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द्वादशार नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
- डॉ. जितेन्द्र बी. शाह
। संयुक्त प्रकाशक श्रुतरत्नाकर, अहमदाबाद श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट, मांडवला
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
डॉ० जितेन्द्र बी० शाह
प्रकाशक
श्रुतरत्नाकर एवं
श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट, माण्डवला
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
डॉ० जितेन्द्र बी० शाह
प्रकाशक
श्रुतरत्नाकर
एवं
श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट, माण्डलवा
आर्थिक सौजन्य
श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट,
जहाजमन्दिर
जिला
Fax
माण्डवला
३४३०४२
जालोर (राजस्थान ) 02973-256107
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वि० सं० २०६४ ईस्वी सन् २००८
प्रतियाँ : ५००
मूल्य : २०० /- रुपये
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प्रकाशकीय
तार्किक शिरोमणि आ० मल्लवादी कृत द्वादशार - नयचक्र एक प्रौढ़ दार्शनिक ग्रन्थ है । इसमें प्रायः सभी दार्शनिक परम्पराओं की चर्चा की गई है । इस ग्रन्थ में कई ऐसे दार्शनिक सिद्धान्त हैं जो आज लुप्तप्रायः हो गए हैं । लुप्तप्रायः दर्शन के सिद्धान्त केवल इसी ग्रन्थ में प्राप्त होते हैं । अतः यह ग्रन्थ दार्शनिक साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की आ० सिंहसूरि ने टीका रची है । टीका- ग्रन्थ भी उतना ही प्रौढ़ है जितना मूल ग्रन्थ । दुर्भाग्य से सदियों पूर्व मूल ग्रन्थ नष्ट हो गया था । इसके नष्ट होने के अनेक साहित्यिक प्रामाण हमें प्राप्त होते हैं । किन्तु आ० सिंहसूरि रचित वृत्ति अभी भी उपलब्ध है । इसी टीका को आधार बनाकर मूल ग्रन्थ का पुनर्गठन करने का प्रयास पूर्व किया गया था । दर्शनप्रभावक मुनिश्री जम्बूविजयजी ने अथक प्रयत्न करके मूल ग्रन्थ का पुनर्गठन किया है । प्रस्तुत ग्रन्थ जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, गुजरात से प्रकाशित हुआ है । इसी ग्रन्थ को आधार बनाकर मैंने बनारस में संशोधन कार्य किया । मूल ग्रन्थ टीका के साथ पढ़ने में मुख्य रूप से स्वामी योगीन्द्रानन्दजी तथा अन्य विद्वान पण्डितों का सहयोग प्राप्त हुआ । शोधप्रबन्ध में मुझे प्रो० श्री सागरमलजी जैन एवं प्रो० रेवती रमण पाण्डेयजी का भी पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ । इन सब की कृपा से मेरा शोध-प्रबन्ध
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सम्पन्न हो सका । प्रस्तुत कार्य में मुझे अपने मित्रों का भी सहयोग मिला। उन सभी का मैं हृदय से आभारी हूँ । द्वादशार - नयचक्र अत्यन्त क्लिष्ट ग्रन्थ होने के कारण एवं अनेक लुप्तवादों का संग्रह होने के कारण इस ग्रन्थ का सर्वांगीण अध्ययन एक ही शोध-प्रबन्ध में समाविष्ट करना अत्यन्त कठिन था । अतः मैंने केवल मुख्य वादों को ही प्रस्तुत ग्रन्थ में समाविष्ट किया है। इस ग्रन्थ के अध्ययन को प्रस्तुत करके मुझे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) वाराणसी द्वारा Ph.D. की उपाधि प्राप्त हुई । इसके लिए मैं विश्वविद्यालय काशी का अत्यन्त आभारी हूँ ।
शोधकार्य सम्पन्न होने के पश्चात् मेरे मन में इसी ग्रन्थ का विस्तृत अध्ययन करके शोध-प्रबन्ध को अधिक समृद्ध करने की इच्छा थी । अतः प्रकाशन - कार्य के लिए अनेक वार बातें उठीं तथापि मैं हमेशा शोधप्रबन्ध प्रकाशित करने की बात को टालता रहा । एक दिन मेरे मित्र धनवन्तभाई का फोन आया और उन्होंने मुझे शोध-प्रबन्ध प्रकाशित करने हेतु प्रोत्साहित किया । इतना ही नहीं शोध-प्रबन्ध प्रकाशन के खर्च का भी प्रबन्ध करने की बात कही । यद्यपि शोध-प्रबन्ध प्रकाशित करने का सारा खर्च श्रुतरत्नाकर ट्रस्ट ने वहन करने की बात की थी । अतः मुझे धनवन्त भाई को सहर्ष मना करना पड़ा । किन्तु प्रकाशन के लिए उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया इसके लिए मैं धनवन्तभाई का अत्यन्त आभारी हूँ ।
ग्रन्थ में जैनदर्शन के नय के सिद्धान्त को अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है । सामान्यतः दो - पाँच-छह एवं सात नयों की संख्या प्रचलित है किन्तु यहाँ ग्रन्थकार ने बारह नयों का विभाजन किया है। नयों के नाम भी अलग ही हैं । विधि-नियम - उभय इन तीन को मिलाकर बारह नयों का कथन किया है । इन बारह नयों का समन्वय सात प्रचलित नयों के साथ किया है । तथापि ग्रन्थकार ने एक नया ही ढंग अपनाया है । यह ढंग किसी भी दार्शनिक के लिए मार्गदर्शक बन सकता है । यह ग्रन्थ
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केवल जैनदर्शन का ही ग्रन्थ नहीं है अपितु जो कोई समदृष्टि पूर्वक भारतीय दर्शनों का अध्ययन करना चाहता है उसके लिए नितान्त पठनीय है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से भारतीय दर्शन की विभिन्न धाराओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
पू. उपाध्याय मणिप्रभ सागरजी म. सा. तथा पू. साध्वी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी म. सा. का भी मैं अत्यंत आभारी हूँ, जिन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन के लिए श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट, माण्डवला को प्रेरणा दी, जिसके फल स्वरूप यह ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है ।
इसका प्रकाशन जिज्ञासुओं को उपयोगी सिद्ध होगा। प्रकाशन-कार्य में सहयोग करने के लिए मैं सभी मित्रों का एवं विशेष रूप से अखिलेशभाई, मृगेशभाई, उत्तमसिंह, मनिषाबहन, रिद्धीशभाई, एवं गौतमभाई का आभारी हूँ । जिन्होंने प्रकाशन-कार्य में पर्याप्त सहयोग प्रदान किया।
जितेन्द्र बी. शाह
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प्राक्कथन
भारतीय-दर्शन परम्परा में श्रमण-परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है । वर्तमान में श्रमण-परम्परा के जो दर्शन उपलब्ध हैं उनमें प्रमुख रूप से चार्वाक, बौद्ध और जैनदर्शनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । श्रमण-परम्परा का यह वैशिष्ट्य रहा है कि उसने दर्शन को आस्थाओं से मुक्त होकर तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । अतः अनेक नये विचारों का आविष्कार हुआ । भारतीय दार्शनिक चिन्तन की जो विविध धाराएँ अस्तित्व में आई उनके बीच समन्वय स्थापित करने का काम जैनदर्शन ने अपने नयवाद के माध्यम से किया ।
नयवाद जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । नयों का उल्लेख प्राचीन आगमों में भी पाया जाता है। नयवाद के द्वारा जैन दार्शनिकों ने स्यादवाद एवं अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का विवेचन किया है । नयवाद के चिन्तन में क्रमिक विकास हुआ है । इस विकासक्रम में नयचक्र का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नयचक्र में नयों का ही विवेचन है किन्तु प्रचलित परम्परा से भिन्न शैली में ही नयों का विवेचन प्राप्त होता है अतः नयचक्र का अपना वैशिष्ट्य है ।
___ परम्परागत शैली में सात नयों का विवेचन किया जाता है, वहीं नयचक्र में बारह नयों का विवेचन प्राप्त होता है । ये बारह नय विधि एवं नियम ऐसे दो शब्दों के आधार पर बनाएँ हैं । इन्हीं बारह नयों में तत्कालीन समस्त भारतीय दर्शन के सिद्धान्तों को समाहित किया गया है । साथ ही प्रत्येक सिद्धान्त की उसके विरोधी सिद्धान्त के द्वारा समालोचना करवाई है । क्रमशः एक-एक दार्शनिक अवधारणा का स्थापन किया गया है और उस-उस
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दार्शनिक अवधारणा का उसकी विरोधी दार्शनिक अवधारणा के द्वारा खण्डन किया गया है । इस ग्रन्थ में जैनदर्शन की स्थिति केवल तटस्थ दृष्टा या न्यायाधीश की है जो तत्तद्वादों की खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया का दृष्टा होता है और अन्त में यह कहा है कि सभी दर्शन अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य होते हुए भी जब वे एकान्तवादी हो जाते हैं तब वे सभी मिथ्या हो जाते हैं । जब सभी दर्शनों का समन्वय होता है तभी सम्यक् दर्शन बनता है। और यही सम्यक् दर्शन ही जैनदर्शन है । इस प्रकार नयों के द्वारा जैनदर्शन सम्मत अनेकान्तवाद की सिद्धि की गई है । प्रस्तुत शैली का अनुसरण नयचक्र के अतिरिक्त अन्य जैनदार्शनिक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता है । नयों की नयचक्र में वर्णित शैली का भी अनुसरण पश्चात्वर्ती अन्य जैनदर्शन के ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता है । पूर्ववर्ती ग्रन्थों में भी विधि एवं नियम के विभिन्न विभाजन करके नयों का वर्णन करनेवाली शैली दृष्टिगोचर नहीं होती है। इस प्रकार नयचक्र का शैलीगत् वैशिष्टय है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ १२-१३वीं शती में नष्ट हो गया होगा ऐसा अनुमान लगाया जाता है । इसकी एकमात्र सिंहसेनसूरि की टीका के आधार पर इस ग्रन्थ को पुनः संकलित किया गया है । यह सत्य है कि अभी इस ग्रन्थ के कुछ अंश त्रुटित हैं तथापि मुनि जम्बूविजयजी के अथक परिश्रम से इस ग्रन्थ का अधिकांश भाग पुनः संकलित हो पाया है । इसी को आधार बनाकर हमने अपने शोधप्रबन्ध का कार्य किया है ।
इस शोधप्रबन्ध में द्वादश अध्याय हैं । इन अध्यायों का प्रतिपाद्य विषय निम्नोक्त है :
शोधप्रबन्ध के प्रथम अध्याय में जैन दार्शनिक परम्परा के विकास का इतिहास देते हुए उसमें प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थकार का क्या स्थान है इसे स्पष्ट किया गया है। साथ ही साथ इसमें मल्लवादी के जीवन, समय आदि पर भी विचार किया है और अध्याय के अन्त में ग्रन्थ की विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया गया है।
इस शोधप्रबन्ध का दूसरा अध्याय बुद्धिवाद और अनुभववाद की
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समस्या से सम्बन्धित है। आचार्य मल्लवादी का यह वैशिष्ट्य है कि उन्होंने प्रथम अर में आनुभविक आधारों पर स्थित दार्शनिक मतों, जिन्हें परम्परागत में अज्ञानवादी कहा जाता है, का प्रस्तुतीकरण किया है और फिर दूसरे अर में तर्क-बुद्धि के आधार पर उन अनुभववादी मान्यताओं की समीक्षा प्रस्तुत की
है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का तृतीय अध्याय सृष्टि के कारण की समस्या से सम्बन्धित है । इस अध्याय में आचार्य मल्लवादी के द्वारा प्रस्तुत अपने युग की जगत्-वैचित्रय के कारण सम्बन्धों, कारणवादों यथा-काल, स्वभाव, नियति, भाव, (चेतना), यद्रच्छा एव कर्म आदि का प्रस्तुतीकरण और उसकी समीक्षा प्रस्तुत की गई है।
चतुर्थ अध्याय मुख्य रूप से न्याय दर्शन की ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ उसकी समीक्षा के रूप में ईश्वर की सृष्टिकर्तृत्व की समालोचना प्रस्तुत करता है।
शोधप्रबन्ध का पञ्चम अध्याय सत् के स्वरूप की समस्या से सम्बन्धित है । उसमें मुख्य रूप से नित्यवाद, अनित्यवाद और नित्यानित्यवाद की सत् सम्बन्धी अवधारणाओं का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा की गई है । साथ ही इसमें परमसत्ता के चित-अचित् तथा एक-अनेक होने के प्रश्न को भी उठाया गया है । ज्ञातव्य है कि मल्लवादी जहाँ एक ओर सत् सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी और उसकी समीक्षा करते हुए उनके दोषों को भी स्पष्ट कर देते हैं ।
शोधप्रबन्ध का षष्ठम् अध्याय द्रव्य, गुण, पर्याय और उसके पारस्परिक सम्बन्ध तथा स्वरूप की समस्या को प्रस्तुत करता है । इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु द्रव्य, गुण और पर्याय की पारस्परिक भिन्नता और अभिन्नता को लेकर है।
सप्तम अध्याय में क्रियावाद एवं अक्रियावाद के विषय में चर्चा करते हुए आचार्य मल्लवादी द्वारा प्रस्तुत अवधारणाओं को और उसकी समीक्षा को प्रस्तुत किया है।
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हमने इस प्रबन्ध के अष्टम अध्याय में सामान्य और विशेष के सम्बन्ध में मल्लवादी के द्वारा प्रस्तुत अवधारणाओं को और उसकी समीक्षा को प्रस्तुत किया है ।
नवम अध्याय मुख्य रूप से आत्मा के अस्तित्व और उसके स्वरूप की समस्या से सम्बन्धित है । इस अध्याय में भारतीय दर्शन की आत्मा सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं के सिंहावलोकन के साथ-साथ उनकी समीक्षा भी प्रस्तुत की गई है ।
दसवें अध्याय में मल्लवादी द्वारा प्रस्तुत शब्द और अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध और उस युग के विभिन्न मतवादों की समीक्षा की गई है ।
ग्यारहवाँ अध्याय शब्द की वाच्यता - सामर्थ्य या वक्तव्यता और अवक्तव्यता की चर्चा करता है । सत्ता की निर्वचनीयता और अनिर्वचनीयता सम्बन्धी विभिन्न मत और उनकी समीक्षा ही इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु है ।
द्वादश अध्याय में जैनों की नय वर्गीकरण की शैली की विवेचना के साथ-साथ यह स्पष्ट किया गया है कि नयचक्र में किस प्रकार परम्परागत शैली का परित्याग करके नई शैली की उद्भावना की गई है ।
-शोधप्रबन्ध के अन्त में उपसंहार के रूप में ग्रन्थ में प्रस्तुत विभिन्न दार्शनिक समस्याओं के समाधान में नयचक्र के अवदान को स्थापित किया गया है ।
इस प्रकार इस शोधप्रबन्ध में हमने भारतीय दर्शन की विभिन्न दार्शनिक अवधारणाओं का मल्लवादी के द्वादशार नयचक्र के परिप्रेक्ष्य में एक मूल्याकंन किया है ।
इस शोधप्रबन्ध में हमने केवल उन्हीं समस्याओं पर विचार किया है. जो मल्लवादी के युग में अर्थात् पाँचवी शताब्दी में उपलब्ध थीं । यह सम्भव है कि परवर्ती कुछ दार्शनिक समस्याओं को इसमें स्थान न मिला हो किन्तु इसका कारण शोध - विषय की अपनी सीमा है ।
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कारण शोध-विषय की अपनी सीमा है ।
पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया ने ही इस विषय पर कार्य करने की प्रेरणा दी, समय-समय पर सूचन एवं मार्गदर्शन दिया जिसके लिए में अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। प्रो० सागरमल जैन निर्देशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी का सदैव आभारी रहूँगा जिनके निर्देशन में प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का कार्य सम्पन्न हुआ । जिन्होंने हर समय महत्त्वपूर्ण निर्देशन, वात्सल्यभरी प्रेरणा तथा दुरूह एवं शुष्क विषय को समझने एवं प्रस्तुत करने की क्षमता प्रदान की तथा अहिंदीभाषी होने के कारण भाषाकीय दोषों से भरे लेखन को परिमार्जित कर प्रस्तुत करने योग्य बनाया । अतः मैं सदा ही उनका ऋणी रहूँगा।
विभागाध्यक्ष एवं सह-निर्देशक प्रो० रेवतीरमण पाण्डेय के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने मेरे अध्ययन कार्य में सदैव सहयोग प्रदान किया और इस शोधकार्य को यथाशीघ्र पूर्ण करने की सदा प्रेरणा दी है । उनका स्नेह और सहयोग मेरा सम्बल रहा है।
अपने सहयोगियों एवं मित्रों में डॉ० अशोककुमार सिंह, डॉ० मुकुलराज मेहता, डॉ० रज्जनकुमार, डॉ. सुनीताजी, डॉ० धनंजय आदि का भी आभारी हूँ। जिनके सहयोग ने मेरे शोधकार्य को पूर्ण करने में गति प्रदान की है।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम के पुस्तकालयाधिकारी श्री ओमप्रकाश सिंह का आभारी हूँ, जिन्होंने शोधकार्य में यथायोग्य सहयोग प्रदान किया है।
शोधकार्य के टंकणकर्ता श्री जयशंकर पाण्डेय, एवं शोधकार्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग देनेवाले सभी का आभारी हूँ ।
स्वर्गीय पिता श्री बाबुलाल शाह तथा पूज्यनीया माताश्री मुक्ताबेन के उपकार, प्रेरणा एवं आशीर्वादों का ही फल यह शोधप्रबन्ध है । अतः मैं उनको भी हृदयपूर्वक अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ।
विद्याश्रम परिवार का आभारी रहूँगा तथा मातृसदृशा गुरु माता की भावनाओं ने शोधकार्य को संबल दिया अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ ।
जितेन्द्र बाबुलाल शाह
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अनुक्रम
प्रथम अध्याय
द्वितीय अध्याय
तृतीय अध्याय
चतुर्थ अध्याय
पञ्चम अध्याय
षष्ठ अध्याय
सप्तम अध्याय
अष्टम अध्याय
नवम अध्याय
दशम अध्याय
एकादश अध्याय
द्वादश अध्याय
अनुक्रमणिका
विषय
जैनदार्शनिक परम्परा का इतिहास मल्लवादी और
उनका ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र
अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
कारणवाद
ईश्वर की अवधारणा
सत् के स्वरूप की समस्या
द्रव्य-गुण- पर्याय का सम्बन्ध
क्रियावाद - अक्रियावाद
सामान्य और विशेष की समस्या
आत्मा की अवधारणा
शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या
सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
नय विभाजन
उपसंहार
सन्दर्भग्रन्थसूची संकेताक्षर-सूची
पृष्ठ संख्या
४७
५८
८३
९३
११२
१२३
१३७
१४६
१५५
१६३
१७३
१८६
१९८
२०७
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प्रथम अध्याय
जैन दार्शनिक परम्परा का विकास (आचार्य मल्लवादी पर्यन्त)
। भारत में प्राचीन काल से ही दार्शनिक चिन्तन की धारा प्रवाहित होती रही है । वैदिक साहित्य में प्राप्त दार्शनिक विचारों के आधार पर ही भारतीय दार्शनिक परम्परा का इतिहास अति प्राचीन सिद्ध होता है । भारतीय दर्शन परम्परा में मुख्य तीन विचारधाराओं का उद्भव एवं विकास हुआ-(१) वैदिक परम्परा (२) बौद्ध परम्परा एवं (३) जैन परम्परा । इन तीनों परम्पराओं के दार्शनिक साहित्य में एक-दूसरे के विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है । भारतीय दार्शनिक परम्परा में जहाँ अपने मत का स्थापन करने की शैली रही है, वहीं अन्य दर्शन के सिद्धान्तों को पूर्वपक्ष में रखकर उनकी त्रुटियों या कमियों को दिखाकर उन-उन मतों का खण्डन करने की शैली भी रही है । इस शैली के कारण एक ओर अपने सिद्धान्त को स्थापित करने के लिए नई युक्ति-प्रयुक्तियों का उद्भव होता रहा, वहीं अकाट्य तर्कों द्वारा अन्य दर्शनकारों के मतों का खण्डन करने की भी प्रवृत्ति रही । इसी कारण पूर्वोक्त तीनों परम्पराओं के दार्शनिक साहित्य का खण्डन-मण्डन की इन प्रवृत्तियों के द्वारा विकास होता रहा है । जैन दार्शनिक साहित्य में द्वादशार-नयचक्र का स्थान क्या है इसे समझने के लिए जैन दार्शनिक चिन्तन की परम्परा का अवलोकन आवश्यक है ।
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
पं० सुखलाल संघवी ने जैन दार्शनिक साहित्य के विकास को तीन
युगों में विभाजित किया है । वे इस प्रकार हैं
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(१) आगम-युग,
(२) संस्कृतप्रवेश या अनेकान्तस्थापन - युग, और
(३) न्याय- प्रमाणस्थापन- - युग
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इसी विभाजन को कुछ परिमार्जित करते हुए पं० दलसुख मालवणिया ने जैन दार्शनिक साहित्य के विकास को चार युगों में विभक्त किया है । पूर्वोक्त तीन युग एवं चतुर्थ नव्य न्याय युग । इस प्रकार उन्होंने दार्शनिक परम्परा के साहित्य को चार युगों में विभाजित किया है । २
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने काल - विभाजन इस प्रकार किया है :(१) आगम-युग :- भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर करीब एक हजार वर्ष का अर्थात् वि० पाँचवीं शती तक का समय
(२) अनेकान्तव्यवस्था-युग :- वि० पाँचवीं शती से आठवीं तक का
समय ।
(३) प्रमाणव्यवस्था - युग :- वि० आठवीं से सत्रहवीं शती तक का समय, और
(४) नव्यन्याय - युग :- विक्रम सत्रहवीं शती से आधुनिक समय
पर्यन्त । ३
आगमयुग
भगवान् महावीर के उपदेशों का संग्रह करके गणधर भगवंतो ने प्राकृतभाषा में अंगों की रचना की । वे ग्रन्थ अंग आगम कहलाए । गणधरों
१. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना - पृ० १२.
२. जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा, पृ० १.
३. वही, पृ० १.
४.
वही, पृ० २.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
के अलावा अन्य स्थविरों ने शिष्यों के हितार्थ तथा अपनी अनुभूति के आधार पर पूर्वोक्त अंग आगम को समझने के लिए अन्य ग्रन्थों की भी रचना की जो उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिका सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं । इस युग में पूर्वोक्त शास्त्रों की भाषा प्राकृत रही । इस युग में प्रमेय निरूपण आचारलक्षी होने के कारण उसमें स्वमत प्रदर्शन का भाव है । इस युग का प्रधान लक्षण जड़-चेतन के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन तथा अहिंसासंयम-तप आदि आचारों का निरूपण करना है । अर्थात् इस युग को हम स्वमत स्थापन युग भी कह सकते हैं ।
आगम में तत्कालीन सभी विद्याओं का समावेश हुआ है । सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, नन्दी एवं अनुयोग में दार्शनिक चर्चा उपलब्ध होती है ।
सूत्रकृतांग
यह द्वितीय अंग आगम है । आचारांग के बाद प्राचीन आगमों में सूत्रकृतांग की गिनती होती है । आगमों में सबसे पहले सूत्रकृतांग में ही दार्शनिक चर्चा प्राप्त होती है । इसमें स्वमत - परमतों, जीव, अजीव, पुण्य, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष आदि तत्त्वों के विषय में निर्देश है । क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद तथा उनके प्रभेदों का वर्णन मिलता है । तदुपरान्त भूतवादी, स्कन्धवादी, एकात्मवादी, नियतिवादी आदि मतावलम्बियों की चर्चा आती है । जगत् कर्तृत्व की चर्चा करते हुए विभिन्न वादों का उल्लेख किया है और जगत् देवकृत, ईश्वरकृत या ब्रह्मादिकृत है ऐसी मान्यताओं का निराकरण किया गया है । आत्मा देहस्वरूप नहीं है वह देह से भिन्न है ऐसा प्रतिपादित किया गया है । एकात्मवाद या अद्वैतवाद का निराकरण करके नानात्मवाद का स्थापन किया गया है ।
१. विस्तृत विवेचन के लिए दृष्टव्य जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा । २. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ० १३.
३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग - १, पृ० १७२.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन स्थानांग तथा समवायांगसूत्र
इन दोनों अंग आगमों में तत्त्वसंख्या का विवेचन किया गया है । इनमें ज्ञान, प्रमाण, नय, निक्षेप आदि का संक्षेप में संग्रह किया गया है, तथा प्रभेदों का उल्लेख किया है। किन्तु विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं होता है ।
भगवतीसूत्र
इस पञ्चम अंग-आगम में अनेक विषयों की चर्चा उपलब्ध होती है । गौतमस्वामी (भगवान् महावीरस्वामी के शिष्य) प्रश्न करते हैं और भ० महावीर उसके उत्तर देते हैं । प्रश्नोत्तर शैली में उपलब्ध प्रस्तुत ग्रन्थ में जीव का स्वरूप, पुद्गल का स्वरूप, अस्ति-नास्ति अवक्तव्यवाद, जगत् के स्वरूप आदि के विषय में चर्चा उपलब्ध होती है । क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद का वर्णन भी प्राप्त होता है तथा नियतिवादी गोशालक के विषय में भी विशेष चर्चा प्राप्त होती है । इस प्रकार प्रस्तुत अंग-आगम में अनेक दार्शनिक चर्चाएँ प्राप्त होती हैं।
नन्दीसूत्र
अपेक्षाकृत यह परवर्ती आगम है । इसमें जैनदर्शन मान्य पाँच ज्ञानमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञा, मन:पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान विषयक विस्तृत विवरण प्राप्त होता है।
अनुयोगद्वारसूत्र
प्रस्तुत आगम में प्रमाण, नय एवं निक्षेप की व्याख्या एवं उसके भेदों के विषय में विवरण प्राप्त होता है ।
प्रज्ञापनासूत्र
प्रस्तुत आगम में आत्मा तथा आत्मा के ज्ञान विषयक चर्चा उपलब्ध होती है।
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास जीवाभिगमसूत्र
इस आगम ग्रन्थ में जीव के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा की गई है । राजप्रश्नीयसूत्र
इस ग्रन्थ में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु केशी एवं प्रदेशी नामक नास्तिक राजा का संवाद है । प्रदेशी राजा ने जीव के अस्तित्व सम्बन्धी अनेकानेक संशय खड़े किए हैं और उन प्रत्येक संशय के सयुक्तिक उत्तर केशी द्वारा दिए गए हैं। इस प्रकार प्रस्तुत आगम ग्रन्थ में जीवसिद्धि की गई है।
राजप्रश्नीयसूत्र को छोड़कर प्रायः सभी आगम ग्रन्थों में स्वमत का स्थापन करने का ही प्रयास रहा है । प्रश्नोत्तर शैली में रचे गए ग्रन्थों में भी तर्कशैली का अभाव ही मालुम पड़ता है । जीवादि पदार्थों का लक्षण एवं उनके भेद-प्रभेद की शैली ही प्रधान नही हैं।
इस प्रकार पूर्वोक्त आगमों में जीव और जगत् के स्वरूप का चिन्तन किया गया है । आगम साहित्य की भाषा भी लोक-भोग्य प्राकृत रही है । उक्त पदार्थों का लक्षण करना और उसके भेदों का वर्णन करना ही आगमों का लक्ष्य हैं । सर्वत्र विवरणात्मक शैली का ही अनुसरण किया गया है । अन्य मतों का विवेचन भी प्राप्त होता है और उनके सिद्धान्तों के निराकरण का उल्लेख भी प्राप्त होता है तथापि तर्कशैली का अभाव है । संक्षेप में दार्शनिक शैली की दुरूहता तो आगमिक ग्रन्थों में है ही नहीं । तत्वार्थसूत्र और भाष्य- जैनदर्शन में यह पहला सूत्रात्मक एवं संस्कृत भाषा निबद्ध ग्रन्थ है । आ० उमास्वाति विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ में जीवादि नव तत्त्वों का विवेचन किया गया है । आगमिक साहित्य अति विस्तृत एवं विषयों के भेद-प्रभेदात्मक वर्णनों से युक्त हैं तथा जीवादि पदार्थों का वर्णन भी यत्र-तत्र विकीर्ण है । अतः जैनदर्शन के सार को दर्शानेवाले एक ग्रन्थ की आवश्यक्ता थी जिसकी पूर्ति वाचक उमास्वाति ने की । इसमें जैनदर्शन के तत्वों का विवेचन किया
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन गया है । उन-उन तत्त्वों के लक्षण, विभाग एवं स्वरूप का वर्णन है, तथापि इसमें भी दार्शनिक युग की खण्डन-मण्डन प्रवृत्ति का अभाव ही है । स्वोपज्ञ भाष्य में भी जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों के विषय में कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । प्रस्तुत लघु ग्रन्थ में जैनदर्शन का सार समाविष्ट होने के कारण बाद में सभी जैन परम्पराओं को-श्वेताम्बर, दिगम्बर आदि को समान रूप से मान्य हुआ और दोनों परम्पराओं में इस ग्रन्थ के ऊपर अनेक टीकाओं की रचना भी हुई । अनेकान्तस्थापन युग
आगम युग में जैन प्रमाणशास्त्र या न्यायशास्त्र की पूर्ण व्यवस्था नहीं हो पाई थी, तथा तद्विषयक स्वतन्त्र साहित्य का निर्माण भी नहीं हो पाया था । दूसरी ओर नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिङ्नाग ने भारतीय दार्शनिक परम्परा को एक नई गति प्रदान की । नागार्जुन ने शून्यवाद तथा असंग और वसुबन्धु ने विज्ञानवाद की स्थापना करके सभी भारतीय दार्शनिकों को अपने सिद्धान्त का रक्षण करने हेतु चिन्तन करने के लिए बाध्य कर दिया । दिङ्नाग ने प्रमाणशास्त्र की रचना की और शून्यवाद का समर्थन भी किया । इन दार्शनिक विचाराधाराओं के कारण अन्य नैयायिक, सांख्य, मीमांसक आदि ने भी अपने पक्ष को स्थिर करने पर विशेष बल दिया। प्रस्तुत दार्शनिक संघर्ष का प्रभाव जैनदर्शन पर भी पड़ा । जैन दार्शनिकों ने पूर्वोक्त दार्शनिकों से लाभ उठाकर अपने अनेकान्तवाद की स्थापना करने का प्रयास किया । सर्वप्रथम नयवाद को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने का प्रयास आचार्य सिद्धसेन ने किया । अपने समय तक के दार्शनिक सिद्धान्तों को आगम सम्मत नयवाद में समन्वित करके अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना की । आचार्य सिद्धसेन के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं-(१) सन्मति-तर्क और (२) द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिका । सन्मति-तर्कसूत्र
आगम में नयवाद का विवेचन था ही तथा निक्षेप एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल १. जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा, पृ० ४.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास और भाव से पदार्थ का विचार करने की बात भी आगम में वर्णित थी । इन विचारों का आधार लेकर उसमें विभिन्न दार्शनिकों के मत को नयों में स्थापित किया तथा उनको जैनदर्शन के ही अंग मानकर विभिन्न नयों का वर्णन किया। उन सभी नयों का समूह ही जैनदर्शन है, ऐसा सन्मति-तर्कसूत्र में सिद्ध किया । इस प्रकार अनेकान्तवाद स्थापन किया ।
द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिकाएँ
प्रस्तुत बत्तीसियों में प्रमुख रूप से भगवान् की स्तुति की गई है । स्तुति द्वारा स्वदर्शन मान्य सिद्धान्तों का स्थापन किया गया है तथा अन्य दर्शन भी नयात्मक ही हैं ऐसा वर्णन किया गया है । इसमें वैदिक सिद्धान्तों, न्याय दर्शन के, सांख्य दर्शन के, वैशेषिक दर्शन के, बौद्ध दर्शन के और नियतिवाद के सिद्धान्त का वर्णन भी प्राप्त होता है। इन सभी वादों को नयवादों में समाविष्ट किया । यथा-अद्वैतवादियों की दृष्टि को उन्होंने जैन संमत संग्रह-नय कहा, क्षणिकवादी बौद्धों का समावेश ऋजुसूत्र-नय में किया, सांख्य दृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक-नय में किया । पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक-नय के समन्वित रूप में न्याय-वैशेषिक का समावेश किया ।
इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन ने सभी दार्शनिक परम्पराओं को जैनदर्शन के नयवाद में स्थापित करके अनेकान्तवाद की स्थापना की । भेदवादी और अभेदवादी दर्शनों की समालोचना करके समस्त दर्शनों के प्रतीत होनेवाले विरोधों को अवास्तविक ठहराया और कहा कि अपेक्षा-भेद से ही भेद या अभेद हो सकता है । वस्तुत: वस्तु तो अनेकान्तात्मक ही है। दो मिथ्या वादों का मिलना ही स्याद्वाद है, फिर भी सम्यग् है । क्योंकि स्याद्वाद में परस्पर विरोधी वादों का समन्वय होता है अत: विरोध समाप्त हो जाता है । इस प्रकार विरोधी वादों का समन्वय करने का सर्वप्रथम प्रयास आचार्य सिद्धसेन ने किया ।
द्वादशार-नयचक्र
प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता आचार्य मल्लवादी हैं । आचार्य सिद्धसेन ने अन्य
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
मतों का नयवाद में स्थापन करने का प्रयास किया ही था और आगम में अनेकान्तवाद के अनेक बीज पड़े हुए थे, उन सबका तथा अपने काल तक के समस्त दार्शनिक परम्पराओं का गहन अभ्यास करके आचार्य मल्लवादी ने अनेकान्तवाद की स्थापना अपने ही ढंग से की है जो जैनदर्शन में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती है। . आचार्य मल्लवादी ने समस्त भारतीय दर्शनों को एक चक्र की कल्पना करके उसमें समाविष्ट कर दिया । तदनुसार एक के बाद एक सिद्धान्त का वर्णन आता जाता है । पूर्व-पूर्व सिद्धान्तों का खण्डन उत्तर-उत्तर सिद्धान्त करता जाता है । अतः पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर पक्ष-सिद्धान्त प्रबल लगता है तथापि अन्तिम वाद के बाद प्रथम वाद आ ही जाता है और वह अन्तिम वाद का खण्डन कर देता है इस प्रकार चक्र की तरह यह परम्परा चालू ही रहती है। इसमें सभी सबल और सभी दुर्बल हैं या एक अपेक्षा से एक वाद सबल है और दूसरा निर्बल है, वहीं दूसरी अपेक्षा से वही प्रथम वाद दुर्बल और दूसरा वाद सबल सिद्ध होता है । इस प्रकार स्याद्वाद और अनेकान्तवाद का स्थापन किया गया है ।
आचार्य मल्लवादी ने यह भी कहा है कि यह चक्र ही जैनदर्शन है । जैसे चक्र का कोई एक अर कुछ कर नहीं सकता वैसे ही किसी एक दृष्टि से तत्त्व का विचार करने पर वस्तुतत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होता है । वस्तु तत्त्व का यथार्थ बोध करने के लिए तो समस्त दृष्टियों से विचार करना चाहिए और वही जैनदर्शन है । इस प्रकार आचार्य ने स्याद्वाद का स्थापन किया है ।
इस ग्रन्थ के ऊपर आचार्य सिंहसूरि ने सातवीं सदी के पूर्वार्ध में १८००० श्लोक प्रमाण टीका लिखी है। इसमें भी सभी वादों का विवेचन किया गया है।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का बाद के कोई जैनाचार्यों ने उपयोग नहीं किया, यह एक आश्चर्य का विषय है । हमारा विवेच्य ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र है, अतः तत्पश्चात् दार्शनिक विकास के विषय में यहाँ विवेचन नहीं किया गया हैं ।
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास .
आचार्य मल्लवादी (जीवन परिचय)
आचार्य मल्लवादी जैनदर्शन के प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य हैं । नयचक्र टीकाकार सिंहसूरि (लगभग ८वीं शती) ने आचार्य मल्लवादी के लिए लिखा है कि :
जयति नयचक्रनिर्जितनिःशेषविपक्षचक्रविक्रान्तः ।
श्रीमल्लवादिसूरिर्जिनवचननभस्तलविवस्वान् ॥ अर्थात् नयचक्र स्वरूप चक्र के द्वारा जिसने समस्त स्याद्वाद विरोधियों को पराजित कर दिया है, ऐसे जिनवचन स्वरूपी आकाश में सूर्य के समान आचार्य मल्लवादी विजयवन्त हैं । इस श्लोक के आधार पर हम कह सकते हैं कि आचार्य मल्लवादी नयों के द्वारा समस्त वादियों को परास्त करने में कुशल थे । अपने मत की सिद्धि के लिए युक्तियों के दुर्भेद्य व्यूह की उपस्थिति करके प्रखर वादियों को भी वादयुद्ध में हरा देते थे, इसी कारण जैनदर्शन में वादी-प्रभावक के रूप में आचार्य मल्लवादी का नाम सुप्रसिद्ध है। आ० मल्लवादी के जीवन के विषय में हमें प्रभावक-चरित्र एवं प्रबन्धात्मक साहित्य में उल्लेख मिलता है ।२।
आ० मल्लवादी का गृहस्थावस्था का नाम मल्ल था । माता का नाम दुर्लभदेवी था । दो बड़े भाई जिनयश एवं यक्ष थे. । वे गुजरात में वलभीपुर नामक नगर के रहनेवाले थे ।
१. द्वादशारं नयचक्रं टीका, पृ० १. २. आचार्य श्री मल्लवादी सूरिकथा-भद्रेश्वरसूरि कृत कहावली में,
- मल्लवादिकथानकम्-प्रबन्ध-चतुष्ट्य में, - मल्लवादिसूरिचरितम्-प्रभावक चरित में, -- श्रीमल्लवादिप्रबन्धः-प्रबन्धकोश में, - मल्लवादिप्रबन्धः-प्रबन्धचिन्तामणि में । उपरिनिर्दिष्ट सभी ग्रन्थों में वर्णित मल्लवादी की कथा को द्वादशारं नयचक्रं के तृतीय भाग के चतुर्थ परिशिष्ट में संग्रहीत किया गया है । द्वादशारं नयचक्र, पृ० ९०४-९१७
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन मल्ल के मामा जिनानन्द जैनाचार्य थे और भरुच में बुद्धानन्द नामक बौद्ध आचार्य के साथ वाद में पराजित होने के कारण वे वलभीपुर गए, वहाँ उन्होंने अपनी बहन दुर्लभदेवी को जिनयश आदि तीनों पुत्रों के साथ जैनधर्म की दीक्षा दी थी । जिनानन्द ने तीनों को पढ़ाकर विद्वान बनाया।
एकबार जिनानन्द तीर्थयात्रा के लिए गए । तब निषेध करने पर भी मुनि मल्ल ने पूर्वगत श्रुतमय नयचक्र ग्रन्थ को पढ़ा, प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रथम कारिका पढ़ने के बाद सोच ही रहे थे कि उनके हाथ से श्रुतदेवता ने वह पुस्तक अदृश्य रूप से खींच ली । मल्ल मुनि को बहुत पश्चाताप हुआ किन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ, अत: वह गिरखण्ड नामक पर्वत गुफा में जाकर श्रुतदेवता की आराधना करने बैठ गए । दो-दो उपवास और पारणा में केवल रूक्षवाल (गुजरात में होनेवाला एक धान्य विशेष) का भोजन करके श्रुतदेवता की आराधना शुरू की । चार मास तक इस प्रकार का तप करने के पश्चात् पारणा में घृतादि स्निग्द पदार्थ भी ग्रहण करने लगे । एक बार श्रुतदेवता ने परीक्षा करने के लिए पूछा कि मिष्ट क्या ? मुनि ने उत्तर दिया वाल (धान्य विशेष)। इतनी ही बात होते श्रुतदेवता ने चर्चा समाप्त कर दी । तत्पश्चात् छह महिने बाद श्रुतदेवता ने पुनः अचानक ही प्रश्न पूछा कि किसके साथ ? इस प्रश्न का उत्तर मुनि ने छह महिने पूर्व पूछे गए प्रश्न के साथ अनुसंधान करके तुरन्त ही दिया की गुड़ और घी के साथ अर्थात् गुड़ और घी के साथ वाल (धान्य विशेष) मधुर लगता है ।
मुनि की धारणा-शक्ति से संतुष्ट होकर देवी ने वर माँगने को कहा तब मुनि ने कहा मुझे वह पुस्तक पुनः प्रदान की जाये । तब देवी ने कहा कि पूर्वोक्त नयचक्र ग्रन्थ तो पुन: लौटा नहीं सकती किन्तु जो एक श्लोक आपने पढ़ा है उससे आप नया नयचक्र का ग्रन्थन कर पायेंगे । ऐसा कहकर देवी अन्तर्ध्यान (अदृश्य) हो गयी ।
तत्पश्चात् मुनि मल्ल ने आराधना समाप्त करके दश हजार श्लोक प्रमाण नया नयचक्र बनाया। कालान्तर में गुरु जिनानन्दसूरि जब वापस लौटे तब १. नयचक्रं नवं तेन श्लोकायुतमितं कृतम् ।
प्राग्ग्रन्थार्थप्रकाशनेन सर्वोपादेयतां ययौ ॥ ३४ । द्वादशारं नयचक्रं, परिशिष्ठ-४, पृ० ९१०.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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उन्होंने मल्ल की विशेष योग्यता देखकर उन्हें आचार्य पद पर आसीन किया ।
एकदा मल्ल मुनि ने सुना कि अपने गुरु श्री जिनानन्द को भरुच नामक नगर में बौद्धों ने हराया था । यह बात सुनकर आचार्य मल्ल ने वलभी से भरुच की ओर विहार किया । वहाँ जाकर उन्होंने अपने गुरु के प्रतिस्पर्धी बौद्ध आचार्य बौद्धानन्द से वाद किया और उसको हराया। अपने गुरु को सम्मानूपर्वक भरुच नगर में प्रवेश करवाया । गुरु श्री जिनानन्दजी और जैनसंघ आचार्य मल्ल की जीत से आनन्दित हुए । इस प्रसंग के पश्चात् मल्लसूरि वादी के रूप में प्रसिद्ध हुए ।
आचार्य मल्लवादी ने नयचक्र के अलावा २४००० श्लोक प्रमाण पद्मचरित नामक रामायण की रचन की थी । २
किंवदन्ती के अनुसार मल्लवादी से पराजित बुद्धानन्द मरकर व्यंतरदेव हुआ था । पूर्व के द्वेष से मल्लवादी कृत नयचक्र और पद्मचरित को नष्ट कर दिए । इससे यह फलित होता है कि प्रभावक चरितकार के समय में उक्त दोनों ग्रन्थ नष्ट हो चुके थे । पू० कल्याणविजयजी का कहना है कि आ० मल्लवादी के उक्त ग्रन्थ बौद्धों के द्वारा नष्ट हो गए थे । *
प्रबन्ध-ग्रन्थों में मल्लवादी की माता दुर्लभदेवी को वल्लभी के राजा शीलादित्य की बहन मानकर पूर्वोक्त महावादी को शीलादित्य का भाँजा ठहराया है, तथा बौद्धों के साथ मल्लवादी का वाद श्री शीलादित्य की सभा में बताया जाता है 14
१. मल्लाचार्य इति श्रुत्वा लीलया सिंहवत् स्थिरः ।
गम्भीरगीर्भरं प्राह ध्वस्तगर्वो द्विषन्नृणाम् ॥ ४९ ॥ द्वादशारं नयचक्रं परिशिष्ठ, पृ० ९१०.
वही, पृ० ९११.
२. श्रीपद्मचरितं नाम रामायणमुदाहरत् । चतुर्विंशतिरेतस्य सहसा ग्रन्थमानतः ॥ ७० ॥
३. बुद्धानन्दस्तदा मृत्वा विपक्षव्यन्तरोऽजनि ।
जिनशासन - विद्वेषि-प्रान्त - कालमतेरसौ ॥ ७२ ॥ तेन प्राग्वैरतस्तस्य ग्रन्थद्वयमधिष्ठितम् ।
विद्यते पुस्तकस्थं तत् वाचितुं स न यच्छति ॥ ७३ ॥ ४. प्रभावकचरित, प्रस्तावना, पृ० ५६.
५. प्रबन्धकोश - श्री मल्लवादी प्रबन्धः श्लो. २३-२७.
