्याल्लाघवात् स विभुरेकतयैव मान्यो स्याल्लाघवाद् यदि न सर्वगतः स बोध०
॥ श्रीन्यायसिन्धुः ॥ ११८ स्याल्लिङ्गबुद्धिनियमस्मृतितोऽनुमानं
१०४८ ४२६ स्वक्षेत्रतोऽपि तव किञ्च घटादिभावे० ११४३
स्वप्नेऽस्थिरं चलमसम्भवितात्मजन्मा० २९२ स्वप्नोमं यदि तु बोधतयैव सर्वं
२२४ १४५ स्वर्गादिकं च जिनगौतमतन्त्रवि ०
५८७ ६३७ स्वस्माद्धि चेद् यदि तदा त्वविशेषतः किं १२२ १०८ स्वस्मिन्न सा न च तथाऽन्यसमानभावे० ११३८ ७९९ स्वस्वामिभाववचनं नहि युज्यते ते० ४६ १२१८ स्वांशे प्रमा निखिल एव मतोऽत्र बोधो० ४२० स्वाकारतार्पकतयैव घटादयः स्युः
१८४ ५३ स्वातन्त्र्यतोऽथ प्रतिबन्धकशून्यतानां
१००२ ११२९ स्वात्मप्रकाश इह जैनमते प्रमाता
६४८ ११२३ स्वात्मप्रतिष्ठितमिदं जगदुक्तवान् यत् १५३ १२०२ ।। स्वात्मप्रतिष्ठितमिदं जगदेव नो वै ११२४ स्वात्मस्थितं ह्यनुभवन् ननु दुःखराशि ४४१ ११६३ स्वादर्शनान्न परसन्तितिरस्ति तर्हि
२४६ १०८४ स्वाधारनिष्ठविरहप्रतियोगितैव
११६५ ४९५ स्वाध्यक्षबोधविगमात् किमु नाऽस्ति जीवो । ५९१ ११४१ स्वाभाविकस्य विगमो न कदाचिदस्ति ७१३ १०३९ स्वाभाविकार्थगमिका ननु शक्तिरर्थे
१०९६ १२१४ स्वार्थावगाहि सविकल्पकमत्र सिद्धं
४१ ३६६ स्वार्थावगाहिमतिजन्यमिह प्रसिद्ध १००९ हेतुत्वबोधजननाय यतस्त्वयैवा०
९८२ ८२६ हेतुत्वमत्र यदि शक्तिपदाभिलप्यं
९५८ ८६० हेतुर्द्वितीय इह नाऽव्यभिचारिरूपो
१०९३ ८२९ हेतुर्बुधैर्य उपलब्धितया प्रदिष्टो
१०७० ८६८ हेतोर्न पक्षघटनामितिरार्हतानां ८८९ हेतौ प्रमात्वमथ नाऽस्ति यतो न तस्मा० ८१८ हेतौ यथा जनकशक्तिरनन्यरूपा
९५२ ६३१ हेतौ समस्ति तत एव न धीधनेन १२७३ हेत्वोस्तदावरणकर्मविनाशयोश्च
९१६ ५०१ क्षेत्रादिहेतुवशतोऽपि विवृद्धिभाजो
६५७ ५१७ ज्ञप्तिः फलं यदि भवेदनुमापकं सा
४५५
३८५
६२२ ३३६
६२७
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२७
५३८ १२२६ २१३ ७८० ५२५ ७८४
४५२
४९७
परिशिष्ट-१ ज्ञप्तो यथैव परतश्च भवेत् प्रमाणं ज्ञातार्थभासकतया यदि मानताऽस्य ज्ञानं घटीयमिति सर्वजनप्रसिद्धः ज्ञानं च सर्वमिह साम्प्रतगोचरं न ज्ञानं तथा किमपि शब्दसमन्वयेन ज्ञानं तथा निजगतं वचनेन सोऽपि ज्ञानं तथा सकलवस्त्वगाहि मान्यं ज्ञानं द्विधा विकलमार्हतसम्प्रदाये ज्ञानं भवेदनुभवस्मृतिहेतुकं सा० ज्ञानं भवेद् भवगुणोद्भवमत्र रूपि० ज्ञानं विनाऽपि जगतः स्वत एव सत्त्वं ज्ञानं स्वसन्तितिगतं विदधाति बोधो ज्ञानत्वतो निखिलमेव भवेच्च जन्यं ज्ञानत्ववन्निखिलबोधगतं प्रमात्वं ज्ञानस्य धीरपि भवेन्न परप्रकाशे ज्ञानस्य बाह्यविषयेण न चाऽस्ति बन्धो ज्ञानस्वरूपमपि यस्य मते न सिद्धये०
४६० ज्ञानाग्निनाऽप्यशुभकर्मततेविनाश:० १०२२ ज्ञानात्मकं भवति मानमनन्यभास्य० १२९१ ज्ञानादभिन्नतनुता यदि चेत् तवाऽर्थे
ज्ञानादयस्तव मता ननु बुद्धिधर्मा० १३१७ ज्ञानादयो निखिलकार्यजनौ समर्था ३९६ ज्ञानादयोऽपि किमु नैव मते तवाऽन्य०
ज्ञानादिकं च नहि तत्र परप्रकाशे ९२४ ज्ञानादिकं प्रति तनोर्जनकत्वमेवं १०२७ ज्ञाने घटाद्यपि करोति यदा विशेषो ९२५ ज्ञाने प्रमात्वमथ शक्तिरदृष्टवस्तु० २८३ ज्ञाने मता कुटिलता स्थिरतेव भिन्ना० २४५ ज्ञानेषु चेद् यदि विभिन्नधियः प्रकाशो ५१२ ज्ञानेऽपि वा भवतु किञ्च मतिः कथं ते ३४२ ज्ञानैक्यवादमननप्रवणोऽपि योगा० २८ ज्ञेयः स्वभावसहकालिकपूर्वकाल० ४५१ ज्ञेये मतौ मतिमति प्रविभक्तमेव
४९६ २७५ ३३५ १३०७ २३८ २३४
१२९६
१०८१ २४
४७६
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२ विशेषनामसूचिः
विशेषनाम श्लोकाङ्कः
विशेषनाम
श्लोकाङ्कः अक्षचरण ३९, १००, ९३७, १०२८, १०६३, १२४० चार्वाकबाल ८६७ अक्षपाद ११४४
जिनभद्र ९१२, ९१८, १२८१ अक्षपादमत ९७५
जैमिनि २९६, ४३६, ४३८, ४३९, ४४०, ९६३, १०२८, अक्षपादसुत ८५५, ९४८
१०९७ अक्षमत ४७१
जैमिनितन्त्र ४४२ अक्षिचरण ११३, १७५, ४९९
तत्त्वार्थभाष्य १२२१ अद्वैतप्रवादी ४६१
तथागत ३४९ अभयदेव ९२३
तपोगच्छ १३३३ आक्षपाद ८८२, ९७२
तार्किकमत ९१, ८१६, १००१ आन्वीक्षिकीमत ३३१
दीपाली १३३७ ईश्वरकृष्ण ७४७
देवसूरी १२१५ कणभक्ष ८४९
नेमिसूरि ४, १३३१, १३३६ कपिल २९६, ३३०, ६८९, ६९३, ६९४, ६९७, ६९८, नैयायिक ९३, १२९, २९६, ३२३, ४७६, ४८५, ४९०,
७१४, ७१८, ७४६, ७५०, ७५१, ७५७, ७४०, ७७८, ८२०, ८३०, ८३२, ८३३, ७८४, ८०८, ८०९, १०५५, १२२५
८४५, ९३४, ९३५, १००२ कपिलशिष्य २००
न्याय ८३९, १०५५, १२४२ काणाद १३०२
न्यायशिरोमणि ८३६ कादम्बरी १११२
न्यायसिन्धु ४, १३३८ कापिल ३६, ६८५, ८६१, १२९५
पातञ्जल ८०८ गुरु २५, ५९९, ६००, ६२०,९०५
प्रभाकर २५ गुरुतन्त्र ५८१
प्राभाकर २९८, ३०२, ४३७, ४५७, ९०६ गुरुमत ५५१, ५७१, ५७८
बुद्ध १०५५ गौतम ७१, ४०४, ५४४, ९२८, ९२९, ९७०, १०३०, बुद्धतनय ६८
१०५१, १०६२, १०६४, ११५४, १२५०, १३०२ बुद्धपुत्र ८१४ गौतमतन्त्र ५८१, ५८७, ६२७
बुद्धसुत १०३४ गौतममत ३११, ६४१
बृहस्पतिमत ५९० गौतमसुत ५०३, ५५१, ९६९, १०८८, १२३८, १२३९, बौद्ध ३८, १११, १३१, १३७, १४९, १८५, २००, २०१, १२४१