द्वादशारं नयचक्रं पृ० ९११.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन मल्लवादी नामक अन्य आचार्य
उपरोक्त दो ग्रन्थों के अतिरिक्त धर्मोत्तरटिप्पनक नामक ग्रन्थ आचार्य मल्लवादी के नाम से प्राप्त होता है । किन्तु प्रस्तुत मल्लवादी नयचक्रकार मल्लवादी से भिन्न हैं । इस विषय में मुनिश्री कल्याणविजयजी का कहना है कि-अल्लराजा की सभा के वादी श्री नन्दक गुरु के कहने से मल्लवादी के ज्येष्ठ भ्राता जिनयश ने प्रमाणग्रन्थ बनाया था । किन्तु उक्त अल्लभूप वर्धमानसूरि कालीन भुवनपाल के पिता अल्लराजा विक्रम की दसवीं शती में विद्यमान होने चाहिएँ तथा अभयदेवसूरि के गुरु प्रद्युम्नसूरि ने अल्लराजा की सभा में दिगम्बराचार्य को पराजित किया था ऐसा उल्लेख मिलता है । इस तरह आचार्य प्रद्युम्नसूरि के समकालीन अल्लराजा का अस्तित्व दसवीं शती में सिद्ध होता है । विशेष आचार्य सिंहसूरि के प्रबन्ध में मल्लवादी के बौद्ध विजय को सूचित करनेवाली एक आर्या मिलती है । तदनुसार मल्लवादी ने वीर निर्वाण संवत् ८८४ वि० सं० ४१४ में बौद्धों को पराजित किया ।२ इस तरह मल्लवादी को विक्रम की पाँचवीं शती में हुए मानने पर उसके भाई अल्लराजा के वादी श्री नन्दक के समकालीन संभवित नहीं हैं । इन परस्पर विरोधात्मक बातों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि नयचक्रकार आचार्य मल्लवादी और धर्मोत्तर टिप्पणकार मल्लवादी भिन्न हैं । बौद्ध आचार्य श्री लघुधर्मोत्तर का समय विक्रम संवत् ५०८ का माना जाता है अतः उनके ग्रन्थ के ऊपर टिप्पण लिखनेवाले आचार्य मल्लवादी का समय निश्चय ही दशवीं शती के अन्त में संभवित होता है । अत: हमें यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि लघुधर्मोत्तर टिप्पणकार आचार्य मल्लवादी और नयचक्रकार मल्लवादी भिन्न हैं ।
१. प्रभावकचरित्र, प्रस्तावना, पृ० ५६-५७ २. श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते । जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्चापि ॥ ८३ ।।
प्रभावकचरित्र- विजयसिंहसूरिचरित में । ३. प्रभावकचरित्र, प्रस्तावना, पृ० ५७.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
आचार्य मल्लवादी का समय
आचार्य मल्लवादी ने नयचक्र में अपने समय और परम्परा के विषय में कोई उल्लेख नहीं किया है । टीकाकार आचार्य सिंहसूरि ने भी आचार्य मल्लवादी के समय के विषय में कुछ नहीं लिखा है । अतः आचार्य मल्लवादी का समय निर्धारण करने के लिए हमें अन्य ग्रन्थों और ग्रन्थ के अन्तर्गत चर्चित वादों पर ही निर्भर होना पड़ता है ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने अनेकान्त जयपताका नामक ग्रन्थ में वादि- मुख्य मल्लवादी कृत सन्मति टीका का उल्लेख किया है । मुनि जिनविजयजी ने अनेकानेक प्रमाणों से हरिभद्रसूरि का समय विक्रम कीआठवीं शताब्दी सिद्ध किया है । अतः मल्लवादी इससे पहले के विद्वान हैं । आचार्य विद्यानन्दन ने अपने श्लोकवार्तिक के नयविवरण नामक प्रकरण के अन्त में नयचक्र का हवाला दिया है और विद्यानन्द विक्रम की नवीं शताब्दी में हुए हैं यह भी प्रायः निश्चित-सा है । अतः मल्लवादी के समय की उत्तरावधि अष्टम शती के पूर्व निर्धारित होती है ।
जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यक भाष्य में जो विक्रम संवत् ६६६ में बनकर पूर्ण हुआ, और अपने ही लघु ग्रन्थ विशेषणवती में सन्मतितर्क के टीकाकार आचार्य मल्लवादी के उपयोग- युग-पद्यवाद की समालोचना की है । इससे तथा आचार्य मल्लवादी कृत द्वादशार - नयचक्र की टीका में उपलब्ध मूलपाठ में सिद्धसेन दिवाकर जी का सूचन मिलता है तथा जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का सूचन नहीं मिलता है अत: आ० मल्लवादी आ० जिनभद्र के पूर्ववर्ती और आ० सिद्धसेन के उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। आ० मल्लवादी को यदि विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मान लिया जाय तो आ० सिद्धसेन दिवाकर का समय जो पाँचवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक संगत लगता है। ऐसा पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया जी के मत को जुगल किशोर मुख्तार जी ने अपने सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन नामक लेख में उद्धृत किया है । ३
१. उक्तं च वादिमुख्येन श्री मल्लवादिना सम्मतो । अनेकान्त - जयपताका, पृ० ५८. २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १६८-१६९,
३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० ५४९.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
विक्रमीय ग्यारहवीं सदी के आचार्य अभयदेव की सन्मतिटीका में युगपत्, अयुगपत् और अभेदवाद के पुरस्कर्ताओं के नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है । क्रमवाद के पुरस्कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं, युगपत्वाद के पुरस्कर्ता के रूप में आचार्य मल्लवादी का नाम सूचित किया है और अभेदवाद के पुरस्कर्ता के रूप में आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया है । किन्तु पं० सुखलालजी का कहना है कि अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्र का अवलोकन करके देखा तो उसमें कहीं भी केवलज्ञान और केवल दर्शन के सम्बन्ध में प्रचलित वादों पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली । यह बात तो सही है कि नयचक्र में केवलज्ञान और केवल - दर्शन के क्रमवाद, युगपद्वाद और अभेदवाद पर कोई चर्चा नहीं है । अतः उसके आधार पर आ० मल्लवादी का समय निर्धारण करना कठिन है, किन्तु यदि आ० मल्लवादी ने केवली के उपयोग सम्बन्धी इन वादों की कोई चर्चा की थी जो अभयदेव के सामने रही होगी । वह किसी अन्य ग्रन्थ में होगी या नष्ट हुए नयचक्र के अंश में मौजूद होगी । इसीलिए पं० सुखलालजी ने यह कल्पना की है कि आ० मल्लवादी का कोई अन्य युगपद्-वाद समर्थक छोटाबड़ा ग्रन्थ आ० अभयदेव के सामने रहा होगा। पं० जुगलकिशोर मुख्तारजी उक्त दोनों विद्वानों के मतों की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि आ० मल्लवादी का आ० जिनभद्र से पूर्ववर्ती होना प्रथम तो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी तो उन्हें आ० जिनभद्र के समकालीन वृद्ध मानकर अथवा २५ या ५० वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववर्तित्व को चरितार्थ किया जा सकता है। साथ ही साथ वे आ० अभयदेव को आ० मल्लवादी के युगपद्वाद के पुरस्कर्ता बतलाना भ्रान्त मानते हैं । साथ ही नयचक्र में भर्तृहरि का नामोल्लेख और भर्तृहरि के मत के खण्डन के आधार पर एवं चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा - विवरण में भर्तृहरि उल्लेख के आधार पर नयचक्र का समय ई० सन् ६०० से ६५० (वि० सं० ६५७-७०७)
१४
१. सन्मतितर्क टीका, पृ० ६०८.
२. ज्ञानबिन्दु प्रकरण- प्रस्तावना, पृ० ६१.
३. ज्ञानबिन्दु, पृ० ६१.
४. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० ५५०.
५.
वही, पृ० ५५१.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास के पश्चात् ही मानते हैं। आगे चलकर वे कहते हैं कि इत्सिंग ने जब सन् ६९१ में अपना यात्रा वृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरि का देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समय का प्रसिद्ध वैयाकरण था । ऐसी हालात में आ० मल्लवादी आ० जिनभद्र से पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते । उक्त समय की दृष्टि से वे (आ० मल्लवादी) विक्रम की प्रायः आठवीं-नवमी शताब्दी के विद्वान् हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दु की धर्मोत्तर टीका पर टिप्पण लिखनेवाले आ० मल्लवादी के साथ एक भी हो सकता है।
मुख्तारजी अपने मत की पुष्टि के लिए कहते हैं की विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान प्रभाचन्द्र ने अपने प्रभावकचरित के विजयसिंह सूरि प्रबन्ध में बौद्धों और उनके व्यन्तरों को बाद में जीतने का जो समय आ० मल्लवादी का वीरवत्सर से ८८४ वर्ष बाद का अर्थात् वि० सं० ४१४ दिया है उसमें जरूर कुछ भूल हुई है । डॉ० पी० एल० वैद्य ने न्यायावतार की प्रस्तावना में इस भूल अथवा गलती का कारण श्री वीर विक्रमात् के स्थान पर श्री वीरवत्सरात् पाठान्तर का हो जाना सुझाया है । इस सुझाव के अनुसार पण्डितजी आ० मल्लवादी का समय वि० सं० ८८४ तक ले जाते हैं । इस तरह मुख्तारजी के अनुसार आ० मल्लवादी का समय बहुत ही उत्तरकाल में चला जाता है। - उपरोक्त चर्चा में विद्वान् श्री मुख्तारजी ने जो निष्कर्ष निकाला है उसको स्वीकार करने पर अनेक विसंवाद उपस्थित होना सम्भव है । क्योंकि मल्लवादी को नवम शती के विद्वान मानने पर टीकाकार आ० सिंहसूरि तथा आ० हरिभद्रसूरि आदि के समय-निर्धारण करने में अनेकानेक प्रश्न उपस्थित हो सकते हैं । इतना ही नहीं स्वयं मुख्तारजी ने पूर्व में यह माना है कि मल्लवादी आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समकालीन या वृद्ध रहे होंगे । पी० एल० वैद्य ने जो सुझाव दिया वह भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी प्रति में (हस्तलिखित) श्री वीरवत्सरात् के स्थान पर श्री वीरविक्रमात् ऐसा पाठ उपलब्ध नहीं होता और यदि मिल भी जाय तब भी अन्य उपलब्ध पाठ एवं ग्रन्थ में चचित वादों के आधार
१. वही, पृ० ५५१-५५२. २. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० ५५३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
पर हम यह कह सकते हैं कि श्री वीर विक्रमात् वाला पाठ स्वीकार करने योग्य नहीं है। इस प्रकार आ० मल्लवादी को नवमीं शताब्दी तक ले जाना ठीक नहीं है। नयचक्र के संपादक विद्वान मुनि जंबूविजयजी का मत है कि आ० मल्लवादी के समय के विषय में जो उल्लेख प्रभावकचरित्र में विजयसिंहसूरि प्रबन्ध में प्राप्त होता है कि मल्लवादी ने वीर संवत् ८८४ (अर्थात् वि० सं० ४२४) में बौद्धों को पराजित किया है वह ठीक है ।
तदुपरान्त मुनिजी ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है वह यह है कि नयचक्र में जहाँ-जहाँ आगम के पाठ उद्धृत किए हैं, उनमें आज के प्रचलित पाठों से कुछ भिन्नता पाई जाती है इतना ही नहीं किन्तु कुछ पाठ तो प्रचलित आगम परम्परा में हैं ही नहीं । वर्तमान प्रचलित पाठ-परम्परा भगवान् देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी में संकलित की थी। देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वीर निर्वाण ९८० (वि० सं० ५९०) में वलभी में संकलना की थी । जब आ० मल्लवादी वीरनिर्वाण सं० ८८४ (वि० सं० ४१४) में थे । अतः पाठभेद का कारण भी सहज है । इस प्रकार वे आ० मल्लवादी का समय वि० सं० ४१४ तक स्थिर करते हैं ।
पं० मालवणियाजी भी उक्त समय को स्वीकार करते हुए कहते हैं की नयचक्र में एक ओर दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय का उल्लेख है और दूसरी
ओर कुमारिल, धर्मकीर्ति आदि के उल्लेखों का अभाव है जो मूल नयचक्र से तो क्या टीका से भी सिद्ध होता है । आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख मूल और टीका दोनों में है । आचार्य दिङ्नाग का समय ई० ३४५-४२५ (वि० सं० ४०२-४८२) तक माना जाता है । आचार्य सिंहगणि ने नयचक्र टीका में अपोहवाद समर्थक बौद्ध विद्वानों के लिए अद्यतन बौद्ध विशेषण का प्रयोग किया है । उससे सूचित होता है कि आ० दिङ्नाग जैसे बौद्ध विद्वान सिर्फ आ० मल्लवादी के ही नहीं, किन्तु सिंहगणि के भी समकालीन हैं । प्रभावकचरित्र के उक्त श्लोक के आधार पर यह सिद्ध होता है कि आ० मल्लवादी
१. नयचक्र प्रस्तावना, प्रथम भाग, पृ० ४९. २. नयचक्र प्रस्तावना प्रथम भाग, पृ० ५०.
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१७ -
जैन दार्शनिक परम्परा का विकास वि० सं० ४१४ में विद्यमान थे । अतएव आ० दिङ्नाग के समय विक्रम ४०२-४८२ के साथ जैन परम्परा द्वारा सम्मत आ० मल्लवादी के समय का कोई विरोध नहीं है और इस दृष्टि से मल्लवादी वृद्ध और दिङ्नाग युवा इस कल्पना में भी विरोध की संभावना नहीं । आचार्य सिद्धसेन की उत्तरावधि विक्रम की पाँचवीं शताब्दी मानी जाती है । आ० मल्लवादी ने आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया है । अतएव दोनों आचार्यों को भी समकालीन माना जाय तब भी विसंगति नहीं । इसी प्रकार पं० दलसुख भाई आ० मल्लवादी का समय वि० सं० ४१४ ही निर्धारित करते हैं।
प्रमाणसमुच्चय के पाँचवे परिच्छेद में दिङ्नाग ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय ग्रन्थ की दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं । त्रैकाल्यपरीक्षा नामक ग्रन्थ की रचना भी दिङ्नाग ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय के प्रकीर्णकाण्ड को सामने रखकर की है। इस प्रकार भर्तृहरि दिङ्नाग के पूर्ववर्ती हैं तथा इत्सिंग का कथन की जिसके आधार पर पं० मुख्तारजी ने समय-निर्धारण का प्रयास किया है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि इत्सिंग ने कहा है कि भर्तृहरि नामक एक शून्यतावादी महान बौद्ध पण्डित था यह बात भी मानने योग्य नहीं है क्योंकि वाक्यपदीय ग्रन्थ में वैदिक एवं अद्वैतवादी की ही प्रस्थापना की गई है और भर्तृहरि के धर्मपरिवर्तन के विषय में कोई उल्लेख प्राप्त होता नहीं है । अतः इत्सिंग के कथन के अनुसार भर्तृहरि का समय निर्धारण ठीक बैठता नहीं है । इत्सिंग द्वारा उल्लेखित भर्तृहरि कोई अन्य भर्तृहरि होने की संभावना है । इस प्रकार उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम कह सकते हैं कि नयचक्र-कार आ० मल्लवादी का समय वीर निर्वाण संवत् ८८४ अर्थात् वि० सं० ४१४ ही रहा होगा ।
एक अन्य मल्लवादी नामक आचार्य भी हुए हैं जो प्रस्तुत नयचक्रकार आ० मल्लवादी से भिन्न हैं जिन्होंने न्यायबिन्दु टीका के ऊपर धर्मोत्तर टिप्पण नामक टिप्पण लिखा है जिनका समय ई० ८२७ या ९६२ माना जाता है ।३
१. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ. पृ० २१०. २. जैनाचार्य श्री मल्लवादी अने भर्तृहरिनो समय, बुद्धि-प्रकाश, पृ० ३३२. ३. धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५५.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन इस प्रकार हम इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के लगभग हुए हैं । यदि हम मुख्तार जी के मत को मान्य करके वाक्यपदीय को परवर्ती मानते हैं तो दिङ्नाग को भी परवर्ती मानना होगा किन्तु दिङ्नाग धर्मकीर्ति आदि के पूर्ववर्ती ही हैं । अत: मल्लवादी का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी से नीचे ले जाना सम्भव नहीं है। पुनः यदि हम आ० मल्लवादी के ग्रन्थ की विषयवस्तु की ओर दृष्टिपात करते हैं तो उसमें कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है जो परवर्ती काल का हो । जहाँ तक भर्तृहरि के वाक्यपदीय का प्रश्न है उसका उल्लेख अनेक प्राचीन जैन एवं बौद्ध आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में किया है और वे सभी विक्रम की पाँचवीं-छठी शती के पूर्व के ही हैं । यदि हम दार्शनिक सिद्धान्त की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का अभ्यास करें तो भी हम इसे बहुत परवर्ती सिद्ध नहीं कर सकते हैं । क्योंकि इसमें जो भी दार्शनिक मत उल्लेखित हैं वे सभी प्राचीन हैं। अतः आ० मल्लवादी का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के आसपास मानना ही अधिक उपयुक्त है ।
आचार्य मल्लवादी की कृतियाँ
वादिमुख्य आचार्य मल्लवादी एक समर्थ दार्शनिक थे । उन्होंने द्वादशार-नयचक्र नामक प्रौढ़ दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की थी । प्रस्तुत ग्रन्थ का अवलोकन-अध्ययन करने से आचार्य मल्लवादी की विद्वत्ता का परिचय हो ही जाता है और साथ-साथ यह जिज्ञासा भी होती है कि क्या आचार्य मल्लवादी ने अन्य कोई ग्रन्थों की रचना की थी या नहीं ? इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए हमें प्राचीन साहित्य का पर्यवेक्षण करना आवश्यक है । प्रबन्धग्रन्थ एवं दार्शनिक ग्रन्थों के अवलोकन से हम यह तो निश्चित् ही कह सकते हैं कि आचार्य मल्लवादी द्वारा कम से कम तीन ग्रन्थों की रचना तो हुई ही थी । दुर्भाग्य वश हमें उनके कोई भी ग्रन्थ मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का शोधग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र भी अपने मूल स्वरूप में कई शताब्दियों पूर्व ही नष्ट हो चुका था । पू० जम्बूविजयजी ने आचार्य सिंहसूरि की टीका के आधार पर द्वादशारनयचक्र को पुन: संपादित किया है । प्रबन्धात्मक ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर आचार्य
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
मल्लवादी की निम्नोक्त कृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है :
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(१) सम्मइपयरणटीका
(२) द्वादशार- नयचक्र
(३) पद्मचरित
(१) सम्मइपयरणटीका
जैन दर्शनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति प्रकरण (सम्मइपयरण) ग्रन्थ की रचना की है । प्रस्तुत ग्रन्थ में नयों का विस्तृत विवेचन किया गया है । नयों का स्पष्ट एवं सुबोध विवेचन होने के कारण बाद के सभी आचार्यों ने सन्मति प्रकरण का ही अनुसरण किया है । इस ग्रन्थ की टीका आचार्य मल्लवादी द्वारा लिखी गई थी ऐसा उल्लेख आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने अपने दार्शनिक ग्रन्थ अनेकान्तजयपताका की टीका में किया है ।" अद्यावधि यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं
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। इस विषय में एक और उल्लेख हमें बृहटिप्पणिका नामक ग्रन्थ में मिलता है । वहाँ कहा गया है कि सम्मईपयरण की टीका का प्रमाण ७०० श्लोक परिमाण है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि बृहट्टिप्पणिकाकार ने यह टीका देखी होगी अर्थात् १२वीं शती तक तो प्रस्तुत टीका विद्यमान थी किन्तु बाद में कोई ग्रन्थभण्डार में ही नष्ट हो गई हो ऐसा भी सम्भव है । आज तो हमारे सामने केवल कल्पना ही करना शेष है । द्वादशार - नयचक्र के चतुर्थ अर के अन्त में सन्मति की एक कारिका उद्धृत है और उसका विवेचन भिन्न शैली से किया गया है । जो उपलब्ध टीका से भिन्न है; इससे भी यह पुष्ट होता है कि आचार्य मल्लवादी ने सन्मतिप्रकरण के ऊपर टीका तो लिखी ही होगी किन्तु यह कृति
१. उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना सम्म (न्म) तौ । उक्तं च वादिमुख्येन - श्री मल्लवादिना सम्म (न्म) तौ ॥
२. " सन्मतिवृत्तिर्मल्लवादिकृता ७००, बृहट्टिप्पनिका ।"
३. ते पिच संग्रहाः संग्रहेण त्रिविधा भवन्ति द्रव्य-स्थित-नय-प्रकृतयः । द्रव्य - प्रकृतयः, कर्म-पुरुषकाराद्येकान्तवादाः स्थित-प्रकृतयः पुरुष - काल-नियत्यादिवादाः, नयप्रकृतयः प्रकृतीश्वरादिकारणवादाः ॥ द्वा० न० वृ००, पृ० ३७३.
तुलनीय:
अनेकान्तजयपताका, पृ० ५८. वही, पृ० ११६.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
कालकवलित हो गई होगी। उपरोक्त कथनानुसार प्रस्तुत टीका में नय का ही विवेचन होने की संभावना है।
२०
द्वादशार-नयचक्र'
था ।
I
प्रस्तुत ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप में नष्ट हो चुका इस ग्रन्थ के ऊपर आचार्य सिंहसूरि की एक विस्तृत टीका उपलब्ध हो रही है । इसी टीका ग्रन्थ में प्रयुक्त प्रतीकों के आधार पर मूल ग्रन्थ को पुनः सुग्रथित किया गया है । इसमें एक नई दृष्टि से नयों का विवेचन एवं विभाजन किया गया है जो जैनदर्शन में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा क्योंकि यही ग्रन्थ हमारे शोधप्रबन्ध का विवेच्य ग्रन्थ है ।
दव्वाट्यिनयपयडी सुद्दा संगहपरूवणाविसओ ।
पडिरूवे पुण वयणत्थनिच्छओ तस्स ववहारो ॥ ४ ॥
इति गाथासूत्रम् । अत्र च संग्रहनयप्रत्ययः शुद्धो द्रव्यास्तिकः व्यवहारनयप्रत्ययस्त्वशुद्ध इति तात्पर्यार्थः । अवयवार्थस्तु द्रव्यास्तिकनयस्य व्यावर्णितस्वरूपस्य प्रकृति: स्वभाव: शुद्धा इत्यसंकीर्णा विशेषासंस्पर्शवती संग्रहस्य अभेदग्राही नयस्य पुरूपणा - प्ररूप्यते नये कृत्वा-उपवर्णना पदसंहतिस्तस्या विषयो भिधेयः । सन्मति तर्क प्रकरण टीका. पृ० ३१५. १. पक्खाणिओ च मल्लवाइणा विहिपुव्वणे ( विहिपुव्वेणं ) नयचक्रग्रन्थो ।
मल्लवादिचरित्रम्, द्वा० न० पृ० ९०६
तो मल्लचिल्लओ वि य विरईय नयचक्कमाहप्पो । लद्धजसो संघेण पवेसिओ वलहिनयरीए |
प्रबन्धचतुष्टये मल्लवादिकथानकम्, द्वा० न० पृ० ९०७.
नयचक्रं नवं तेन श्लोकायुतमितं कृतम् । प्राग्ग्रन्थार्थप्रकाशेन सर्वोपादेयतां ययौ ॥ (३५) प्रभावकचरिते मल्लवादिचरितम्, वही, पृ०
९१०.
२. बुद्धानन्दस्तदा मृत्वा विपक्षव्यन्तरोऽजनि । जिनशासन - विद्वेषिप्रान्तकालमतेरसौ ||
तेन प्राग्वैरतस्तस्य ग्रन्थद्वयमधिष्ठितम् ।
विद्यते पुस्तकस्थे तत् वाचितुं स न यच्छति ॥
प्रभावकचरित में वर्णित मल्लवादि-चरित - श्लो. ७२-७३; उद्धृत द्वादशारं नयचक्रं, पृ०
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास पद्मचरित:
__ आचार्य मल्लवादी द्वारा विरचित ग्रन्थों की सूची में यह तीसरा ग्रन्थ है। प्रभावक-चरित्रकार ने मल्लवादी द्वारा रचित ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए पद्मचरित का भी उल्लेख किया है । साथ में यह भी बताया गया है कि पद्मचरित २४००० श्लोक प्रमाण संस्कृत काव्य है। किन्तु अन्य ग्रन्थों की तरह प्रस्तुत ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार आ० मल्लवादी की कोई भी कृति हमें मूलरूप में उपलब्ध नहीं होती है । प्रस्तुत ग्रन्थ के नाम के आधार पर हम यह कल्पना कर सकते हैं कि इसमें राम और सीता का जीवन-वृत्तान्त दिया गया होगा । जैन परम्परा में रामचरित पद्मचरित के नाम से प्रचलित रहा है । जैसे कि प्राकृत भाषा-निबद्ध पउमचरियं (विमलसूरि), संस्कृत भाषा में निबद्ध पद्मचरित्र (रविषेण) एवं अपभ्रंश भाषाबद्ध पउमचरिउं (स्वयम्भू) । यदि इसमें राम का चरित्र ही वर्णित हो तो यह भी कह सकते हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रथम रामचरित्र हो सकता है किन्तु यह तो कोरी कल्पना ही है क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं हो पाया है। प्रो० हीरालाल कापडिया का कहना है कि अन्य किसी ठोस प्रमाण के अभाव में यह भी निर्णय करना कठिन है कि पदमचरित नयचक्रकार आ० मल्लवादी की ही कृति है या अन्य मल्लवादी की कृति है ।
इस प्रकार साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर हमें उपरोक्त तीन ग्रन्थों के विषय में विवरण प्राप्त होता है । एक अन्य कृति न्यायबिन्दु टिप्पण भी मल्लवादी की कृति है किन्तु टिप्पणकार एवं नयचक्रकार मल्लवादी भिन्न हैं। प्रसंगोपात्त उसके विषय में यहाँ कुछ ज्ञातव्य है ।
मल्लवादी कृत धर्मोत्तर-टिप्पण
न्यायबिन्दु की धर्मोत्तर टीका का टिप्पण मल्लवादी आचार्य ने लिखा है। उसकी प्रतियाँ जैसलमेर तथा पाटण के ग्रन्थ भन्डारों में विद्यमान हैं ।
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१. प्रभावकचरित्र, पृ० १२३. २. वही, पृ० १२३. ३. श्री हरिभद्रसूरि. पृ० ३०३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन द्वितीय और तृतीय परिच्छेद के अन्त में आचार्य मल्लवादी ने अपना नामोल्लेख किया है । किन्तु प्रस्तुत मल्लवादी नयचक्रकार मल्लवादी से भिन्न है। इस विषय में पं० श्री मालवणिया जी लिखते हैं कि "नयचक्र के कर्ता मल्लवादी तो किसी भी प्रकार से टिप्पणकार सम्भव ही नहीं है, क्योंकि नयचक्र ग्रन्थ की आन्तरिक परीक्षा से यह सिद्ध होता है कि वे आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के बीच हुए हैं । ग्रन्थ में कई बार आचार्य दिङ्नाग का उल्लेख है, किन्तु कुमारिल या धर्मकीर्ति का एक बार भी उल्लेख नहीं है। ....अतएव प्रस्तुत न्यायबिन्दु टीका का टिप्पण लिखें, यह सम्भव नहीं ।" अतः न्यायबिन्दु टीका के टिप्पणकार मल्लवादी और नयचक्रकार मल्लवादी भिन्न ही हैं।
नयचक्र की रचना का आगमिक आधार नयचक्र की उत्पत्ति के विषय में आचार्य मल्लवादी के जीवन-वृत्तान्त के प्रसंग में चर्चा की गई है तथापि यहाँ उस मूल आगमिक आधार के विषय में चर्चा की जायेगी जो नयचक्र की रचना का आधार है। आचार्य मल्लवादी ने स्वयं निर्देश किया है कि नयचक्र पूर्व से उद्धृत गाथा का विवेचन है । जैनों के बारहवें अंग दृष्टिवाद, जो नष्ट हो चुका है, में पूर्वगत् नामक एक महत्त्वपूर्ण विभाग था और उसके चौदह उप विभाग थे । उस प्रत्येक उप विभाग को पूर्व कहा जाता था। उसके पाँचवे पूर्व का नाम ज्ञान-प्रवाद है उस ज्ञान-प्रवाद के एक अंश का नाम नयप्राभृत है । इसी नयप्राभृत की विधिनियम से प्रारम्भ होनेवाली गाथा से नयचक्र की रचना हुई है । प्रस्तुत
१. इति श्री मल्लवाद्याचार्य विरचिते धर्मोत्तर-टिप्पणके द्वितीय परिच्छेदः समाप्तः इति धर्मोत्तरटिप्पनके श्री मल्लवाद्याचार्य कृते तृतीयपरिच्छेदः समाप्तः ।
उद्धृत, धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५४. २. धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५४-५५ ३. अस्य चार्यस्य पूर्वमहोदधितमुत्पतितनयप्राभृततरंगागम प्रभ्रष्टश्लिष्टार्थकमात्रमन्यतीर्थकर
प्रज्ञापनाभ्यतीत-गोचर-पदार्थ-साधनं नयचक्राख्यं...... द्वादशारनयचक्रम्, भाग-२, पृ० ९ ४. विधि-नियमभंगवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचोवत् । जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ।।
वही, भाग-१, पृ० ९.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास नयप्राभृत अद्यावधि अनुपलब्ध है किन्तु नाम के आधार पर यह कल्पना कर सकते हैं कि उसमें विधि, नियम आदि रूपों में नयों का विवरण किया गया होगा।
इस प्रकार दृष्टिवाद के नयप्राभृत की विधि-नियम वाली गाथा से ही द्वादशार-नयचक्र का उद्भव हुआ यह बात स्वयं आचार्य मल्लवादी कहते हैं । नयचक्र के पूर्व भी नयचक्र नामक ग्रन्थ प्रचलित रहा होगा ऐसा हम नयचक्र तथा टीका के आधार पर अनुमान लगा सकते हैं । आचार्य मल्लवादी कहते हैं कि सप्तशतार-नयचक्र नामक ग्रन्थ विद्यमान होते हुए भी कालप्रभाव के कारण प्रतिदिन मेधा, आयु, बल, उत्साह और धारणा-शक्ति नष्ट हो रही है, अतः भव्य जीवों के उपकारार्थ संक्षिप्त नयचक्र का ग्रथन किया जा रहा है।
उत्तराध्ययन की पाइय टीका (४.६८ ए) में तथा अनुयोगद्वारसूत्र की गाथा १३४ की हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति में भी सप्तशतार-नयचक्र का उल्लेख प्राप्त होता है ।२ सप्तशतार-नयचक्र में जैनदर्शन में प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों तथा प्रत्येक नयों के सो-सो भेद करके सप्तशतार नयचक्र की रचना की गई थी । वर्तमानकाल में प्रस्तुत कृति उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार हम यह भी कल्पना कर सकते हैं की आ० मल्लवादी के समय सप्तशतारनयचक्र उपलब्ध था किन्तु उस नयचक्र की रचना जटिल और दुर्बोध होगी इसी कारण प्रस्तुत नए नयचक्र की रचना की गई होगी।
इस विषय में श्री दलसुखभाई मालवणिया का कहना है कि इस ग्रन्थ का पूर्वगत श्रुत के साथ जो सम्बन्ध जोड़ा गया है वह उसके महत्त्व को बढ़ाने के लिए भी हो सकता है और वस्तुस्थिति का द्योतक भी हो सकता
१. सप्तशतार-नयक्राध्ययने सत्यपि दुःषमाकालदोषबल-प्रतिदिन-प्रक्षीयमाणमेधादुर्बलो
त्साहंसेवग-श्रावणधारणादिशक्तीन् भव्यानाननुग्रहीतुं संक्षिप्तग्रन्थं बलर्थमिदं नयक्रशास्त्रम् ।
श्रीमच्छवेतपट मल्लवादिक्षमाश्रमणेन वितिनं, भाग-३, पृ० ८८६. २. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३, पृ० ११३. ३. अर्हत्प्रणीत नैगमादि प्रत्येक शतसंख्यप्रभेदात्मक सप्तशतारनयचक्रभेदात्मक.... नयचक्रवृत्तिः,
भाग- ३, पृ० ८८६.
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२४
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन है। क्योंकि पूर्वगत् श्रुत में नयों का विवरण विशेषरूप से था ही । और प्रस्तुत ग्रन्थ में पुरुष-नियति आदि कारणवाद की जो चर्चा है वह किसी लुप्त परम्परा का द्योतन तो अवश्य करती है। क्योंकि उन कारणों के विषय में ऐसी विस्तृत और व्यवस्थित चर्चा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। आगे चलकर वह कहते हैं कि दृष्टिवाद की विषयसूची देखकर इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि नयचक्र का जो दृष्टिवाद के साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है वह निराधार नहीं है।
इस प्रकार पूर्वोक्त चर्चा के आधार पर हम कह सकते हैं कि आचार्य मल्लवादी ने आगमोक्त परम्परा का अनुसरण करते हुए नूतन नयचक्र की रचना की होगी।
नाम
आचार्य मल्लवादी-कृत विवेच्य दार्शनिक ग्रन्थ का नाम द्वादशारनयचक्र है । इसको केवल नयचक्र के नाम से भी जाना जाता है । षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नसूरि-कृत बृहद्वृत्ति में नयचक्रवाल का उल्लेख प्राप्त होता है । अत: यह ग्रन्थ नयचक्रवाल के नाम से भी जाना जाता होगा ऐसा सम्भव है । किन्तु मुनिश्री जम्बूविजयजी के अनुसार नयचक्रवाल मूलग्रन्थ का नाम न होकर टीका का नाम होगा । मूल ग्रन्थ का नाम तो नयचक्र ही रहा होगा । 'वल संवरणे' (पाणिनि धातुपाठ) इसके अनुसार नयचक्र वलत इति नयचक्रवालः । इस प्रकार व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ के अनुसार नयचक्र की टीका को ही नयचक्रवाल टीका ऐसा ही नामोल्लेख मिलता है । अत: यह निश्चित होता है कि नयचक्रवाल यह टीका का नाम रहा होगा और नयचक्र या द्वादशार नयचक्र मूलग्रन्थ का नाम रहा होगा ।५ ग्रन्थ में भी प्रकरण
१. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ, पृ० १९८ २. वही. ३. श्वेताम्बराणां संमतिर्नयचक्रवालः स्याद्वादरत्नाकरो - । षडदर्शन समुच्यय टीका, पृ० ४०५. ४. श्री आत्मानन्द प्रकाश, वर्ष-४५, अं. ७, पृ० ११० ५. श्री आत्मानन्द प्रकाश, वर्ष-४५, अं-७, पृ० ११०-१११.
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२५
जैन दार्शनिक परम्परा का विकास के अन्त में नयचक्र या द्वादशार-नयचक्र ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है । इससे भी पूर्वोक्त बात को पुष्टि मिलती है ।
. एक ही नामवाले अनेक ग्रन्थ दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं । यथा तर्कभाषा, ज्ञानार्णव आदि । उसी तरह नयचक्र नामक तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं प्रथम श्वेताम्बर परम्परा में हुए आचार्य मल्लवादी-कृत नयचक्र, दूसरा दिगम्बर परम्परा में हुए आचार्य देवसेनकृत नयचक्र', और तीसरा दिगम्बर परम्परा के आचार्य माइल्लधवलकृत नयचक्र । अन्तिम दोनों नयचक्र बहुत बाद के हैं । यहाँ तो हम मल्लवादी-कृत नयचक्र की ही बात करेंगे । जो पाँचवी शती में रची गई कृति है । इस नयचक्र के ऊपर आचार्य सिंहसूरगणि क्षमाश्रमण विरचित एक अति विस्तृत टीका उपलब्ध होती है ।
रचनाशैली
नयचक्र की रचना एक "विधिनियम" से प्रारम्भ होनेवाली गाथा के आधार पर की गई है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही उक्त गाथासूत्र रखा गया है । इसी गाथासूत्र के भाष्य के रूप में नयचक्र का समग्र गद्यांश है । स्वयं आ० मल्लवादी ने नयचक्र को पूर्व महोदधि में उठनेवाले नयतरंगों के बिंदुरूप कहा है। प्रो० हीरालाल कापडिया नयचक्र को स्वोपज्ञ भाष्य के रूप में बताते हैं।
१. इति नियमनियमभंगो नाम द्वादशो भंगो
द्वादशारनयचक्रस्य । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ८५४
- तदेतदेवं द्वादशारनयचक्रं सिद्धम् । वही, पृ० ८८६. २. द्वादशारं नयचक्र-सं. जम्बूविजय मुनि. ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १६८-१७५ ४. नयचक्र-सं. कैलाशचन्द्र शास्त्री । ६. द्वादशारं नयचक्रं, सं. जम्बूविजयजी ६. विधि-नियमभंग-वृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थक-वचोवत् । जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ९. ७. अस्य चार्थस्य पूर्वमहोदधि-समुत्पतित-नयप्राभृत-तरंगागमप्रभ्रष्टश्लिष्टार्थकणिक
मात्रमन्य-तीर्थकर-प्रज्ञापनाभ्यतीतगोचर-पदार्थसाधनं नयचक्राख्यं । । वही. पृ० ९. ८. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३, पृ० ११७.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन किन्तु विधि नियम इत्यादि गाथा मल्लवादी की स्वयं रचना नहीं है। गाथा तो पूर्व अर्थात् बारहवें दृष्टिवाद में से उद्धृत की गई है ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। अतः गाथा अन्यकृत है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि नयचक्र ग्रन्थ विधिनियम इत्यादि गाथासूत्र का भाष्य है किन्तु स्वोपज्ञ भाष्य नहीं । इस नयचक्र के ऊपर सिंहसूरि क्षमाश्रमण ने विस्तृत टीका की रचना की है । यहाँ नयचक्र की बाह्य रचनाशैली के विषय में चर्चा की है; आन्तरिक रचनाशैली के विषय में आगे विस्तार से विवेचन किया जायेगा ।
भाषा
गाथा, भाष्य एवं टीका तीनों की भाषा संस्कृत है । भाषा प्रसन्न एवं मधुर होते हुए भी प्रौढ़ है । कहीं-कहीं तो मूल ग्रन्थ के अर्थ को समझना अति कठिन हो जाता है। अतः मूल ग्रन्थ के भाव को समझने के लिए टीका का आधार लेना पड़ता है । लम्बे समास एवं तर्कजाल से पूर्ण एवं कई विलुप्त परम्पराओं का कथनविवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है अतः ग्रन्थ की जटिलता में वृद्धि हुई है । ग्रन्थ को पुनः संकलित किया गया है उसके कारण कई अंशों का उद्धार नहीं हो पाया है तथापि एक विशिष्ट भाषा एवं शैली में रचा गया ग्रन्थ है।
नयचक्र की रचना-पद्धति
नयचक्र की रचना में तत्कालीन समस्त भारतीय दर्शनों को एक चक्र के रूप में संयोजित किया गया है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस प्रकार की रचना अन्य किसी भारतीय दर्शन परम्परा में भी उपलब्ध होती है । या चक्र की कल्पना करके दर्शन का विवेचन किया गया है ? यद्यपि यह सत्य है कि भारतीय दार्शनिक साहित्य में इस प्रकार की रचनाशैली वाला अन्य कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है । श्वेताश्वतर उपनिषद में एक कारिका उपलब्ध होती है जिसमें सांख्यदर्शन सम्मत प्रकृति के विभिन्न प्रभेदों को अर, तुम्ब आदि के रूप में स्थापित करके एक चक्र की कल्पना की गई
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ९
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
२७ है । किन्तु प्रस्तुत उपनिषद् में केवल सांख्यदर्शन के तत्त्वों को ही चक्राकार में कल्पित किया गया है परन्तु आगे उनका विशेष विवेचन नहीं किया गया है।
आचार्य मल्लवादी ने उपरोक्त उपनिषद् से प्रेरणा प्राप्त करके जैनदर्शन में भी चक्र के आधार पर ग्रन्थ रचने का विचार किया होगा, ऐसी हम कल्पना कर सकते हैं । नयचक्र में भी चक्र के अनुरूप रचना की गई है। श्वेताश्वतरोपनिषद में केवल सांख्यदर्शन के तत्त्वों को ही चक्राकार में स्थापित किया है किन्तु आ० मल्लवादी ने अपनी बुद्धि-प्रतिभा के द्वारा सारे भारतीय दर्शनों को एक चक्र में स्थापित करके अनेकान्तवाद की सिद्धि का एक नूतन प्रयास किया है । इस प्रकार प्रेरणा चाहे उपनिषद् से ली हो या पूर्व साहित्य से तथापि अपने पाण्डित्य एवं विद्वत्ता से उन्होंने ग्रन्थ को एक नया ही आयाम प्रदान किया है।
ग्रन्थ का नयचक्र नाम सार्थक है। जिस प्रकार चक्र में अर, नाभि एवं मार्ग होता है उसी प्रकार ग्रन्थ में भी अर, नाभि एवं मार्ग की कल्पना की गई है । चक्र में जिस प्रकार दो अरों के बीच में अरान्तराल होता है उसी प्रकार ग्रन्थ में भी अरान्तराल रखा गया है । - नयचक्र में अर के रूप में विधि आदि बारह अरों का कथन किया गया है। बारह विभागों को बारह अर कहा गया है । प्रत्येक अरात्मक विभाग में एक मान्यता को स्वीकार करनेवाले मतों का विवेचन किया गया है। चक्र में एक के बाद दूसरा अर आता है उसी प्रकार यहाँ भी एक अर के बाद दूसरे अर का विवेचन किया गया है । जहाँ पूर्व अर अपने मत का स्थापन करता है वहीं दूसरे अर के पूर्व में पूर्वोक्त अर का खण्डन भी पाया जाता है। इसी खण्डनात्मक विभाग को अरान्तराल कहा गया है। जिस प्रकार अन्तर के बाद ही दूसरा अर आता है उसी प्रकार पूर्वोक्त नय का खण्डन होने पर नया नय अर्थात् नया अर आता है। इस प्रकार पूरे ग्रन्थ में खण्डन एवं मण्डन की
१. तमेकनेमि त्रिवृत्तं षोडशान्तं शतार्धारं विंशति प्रत्यराभिः ।
अष्टकैः षड्भिविश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम् ॥
श्वेताश्वतरोपनिषद् १.४.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन प्रक्रिया चलती रहती है । बारहवें अर के बाद पुनः प्रथम अर उपस्थित हो जाता है और वह अपने पूर्व में रहे बारहवें अर के दोषों का कथन करके अपने मत का स्थापन करता है अर्थात् इस खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया का अन्त नहीं आता । इस प्रकार पूर्व-पूर्व नय दुर्बल और उत्तर-उत्तर नय सबल होने का बोध होता है किन्तु यह बोध वास्तविक नहीं है क्योंकि चक्र में कोई भी अर पूर्व ही या उत्तर ही हो ऐसा संभवित नहीं है उसी प्रकार नयचक्र में भी कोई अरात्मक विभाग पूर्व और कोई अरात्मक विभाग उत्तर में है यह कहना दोषयुक्त होगा । सब अपने पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर है और अपने उत्तर नय की अपेक्षा से पूर्व है । अतः हम किसी एक अर में सबलत्व या निर्बलत्व का आरोप नहीं कर सकते । क्योंकि अपेक्षा-भेद से ही सबलत्व
और दुर्बलत्व है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का कथन अपनी विशिष्ट शैली में ही किया गया है ।
चक्र का प्रत्येक अर तुम्ब या नाभि में संलग्न होता है उसी प्रकार ये सभी नय अर्थात् दार्शनिक सिद्धान्त स्याद्वाद या अनेकान्तवाद रूप तुम्ब या नाभि में संलग्न हैं । यदि ये अर तुम्ब में प्रतिष्ठित न हों तो बिखर जायेंगे उसी प्रकार ये सभी नय यदि स्याद्वाद में स्थान नहीं पाते तो उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती। दूसरे शब्दों में अभिप्रायभेदों को, नयभेदों को या दर्शन-भेदों को मिलानेवाले स्याद्वाद रूपी तुम्ब का नयचक्र में महत्वपूर्ण स्थान है।
अर और तुम्ब दोनों होने पर भी नेमि के अभाव में चक्र गतिशील नहीं होता है और न चक्र ही कहलाता है, अतएव नेमि भी आवश्यक है । इस दृष्टि से नयचक्र के पूर्ण होने में भी नेमि आवश्यक है । प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंशों में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है। प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है । प्रथम चार अर को जोड़नेवाला प्रथम मार्ग, अर के दूसरे चतुष्क को जोड़नेवाला द्वितीय मार्ग और तृतीय चतुष्क को जोड़नेवाला तृतीय
१. एवं च वृत्तिवचनमशेषभंगैकवाक्यतायामेव प्रतिभंगमपि वृत्तिरिति ख्यापनार्थम् ।
स्याद्वादतुम्ब प्रतिबद्ध सर्वनय भंगात्मिकैकैव वृत्तिः सत्या, रत्नावलीवत्, अन्यथा वृत्यभाव एव । तथैव च सर्वैकान्तप्रक्रमः ।
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ८८२.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास मार्ग है। मार्ग के तीन भेद करने का कारण यह है कि प्रथम के चार विधि भंग हैं । द्वितीय चतुष्क उभयभंग हैं और तृतीय चतुष्क नियम भंग हैं । ये तीनों मार्ग क्रमशः नित्य, नित्यानित्य और अनित्य की स्थापना करते हैं । नेमि को लोहवेष्टन से मण्डित करने पर वह और भी मजबूत बनती है, अतएव चक्र को वेष्टित करनेवाले लोहपट्ट के स्थान में सिंहगणि विरचित नयचक्रवालवृत्ति है । इस प्रकार नयचक्र अपने यथार्थ रूप में चक्र है।
चक्र की उपमा और उसकी महत्ता
नयचक्रकार आचार्य मल्लवादी ने चक्र की उपमा के विषय में ग्रन्थ के अन्त में कहा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती बनने के लिए चक्ररत्न की आवश्यकता होती है उसी प्रकार दार्शनिक जगत् में वादिचक्रवर्तित्व प्राप्त करने के लिए नयचक्र की आवश्यकता है ।२ नयचक्र में वर्णित वाद के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि आचार्य मल्लवादी ने तत्तत् दर्शनों के सिद्धातों का प्रस्तुतीकरण बहुत ही प्रामाणिक रूप से किया है। साथ ही उनकी समीक्षा भी की है । इस ग्रन्थ में तत्कालीन सभी दार्शनिक मतों का स्थापन एवं खण्डन किया गया है । अतः इसी एक ग्रन्थ के अध्ययन से सभी भारतीय दर्शनों का बोध हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है । इस प्रकार सामर्थ्य की दृष्टि से चक्ररत्न के साथ इसकी जो तुलना की गई है वह उचित ही है। यहाँ हम जैनदर्शन में प्रचलित कालचक्र की रचना के साथ भी नयचक्र की तुलना कर सकते हैं । नयचक्र में बारह अर हैं, कालचक्र में भी बारह अर हैं । जैसे नयचक्र में द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक ऐसे दो विभाग हैं उसी प्रकार कालचक्र में भी उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी ये दो विभाग हैं । कालचक्र में एक-एक विभाग में छह-छह प्रविभाग होते हैं उसी प्रकार नयचक्र के दोनों विभागों के भी छह-छह विभाग किए गए हैं । कालचक्र अविरत भ्रमण करता रहता है उसी प्रकार नयचक्र भी अविरत गति करता
१. श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ, पृ० २०२-२०३. २. नयचक्रशास्त्रं श्रीमच्छवेतपट मल्लवादिक्षमाश्रमणेन विहितं भरतचक्रवर्तिना चक्ररत्नमिव जैनानां वादिचक्रवर्तित्वविधये।
द्वादशारं नयचक्र पृ० ८८६.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन रहता है । इस प्रकार कालचक्र एवं नयचक्र की रचना में साम्य पाया जाता है। नयचक्र की महत्ता प्रदर्शित करते हुए आचार्य विक्रमसूरि ने कल्पना की है कि नयचक्र के सुचारू अध्ययन से स्याद्वाद का बोध होता है । स्याद्वाद के बोध से मनुष्य कालचक्र के भ्रमण में से मुक्त होता है । इस प्रकार दार्शनिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टि से नयचक्र का महत्व स्थापित किया गया है ।
चक्र के बारह अर होते हैं, नयचक्र में भी बारह अरों का विवेचन प्राप्त होता है । अतः नयचक्र को द्वादशार-नयचक्र भी कहते हैं । वे बारह अर इस प्रकार हैं :
१. विधि: २. विधि-विधि (विधेविधि:) ३. विध्युभयम् (विधेविधिश्च नियमश्च) ४. विधिनियमः (विधेर्नियम:) ५. विधिनियमौ (विधिश्च नियमश्च) ६. विधिनियमविधिः (विधिनियमयोविधि:) ७. उभयोभयम् (विधिनियमयो विधिनियमौ) ८. उभयनियमः (विधिनिमयोनियमः) ९. नियमः १०. नियमविधिः (नियमस्य विधि:) ११. नियमोभयम् (नियमस्य विधिनियमौ) १२. नियम नियमः (नियमस्य नियमः)३
१. द्वादशारं नयचक्रं, विक्रमसूरि प्रस्तावना, भाग-४, पृ० २. २. वही २. ३. तयोभंगाः १. विधिः, २. विधिविधिः, ३. विधैर्विधिनियमम्, ४. विधेनियमः, ५.
विधिनियमम्, ६. विधि-नियमस्य विधिः, ७. विधिनियमस्य विधिनियमम्, ८. विधि निमस्य नियमः, ९. नियमः, १०. नियमस्य विधिः, ११. नियमस्य विधिनियमम्, १२. नियमस्य नियमः । द्वा० न० भाग-१, पृ० १०.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
उपरोक्त द्वादश भेदों में विधि और नियम शब्द का ही प्रयोग हुआ है। इन्हीं दो शब्दों के आधार पर अन्य भेदों की रचना की गई है । अत: विधि नियम शब्द की व्याख्या आवश्यक हो जाती है । उपर्युक्त द्वादश भेदों का निर्माण जिस गाथासूत्र से हुआ है वही गाथा न्यायावतारवातिकवृत्ति में उद्धृत की गई है और उसकी व्याख्या में कहा गया है कि विधि अर्थात् उत्पाद, भंग का अर्थ व्यय और नियम अर्थात् ध्रौव्य जैनदर्शन में सकल वस्तु उत्पाद, व्ययध्रौव्यात्मक है । इस प्रकार विधि का अर्थ उत्पाद एवं नियम का अर्थ ध्रौव्य किया गया है ।२ यही अर्थ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीजी ने विधि नियम इत्यादि गाथा के अर्थ करते हुए इस प्रकार किया है-जैनशासन से भिन्न अन्य शासन उत्पाद (विधि), व्यय (भंग) और ध्रौव्य (नियम) से रहित होने से अनर्थक वचनों के तुल्य है ।३ किन्तु न्यायावतारवृत्तिकार एवं पण्डितजी का उपरोक्त अर्थ ग्रन्थ के चर्चित वादों के अनुरूप नहीं है क्योंकि विधिवाद में सत्ता को ध्रुव माननेवाले दर्शनों का विवेचन है तथा नियमवाद में सत्ता को अनित्य माननेवाले दर्शनों की चर्चा प्राप्त होती है । अतः उपरोक्त अर्थ यथार्थ नहीं है । न्यायावतारवृत्ति में अन्यत्र विधि का अर्थ विधेय किया है अर्थात् सत् को विधेयात्मक माननेवाला दर्शन । यह प्रस्तुत अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है ।
प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने विधि और नियम का अर्थ व्याकरण प्रसिद्ध उत्सर्ग एवं अपवाद किया है । इस अर्थ के अनुसार विधिवादी दार्शनिक वे हैं जो जगत् को नित्य मान रहे हैं और नियमवादी दार्शनिक वे हैं जो जगत् को अनित्य मान रहे हों । संभवत: प्रो० कापड़ियाजी ने नयचक्र में वाक्यपदीय का अत्यधिक उपयोग होने के कारण उपर्युक्त
१. न्यायावतारवातिकवृत्ति, पृ० ११२. २. विधिरुत्पादः, भंगोव्ययः, नियमो ध्रौव्यमिति तदात्मकं सकलमेव वस्तु, तस्य साकल्येन
प्रतिपादनान् आगमोत्तराणां न प्रमाण्यमिति । न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, पृ० ११३. ३. नयचक्र, प्रस्तावना, पृ० १५. ४. ....तच्च सामान्यं वा विशेषो वेति विधिरेव शब्दार्थ: स्यात् ।। न्यायावतार वृ० पृ० ९५. ५. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३, पृ० ११६.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन कल्पना की होगी । यह कल्पना सर्वथा अनुपयुक्त तो नहीं है क्योंकि टीकाकार स्वयं कहते हैं कि विध्यादि चार अर नित्यवादी हैं । उभयादि चार अर नित्यानित्यात्मक वादी हैं और अन्तिम नियम आदि चार अर अनित्यवादी हैं । इस प्रकार विधि का अर्थ नित्य एवं नियम का अर्थ अनित्य कर सकते हैं।
विधि शब्द की चर्चा करते हुए बृहत्कल्पसूत्र में कहा गया है कि आनुपूर्वी, परिपाटी, क्रम, न्याय, स्थिति, मर्यादा और विधान यह सब विधिशब्द के पर्यायवाची शब्द हैं । इस प्रकार विधि के विविध पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख प्राप्त होता है । आनुपूर्वी का अर्थ परम्परा, क्रम होता है तथा परिपाटी का अर्थ परम्परागत् प्रणाली या रीति होता है । इस प्रकार प्रस्तुत अर्थ को स्वीकार किया जाय तब विधि का अर्थ लोक-रूढ़ी होता है और उसके अनुसार प्रथम विधि अर में लोकवाद का कथन है ही इस प्रकार विधि का अर्थ प्रणालीगत मतवाद भी कर सकते हैं । स्थिति और मर्यादा शब्द का अर्थ स्पष्ट ही है अतः विधिवाद स्थिति को माननेवाला या किसी निश्चित तत्त्व को माननेवाला वाद है, ऐसा भी कर सकते हैं । अब हमें यह देखना चाहिए कि आ० मल्लवादी के टीकाकार सिंहसूरि प्रस्तुत शब्दों की क्या व्याख्या करते हैं ? टीकाकार प्रथम अर में कहते हैं कि विधि और नियम शब्द कोई अलौकिक शब्द नहीं हैं किन्तु लोक प्रचलित शब्द ही हैं । मूल ग्रन्थकार ने विधि शब्द का आचार एवं स्थिति अर्थ किया है। टीकाकार इस शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि जो सत् को भावरूप मानते हैं वे विधिवादी हैं । अथवा जो
१. विधिभंगाश्चत्वार आद्या उभयभंगा मध्यमाश्चत्वारो नियमभंगाश्चत्वारः पाश्चात्या यथासंख्यं नित्य
प्रतिज्ञाः ४, नित्यानित्यप्रतिज्ञाः ४, अनित्यप्रतिज्ञाश्च ४ ॥ द्वादशारं नयचक्रं-टीका, पृ० ८७७. अणुपुव्वी परिपाडी, कमो व नामो ठिई य मज्जादा । होइ विहाणं च तहा, विहीए एगट्ठिया हुति ॥२०८।।
बृहत्कल्प, पृ० ६७ ३. विधिनियमशब्दावलौकिकौ इति यरो मा मंस्तेति, द्वा० न० पृ० १०. ४. विधिराचारः स्थितिः......द्वा० न० पृ० १०. ५. विधीयत इति विधिभावसाधनोऽध्यातकर्थः द्वा० न० टी० पृ० १०.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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सत् के कर्तृत्व लक्षण को स्वीकार करते हैं या सत् की सत्ता को स्वीकार करते हैं, वे विधिवादी हैं । साथ ही जो व्यवहार, प्रथा या रिवाज, लोकाचार को मान्य करता है वह भी विधिवादी है । ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि विधिवाद का अनुसरण करनेवाले द्रव्यार्थिक नय को माननेवाले हैं । १
मूल ग्रन्थ में एवं टीका में नियम के अर्थ के सम्बन्ध में अधिक स्पष्टता प्राप्त नहीं होती है । नियम शब्द के पर्यायवाची शब्दों वाला अंश मूलग्रन्थ में त्रुटित है फिर भी टीका के आधार पर यह कह सकते हैं कि जो स्थिति को नहीं मानते हैं या तत्त्व के केवल अनित्य पक्ष को ही स्वीकार करते हैं वे नियमवादी हैं । २ नियमवाद पर्यायास्तिक नय का अनुसरण करता है । ३ उसके आधार पर डॉ० फ्राउवाल्नेर ने विधिवाद शब्द का अर्थ विधेयात्मक दर्शन और नियमवाद का अर्थ निषेधात्मक दर्शन किया है । उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि विधि शब्द का अर्थ है सत् के नित्यत्व एवं अस्तित्व को स्वीकार करनेवाला पक्ष और निषेध शब्द का अर्थ है सत् के अनित्यत्व या अनस्तित्व को स्वीकार करनेवाला पक्ष । विधि और नियम शब्दों के इन अर्थों का अनुसरण करके ग्रन्थकार ने उनके संयोगों के आधार पर ही द्वादशभेद या अरों का सर्जन किया है ।
ग्रन्थकार ने विधि एवं नियम इन दो शब्दों के द्वारा समस्त भारतीय दर्शनों को अभिहित किया है। वैसे भी देखा जाय तो भारतीय दर्शन मुख्यतया दो विभाग में विभाजित हो जाते हैं। कुछ तो वास्तववादी दर्शन हैं और कुछ अवास्तववादी दर्शन हैं । वास्तववाद का अर्थ है कि जो बाह्य जगत् के अनुभूत तथ्यों को वास्तविक मानते हैं अर्थात् जिनके मतानुसार व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य में कोई भेद नहीं, सत्य सब एक ही कोटि का है चाहे मात्रा की दृष्टि से न्यूनाधिक हो अथवा जिनके मतानुसार प्रमाण मात्र में भासित
१. द्रव्यार्थो विधिः । द्वा० न० टी० पृ० १०.
२. आधिक्येन यमनं नियमः, परस्परप्रतिविविक्तभवनादि लक्षणः प्रतिक्षणनियतोऽवस्थाविशेषो युगपद्भावी अयुगपद्भावी वा वादिः ।
द्वा० न० टी०, पृ० १०.
३. पर्यायार्थस्तु नियमः । द्वा० न० टी०, पृ० १०.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन होनेवाले सभी स्वरूप वास्तविक हैं अथवा जिनके मतानुसार वास्तविक रूप भी वाणी प्रकाश्य हो सकते हैं । उन्हें विधिमुख दर्शन कह सकते हैं । जैसे चार्वाक, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, सांख्य, योग, वैभाषिक, सौत्रान्तिक बौद्ध आदि ।
जिनके मतानुसार बाह्य जगत् मिथ्या है और आन्तरिक जगत् ही परम सत्य है अर्थात् जो दर्शन सत्य के व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा सांवृत्तिक और वास्तविक ऐसे दो भेद करके लौकिक प्रमाण-गम्य और वाणी प्रकाश्य भाव को अवास्तविक मानते हैं वे अवास्तववादी हैं । उन्हें निषेधमुखी अर्थात् नियमवादी दर्शन कह सकते हैं । जैसे शून्यवादी, विज्ञानवादी और अद्वैतवेदान्त दर्शन ।
विषय-वस्तु
नयों के निरूपण के द्वारा एकान्तवादी सभी दर्शनों का निराकरण करके जैनदर्शन सम्मत अनेकान्तवाद की स्थापना करना ही नयचक्र का मुख्य विषय है ।२ अनेकान्तात्मक वस्तु के एक देश अर्थात् एक अंश का अवधारण करनेवाली दृष्टि को नय कहा जाता है ।३ ऐसे नय अनन्त हैं, तथापि नयों के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध हैं ।५ नैगमादि सात नयों का समावेश भी उन्हीं दो नयों में होता है । नयचक्र में विधि आदि बारह नयों की चर्चा की गई है । जो अन्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होती । अत: प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हीं बारह नयों का आगम-सम्मत नयों के द्विविध एवं सतविधि वर्गीकरण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है । आचार्य मल्लवादी ने विधि आदि नयों का प्रसिद्ध दो नयों के साथ
१. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ० १-२. २. एषामशेषशासननयाराणां भगवदर्हद्वचनमुपनिबन्धनम् ॥ द्वा० न०, पृ० ८७६. . ३. द्रव्यास्यानेकात्मनोऽन्यतमैकात्मावधारणमेक-देश-नयनान्नयः । न० पृ० १०. ४. द्रव्यार्थ-पर्यायार्थद्वित्वाद्यनन्तान्त विकल्प.....द्वा० न० पृ० ६. ५. द्रव्यार्थ-पर्यायार्थनयौ द्वौ मूलभेदौ, द्वा० न० पृ० ८७६.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहा है कि विधि आदि प्रथम छह नय द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत आते हैं और शेष छह नय पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत २ इसी प्रकार विधि आदि बारह नयों का नैगमादि सात नयों में किस प्रकार अन्तर्भाव होता है, यह आचार्य मल्लवादी ने नयचक्र के प्रत्येक अर के अन्त में निर्दिष्ट किया है । तदनुसार विधि आदि नयों का नैगमादि नयों में निम्न प्रकार से अन्तर्भाव किया गया है।
***
१. प्रथम विधि नय का अन्तर्भाव व्यवहार नय में होता है । ३
२. द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अर के नयों का अन्तर्भाव संग्रह नय में होता है । ४ ३. पञ्चम एवं षष्ठ अर के नयों का अन्तर्भाव नैगम नय में होता है । ५
४. सप्तम अर के नय का अन्तर्भाव ऋजुसूत्र में होता है । ६
५. अष्टम तथा नवम अर के नयों का अन्तर्भाव शब्दनय में होता है । ७ ६. दशवें अर के नय का अन्तर्भाव समभिरूढ़ नय में होता है ।"
७. ग्यारहवें तथा बारहवें अर के नयों का अन्तर्भाव एवंभूतनय में होता है ।
इस प्रकार बारह नयों का सात प्रसिद्ध नयों में अन्तर्भाव भी किया गया है । नयचक्र का समान्य परिचय हो जाने के बाद अब हम यह देखेंगे कि उसमें नयों - दर्शनों का किस क्रम से उत्थान और निरास है ।
१. अयं षड्भेदो द्रव्यास्तिकः उपवर्णितः । द्वा० न० पृ० ४५४.
२. पर्यायार्थस्य षट् नयचक्र- - वृत्ति, पृ० ८७६.
३. व्यवहारदेशत्वाच्चास्य द्रव्यार्थता । द्वा० न० पृ० ११४.
४. संगहदेशत्वाच्चास्य द्रव्यार्थता । द्वा० न० पृ० २४४, ३३४, ३७३.
नैगमदेशत्वात् द्रव्यार्थो यम्, ४१४, नैगमैकदेशत्वाद् द्रव्यास्तिक, द्वा० न० पृ० ४४६.
५.
६. ऋजुसूत्रदेशत्वात् पर्यायास्तिकः, द्वा० न० पृ० ५४९.
७. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७३७ एवं ७६३.
८. वही, पृ० ७८९.
९. वही, पृ० ८०३ एवं ८५२.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
(१) विधि
प्रथम विधि अर में अज्ञानवाद का उत्थान किया गया है । यथा लोकग्राह्य वस्तु अर्थात् लोक में जिस प्रकार से वस्तु का अनुभव होता है वस्तु का स्वरूप उसी प्रकार का है। यह व्यवहारनय का भेद है अत: नय का मानना है कि लोकव्यवहार को प्रमाण मानकर अपना व्यवहार चलाना चाहिए, इसमें शास्त्र का कुछ काम नहीं । विभिन्न दर्शनों के शास्त्रों में वस्तु स्वरूप का विभिन्न शैली से प्रतिपादन किया गया है । कोई वस्तु को सामान्य मानते हैं तो कोई विशेष। अतः शास्त्रों के द्वारा किसी वस्तु का निर्णय नहीं होता है । इस बात को बताते हुए नयचक्रकार ने प्रारम्भ में एकान्त सामान्यवादी एवं एकान्त विशेषवादी के मतों की आलोचना की है। तत्पश्चात् सामान्यविशेषनानात्ववाद, सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद आदि का जो लक्षण एवं विवेचन विभिन्न शास्त्रकारों ने किया है उसे भी निरर्थक एवं असंगत सिद्ध किया है । इतना ही नहीं उक्त वादों का समर्थन करनेवाले विभिन्न दार्शनिक जिन प्रमाणों के आधार पर अपने सिद्धान्त का स्थापना करना चाहते हैं वे प्रमाण भी यथार्थ नहीं हैं। उनमें भी अनेक दूषण हैं-अन्य प्रमाण की बात तो क्या करें वे दार्शनिक प्रत्यक्ष प्रमाण का भी निर्दोष-लक्षण नहीं बता सके । वसुबन्धु के प्रत्यक्ष लक्षण में दिङ्नाग ने दोष दिखाया है और स्वयं दिङ्नाग का प्रत्यक्ष लक्षण भी अनेक दोषों से दूषित है । यही हाल सांख्यों के वार्षगण्यकृत प्रत्यक्ष लक्षण का और वैशेषिकों के प्रत्यक्ष का है । अतः शब्दों के अर्थ जो व्यवहार में प्रचलित हों उन्हें प्रमाण मानकर व्यवहार चलाना चाहिए। जगत के सूक्ष्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना अशक्य है और यदि ज्ञान प्राप्त भी हो जाय तो उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता । अतः जगत् के स्वरूप के विषय में अज्ञान ही श्रेयष्कर है । इस प्रकार विधि अर में अज्ञानवाद का उत्थान किया गया है । इस अज्ञानवाद का अर्थ है कि सभी वस्तुएँ अज्ञान-प्रतिबद्ध हैं अर्थात् पूर्णतः ज्ञेय नहीं हैं तथा ज्ञान भी अज्ञान से
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११. २. अतो वगम्यतां न किंचिदन्यत् फलं तच्छास्त्रेण क्रियते यल्लोकव्यवहारफलादतिरिच्य वर्तेत इति तथैवमादौ शास्त्रारम्भः ।
वही, पृ० ४५.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास अनुविद्ध है अर्थात् अज्ञान से युक्त है। किन्तु ऐसा मानने पर ज्ञान से अज्ञान का कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकेगा । अतः अज्ञान ही श्रेयष्कर है । अज्ञानवादी का मानना है कि अमुक फल प्राप्त करने के लिए अमुक क्रिया करनी चाहिए । इस प्रकार अज्ञानवादी क्रिया-विधायी शास्त्रों को ही सार्थक मानते हैं । इस मत की स्थापना के रूप में 'को ह्येतद वेद ? किं वा एतेन ज्ञानेन' ? वाक्य उद्धृत किया गया है ।
वेदोक्त 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' आदि क्रियाविधायी विधिवाक्यों को मीमांसक प्रमाणभूत मानते हैं। विधिवादी भी विधिवाद-अज्ञानवाद को ही प्रमाणभूत मानते हैं ।२ जब वस्तुतत्त्व पुरुष के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता तब अपौरुषेय शास्त्र का आश्रय तत्त्वज्ञान के लिए नहीं किन्तु क्रिया के लिए ही करना चाहिए । इस प्रकार इस अज्ञानवाद को वैदिक कर्मकाण्डी मीमांसक मत के रूप में फलित किया गया है । मीमांसक सर्वशास्त्र का या वेद का तात्पर्य क्रियोपदेश में मानता है। सारांश यह है कि शास्त्र का प्रयोजन यह बताने का है कि यदि आपकी कामना अमुक अर्थ प्राप्त करने की है तो उसका साधन अमुक क्रिया है । अतएव शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है । जिसके अनुष्ठान से व्यक्ति की फलेच्छा पूर्ण हो सकती है। यह मीमांसक-मत विधिवाद के नाम से प्रसिद्ध भी है अतएव आचार्य ने द्रव्यार्थिक नय के एक भेद व्यवहार नय के उपभेद रूप से विधिभंगरूप प्रथम अर में मीमांसक के इस मत को स्थान दिया है। प्रस्तुत विधिवाद आगम से-जैनदर्शन से संबद्ध है यह दिखाने के लिए आचार्य मल्लवादी ने भगवतीसूत्र का एक वाक्य उद्धत किया है जिसमें गौतम के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा है कि आत्मा कथञ्चित् ज्ञानवान् है और कथञ्चित् अज्ञानी है । इस प्रकार प्रथम विधि अर का विवेचन किया गया है।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३५. २. वही, पृ० ११३. ३. निबन्धनं चास्य :-आता भंते णाणे, अण्णाणे ? गोतमा णाणे णियमा आता, आता पुण
सिया णाणे सिया अण्णाणे । भगवतीसूत्र १२।३।४६७ उद्धृत द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११५.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
(२) विधिविधि अस्
नयचक्र में प्रत्येक अर के प्रारम्भ में पूर्व-पूर्व अर के सिद्धान्त का खण्डन किया जाता है तत्पश्चात् स्वमत का स्थापन । यही शैली, पूरे ग्रन्थ में आदि से लेकर अन्त तक है । यहाँ भी पूर्वोक्त विधिवाद का अर्थात् अपौरुषेय शास्त्र द्वारा क्रियोपदेश के समर्थन में अज्ञानवाद का जो आश्रय लिया गया है उसमें त्रुटि दिखाई गई है।
अज्ञानवाद का खण्डन करने के लिए यह विकल्प उठाया गया है कि यदि लोकतत्त्व पुरुषों के द्वारा अज्ञेय ही है तो फिर अज्ञानवाद के द्वारा सामान्य-विशेषादि एकान्तवादों का जो खण्डन किया गया है वह उन तत्त्वों को जानकर या बिना जाने ही, यदि उन्हें जानकर खण्डन किया गया है, यह कहा जाये तो फिर स्ववचन विरोध आता है और यदि यह कहा जाये कि बिना जाने खण्डन किया गया है तो बिना जाने खण्डन हो ही कैसे सकता ? तत्त्व को जानना यह यदि निष्फल हो तो शास्त्रों में प्रतिपादित वस्तुतत्त्व का प्रतिषेध अज्ञानवादी ने जो किया वह भी क्यों ? शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है यह मान लिया जाय तब भी जो संसेव्य अर्थात् उपभोग्य विषय है, उनके स्वरूप का ज्ञान तो आवश्यक ही है। अन्यथा इष्टार्थ में प्रवृत्ति ही कैसे होगी ? जिस प्रकार यदि वैद्य को औषधि के रस-वीर्य-विपाकादि का ज्ञान न हो तो वह अमुक रोग में अमुक औषधि कार्यकर होगी यह नहीं कह सकता वैसे ही अमुक याग करने से स्वर्ग मिलेगा यह भी बिना जाने कैसे कहा जा सकता है ? अतएव कार्य-कारण के अतीन्द्रिय सम्बन्ध को जाननेवाला हो तब ही स्वर्गादि के साधनों का उपदेश कर सकता है, अन्यथा नहीं। अत: अज्ञानवाद का आश्रय लेने पर किसी प्रकार से अग्निहोत्रं जुयात् वाक्य विधि वाक्य रूप से सिद्ध नहीं हो सकता । इस प्रसंग में सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद के एकान्त में भी दोष दिए गए हैं । यहाँ पूर्वोक्त विधिवाद प्रतिपादित क्रियावाद और अज्ञानवाद का प्रतिषेध करके अद्वैतवादों की स्थपना की गई है । यहाँ विधिविधि शब्द का अर्थ चैतन्य आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति किया गया है । इसका शाब्दिक अर्थ यह हो सकता कि विधि की विधि अर्थात् विधि स्वरूप जगत् की विधि अर्थात् विधि स्वरूप जगत् की विधि
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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अर्थात् उसके कारण का विधान करना । एक ही कारण से नाना स्वरूप इस जगत् की उत्पत्ति होती है यही इस अर का मन्तव्य है ।
सर्वप्रथम पुरुष को ही सृष्टि का कारण मानकर पुरुषाद्वैतवाद की स्थापना की गई है । इसमें पुरुष ही सर्वज्ञ आत्मा है, कर्म है एवं कारण है ऐसा माना गया है और उसे सिद्ध किया गया है । पुरुष ही सर्वात्मक है इस सिद्धान्त को स्थापित करने के लिए 'पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भव्यं इत्यादि शुक्ल यजुर्वेद के मन्त्र का आधार लिया गया है । तत्पश्चात् पुरुषवाद का खण्डन करके नियतिवाद की स्थापना करते हुए कहा है कि नियति से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और नियति ही सर्वकार्यों के प्रति एकमात्र कारण है । इस प्रकार नियति-अद्वैतवाद की स्थापना की है । आचार्य मल्लवादी ने इस नियतिवाद का खण्डन कालवाद के द्वारा कराया है। नियति काल के बिना कार्य नहीं कर सकती है अतः काल ही जगत् का कारण है ऐसा बताया गया है । कालाद्वैतवाद का खण्डन स्वभावाद्वैतवाद से कराया है । इस सृष्टि की रचना स्वभावतः ही होती है अतः स्वभाव ही सृष्टि का एकमात्र कारण है ऐसा प्रस्तुत सिद्धान्त का मन्तव्य है । स्वभाववाद का खण्डन भाववाद ने किया है । जगत् के सभी पदार्थों में भवनं भावः इस प्रकार का अद्वैत अनुस्यूत है । इस अर में पुरुषादि वादों के प्रस्तुतीकरण का कारण बताते हुए पं० मालवणियाजी ने बताया है कि अज्ञान विरोधी ज्ञान है और ज्ञान ही चैतन आत्मा है, वही पुरुष है अतएव यहाँ अज्ञानवाद के बाद पुरुषवाद रखा गया है ।
इस पुरुषवाद का जैनदर्शन से समन्वय भगवतीसूत्र के - 'किं भयवं । एके भवं, दुवे भवं, अक्खुए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं, अणेगभूतभव्वभविए भवं । सोमिला, एके वि अहं दुवेवि अहं....' वाक्य से माना गया है ।
(३) विध्युभय अस् -
द्वितीय विधिविधि अर में अद्वैतवादियों की चर्चा की गई है ।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० २४५.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
अद्वैतवादि जगत् में एक ही मूलतत्त्व को स्वीकारते हैं। सभी अद्वैतवादियों ने मूल तत्त्व एक ही माना है तथापि उसके नामों में भिन्नता है । उसी अद्वैतवाद कां निरास करके द्वैतवाद का स्थापन करना प्रस्तुत अर का उद्देश्य है । पुरुषाद्वैत के निरास द्वारा सांख्यदर्शन ने पुरुष और प्रकृति के द्वैत की स्थापना की है ।
४०
विधि-उभय शब्द का विवेचन हम इस प्रकार कर सकते हैं विधि का विधि एवं नियम अर्थात् विधि का स्वीकार एवं अस्वीकार, इन दोनों दृष्टियों का समन्वय करनेवाला अर । विधि की विधि के रूप में सर्वप्रथम सांख्यों ने प्रकृति का स्थापन किया है । एकरूप प्रकृति नाना कार्यों का सम्पादन करती है यह सांख्यों का सिद्धान्त है, किन्तु ऐसा मानने पर पुरुषाद्वैतवाद पर किए गए सभी आक्षेप सांख्य संमत प्रकृति को सामन रूप से लागू पड़ेंगे । अतः सांख्यों का प्रधान कारणवाद भी खण्डित हो जायेगा । इस प्रसंग में सत्कार्यवाद एवं त्रिगुणों का भी खण्डन किया गया है । इस प्रकार सांख्य मत का विधिविधि-वाद के विरुद्ध में उत्थान करने पर भी दोषयुक्त होने के कारण अस्वीकार करते हुए प्रकृतिवाद के स्थान में ईश्वरवाद का स्थापन किया गया है । प्रकृति कारणवाद का खण्डन सर्वसर्वात्मवादी के द्वारा किया गया है और सांख्य के द्वैतवाद के स्थान पर ईश्वरवादियों ने अन्य द्वैतवाद की स्थापना की है । तदनुसार भाव्य जगत् और उसके अधिष्ठाता भविता ईश्वर दोनों की सत्ता है । इस ईश्वरवाद का समर्थन श्वेताश्वतरोपनिषद एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति (६.१२) इत्यादि कारिका के द्वारा किया गया है ।
जैन परम्परा में इसका सम्बन्ध प्रज्ञापना सूत्र के "दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता जीव पण्णवणा, अजीव पण्णवणा च । एवं किमिदं भंते । लोए पवुच्चइ ! गोयमा ! जीव चेव अजीव चेव" (स्थानांग सूत्र के) उक्त वाक्यों के साथ जोड़ा गया है ।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३३४.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
४१ (४) विधिनियम अस्
सर्वप्रथम तृतीय अरोक्त ईश्वरवाद का सविस्तर, सयुक्तिक खण्डन किया गया है । कहा गया है कि प्राणी के सुख या दुःख स्वकृत शुभ या अशुभ कर्म के आधीन हैं । अतः संसार के प्राणियों का ईश्वर उन प्राणियों से भिन्न कोई पृथगात्मा नहीं, किन्तु सर्व प्राणी अपने-अपने ईश्वर हैं । जगत् का कोई आदिकर्ता ईश्वर है ही नहीं । प्राणियों के अपने-अपने कर्म ही सुखादि में कारण होने से कर्म ही ईश्वर है, इतना ही नहीं कर्म के कारण ही जीव प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप फल भोगता है । इस प्रकार कर्म के प्राधान्य को स्थापित करते हुए ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है । तत्पश्चात् आत्मा एवं कर्म में अभेद स्थापित करते हुए कहा है कि आत्मा ही कर्मरूप बनता है और कर्म ही आत्मारूप बनता है । अतः कर्म एवं आत्मा में अभेद है। जगत् के सभी चेतनाचेतन पदार्थ अन्योन्यात्म स्वरूप परिणत होते हैं । इस प्रकार यहाँ ईश्वरवाद के विरुद्ध पुरुष कर्म का स्थापन किया है ।
आचार्य मल्लवादी ने कहा है कि जिस प्रकार पुरुष के बिना कर्म की प्रवृत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार कर्म के बिना पुरुष की प्रवृत्ति भी नहीं होती है । अतएव उनमें परस्पर सापेक्षत्व है । दोनों का कर्तृत्व भी परस्पर सापेक्ष है। एक परिणामक है तो दूसरा परिणामी है, अतएव दोनों में ऐक्य है । इसी आधार पर अन्त में सर्वैक्य सिद्ध किया गया है और सर्वसर्वात्मकता का स्थापन किया गया है।
इस नय का अन्तर्भाव संग्रहनय में होता है । इस नय का कथन है सब एक हैं, सब पदार्थ अन्योन्यात्मक होने से यह सिद्ध होता है कि "एकं सर्व सर्वं चैकम" अर्थात् एक ही सब है और सब एक है। सर्वं खलु इदं ब्रह्म इस नय का आधार-वाक्य है। नित्य सर्वात्मक द्रव्य का कथन ही इस नय का प्रतिपाद्य है । पूर्वोक्त परम्परा के अनुसार इस अर का सम्बन्ध जैन
आंगम आचारांगसूत्र के 'जे एगणामे से बहुणामे' वाक्य के साथ स्थापित किया गया है।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३७५.
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(५) उभयम् -
चतुर्थ अर में कर्म एवं भाव की स्थापना की गई है। उसके द्वारा सर्वसर्वात्मक वाद का स्थापन भी किया गया है । अब यह प्रश्न उठता है कि यदि सर्वसर्वात्मक है तब केवल द्रव्य की ही सत्ता सिद्ध होती है किन्तु उसमें होनेवाली क्रिया भावरूप है या नहीं ? केवल द्रव्य को ही मानने पर उसमें क्रिया की उपपत्ति कैसे होगी ? इस प्रकार अनेक प्रश्न उपस्थित करके द्रव्य ही परमार्थ स्वरूप है ऐसा जो चतुर्थ अर का मन्तव्य है उसका खण्डन किया गया है । द्रव्य तथा क्रिया दोनों स्वतन्त्र पदार्थ हैं ऐसा उभय नय का मन्तव्य यहाँ स्थापित किया गया है ।
उभय अर का अर्थ है विधि-नियम । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि विधि नियम रूप चतुर्थ अर और इस अर में अन्तर है । चतुर्थ अर का अर्थ है विधि का नियम अर्थात् विधि का निषेध है, जबकि पञ्चम अर विधिनियम-उभयात्मकता को सिद्ध करता है । विधि-नियम उभय का अर्थ है वस्तु में द्रव्य एवं क्रिया पर्याय उभय की स्वीकृति । द्रव्य और क्रिया रूप दो भिन्न वस्तुओं का स्वीकार ही प्रस्तुत नय का कथन है । इस नय में द्रव्य और क्रिया-पर्याय, दोनों को पदार्थ - स्वरूप स्वीकृत किया गया है । द्रव्यशून्य क्रिया नहीं होती है, अपितु द्रव्य की क्रिया होती है, अतः द्रव्य और क्रिया दोनों को वस्तु-स्वरूप स्वीकार करना आवश्यक है, अन्यथा द्रव्यं भवति इस वाक्य में पुनरुक्ति दोष आयेगा । इस नय का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य है ।
द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
इस नय को नैगम नय में समाविष्ट किया गया है नैगम नय द्रव्यार्थिक नय है । आ० मल्लवादी ने इस अर का सम्बन्ध भगवतीसूत्र के "अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमति (१.३.३२) के साथ जोड़ा है । १
(६) उभयविधि अस्
इस अर में पञ्चम अर में स्थापित किए गए द्रव्य एवं क्रिया दोनों को
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ४१५.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास भिन्न-भिन्न पदार्थ के रूप में स्वीकार किए गए हैं । इस नय में द्रव्य और पर्याय दोनों को एक-दूसरे से स्वतन्त्र या भिन्न-भिन्न माना गया है । उभय अर्थात् विधि-नियम, सामान्य-विशेष, उत्सर्ग-अपवाद इन दोनों की विधि अर्थात् दोनों की स्वतन्त्रता का स्वीकार । इस अर में वैशेषिक संमत द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय आदि पदार्थों का निरूपण भेद प्रधान दृष्टि से किया है।
प्रस्तुत अर का समावेश नैगम नय में किया गया है। उसका सम्बन्ध जैन आगम ग्रन्थ के जीवाभिगम सूत्र के निम्न उद्धरण से बताया गया है :
इमाणं भंते ! रतणप्पभा पुढवी किं सासता, असासता ? गोतमा ! सिया सासता सिया असासता । से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चति-सिया सासता असासत्ति ? (३.१.७८)१ (७) उभयोभयम्
प्रारम्भ में वैशेषिक दर्शन मान्य सत्ता एवं समवाय का सविस्तार खण्डन किया गया है। सत्तादि पदार्थों का निरास करके अपोहवाद की स्थापना की गई है । उभयोभयम् में उभय का अर्थ है सामान्य एवं विशेष—ये दोनों का उभय यानि भाव तथा अभाव । इसमें सामान्य एवं विशेष दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व एवं दोनों का अभाव अर्थात् दोनों के स्वतन्त्र नहीं होने, इन दोनों पक्षों को स्वीकृत किया गया है ।
प्रस्तुत अर ऋजुसूत्र नय का भेद माना गया है तथा जैनदर्शन में उसका सम्बन्ध भगवतीसूत्र के "आताभंते पोग्गले, णो आता ? गोतमा सिया आता परमाणुयोग्गला, सिया णो आता' (१२.१०.४६९)२ के साथ स्थापित किया. गया है। (८) उभयनियम
प्रारम्भ में पूर्वोक्त अपोहवाद का खण्डन किया गया है । इसमें उभय
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ४५०-४५१. २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७३७.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
का नियम अर्थात् विधि-नियम का नियम दोनों के तादात्म्य का निषेध स्वीकार किया गया है । यहाँ विधि गौण है और नियम (निषेध) मुख्य है । अपोहवाद का खण्डन करके शब्दाद्वैत की स्थापना की गई है । तत्पश्चात् शब्दाद्वैत के विरुद्ध ज्ञानवाद को रखा है । ज्ञानवाद का स्थापन करते हुए कहा गया है प्रकृति और निवृत्ति ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है । शब्द तो ज्ञान का साधन मात्र है अतः शब्द की अपेक्षा ज्ञान ही प्रधान है ।
ज्ञानवाद के विरुद्ध स्थापना निक्षेप का निर्विषयक ज्ञान होता नहींइसका युक्ति से उत्थान है । शाब्दबोध जो होगा उसका विषय क्या माना जाय ? जाति या अपोह ? यहाँ अपोह का खण्डन करके जाति की स्थापना की गई है ।
यह शब्दनय का भेद माना गया है और इसका सम्बन्ध नन्दीसूत्र के "दुवालसंगं गणिपिडगमेकं पुरिसं पडुच्च सादियं सपज्जवसीयं" के साथ स्थापित किया गया है ।
( ९ ) नियम
इस अर में प्रारम्भ में पूर्वोक्त अर में स्थापित जातिवाद का खण्डन विशेषवाद के द्वारा किया गया है। और फिर विशेषवाद के विरुद्ध में जातिवाद का उत्थान किया गया है । इस अर में सामान्य और विशेष के एकान्तवाद, अन्यत्ववाद, द्वित्ववाद, उभयात्मकवाद एवं अन्यतर प्रधान-वाद का खण्डन किया गया है और यह बताया गया है कि वस्तु के स्वरूप का कथन ही नहीं किया जा सकता है । अतः वस्तु अवक्तव्य है ।
इस अर में शब्दनय का आश्रय लेकर चर्चा की गई है । यहाँ नियम शब्द का अर्थ अवक्तव्य किया है । इस अर का सम्बन्ध आगम के "इमाणं रयणप्पभा पुढवी आता नो आता ? गोयमा अप्पणो आदि आता, परस्स आदि नो आता तदुभयस्स आदि के अवत्तव्वं । के साथ स्थापित किया है । २
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७३७.
२. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७६४.
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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
४५ (१०) नियमविधि
प्रारम्भ में अवक्तव्यता का खण्डन किया गया है । साथ ही साथ अवयव-अवयवी, धर्म-धर्मी आदि का भी खण्डन किया गया है । इस नय का लक्ष्य भावस्वरूप विशेष-पदार्थ सिद्ध करना है । कहा गया है कि द्रव्योत्पत्ति गुणरूप है, अन्य कुछ नहीं है । रथांग ही रथ है अर्थात् द्रव्य जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं, गुण ही गुण है।
प्रस्तुत अर समभिरूढ़ नय में अन्तर्भूत होता है । इस अर का सम्बन्ध आगम के कईविहे णं भन्ते ! भाव-परमाणु पन्नते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्तेवण्णवन्ते, गंधवंते, फासवत्ते, रसवत्ते । इस वाक्य के साथ किया गया है।
(११) नियमोभयम्
यह नय क्षणिक पदार्थों को ही मानता है । इस नय के अनुसार उत्पत्ति ही विनाश है। वस्तु प्रतिक्षण अन्यत्व को प्राप्त होती है। जैसे भाव निक्षेप केवल वर्तमान क्षण को ही मानता है उसी प्रकार प्रस्तुत नय का मानना है कि वस्तु केवल क्षणस्थायी है अर्थात् क्षणिकवाद ही प्रस्तुत अर का वक्तव्य है । यहाँ निर्हेतुक विनाशवाद के आश्रय से सर्वरूपादि वस्तु की क्षणिकता सिद्ध की गई है और प्रदीपशिखा के दृष्टान्त से वस्तु की क्षणिकता का समर्थन किया गया है।
। प्रस्तुत अर एवंभूतनय का भेद है । इस अर का सम्बन्ध आगम के इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासता असासता ? के साथ जोडा गया
(१२) नियमनियम
इस अर में पूर्वोक्त क्षणिकवाद का खण्डन करके शून्यवाद का
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७९२. २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ८०५.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन स्थापन किया गया है। नियम का नियम, निषेध का निषेध अर्थात् इस नियम क्षणिकवाद द्वारा स्थापित वस्तु का नियम अर्थात् खण्डन करके विज्ञानवाद की स्थापना कही गई है। इस अर में विज्ञानवाद एवं शून्यवाद दोनों का मण्डन एवं खण्डन दोनों किये गये हैं और अन्त में स्याद्वाद के आश्रय से वस्तु को अस्ति और नास्ति रूप सिद्ध करके शून्यवाद के विरुद्ध पुरुषादि वादों की स्थापना करके उसका निरास किया गया है ।
इस प्रकार खण्डन-मण्डन का यह चक्र चलता ही रहता है । एकएक वाद पूर्व-पूर्व वाद का खण्डन करता है और अपने पक्ष का स्थापन करता है किन्तु इन सभी पक्षों का सत्यत्व तभी हो सकता है जब वे एक साथ मिलें, अर्थात् सभी वादों का समूह ही सत्य है और वही स्याद्वाद है ।
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द्वितीय अध्याय
अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
सामान्यतया मानवीय ज्ञान ऐन्द्रिक अनुभूति पर निर्भर रहता है किन्तु इसके साथ ही मनुष्य की तर्कबुद्धि भी ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण साधन मानी जाती है । यद्यपि तर्कबुद्धि का आधार भी ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ ही होती हैं किन्तु तर्कबुद्धि उनसे भी आगे जाकर ज्ञानात्मक सामान्य निर्णय प्रदान करती है । अनुभूति और तर्कबुद्धि को सामान्यतया ज्ञान के प्रामाणिक साधनों के रूप में अति प्राचीन काल से ही स्वीकृति प्राप्त हुई है किन्तु इन दोनों के अतिरिक्त श्रुति, आगम या शब्द भी प्रामाणिक ज्ञान का एक प्रमुख साधन माना जाता रहा है । जब हम शब्द प्रमाण की चर्चा करते हैं तब भी हमें स्मरण रखना चाहिए कि उसका आधार भी अतीन्द्रिय अनुभूति ही है । आध्यात्मिक एवं ज्ञानात्मक दृष्टि से विकसित व्यक्तियों के जो अतीन्द्रिय अनुभव होते हैं वे ही जाति या आगमप्रमाण के रूप में मान्य किए जाते हैं । २ यद्यपि शब्द प्रमाण या
१. आत्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । मैत्रिय ! आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम् ॥
आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् ॥
२. सकलावरणमुक्तात्म केवलं यत् प्रकाशते । प्रत्यक्षं सकलार्थात्मसतत प्रतिभासनम् ॥२७॥
बृहद् आरण्यकोपनिषद् २.४.५
योगसूत्र १.४८ के भाष्य में उद्धृत
न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति, पृ० ३
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
आगम प्रमाण में ज्ञान का आधार तो ऐन्द्रिक या अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ ही होती हैं किन्तु उन कथनों का प्रामाण्य स्वीकार करने के लिए श्रद्धा का तत्त्व ही प्रमुख होता है । इस प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में तीन प्रमुख तत्त्व होते हैं । अनुभूति, तर्कबुद्धि और आस्था । भारतीय न्याय में जो तीन प्रमुख प्रमाण माने गए हैं वे इन्हीं तीन तत्त्वों पर आधारित हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण का आधार अनुभूति है । यद्यपि अनुभूति ऐन्द्रिक और अतीन्द्रिय दोनों हो सकती है । अनुमान का आधार तर्कबुद्धि और आगम या शब्द प्रमाण का आधार आस्था या श्रद्धा हो सकती है । इस प्रकार मानवीय ज्ञान के आधार के रूप में अनुभूति, तर्क और श्रद्धा के तत्त्व हैं ।
४८
1
दार्शनिकों में यद्यपि मानवीय ज्ञान के आधार के रूप में इन तत्त्वों के स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है किन्तु इन तीनों में कौन-सा तत्त्व प्रमाणभूत है ? इस प्रश्न को लेकर दार्शनिक जगत् में एक विवादात्मक स्थिति बनी रही है । अनेक अवसरों पर इन तीनों के आधार पर प्राप्त ज्ञान में परस्पर विरोध पाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप में उठता है कि इनमें से किस को प्रमाण माना जाए और किसे अप्रमाण । अनुभूति और तर्क तथा तर्क और श्रद्धा के विरोध का प्रश्न दर्शन जगत् में प्राचीन काल से बहुत चर्चित रहा है । जहाँ अनुभववादी दार्शनिकों ने अनुभूति की प्रामाणिकता को स्वीकार किया वहाँ बुद्धिवादी परम्परा में अनुभूति में भ्रान्ति की संभावना को सिद्ध करके तर्कबुद्धि को ही एकमात्र ज्ञान का आधार माना है । इसी कारण प्राचीन काल से आधुनिक युग तक दर्शन के क्षेत्र में अनुभववादी और बुद्धिवादी दार्शनिकों की स्वतन्त्र परम्पराएँ चलती रही हैं । आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में एक ओर रेने देकार्त, स्पीनोजा आदि दार्शनिकों की परम्परा रही तो दूसरी ओर लॉक, बर्कले आदि अनुभववादी दार्शनिकों की परम्परा भी रही है । यद्यपि पश्चिम में काण्ट जैसे कुछ दार्शनिक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने इन दोनों परम्पराओं के मध्य समन्वय के सूत्र खोजे हैं। यद्यपि वह समन्वय कितना सफल हुआ यह कहना आज भी कठिन है । पश्चिम के समकालीन दार्शनिकों में भी अनुभूति बनाम तर्कबुद्धि का प्रश्न अभी भी बहुचर्चित है ।
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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
४९ श्रुति और तर्कबुद्धि का विवाद शुरू से दर्शन की अपेक्षा दर्शन और धर्म का विवाद अधिक है । जहाँ धार्मिक दार्शनिकों ने तर्क के स्थान पर आगम को महत्ता दी और यह माना कि तर्क का कार्य आगम की प्रमाणता को सिद्ध करना है न कि आगम प्रमाण का ही उन्मूलन करना । जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले दार्शनिकों ने आगम की प्रमाणता पर सदैव ही प्रश्न चिह्न लगाया है। . जहाँ तक भारतीय दर्शन का प्रश्न है उसमें भी अनुभूति और तर्कबुद्धि तथा आगम (श्रुति) का विवाद प्राचीन काल से ही रहा है । जहाँ चार्वक जैसे दार्शनिकों ने अनुभूति को ही एकमात्र प्रमाण स्वीकार किया वहीं जैन और बौद्ध दर्शन ने प्राचीन साहित्य में अनुभूति के साथ-साथ तर्कबुद्धि को भी स्थान दिया । यद्यपि इन दोनों भारतीय दर्शनों में अनुभूति की अवमानना की हो ऐसी बात नहीं है । धार्मिक प्रश्नों के संदर्भ में भी बुद्ध और महावीर दोनों ने अनुभूति के साथ-साथ प्रज्ञा एवं तर्कबुद्धि तत्त्व को भी प्रमुखता दी है । जहाँ महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में 'समिक्खए धम्म' कह कर तर्कबुद्धि के महत्त्व को स्वीकार किया वहीं बुद्ध ने श्रद्धा के स्थान पर तर्क को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि बुद्ध और महावीर दोनों अनुभूति की अपेक्षा नहीं करते हैं । वे यह भी मानते हैं कि तर्क का आधार भी अनुभूति ही है । यद्यपि परवर्ती युग में जैन और बौद्ध दर्शनों में श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हुआ । विशेष रूप में जैन दार्शनिकों ने तो स्पष्ट रूप से आगम की प्रमाणता को स्वीकार किया भी ।
भारतीय परम्परा के अन्य आस्तिक कहे जानेवाले दर्शनों में मीमांसा ने जहाँ श्रुति को सर्वाधिक महत्त्व दिया वहाँ आचार्य शंकर ने श्रुति और तर्क के बीच एक समन्वय करने का प्रयत्न किया । इस प्रकार भारतीय चिन्तन में भी अनुभूति बनाम तर्क और तर्क बनाम श्रुति (श्रद्धा) के दार्शनिक विवाद प्राचीन काल से ही उपस्थित रहे हैं । यद्यपि भारतीय चिन्तन की समन्वयवादी परम्परा ने उनके बीच यथासंभव संतुलन बनाने का प्रयास किया है । यद्यपि यह सत्य है कि यह विवाद भारतीय चिन्तन की अपेक्षा पाश्चात्य दर्शनों में अधिक मुखर रहा है।
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
हमारे समालोच्य चिन्तक आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण ने भी अपने ग्रन्थ 'द्वादशारनयचक्र' में भी प्रकारान्तर से इस समस्या को प्रस्तुत किया है । अनुभूति को प्रधानता देनेवाले अनुभववाद को लोकवाद के रूप में प्रस्तुत किया है । आचार्य मल्लवादी की दृष्टि में लोकवाद वह परम्परा है जहाँ लौकिक अनुभूति की प्रधानता ही लोकवाद का प्रमुख आधार है । इसलिए इस रूप में वह तर्कवाद का विरोधी दर्शन है । इसलिए लोकवाद का एक रूप अज्ञानवाद भी माना गया है । अज्ञानवाद अनुभूति के ऊपर तर्क की महत्ता को स्वीकार नहीं करता । अज्ञानवाद तर्कबुद्धिवाद का विरोधी दर्शन है और इसी कारण से इसे अज्ञानवाद ऐसा नाम मिला है ।
५०
जैन प्राचीन आगमों में दार्शनिक परम्पराओं को चार विभागों में विभाजित किया जाता है-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद ।' सूत्रकृतांग में अज्ञानवादियों का स्पष्ट उल्लेख है । २ बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी अज्ञानवादियों की एक परम्परा को सूचित किया गया है । ३ परवर्ती जैन ग्रन्थों में अज्ञानवाद के समर्थक ऋषियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं । अंगप्रज्ञप्ति में अज्ञानवादी निम्न ऋषियों के नाम मिलते हैं- शाकल्य, वल्कल, कुशुभि, सत्यमुनि, नारायण, कठ, माद्यदिन, भोज, पैप्पलायन, बादरायन, स्तिष्ठिक, दैत्यकायन, वसु, जैमिनि आदि । किन्तु दुर्भाग्य से इस
१. चउविहा समोसरणा पण्णत्ता, तंजहा - किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणवादी, वेणवादी । भग० ३०/२७, स्था० ४ ४ | ३४५. सर्वार्थ सि० ८1१
२. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पादादुया जाई पुढा वयंति । किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अण्णाणमाहंसु चउत्थमेव ॥ अन्नाणा एवमिमानि अनेक विहितानि दिट्ठिगतानि......