२०६, २०९, २२१, २२६, २४७, २७९, २९१, गौतमीय ९०६, ९४२
३२१, ३३१, ३५०, ४७८, ८१५, ८४५, ९०५, चार्वाक ५८५, ५८६, ६०५, ८१७, १२२५, १२९७
१०४३, १०७२, १०७५, १०७६, १०७७,
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
१२९ विशेषनाम श्लोकाङ्कः
विशेषनाम
श्लोकाङ्कः १०८३, १११६, १२२५
वेदमत ११६३ बौद्धागम ३७८, ३८२
वेदान्त ९०६, १२८४ भट्ट ३९, ४५०
वेदान्ती ३४, ३६, १९८, २४३, ३३१, ७७८, ८६१, भर्तृहरि १३१५, १३१७, १३१८
९४७, १०३१, ११४५ भाट्ट ९०६
वैभाषिक २०६, २५०, १३०६ मधुपुर १३३७
वैशेषिक ३९, ८३५, ९०५, ९३०, १०८४ मल्ल ९१८
शिरोमणि ८३९ मल्लवादी ९१२
शून्यत्ववादिमत ४६२ महेश्वर ८०९
श्रुतिविद् ११८१, ११८२, ११८३ माध्यमिक २५०, ८६४, १३०८
साङ्ख्य ३७, ९०५, १०१८ मीमांसक ३११, ३३०, ३३८, ३४९, ३७९, ३८०, ४२३, साङ्ख्यविज्ञ ८०१
४३६, ४३७, ४४०, ४६१, ९३२, ९३६, सिंहसूरि १३३४ ९६८, ९६९, १०२५, १३०२
सिद्धसेन ९१२, ९२०, १२२१, १२८२, १३२७ मुरारी ३९
सुगत ४१, ५६, ७५, ८५, १४६, २१७, २२१, २२२, योगाचार . १८४, २०८, २४२, २५०, ८१४, ८६३, २४७, २५०, ३८२, ७७८, १०४३, १०७६, १२९६, १३०७
१०९६, ११०२, ११३१, ११३६, १२५० यौग ९३९, ९४७, ९९४
सुगतशिष्य ५८, १४७, १८०, २०६, २३३, ८४६ लक्ष्मीचन्द्र १३३७
सुधर्मा १३३२ लैङ्गिकमत ५०९
सेनसूरि १३३३ विजयदेवसूरि १३३४
सौत्रान्तिक १८४, २५०, ८१५, ८६५, १३०५, १३०६, १३१८ विज्ञानवाद ४६२
सौगत ६०, १०७१, १११४ विज्ञानवादी २३१
हीरसूरि १३३३ वृद्धिचन्द्र ३, १३३५
हेमचन्द्र ९१९ वेद २९६, ३७८
हेमसूरि १३३६ वेदनय ११७५, ११७८, ११८१
क्षणिकवादी १९५
उद्धरणम् न ग्राह्यभेदमवधूय धियोऽस्ति वृत्ति - स्तबाधने बलिनि वेदमये जयश्रीः ।। नो चेदनिन्द्यमिदमीदृशमेव विश्वं, तथ्यं तथागतमतस्य तु कोऽवकाशः ? ।।
(उदयनाचार्यः) पृ० २१
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________ सूरीश्वराणां शास्त्रसृष्टिः व्याकरणविषयकग्रन्थाः 1. बृहद्हेमप्रभा 2. लघुहेमप्रभा 3. परमलघुहेमप्रभा न्यायविषयकग्रन्थाः 1. न्यायसिन्धुः 2. न्यायालोक-तत्त्वप्रभा 3. न्यायखण्डनखण्डखाद्य-न्यायप्रभा 4. प्रतिमामार्तण्डः 5. अनेकान्ततत्त्वमीमांसा (मूलं तथा स्वोपज्ञवृत्तिः) 6. सप्तभङ्गीप्रभा 7. नयोपनिषत् 8. सम्मतितर्कटीका-विवरणम् 9. अनेकान्तव्यवस्था-टीका अन्ये च 1. रघुवंशमहाकाव्यस्य द्वितीयसर्गे २९तमश्लोकपर्यन्तकाव्यविवरणम् / 2. परिहार्य-मीमांसा