३.
४.
सूत्र० १२/१ संयुत्तनिकाय, पृ० ४७४. शाकल्य-ब्रास्कल-कुथुभि, - सात्यमुनि -राणायन - कठ - मध्यन्दिन-मोद-पिप्पलाद - बादराय स्विष्ठकृद - डनि - कात्यायन - - जैमिनि - - वसु-प्रभृतयः सूरयो सन्मार्गमेनं प्रद्यन्ति ।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- स्वोपज्ञभाष्यटीकालंकृतम्, द्वितीय भागः, पृ० १२३.
५. अण्णाणदिट्ठीणं सायल्ल-वक्कल - कुहुमि सच्चमुगि-णारायण - कठ-मज्झंदिण- भोययेप्पलायन-वायरायण-सिद्धिक्क - देतिकायण - वसु-जेमणिपमुहाणं सगसट्ठी । अंगपण्णत्ति, पृ०
४६
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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
५१
परम्परा के कई ग्रन्थ अवशिष्ट नहीं रह पाए हैं । इसलिए यह परम्परा अपने मूल स्वरूप में किस रूप में थी यह जान पाना कठिन है । फिर भी जितने जैन और बौद्ध आगम में सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं उनसे इतना अनुमान तो किया ही जाता है कि अज्ञानवाद तर्कबुद्धि की अपेक्षा अनुभूति अर्थात् इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही प्रधानता देता था । आगे हम पाश्चात्य अनुभववादी परम्परा और भारतीय अज्ञानवाद (अनुभूतिवाद और लोकवाद) की चर्चा करेंगे ।
I
भारतीय चिन्तन में अनुभववाद का प्राचीन रूप अज्ञानवाद ही रहा है मल्लवादी ने इसी अज्ञानवाद को लोकवाद के रूप में प्रस्तुत किया है । १ औपनिषदिक युग से ही यह प्रश्न चिन्तकों के समाने था कि वस्तुतत्त्व का बोध आत्मानुभूति - इन्द्रियानुभूति से होता है या तर्कबुद्धि से ? औपनिषदिक ऋषि मुख्यतः वस्तुतत्त्व को या परम सत्ता को न तो इन्द्रियग्राह्य और न बुद्धिग्राह्य, फिर भी वह उसे अनुभवगम्य अवश्य मानते हैं । भारतीय चिन्तन में वस्तुतत्त्व को न तो इन्द्रिय का विषय माना गया और न बुद्धि का अपितु उसे अपरोक्षानुभूति का ही विषय माना गया है । इस प्रकार भारतीय चिन्तन में अनुभववादी परम्परा दो धाराओं में विभाजित होकर बहती रही है। एक वे लोग थे जो वस्तुतत्त्व या सत्ता को मात्र इन्द्रियानुभूति का विषय मानते थे । इस परम्परा में चार्वक या लोकायत दर्शन का नाम लिया जा सकता है । २ लोकायत दर्शन के बीज औपनिषदिक युग में भी सुस्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं । ३ यही लोकायत दर्शन मल्लवादी के नयचक्र में लोकवाद के रूप में प्रस्तुत हुआ है । आ० मल्लवादी ने उसकी विधिनय के रूप में चर्चा की है। यह विचारधारा यह मानती है कि वस्तुतत्त्व तर्क - गम्य नहीं है । क्योंकि तर्क तो मानसिक विकल्पों का ही एक रूप है और इसलिए वह वस्तु का अभव करने में असमर्थ है ।४ वस्तु तो अनुभव गम्य ही है ।“ अनुभववादी परम्परा
१. प्रमाणमीमांसा, पृ० १.
२. प्रमाणमीमांसा, पृ० १
३. भूतानि योनिः श्वेताश्व० १.२
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४. प्रत्यक्षाप्रमाणीकरणे सर्वविपर्ययायत्तिस्तर्कतः । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ४६
५.
यथालोकग्राहमेववस्तु | वही, पृ० ११
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
यह मानती है कि वस्तु जैसी होती है उसी रूप में उसका ग्रहण इन्द्रिय के द्वारा होता है । जो तत्त्व हमारी अनुभूति का विषय नहीं बन सकता उसे सत् नहीं कहा जा सकता । वह तो केवल भ्रम या असत् है । अनुभववादी जागतिक अनुभूति के विषय को ही एकमात्र सत् मानते हैं । किन्तु पाश्चात्य चिन्तन में अनुभववाद, जिसका प्रारम्भ ऐन्द्रिक अनुभूति के विषय को ही सत् के रूप में स्वीकार करने के रूप में हुआ था, किन्तु इतिश्री प्रत्ययवाद या संदेहवाद के रूप में हुई । भारत में भी यह अनुभववादी परम्परा आगे चलकर बौद्धों के विज्ञानवाद या शून्यवाद में परिणत हो गई । जब एक बार यह मान लिया जाता है कि वस्तु का स्वरूप वही है जो कि हमारे ऐन्द्रिक अनुभव का विषय है तो अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं ।
पहला प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इन्द्रिय वस्तु को उसी रूप में ग्रहण करती है जिस रूप में वह है या किसी अन्य रूप में ? मूल प्रश्न तो यह है कि हमारा यह अनुभवजन्य ज्ञान इन्द्रियाश्रित है या अनुभवाश्रित ? आ० मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशारनयचक्रं में इस अनुभववादी परम्परा या लोकवाद का प्रस्तुतीकरण निम्न रूप में किया है-वे अज्ञानवाद, लोकवाद, अनुभाववाद का प्रस्तुतीकरण करते हुए सर्वप्रथम यही बताते हैं कि जनसाधारण जिस रूप में वस्तु को जानता है वही वस्तुस्वरूप है (यथा लोकग्राह्यमेववस्तु) १ इस मूल सूत्र की पुष्टि में यह तर्क दिया जाता है कि बुद्धि के विषय सामान्य और विशेष की सिद्धि न तो स्वतः होती है और न तो परतः । २ विशेष के अभाव में सामान्य की कोई सत्ता नहीं है और न सामान्य के अभाव में विशेष की कोई सत्ता है । यदि सामान्य और विशेष दोनों ही सिद्ध न हों तो वस्तु कैसे सिद्ध होगी ? इसलिए तर्कशास्त्र में विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है । ३ सामान्य और विशेष दोनों ही बुद्धि के द्वारा ग्राह्य हैं, अर्थात् वे बुद्धि के विकल्प ही हैं । द्रव्यगुण कर्म का न तो सामान्य
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७
२. स्वपर विषयतायां सामान्यविशेषयोरनुपपत्तेः । वही, पृ० ११
३. परीक्षकाभिमानिनां तु तीर्थ्यानां स्वपरविषयतायां सामान्य- 1 य-विशेषयोरनुपपत्तेरसंस्ततो लोकाभिप्रायाद् विवेकयत्नः शास्त्रेष्विति । वही, टीका, पृ० ११
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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या और न तो विशेष है, क्योंकि सामान्य के अभाव में विशेष को और विशेष के अभाव में सामान्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में वस्तुस्वरूप का जो भी निर्धारण बुद्धि द्वारा होता है वह विकल्पात्मक ही होता है । अतः बुद्धि को वस्तुतत्त्व का ग्राहक नहीं माना जा सकता । जैसे पूर्वापर भेदवाली प्रकृति, प्रकृति से भिन्न अन्य कोई पदार्थ, नित्य पदार्थ या क्षणिक पदार्थ ही सत् है । ऐसा भिन्न-भिन्न मतावलम्बियों का मन्तव्य है जो परस्पर विरोधात्मक और खण्डनात्मक है । अत: उससे अनपेक्षित वस्तु जो लोकवाद अर्थात् जनसाधारण द्वारा ग्राह्य है वही सत् है । अर्थात् एक ही सत् को विभिन्न दार्शनिक अपने-अपने दृष्टिकोण से एक या अनेक, नित्य या अनित्य, प्रकृतिस्वरूप या प्रकृति से भिन्न, भेदात्मक या अभेदात्मक इस प्रकार विभिन्न विरोधी मन्तव्यों के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इससे सत् के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हो पाता अत: लोक-ग्राह्य वस्तुतत्त्व ही श्रेय है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनुभववादी चिन्तन की दृष्टि में वस्तु का जो अनुभूति-ग्राह्य स्वरूप है वही सत् है ।
अनुभववादी विचारक न केवल तर्क-बुद्धि के प्रामाण्य को अस्वीकार करते हैं अपितु आगम के प्रामाण्य को भी स्वीकार नहीं करते हैं । उनका कहना है कि वेद या श्रुति क्या है? क्या वह अनुभूतियों से भिन्न कोई बात कहती है ? यदि वेद अनुभूति की ही बात करते हैं तब अनुभूति से भिन्न उनका अपना कोई प्रामाण्य ही नहीं रह जाता और यदि वे अनुभूति से भिन्न कोई प्रतिपादन करते हैं तो अनुभूति के विरोधी होने के कारण उनका प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया जा सकता । पुनः वेद (श्रुति) का ज्ञान किसके द्वारा होता है ? यदि वह ज्ञान अनुभूत्याश्रित है तब अनुभूति से भिन्न उसका प्रामाण्य मानने का कोई अर्थ
१. यदि सामान्यम्, तत् आत्मा न भवति, अनेकार्थविषयत्वात् सामान्यस्य, अथात्मा ततो न
सामान्यम् एकत्वादात्मनः, सेनाहस्तिनोरिव । वही, पृ० ११-१२ २. पूर्वं यथालोकप्रसिद्धमनपेक्षितपूर्वापर प्रभेदं 'प्रकृतिः' इति वा 'अन्यत्' इति वा वर्तमानं
नित्यं न प्रलयभाक् सद् वर्तते भावो यो सो तदैव वस्त्विति प्रतिपत्तव्यम् ।। वही पृ० ३४ ३. लोके प्रसिद्ध लोकप्रसिद्धम्, यथैव लोके प्रसिद्धं तथा घटभवनम् आकारादिमात्रमेव च घट
इति लोके प्रसिद्धम् । वही. टीका पृ० ३४
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
नहीं है । यदि वह अनुभूति से भिन्न किसी अन्य के द्वारा अनुभूत या ज्ञात है तो उसका प्रामाण्य किस आधार पर सिद्ध होगा ? पुनः यह भी प्रश्न उठता है कि लोक श्रुति पर आधारित है या श्रुति लोक पर आधारित है ? लोक श्रुति पर आधारित है इस कथन की अनुभव से सत्यता सिद्ध नहीं की जा सकती । अनुभव तो यही बताता है कि सारे शास्त्र लोक आश्रित हैं । समग्र शास्त्र सामान्य, विशेष, कारण, कार्य आदि अध्यारोपों द्वारा प्रणीत हैं । दूसरे शब्दों में शास्त्रबुद्धि विकल्प से भिन्न नहीं है एवं जो भी बुद्धि विकल्प हैं वे सत् के प्रतिपादक नहीं हो सकते। आ० मल्लवादी ने बौद्धिक ज्ञान और श्रुति की जिस अध्यारोपता या विकल्पात्मकता के आधार पर खण्डन किया है वह स्वयं भी समालोचना का विषय हो सकता है । क्योंकि जो अनुभवात्मक ज्ञान है वह भी अन्तोगत्वा प्रत्ययात्मक ही सिद्ध होता है । किन्तु लोकवाद या अनुभववाद में क्या त्रुटियाँ हैं इसकी चर्चा के पूर्व यह विचार करना होगा कि लोकवाद को अस्वीकार करने पर कौन-सी दार्शनिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । आचार्य मल्लवादी के अनुसार अनुभववाद - लोकवाद को न माननेवाले के सामने भी अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं । लोकवाद को न मानने का मतलब है कि अलोकवाद का आश्रय लेना । आचार्य मल्लवादी वस्तु को अलौकिक माननेवाले के सामने अनेक दोषों का उद्भावन करते हैं ।
सर्वप्रथम तो वे यह प्रश्न उठाते हैं कि यदि आप लौकिकवाद का आश्रय नहीं लेते हैं तो अलौकिकवाद का आश्रय लेंगे आर्थात् अन्यत्र वस्तु का अन्य में अध्यारोप करेंगे। दूसरे शब्दों में घट में पाए जानेवाले घटत्व को घट में न मानकर अन्यत्र मानेंगे । ऐसा मानने पर आपको मृगतृष्णिकामृगमरीचिका को भी सत् मानना पड़ेगा । २ क्योंकि मरुभूमि में दिखाई देनेवाला जल वास्तविक जल नहीं है किन्तु अन्यत्र उपस्थित जल का वहाँ अध्यारोप
१. शास्त्रत्वादलोकत्वमिति चेतं, न, लोकाश्रयत्वात् तेषां शास्त्राणाम् ।
तानि ही शास्त्राणि सामान्यविशेषकारणकार्यमन्त्राणां सर्वत्राध्यारोपेण प्रणीतानि || द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ५३
२. अन्यत्र दृष्टस्याध्यारोपाद् घटतत्त्ववदलौकिकत्वमिति चेत् न, व्यामोहस्य मृगतृष्णिकादिवदलौकिकत्त्वात्था |
वही ० पृ० ५४
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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
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है, और इसी प्रकार अलौकिक शास्त्र-ज्ञान भी मिथ्या ही है। इस प्रकार शास्त्र होने के कारण ज्ञान में अलौकिकता का दोष दिखाकर अन्य अपरिहार्य दोषों का उद्भावन निम्नोक्त रूप में होता है ।
प्रतिज्ञादि की अनुपपत्ति
अलौकिकवाद को मानने पर शास्त्र (श्रुति) को प्रमाण माना जायेगा । शास्त्र रहित अन्य अनुभव आदि अप्रमाण होने के कारण अग्राह्य होंगे । अलौकिकवाद का आश्रय लेने पर जो भी प्रतिज्ञादि का प्रयोग करेंगे वे सब अनुपपन्न हो जायेंगे । पुनः यदि कोई अपना प्रतिपादन कौशल के आधार पर शास्त्र द्वारा यह सिद्ध करना चाहे कि वस्तु वैसी नहीं है जैसी लोक के द्वारा ग्राह्य है, तब प्रतिज्ञा यह बनेगी कि गृह्यमाण सामान्य आदि भी वैसे नहीं हैं जैसे ग्राह्य होते हैं । क्योंकि सर्वसर्वात्मकवाद में यह कहा जाय कि 'नित्यः शब्दः श्रोत्रग्राह्यत्वात्' तब भी ठीक नहीं है क्योंकि सर्वसर्वात्मक होने के कारण तब शब्द नेत्रादिग्राह्य भी होना चाहिए । यदि 'अनित्यः शब्दः' इस प्रतिज्ञा के आधार पर शब्द को अनित्य माना जाये तब भी विशेष एकान्तवाद के अनुसार अकारादि वर्ण भिन्नात्मक, क्षणिक, शून्य और निरूपाख्य होने के कारण परस्पर अपेक्षा के अभाववाला होता है । अतः सर्वभाव का अभाव होने के कारण जैसा ग्रहण होता है वैसा वह होता नहीं है । इस प्रकार 'शब्द: अनित्यः' प्रतिज्ञा की हानि होती है।
प्रत्यक्ष विरोध दोष
उपरोक्त तर्क बुद्धिवाद का आश्रय लेने पर और अनुभववाद या लोकवाद का तिरस्कार करने पर प्रत्यक्ष विरोध नामक दोष भी आयेगा । बुद्धिवादी का कहना है कि लोक के द्वारा ग्राह्य वस्तु तथा प्रकार की नहीं होती है । ऐसी प्रतिज्ञा करने पर सामान्यैकान्तवादी के मत में वस्तु केवल
१. तथा च तत्र प्रतिज्ञादीनामाप्यनुपपत्तिः, यदि यथा लोकेन गृह्यते न तथा वस्तु, प्रतिज्ञा
तावद् यथा गृह्यमाणा अविशेषादेर्न तथा स्यात् । ततश्चांशे प्रत्यक्षविरोधः, अंशेभ्युपगम विरोधः स्वोक्तविपर्ययरूपाभ्युपगमात् ।
वही, पृ० ५४-५५
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
सामान्यात्मक ही मानी जायेगी और वस्तु में विशेष का सर्वथा निषेध मानना होगा। किन्तु जब वस्तु के सामान्य का प्रत्यक्ष होता है उसी समय विशेष का भी प्रत्यक्ष होता है । अतः यह मानना होगा कि अमुक अंश में वस्तु सामान्यात्मक और अमुक अंश में विशेषात्मक है । अतः अंशात्मक प्रत्यक्ष विरोध दोष आयेगा । इसका निराकरण करना संभव नहीं है।
स्ववचन विरोध दोष
अपने मत की स्थापना के लिए जो शब्द-प्रयोग प्रयुक्त किया है उसका अन्य युक्ति के द्वारा निराकरण हो जाने से अन्य शब्द-प्रयोग करना स्ववचन विरोध है । यहाँ शब्द नित्य ऐसा स्वीकार करने पर विशेषवादी पूर्वोक्त मत का खण्डन करता है तब शब्दः अभिव्यक्त का आश्रय लेना स्ववचन विरोध माना गया है।
अभ्युपगम विरोध
नयचक्रकार केवल बुद्धिवाद को या श्रुति को ही प्रमाण माननेवाले अलौकिकवादियों के समक्ष एक और अभ्युपगम विरोध दोष का उद्भावन करते हैं । स्वशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध ऐसे सिद्धान्त को स्वीकार करने के पश्चात् युक्ति से उसका बाधित होना अभ्युपगम विरोध दोष माना गया है। यहाँ सर्वसर्वात्मक वाद के सिद्धान्त को लेकर ग्रन्थकार कहते हैं कि आपने प्रथम लोकग्राह्य वस्तु का निषेध करके सर्वसर्वात्मकवाद या सर्वथा सामान्यैकान्तवाद का स्थापन किया किन्तु वस्तु केवल सामान्यात्मक ही नहीं वल्कि वह विशेषात्मक भी है
और ऐसा सिद्ध होने पर सर्वसर्वात्मक सिद्धान्त के स्वीकार के साथ विरोध आता है । इस प्रकार उपरोक्त दोषों में एक ही हेतु कारणभूत है वह है आप द्वारा कथित वस्तु का अन्य रूप में स्वीकार या प्राप्ति । अतः केवल बुद्धिवाद, तर्कवाद तथा श्रति को प्रमाण मानने पर उपरोक्त दोषों का उद्भावन होता है जो अपरिहार्य है। इसी कारण आचार्य मल्लवादी अज्ञानवादी या लोकवादी के मत का स्थापन करते हुए कहते हैं कि लोक द्वारा वस्तु जैसी ग्राह्य होती है, वैसी ही होती है। उससे भिन्न वस्तु का स्वरूप नहीं होता है ।
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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
५७ ____ अन्त में आचार्य मल्लवादी कहते हैं कि इतना नहीं किन्तु जो लोक को प्रमाणभूत नहीं माननेवाले दार्शनिकों के मत का पद-पद और वाक्य-वाक्य पर प्रत्यक्ष और अनुमान से विरोध आता है । लोकानुभूति को प्रमाण नहीं माननेवाले शास्त्रकार की प्रवृत्ति लोक-विरुद्ध होने के कारण प्रत्यक्ष और अनुमान विरोध आयेगा ही । लोक प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मानता है । अतः लोक में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के रूप में व्यवस्थित हुए हैं तथा लोक प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान का आधार माना गया है, ऐसे लोक को ही यदि प्रमाण न माना जाए तब तो शास्त्रकार की प्रवृत्ति ही अप्रमाण हो जायेगी।
इस प्रकार लोकवाद का स्थापन किया गया है । साथ ही साथ श्रुति को ही प्रमाण माननेवालों की प्रवृत्ति मर्यादित और त्रुटिपूर्ण होने के कारण विश्वस्त नहीं मानी गई है। आचार्य मल्लवादी ने यह बताया है कि अधिक क्या कहें समस्त दर्शनों में से कोई एक दर्शन भी प्रत्यक्ष ज्ञान की निर्दोष व्याख्या नहीं कर पाता है । तब किस शास्त्र (श्रुति) के ऊपर विश्वास किया जाए।
अन्त में वेदवादियों को भी अज्ञानवाद के उपजीवक बताते हुए कहा है कि वेदवादियों ने भी माना है कि सर्वमिदमज्ञान प्रतिबद्धमेव जगत् पृथिव्यादिरे अर्थात् यह समस्त जगत् पृथ्वी आदि अज्ञान से अनुविद्य है । इस जगत् में कल्पित और अकल्पित तथा नाना प्रकार के ज्ञान की अनुपपत्ति होती है, अतः यह जगत् अज्ञान से भरा है । ज्ञान भी अज्ञान से युक्त है । अतः लोकवाद ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार विधि नामक नय में लोकवाद का स्थापन किया गया है।
१. लोकाप्रामाण्ये च सर्वत्र प्रत्यक्षानुमानविरोधावुपस्थितावेव, तत्स्थत्वात्तयोः ।
द्वादशारं नयचक्रं० पृ० ५८ २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १११-११२
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तृतीय अध्याय
कारणवाद
विश्व-सृजन का कोई कारण होना चाहिए, इस विषय की चर्चा वैदिक परम्परा में विविध रूपों में हुई है । किन्तु विश्ववैचित्र्य एवं जीवसृष्टिवैचित्र्य का कारण कौन है ? इसका विचार भारतीय साहित्य के प्राचीनतम् ग्रन्थ ऋग्वेद् (प्रायः ई. पू. १५००) में उपलब्ध नहीं होता है। इस विषय में सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद् (ईसा पूर्व कहीं) में प्राप्त होता है । प्रस्तुत उपनिषद् में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष इनमें से किसी एक को कारण मानना या इन सबके समुदाय को कारण मानना चाहिए, ऐसा प्रश्न उपस्थित किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि उस युग में चिन्तक जगत्वैचित्र्य के कारणों की खोज में लग गए थे एवं इसके आधार पर विश्ववैचित्र्य का विविध रूपेण समाधान करते थे। इन वादों में कालवाद का सबसे प्राचीन होने का प्रमाण प्राप्त होता है । अथर्ववेद (प्रायः ई. पू. ५००) में काल का महत्त्व स्थापित करनेवाला कालसूक्त है जो इस बात की पुष्टि करता है । कालवाद :
अथर्ववेद में कहा गया है कि काल से ही पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है,
१. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्वा ।
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीश: सुखदुःखहेतोः ॥ श्वेताश्वतरोपनिषत्, १/२. २. अथर्ववेद, पृ० ४०५-४०६.
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कारणवाद
काल के कारण ही सूर्य तपता है, समस्त भूतों का आधार काल ही है । काल के कारण ही आँखें देखती हैं, काल ही ईश्वर है और प्रजापति का पिता भी काल ही है । इस प्रकार अथर्ववेद का उक्त वर्णन काल को ही सृष्टि का मूल कारण मानने की ओर है; किन्तु महाभारत (प्रायः ई. पू. १५०-ईस्वी ४००) में तो उससे भी आगे समस्त जीव सृष्टि के सुख-दुःख, जीवन-मरण इन सबका आधार भी काल को ही माना गया है। कर्म से, चिन्ता से या प्रयोग करने से कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं होती, किन्तु काल से ही समस्त वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । सब कार्यों के प्रति काल ही कारण है । योग्य काल में ही कलाकृति, औषध, मन्त्र आदि फलदायक बनते हैं। काल के आधार पर ही वायु चलती है, पुष्प खिलते हैं, वृक्ष फलयुक्त बनते हैं, कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष, चन्द्र की वृद्धि और हानि आदि काल के प्रभाव से ही होती है । किसी की मृत्यु भी काल होने पर ही होती है और बाल्यावस्था, युवावस्था या वृद्धावस्था भी काल के कारण ही आती है।
गर्भ का जन्म उचित काल के अभाव में नहीं होता है। जो लोग गर्भ को स्त्री-पुरुष के संयोग आदि से जन्म मानते हैं, उनके मत में भी उचित काल के उपस्थित होने पर ही गर्भ का जन्म होता है । गर्भ के जन्म में गर्भ की परिणत अवस्था ही कारण है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि यदा-कदा
१. कालादापः समभवन्कालाद्ब्रह्म तपो दिशः । कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः ॥
अथर्व०, पृ० ४०६. कालेन वातः पवते कालेन पृथिवी मही । द्यौर्मही काल आहिता ॥ वही, पृ० ४०६. कालो ह भूतं भव्यं च पुत्रो अजनयत्पुरा । कालादृचः समभवन्यजुः कालादजायत । वही, पृ० ३. कालो यज्ञं समैरयद्देवेभ्यो भागमक्षितम् । काले गन्धर्वाप्सरसः
काले लोकाः प्रतिष्ठिताः ॥ वही, पृ० ४. २. न कर्मणा लभ्यते न चिन्तया वा नाप्यस्ति दाता पुरुषस्य कश्चित् । पर्याययोगाद् विहितं
विधात्रा कालेन सर्वे लभते मनुष्यः ।।-महाभारत, “शान्तिपर्व,” २५/५. न बुद्धिशास्त्राध्ययनेन शक्यं प्राप्तुं विशेषं मनुजैरकाले । मूर्योऽपि चाप्नोति कदाचिदर्थान् कालो
हि कार्ये प्रति निविशेषः ॥ वही, "शान्तिपर्व," २५/६. ३. नाभूतिकालेषु फलं ददन्ति शिल्पानि मन्त्राश्च तथौषधानि । तान्येव कालेन समाहितानि
सिद्ध्यन्ति वर्धन्ति च भूतिकाले ॥ वही, “शान्तिपर्व," २५/७. ४. म० 'शां०', अ. २५.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
अपरिणत गर्भ का भी जन्म देखा जाता है । शीतऋतु, ग्रीष्मऋतु एवं वर्षाऋतु आदि काल का आगमन भी उचित काल के अभाव में नहीं होता है। अतः उपाधिभूत कालों के प्रति भी काल ही कारण है । स्वर्ग या नरक भी काल के बिना नहीं होता, कहने का अभिप्राय यह है कि संसार में जो भी कार्य होता है, उसमें से कोई भी कार्य उचित काल के अभाव में नहीं होता । अतः काल ही सबका कारण है । काल से भिन्न पदार्थ भी कार्य का कारण होता है यह असत्य है क्योंकि काल से अन्य पदार्थ अन्यथा सिद्ध हो जाते हैं ।
काल उत्पन्न पदार्थों का पाक करता है अर्थात् उत्पन्न हो जाने पर वस्तु का जो संवर्धन होता है वह काल से ही होता है । वही अनुकूल नूतन पर्यायों को उपस्थित कर उनके योग से उत्पन्न वस्तु को उपचित करता है । काल उत्पन्न वस्तु का संहार करता है। अन्य कारणों को अर्थात् कारण माने जानेवाले अन्य पदार्थों के सप्त अर्थात् निद्रापन्न रहने पर काल ही कार्यों के सम्बन्ध में जाग्रत रहता है, अर्थात् कार्य के आधार पर ही उत्पादानार्थ सव्यापार होता है । इसलिए सृष्टि, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता३ । स्थाली और मूंग तथा अग्नि आदि सामग्री रहेने पर भी जब तक कारणभूत काल उपस्थित नहीं होता तब तक पाक नहीं होता है। यदि यह कहा जाए कि मूंग का परिपाक संपन्न होने से पूर्व विलक्षण अग्नि संयोग का अभाव रहता है और इसी कारण मूंग का पाक नहीं होता है, अत: मूंग के पाक के प्रति काल के विशेष को कारण मानना निरर्थक है । किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि संयोग के प्रति भी प्रश्न हो सकता है कि वह
१. न कालव्यतिरेकेण गर्भकालशुभादिकम् । यत्किञ्चिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल ।।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्त० २, १६५, पृ० ४५. २. म० 'शां० व०', अ. २८, ३२,३३. ३. कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः
॥-शा० वा० स० स्त० २, १६६, पृ० ४६. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ०२१८, काल एव हि भूतानि काल: संहारसम्भवौ । स्वपन्नपि स जागति कालो हि दुरतिक्रमः ||
-द्वा० न० पृ० २१९ ४. किञ्च कालाहते नैव मुद्गपक्तिरपीष्यते । स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि ततः कालादसौ मता ॥
___-शा० वा० स० स्त० २, १६७, पृ० ४६.
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कारणवाद
संयोग पहले ही क्यों नहीं हो जाता ? इसका उत्तर काल द्वारा ही दिया जा सकता है । अतः काल को ही असाधारण कारण अर्थात् एकमात्र कारण मानना पड़ेगा।
- काल को यदि कार्य मात्र के प्रति असाधारण कारण न माना जायेगा तो गर्भ आदि सभी कार्यों की उत्पत्ति अव्यवस्थित हो जायेगी । यदि किसी अन्य हेतुवादी की दृष्टि गर्भ का हेतु माता-पिता आदि हैं, यह माना जाए तो प्रश्न होगा कि उनका सन्निधान होने पर तत्काल ही गर्भ का जन्म क्यों नहीं हो जाता है । मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र (प्रायः ईस्वी ५५०-५७५) में कालवाद की प्रतिस्थापना करते हुए वैशेषिकसूत्र (ईस्वी आरंभकाल) का निम्न सूत्र प्रस्तुत किया गया है ।
अपरस्मिन्नपरं युगपत् चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । यह इससे पूर्व है, यह इसके पश्चात् है, ये दोनों एकसाथ हैं । इस प्रकार का ज्ञान एवं नवीन और प्राचीन का जो ज्ञान होता है उसका हेतु काल को समझना चाहिए । जैसे वायु गुणवाला होने से द्रव्य है ऐसे ही काल भी गुणवाला होने से द्रव्य है । जैसे अन्य द्रव्य से उत्पन्न न होने से नित्य है इसी प्रकार काल भी अन्य द्रव्य से उत्पन्न न होने से नित्य है । काल एक है । वर्तमान, भूतादि काल का विभाजन कार्य के होने से होता है। अतः वह भेद गौण है।
जैनदर्शन में तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (ई. सन् तीसरी-चौथी शदी) में काल के निम्न लक्षण प्रतिपादित किए गए हैं:
वर्तना परिणाम क्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ ५ परिवर्तन, परिणमन, क्रिया, परत्व, अपरत्व ये काल के लक्षण हैं । उमास्वाति द्वारा प्रस्तुत ये लक्षण वैसे तो वैशेषिकसूत्र में प्रस्तुत
१. कालाभावे च गर्भादि सर्वं स्यादव्यवस्थया । ___परेष्ट हेतु सद्भावमात्रादेव तदुद्भवात् ॥ वही, स्त. २, १६८, पृ० ४६. २. वैशेषिकदर्शन, २.२.६. ३. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ५/२२.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
लक्षण से साम्यता रखते हैं फिर भी, इसमें परिवर्तन को भी काल पर आधारित किया गया है ।
द्वादशारनयचक्र में कालवाद की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि किसी भी पदार्थ का यौगपद्य समकालीनता या अयौगपद्य का कथन काल के बिना संभव नहीं है । यथा घट और उसका रूप युगपत् उत्पन्न होता है, ऐसा कहना काल के प्रत्यय के अभाव में संभव नहीं है । उसी प्रकार पदार्थों के अयुगपद् भाव की चर्चा भी काल के बिना संभव नहीं है । इसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रति पुरुषार्थ भी काल पर आधारित है । कहा भी गया है कि वसन्त में ब्राह्मण को यज्ञ, वणिक को मद्य, समर्थ को क्रीडा और मुनियों को निष्क्रमण करना चाहिए । समग्र सृष्टि के सजीव और निर्जीव पदार्थों की अनन्त पर्यायों का परिणमन करानेवाला काल ही है और यह काल अपने सामान्य स्वरूप को छोड़े बिना ही भूत, भविष्य और वर्तमान को प्राप्त होता है । इस प्रकार काल एक होकर भी अपने तीन भेदों से भिन्न भी है । यदि ऐसा न माना जाए तब तो वस्तु में विपरिणमन ही शक्य नहीं हो पायेगा और काल ही एक ऐसा कारण है जो कार्य-कारण के रूप में विपरिणमन करने में समर्थ है । यह विपरिणमन (परिवर्तन) की सामर्थ्य काल के अभाव में पुरुषार्थ, स्वभाव, नियति में भी संभव नहीं है ३ ।
कालक्रम से ही पुरुष आत्मलाभ प्राप्त कर सकता है और जब तक काल परिपक्व नहीं होता तब तक मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती । संसार की
१. युगपदयुगपन्नियतार्थवृत्तेः काल एव भवतीति भावितं भवति । इह युगपदवस्थायिनो घटरूपादयो न केचिदपि वस्तुप्रविभक्तितो युगपद्वृत्तिप्रख्यानात्मकं कालमन्तरेण । द्वा० न० पृ० २०५.
२. अतो धर्मार्थकाममोक्षाः कालकृता उक्तभावनावत् । तथा ब्राह्मणस्य वसन्तेऽग्न्याधानम्, वणिजां मद्यस्य, ईश्वराणां क्रीडादीनाम्, निष्क्रमणं कृत्वा यावद्विमोक्षं विमोक्षणस्य कालो यतीनाम् । द्वा० न० पृ० २१०.
३. वही, पृ० २११-२१८.
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कारणवाद
अनादि अनन्तता काल के द्वारा ही सिद्ध हो सकती है । क्रिया और जीव के कर्मबंधादि क्रिया भी काल के कारण संभव है । समय मुहूर्तादि भी काल के ही कारण संभव है । अन्त में यह कहा गया है कि काल ही भूतों को पक्व करता है, काल ही प्रजा का संहरण करता है । काल ही सोए हुए को जगाता है। अतः काल दुरतिक्रम है ।
काल ही पदार्थों की उत्पत्ति करता है, उत्पन्न पदार्थों का पाक करता है अर्थात् उत्पन्न पदार्थ का संवर्धन काल से ही होता है । वही अनुकूल नूतन पर्यायों को उपस्थित कर उनके योग से उत्पन्न वस्तु को उपचित करता है । काल ही उत्पन्न वस्तुओं का संहार करता है अर्थात् वस्तु में विद्यमान पर्यायों की विरोधी नवीन पर्याय का उत्पादन काल के कारण ही होता है और इस प्रकार पूर्व पर्याय का नाश संहार भी काल के कारण होता है। अन्य कारणों के सुप्त-निर्व्यापार रहने पर काल ही कार्यों के सम्बन्ध में जाग्रत रहता है । अतः यह कह सकते हैं कि सृष्टि, स्थिति, प्रलय के हेतुभूत काल का अतिक्रमण करना कठिन है ।
खण्डन :- द्वादशारनयचक्र में कालवाद का खण्डन संक्षेप में ही किया गया है । स्वभाववाद के उपस्थापन में कालवाद का खण्डन करते हुए यह कहा गया है कि
१. वस्तु अपने स्वभाव के ही कारण उस रूप में होती है ।
२. काल को ही एकमात्र तत्त्व मानने पर तो कार्य-कारण का विभाग संभावित नहीं हो सकेगा । १. काल: पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । काल: सुप्तेषु जागति कालो हि दुरतिक्रमः ॥
द्वा० न० पृ० २१८. २. काल एव हि भूतानि कालः संहारसंभवौ । स्वपन्नपि स जागति कालो हि दुरतिक्रमः ॥
- वही, पृ० २१९. ३. ननु तैः सर्वैः ‘स्वभाव एव भवति' इति भाव्यते ।
वही, पृ० २१९. ४. कालस्यैव तत्त्वात् कारणकार्यविभागाभावात् सामान्य-विशेषव्यवहाराभाव एवेति चेत,
एवमपि स एव स्वभावः । पूर्वादिव्यवहारलब्धकालाभावश्चैवम्, अपूर्वादित्वात् नियतिवत् । युगपदयुगपद् घटरूपादीनां व्रीह्यङ्करादीनां च तथा भवनादेव तु स्वभावोऽभ्युपगतः ।
- वही, पृ० २२१-२२२.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ३. इसी प्रकार काल को ही एकमात्र तत्त्व मानने पर सामान्य एवं विशेष का व्यवहार भी संभावित नहीं हो सकता ।
४. यदि ऐसा मान लिया जाए कि काल का ऐसा स्वभाव है तब तो स्वभाववाद का ही आश्रय लेना पड़ेगारे ।
५. यदि आप काल को व्यवहार पर आश्रित करेंगे तो भी दोष आयेगा क्योंकि इससे काल की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहेगी । पुनः पूर्व, अपर आदि व्यवहार का दोष होने पर लब्ध काल का भी अभाव हो जायेगा और इस प्रकार काल को आधार मानकर जो बात सिद्ध की गई हैं वे सब निरर्थक हो जायेंगी ।
द्वादशारनयचक्र के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ-दर्शन के अनेक ग्रन्थों में भी कालवाद का खण्डन किया गया है । यदि काल का अर्थ समय माना जाए अथवा काल को प्रमाणसिद्ध द्रव्य का पर्याय मात्र माना जाए अथवा काल को द्रव्य की उपाधि माना जाए या इसे स्वतन्त्र पदार्थ के रूप में माना जाए । किसी भी स्थिति में एकमात्र उसको ही कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि कारणान्तर के अभाव में केवल काल से किसी की भी उत्पत्ति नहीं होती और यदि एकमात्र काल से भी कार्य की उत्पत्ति संभव होगी तो एक कार्य की उत्पत्ति के समय अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की आपत्ति होगी ।
यदि केवल काल ही घटादि कार्यों का जनक माना जायेगा तो घट की उत्पत्ति मात्र मृद में ही न होकर तन्तु आदि में भी संभव होगी क्योंकि इस मत में कार्य की देशवृत्तिता का नियामक अन्य कोई नहीं है और यदि देश वृत्तिता के नियमनार्थ तत्तत् काल में तत्तत् देश को भी कारण मान लिया जायेगा तो कालवाद का परित्याग हो जायेगा ।
१. वही, पृ० २२१-२२२. २. वही, पृ० २२१-२२२. ३. वही, पृ० २२१-२२२. ४. कालोऽपि समयादिर्यत् केवलः सोऽपि कारणम् । तत एव ह्यसंभूतेः कस्यचिन्नोपपद्यते ॥
शा० वा० स० स्तबक २, १८९. ५. यतश्च काले तुल्येऽपि सर्वत्रैव न तत्फलम् । अतो हेत्वन्तरापेक्षं विज्ञेयं तद् विचक्षणैः ॥
वही, स्तबक-२, १९०. पृ० ५२.
.
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इस प्रकार कालवाद की स्थापना एवं खण्डन किया गया है । निष्कर्ष यह है कि केवल कालवाद ही एकमात्र सम्यग् है यह मानने पर दोष आयेगा | अतः काल को ही एकमात्र कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है । काल एक कारण हो सकता और उसके साथ-साथ अन्य कारणों की भी संभावना का निषेध नहीं कर सकते हैं ।
कारणवाद
स्वभाववाद
पूर्वोक्त कालवाद की तरह ही स्वभाववाद का मानना है कि जगत् की विविधता का कारण स्वभाव ही है' । स्वभावतः ही वस्तु की उत्पत्ति एवं नाश होता है । पदार्थों में भिन्नता या समानता का कारण भी स्वभाव है यथाअग्नि की उष्णता और जल की शीतलता स्वभावगत् ही है । आम की गुठली से आम और बेर की गुठली से बेर ही उत्पन्न होगा क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही है । भारतीय दर्शन परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में भी स्वभाववाद का विवेचन प्राप्त होता है । उपनिषदों में स्वभाववाद का उल्लेख मिलता ही है । स्वभाववादी के अनुसार विश्व में जो कुछ होता है वह स्वभावतः ही होता है स्वभाव के अतिरिक्त कर्म, ईश्वर या अन्य कोई कारण नहीं है ।
अश्वघोषकृत् बुद्धचरित ( ईस्वी दूसरी शती) में स्वभाववाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि काँटे की तीक्ष्णता, मृग एवं पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुय, नीम में कटुता का कोई कर्त्ता नहीं है, वे स्वभावतः ही हैं । इसी प्रकार स्वभाववाद की चर्चा गुणरत्नकृत् षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति में तथा आचार्य नेमिचन्द्रकृत् गोम्मटसार' (ईस्वी १०वीं शती अन्तिमचरण) में भी मिलती है । महाभारत में भी स्वभाववाद का वर्णन प्राप्त
स्वभाव : प्रकृतिरशेषस्य । द्वा० न० पृ० २२०.
१.
२. श्वेता०, १.२.
३.
कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ बुद्धचरित. ५२
४. षड्दर्शनसमुच्चय पृ० २०.
५. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड श्लो० ८८३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
होता है । तदनुसार शुभाशुभ प्रवृत्तियों का प्रेरक स्वभाव है । सभी कुछ स्वभाव से निर्धारित है । व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता । सभी तरह के भाव और अभाव स्वभाव से प्रवर्तित एवं निवर्तित होते हैं। पुरुष के प्रयत्न से कुछ नहीं होता । गीता में कहा गया है कि लोक का प्रवर्तन स्वभाव से ही हो रहा है । इसी प्रकार माठरवृत्ति (ईस्वी चौथी शती), उदयनाचार्य-कृत् न्यायकुसुमाञ्जलि (प्रायः १२वीं शती) एवं अज्ञात कर्तृक सांख्यवृत्ति (प्राक् मध्यकालीन ?) में भी स्वभाववाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
... हरिभद्रकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय (प्रायः ईस्वी ७७०-७८०) में स्वभाववाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि प्राणी का मातृगर्भ में प्रवेश करना, बाल्यावस्था प्राप्त करना सुखद-दुःखद अनुभवों का भोग करना इनमें कोई भी घटना स्वभाव के बिना नहीं घट सकती। स्वभाव ही सब घटनाओं का कारण है । जगत् की सभी वस्तुएँ स्वतः ही अपनेअपने स्वरूप में उस-उस प्रकार से वर्तमान रहती हैं तथा अन्त में नष्ट हो जाती हैं। जैसे पकने के स्वभाव से युक्त हुए बिना मूंग भी नहीं पकती भले ही कालादि सभी कारण-सामग्री उपस्थित क्यों न हों । जिसमें पकने का स्वभाव ही नहीं है वह मूंग कभी नहीं पकता तथा विशेष स्वभाव के अभाव में भी कार्य विशेष की उत्पत्ति यदि संभव मानी जाए तो अवाञ्छनीय परिणाम का सामना करना पड़ेगा । यथा मिट्टी में यदि घड़ा बनाने का स्वभाव है किन्तु कपड़ा बनाने का स्वभाव नहीं है ऐसा मानने पर मिट्टी से कपड़ा बनने की आपत्ति भी आ पड़ेगी । यही वर्णन नेमिचन्द्रकृत प्रवचन-सारोद्धार (प्रायः १२वीं शती) एवं उसकी वृत्ति में भी प्राप्त होता है।
१. म० 'शां०', २५.१६ २. गीता, ५.१४. ३. माठरवृत्ति, का० ६१, न्यायकुसुमांजलि, १.५, सांख्यवृत्ति, का० ६१. ४. न स्वभावातिरेकेण गर्भबालशुभादिकम् । यत्किञ्चिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल । सर्वे
भावाः स्वभावेन स्वस्वभावे तथा तथा । वर्तन्ते निवर्तन्ते कामचारपराङ्मुखाः ॥ न विनेह स्वभावेन मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । तथाकालादिभावेऽपि, नाश्वभाषस्य सा यतः ।।
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कारणवाद
स्वभाववाद की समीक्षा
स्वभाववाद की समीक्षा इस प्रकार की गई है कि स्वभाव का अर्थ क्या है ? स्वभाव वस्तु विशेष है ? या अकारणता ही स्वभाव है ? या वस्तु के धर्म को ही स्वभाव माना जाता है।
१. स्वभाव को ही वस्तु विशेष माना जाए ऐसा कहने पर यह आपत्ति आती है कि वस्तु विशेषरूप स्वभाव को सिद्ध करनेवाला कोई भी साधक प्रमाण के बिना ही स्वभाव का अस्तित्व मानने पर अन्य पदार्थों का अस्तित्व भी स्वीकार करना पड़ेगा।
२. स्वभाव मूर्त है या अमूर्त । यदि मूर्त मान लिया जाए तब तो कर्म का ही दूसरा नाम होगा । और यदि अमूर्त मान लिया जाए तब तो वह किसी का कर्ता नहीं बन सकता। यथा आकाश । आकाश अमूर्त है अतः वह किसी का कारण नहीं बन सकता ।
३. अमूर्त स्वभाव को शरीरादि मूर्त पदार्थों का कारण नहीं मान सकते क्योंकि मूर्त पदार्थ का कारण मूर्त ही होना चाहिए । अमूर्त से मूर्त की उत्पत्ति संभवित नहीं हो सकती।
४. स्वभाव को अकारण रूप मान लिया जाय तब भी आपत्ति आयेगी क्योंकि, शरीरादि बाह्य पदार्थों का कोई कारण नहीं रह जायेगा और शरीरादि सब पदार्थ सर्वत्र सर्वथा एक साथ उत्पन्न होंगे। जब सभी पदार्थों को कारणाभाव समान रूप में है तब सभी पदार्थ सर्वदा सर्वत्र उत्पन्न होंगे ।
५. शरीरादि को अहेतुक मान लिया जाए तब भी युक्ति-विरोध
अतत्स्वभावात् तद्भावेऽतिप्रसंगोऽनिवारितः ।।
तुल्ये तत्र मृदः कुम्भो न पटादीत्ययुक्तिमत् ॥ शा० वा० स० स्तबक.२, १६९-१७२. १. होज्ज सभावो वत्थु निक्कारणया व वत्थुधम्मो वा।
जइ वत्थु णत्थि तओऽणुवलद्धीओ खपुष्पं व ॥ विशेषावश्यक भाष्य गा० १९१३ २. मुत्तो अमुत्तो व तओ जइ मुत्तो तोऽभिहाणओ भिन्नो। कम्म त्ति सहावो त्ति य जइ वाऽमुत्तो न कत्ता तो ॥
वही, गा० १९१६. ३. वही, गा० १९१६. ४. अह सो निक्कारणया तो खरसिंगादओ होंतु ।
वही, गा० १९१७.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
आयेगा क्योंकि, जो अहेतुक अर्थात् आकस्मिक होता है वह अभ्रमविकार की तरह सादि नियताकार वाला नहीं होता है ।
इस प्रकार जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यकभाष्य (प्राय: ईस्वी ५८५) में स्वभाववाद का निराकरण मिलता है । स्वभाववाद का खण्डन भी स्वभाव को एकमात्र कारण मानने से उत्पन्न दोषों के आधार पर किया गया है।
द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना करते हुए कहा गया है कि स्वभाव ही सबका कारण है। पुरुषादि का स्वत्व स्वभाव से ही सिद्ध है और यदि इसको स्वभाव-सिद्ध न माना जाए तब स्व को सिद्ध करने के लिए पर का आश्रय लेना पडेगा तब स्व स्व ही न रह पाएगा। यथा घट पट का अनात्म स्वरूप होने से पट नहीं होता उसी तरह पट घट का अनात्म होने के कारण पटात्मक नहीं होता है । अतः स्वभाव को ही एकमात्र कारण मानना चाहिए ।
घट और उसके रूप का युगपद उत्पन्न होना तथा धान या अंकुरादि का क्रमशः उत्पन्न होना आदि परिणमन स्वभाव से ही होते हैं । यह भी प्रत्यक्ष देखा जाता है कि समान भूमि और पानी आदि सहकारी कारण होने पर भी भिन्न-भिन्न बीज से भिन्न-भिन्न वृक्षादि उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार कण्टकादि में जो तीक्ष्णता है वह फूल में नहीं होती है । मयूर पक्षी आदि में
१. सो मुत्तोऽमुत्तो वा जइ मुत्तो तो न सव्वहा सरिसो ।
परिणामओ पयं पिव न देहहेअ जइ अमुत्तो ।। उवगरणाभावाओ न य हवइ सुहम्म । सो अमुत्तो वि । कज्जस्स मुत्तिमत्ता सुहसंवित्तादिओ चेव ॥ वही, गाथा १७८९-९०. तैः सर्वैः 'स्वभाव एव भवति' इति भाव्यते । यत् पुरुषादयो भवन्ति स तेषां भावः, तैर्भूयते यथास्वम् । तथा च स्वभावे सर्वस्वभवनात्मनि भवति सिद्धेऽर्थान्तरनिरपेक्षे के ते ? तेषामपि हि स्वत्वं स्वभावापादितमेव, अन्यथा ते त एव न स्युरनात्मत्वाद् घटपटवत् । एवमेव तत्र तत्र पुरुषादिस्वभावानतिक्रमात् सर्वैकत्वमभिन्नं तद्भाववत्त्वादेव वर्ण्य इति स्वभावः प्रकृतिरशेषस्य।
द्वा० न० पृ० २१९-२२०. ३. युगपदयुगपद् घटरूपादीनां व्रीह्यङ्करादीनां च तथा तथा भवनादेव तु स्वभावोऽभ्युपगतः ।
वही, पृ० २२२.
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कारणवाद
६९
जो विचित्रता, विभिन्नता पाई जाती है वह भी स्वभावतः ही होती है? । कण्टक को तीक्ष्ण कौन करता है ? मृग और पक्षियों को कौन रंगता है ? यह सब स्वभावतः ही होता है । मृग के बच्चे की आँखों में अंजन कौन करता है ? मयूर के बच्चे को कौन रंगता है ? और कुलवान पुरुष में विनय कौन लाता ? अर्थात् यह सब स्वभाव से ही होता है । इस प्रकार नयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना की गयी है ।
नयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना के अवसर पर विरोधियों के आक्षेपों को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि यदि स्वभाव ही कारण है तब क्यों न ऐसा मान लिया जाए की स्वभाव से ही कण्टक की उत्पत्ति होती है । उसमें भूमि आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। कण्टक कण्टक के रूप में ही क्यों उत्पन्न होता है ? अन्यथा क्यों नहीं उत्पन्न होता ? कण्टक ही क्यों तीक्ष्ण होता है ? कुसुम ही क्यों सुकुमार होता है ?
उक्त प्रश्नों के उत्तर में कहा गया है कि वस्तु का स्वभाव विशेष ही ऐसा है कि वह उसी प्रकार उत्पन्न होता है । भूमि आदि का स्वभाव है कण्टकादि को उत्पन्न करने का जैसे मनुष्य का स्वभाव है कि वह क्रमशः वृद्धि पाता है । वय क्रमशः ही बढ़ती है और दूध में से घी का भी क्रमशः ही बनना वस्तु का स्वभाव है। ऐसा न मानने पर विश्व की व्यवस्था ही नहीं टिक पायेगी । घट बनाना माटी का स्वभाव है अतः उससे घट बनता है किन्तु आकाश से घट नहीं बनता३ ।
दूसरा आक्षेप यह किया गया है कि घट आदि की उत्पत्ति क्रिया से
१.
तथा च दृश्यते तेष्वेव तुल्येषु भूम्यम्ब्वादिषु भिन्नात्मभावं प्रत्यक्षत एवं कण्टकादि । तदेव तीक्ष्णादिभूतम्, न पुष्पादि तादृग्गुणम् । तच्च वृक्षादीनामेव । तथा मयूराण्डक...... मयूरादिबर्हाण्येव विचित्राणि । वही, पृ० २२२.
कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥
केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां, को वा करोति रुचिराङ्गरुहान् मयूरान् ।
कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति को वा करोति विनयं कुलजेषु पुंसु । वही, पृ० २२२.
३. द्वा० न० पृ० २२२ - २२४.
•
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
होती हुई दिखाई देती है तब भी आप ऐसा कैसे कहते हैं कि स्वभाव से ही वस्तु की उत्पत्ति होती है
I
७०
उक्त शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि ऐसी बात नहीं है क्योंकि वस्तु की पहले अभिव्यक्ति नहीं होने से ही वस्तु की उत्पत्ति का बोध नहीं होता और आँख का भी स्वभाव है कि वह अति सूक्ष्मादि पदार्थों को देख नहीं पाती । यथा अंजन और मेरुपर्वत उसी प्रकार पहले अव्यक्त होने के कारण, घटादि की उपस्थिति का बोध नहीं होता है और घट का भी उसी प्रकार का स्वभाव है । . अर्थात् अंजन के होने पर भी अति सामीप्य के कारण तथा मेरुपर्वत विद्यमान होते हुए भी अति दूरी के कारण अव्यक्त है । उसी प्रकार घट आदि वस्तुओं की उपस्थिति होने पर भी बोध नहीं होने में वस्तु का अभाव नहीं किन्तु वस्तु का स्वभाव ही कारण है ।
संसार में जो भी कार्य होता है वह स्वभाव से ही प्रवृत्ति और निवृत्ति होता है । स्वभाव से ही फल की प्राप्ति होती है । फलप्राप्ति का स्वभाव होने से ही प्रवृत्ति होती है । अतः पुरुष का प्रयास निरर्थक है ।
द्रव्य का संयोग और विभाग होना स्वभाव है और उसी कारण आत्मा का संसार और मोक्ष भी स्वभावतः ही होता है । जैसे अशुद्ध सोने का शुद्धीकरण दो प्रकार से होता है, क्रिया और अक्रिया से ।
इस प्रकार स्वभाववाद की स्थापना की गई है । स्वभाववाद का खण्डन भाववाद के द्वारा किया गया है । स्वभाव शब्द की व्याख्या करके बताया है कि स्व का भाव ही स्वभाव है अर्थात् स्वभाव में भी भाव का महत्व है । भाव के बिना स्वभाव नहीं बनेगा । अतः भाव का होना आवश्यक है । इसीलिए स्वभाववाद की अपेक्षा भाववाद ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार स्वभाववाद का भाववाद द्वारा खण्डन किया गया है ।
नियतिवाद
नियतिवाद का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर में प्राप्त होता है ३ ।
९. वही, पृ० २२४-२२५.
२. वही, पृ० २२७. ३. श्वेता०, १.२.
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कारणवाद
नियतिवाद के विषय में त्रिपिटक' और जैनागमरे में यत्र-तत्र विशेष चर्चा
की गई है । भगवान् बुद्ध जब बौद्ध धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे तभी नियतिवादी भी अपने मत् का प्रचार कर रहे थे । इसी प्रकार भगवान् महावीर को भी गोशालक आदि नियतिवादियों के सामने संघर्ष करना पड़ा था । आत्मा एवं परलोक को स्वीकार करने के बाद भी नियतिवादी यह मानते थे कि संसार में जो विचित्रता है उसका अन्य कोई कारण नहीं है । सभी घटनाएँ नियतक्रम में घटित होती रहती हैं । ऐसा नियतिवादियों का मानना था । नियतिचक्र में जीव फँसा हुआ है और इस चक्र को बदलने का सामर्थ्य जीव में नहीं है । नियतिचक्र स्वयं गतिमान् है और वही जीवों को नियत क्रम में यत्र-तत्र ले जाता है । यह चक्र समाप्त होने पर जीवों का स्वत: मोक्ष हो जाता है ।
गोशालक के नियतिवाद का वर्णन "सामञफल सुत्त" में प्राप्त होता है। यथा प्राणियों की अपवित्रता का कोई कारण नहीं है बिना कारण ही प्राणी अपवित्र होते हैं । उसी तरह प्राणियों की शुद्धता में भी कोई कारण नहीं है । वे अकारण और अहेतुक ही शुद्ध होते हैं। स्व के सामर्थ्य से भी कुछ नहीं होता है । वस्तुतः पुरुष में बल या शक्ति ही नहीं है । सर्व सत्य, सर्व प्राणी, सर्व जीव अवश, दुर्बल और निर्वीर्य हैं । अतः जो कोई यह मानता है कि इस शील, व्रत, तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व करूँगा अथवा परिपक्व हुए कर्मों का भोग करके उनका नाश करूँगा, ऐसी मान्यता समुचित नहीं है । इस संसार में सुख-दुःख परिमित रूप में हैं अतः उसमें वृद्धि या हानि संभावित नहीं है । संसार में प्रबुद्ध और मूर्ख दोनों का मोक्ष नियत काल में ही होता है । यथा सूत के धागे का गोला क्रमशः ही खुलता है।
इसी प्रकार का वर्णन उपासकदशांग (प्रायः २-३ शती),
१. दीघनिकाय-सामज्जफलसुत्त २. व्याख्याप्रज्ञप्ति उपासकदशांग, सूत्रकृतांग. ३. बु० च०, पृ० १७१. ४. उपासकदशांग, अ०-७.
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७२
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन व्याख्याप्रज्ञप्ति' (ईस्वी १-३ शती), और सूत्रकृतांग (ई. पू. ३-१ शती) में भी प्राप्त होता है।
जगत् के सभी घटनाक्रम नियत हैं इसलिए उनका कारण नियति को मानना चाहिए । जिस वस्तु को जिस समय, जिस कारण से तथा जिस परिमाण में उत्पन्न होना होता है वह वस्तु उसी समय, उसी कारण से तथा उसी परिमाण में नियत रूप से उत्पन्न होते हैं । ऐसी दशा में नियति के सिद्धान्त का युक्तिपूर्वक खण्डन कौनसा वादी कर सकता है ।
नियतिवादियों का आधार
प्रत्येक कार्य किसी नियत कारण से नियत क्रम में तथा नियत काल में ही उत्पन्न होता है । वस्तुत: इस प्रकार रखे जाने पर नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद का ही संमिश्रित रूप बन जाता है और उत्तरकालीन बौद्ध तार्किकों को हम सचमुच कह पाते हैं कि प्रत्येक वस्तु देशनियत होती है, कालनियत होती है और स्वभावनियत होती है।
अनुकूल नियति के बिना मूंग भी नहीं पकती, भले ही स्वभाव आदि उपस्थित क्यों न हों, सचमुच मूंग का यह पकना अनियतरूप से तो नहीं होता । यदि नियति एक ही रूपवाली है तब नियति से उत्पन्न वस्तुएँ भी समान रूपवाली होनी चाहिएँ, और यदि नियति अनियत रूपवाली होने के कारण परस्पर असमान वस्तुओं को जन्म देनेवाली है तब प्रस्तुत वादी को यह मानने के लिए विवश होना पड़ेगा ।
शा० वा० स० स्त०२, ६१.
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-१५. २. सूत्रकृतांगसूत्र, २-१-१२, २-६ ३. नियतेनैव रूपेण सर्वे भावा भवन्ति यत् ।
ततो नियतिजा ह्येते तत्स्वरूपानुवेधतः ॥ यद्यदैव यतो यावत्तत्तदैव ततस्तथा ।
नियत जायते, न्यायात्क एतां बाधितुं क्षम: ? वही, ६२. ४. न चर्ते नियति लोके मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते ।
तत्स्वभावादिभावेऽपि नासावनियता यतः ॥ वही, ६३
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कारणवाद
७३
यदि ऐसा न हो तब तो वस्तु अनियत रूपवाली होने के कारण जगत् की सभी वस्तुओं का अभाव ही सिद्ध होता है। दूसरे उस दशा में जगत् की सभी वस्तुएँ एक-दूसरे के रूपवाली होने के कारण सभी प्रकार की क्रियाएँ निष्फल सिद्ध होनी चाहिएँ ।
नियत कारण के रहने पर नियत कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए जबकि कभी-कभी इसमें विरोध पाया जाता है । कभी-कभी बहुत प्रयत्न करने पर भी कार्य सफल नहीं होता है, और कभी बिना प्रयास किए ही फल प्राप्त हो जाता है । अत: कारण सादृश्य रहते हुए भी फल में वैसादृश्य अर्थात् वैरूप्य-दोष का परिहार केवल नियति को ही एकमात्र कारक मानने से हो सकता है। दूसरे शब्दों में नियति ही एकमात्र कारण है।
सभी पदार्थ नियत रूप से ही उत्पन्न होते हैं । पदार्थों के नियत रूप से ही उत्पत्ति मानने के लिए यह मानना आवश्यक है कि सभी पदार्थ किसी ऐसे तत्त्व से उत्पन्न होते हैं जिससे पदार्थों की नियतरूपता अर्थात् वैसा ही होने और अन्यथा न होने का नियमन होता है। पदार्थों के स्वरूप का निर्धारण करने में ये कारणभूत उस तत्त्व का ही नाम नियति है । अतः घटित होनेवाले घटित पदार्थों को नियत मानना आवश्यक है । जैसे यह देखा जाता है कि किसी दुर्घटना के घटित होने पर भी सबकी मृत्यु नहीं होती, अपितु कुछ लोग ही मरते हैं और कुछ लोग जीवित रह जाते हैं । इसकी उपपत्ति के लिए यह मानना आवश्यक है कि प्राणी का जीवन और मरण नियति पर निर्भर है । जिसका मरण जब नियत होता तभी उसकी मृत्यु होती है और जब तक जिसका जीवन शेष होता है तब तक मृत्यु के प्रसंग बार-बार आने पर भी वह जीवित रहता है। उसकी मृत्यु नहीं होती । - नियति के समर्थन में नयचक्र में एक श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य को जो भी शुभ-अशुभ नियति द्वारा प्राप्तव्य होता है वह उसे अवश्य प्राप्त होता है क्योंकि जगत् में यह देखा जाता है कि जो वस्तु जिस रूप में
१. अन्यथाऽनियतत्वेन सर्वभाव: प्रसज्यते ।
अन्योन्यात्मकतापत्तेः क्रियावैफल्यमेव च ॥
शा० वा० स० स्त० २, ६४.
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७४
द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
घटित होनेवाली नहीं होती है वह बहुत प्रयत्न करने पर भी उस रूप में घटित नहीं होती और जो होनेवाली होती है वह अन्यथा नहीं हो सकती है ।
नियति का स्वरूप
नयचक्र में नियति के स्वरूप का चिन्तन करते हुए कहा गया है कि नियति जगत् कारण होते हुए भी वह सत्ता से अभिन्न ही है । कोई एक पुरुष में बाल्यादि अवस्थाभेद के विकल्प उत्पन्न होते हैं किन्तु परमार्थ से तो वह पुरुष एक ही है । ऐसे ही नियति भी परमार्थतः एक ही है । तथा जैसे स्थाणु या पुरुष में यह वही स्थाणु या वह वही पुरुष ऐसी प्रतीति का कारण ऊर्ध्वता सामान्य है वैसे ही क्रिया और फल के भेद से नियति में भेद किया जाता है तथापि वह परमार्थतः तो अभेद स्वरूप ही है ।
यह नियति भिन्न द्रव्य, देश, काल और भाव के भेद से तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, आसन्न और अनासन्न भी है ।
नियति काल, स्वभाव आदि नहीं है । काल से ही ऐसी विचित्रता सम्भवित है ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि कभी-कभी वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर, बसन्त, और ग्रीष्म आदि ऋतु समयानुसार प्रवर्तित नहीं भी होती हैं४ । कभी-कभी अकाल में भी वर्षादि देखी जाती है । अत: काल इस विचित्रता का कारण नहीं हो सकता ।
I
स्वभाव भी जागतिक वैचित्र्य का कारण नहीं हो सकता क्योंकि बालक रूप में होना, युवा रूप में होना ये सभी पुरुष का स्वभाव होने पर भी
१. प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥
द्वा० न० पृ० १९४. २. परमार्थतोऽभेदासौ कारणं जगतः, भेदवबुद्धयुत्पत्तावपि परमार्थतोऽभेदात्, बालादिभेदपुरुषवत् । कथम् ? अभेदबुद्ध्याभासभावे ऽप्यभेदाभ्यनुज्ञानाद् भेदबुद्धयाभासभावेऽप्यभेदाभ्यनुज्ञानादेव व्यवच्छिन्नस्थाणुपुरुषत्ववत् । वही, पृ० १९५
३.
सा च तदतदासन्नानासन्ना, तस्या एव तदतदासन्नानासन्नानानावस्थद्रव्यदेशादिप्रतिबद्धभेदात्, मेघगर्भवत् । वही, पृ० १९६.
४.
न कालादयं विचित्रो नियमः, वर्षारात्रादिष्वपि क्वचिदयथर्तुप्रवृत्तेः । द्वा० न० पृ० १९६.
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कारणवाद
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बाल्यावस्था में युवावस्था प्राप्त नहीं होती । अतः युगपत् सभी अवस्थाओं के अभाव के आधार में अन्य किसी भी तत्त्व को कारण मानना ही पड़ेगा, वही कारक तत्त्व नियति है ।
__इस प्रकार द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद की स्थापना की गई है । नियतिवाद भारतीय दर्शन में खासकर बौद्ध दर्शन एवं जैनदर्शन के ग्रन्थों में वर्णित है । उक्त दर्शनों के ग्रथों में नियतिवाद का वर्णन पूर्वपक्ष के रूप में प्राप्त होता है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन काल में नियतिवाद एक प्रभावपूर्ण सिद्धान्त रहा होगा । क्रमशः नियतिवाद का हास होता गया । अतः पश्चात्कालीन ग्रन्थों में नियतिवाद का वर्णन या खण्डन भी कम होता गया । द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद का सिद्धान्त अनेक तार्किक दलीलों के आधार पर स्थापित किया गया है एवं तत्पश्चात् अकाट्य तर्कों के द्वारा उसका खण्डन भी किया गया है ।
पुरुषवाद
द्वादशारनयचक्र के द्वितीय अर में विभिन्न कारणवादों की स्थापना एवं आलोचना की गई है । जगत् में दृश्यमान विविधता का कारण क्या हो सकता है ? ऐसी जिज्ञासा भारतीय तत्त्वचिन्तकों के मन में प्राचीन काल में ही उद्भूत हो चुकी थी । प्रस्तुत शंका का समाधान पाने के लिए विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से प्रयास किया । परिणाम यह हुआ कि जगत् वैचित्र्य की व्याख्या के किसी सर्वमान्य सिद्धान्त के स्थान पर विभिन्न सिद्धान्त अस्तित्व में आए । इन सिद्धान्तों के विषय में खण्डन-मण्डन की परम्परा भी शुरू हुई । इन सिद्धान्तों में एक पुरुषवाद भी है । पुरुषवाद का कथन है कि विश्व की विचित्रता का एकमात्र कारण पुरुष आत्मा-ब्रह्म ही है ।
पुरुषवाद का मूल हमें ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त'' में मिलता है ।
१. न च स्वभावात्, बाल्यकौमारयौवनस्थविरावस्थाः सर्वस्वभावत्वाद् युगपत् स्युः,
भेदक्रमनियतावस्थोत्पत्त्यादिदर्शनान्न स्वभावः कारणम् । वही, पृ० १९६ २. पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। द्वा० न० पृ० १८९.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ऋग्वेद के दशम मण्डल के इस "पुरुष सूक्त' में कहा गया है कि अकेला पुरुष ही इस समस्त विश्व का जो कुछ भी हुआ है तथा जो आगे भविष्य में होनेवाला है उसका आधार है । द्वादशारनयचक्र में इसी मन्त्र को उद्धत करके पुरुषवाद की स्थापना की गई है । ऋग्वेद में प्रस्तुत सूक्त में कहा गया है कि विराट नाम का पुरुष इस ब्रह्माण्ड के अन्दर और बाहर व्याप्त है । यह जो दृश्यमान जगत् है वह सब कुछ पुरुष ही है। जो अतीत जगत् है या जो भविष्यत् जगत् होगा वह भी पुरुष ही है। वह देवताओं का भी स्वामी है । सारा ही जगत् इस विराट पुरुष का सामर्थ्य विशेष ही है।
सृष्टि एवं प्रलय भी इसी पुरुष के अधीन हैं । पुरुष सर्वात्मक है । चेतनाचेतन सृष्टि की उत्पत्ति इसी पुरुष से हुई है । इस प्रकार सर्वप्रथम "पुरुषसूक्त" में पुरुषवाद विषयक दार्शनिक चर्चा प्राप्त होती है । तदनन्तर श्वेताश्वतर उपनिषद् में पुरुष को जगत् का कारण माननेवाले सिद्धान्त का उल्लेख मात्र किया गया है । उपनिषद् में इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करनेवाली पँक्तियाँ मिलती हैं। कहा गया है कि "एक ही देवतत्त्व सर्वभूत में स्थित है अर्थात् विश्व का एकमात्र कारण पुरुष ही है। संसार में पुरुष के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । जैसे चन्द्र एक ही है तथापि उसके प्रतिबिम्ब विभिन्न जलपूरित पात्रों में पाये जाते हैं उसी तरह भिन्न-भिन्न देह में भिन्न-भिन्न एक ही आत्मा पायी जाती है।
द्वादशारनयचक्र में भी "पुरुषसूक्त" के ही मंत्र को उद्धृत करके पुरुषवाद की स्थापना की गई है । पुरुष ही जगत् का एकमात्र कारण है ।
१. ऋक्सूक्तसंग्रह, पुरुषसूक्त, संहिता-पाठ, २ पृ० १४१. २. द्वा० न० पृ० १८९. ३. सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गलम् ॥
-ऋ० सू० सं० "पुरुषसूक्त," संहिता, पाठ-१, पृ० १४०. ४. वही, पृ० १४०. ५. श्वेता०, १.२ ६. उपनिषत्संग्रह, मुण्डकोपनिषत्, पृ० १७.
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कारणवाद
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सर्वजगत् पुरुषमय ही है । पुरुष एक ही अतः सर्व सत्ता एकात्मक ही है । पुरुष ही जगत् का कर्ता है क्योंकि जो ज्ञानवान् होता है, वही स्वतन्त्र होता है और जो स्वतन्त्र होता है वही कर्ता होता है। जो अज्ञानी है उसमें स्वातन्त्र्य संभवित नहीं है और जिसमें स्वातन्त्र्य नहीं होता उसमें कर्त्ताभाव नहीं होता ।
नयचक्रवृत्ति में इस सिद्धान्त की पुष्टि में व्याख्याप्रज्ञप्ति की पंक्ति एकोऽप्यहमनेकोऽप्यहम् को उद्धृत किया गया है । उक्त सूत्र में भगवान् महावीर कहते हैं – मैं एक भी हूँ और अनेक भी हूँ । इस प्रकार पुरुष की सर्वोपरिता सिद्ध करते हुए पुरुषवाद की स्थापना की गई है।
पुरुषवाद : आक्षेप और आक्षेप-परिहार
जो ज्ञाता होता है वही कर्ता होता है। ऐसा मानने पर तो दूध से दही और इक्षुरस से गुड़ादि निष्पन्न नहीं होंगे। क्योंकि यहाँ तो ज्ञाता के बिना ही क्रिया निष्पन्न होती है। इसका समाधान करते हुए पुरुषवादी कहते हैं कि यह बात ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ कार्य-प्रवृत्ति पूर्ण नहीं हुई है अतः आपको ऐसा भ्रम होता है कि इसका कोई कर्ता नहीं है किन्तु दूध, दही, मक्खन और तत्पश्चात् उससे घी यह सारी कार्य-प्रवृत्ति पुरुष चेतनसत्ता के अधीन ही होती है। जैसे प्रारम्भ में कुम्हार चक्र को घुमाता है किन्तु उसके बाद भी चक्र कुछ समय तक गतिमान रहता है चाहे उस समय कुम्हार चक्र घुमाते हुए नहीं दिखाई देता है फिर भी हम यह अनुमान करते हैं कि इसे कुम्हार ने ही घुमाया है। उसी प्रकार यहाँ भी चाहे प्रकटतः कर्ता पुरुष न दिखाई दे, किन्तु उसके मूल में तो वही होता है ।
१. द्वा० न० पृ० १८९. २. तद्यथा-पुरुषो हि ज्ञाता ज्ञानमयत्वात् । तन्मयं चेदं सर्वं तदेकत्वात् सर्वैकत्वाच्च भवतीति भावः । को भवति ? य: कर्ता । कः कर्ता ? य: स्वतन्त्रः । कः स्वतन्त्रः ? कोज्ञः ।
- वही, पृ० १७५. ३. व्या० प्र०, १८-१०-६४७ उद्धृत वही, पृ० १८९. ४. ननु क्षीररसादि दध्यादेः कर्तृ, न च तज्ज्ञम्, न, तत्प्रवृत्तिशेषत्वाद् गोप्रवृत्तिशेष
क्षीरदधित्ववत्, ज्ञशेषत्वाद्वा चक्रभ्रान्तिवत् । द्वा० न० पृ० १७५.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन यदि आप ऐसा मानते हैं कि पुरुष ही सबका कारण है तब यह आपत्ति आती है कि पुरुष स्वयं अपनी उत्पत्ति एवं लय में कारण कैसे बन सकता है ? जैसे अंगुली का अग्रभाग अपने अग्रभाग को छू नहीं सकता एवं तलवार अपने आपको छेद नहीं सकती' । इसका समाधान आचार्य मल्लवादि ने मुण्डकोपनिषद् की कारिका के आधार पर दिया है कि जैसे मकड़ी अपनी जाल बनाती है और फिर वापस उसी को ग्रहण करती है तथा जैसे वनस्पतियाँ पृथ्वी से उत्पन्न होती हैं और पृथ्वी में ही विलीन हो जाती हैं । जिस प्रकार अग्नि से स्फुलिंग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुरुष से ही सारी सृष्टि उत्पन्न होती है । इस सिद्धान्त में कोई आपत्ति नहीं आती है।
पुरुष की काल, प्रकृति, नियति, स्वभाव आदि से एकरूपता
द्वादशारनयचक्र में शब्दों की व्युत्पत्ति के आधार पर अन्य कालादि तत्त्वों को भी पुरुष रूप ही सिद्ध किया है। जैसे पुरुष ही काल है। क्योंकि कलनात् काल: इस व्युत्पत्ति के आधार पर पाणिनि के धातु-पाठ में कल संख्याने पाठ मिलता है । तदनुसार कलनं का अर्थ ज्ञान होगा । अतः जो ज्ञानात्मक है वही कर्ता होगा और ज्ञानात्मक तो केवल पुरुष ही है । इस प्रकार काल और पुरुष में भेद नहीं है ।
प्रकरणात् प्रकृतिः अर्थात् जो विस्तार करती है वह प्रकृति है । जैसे सत्त्व, रजस्, तमसात्मक प्रकृति से सृष्टि उत्पन्न होती है उसी प्रकार पुरुष से
-
१. वही, मूल एवं टीका, पृ० १९०. २. तन्त्रवायककोशकारककीटवच्च तदात्मका एवैते संहारविसर्गबन्धमोक्षाः । यथा च
सुदीप्तात् पावकाद्विस्फुलिंगा भवन्ति... | वही, पृ० १९१. यथोर्णनाभिः सृजते गृणीते च यथा पृथिव्यामौषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानीति वा, यथा सुदीप्तात् पावकाद्विस्फुलिङ्गा भवन्ति तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम्
[मुण्डकोप०] मुण्डकोप. इति । वही, पृ० १९१. ३. स एव कलनात् कालः । द्वा० न० पृ० १९१
स एव ज्ञत्वात् कलनात् कालः, कल संख्याने [पा०धा० ४९७. १८६६], कलनं ज्ञानं संख्यानमित्यर्थः । वही, पृ० १९१.
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कारणवाद
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सृष्टि की उत्पत्ति होती है । अत: पुरुष और प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है । रूपादि का नियमन करनेवालों को नियति कहते हैं । पुरुष भी रूपादि का नियमन करता है । अतः पुरुष और नियति अभिन्न हैं ।
अपने रूप में होना स्वभाव है । पुरुष भी अपने रूप में अर्थात् स्वरूप में उत्पन्न होता है । अतः स्वभाव भी पुरुष का ही पर्यायवाची शब्द है ।
पुरुषवाद का खण्डन
I
द्वादशारनयचक्र में उक्त पुरुषवाद की मर्यादाओं को प्रदर्शित करने के लिए आचार्य मल्लवादि ने नियतिवाद का उत्थान किया है । सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाया है कि पुरुषवाद में पुरुष ज्ञाता एवं स्वतन्त्र है, ऐसा माना गया है तब पुरुष को अनर्थ और अनिष्ट का भोग क्यों करना पड़ता है ? क्योंकि जो ज्ञानी है और जो स्वतन्त्र है वह विद्वान् राजा की तरह सदा अनिष्ट और अनर्थ से मुक्त रहेगा । किन्तु व्यवहार में तो पुरुष को अनर्थ एवं अनिष्टों से व्याप्त देखा जाता है । अतः यह संभव नहीं है कि जो ज्ञाता हो, वह स्वतन्त्र भी हो ।
यदि आपत्ति की जाय कि निद्रावस्था के कारण स्वतन्त्र पुरुष की स्वतन्त्रता का भंग होता है उसी प्रकार अनिष्ट और अनर्थ के आगमन का कारण पुरुष की प्रमत्त दशा ही है। किन्तु ऐसा जानने पर भी पुरुष में स्वतन्त्रता की हानि ही जाननी पड़ेगी और ऐसी परिस्थिति में पुरुष परतन्त्र होने
१. प्रकरणात् प्रकृति: । वही, पृ० १९१
सत्त्वरजस्तमः स्वतत्त्वान्, प्रकाशप्रवृत्तिनियमार्थान् गुणानात्मस्वतत्त्व विकल्पानेव भोक्ता प्रकुरुते इति प्रकृतिः यथाहुरेके अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां
सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ श्वेतश्व०, ४.१.५५, वही, पृ० १९१.
२. रूपाणादिनियमनान्नियतिः । वही, पृ० १९१.
३. स्वेन रूपेण भवनात् स्वभावः । वही, पृ० १९१.
४. वही, पृ० २४६-२६१
५.
स यदि ज्ञः स्वतन्त्रश्च, नात्मनोऽनर्थमनिष्टमापादयेद् विद्वद्राजवत् । वही, पृ० १९३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन के कारण कर्ता नहीं बन सकेगा ।
यदि ऐसा मान लिया जाए कि पुरुष स्वतन्त्र एवं कर्ता होने पर भी अकर्ता और परतन्त्र प्रतीत होता है तब पुरुषवाद का स्वयं लोप होगा क्योंकि जगत् की विचित्रता को सिद्ध करने के लिए पुरुषवाद का आश्रय लिया और पुरुषवाद में उक्त आपत्ति का निराकरण करने के लिए नियतिवाद की परतन्त्रता का आश्रय लिया । अतः पुरुषवाद की अपेक्षा नियतिवाद ही श्रेष्ठ हुआ।
__इस प्रकार पुरुषवाद का भी खण्डन किया गया है । नियतिवाद का वर्णन आगे किया गया है पुरुषाद्वैत की स्थापना करना ही प्रस्तुत वाद का लक्ष्य है। इसकी स्थापना के लिए विभिन्न तर्कों एवं आगम प्रमाण का आश्रय लिया है । पुरुषवाद की स्थापना कर देने पर भी उसमें अनेक दोषों का उद्भावन अन्य वाद के द्वारा कराया गया है । इस प्रकार एक अपेक्षा से पुरुषवाद सत्य है तो अन्य अपेक्षा से पुरुषवाद असत्य है । ऐसी स्थापना करके आ० मल्लवादी ने अपनी विशिष्ट शैली का परिचय दिया है ।
भाववाद
सृष्टि के कारक तत्त्व की चर्चा करते हुए नयचक्र में काल-स्वभावस्थिति-नियति और पुरुष की चर्चा के पश्चात् भाववाद की चर्चा की गई है। भाववाद की यह चर्चा कारक के प्रसंग में द्वादशारनयचक्र की अपनी विशेषता है । यद्यपि ऋग्वेद में सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाया गया था कि सृष्टि सत् से या भाव से हुई अथवा असत् या अभाव से हुई ? भाववाद वस्तुतः यह विचारणार्थ है कि जो यह मानता है कि भाव या सत् से ही सृष्टि संभव है
१. न, निद्रावदवस्थावृत्तेः पुरुषताया एवास्वातन्त्र्यात्, आहितवेगवितटपातवत् । वही, पृ० १९३. २. ननु तज्ज्ञत्वाद्ययुक्ततैवैषा समर्थ्यते, युक्तत्वाभिमतत्वेऽपि चायमेव नियमः कत्रन्तरत्वा- पादनाय । भवति कर्ता...अचेतनोऽपि भवति। तन्नियमकारिणा कारणेनावश्यं भवितव्यं
तेषां तथा भावान्यथाभावाभावादिति नियतिरेवैका की । वही, पृ० १९३-१९४. ३. वही, पृ० २३१-२४३. ४. को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः । ऋग्वेद, "नासदीय
सूक्त," १०.१२९, ६.
तषा
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कारणवाद
या सृष्टि का एकमात्र कारण है। सामान्य रूप से यह प्रश्न सदैव उठता रहा है कि जिसकी कोई सत्ता नहीं है उससे उत्पत्ति कैसे संभव है ? उत्पत्ति का आधार तो कोई भावात्मक सत्ता ही होना चाहिए। अभाव से कोई भी सृष्टि संभव नहीं है। किन्तु इसके विरोध में यह भी कहा जाता है कि यदि हम भाव को ही एकमात्र कारण मानते हैं तो फिर नवीनता या सृष्टि का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । वस्तुतः भावांग वह विचार-सरणी है जो सत्कार्यवाद का समर्थक है । यद्यपि इस आधार पर भाववाद के प्रसंग में वे सभी दूषण दिखाए जाते हैं जो सत्कार्यवाद के प्रसंग में प्रस्तुत किए जाते हैं। यदि सृष्टि में अथवा उत्पत्ति में कोई नवीनता न हो तो वह सृष्टि या उत्पत्ति ही नहीं कहलायेगी । नियति, स्वभाव आदि भी भाव के अभाव में संभव नहीं होते हैं। भाव शब्द की व्याख्या ही यही है कि जिससे यह होता है "यद् अयं भवति" । और इसमें निहित अयं शब्द ही स्व का सूचक है । अतः स्वभाववाद भी भाववाद पर आश्रित है । वस्तु के सद्भाव में इन भावों का अभाव होता है । अतः स्वभाव का निर्धारण भाव से ही होता है।
भाववाद को अभिव्यक्त करते हुए आचार्य मल्लवादि कहते हैं कि भाव से ही उत्पत्ति होती है । जो अभाव स्वरूप है उससे उत्पत्ति कैसे हो सकती है? भवन ही सर्ववस्तु का मूल है । भाव पदार्थ एक ही है। उसमें जो भेद किया जाता है वह उपचरित है, काल्पनिक है। भाव से ही जगत् की उत्पत्ति होती है । अत: जगत् की उत्पत्ति आदि का कारण भाव ही मानना चाहिए ।
इस प्रकार भाववाद का स्थापन किया गया है । भाववाद का कथन है कि एकमात्र भाव ही कारण है ऐसा मानने पर मिट्टी में घट उत्पन्न होने का भाव क्यों है ? पट होने का स्वभाव क्यों नहीं है ? भाववादियों के पास इस प्रकार की आपत्ति का कोई उत्तर नहीं है ।
___ भाव शब्द का अर्थ उत्पन्न होना होता है अर्थात् वस्तु केवल उत्पन्न धर्मा ही होगी, नाश तो वस्तु का धर्म नहीं होगा । अतः नाश की प्रक्रिया जो
१. द्वा० न० पृ० २३१-२३४. २. तच्च प्रत्यवस्तमितनिरवशेषविशेषणं भवनं सर्ववस्तुगर्भः सर्वबिम्बसामान्यमभिन्नं बीजम् ।
वही, पृ० २३४.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
प्रत्यक्ष सिद्ध है, भाववाद में नहीं घटेगी।
इस प्रकार कालवाद, पुरुषवाद, नियतिवाद, स्वभाववाद एवं भाववाद के सिद्धान्त का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त होता है । अद्वैत कारण की चर्चा करते हुए उपरोक्त वादों का निरूपण किया गया है। इस वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं, कि प्राचीन काल में कालादि वाद प्रचलित रहे होंगे किन्तु बाद में वे दर्शन लुप्त हो गए इतना ही नहीं किन्तु तद्तद् वादों की चर्चा एवं खण्डन-मण्डन भी लुप्त हो गया, अतः परवर्ती दार्शनिक ग्रन्थों में एतद्विषयक चर्चा प्राप्त नहीं होती है ।
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चतुर्थ अध्याय
ईश्वर की अवधारणा
वर्तमान युग में जब धर्मदर्शन की चर्चा की जाती है तो उसके साथ अनिवार्य रूप से ईश्वर की अवधारणा जुड़ी ही रहती है। आज सामान्यतया धर्म को ईश्वरवाद का पर्यायवाची माना जाता है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि ईश्वर की अवधारणा का एक कालक्रम में विकास हुआ है। भारतीय धर्मों में अनेक ऐसे धर्म रहे हैं जो ईश्वरवाद की अवधारणा को स्वीकार करके नहीं चलते ।
ऐतिहासिक दृष्टि से वेद सबसे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ हैं । आज जब हम वैदिक धर्म की बात करते हैं तब हम मानते हैं कि उसमें ईश्वर की अवधारणा अनुस्यूत है, किन्तु यदि तटस्थ दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में ईश्वर की अवधारणा का पूर्णतः अभाव है। इसमें एक भी स्थल ऐसा नहीं है जहाँ ईश्वर शब्द का प्रयोग किया गया हो । उसमें विभिन्न देवों की चर्चा तो उपलब्ध होती है किन्तु सर्वशक्तिमान और सर्वनियंता ईश्वर की अवधारणा स्पष्ट रूप से अनुपस्थित है । यही स्थिति सामान्यतया यजुर्वेद और सामवेद की भी है । यद्यपि यह अवश्य सत्य है कि वेदों के बदुदेववाद से ही ईश्वरवाद का विकास हुआ । सबसे पहले हम अथर्ववेद जो अपेक्षाकृत नवीन वेद है उसमें ईश्वर शब्द को पाते हैं किन्तु वहाँ
१. ईश्वर सम्बन्धी विचार और विश्व संस्कृति - कुमारी कंचनलता सब्बरवाल, पृ० - ५३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन भी ईश्वर शब्द का अर्थ 'स्वामी' से अधिक नहीं है। विश्व सृष्टा, विश्व नियंता, सर्वशक्तिमान कोई ईश्वर है ऐसी अवधारणा तो अथर्ववेद में भी बहुत स्पष्ट रूप में नहीं मिलती है । यद्यपि वेदों के कुछ सूत्रों की व्याख्या ईश्वरवाद के रूप में भी की जाती है । स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि ने अपनी व्याख्या में कुछ वेद-सूत्रों को इस रूप में व्याख्यायित किया है किन्तु प्राचीन मीमांसक और सायण आदि भी इस रूप में व्याख्या नहीं करते । ईश्वर की अवधारणा का स्पष्ट प्रतिपादन और उसमें विश्व सृष्टा और विश्व नियंता के रूप में उल्लेख उपनिषद् काल के ही हैं । यह सत्य है कि मानव मस्तिष्क ने सृष्टि वैचित्र्य की खोज में ही नियति, काल, स्वभाव आदि के साथ-साथ ईश्वरवाद की अवधारणा को विकसित किया और ईश्वर को परम आत्मा के रूप में व्याख्यायित किया गया । औपनिषदिक काल से ईश्वर की अवधारणा का दो रूपों में विकास देखा जाता है; एक ओर ईश्वर को परम आत्मा या नैतिक
और आध्यात्मिक मूल्यों के सर्वोच्च रूप में व्याख्यायित किया जाता है तो दूसरी ओर उसे विश्व के सृष्टा, नियंता और संहारकर्ता के रूप में चित्रित किया गया है।
_ भारतीय धर्मों की श्रमण और ब्राह्मणधारा में ईश्वर या परमात्मा की अवधारणा का विकास तो हुआ किन्तु जहाँ श्रमणधारा में उसे नैतिक पूर्णता या आध्यात्मिक पूर्णता के रूप में परम शुद्ध, पवित्र आत्मा कहा गया वहाँ ब्राह्मणधारा में उसे विश्व का सृष्टा, नियामक और दुर्जनों का विनाशकर्ता एवं सज्जनों पर कृपा करनेवाला कहा गया है । यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ब्राह्मणधारा में जो प्राचीन मीमांसक हैं वे ईश्वर की अवधारणा को स्वीकार करके नहीं चलते हैं । लोकमान्य बाल गंगाधर का कथन हैवेदों में आधुनिक ईश्वर (सृष्टिकर्ता ईश्वर की) मान्यता का अभाव है । जिस
१. ईश्वर-मीमांसा, पृ० ५६. २. श्वेताश्व, अ० ३, पृ० १३६-१३७. ३. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्वा ।
संयोग एषां न त्वान्मभावादात्माप्यनीश: सुखदु:ख हेतोः ॥ ४. गीता रहस्य, पृ० ८९.
श्वेताश्व० १.२.
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ईश्वर की अवधारणा
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प्रकार वेदों में सृष्टिकर्त्ता (ईश्वर) की मान्यता नहीं है उसी प्रकार उनमें ईश्वर से सृष्टि की उत्पत्ति का भी कथन नहीं है । कथन की बात ही क्या अपितु उसमें ईश्वर से सृष्टि उत्पत्ति का बलपूर्वक निषेध किया गया है । आज आस्तिक दर्शनों में जिन दर्शनों को परिगणित किया जाता है उनमें न केवल मीमांसा ही किन्तु प्राचीन सांख्य दर्शन में भी ईश्वर की अवधारणा का अभाव रहा है । यद्यपि विज्ञानभिक्षु आदि परवर्ती सांख्याचार्यों ने 'ज्ञ' पुरुष के रूप में सांख्यदर्शन में ईश्वर की अवधारणा को प्रविष्ट करने का प्रयास किया है ।" योगदर्शन में यद्यपि ईश्वर का प्रत्यय है किन्तु वहाँ भी ईश्वर साधना का चरम आदर्श या ध्येय माना गया है। योगदर्शन भी उसको सृष्टिकर्ता के रूप में कोई व्याख्या नहीं करता है । भारतीय नास्तिक दर्शनों के वर्ग में चार्वाक, बौद्ध और जैन ईश्वर के सृष्टिकर्त्ता स्वरूप का खण्डन करते हैं किन्तु जैनदर्शन में पवित्रात्मा, पूर्णात्मा, कर्मफल से शुद्धात्मा या नैतिक या आध्यात्मिकता की पूर्णता को प्राप्त आत्मा के रूप में परमात्मा की अवधारणा अवश्य उपस्थित है ।
जैन दार्शनिकों ने केवली, सर्वज्ञ, वीतराग और तीर्थकर के रूप में ईश्वर (परमात्मा) को स्वीकार किया, किन्तु सृष्टिकर्त्ता या सृष्टि नियंता के रूप में ईश्वर को कभी स्वीकार नहीं किया, वे इसके स्पष्ट रूप से आलोचक रहे ।
आलोच्य ग्रन्थ द्वादशारनयचक्र में सृष्टिकर्त्ता और विश्वनियंता ईश्वर की
१. ईश्वरासिद्धेः १.९२.
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धि : ११५. १०.
२. सांख्य-प्रवचन- भाष्य, पृ० ४९-५१. ३. ईश्वरप्रणिधानाद्वा
४. क्लेश-कर्म विपाकाशयैरपराभृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः । सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥
५.
स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् ।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥
कर्त्तास्ति कश्चिद् जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः नित्यः ।
इमा कुवाक विडम्बना स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥
६.
सांख्यसूत्र ०
योगसूत्र १.२३ वही, १.२४.
तत्वार्थ सूत्र १.३०
आप्तमीमांसा, श्लोक ० ७७.
स्याद्वाद - मंजरी, पृ० ३८.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन अवधारणा को न्यायसूत्र के आधार पर प्रतिपादित अवश्य किया गया है, किन्तु नयचक्रकार केवल ईश्वरवाद की अवधारणा को समुपस्थित कर विराम नहीं लेते हैं अपितु वह सृष्टिकर्ता और विश्वनियंता ईश्वर की अवधारणा का कर्मवाद के माध्यम से खण्डन भी करते हैं ।
द्वादशारनयचक्र के तीसरे अर में सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद् के आधार पर ईश्वरवाद के पूर्वपक्ष को समुपस्थित किया गया और फिर न्यायसूत्रों के आधार पर उसकी तार्किक स्थापना की गई है । किन्तु बाद में नयचक्र के चतुर्थ अर में कर्म सिद्धान्त को समुपस्थित करके ईश्वरवाद के पूर्वपक्ष की विस्तृत समालोचना भी की गई है । निम्न पंक्तियों में हम यह प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे कि मल्लवादी क्षमाश्रमण नयचक्र में किस प्रकार ईश्वरवाद को समुपस्थित करते हैं और किस प्रकार उसका खण्डन करते हैं।
न्यायदर्शन में ईश्वर को जगत् का कर्ता माना गया है । इसी की सिद्धि के लिए नैयायिकों ने कार्य-हेतुक अनुमान का आश्रय लिया है और कहा है कि सृष्टि को उत्पन्न करनेवाला कोई कर्ता (पुरुष विशेष) होना चाहिए, पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष आदि पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ता के बनाए हुए होते हैं जैसे घट, पटादि । उसी तरह पृथ्वी आदि कार्य हैं इसलिए ये भी
१. द्वादशारनयचक्रं, पृ० ३२७-३३१. २. वही, पृ० ३३५-३४४. ३. एकोवशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ।।
श्वेताश्व० ६/१२, उद्धृत द्वादशारंनयचक्रं, पृ० ३३२. ४. वही, पृ० ३२८-३३२. ५. वही, पृ० ३३५-३४४. ६. सर्वमीश्वरप्रवर्तितं प्रवर्तने, नान्यथा । द्वा० न० पृ० ३२९
इश्वर: कारणम् , पुरुषकर्माफल्यदर्शनान् । न, पुरुषकर्माभावे फलनिष्पत्तेः । तत्कारित्वादहेतुः । न्यायसूत्र ४/१/१९-२१.
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८७
ईश्वर की अवधारणा बुद्धिमान कर्ता के बनाए हुए होने चाहिएँ । अतः जो कोई इन सब पदार्थों का कर्ता है वही इश्वर है ।
ईश्वर की सिद्धि में एक अन्य अनुमान का भी प्रयोग किया गया है जिसे आयोजन द्वयणुक जनक क्रिया हेतुक अनुमान कहा जाता है । इसी अनुमान के आधार पर द्वादशारनयचक्र में ईश्वर की सिद्धि की गई है । सृष्टि के प्रारम्भकाल में होनेवाले द्वयणुक की उत्पत्ति जिस परमाणु-कर्म से होती है वह कर्म प्रयत्नजन्य है। क्योंकि वहाँ एक कर्म है। जो भी कर्म होता है, वह सब प्रयत्नजन्य होता है । जैसे अस्मदादि के शरीर में होनेवाला कर्म । इसका आशय यह है कि सृष्टि के आरम्भ में जब द्वयणुक की उत्पत्ति होती है तब जिन परमाणुओं के संयोग से द्वणयुक की उत्पत्ति होती है उन परमाणुओं में से किसी एक परमाणु में ईश्वर के प्रयत्न से कर्म उत्पन्न होता है और उससे दूसरे परमाणु के साथ संयोग की क्रिया होती है । यदि ईश्वर का अस्तित्व न माना जायेगा तो दो परमाणुओं में संयोग उत्पन्न करनेवाला कर्म न हो सकेगा । इस प्रकार ईश्वर की सिद्धि होती है ।३
न्यायसूत्र में कहा गया है कि पुरुष जो कर्म करता है उसका फल अवश्य भोगता है ऐसा नहीं है । कभी-कभी पुरुष अच्छे कर्म करता है फिर
१. उर्वीपर्वतर्वादिकं सर्वं, बुद्धिमत्वर्कर्तृकं, कार्यत्वात्, यत्, कार्यं तत्तत्सर्वं बुद्धिमत्कर्तृकं, यथा
घटः, तथा वेदं, तस्मात् तथा, व्यतिरेके व्योमादि । यश्च बुद्धिमांस्तत्कर्ता स भगवानीश्वर एवेनि ॥
स्याद्ववादमंजरी, पृ० ३८. २. कः पुनरीश्वरस्य कारणत्वे न्यायः अयं न्यायोऽभिधीयते-प्रधानपरमाणुकर्माणि प्राक्
प्रवृत्तेर्बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि प्रवर्तन्ते, अचेतनत्वात्, वास्यादिवदिति । यथा वास्यादि बुद्धिमता लक्ष्णा अधिष्ठितमचेतनत्वात् प्रवर्तते तथा प्रधानापरमाणुकर्माणि अचेतनानि प्रवर्तन्ते । तस्मात् तान्यपि बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानीति । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३२४. तनुकरणभुवनसाधनाय प्रवृत्तानि अदृष्टाणुप्रधानादीनि विशिष्टचेतनधिष्ठितान्येव प्रवर्तन्ते, सम्भूयैकार्थकारित्वात्, तक्षधिष्ठितरथदारूगणवत् । तथा अचेतनत्वात् स्थित्वा प्रवृत्तेः तुर्यादिवत् । इतरथा अदृष्टाणुप्रधानादेः प्रवृत्तिफलप्रकर्षापकर्षों न स्याताम् । दृष्टौ च तौ । तयोरतो न विमर्दक्षम कारणमस्तीश्वरकामचारेरणात्रते ।
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३२८-३२९
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
भी उसे दुःखी होना पड़ता है और कभी-कभी पुरुष अशुभ कर्म करने पर भी शुभ या सुख को प्राप्त करता है । इस प्रकार कर्म और फल में विसंवाद होने के कारण यह अनुमान होता है कि पुरुष के कर्मों के फल-प्राप्ति की सिद्धि अन्य किसी के अधीन है । जिसके अधीन है वह ईश्वर है । ईश्वरेच्छा के बिना पुरुष के कर्म विफल रहते हैं और ईश्वरेच्छा होने पर बिना कर्म ही फलोत्पत्ति होती है । इसलिए कार्य जिस ईश्वर के अधीन हैं, उसी को कार्यमात्र का कारण मानना चाहिए और कहा है कि पुरुष कर्मों के फलों की सिद्धि जगद्रचना के बिना सम्भव नहीं और जगत् रचना ईश्वराधीन है। अत: ईश्वर को सब कार्यों का कारण मानना उपयुक्त है।
द्वादशारनयचक्र में एक और प्रमाण देते हुए कहा है कि प्रधान परमाणु आदि तत्त्व में प्रवृत्ति किसी चेतन तत्त्व के कारण ही हो सकती है क्योंकि प्रधान, परमाणु आदि तत्त्व अचेतन हैं । अचेतन तत्त्व स्वयं प्रवृत्ति नहीं करेगा यथा लकड़ी आदि । अतः अचेतन में प्रवृत्ति तभी हो सकती है जब वह अचेतन कोई चेतन-तत्त्व से अधिष्ठित हो । यह अधिष्ठाता ईश्वर ही है ।
ईश्वरवाद की उपरोक्त तार्किक स्थापना में आनेवाली सम्भावित आपत्तियों का उत्तर नयचक्र में निम्न प्रकार से दिया गया है
ऊपर बताया गया है कि कर्मफल ईश्वर के अधीन है। तब यह प्रश्न उठ सकता है कि पुरुष स्वकृत कर्म के फल की प्राप्ति ईश्वराधीन मानी जाय तब कभी-कभी बिना कर्म ही फलप्राप्ति होनी चाहिए । यदि ऐसा मान लिया जाए तब अकृत कर्म की फलप्राप्ति का दोष आयेगा एवं फलप्राप्ति में विविधता व न्यूनाधिकता होने से ईश्वर पर अन्यान्य एवं पक्षपात का दोष आरोपित होगा, किन्तु ईश्वर तो ऐसा नहीं है, अतः ईश्वर को कार्य का कारण मानना व्यर्थ है।
१. इश्वर: कारणाम्; पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् ॥
पुरुषो यं समीहमानो नावश्यं समीहाफलं प्राप्नोति, तेनानुमीयते, पराधीनपुरुषस्य कर्मफलाराधनम् इति, यदधीनं स ईश्वरः । तस्मादीश्वरः कारणमिति ।।
न्यायदर्शनम्, ईश्वरप्रकरण, टीका- १९, पृ० २८३. २. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३२८-२९.
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ईश्वर की अवधारणा
आचार्य ने ईश्वरवादी की ओर से उक्त आशंका का समाधान करते हुए कहा है कि ईश्वर द्वारा संपादित होने के कारण उक्त आशंका अयुक्तिक है । कहने का मतलब यह है कि कर्म करनेवाले पुरुष का इतना सामर्थ्य नहीं कि वह स्वकृत कर्मों की सफलता के लिए मूलभूत साधनों का सम्पादन कर सके । मूलभत साधन हैं-वर्तमान विश्व के रूप में पृथ्वी आदि भूतों की रचना पुरुष उन्हीं के आधार पर स्वकृत कर्मों के फलों को प्राप्त कर पाता है। विश्व की यह रचना ईश्वराधीन है । इस प्रकार पुरुष के कर्मों का फल ईश्वराधीन है। दूसरा अनन्त पुरुषों के अनन्त विविध कर्मों का लेखा-जोखा किसी एक पुरुष के ज्ञान में न होने से उसकी व्यवस्था का होना संभव नहीं। केवल सर्वज्ञ ईश्वर के ज्ञान में अनन्त कर्मों का लेखा-जोखा कहना सम्भव है। उसी के आधार पर पुरुषों के कर्मानुरूप फलों की व्यवस्था होती है । इस प्रकार कर्मफलों का सम्पादन ईश्वर ही करता है यह जानना होगा ।
द्वादशारनयचक्र में एक और प्रश्न उठाया गया है कि आप यह कहेंगे कि प्रधान परमाणु आदि में प्रवृत्ति किसी चेतन तत्त्व के कारण ही होती है तब तो ईश्वर में जो प्रवृत्ति होती है या ईश्वर स्वयं जो प्रवृत्ति करता है वह भी किसी और चेतन तत्त्व से अधिष्ठित माननी पड़ेगी । ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आयेगा । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि यहाँ अचेतन तत्त्व के प्रवृत्ति की चर्चा है । अचेतन तत्त्व जब भी प्रवृत्त होता है तो चेतन तत्त्व को अधिष्ठित होकर ही होता है और दूसरी बात ईश्वर तो स्वयं चेतन स्वरूप है अतः उसमें चेतनारोपित का प्रश्न ही नहीं उठता । तब दूसरा प्रश्न यह भी उठाया गया है कि आप अचेतन तत्त्व को पुरुषाधिष्ठित मानते हैं तो एक ओर आपत्ति आयेगी वह यह की सभी चेतन तत्त्व यानि कि मनुष्यादि भी ईश्वर ही बन जायेंगे ।२
१. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३२९-३३०. २. स्थित्वाप्रवृतचेतनानधिष्ठितेश्वरवदनेकान्त इति चेत् ईश्वरस्य वा चेतनाधिष्ठितता तस्यापि
चान्याधिष्ठिततेत्यनवस्था । न, चेतनाधिष्ठितप्रवृतित्व-साध्यधर्मत्वात् । देवदत्तादयस्तर्हि चेतनेश्वरानधिष्ठिताः प्रवर्तन्ते सोऽपि वेश्वरस्तद्वच्चेतनान्तराधिष्ठितः । उच्यते व त्वया चेतनानामपीश्वराधिष्ठानं पुरुषवादनिरसनाय...... । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३०.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
इस आपत्ति का निराकरण करते हुए कहा गया है कि संसारी जीव को अपने सुख-दुःख का बोध नहीं होता है तथा संसारी जीव अपने हिताहित के विषय में भी अज्ञानी हैं । उसको यह ज्ञान नहीं है कि क्या करने से उनको लाभ होगा या क्या करने से उनको हानि होगी ? इसी कारण अपने सुखदुःख का कर्ता स्वयं नहीं हो सकता । अतः यह मानना आवश्यक है कि जीव ईश्वर की प्रेरणा से ऐसे कार्य करता है जिन से स्वर्ग अथवा नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि अज्ञों की प्रवृत्ति में यह प्रेरणा ही कारण होती है । इस प्रकार केवल ईश्वर में ही कारणता की सिद्धि की गई. है ।
इस प्रकार नयचक्र में प्रथम न्यायसूत्र के आधार पर ईश्वरवाद की स्थापना की गई फिर उसके प्रति होनेवाली सम्भावित आपत्तियों का निराकरण करके उसकी तार्किक ढंग से पुष्टि की गई है। ईश्वरवाद का खण्डन
जैन, बौद्ध, मीमांसक, सांख्य और योग ईश्वर को जगत् का निमित्त कारण या उपादान कारण कुछ भी नहीं मानते । अतः उक्त दर्शन के ग्रन्थों में ईश्वरवाद का खण्डन प्राप्त होता है । द्वादशारनयचक्र के चतुर्थ अर में भी कर्मवाद के उत्थान के पूर्व कर्मवादी के द्वारा ही ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। कर्मवाद के अनुसार जीव के शुभाशुभ कर्म ही सुख या दुःख के कारण हो सकते हैं अन्य कोई व्यक्ति सुख या दु:ख का कारण नहीं बन सकता । अतः कर्मवाद का तात्पर्य यह है कि सृष्टि का नियमन करनेवाला कोई एक चेतन तत्त्व नहीं हो सकता किन्तु पुरुष स्वयं ही अपने कर्मानुसार फल प्राप्त करता है । द्वादशारनयचक्र की टीका में कहा गया है कि अपने कर्मों से मुक्त होकर ही सब मनुष्य उत्पन्न होते हैं । कर्म जिस प्रकार का १. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग या श्वभ्रमेव वा । महा० वन० ३०/ २८.
- उद्धृत्, द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३०. २. नन्वेवं त्वदुक्ता एवोपपत्तयः सर्वप्राणीश्वररत्वं साध्यन्ति, सुखाद्यात्मसंवेद्यलक्षणत्वात् कर्मणः
सुखाद्यदृष्टाणूनामपि कर्मत्वात् कर्मप्रवर्तनाभ्युपगमात् सर्वप्राणिनां कर्तृत्वात् कर्मप्रवर्तनाभ्युपगमात् सर्वप्राणिनां कर्तृत्वात् करिव भवितृत्वाभ्युपगमात् तथ्यैव भवितुश्च प्रयोजनात् सर्वेश्वरता । द्वादशारं नयचक्रं पृ० ३३५-३३६
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ईश्वर की अवधारणा
होता है उसी प्रकार का फल प्राप्त करता है किन्तु स्वेच्छानुसार फल की प्राप्ति नहीं होती । जैसे मनुष्य उचित समय में पथ्य आहार खाता है तो सुख प्राप्त करता है और इसके विपरीत अपथ्य भोजन करने पर दुःख का भागी बनता है । इसी प्रकार धर्म का आचरण करने से सुख की प्राप्ति होती है और अधर्म का आचरण दुःख का कारण होता है । अर्थात् सुख या दुःख ईश्वर प्रेरित नहीं अपितु स्वकर्मवशात् ही होता है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में भी कहा गया है कि जीव स्वयं ही विभिन्न कर्मों से प्रवृत्त होता है और उसके अनुसार कर्मफल भोगता है, उसमें ईश्वर का कर्त्तव्य सिद्ध करना निरर्थक है । अन्यथा योगादि की क्रिया और व्रतादि का कोई महत्त्व नहीं रहेगा साथ ही यह भी कहा गया है कि कर्म की सफलता उत्पन्न करने के लिए ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक है ऐसा माना जाए तब विभिन्न कर्म विभिन्न फलों को प्रदान करने में स्वयं समर्थ न हों तो ईश्वर का अस्तित्व मानने पर भी उन कर्मों से स्वर्गनरकादि विभिन्न फलों की सिद्ध नहीं होगी । क्योंकि यदि कर्मों में स्वयं तद् तद् फल प्रदान करने का सामर्थ्य न होगा तो ईश्वर का अस्तित्व दोनों प्रकार के कर्मों के लिए समान होने से यह नियम नहीं हो सकता कि ब्रह्महत्या से नरक और यमनियमादि से स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है । यदि इस दोष के परिहारार्थ उन कर्मों को तद्तद् फलों को प्रदान करने में स्वयं समर्थ माना जायेगा तो फिर ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता होगी ? क्योंकि कर्म तो स्वयं ही तद्तद् फलों को प्रदान कर देता है ।
सृष्टिकर्त्ता के रूप में ईश्वर को माननेवाले के मत का निराकरण करते हुए कहा गया है कि ईश्वर तो वीतराग है उसे किसी वस्तु की इच्छा नहीं है तो वह सृष्टि को उत्पन्न ही क्यों करेगा ? यदि वीतराग ईश्वर में सृष्टि-रचना
१. स्वकर्मयुक्त एवायं सर्वोऽप्युप्पद्यते नरः ।
स तथा क्रियते तेन न यथा स्वयमिच्छति ॥ यथाहारः काले परिणतिविशेषक्रमवशात् । सुखं पथ्योsपथ्यो सुखमिह विद्यते तलुभृताम् || तथा धर्माधर्माविति विगतशंकामपि कथां । कथं श्रोतुं नेयां विषयविषवेगक्षतधियः ॥
२. शास्त्रवार्ता - समुच्चय, स्त० ३,
द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३६.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन विश्वरचना में प्रयोजन का अभाव है तो ईश्वर को निष्प्रयोजन चेष्टा करनेवाला मानना होगा । सप्रयोजन चेष्टा से वीतरागता की हानि होगी । अतः सृष्टि-रचना के द्वारा भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ।
द्वादशारनयचक्र में कहा गया है कि ईश्वर कर्म के अनुसार प्राणी को सुख या दुःख देते हैं तब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर सत्कर्म के आधार पर फल देता है या असत् कर्म के आधार पर ? कर्म को सत् मानने पर कर्म ईश्वर से पूर्व भी अवस्थित माना जायेगा तब तो वह सत् ईश्वरात्मक ही बन जायेगा; कयोंकि एक ही परम् तत्त्व को माना गया है और यदि यह माना जाये कि कर्म असत् था और ईश्वर से उसकी उत्पत्ति हुई तब भी कर्म ईश्वर से उत्पन्न होने के कारण ईश्वरात्मक बन जायेगा अर्थात् सत् या असत् ऐसे दोनों पक्ष में ईश्वर और कर्म में अभेद ही सिद्ध होता है ।२ ।
नयचक्र में यह भी प्रश्न उठाया गया है कि ईश्वर प्राणियों को फल देता है तब वह कर्म की अपेक्षा रखे बिना ही प्राणियों को सुख-दुःख देता है; तब तो प्राणियों को नियमन करनेवाले कर्म के अभाव में इन्द्रिय उपभोग, अभ्युदय, पतन, मोक्ष आदि की सिद्ध ही नहीं हो पायेगी । यह माना जाये कि वह कर्म की अपेक्षा रखकर फल देता है तब तो उसका ऐश्वर्य ही नष्ट हो जायेगा । इस प्रकार नयचक्र में ईश्वरवाद की अनेक सीमाओं का कथन किया गया है। यहाँ यह बात स्मरणीय है कि नैयायिकों ही ने अनेक तर्कों से ईश्वर को कारण तो सिद्ध किया है किन्तु उपादान कारण न मानकर निमित्त कारणा माना है । यही बात वैशेषिकों ने भी की है। इसके विपरीत ब्रह्मसूत्र में शंकर आदि आचार्यों ने नैयायिक और वैशेषिक सम्मत निमित्तकारणवाद का प्रबल विरोध करके ईश्वर को जगत् का अधिष्ठाता और उपादान सिद्ध किया है ।
१. वही, स्त० ३. २. ईश्वरात्तु कर्मणः प्रवर्तनं किं सतः असतः । तद्यद्यभूतस्य ततो द्वैतं तस्यापि तदात्मकत्वात् । ' भूतस्य चेत् प्रागपि तदस्ति, तच्च ईश्वरात्मैव तथाभूतेस्तथाप्रवृत्तेस्तदापत्तेः, तथाऽपि
सुतरामद्वैतम् तदात्मकत्वादेव । अथ यस्मै प्रवर्त्यते यथा तस्मात् तहि तत् तथाभूतं - तद्वशात् तथेश्वरप्रवृतेः, ततस्तस्य प्रवर्तने स एवेश्वरः । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३६-३३९. ३. द्वादशारं नयचक्रम, पृ० ३४०-३४५. ४. न्यायावतारवातिर्कवृत्ति, टिप्पणानि, पृ० १९१.
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पञ्चम अध्याय
सत् के स्वरूप की समस्या
प्राचीन काल से ही मानव के मन में सृष्टि के परम तत्त्व के विषय में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न रही है । इस जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करने के लिए प्रयास भी किए गए । परम तत्त्व के स्वरूप पर विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया और उसी से विभिन्न दार्शनिक मतों का उद्भव हुआ । प्रो० सागरमल जी जैन का कहना है कि जब मानवीय जिज्ञासावृत्ति ने इन्द्रिय ज्ञान में प्रतीत होनेवाले इस जगत् के अन्तिम रहस्य को समझने के लिए बौद्धिक गहराइयों में उतरना प्रारम्भ किया तो परिणाम स्वरूप सत् सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोणों का उद्भव हुआ ।२ सत् का स्वरूप जो भी हो, किन्तु जब उसे इन्द्रियानुभव, बुद्धि और अन्तर्दृष्टि आदि विविध साधनों के द्वारा जान एवं विवेचित करने का प्रयत्न किया जाता है तो वह इन साधनों की विविधताओं तथा वैचारिक दृष्टिकोणों की विभिन्नता से विविध रूप हो जाता है । सत् के स्वरूप का चिन्तन ऋग्वेद से भी पूर्व प्रारम्भ हो चुका था। ऋग्वेद काल में भी सत् के स्वरूप के विषय में अनेक मत प्रचलित थे । इसीलिए कहा गया है कि 'एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति ।' अर्थात् एक ही
१. "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ॥" ऋग्० अष्ट० २, अ०३; व० २३. म० ४६१ नासदीय
सूक्त ऋग्० १०. १२९. हिरण्यगर्भसूक्त ऋग्० १०.१२१. २. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१, पृ० १८२
१८३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
सत् को विद्वान् अनेक प्रकार से कहते हैं । द्वादशारनयचक्र में भी सत् के स्वरूप के विषय में चर्चा की गई है। आचार्य मल्लवादि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह प्रश्न उठाया है कि "किमेव प्रतिपाद्यमस्ति ?" प्रतिपाद्य क्या है ?
और साथ में यह भी प्रश्न उठाया है कि इस सृष्टि का व्याप्त अर्थात् मूल तत्त्व क्या है ? यहाँ व्याप्त शब्द से आचार्यश्री को परम तत्त्व, मूल तत्त्व या वस्तुतत्त्व ही अभिप्रेत है क्योंकि इसके बाद वस्तुतत्त्व की चर्चा का ही प्रारम्भ किया गया है । द्वादशार-नयचक्र में तत्कालीन प्रायः सभी वादों का संग्रह है। अतः उसमें सत् सम्बन्धी सिद्धान्तों की चर्चा प्राप्त होती है।
इस परम तत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में विचारणाओं की विविधता का कारण बताते हुए प्रो० सागरमलजी ने कहा है कि'-जिन्होंने मात्र इन्द्रिय अनुभवों की प्रामाणिकता को स्वीकार कर उसे समझने का प्रयत्न किया उन्हें वह अनेक और परिवर्तनशील प्रतीत हुआ और जिन्होंने इन्द्रिय अनुभवों की प्रामाणिकता में सन्देह कर केवल तर्क-बुद्धि के माध्यम से उसे समझने का प्रयास किया उन्होंने उसे अद्वय, अव्यय, और अविकार्य पाया । अतः सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में मत्वैविद्य के निम्न कारण हैं१. इन्द्रियानुभव, बौद्धिक ज्ञान, अन्तर्दृष्टि आदि ज्ञान के साधनों की
विविधता। २. व्यक्तियों के दृष्टिकोणों, ज्ञानात्मक स्तरों तथा वैचारिक परिवेशों की
विभिन्नताएँ । ३. भाषा की अपूर्णता तथा तज्जनित अभिव्यक्ति समबन्धी कठिनाईयाँ । ४. सत् एक पूर्णता है और ज्ञाता मानस उसका अंश है । अंश अंशी को पूर्णरूपेण नहीं जान सकता । इस प्रकार ज्ञान की आंशिकता ।
इस प्रकार सत् सम्बन्धी दृष्टिकोणों की विविधता के उपर्युक्त चार कारण हैं। १. ऋग्० अष्ट०२. अ० ३, व० २३. म० ४६. २. किमेव प्रतिपाद्यमस्ति ? द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ६. ३. तत्र विधिवृत्तिस्तावद यथालोकग्राहमेव वस्तु.... I - द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ११. ४. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा० १, पृ० १८३.
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सत् के स्वरूप की समस्या भारतीय चिन्तन में सत् सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण
भारतीय दर्शन में सत् के स्वरूप के विषय में विभिन्न सिद्धान्तों का उद्भव हुआ है । पं० सुखलाल संघवी इन विविध सिद्धान्तों को संक्षेप में पाँच प्रकार में समाविष्ट किए हैं-१
१. केवल नित्यवाद, २. केवल अनित्यवाद, ३. परिणामी नित्यवाद, ४. नित्यानित्य उभयवाद, ५. नित्यानित्यात्मक वाद ।
डॉ० पद्मराजे ने सत् सम्बन्धी भारतीय दृष्टिकोण को इन्हीं पाँच वर्गों में विभाजित किया है ।२ १. प्रथम वर्ग में सत् का अद्वय सिद्धान्त (नित्यवाद) आता है । जो यह
मानता है कि सत् अद्वय, अव्यय, अविकार्य एवं कूटस्थ है। परिवर्तन या अनेकता मात्र विवर्त्त है । सत् सम्बन्धी इस विचार प्रणाली का प्रतिनिधित्व ब्रह्मवादी वेदान्ती करते हैं । डॉ० चन्द्रधर शर्मा के मतानुसार विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध विचारधाराएँ भी इस वर्ग में आ सकती हैं क्योंकि ये दोनों दर्शन यह मानते हैं कि यह विश्व विज्ञान या शून्य का
ही विवर्त्त मात्र है। सत् केवल विज्ञान या शून्य ही है । २. दूसरे वर्ग में सत् का परिवर्तनशीलता (अनित्यवाद) का सिद्धान्त आता
है। इसके अनुसार सत् का लक्षण अनित्यता, क्षणिकता एवं परिवर्तनशीलता है । इस विचारधारा का अनुसरण प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन करता है। डॉ० सागरमलजी के मतानुसार प्राचीन जैन और बौद्ध आगमों में वर्णित ।
उच्छेदवाद को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है। ३. तीसरे वर्ग में सत् का वह सिद्धान्त आता है जिसके अनुसार सत् में भेद
१. प्रमाणमीमांसा, भाषा टिप्पणानि, पृ० ५३. २. जैन थ्योरीज ऑफ रीयलिटी एण्ड नॉलेज, पृ० २५-२६.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
और अभेद दोनों मानते हुए भी अभेद को प्रधानता दी गई है और भेद को गौण माना गया है । यह परिणामी नित्यवाद का सिद्धान्त है । भेदअभेद के अधीन है । इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व सांख्यदर्शन, निम्बार्क, भास्कराचार्य, विशिष्टाद्वैतवाद करता है। ४. चौथे वर्ग का सिद्धान्त भी सत् में भेद और अभेद दोनों को स्वीकार
करता है अर्थात् यह नित्यानित्य उभयवादी सिद्धान्त है । तीसरे वर्ग से इसका अन्तर इस आधार पर है कि यह अभेद को गौण और भेद को प्रमुख बनाता है । न्याय-वैशेषिक दर्शन कुछ पदार्थों को मात्र नित्य और कुछ को मात्र अनित्य मानने के कारण नित्यानित्य उभयवादी हैं । प्रो० सागरमलजी के अनुसार मध्व भी इसी मत का प्रतिनिधित्व करते हैं । पाँचवें वर्ग के सिद्धान्त में सत् को भेद और अभेदमय मानते हुए किसी एक को प्रमुख नहीं माना गया, वरन् दोनों को परस्परापेक्षी माना गया है । पं० सुखलालजी ने इसी सिद्धान्त को नित्यानित्यात्मक माना है । भेद और अभेद दोनों सापेक्ष हैं और एक-दूसरे पर निर्भर होकर ही अपना अस्तित्व रखते हैं । जैनदर्शन इसी वर्ग में आता है।
उपरोक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त सत् सम्बन्धी भारतीय सिद्धान्तों का एक और वर्गीकरण प्रो० सागरमलजी ने किया है । उनके कथनानुसार सत् के विभिन्न दृष्टिकोण के मूल में तीन प्रश्न रहे हैं । अतः इन तीन प्रश्नों के आधार पर मुख्य तीन विभाग करके उनमें अन्यान्य दर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त को सामाविष्ट किया गया है । जो इस प्रकार है१. सत् के एकत्व और अनेकत्व का प्रश्न
(क) एकत्त्ववाद (ख) द्विक्त्ववाद
(ग) बहुत्त्ववाद १. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१, पृ० १८५. २. प्रमाणमीमांसा, भाषा टिप्पणानि, पृ० ५३-५४. ३. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा० १, पृ० १८३.
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सत् के स्वरूप की समस्या २. सत् के परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील होने का प्रश्न
(क) सत् निर्विकार एवं अव्यव है ।
(ख) सत् परिवर्तनशल या अनित्य है। ३. सत् के भौतिक या आध्यात्मिक स्वरूप का प्रश्न
(क) भौतिकवाद
(ख) अध्यात्मवाद
डॉ० सागरमलजी ने सभी भारतीय दर्शनों की सत् सम्बन्धी अवधारणा ___ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि
१. चार्वाक दर्शन सत् को भौतिक, परिणामी एवं अनेक मानता है । २. प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन के अनुसार सत् परिवर्तनशील, अनित्य,
अनेक तो है, किन्तु वह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों है । ३. बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद सम्प्रदाय के अनुसार सत् आध्या
त्मिक, अद्वय एवं परिवर्तनशील है। ४. बौद्ध दर्शन के माध्यमिक (शून्यवाद) सम्प्रदाय के अनुसार
परमार्थ न परिणामी है और न अपरिणामी वह एक भी नहीं हैं और अनेक भी नहीं है । उसे नि:स्वभाव कहा गया है । जैन दर्शन में सत् को पर्यायदृष्टि से परिवर्तनशील, द्रव्यदृष्टि से ध्रौव्य लक्षण युक्त, भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार का तथा अनेक माना गया है। सांख्य दर्शन सत् को भौतिक-प्रकृति एवं आध्यात्मिक (पुरुष) दोनों प्रकार का मानते हैं । साथ ही वह प्रकृति के सम्बन्ध में परिणामवाद को और पुरुष के सम्बन्ध में अपरिणामवाद को स्वीकार करता है।
१. वही, पृ० १८४.
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OM
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन न्याय-वैशेषिक दर्शन में सत् की अनेकता पर बल दिया गया है, यद्यपि यह अनेकता में अनुस्यूत एकता को स्वीकार करता है । उसमें सत् आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार का है । शंकर वेदान्त के अनुसार सत् या परमार्थ-ब्रह्म-आध्यात्मिक, अद्वय, अविकार्य है, तथा जीव और जगत् की सत्ताएँ मात्र विवर्त्त हैं। विशिष्टाद्वैतवाद (रामानुज) के अनुसार सत् एक ऐसी सत्ता है जिसमें भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों सत्ताएँ समाविष्ट हैं । वे
परमसत्ता के परिणामीपन को स्वीकार करते हैं । उपरोक्त चर्चा से यह फलित होता है कि भारतीय दर्शन में सत् के स्वरूप के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण प्रचलित हैं। इन्हीं विभिन्न दृष्टिकोणों का मूल आधार नित्यवाद, अनित्यवाद और नित्यानित्यवाद है । इन्हीं विचारधाराओं से भारतीय दर्शन का क्रमिक विकास हुआ है एवं पँचवीं शती तक कई दार्शनिक विचारधाराएँ अपने विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रही थीं। इन विचारधाराओं का संकलन करके उनके दृष्टिकोणों का विवेचन नयचक्र में किया गया है । नयचक्र में विभिन्न दृष्टिकोणों का १२ विभागों में वर्गीकरण किया गया है । इनमें नियति आदि ऐसी दार्शनिक विचारधाराएँ हैं जो आज विलुप्त हो गई हैं । सत् नित्य है या अनित्य ?, एक है या अनेक है ? कारणरूप है या कार्यरूप है ? व्याप्ति है या अव्याप्ति ? ऐसे प्रश्न ही इस द्वादश विभाग के मूल कारण हैं । इन बारह विभागों को विधि और नियम एवं उभय भेद से प्रदर्शित किया गया है । विधि सत् के भावात्मक या नित्य स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है और नियम सत् के निषेधात्मक या अनित्य पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है और उभय भावाभावात्मक या नित्यानित्यात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है । इस त्रिविध भेद से बारह भेद किये गये हैं ।
१. तद्यथा-विधि-विधि(विधि-विध्युभय-विधि नियम-उभय-उभयविधि-उभयो भय
उभयनियम-नियम-नियम-विधि-नियमोभय-नियमनियमाः) एक प्रबन्धेनान्योन्योपेक्षवृत्तयः सत्यार्थाः एतद्भङ्ग नियतस्याद्वादलक्षणः शब्दः स्यान्नित्यः स्यान्नित्यानित्यः स्याद नित्यः,
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सत् के स्वरूप की समस्या
९९ विधि-इस पक्ष के अनुसार सत् लौकिक है । यह भेद लौकिक मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके अनुसार लोगों के द्वारा ग्राह्य वस्तु ही सत् है । शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सत् प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, इतना ही नहीं प्रत्येक दर्शन में अपने-अपने मतों का प्रतिपादन और अन्य दर्शन के सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है । अतः सत् न नित्य है न अनित्य है न तो नित्यानित्य है । सत् केवल लोकग्राह्य वस्तु स्वरूप ही है। इस विभाग में चार्वाक दर्शन का समावेश किया जा सकता है ।। विधिविधि-इस अर में व्यवहार की सिद्धि के लिए किसी एक विधि याने एक भावात्मक सत् को माना गया है । इस अर में पुरुष, काल", स्वभाव, नियति आदि एक तत्त्व को ही सत् माना है और विश्व इस सत् का विवर्त्त है। विधि-उभय-इस अर में सत् के द्वैतवाद का स्थापन किया गया है | विध्यात्मक सत् के द्वैतवाद का स्थापन किया गया है ।
विध्यात्मक सत् नित्य और अनित्यात्मक है, वह न तो केवल विध्यादि द्वादश विकल्प नियताकृतक-कृतकाकृतक कृतकत्वानेकान्तविकल्पात्मकत्वात्,
घटवत् । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ८७७. १. यथालोक ग्रायमेय वस्तु । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ११. २. इत्थं कल्पिताकल्पित-तथाभूतप्रत्ययानुपपत्तेरज्ञाननुविद्धमेव सर्वज्ञानम् ।
परिच्छेदार्थश्च प्रमाणव्यापारः । वही०, पृ० ११३. ३. वही० पृ० ११. ४. तद्यथा-पुरुषो हि ज्ञाता ज्ञानमयत्वात् । तन्मयं चेदं सर्वं तदेकत्वात् सर्वैकत्वाच्च भवतीति
भावः । वही, पृ० १७५, पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो
यन्नेनातिरोहति ॥ वही, पृ० १८९. ५. काल एव हि भूतानि कालः संहारसम्भवौ । स्वपन्नपि स जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥
वही, पृ० २१९. ६. तैः सर्वैः स्वभाव एव भवति इति भाव्यते । वही० पृ० २१९ ७. तन्नियमकारिणा कारणेनावश्यं भवितव्यं तेषां
तथाभावान्यथाभावाभावादिति नियतिरेवैकाकर्ती । वही० . १९४.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
नित्य है या न केवल अनित्य है । वह नित्यानित्यात्मक है। यह अर प्रकृति और पुरुष स्वरूप द्वैतवाद का स्थापन करता है ।
सांख्य दर्शन इसी अर में समाविष्ट होता है । ४. विधि नियम-प्रस्तुत अर में सत् को द्रव्यात्मक माना गया है ।
विधि का नियमन ही सत् है । कर्म को ही सत् माना गया है । कर्म के कारण ही जीव प्रवृत्ति करता है। तदनुरूप फल भोगता है। इस प्रकार कर्मवादियों के मत का स्थापन करके कर्म को ही सत् स्वरूप माना गया है । इस अर का मुख्य लक्ष्य कर्म
स्वरूप द्रव्य को सत् मानना है । ५. उभय-इस अर में सत् को उभयात्मक माना गया है । सत् को
द्रव्यात्मक एवं भावात्मक माना है । ६. विधिनियम विधि-इस अर में सत् विधिनियमात्मक होते हुए
भी, द्रव्य-क्रियात्मक होते हुए भी भिन्न है । उसका अलग अस्तित्व है । अभेद प्रधान सत् में भेद माना है ।।
उभय-उभय-इस अर में सत् को अन्यायोन्य स्वरूप माना है । ८. उभयनियम-इस अर में सत् को शब्दात्मक ही माना है । वस्तु
नाममय है, तदतिरिक्त उसका कुछ भी स्वरूप नहीं है। ९. नियम-इस अर में सत् को अवक्तव्य स्वरूप माना है । वस्तु न
»
१. अजामेकां लोहितशुक्ल कृष्णां बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजोह्येको जुषमाणोऽनुशेषे जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ।। .
(श्वेताश्वः ४/५) द्वादशारं नयचक्र० पृ० २६६ २. वही, पृ० ३४७-३७५. ३. पदार्थो द्रव्यक्रिये । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ४१५. ४. द्रव्यगुणयोर्द्रव्यत्वगुणत्वसम्बन्ध सद्भावात् स्वभाव सद्भावाच्चेत्येवमादि साधर्मयवैधाभ्यां
षट्सु पदार्थेषु विशेषा एव वैशेषिकं विशेष प्रयोजनं वा वैशेषिकमिति विधिनियमयो
विधिरुपपद्यते । द्वादशारं नयचक्रम् टीका० पृ० ४४६. ५. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ५३६-५४२.
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तो सामान्य है, न विशेष, न उभयात्मक अतः अवक्तव्य स्वरूप ही सत् का प्रतिपादन किया है ।
सत् के स्वरूप की समस्या
१०. नियमविधि - इस अर में सत् को द्रव्यात्मक न मानकर गुणात्मक माना गया है । सत् द्रव्य नहीं है क्योंकि गुण से भिन्न द्रव्य नाम का कोई पदार्थ नहीं है । अतः गुण ही परम तत्त्व या सत् है ।२
११. नियमोभयम- इस अर में सत् को उत्पाद - विनाशी माना है और कहा है कि सत् क्षणिक है । यह बौद्धों के क्षणिकवाद का प्रतिनिधित्व करता है ।
१२. नियमनियम - सत् को शून्यात्मक माना है और नागार्जुन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । ४
इस प्रकार बारह प्रकार से सत् के स्वरूप का वर्णन किया है । उपर्युक्त द्वादश विभागों में केवल परमत मान्य अर्थात् जैनदर्शन से भिन्न दर्शन संमत सत् की चर्चा की गई है । सत् के विभिन्न मतों का समन्वय करके सत् के स्वरूप की व्याख्या करने का प्रयास नयचक्र के अन्तिम प्रकरण नयचक्र - तुम्ब में किया गया है। अन्त में कहा गया है कि सभी दृष्टिकोणों का समन्वय ही जैनदर्शन है । सभी नित्य, नित्यानित्य एवं अनित्य दर्शनों का समन्वय अर्थात् अनेकान्तात्मक दृष्टि ही जैनदर्शन है ऐसा कहकर गर्भित रूप से सत् की अनेकान्तात्मकता का कथन किया गया है । इस प्रकार जैनदर्शन
९. वही, पृ० ५५६-५५७.
२. यदि वस्तु तथा विद्यमानत्वात् सामान्यादयः समुदयाश्चत्याज्या: विशेषा एव परिग्राह्याः । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ७९१.
३.
अत्र च प्रतिक्षणातिक्रामित्वाद वस्तुनो बुद्धिस्थो योर्थः स शब्दार्थः । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ८०३.
४. अयं नियमस्यापि क्षणिकवादस्य नियमः तदापि वस्तु विज्ञानमेव । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ०
८५४.
५. एषामशेषशासन - नयाराणां भगवदर्हद्वचनमुपनिबन्धनम् । वही, पृ० ८७६.
६. वही, पृ० ८७७-८८३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन में सत् केवल नित्य या केवल अनित्य स्वरूप नहीं है किन्तु नित्य एवं अनित्य उभयात्मक है । जैनदर्शन में अन्य ग्रन्थों में सत् के स्वरूप के विषय में जो चर्चा प्राप्त होती है वह इस प्रकार हैजैनदर्शन में सत् का स्वरूप
जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है, वह सत् है । चेतन या अचेतन द्रव्य का स्व जाति को न छोड़ते हुए जो पर्यायान्तर की प्राप्ति होती है वह उत्पाद है। जैसे मृत्पिण्ड में घट पर्याय । पूर्वपर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं । जैसे घडे की उत्पत्ति होने पर पिण्डाकार का नाश होता है । अनादि पारिणामिक स्वभाव से व्यय और उत्पाद नहीं होते किन्तु द्रव्य स्थित रहता है, ध्रुव बना रहता है उसे ध्रौव्य कहते हैं । जैसे कि पिण्ड और घट दोनों अवस्थाओं में मृदूपता का अव्यव है ।२
उत्पादादि युक्त होने से सत् का स्वरूप केवल कूटस्थ नित्य या केवल निरन्वयविनाशी अर्थात् सत् केवल नित्य या केवल क्षणिक नहीं हो सकता । तथा अन्य दर्शनकारों में पदार्थ का कुछ अंश नित्य और कुछ अंश अनित्य माना गया है उसी तरह जैनदर्शन में सत् का अमुक भाग कूटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामीनित्य अथवा कोई भाग नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य हो सकता है । हम कह सकते हैं कि जड़ या चेतन, मूर्त या अमूर्त, सूक्ष्म या स्थूल सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरूप हैं । ये तीनों रूप प्रत्येक वस्तु में एक साथ ही विद्यमान रहते हैं । इस त्रिरूपात्मकता को ही जैनदर्शन में सत् माना गया है । कहा भी गया है कि जो वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को धारण नहीं करती वह वस्तु नहीं हो सकती, अर्थात् जिसमें तीनों रूप विद्यमान नहीं हैं, वह वस्तु नहीं अवस्तु ही है । जैसे खरगोश का शींग, जो उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य रहित है । १. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र, ५ /२९. २. उत्पादो वस्तुनो भावो, नाशस्तस्य व्ययो मतः । ध्रौव्यमन्वितरूपत्वमेकं नान्योऽन्यवर्जितम् ॥
- उत्पादादिसिद्धिः, ४ ३. यदुत्पादव्ययध्रौव्ययोगितां न बित्ति वै ।
तादृशं शशशृंगादिरूपमेव परं यदि ॥ वही०, ६.
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सत् के स्वरूप की समस्या
१०३ जैनदर्शनानुसार प्रत्येक वस्तु में दो पक्ष होते हैं। एक पक्ष तो तीनों काल में शाश्वत रहता है और दूसरा पक्ष सदा परिवर्तित होता रहता है । शाश्वत पक्ष के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक या स्थिर. रहती है और अशाश्वत पक्ष के कारण उत्पाद-व्ययात्मक कहलाती है अर्थात् अस्थिर कहलाती है । इन दो पक्षों में से किसी एक की ओर दृष्टि जाने और दूसरे पक्ष की ओर दृष्टि न जाने से वस्तु केवल स्थिररूप या केवल अस्थिररूप प्रतीत होती है। परन्त दोनों पक्षों पर दृष्टि डालने से ही वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है।
उत्पादादि के स्पष्ट बोध के लिए हम व्यवहार प्रसिद्ध दृष्टान्त का आधार ले सकते हैं कि एक सोने का मुकुट है । उस सोने के मुकुट को तोड़कर उससे हार बनाया जाय तब मकुट की मुकुट अवस्था नष्ट होती है और उसकी जगह पर हार रूप अवस्था उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में पूर्व अवस्था नष्ट होती है और उत्तर अवस्था उत्पन्न होती है, तथापि दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण अपने स्वरूप में स्थिर रहता है । सुवर्ण में परिवर्तन नहीं आता अर्थात् सुवर्ण अपने मूल स्वरूप का परित्याग किए बिना ही अन्य-अन्य आकारादि में परिणत होता है । तब एक आकार का नाश होता है और दूसरे आकार की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार एक ही पदार्थ में उत्पाद व्यय और ध्रौव्यत्व सिद्ध होता है ।
इस आधार पर स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में सत् के स्वरूप के विषय में अपनी विशिष्ट अवधारणा है । एक ही पदार्थ में नित्य और अनित्य धर्म रहते हैं । इन विरोधी धर्मों का एक ही वस्तु में रहने से उसमें कोई विरोध नहीं आता । इस बात को समझाने के लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने नित्य की व्याख्या करते हुए कहा है कि अपने भाव-जाति से च्युत न होना ही नित्य है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए पं० सुखलालजी ने कहा है कि किसी
१. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वलम् । ___शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ २. तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ तत्त्वार्थसूत्र, ५ / ३०.
-शास्त्रवार्ता-समुच्चय, स्त० ७, २.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
भी प्रकार से परिवर्तन को प्राप्त किए बिना ही वस्तु सदा एक रूप में अवस्थित रहती है ऐसा माना जाए तब कूटस्थ नित्यत्व में अनित्यत्व सम्भव न होने से वस्तु में स्थिरत्व और अस्थिरत्व का विरोध आता है । इसी प्रकार अगर जैनदर्शन वस्तुमात्र को क्षणिक अर्थात् प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाली मानकर उसका कोई स्थायी आधार न मानता हो तो भी उत्पादव्ययशील, अनित्य परिणाम में नित्यत्व सम्भव न होने से उक्त विरोध आता है। परन्तु जैनदर्शन किसी वस्तु को केवल कूटस्थ नित्य या परिणामी मात्र न मानकर परिणामी नित्य मानता है । इसीलिए सभी तत्त्व अपनी-अपनी जाति में स्थिर रहते हुए भी निमित्त के अनुसार परिवर्तन अर्थात् उत्पाद और व्यय को प्राप्त करते हैं । अतएव प्रत्येक वस्तु में मूल जाति अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से ध्रौव्य और परिणाम की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय से घटित होने में कोई विरोध नहीं है । जैनदर्शन का परिणामी नित्यवाद सांख्यदर्शन की तरह केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है किन्तु चेन तत्त्व पर भी घटित है ।
जैनदर्शनानुसार सभी तत्त्व उत्पादव्यय-ध्रौव्य युक्त हैं उसको सिद्ध करने के लिए अनुभव प्रमाण ही मुख्य साधक प्रमाण है । सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर कोई ऐसा तत्त्व अनुभव में नहीं आता जो केवल अपरिणामी हो या मात्र परिणाम रूप हो । अतः बाह्यदृष्टि और आन्तरदृष्टि से सभी वस्तु परिणामी नित्य ही प्रतीत होती हैं । यदि सभी वस्तुएँ मात्र क्षणिक हों तो प्रत्येक क्षण में नई-नई वस्तु उत्पन्न तथा नष्ट होने तथा उसका कोई स्थायी आधार न होने से उस क्षणिक परिणाम परम्परा में सजातीयता का कभी अनुभव नहीं होगा अर्थात् पहले देखी हुई वस्तु को फिर से देखने पर जो यह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है वह न होगा, क्योंकि जैसे प्रत्यभिज्ञान के लिए उसकी विषयभूत वस्तु का स्थिरत्व आवश्यक है वैसे ही द्रष्टा आत्मा का स्थिरत्व भी आवश्यक है। इसी प्रकार यदि जड़ या चेतन तत्त्व मात्र निर्विकार हों तो इन दोनों तत्त्वों के मिश्रणरूप जगत् में प्रतिक्षण दिखाई देनेवाली विविधता कभी उत्पन्न न होगी। अतः परिणामी नित्यवाद को जैनदर्शन युक्तिसंगत मानता है । १. तत्त्वार्थसूत्र, पं० सुखलाल संघवी, विवेचन भाग, पृ० १३५. २. उत्पादादिसिद्धि, पृ० ९७-१०६.
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इससे यह बात स्पष्ट होती है कि समस्त द्रव्य अपनी-अपनी जाति में स्थिर रहते हुए भी, निमित्तानुसार उनमें उत्पाद एवं व्यय स्वरूप परिवर्तन होते रहते हैं । इसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक पदार्थ मूल जाति की अपेक्षा से ध्रौव्य और परिणाम की अपेक्षा से उत्पाद और व्ययात्मक है अर्थात् एक ही पदार्थ में स्थिति - उत्पाद और व्यय तीनों परस्पर विरोधी धर्म रहते हैं फिर भी उसमें कोई बाधा नहीं आती । ३
सत्
के स्वरूप की समस्या
इस चर्चा के आधार पर कह सकते हैं कि भारतीय दार्शनिक परम्परा में सत् के स्वरूप को विभिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न रूप से व्याख्यायित किया है उन सब दर्शनों से जैनदर्शन के सत् का स्वरूप भिन्न ही है । जैसे ब्रह्मवादि वेदान्त दार्शनिकों ने केवल ब्रह्म को ध्रुव यानि नित्य माना है । क्षणिकवादि बौद्धों ने सत् को निरन्वय क्षणिक याने उत्पाद विनाशशील ही माना है। सांख्यों ने सत् को दो रूपों में विभक्त किया है- पुरुष और प्रकृति । पुरुष को केवल ध्रुव याने कूटस्थ नित्य और प्रकृतिरूप सत् को परिणामी नित्य इस तरह सत् को नित्यानित्य स्वरूप माना है ।" न्याय - वैशेषिकों ने अनेक सत् में से परमाणु, काल, आत्मा आदि को कूटस्थ नित्य और घटपटादि को उत्पाद - व्ययशील माना है। इन सब दर्शनों से जैनदर्शन ने अलग हटकर सत् की व्याख्या अपने ढंग से नए स्वरूप में प्रस्तुत की है । वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक हैं और यह स्वरूप त्रिकाला - बाधित है।
१. स्वजातित्वापरित्यागपूर्वक परिणामान्तरप्राप्तिरूपत्वमुत्पादस्य लक्षणम् । अर्हत्दर्शन दीपिका, पृ० १९४, स्वजातित्वापरित्यागपूर्वक पूर्वपरिणामविगमरूपत्वं, व्ययस्य लक्षणम् । वही०, पृ० १९५.
२. स्वजातिस्वरूपेण व्ययोत्पादाभावरूपत्वम्, स्वजातित्वरूपेणानुगतरूपत्वं वा धौव्यस्य लक्षणम् । वही०,
१९६.
३. उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्तत्वं पदार्थस्य लक्षणम् । वही०,
४. आर्हतदर्शनदीपिका, पृ० १३.
५. षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० १५२ - १५३.
६. वही, पृ० ४०६-४११.
७. तत्त्वार्थसूत्र, ५ / २९.
१९३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन यहाँ एक बात महत्त्वपूर्ण है जो याद रखने जैसी है कि जैनदर्शन यह मानता है कि असत् से कभी भी सत् की उत्पत्ति नहीं होती है । अर्थात् जो कोई काल में कोई स्थल में अस्तित्व ही न रखता हो ऐसी वस्तु असत् होने के कारण कभी भी सत् रूप नहीं हो सकती है । यथा बंध्या-पुत्र जो असत् रूप है वह कभी भी सत् नहीं हो सकता तथा उत्पत्त्यादि धर्म भी वस्तु के अपने धर्म हैं । वस्तु के साथ सदा रहनेवाले हैं, वस्तु से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। अन्यथा सर्वथा भिन्न मानने पर वस्तु के कुछ धर्म कुछ समय में असत् होंगे और बाद में सत् रूप में पाए जायेंगे तब असत् कार्यवाद की उत्पत्ति आयेगी । अतः यह माना गया है कि वस्तु में उत्पादादि धर्म सदा विद्यमान ही हैं ।
जैनदर्शन में पदार्थ का अपना स्वरूप कभी भी नष्ट नहीं होता है और उसमें सर्वथा नयापन भी नहीं आता है अर्थात् मूलद्रव्य की अपेक्षा से किसी भी पदार्थ का सर्वथा उत्पाद या नाश नहीं होता है । मूल द्रव्य का नाश नहीं होता है और जो परिवर्तन या उत्पाद और विनाश होता है वह केवल आकार विशेष में ही होता है । अतः हम यह नहीं कह सकते कि किसी पदार्थ के आकार विशेष का नाश होने से पदार्थ का सर्वथा नाश हो गया क्योंकि व्यवहार नय में भी हम देखते हैं कि पूर्व आकार विशेष का नाश होने से और किसी अन्य आकार विशेष की उत्पत्ति होने से वस्तु का अनित्यनित्य नाश नहीं माना जाता । अतः यह स्पष्ट होता है कि कोई भी पदार्थ सर्वथा नवीन रूप में उत्पन्न होता नहीं है और सर्वथा नष्ट भी नहीं होता केवल आकारादि में परिवर्तन होता है । मूल द्रव्य तो तीनों काल में . अपने स्वरूप में स्थिर रहता है।
जैनदर्शन में उत्पाद और व्यय को, पर्याय और ध्रौव्य को द्रव्य के नाम से जाना जाता है । इसी कारण पदार्थ को द्रव्य-पर्यायात्मक माना गया है । १. नासतः सर्वथा भावो, न नाशः सर्वथा सतः । नान्वयोपि विनैताभ्यां,
प्रमाणे प्रतिभासते । उत्पादादिसिद्धि, ६ यदसत् तन्न केनापि, क्रियते वियदब्जवत् । उपादानं न चेह स्यात्, सर्वं सर्वत्र वा भवेत् ॥ वही, ८.
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सत् के स्वरूप की समस्या
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यहाँ हमें याद रखना चाहिए कि द्रव्य सदा नित्य को पक्ष बनाता है और पर्याय सदा अनित्य अर्थात् उत्पाद और व्यय को पक्ष बनाता है । तात्पर्य यह है कि द्रव्य रूप में पदार्थ की नित्यता और पर्याय यानि की आकार रूप में पदार्थ की अनित्यता सिद्ध होती है । हम यह भी कह सकते हैं कि द्रव्य याने ध्रौव्य अंश धर्मी है और पर्याय अर्थात् उत्पाद - व्यय वह पदार्थ के धर्म हैं । धर्म और धर्मी दोनों किसी अपेक्षा से भिन्न हैं और किसी अपेक्षा से अभिन्न भी हैं । यदि दोनों में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद माना जाए तब उन दोनों के बीच धर्म-धर्मी भाव ही नहीं बन पायेगा । धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न माना जाए तब कोई एक धर्म का कोई एक निश्चित धर्मी है यह संभवित नहीं होगा जैसे आत्मा और ज्ञान को घट और पट की तरह सर्वथा भिन्न मानने पर आत्मा का धर्म ज्ञान है ऐसा नहीं कह सकेंगे अर्थात् जगत् का व्यवहार और व्यवस्था है कि यह उसका धर्मी है यह धर्म है उसका उच्छेद हो जायेगा । धर्म और धर्मी को सर्वथा अभिन्न भी नहीं मान सकते क्योंकि जो सर्वथा अभिन्न है उसमें किसी एक का नाश होने पर दूसरे का भी नाश हो जाता है। उसी तरह यहाँ धर्म का नाश होने से धर्मी का भी नाश हो जायेगा अर्थात् धर्म और धर्मी सर्वथा भिन्न भी नहीं है और सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं ।
उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य का परस्पर सम्बन्ध
उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य यह तीनों परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न ? यह - प्रश्न यहाँ विचारणीय है । यदि यह कहा जाए कि ये तीनों परस्पर सर्वथा भिन्न हैं तब एक ही पदार्थ में तीनों धर्मों की उपपत्ति - सिद्धि अशक्य है और इसी आपत्ति के कारण यह माना जाए कि ये तीनों परस्पर अभिन्न हैं तभी दोष का आगम होगा कि तीनों अभिन्न होने से तीन प्रकार की संज्ञा करना ही
१. परमाणु पोग्गले णं भंते किं सासए असासए ? गोयमा, सिय सासए सिए असासए । से णणं ?
"गोयमा, दव्वट्टयाए सासए वन्नयज्जवेहिं जाव फासपज्जवेहिं असासए ।" भगवती - ६६८ २. ननूत्पादादयो धर्मा, भिन्नाः स्युधर्मिणो यदा । नीरूपत्वं तदा तस्य वाच्यं वा लक्षणान्तरम् ॥ अभेदे युक्तता न स्यात्, अस्याभेद व्यपेक्षणात् । सम्बन्ध शब्दो नायं यद्, न द्वयेन विना स तु ॥
उत्पादादिसिद्धि, २५, २६.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन निरर्थक है। अत: इन आपत्तियों का परिहार करने के लिए जैन दार्शनिकों ने उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न माना है । जैसे एक ही घड़े में रहनेवाले उत्पादव्यय और ध्रौव्य परस्पर पृथक् हैं क्योंकि तीनों का अपना-अपना स्वरूप है जो एकदूसरे से भिन्न है । उत्पाद का अर्थ है अस्तित्व धारण करना, व्यय का अर्थ है अस्तित्व का त्याग और ध्रौव्य का अर्थ है सदा स्थिर रहना । इस प्रकार स्वरूपभेद होने के कारण परस्पर भिन्न हैं तथापि ये तीनों एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते अर्थात् एक के बिना दूसरे दो का अस्तित्व सम्भवित नहीं है । अत: तीनों एक-दूसरे से अपेक्षा रखते हैं । अपेक्षा रखने के कारण सापेक्ष हैं और सापेक्ष होने के कारण तीनों एक ही पदार्थ में संभवित हैं।
इस प्रकार सत् के स्वरूप के विषय में भारतीय दार्शनिक एकमत्य नहीं हैं । विभिन्न दार्शनिकों ने विविध रूप में सत् का विवेचन किया हैं ।
द्वादशारनयचक्र में तत्कालीन सभी विचारधाराओं का संग्रह किया गया है । आचार्य मल्लवादि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में सत् के स्वरूप के विषय में विभिन्न दार्शनिकों के मतों की स्थापना एवं आलोचना की है। आचार्य मल्लवादि ने ग्रन्थ के मंगलश्लोक में ही जैन सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जैनदर्शन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक उभय नयवादी है । इसका तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन अनेकान्तवादी है । अतः सत् का स्वरूप भी अनेकान्तात्मक ही माना गया है । इसी बात को नयचक्र के टीकाकार सिंहसेनसूरि ने भी स्पष्ट किया है । टीकाकार का कहना है कि यह अनेकान्तात्मक सत् जैनदर्शन की विरासत है इतना ही नहीं अन्य दर्शनकारों को भी लोकव्यवहार का अनुसरण करने के लिए किसी न किसी रूप में अनेकान्तवाद का आश्रय लेना ही पड़ता है । अन्यथा अनेक आपत्तियों का सामना करना पड़ता है ।३
१. व्याप्येकस्थमनन्तमन्तवदपि न्यस्तं धिया पाटवे, व्यामोहे न, जगत्प्रतान विसृति
व्यत्यासधीरास्पदम् । वाचां भागमतीत्य वाग्विनियतं गम्यं न गम्यं क्वचिज्जैनं शासनमूर्जितं जयति तद् द्रव्यार्थ-पर्यापतः ।।
___द्वादशारं नयचक्रम् , पृ० १. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । स्याद्वादमंजरी, पृ० २६७. ३. द्वादशारं नयचक्रं टीका, पृ० ८३-८६.
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सत् के स्वरूप की समस्या
द्वादशार-नयचक्र के प्रथम श्लोक की व्याख्या करते हुए आचार्य सिंहसेनसूरि ने कहा है कि बौद्धों ने सत् को क्षणिक माना है किन्तु क्षणिक मानने पर स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, बन्ध, मोक्षादि की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रस्तुत दोषों के परिहार करने के लिए उन्होंने सन्तान नामक एक अन्य तत्त्व भी माना ।' सांख्यदर्शन में प्रकृति को नित्य माना है और उसमें परिणाम या परिवर्तनशीलता सिद्ध करने के लिए उस अव्यय तत्त्व से व्यक्त तत्त्वों अर्थात् बुद्धि, अलंकार, पञ्चमहाभूत आदि की सृष्टि मानी है। वैशेषिक-दर्शन में गुण या क्रियावान् होने के साथ समवायीकारण वाले को द्रव्य माना है । किन्तु द्रव्य का ऐसा स्वरूप मानने पर भी सृष्टि-प्रक्रिया घट नहीं सकती थी, अतः द्रव्य को सामान्य और विशेष स्वरूप माना और सृष्टि को कार्यरूप एवं परमाणु को कारण रूप माना । इस प्रकार कार्य को अनित्य और कारण को नित्य स्वीकार करके सत्ता के नित्य
और अनित्य पक्ष स्वीकार किए । क्योंकि इनको न स्वीकार करने पर विभिन्न दोषों का परिहार करना कठिन हो जाता है। - अन्य दर्शन में भी पदार्थ सत् के स्वरूप की चर्चा करते हुए उसमें उत्पादादि तीनों को स्वीकार किया गया है कि द्रव्य-पदार्थ शाश्वत अर्थात् नित्य है । जबकि आकृति (जिसको जैनदर्शन में पर्याय माना है) अनित्य है । जैसे आकारयुक्त सुवर्ण कदाचित् पिण्डस्वरूप बनता है । इसी पिण्डाकार का नाश करके मुद्रा बनाई जाती है । मुद्रा का नास करके वलय बनाया जाता है, वलय का नाश कर स्वस्तिक बनाया जाता है और स्वस्तिक का नाश करके पुनः पिण्ड बनाया जाता है । अतः यह सिद्ध होता है कि आकृति का नाश या उत्पाद होता रहता है तथापि उसमें रहा हुआ द्रव्य तो स्थिर ही रहता है।
१. यथा बौद्धै सर्वं क्षणिकं इति प्रतिज्ञाय स्मृत्यभिज्ञानबन्ध-मोक्षाद्यभावदोषपरिहारार्थं सन्तान
कल्पना । वही० पृ० ५. २. प्रधाननित्यतां प्रतिज्ञाय परिणामकल्पना व्यक्तात्मना कापिले । वही, पृ० ५. ३. क्रियावद गुणवत् समवायिकारणम् इति सामान्यद्रव्यलक्षणं प्रतिज्ञाय एकान्तनित्यानित्यवादे च
तदव्याप्तिपरिहारार्थम् अद्रव्यमनेकद्रव्यं च द्विविधं द्रव्यम् इति द्रव्यत्वं च सामान्य-विशेषाख्यं
ततत्वम् इति द्रव्य-पर्यायनयद्वयाश्रयणेन पदार्थ प्रणयनं काणभुजे। वही० पृ० ५. ४. आर्हत्दर्शन दीपिका, पृ० ५३३-५३८. ५. द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या । सुवर्णं कदाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन इसी बात को पार्थसारमिश्र ने शास्त्रदीपिका में इस प्रकार कहा है कि मृत्रिका स्वरूप का कभी भी उत्पाद या नाश नहीं होता किन्तु उसके रूपआकार आदि का उत्पाद का नाश होता रहता है । कुमारिल भट्ट ने भी कहा है कि उत्पाद एवं नाश स्वरूप धर्मों से युक्त पदार्थ में अन्वयरूप से जो उपलब्ध होता है वही धर्मी है जैसे काले, लाल आदि रंगों में तथा पिण्डकपाल आदि आकारों में अनुस्यूत मृत्रिकारूप द्रव्य ही धर्म है ।२ कहने का तात्पर्य यह है कि पिण्ड के नाश होने पर घट की उत्पत्ति होती है और काले रंग का नाश होने पर लाल रंग का उद्भव होता है तथापि उसमें मृत्रिका द्रव्य
का अनुभव बना ही रहता है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि द्रव्य के स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता किन्तु पर्यायों में ही परिवर्तन होता रहता है । पतंजलिकृत योगदर्शन के श्री व्यासदेव प्रणीत भाष्य में भी कहा गया है कि
___ तत्र धर्मस्य धर्मिणि वर्तमानस्यैवाध्यस्वतीतानागत वर्तमानेषु भावान्यथात्वं भवति, न द्रव्यान्यथात्वं, यथा सुवर्णभाजनस्य भित्त्वान्यथाक्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति, न सुवर्णान्यथात्वमिति । (विभूतिपाद)
मुद्रादि विभिन्न आकार धारण करने पर या नष्ट होने पर भी सुवर्ण . रूचकाः क्रियन्ते, रूचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृति-मुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते । पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः । पुरनपरया कृत्या युक्तः खंदिराङ्गारसदृशे कुण्डले भवतः । आकृतिरन्या चान्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिस्यते । व्याकरणमहाभाष्य, पतंजलि महाभाष्य, पशपशाह्निक, पृ० ५२. अतो न द्रव्यस्य कदाचिदागमो पायोवा, घटपटगवाश्वशुक्लरक्तावस्थानामे वागमापायौ । उत्ताह च. आविर्भावतिरोभाव-धर्मकेस्वनुयायि यत् । तद् धर्मी तत्र च ज्ञानं, प्राग् धर्मग्रहणाद भवेत् ।। तथा च-यादृशमस्याभिरभिहितं द्रव्यं तादृशस्यैव हि सर्वस्य गुण एव भिद्यते, न स्वरूपम् ।।
आर्हतमतदीपिका० ५३४. २. वर्धमानकभङ्गे च, रूचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः, प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।।
हेमार्थिनस्तु माध्यस्थयं, तस्माद वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पाद-स्थिति भङ्गानामभावे स्यान्नमतित्रयम् ॥ न नाशेन बिना शोको, नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न
माध्यस्थ्यं, तेन सामान्य नित्यता। -मीमांसा श्लोकवार्त्तिक, वनपाद, २१-२३. ३. पातंजल योगदर्शन भाष्य, विभूतिपाद, सू० १३, पृ० २३८.
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सत् के स्वरूप की समस्या
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अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता । सुवर्ण, सुवर्ण के रूप में सदा ही स्थिर रहता है । ऐसा न मानने पर सुवर्ण में परिवर्तन मानना पड़ेगा तब सुवर्ण ही असुवर्ण बन जायेगा । इस प्रकार द्रव्य का ध्रौव्य और गुण या आकारों का उत्पाद एवं नाश अन्य दर्शनकारों ने भी माना है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि पदार्थ-सत् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्त है । इस बात को जैनदर्शनकारों ने अपनी-अपनी शैली से स्पष्ट किया है । इस त्रयात्मक सत् को स्पष्ट करने के लिए आचार्य हरिभद्र ने शास्त्रवार्ता - समुच्चय में एक दृष्टान्त दिया है कि सुवर्ण के घट का नाश और सुवर्ण के मुकुट को उत्पन्न होते हुए देखकर घट के अर्थी को दुःख होता है, मुकुट के अभिलाषी को आनन्द होता है और सुवर्ण के इच्छुक को न तो हर्ष होता है और न शोक ही होता है । इसी से हम कह सकते हैं कि एक ही पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है । कुमारिल भट्ट ने भी प्रस्तुत दृष्टान्त का आश्रय लेकर वस्तु की. त्रयात्मकता निरूपित की है । यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि निरुक्तकार श्री यास्क ने कहा है कि वार्ष्यायणि आचार्य ने पदार्थ के छह विकार अर्थात् परिणामों को स्वीकार किया है । ३ पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न पदार्थ स्थिर रहता है, अन्य विकार होने पर भी एक ऐसी स्थिति है जिसमें पदार्थ का नाश नहीं होता है, अन्य पदार्थों के संयोग से वृद्धि भी होती है, अन्य पदार्थों के संयोग से कुछ हानि भी होती है तथा अन्य भाव को प्राप्त करते हैं अर्थात् नाश होते हैं । यहाँ छह भेद किए गए हैं किन्तु मूलतः तीन ही रूप हैं जो जैनदर्शन में त्रिपदी के नाम से प्रसिद्ध हैं । अपनेइ वा, विगमेई वा, ध्रुवेइ वा । वस्तु त्रयात्मक-उत्पादव्यय और ध्रौव्यात्मक है ।
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१. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पत्ति स्थितिस्वलम् । शोक प्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ तथा पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयो त्ति दधिव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्० शास्त्रवार्ता समुच्चय ९ / १ -१
२. मीमांसा श्लोकवार्त्तिक, वनवाद - २१-२३.
३. षड् भावविकारा भवन्तीति वाष्ययिणि:- (१) जायते (२) अस्ति, (३) पिपरिणमते, (४) वर्धते, (५) अपक्षीपते, (६) विश्यतीति ।
४. आर्हत्दर्शन दीपिका, पृ० ५३७.
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षष्ठ अध्याय
द्रव्य - गुण - पर्याय का सम्बन्ध
द्वादशार नयचक्र में विभिन्न दर्शनों में सभी वस्तु पदार्थ या द्रव्य की जो अवधारणाएँ हैं, उन्हें एक क्रम में प्रस्तुत किया गया है । सर्वप्रथम लौकिकवाद के अनुसार द्रव्य की परिभाषा दी गयी है । इसमें यह बताया गया है कि वस्तु वैसी होती है जिस रूप में जन-साधारण उसे ग्रहण करता है । उसके बाद में अद्वैतवादी की दृष्टि में सत्ता या द्रव्य का स्वरूप क्या है ? उसकी चर्चा की गई है । इन अद्वैतवादी विचारकों ने अपने-अपने मन्तव्यों के अनुसार सत्ता या द्रव्य को व्याख्यायित किया है । किसी ने उसे पुरुष कहा तो किसी ने उसे काल या स्वभाव आदि के रूप में ही बताया है । २ ये विचारक सृष्टि के मूल कारण के आधार के रूप में ही सत्ता को देखने का प्रयास करते हैं और उसी रूप में उसे व्याख्यायित भी करते हैं । अतः इन विचारकों के मन्तव्यों के प्रसंग में आ० मल्लवादी ने भी द्रव्य के किसी विशिष्ट लक्षण के विषय में कोई चर्चा नहीं की है । आ० मल्लवादी उसके पश्चात् द्वैतवादी विचारकों, विशेषरूप से सांख्यदर्शन की दृष्टि में सत्ता के स्वरूप की चर्चा प्रस्तुत करते हैं । ३ सांख्य दार्शनिक मूलभूत सत्ता को पुरुष और प्रकृति ऐसे दो विभाग में विभाजित करते
९. यथालोकग्राहमेव वस्तु । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११ लोकवदेव चार्थः । वही, पृ० ५७
२. द्वादशारं नयचक्रं द्वितीय अर, पृ० १७२ - २४२
३. अजामेका लोहितशुक्लकृष्णां बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ||
श्वेताश्व० ५-४ उद्धृत, द्वादशारं नयचक्रं, पृ० २६६
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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध . हैं, और सत्ता-प्रकृति को परिणामी नित्य मानते हैं, वहाँ पुरुष को कूटस्थ नित्य अर्थात् अविकारी बताते हैं । सत्ता के सम्बन्ध में वे द्रव्य शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं । वे जगत् की व्याख्या के लिए वह प्रधान अर्थात् प्रकृति की ही परिणमनशीलता की चर्चा करते हैं । उसकी दृष्टि में प्रकृति त्रिगुणात्मक है और वही सत्य है । जगत् में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है वह प्रकृति की ही अभिव्यक्ति है । सांख्यदर्शन की दृष्टि में पुरुष और प्रकृति इन दोनों तत्त्वों में प्रकृति ही सक्रिय तत्त्व है। पुरुष निष्क्रीय है । वह सृष्टि में मात्र निमित्त कारण है, उपादान नहीं ।१ अगले क्रम में मल्लवादी ने एक ऐसे दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है जो वर्तमान में किसी भारतीय दर्शन में उपलब्ध नहीं होता है, यह दृष्टिकोण वस्तुतः अनेकता में निहित एकत्व पर बल देता है । इसे सर्व सर्वात्मकता-वाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह अद्वैतवादियों की दृष्टि से इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ द्वैत में अद्वैत की कल्पना की गई है, अद्वैत में एक से अनेक की अभिव्यक्ति मानी जाती है, जबकि यहाँ अनेकों में एक ही सत्ता को अनुस्यूत माना जाता है । इसके पश्चात् न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों का उल्लेख है जो द्रव्य, गुण, कर्म आदि को एक-दूसरे से विभक्त मानते हैं । दूसरे शब्दों में ये भेद प्रधान दृष्टिवाले हैं।३ आ० मल्लवादी ने इनके पश्चात् उन विचारकों के दृष्टिकोण का उल्लेख किया है जो सत्ता या द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद या अभेद दोनों को ही स्वीकार करता है। यह दृष्टिकोण विशेषरूप से जैनों का है ।" आ० मल्लवादी ने इसके आगे अपने चक्र की कल्पना को साकार बनाने १. वही, पृ० २६५-२६७ २. वही, पृ० ३७५
सर्वमेकमेकं च सर्वम् । सर्वं सर्वात्मकम् । वही, टीका, पृ० ११ ३. द्रव्यमपि भावसाधनम् ।....पदार्थों द्रव्यक्रिये । द्वादशारं नयचक्रं, ४१४-४१५
विधिश्च नियमश्च सर्वत्र द्रव्यंक्रिया चेति विधिनियमं । द्वन्द्वैकवद्भावात् । स एष निर्दिष्टः प्रत्यक्षीकृतस्ते ।....द्रव्यक्रियाद्वयात्मक-वस्तु भजते... । वही, टीका० पृ०
४१४-४१५ ४. एवं त्युभयस्यैवोभयप्राधान्यस्यापि विधिः । वही, पृ० ४४६ ५. तथोभयवादसिद्धिः, उभयोरन्यतरस्य वा निषेधे प्रमाणाभावात् । नन्वेवं तथार्थ स्थिति
सत्यत्वात् सर्ववादनानानेकान्तवादाश्रयणंकृतम् । तदतत्समर्थविकल्पत्वात् । एकपुरुषपितृपुत्रादिवत् । वही, पृ० ४३६
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन हेतु भेद और अभेद दोनों की स्वीकृति में तार्किक विरोध दिखाकर शब्दाद्वैतवादियों की दृष्टि में सत्ता की व्याख्या की है । इसके बाद वे सत्ता के वाच्यत्व के निषेध करने हेतु बौद्धों के अपोहवाद का प्रस्तुतीकरण करते हैं ।२ उसके बाद सत्ता के परिणामशील पक्ष को प्रस्तुत करते हुए यह बताते हैं कि सतत परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त जगत् में कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और अन्त में निःस्वभाव का शून्यवाद के रूप में विवेचन करके वे सत्ता की चर्चा को परिसमाप्त करते हैं । यद्यपि वे इस दृष्टिकोण को भी अन्तिम सत्य नहीं कहते, इसके खण्डन के लिए वह पुनः लौकिकवाद की युक्तियों का सहारा लेते हैं । वे कहते हैं कि पदार्थ या वस्तु को किसी प्रमाण या शास्त्र से जब सिद्ध ही नहीं किया जा सकता है तब हमें लोकवाद का अनुसरण करने पर यह मान लेना चाहिए कि पदार्थ या वस्तु वैसी है जैसा कि लोक द्वारा ग्रहण किया जाता है।
प्रस्तुत प्रसंग में हम इन सभी धारणाओं की चर्चा न करके मात्र कुछ प्रमुख मतों को ही प्रस्तुत करेंगे । साथ ही उन्हें आ० मल्लवादी के क्रम से भिन्न क्रम में प्रस्तुत करेंगे । इस चर्चा में हम सर्वप्रथम इन विचारकों के मत का उल्लेख करेंगे जो सत्ता को नि:स्वभाव मानते हैं। उसके बाद क्षणिकवादी दृष्टिकोण की चर्चा करेंगे । जो सत्ता को मात्र परिवर्तनशील (पर्याय रूप) मानते हैं-उसके पश्चात् उन द्वैतवादियों की चर्चा करेंगे जो द्रव्य, गुण और
१. वही, पृ० ५६०-५६६ २. वही, पृ० ५४७ ३. उत्पादविनाशावेव हि वस्तुनां भवनस्य बीजम् । अनुत्पादविनाशत्वादपर्यायत्वाद् निर्मूलत्वान्न
स्यात् वस्तु वन्ध्या-पुत्रवत् । अपि च प्रतिपक्षविनिर्मुक्तमेवानित्यत्वं वस्तुनः । वही, पृ० ७९५ क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अस्थितानां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते ॥ वही. पृ० ८० ।।
अन्तेक्षयदर्शनादादौ क्षयोऽनुमीयते प्रदीपशिखावत् । वही, पृ० ८०२ ४. निःस्वभावमिदं सर्वं सुप्तोन्मत्तादिवत् । तदतदाकारप्रकल्पनानुपातिविज्ञानत्वात्, परमार्थ
तस्तत्तदाकारशून्यमिदं शून्यमेवेति कल्पयितुं न्यायं शून्यगृहवत् प्रवेष्टस्थातृ निर्गन्तृ कल्पोत्पादादिरहितम् । वही, पृ० ८२७
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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध
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पर्याय में भेद ही मानते हैं अन्त में उस अनेकान्तवादी दृष्टि की चर्चा करेंगे जो द्रव्य, गुण और पर्याय में अभेद और भेद दोनों मानते हैं।
समालोच्य ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में आo मल्लवादी ने वैशेषिकसूत्र के अनुसार द्रव्य की परिभाषा की है ।१ वैशेषिकसूत्र में द्रव्य के तीन लक्षण किए गए हैं, जो क्रियावान्, गुणवान और समवायीकरण है वही द्रव्य है ।२ अन्य प्रसंग में द्रव्य को सामान्य-विशेषात्मक भी कहा गया है । अन्यत्र द्रव्य, गुण और कर्म में निहित अर्थ या पदार्थ को सत्ता कहा गया है। इस प्रकार यहाँ सत्ता, और द्रव्य, गुण कर्म में अन्तरनिहितता और दूसरी ओर भेद स्वीकार किया गया है। किन्तु जहाँ सत् के भेद का प्रश्न है वहाँ स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो वर्तमान और नित्य है तथा जिसका प्रलय नहीं होता है वह सत् है । अन्यत्र यह भी कहा गया है कि क्रिया और गुण का जिसमें अभाव है वह असत् है ।६ इसका तात्पर्य यह है कि जिसमें गुण और कर्म या क्रिया पाई जाती है वही सत् है । इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में जो सत् की परिभाषा दी गयी है वह साधरणतया तो जैनदर्शन के द्रव्य की परिभाषा के निकट पाई जाती है । किन्तु उसमें मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ जैनदार्शनिक गुण और कर्म या पर्याय की सत्ता को द्रव्य से विभक्त नहीं मानते हैं वहाँ वैशेषिकदर्शन द्रव्य को गुण और पर्याय से भिन्न एक स्वतन्त्र पदार्थ मानता है। उनके अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष आदि सब एक-दूसरे से स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं ।
. द्वादशार नयचक्र में लौकिकवाद का अनुसरण करते हुए द्रव्य या वस्तु
१. तत्र द्रव्यमपि भवनलक्षणं युगपद्युगपद्भेदभाविमृद्भवन परमार्थरूपादि शिवकादिवृत्ति
व्यापि । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १५ २. क्रियावद-गुणवत्-समवायिकारणमिति द्रव्य लक्षणम् । वही, टीका, पृ० १५ ३. अर्थविषयं सामान्यम्, अर्थविषयश्च विशेषः । वही, पृ० १८ ४. द्रव्य-गुण-कर्मसु द्रव्य-गुण-कर्मभ्योऽर्थान्तरं सा सत्ता । वही, पृ०६ ५. वर्तमानं नित्यं न प्रलयभाक् सत् वर्तते । वही, पृ० ३४ ६. क्रियागुणव्यपदेशाभावादसत् । वही, टीका, पृ० ३५ ७. गुणपर्यायवत् द्रव्यम् । तत्त्वार्थसूत्र ५।३७ .
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन की परिभाषा इस रूप में दी गई है कि वस्तु को जैसा जिस रूप में जनसाधारण ग्रहण करता है वैसे ही है। इस दृष्टि से भी सत् को वर्तमान, नित्य एवं संहार या विनाश से रहित कहा गया है । इस प्रकार लौकिकवाद भी पदार्थ या द्रव्य के परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील दोनों पक्षों को स्वीकार करता है फिर भी वह उसके नित्य पक्ष को ही सत् के रूप में व्याख्यायित करता है और परिवर्तनशील पक्ष पर मौन धारण कर लेता है ।
इसी प्रकार आ० मल्लवादी ने व्याकरणकारों के पक्ष को प्रस्तुत करते हुए द्वादशार नयचक्र में द्रव्य के भवन लक्षण का निरूपण किया है ।२ वे कहते हैं कि द्रव्य भवन लक्षण होनेवाले लक्षण से युक्त है अथवा जो भवन योग्य होता है वह द्रव्य है। अर्थात् जो भव्य याने परिवर्तन को प्राप्त होता है वही द्रव्य है ।३ अन्यत्र जिसमें विकार और अवयव पाया जाता है उसे भी द्रव्य कहा जाता है। यह सब परिभाषाएँ द्रव्य को परिवर्तनशील सत्ता के रूप में व्याख्यायित करती हैं । पातंजल महाभाष्य में भी द्रव्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जहाँ गुणों का संद्राव है वहीं द्रव्य है ।५ पातंजल की यह परिभाषा द्रव्य को गुणों के समूह के रूप में व्याख्यायित करती है। इसके पूर्व में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि जैनों में भी द्रव्य को गुणों के समूह के रूप में व्याख्यायित किया है ।६
जहाँ तक जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य का प्रश्न है आ० मल्लवादी ने तत्त्वार्थसूत्र को आधार बनाकर द्रव्य को गुण और पर्याय स्वरूप माना है ।
१. यथालोकग्राहमेव वस्तु । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११ २.. द्रव्यं भवनलक्षणं । वही, १५ ३. द्रव्यं च भव्ये, भवतीति भव्यं भवनयोग्यं वा द्रव्यं, द्रवति, द्रोष्यति, दुद्रावेति, द्रुः
द्रोविकारोऽवयवो वा द्रव्यं । वही, १५ ४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १५ ५. गुणसंद्रावो द्रव्यम् । पातजंल महाभाष्य ५.१.११३
उद्धृत द्वादशारं नयचक्रं टीका, पृ० १५ ६. वही, पृ० १७ ७. गुणपर्यायवत् द्रव्यं । तत्त्वार्थसूत्र ५.३७, उद्धृत वही, पृ० १७
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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध रूप आदि को गुण कहा गया है, और उसकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ पर्याय हैं । साथ ही गुण युगपद् होता है, पर्याय अयुगपद् है । द्रव्य में गुण एक साथ होते हैं और पर्याय क्रमभावी होते हैं । अर्थात् पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती रहती है । टीकाकार ने नय की व्याख्या में द्रव्य का लक्षण करते हुए उसे अनेकान्त और एकात्मक दोनों ही माना है। अपने अनेक सत्तात्मक गुणों की दृष्टि से वह अनेकात्मक है किन्तु एक समय में एक विशिष्ट पर्यायवाला होने के कारण वह एकात्मक है । उसमें एकात्मक और अनेकात्मक दोनों ही अनुस्यूत है अन्यत्र उन्होंने सत्ता के छ: लक्षण दिए हैं जो हैं-अस्तित्ववान है, होती है, विद्यमान है, नष्ट होती है, परिवर्तित होती है, सन्निपात स्वरूप है वह सत्ता है ।२
मल्लवादी के टीकाकार सिंहसरि ने द्रव्य का लक्षण करते हुए अपनी टीका में सन्मति तर्क की एक गाथा उद्धृत की है उसके अनुसार न तो पर्यायों से रहित द्रव्य होता है और न तो द्रव्य से रहित पर्याय होती है अतः उत्पाद, स्थित और ध्रौव्य द्रव्य के लक्षण हैं । __आगे हम जैनदर्शन के इस दृष्टिकोण की किञ्चित् विस्तार से चर्चा करेंगेद्रव्य, गुण, पर्याय
तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थ-सिद्धि मान्य पाठ में "सत् द्रव्य-लक्षणम्' करके द्रव्य और सत् में अभेद स्थापित किया गया है । सामान्य रूप से जो अस्तित्ववान है वही द्रव्य है और अपने इस अस्तित्व लक्षण की दृष्टि से सत्
१. द्रव्यस्यनेकात्मकत्वेऽन्यतमात्मकैकान्त परिग्रहो नयः, स्वप्राधान्येनार्थनयनान्नयः । वही. ३४ २. अस्ति-भवति-विद्यति-पद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः सत्तार्थाः । द्वादशारं नयचक्रं, पृ०
३२४ ३. दव्वं पज्जववियुतं दव्वषिजुत्ता य पज्जवा णल्थि ।
उत्पाद-दिदति-भंगा हंदि दविय लक्खण एयं ॥ १.१२॥ द्वादशारं नयचक्रं टीका० पृ०
७९३ ४. तत्त्वार्थसूत्र ५.२९
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन और द्रव्य में मात्र शब्द-भेद है, अर्थ-भेद नहीं है। सत् के स्वरूप की चर्चा हम पूर्व अध्याय में कर चुके हैं । उस अध्याय में हमने इस सम्बन्ध में विशद विवेचन किया है कि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन धर्मों से युक्त होता है । यदि हम द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर उसका अर्थ करें तो जो द्रवित होता है वही द्रव्य कहलाता है ।२ दूसरे शब्दों में परिवर्तनों के मध्य स्थायित्व ही द्रव्य का लक्षण है । जैन आचार्यों की मान्यता के अनुसार यद्यपि परिवर्तन और स्थायित्व परस्पर विरोधी लक्षण हैं किन्तु वस्तु-स्वरूप की अनेकात्मकता के कारण वे एक ही साथ पाये जाते हैं । संसार में कोई भी वस्तु-तत्त्व ऐसा नही है जो उत्पाद, व्यय
और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों से रहित हो,४ उत्पाद और व्यय वस्तु के परिवर्तनशील पक्ष को प्रस्तुत करता है दूसरे शब्दों में वस्तु तत्त्व या पदार्थ के दो पक्ष होते हैं । उसमें एक पक्ष ऐसा होता है जो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में शाश्वत रहता है। किन्तु दूसरा पक्ष वह होता है जो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है ।६ जैन-दार्शनिकों ने वस्तु के इस शाश्वत पक्ष को गुण
१ .
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ तत्त्वार्थसूत्र ५.२९ उत्पाद-द्विति-भंगा हंदि दवियलक्खण एवं । सन्मति प्रकरण १.१२ दव्वं सल्लक्खंणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।।
पंचास्तिकाय० श्लो० १० २. द्रव्यं च भव्ये इत्युक्तत्वाद् भवतीति भव्यं भवनयोग्यं वा द्रव्यं, द्रवति, द्रोष्यति, दुद्रावेति
द्रुः, दोविकारोऽवयवो वा द्रव्यम्, 'दुद्रुगर्तो', सदैव गत्यात्मकत्वाद, विपरिणामात्मकं हि तत् ।
द्वादशारं नयचक्रं टीका पृ० १५ ३. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम् । स्याद्वाद-मंजरी, पृ० २६७
अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह । षड्दर्शन-समुच्चय पृ० ३१२ ४. दव्वं पज्जववियुतं दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि ।
सन्मति-प्रकरण १.१२ ५. ध्रुवे: स्थैर्यकर्मणो ध्रुवतीति ध्रुवः । ३ । अनादिपारिणामिक स्वभावत्वेन व्ययोदयाभावात्
ध्रुवति स्थिरीभवति इति ध्रुवः, ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्, यथा पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयात् ।
तत्त्वार्थवार्तिक० पृ० ४९५ ६. स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पादः ।२।... . तथा पूर्वभावविगमो व्ययनं व्ययः ।२। वही, पृ० ४९४-४९५
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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध
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समष्टि परिवर्तनशील पहा शाश्वत लक्षगया
और परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय का नाम दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने गुण की दृष्टि से वस्तु या द्रव्य ध्रौव्य या स्थिर कहा जाता है किन्तु अपने पर्यायात्मक परिवर्तनशील पक्ष या उत्पन्न होकर विनष्ट होनेवाले पक्ष की दृष्टि से वह परिवर्तनशील कहलाता है। जैन आचार्यों ने पदार्थ के स्वरूप का जो विवेचन किया है वह इन्हीं दो पक्षों पर आधारित है । वस्तु का वह समष्टि रूप जिसमें ध्रौव्य और उत्पाद-व्यय दोनों ही पक्ष अथवा परिवर्तनशील
और अपरिवर्तनशील पक्ष एक साथ उपस्थित हैं उसे द्रव्य की संज्ञा दी गई है। पुनः द्रव्य के ही शाश्वत लक्षण को गुण कहा गया है और उसके परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा गया है इस प्रकार वस्तु की तथ्यात्मक व्याख्या द्रव्य, गुण, पर्याय की त्रिपुटी के माध्यम से की गयी है ।३ जहाँ जैनदार्शनिकों ने सत् की व्याख्या उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य तीन लक्षणों के आधार पर की है वहाँ उन्होंने द्रव्य की व्याख्या गुण और पर्याय के आधार पर की है। सामान्य रूप में तो द्रव्य वह है जो पर्यायों की दृष्टि से परिवर्तित होकर भी गुण की दृष्टि से वही बना रहता है । जैन-दर्शन में द्रव्य की जो भी परिभाषाएँ की गईं वे मुख्यतया गुण और पर्याय को लक्ष्य में रखकर की गई हैं । सामान्य रूप से जैन आचार्यों ने जो गुण और पर्याय का आश्रय है उसे द्रव्य कहा है । जैन ग्रन्थों में द्रव्य को अनेक रूपों में परिभाषित और व्याख्यायित किया गया है । द्रव्य की जो विभिन्न व्याख्याएँ उपलब्ध होती हैं, उन्हें प्रो० सागरमल जैन ने तीन वर्गों में विभाजित किया है
१. द्रव्य को गुण अथवा गुण और पर्याय का आश्रय कहनेवाली परिभाषा ।
२. द्रव्य को गुण और पर्याय का समूह माननेवाली परिभाषा । ३. द्रव्य को गुण पर्यायवत् माननेवाली परिभाषा ।
१. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० ८७-८८ २. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र० ५.२९ ३. गुणपर्यायवद्रव्यम् । तत्त्वार्थसूत्र० ५.३७ ४. गुणपर्यायवद्रव्यम् । तत्त्वार्थसूत्र ५.३७ ५. द्रव्य-गुण-पर्याय और उनका सम्बन्ध, श्रमण० अक्टूबर-दिसम्बर ९२
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन उनके अनुसार उत्तराध्ययन जैसे प्राचीनतम आगम में द्रव्य को गुणों के आश्रय के रूप में ही परिभाषित किया गया है । उसमें "गणानामा-सवो दव्वो" कहकर ही द्रव्य को परिभाषित किया गया है ।
प्रो० जैन के अनुसार यह परिभाषा न्यायदर्शन से प्रभावित है। क्योंकि न्याय दार्शनिक भी द्रव्य को गुण का आश्रय मानते हैं । इस परिभाषा में द्रव्य
और गुण में आश्रय-आश्रयी भाव परिलक्षित होता है और इस प्रकार दोनों में भिन्नता भी परिलक्षित होती है ।२ ।।
इस परिभाषा के विरोध में जैन परम्परा में जो दूसरी परिभाषा आई वह "गुणानां समूहो दावो" है । जिसमें द्रव्य को गुणों के समूह के रूप में व्याख्यायित किया गया । इस परिभाषा में प्रो० जैन के अनुसार बौद्ध दर्शन के स्कन्धवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है । यह परिभाषा द्रव्य और गुण की अभिन्नता को सूचित करती है और यह बताती है कि गुण से भिन्न द्रव्य की कोई पृथक् सत्ता नहीं होती है । यह परिभाषा मुख्य रूप से दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध होती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ प्रथम वर्ग की परिभाषा द्रव्य और गुण में भेद-दृष्टि को समक्ष रखकर बनी वहाँ दूसरी परिभाषा में द्रव्य और गुण के अभेद पक्ष पर अधिक बल दिया गया । प्रो० जैन के अनुसार भेद और अभेद दोनों पक्षों पर समान रूप से बल देनेवाली तथा जैनों की अनेकान्तदृष्टि का अनुसरण करनेवाली जो द्रव्य की सन्तुलित और समन्वित परिभाषा हमें मिलती है वह उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र की है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में गुण पर्यायवत् द्रव्यम् कहकर गुण के साथ-साथ पर्याय को भी द्रव्य की परिभाषा में स्थान दिया, इस प्रकार से द्रव्य के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील दोनों पक्षों को अपनी परिभाषा में समन्वित करने का प्रयास किया है। दूसरी विशेषता यह है कि उमास्वाति ने द्रव्य को गुण पर्यायवाला
१. उत्तराध्ययनसूत्र० २८.६ . २. क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् । वैशेषिकसूत्र० १.१.५
३. तत्त्वार्थसूत्र० ५.३७
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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध
१२१ कहकर उनमें कथञ्चित् भिन्नता और कथञ्चित् अभिन्नता दोनों का ही कथन कर दिया है । इस प्रकार उमास्वाति ने जैनदर्शन की अनेकान्तदृष्टि को लक्ष्य में रखकर द्रव्य की एक समीचीन एवं संतुलित परिभाषा प्रस्तुत की है। उमास्वाति के परवर्ती जैन आचार्यों ने बाद में उन्हीं का अनुसरण किया है । स्वयं मल्लवादी क्षमाश्रमण ने अपने ग्रन्थ द्वादशारं नयचक्रं में उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त सूत्र को उद्धृत करके उन्हीं के पक्ष का प्रस्तुतीकरण किया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में द्रव्य की परिभाषा को लेकर एक क्रमिक विकास देखा जाता है । किन्तु अन्त में उमास्वाति के द्वारा प्रस्तुत द्रव्य की विकसित परिभाषा ही उनके परवर्ती सभी जैनदार्शनिक आचार्यों के लिए आधारभूत रही है । सिद्धसेन दिवाकर२ और मल्लवादी क्षमाश्रमण ने भी इसी परिभाषा को अपना आधार बनाया है।
जैन आचार्यों ने द्रव्य की जो उपर्युक्त परिभाषा दी है उसकी विशेष मान्यता यह है कि द्रव्य, गुण और पर्याय अन्योन्याश्रित हैं ।४ द्रव्य से विभक्त गुण और पर्याय नहीं है । तथा गुण और पर्याय से विभक्त द्रव्य भी नहीं है । वस्तुतः जो द्रव्य है वह गुण-पर्यायात्मक है । ऐसा नहीं है कि गुण और द्रव्य अथवा गुण और पर्याय अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं । हम उनमें ज्ञानात्मक-दृष्टि से तो भेद कर सकते हैं किन्तु सत्तात्मक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। संसार में कोई भी ऐसा द्रव्य उपलब्ध नही हो सकता जिसका कोई गुण या पर्याय नहीं हो । इसी प्रकार कोई भी गुण या पर्याय द्रव्य से विभक्त होकर नहीं पाये जाते । यही कारण है कि द्रव्य के बिना गुण और पर्याय की, तथा गुण और पर्याय के बिना द्रव्य की व्याख्या करना सम्भव नहीं है । द्रव्य, गुण और पर्याय का विश्लेषण तो अलग-अलग किया जा सकता है किन्तु उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १७ २. सन्मति-प्रकरण १.१२ ३. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १७ ४. दव्वं पज्जवनियुतं दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि ।
उत्पाद-द्विति-भंगा हंदि दवियलक्खण एयं ।।
सन्मति-प्रकरण १.१२
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१२२
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन है । यदि हमें द्रव्य के स्वरूप को समझना है तो गुण और पर्याय के स्वरूप को समझना आवश्यक है । और इसी प्रकार गुण और पर्याय के स्वरूप को समझने के लिए द्रव्य का स्वरूप समझना आवश्यक है क्योंकि इन तीनों की सत्ता सापेक्ष है । यही कारण है कि जैनदार्शनिकों के अनुसार गुण और पर्याय से निरपेक्ष द्रव्य की और द्रव्य से निरपेक्ष गुण और पर्याय की कोई व्याख्या नहीं की जा सकती है ।
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सप्तम अध्याय
क्रियावाद-अक्रियावाद
भारतीय दार्शनिक परम्परा में प्राचीन काल में विभिन्न दर्शनों और धर्मों को निम्न चार वर्गों में विभाजित किया जाता था :
(१) क्रियावाद (२) अक्रियावाद (३) विनयवाद (४) अज्ञानवाद'
जैन आगम-साहित्य में सूत्रकृतांग में इन चारों वर्गों का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। इसके पश्चात् भगवतीसूत्र आदि आगम ग्रन्थों में भी इन चारों ही दर्शन-परम्पराओं का उल्लेख कुछ विस्तार के साथ मिलता है । परवर्ती जैन साहित्य में इनके विविध भेदों और उनके प्रतिपादक आचार्यों के
१. चउविहा समोसरणा पण्णत्ता, तं जहा-किरियावादी ।
अकिरियावादी, अण्णाणिवादी, वेणइयवादी ।। भग० ३०११, स्था० ४।४।३४५, सर्वार्थसि०
८१ २. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति ।
किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अण्णाणमाहंसु. चउत्थमेव ॥ सूत्रकृतांगसूत्र २।१ ३. भगवतीसूत्र ३०।१, स्था० ४।४।३४५, नन्दीसू० ४६
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
भी उल्लेख मिलते हैं । विशेषरूप से सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन गणि ने तत्त्वार्थसूत्र भाष्य की टीका में इन विभिन्न वर्गों के आन्तरिक भेदों एवं उनके प्रतिपादक आचार्यों का वर्णन किया है । दिगम्बर परम्परा में भी धवला टीका और अंग प्रज्ञप्ति में उन्हीं के आधार पर इन वर्गों एवं उनके आचार्यों का वर्णन किया है ।
जहाँ तक समालोच्य ग्रन्थ द्वादशार - नयचक्र का प्रश्न है इस ग्रन्थ में आचार्य मल्लवादी ने अज्ञानवाद और क्रियावाद का उल्लेख किया है । ३ द्वादशार- नयचक्र की टीका में सिंहसेन सूरि इन चारों वर्गों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि जो सात प्रसिद्ध नय हैं उनके एक-एक के सौ-सौ भेद करके सात सौ भेदों का उल्लेख आर्ष-दर्शनों में मिलता है । उन्हीं को संक्षेप में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद ऐसे चार विभागों में विभाजित किया गया है । यहाँ ज्ञातव्य है कि जहाँ आगमिक परम्परा इन चार वर्गों का उल्लेख करके इनमें क्रियावादियों के १८० भेद, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७, तथा विनयवादियों के ३२ प्रकारों का उल्लेख करके
१. तत्र क्रियावादिनो शीत्युत्तरशतभेदाः मरीचि - कुमार - कपिलो ल्लक- गार्ग्य-व्याघ्रभूतिबाद्वलि - माठर-मौद्गल्यायन प्रभृत्याचार्य प्रतीयमान प्रक्रिया भेदाः ।
अक्रियावादिनो पि चतुरशीतिविकल्पाः कोकुल-काण्ठेविद्धि-कौशिक - हरिश्मश्रुमान्यधनिक- रोमक- हारित - मुण्डा - श्वलायनादि स्वरि प्रथितप्रक्रियाकलापाः । वैनयिकास्तु द्वात्रिंशद्विकल्पाः वसिष्ठ - पराशर जातूकर्ण - वाल्मीकि रोमहर्षणि सत्यदत्तव्यासेलापुत्रौ - - पमन्य - चन्द्रदत्ता -यस्थूल प्रभृतिभिराचार्यैः प्रकाशित विनय साराः । शाकल्य- बाष्कल - कुथुमि- सात्यमुग्रि-राणायन - कः - मध्यन्दिनमोद - पिप्पलाद्- बादरायण-स्विष्टकृद्-नि- कात्यायन- जैमिनी - वसुप्रभृतयः सूरयो सन्मार्गमेनं प्रथयन्ति ।
- तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- स्वोपज्ञभाष्य टीकालङ्कृतम्, द्वितीय भागः पृ० १२३ २. अंग पण्णत्ति, पृ० ४४-४६
३. द्वादशारं नयचक्रं प्रथम द्वितीय अर
४. नयानामेकैकस्य शतधा भेदात् सप्तनयशतानि आर्षे व्याख्यायन्ते तेषां पुनश्चतुर्धा संक्षेपः क्रिया क्रिया- क्रिया- ज्ञान - विनयवाद समवसरण - वचनात् तत्रोक्तः । द्वादशारं नयचक्रं टीका, पृ० १११-११२
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क्रियावाद-अक्रियावाद कुल ३६३ भेदों का उल्लेख करते हैं । आचार्य सिंहसूरि ने सात सौ नयों की परम्परा का उल्लेख करके उन्हें उपर्युक्त चार भेदों में विभाजित किया है । यद्यपि उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट नहीं किया है कि क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा विनयवाद इन चारों में प्रत्येक के उपभेद कितने-कितने होते हैं ? पुनः हम यह भी देखते हैं कि आचार्य मल्लवादी ने अपनी योजना में इनके क्रम में भी अन्तर किया है। वे सर्वप्रथम अज्ञानवाद की स्थापना करके फिर क्रियावाद के द्वारा उसकी समीक्षा करवाते हैं और बाद में क्रियावद की स्थापना करते हैं।
क्रियावाद और अक्रियावाद की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें इस प्रश्न पर विचार कर लेना होगा कि क्रियावाद और अक्रियावाद इन शब्दों का अर्थ क्या है ? आचार्य मल्लवादी ने उन्हें किस अर्थ में प्रयुक्त किया है ?
सूत्रकृतांग, जिसमें सर्वप्रथम इन चारों वर्गों का उल्लेख मिलता है ।२ उसकी टीका में शीलांकाचार्य (५वीं शती) क्रियावाद को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि परलोक साधना में, आत्मसाधना में क्रिया उपयोगी है ऐसा माननेवाले क्रियावादी कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो जो साधना के क्षेत्र में ज्ञान की अपेक्षा विविध क्रियाओं को या साधना की विभिन्न विधियों को ही प्रमुखता देते हैं, वे क्रियावादी हैं । औपनिषदिक परम्परा में हम देखते हैं कि प्राचीन काल में ज्ञान-निष्ठा और कर्मनिष्ठा ऐसी दो परम्पराएँ प्रचलित थीं। ज्ञानवादी परम्परा यह मानकर चलती थी कि मोक्ष की साधना में ज्ञान ही एकमात्र साधन है । इसके विपरीत कर्मवादी परम्परा या क्रियावादी परम्परा मोक्ष की साधना में क्रिया या आचरण को आवश्यक मानती थी । आचार्य
ता।
१. असियसयं किरियाणं अकिरियाणं च होइ चुल सीती । अन्नाणिय सत्तट्ठी, वेणइयाणं च बत्तीसा ।।
सूत्र० नि० गा० ११९ सूअगडे णं असीअस्स किरियावाइसयस्स चउरासीइए अकिरिआवाईणं सत्तट्ठीए
अण्णगिअवाईणं बत्तीसाए वेणइअवाईणं तिण्हं तेसट्ठाणं पासंडिअसयाणं ॥ नन्दीसू० ४६ २. सूत्रकृतांग सूत्र १२।१ ३. क्रियैव परलोक साधनायालमित्येवं वदितुं येषां ते क्रियावादिनः ।
दीक्षातः एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमपरेषु ॥ सू० कृ० । श्रु० ६अ०
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
शीलांक ने सूत्रकृतांग की टीका में स्पष्ट लिखा है कि संयम ग्रहण करके और आचार मार्ग का पालन करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । दूसरे शब्दों में क्रिया के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसको स्पष्ट करते हुए पुनः उन्होंने सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के तृतीय अध्ययन की टीका में लिखा है कि ज्ञानादि से रहित क्रिया ही एकमात्र स्वर्ग या अपवर्ग का साधन है, ऐसा माननेवाले ही क्रियावीद हैं ।२ क्रियावाद को मिथ्यादर्शनों के वर्ग में समाहित किया जाता है । ३ क्योंकि वह ज्ञान की उपेक्षा करके मात्र क्रिया से ही स्वर्ग या अपवर्ग की प्राप्ति को मान्य करता है । जैन दार्शनिकों का क्रियावाद को मिथ्यादर्शन के वर्ग में समाहित करने का जो कारण है वह उसका एकान्त रूप से क्रिया को ही मोक्ष मार्ग मान लेना है । जैनदर्शन एकान्तवाद का विरोधी है और एकान्तवादी दृष्टिकोण को मिथ्या मानते हैं । इस प्रकार क्रियावाद को स्पष्ट किया है ।
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि न मात्र ज्ञान से मुक्ति होती है और न ही मात्र क्रिया से मुक्ति होती है । क्रिया आवश्यक है किन्तु उसका ज्ञान से युक्त होना उतना ही आवश्यक है । ४ ज्ञान से रहित क्रिया और क्रिया से रहित ज्ञान दोनों ही मोक्ष के साधन नहीं माने गए हैं । इस सम्बन्ध में आगमिक साहित्य में विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । यहाँ हम उसे अति संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे ।
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि कुछ विचारक मानते हैं कि पाप
१. वही, श्रु० ६ अ० ।
२. ज्ञानादिरहितां क्रियामेकामेव स्वर्गापवर्ग साधनत्वेन वदितुं शीलवत्सु । सूत्र० २ श्रु० ३
अ० ।
३.
तत्र सम्यग्दर्शनात् विपरीतं मिथ्यादर्शनम् । तद्द्द्विविधम् अभिगृहीतमनभिगृहीतं च । तत्राभ्युयेत्यासम्यग्दर्शनपरिग्रहः अभिगृहीतमज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्ठीनां कुवादिशतानां, शेषमनभिगृहीतम् । तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, स्वोयज्ञभाष्य - टीकालङ्कृतम्, पृ० १२२
४. ये यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिए माहणो भिक्खुए सिया । अभिनूमकडेहिं मुच्छिए, तिव्वं से कम्मेहिं किच्चती ॥ अह पास विवेगमुट्ठिए, अवितिण्णे इह भासती ध्रुवं । णाहिसि आरं कतो परं, वेहासे कम्मेहिं किच्चती ॥
• सूत्रकृतांगसूत्र ० २ १, ७-८
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क्रियावाद-अक्रियावाद
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का त्याग किए बिना ही मात्र आर्यतत्त्व को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है, लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करनेवाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं । पुनः कहा गया है कि अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा की शरणभूत नहीं होता । मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है ? असद् आचरण में अनुरक्त अपने आपको पण्डित माननेवाले लोग वस्तुत: मूर्ख ही हैं ।२
आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि आचार विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार नहीं होते । मात्र शास्त्रीय ज्ञान से, बिना आचरण से कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुंचा सकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप-संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । मात्र जान लेने से कार्य-सिद्धि नहीं होती । तैरना जानते हुए भी कोई कायचेष्टा नहीं करे तो डूब जाता है, वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है। जैसे चन्दन ढोनेवाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार-वाहक ही बना रहता है वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है, इससे उसे कोई लाभ नहीं होता ।
१. इहमेगे तु मन्नंति अपच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ता णं सव्वदुक्खा विमुच्चई ।।
मणंता अकरेंता य बंध-भोक्खपइन्निणों । वायाविरिपमेत्तेणं समासासेंति अप्पयं ॥
उत्तराध्ययनसूत्र-६.८-९ २. न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं ?
विसंत्रा पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ॥ वही० ६-१० ३. जह छेयलद्वनिज्जामओ वि, वाणियगइच्छियं भूमि ।
वाएण विणा पोओ, न चएई महण्णवं तरिउं ॥ तह नाणलद्वनिज्जामओ वि, सिद्धिवसहिं न पाउणइ । निउणो वि जीवपोओ, तवसंजममारुअविहूणो ॥ संसारसागराओ, उब्बुड्डो मा पुणो निबुड्डिज्जा ।
चरणगुणविप्पहीणो, बुड्डुइ सुबहुपि जाणंतो ॥ आवश्यकनियुक्ति० ९५-९७, पृ० १० ४. जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स ।
एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए। वही० श्लोक० १००, पृ० ११
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक-प्रसिद्ध अन्ध-पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञान चक्षुविहीन आचरण अन्धे के समान है । आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आचरण दोनों निरर्थक हैं और संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं । जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला अन्धा, अकेला पंगु इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है । भगवतीसूत्र में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है ।२
ज्ञान एवं क्रिया की आवश्यकता के विषय में डॉ० सागमल जी जैन का कहना है कि३ "ज्ञान एवं क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक हैं । ज्ञान और चारित्र दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और एकान्त होने के कारण जैनदर्शन की अनेकान्तवादी विचारणा के अनुकूल नहीं हैं ।" इस प्रकार ज्ञानवाद एवं क्रियावाद का विवेचन जैनदर्शन के आगमिक साहित्य में प्राप्त होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन आगमिक परम्परा में क्रियावादी विचारक वे माने जाते थे जो मोक्षमार्ग के रूप में क्रिया या आचार को महत्त्व
१. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पासंतो पंगुलो दट्ठो, धावमाणो अ अंधओ ॥ संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपाउत्ता नगरं पविट्ठा ॥
- वही० श्लोक० १०१-२, पृ० ११ २. भगवतीसूत्र० ८।१०।४१ ३. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा० र० डॉ० सागरमल
जैन, पृ० ३३
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करते थे। इसीलिए वे
क्रियावाद-अक्रियावाद
१२९ देते थे ।१ किन्तु क्रियावाद की यह व्याख्या नैतिक-दृष्टि या साधना-मार्ग की दृष्टि से ही की जाती थी । जैन दार्शनिक अपनी अनेकान्तवादी दृष्टि के आधार पर मोक्ष की प्राप्ति में ज्ञान और क्रिया दोनों को समानरूप से स्वीकार करते थे। इसीलिए वे क्रियावादियों को भी मिथ्यादृष्टि के वर्ग में वर्गीकृत करते थे। किन्तु क्रियावाद का एक ऐसा भी अर्थ था जिसके आधार पर जैन-विचारक अपने को क्रियावादी वर्ग का सदस्य मानते थे । भगवती आदि में भ० महावीर ने स्वयं अपने को क्रियावादी कहा है । क्रियावाद का जो दूसरा अर्थ है वह अर्थ तत्त्वमीमांसा के आधार पर किया जाता है। स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में क्रियावादी आदि चार वर्गों का उल्लेख उपलब्ध होता है उसकी टीका में आचार्य अभयदेव क्रियावाद का अर्थ स्पष्ट करते हैं कि जीवादि पदार्थ सत् है ऐसा माननेवाले क्रियावादी हैं । इस प्रकार तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से जीवादि पदार्थों की सत्ता को स्वीकार करनेवाली दार्शनिक परम्पराएँ क्रियावाद के वर्ग में समाहित की जाती थीं । जो विचारक जीव और जगत् दोनों को ही सत् मानते थे वे दार्शनिक-दृष्टि से क्रियावादी वर्ग में समाहित किए जाते थे । यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि मात्र जीवादि पदार्थों के स्वीकार करने से ही कोई परम्परा क्रियावाद के अन्तर्गत नहीं आ जाती है । क्रियावाद के लिए जीव आदि पदार्थ की सत्ता को तो मानना ही होता है, किन्तु उसके साथ-साथ यह मानना भी आवश्यक है कि जीवादि पदार्थ में जो परिणाम या पर्याय होते हैं वे भी सत् हैं । इस प्रकार आत्मा बाह्यार्थ और उनकी विविध पर्यायों को जो दार्शनिक परम्पराएँ सत् .
१. सूत्रकृतांगसूत्र टीका । श्रु० ६ अ०, तथा २ श्रु०, ३ अ० २. नाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो ।
तिण्डंपि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ | - आवश्यकनियुक्ति० श्लो० १०३ ३. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, स्वोपज्ञभाष्य-टीकालंकृतम् पृ० ११२ ४. क्रियां जीवाजीवादिरों स्त्रीत्येवं रूपां वदन्ति इति क्रियावादिनः । स्था० ४.१.८.३
जीवादिपदार्थसद्भावो स्त्येवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनः ।. सूत्र० शी० १।१२ क्रिया कर्ता विना न सम्भवति, सा चात्मसमवायिनीति वदन्ति तच्छीलाश्च ये ते क्रियावादिनः । भगवती० अभ० ३०१
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन मानती हैं वे क्रियावाद के वर्ग में आती हैं । जैन दार्शनिक परम्परा जीव आदि पदार्थों और उनकी पर्यायों दोनों को सत् या वास्तविक मानती हैं और यही कारण है कि जैन दार्शनिक परम्परा को क्रियावाद के वर्ग में वर्गीकृत किया गया है एवं इसके विपरीत आत्मा को कटस्थ माननेवाले वेदान्त और सांख्य दार्शनिक परम्परा को अक्रियावाद में समाहित किया जा सकता है ।
समालोच्य ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र में आ० मल्लववादी और उनके टीकाकार सिंहसूरि ने क्रिया का अर्थ प्रवृत्ति और भाव माना है ।१ टीकाकार सिंहसूरि भाव का अर्थ स्पष्ट करते हुए भाव इति पर्यायकथनम् कह कर इस तथ्य को स्पष्ट कर देते हैं कि द्रव्य के साथ सत्य पर्याय या परिणमन को सत् माननेवाली परम्परा ही क्रियावद के वर्ग में आती है ।२ आ० मल्लवादी ने क्रियावाद. के दो विशेषण दिए-प्रवृत्ति और भाव । यहाँ प्रवृत्ति से तात्पर्य कर्ममार्ग या आचार पक्ष से है और भाव से तात्पर्य पर्याय से है । इस प्रकार आ० मल्लवादी के अनुसार क्रियावाद वह दार्शनिक परम्परा है जो तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से द्रव्य और पर्याय दोनों को यथार्थ या वास्तविक मानती है। जो दार्शनिक आत्मा आदि पदार्थ को सत् मानकर भी यदि उनकी पर्यायों को अर्थात् उनके परिणमन को सत् नहीं मानते हैं, अक्रियावादी वर्ग में समाहित किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जो परिणामवाद को स्वीकार करते हैं वे क्रियावादी हैं और जो विवर्तवाद को स्वीकार करते हैं वे अक्रियावादी हैं अथवा जो कूटस्थ आत्मवादी हैं वे आत्मा या पुरुष के सन्दर्भ में परिणमन को स्वीकार न करने के कारण अक्रियावादी ही हैं ।
। दूसरे आ० मल्लवादी ने क्रिया का अर्थ प्रवृत्ति किया है। प्रवृत्ति-मार्ग और निवृत्ति-मार्ग अति प्राचीन परम्पराएँ हैं । प्रवृत्ति-मार्ग के अन्तर्गत् वे परम्पराएँ आती १. प्रवृत्तिः क्रिया भावः । द्वादशारं नयचक्रं पृ० ३७८ २. . तथाभवनविनाभूतसन्निधिवस्तुत्वव्यक्तिः क्रिया, तेन प्रकारेण पचिपठिगम्यादिना भवनं
तथाभवनम्, तेन भवनेन विनाभूतः सन्निधिः शक्तिमान् मात्रावस्था शक्त्यनभिव्यक्तिर्यस्य वस्तुनस्तत् तथाभवनविनाभूतसन्निधिवस्तु, तस्य भावो वस्तुत्वम्, तद्व्यक्ति: वस्तुशक्त्यभिव्यक्तिः क्रिया इत्येतत् क्रियालक्षणम् । प्रवृत्तिः क्रिया भाव इति पर्यायकथनम् । द्वादशारं नयचक्रं टीका० पृ० ३७८
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क्रियावाद-अक्रियावाद
१३१ हैं जो कर्मकाण्ड या आचार पक्ष पर अधिक बल देती हैं । आ० मल्लवादी क्रियावाद को प्रवृत्ति-मार्ग के रूप में व्याख्यायित करके यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे सभी परम्पराएँ जो मोक्षमार्ग के रूप में क्रिया, प्रवृत्ति या कर्म पर बल (आचरण) देती हैं वे सब क्रियावादी हैं । यही कारण था कि आ० मल्लवादी ने द्वादशार-नयचक्र के प्रथम और द्वितीय अर में मीमांसकों को अपने क्रियावाद के कारण ही स्थान दिया है । ज्ञानमार्ग के स्थान पर कर्ममार्ग का चयन करने के कारण मीमांसकों को प्रथम अज्ञानवादी वर्ग में समाहित करते हुए उनको प्रथम अर में समाविष्ट कर लिया गया है। किन्तु द्रव्य और पर्याय दोनों को सत् रूप में स्वीकार करने के कारण उनको दूसरे अर में भी समाहित किया गया है।
संक्षेप में आ० मल्लवादी के अनुसार यह कहा जा सकता है कि क्रियावाद वह विचारधारा है जो आचारमीमांसा की दृष्टि से प्रवृत्ति, कर्मकाण्ड
और आचार के नियम के पालन को ही मोक्षमार्ग मानती है, जबकि तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से वह विचारधारा जो द्रव्य की सत्ता को स्वीकार करने के साथ-साथ उसे परिणाम मानती है । दूसरे शब्दों में जो द्रव्य और क्रिया दोनों को सत् मानती हैं वह क्रियावादी परम्परा है।
परिणामवाद को स्वीकार करने का फलित यह हुआ कि जो दर्शन आत्मा को शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और उसके फलों का भोक्ता मानते हैं वे भी क्रियावादी वर्ग में समाहित किए गए हैं। दूसरे शब्दों में आत्म-कर्तृत्व भोक्तृत्व माननेवाले दार्शनिक क्रियावादी हैं । आ० मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र के चतुर्थ अर में इसी रूप में क्रियावादियों का विस्तार से उल्लेख किया है जिसकी चर्चा हम निम्नलिखित ढंग से कर रहे हैं :
. आ० मल्लवादी ने आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व की इस चर्चा को जैन कर्म-सिद्धान्त के साथ समायोजित करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि सभी प्राणी अपने स्वकर्मों से युक्त होकर ही उत्पन्न होते हैं तथा उन पूर्व निषेध कर्मों के आधार पर ही कर्म करते हैं न कि स्व इच्छानुसार क्योंकि
१. स्वकर्मयुक्त एवायं सर्वो प्युत्पद्यते नरः ।
स तथा क्रियते तेन न यथा स्वमिच्छति ॥ .
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३३६
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
व्यक्ति की इच्छा और वर्तमान शरीर और इन्द्रियक्षमता का निर्धारण भी कर्मों के आधार पर ही होता है । वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि प्राणियों की शुभाशुभ जाति, कुल, रूप, उत्कर्ष, अपकर्ष कर्म के वशीभूत हैं ।२ इसका तात्पर्य हुआ कि आ० मल्लवादी की दृष्टि में आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता
और उसका भोक्ता है । सभी प्राणी कर्मों के कर्ता होने से अपने भाग्य के विधाता हैं और उसी रूप में वह ईश्वर भी है ।३ आत्म कर्तृत्ववाद की आ० मल्लवादी की इस स्थापना को स्पष्ट करते हुए टीकाकार सिंहसूरि कहते हैं कि नैतिक व्यवस्था के लिए आत्मा को नित्य तथा कर्मों को कर्ता एवं भोक्ता मानना होगा। यदि नित्य आत्मा को नहीं माना जायेगा तो कृतप्रणाश कर्जन्तरफलभोग के दोष उत्पन्न होंगे साथ ही यदि हम आत्मा का कर्ता एवं भोक्ता नहीं मानेंगे तब प्राणियों के सदाचार और असदाचार के आधार पर फल व्यवस्था नहीं बनेगी और इस प्रकार प्राणी के हिताहित की प्राप्ति का भी परिहार हो जायेगा अर्थात् कहने का कोई अर्थ नहीं रहेगा कि यह करना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए । दूसरे शब्दों में नैतिकता के उपदेश देनेवाले शास्त्रों की निरर्थकता का प्रश्न आयेगा । अतः आत्मा न केवल कर्म का कर्ता है अपितु स्वकृत कर्म के विपाक का भोक्ता भी है यह मानना होगा । यदि आत्मा को कर्त्ता और भोक्ता न मानकर कूटस्थ नित्य या अपरिणामी माना जायेगा तो फिर बन्धन, मोक्ष आदि की सम्भावना भी नहीं रहेगी ।५
१. कर्मवशादेव हि प्राणिनः शुभाशुभजातिकुलरूपाद्युत्कर्षापकर्षाः । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३३५ २. सुखाद्यात्मसंवेद्यलक्षणत्वात् कर्मणः सुखाद्यदृष्टाणूनामपि च कर्मत्वात् कर्मप्रवर्तनाभ्यु
पगमात् ॥ वही० पृ० ३३५ ३. सर्वप्राणिनां कर्तृत्वात् कर्तृरव भवितृत्वाभ्युपगमात् तस्यैव भवितुश्च प्रयोजनात् सर्वेश्वरता ।
वही० पृ० ३३६ ४. मा भूवननकृताभ्यागमकृतप्रणाशकत्रन्तरफलसङक्रान्त्यादयो दोषा इति सदसदाचारा:
प्राणिनः एव कर्त्तारो भोक्तारश्चाभ्युपगन्तव्याः, अन्यथा हिताहितप्राप्ति परिहारार्थानां शास्त्राणामानर्थक्य प्रसंगात् । ततः कतुरेव भवितृत्वाभ्युपगमात । क: कर्ता ? य: स्वतन्त्रः । यः स्वतन्त्रो भविता पि स एव । वही० टीका० पृ० ३३६ नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ न पुणपापे न च बन्धमोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैविलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥२७॥ स्याद्वाद-मंजरी० पृ० ३०१
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क्रियावाद - अक्रियावाद
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मात्र इतना ही नहीं यदि हम कर्म विपाक को ईश्वर आदि किसी अन्य के अधीन मानेंगे तो न केवल पुरुषार्थवाद की हानि होगी अपितु ईश्वर के स्वरूप में भी हानि होगी । यदि ईश्वर किसी व्यक्ति को शुभाशुभ फल अपनी इच्छा के अनुसार प्रदान करेगा तो फिर फल संकटता का प्रसंग उपस्थित होगा और ईश्वर अन्यायी सिद्ध होगा । यदि वह प्राणियों के कर्मों के आधार पर ही उनके शुभाशुभ कर्मों का फल देता है ऐसा माना जायेगा तो ईश्वर की स्वतन्त्रता खण्डित हो जायेगी । दूसरे शब्दों में कर्म और उसके फलभोग के बीच ईश्वर आदि किसी अन्य तत्त्व की उपस्थिति भी समुचित प्रतीत नहीं होती है । आत्मा स्वतः अपने शुभाशुभ कर्म का कर्त्ता और उसके फल का भोक्ता है? यही अवधारण एक ऐसी अवधारणा है जो नैतिक व्यववस्था के लिए आवश्यक और इसी के आधार पर बन्धन और मोक्ष की अवधारणा को सम्यक् प्रकार से समझाया जा सकता है ।
अक्रियावाद
क्रियावाद से भिन्न दूसरी अवधारणा अक्रियावाद कहलाती है । अक्रियावाद की तात्विक विवेचना करते हुए सूत्रकृतांग टीका में कहा गया है जो जीवादिक पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं वे वादी अक्रियावादी कहलाते हैं । इसी आधार पर सूत्रकृतांग की ही टीका में चार्वाक, बौद्ध आदि को भी अक्रियावाद में समाहित करते हैं । दूसरे शब्दों
१. आद्यन्तवद् मध्ये पि ईश्वर प्राधान्यादीश्वरवशाद् प्रवृत्तौ फलसंकर प्रसंगः, तत्प्रसक्तौ क्रियाविलोप:, ततश्च सर्वनिर्मोक्षः सर्वानिमोक्षो वा । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३४३ २. मनसा वाचा कायेन वापि युक्तस्य वीर्यपरिणामः । जीवस्यात्मनि यः खलु स योगसंज्ञो जिनैईष्टः || तेजोयोगाद् यद्वद् रक्तत्वादिर्घटस्य परिणामः । जीवकरणप्रयोगे वीर्यमपि तथात्मपरिणामः ॥ जोगेहि तदणुरूवं परिणमयति गेण्हितूण पंचतणू | पाउग्गे वालंबति भासाणमणत्तणे खंधे || कर्मप्र० गा० १७ ३. नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवं वादिषु ।
४. ते चार्वाक - बौद्धादयो क्रियावादिन एवमाचक्षते ।
द्वा० न० टीका० पृ० ३४९
सूत्रकृतांग श्रु० १ अ० १२ वही० श्रु० १, अ० १२
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
में जो नित्यद्रव्य की अवधारणा का निषेध करता है वह अक्रियावादी है किन्तु सूत्रकृतांग की उपर्युक्त परिभाषा में समस्त अक्रियावादियों को समाहित करपाना संभव नहीं है। इसलिए भगवतीसूत्र के २९वें शतक की टीका में अभयदेव ने अक्रियावाद की व्याख्या करते हुए कहा है कि जीवादि पदार्थों में क्रियारूप नहीं है ऐसा माननेवाले अक्रियावादी हैं । दूसरे शब्दों में जीवादि पदार्थ स्वीकार करके भी उनमें परिणाम को स्वीकार नहीं करते हैं अर्थात् आत्मा को कूटस्थ नित्य या अपरिणामी मानते हैं वे भी अक्रियावाद के वर्ग में आते हैं । अक्रियावद की ये व्याख्याएँ तत्वमीमांसीय दृष्टिकोण के आधर पर की गई हैं। इसे स्पष्ट करते हुए स्थानांग की टीका में अभयदेव ने लिखा है कि अस्तिरूप सकल पदार्थों में व्याप्त क्रिया को स्वीकार करनेवाले क्रियावादी हैं उसके विपरीत सकल पदार्थों में क्रिया या परिणमन को स्वीकार नहीं करते हैं वे अक्रियावादी कहलाते हैं । वस्तुतः क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही एकान्तिक दृष्टियाँ हैं। क्रियावाद को स्वीकार करने पर वस्तु के उत्पाद और व्यय इन दो पक्षों की व्याख्या तो हो जाती है किन्तु उसका ध्रौव्य पक्ष उपेक्षित रह जाता है । दूसरी ओर अक्रियावाद मानने पर वस्तु का ध्रौव्य पक्ष तो उपस्थित होता है किन्तु उत्पाद और व्यय पक्ष उपेक्षित रह जाते हैं इसलिए क्रियावाद और अक्रियावाद दोनों ही मिथ्यादृष्टि की कोटि में चले जाते हैं ।
ये अक्रियावादी कौन थे इसकी चर्चा के प्रसंग में स्थानांगसूत्र की टीका में प्राचीन आगम का एक सन्दर्भ उद्धृत किया है । वहाँ कहा गया है कि अक्रियावादी आठ प्रकार के हैं । एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निमित्तवादी, शाश्वतवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी और परलोक नहीं है ऐसा
१. अक्रियां क्रियाया अभावं वदन्ति तच्छीला अक्रियावादिनः । न कस्यचित्प्रतिक्षणमनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति उत्पन्यनन्तरमेव विनाशादित्येवं वदत्सु ।
-भगवती०१ २. क्रिया अस्तीतिरूपा सकल पदार्थ सार्थव्यापिनी, सैवा यथावस्तु विषयतया कुत्सिता
अक्रिया, नग्नः कुत्सार्थत्वात्, तामक्रियां वदन्तीत्येवंशीला अक्रियावादिनः । यथावस्थितं ही वस्तु अनेकान्तात्मकं, तन्नास्त्येकात्तात्मकमेव वस्त्विति प्रतिपत्तिमत्सु नास्तिकेषु । स्था० ठा० ८
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क्रियावाद-अक्रियावाद
१३५ मानेवाले । ये सभी अक्रियावादी हैं ।१. दूसरे शब्दों में तत्त्व की सत्ता को स्वीकार करके भी जिन मान्यताओं के कारण उसमें क्रिया या परिणमन संभव न हो वे सभी अक्रियावादी वर्ग में चले जाते हैं । वस्तु को कूटस्थ मानने पर और उसको क्षणिक मानने पर भी क्रिया सम्भव नहीं है । इसलिए दोनों ही अक्रियावाद के वर्ग में समाहित होते हैं । चाहे फिर वे अद्वैतवादियों के समान एक तत्त्व को मानते हों या सांख्य आदि के सामन अनेक तत्त्व मानते हों या फिर चार्वाक आदि के समान परलोक आदि का अस्वीकार करते हों ।।
एक अन्य अर्थ में जो आत्म-साधना या चित्त-शुद्धि के लिए क्रिया के स्थान पर ज्ञान को ही महत्त्व देते हैं और शीलादि को महत्त्व नहीं देते हैं वे भी अक्रियावादी कहे गए हैं । भगवतीसत्र की टीका में अभयदेव ने समस्त ज्ञानवादियों को अक्रियावादी के वर्ग में ही समाहित किया है। सूत्रकृतांग की टीका में शीलांक ने यह कहा है कि वस्तु जैसी है वैसा ज्ञान हो जाने से ही मुक्ति हो जाती है उसके लिए सदाचार आदि की आवश्यकता नहीं है। जैसे सांख्यदर्शन के अनुसार २५ तत्त्वों को जान लेने से मुक्ति हो जाती है । अतः ज्ञानवादी परम्परा अक्रियावाद के वर्ग में समाहित की जाती है ।३
ते चाष्टः- अद्द अकिरियावादी पण्णत्ता तं जहाएक्कावादी, अणिक्कवाई, मितवादी, निमित्तवादी, सामवादी, समुच्छेदवादी, णियावादी, ण संति परलोगवादी । स्था० ठा० ४, ४३ तुलनीय-दीघनिकाय के सामंजफलसुत्त में भी (१) अक्रियावाद, (२) संसार शुद्धिवाद अथवा नियतिवाद, (३) उच्छेदवाद, (४) अन्योन्यवाद, (५) चातुर्यामसंवरवाद और (६) विक्षेपवाद जैसे वादों का उल्लेख मिलता है। आर्हत्-दर्शन दीपिका टिप्पण० पृ० ९८६ दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में भी आठ वादों के नाम पाए जाते हैं यथा(१) अमरा-विखेपिक, (२) सस्सतवादी, (३) एकच्चसस्सतवादी, (४) अंतानंतिक, (५) अधिच्चसमुप्पनिक, (६) उद्धमाद्यातनिक, (७) उच्छेदवादी एवं दिट्ठधम्मनिबानवादी।
- उद्धृत आर्हत दर्शन दीपिका० टिप्पण० ९८४ २. अक्रियैव परलोक साधनाया लमित्येवं वदितु शील येषान्ते क्रियावादिनः । ज्ञानवादिषु
अक्रियावादिनो ये ब्रुवते किं कियया चित्तशुद्धिरेव कार्यया ते च बौद्धा इति० । भगवती०
आ० ३, । ३. तेषां हि यथा वस्थित वस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः । तथा चोक्तम् पंचविशतितत्त्वज्ञो, यत्र
।
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१३६
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन यदि संक्षेप में कहें तो जो तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में परिणमन को और साधना के क्षेत्र में क्रिया या आचरण को महत्व देते हैं वे विचारक क्रियावादी कहलाते हैं और उसके विपरीत वस्तुतत्त्व के परिणमन को नहीं मानते एवं एकान्तरूप से ज्ञानवाद में निष्ठा रखते हैं वे अक्रियावादी हैं ।
__ आ० मल्लवादी ने अपने द्वादशार-नयचक्र में क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही पक्षों का विचार किया है किन्तु दोनों ही नय या दृष्टिकोण एकांगी होने से अपनी समीक्षा के विषय भी बने हैं । जैनों के अनेकान्तवाद को दृष्टिगत् रखकर हम यह कह सकते हैं कि वस्तु का जो ध्रौव्य पक्ष है वह अक्रिया है और वस्तु का जो उत्पाद-व्यय पक्ष है वही क्रिया है। जो वस्तु में क्रिया और अक्रिया दोनों को स्वीकार करता है वह दर्शन ही सम्यक है । इसी प्रकार आचारमीमांसा की दृष्टि से जो साधना के क्षेत्र में ज्ञान को और निवृत्ति को प्रधानता देता है वह अक्रियावादी है और जो प्रवृत्ति और क्रिया को प्रधानता देता है वह क्रियावादी है । किन्तु मुक्ति न तो एकान्तरूप ज्ञान से संभव है और न चरित्र, आचरण या प्रवृत्ति से । सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ज्ञान और क्रिया से ही मोक्ष होता है। जो दोनों को स्वीकार करता है वही मुक्ति का अधिकारी बनता है । ज्ञान और क्रिया के समन्वय में मुक्ति है यही अनेकान्तदृष्टि है ।
तत्राश्रमे रतः । शिखी, मुण्डी, जटी वापि सिद्धयते नात्र संशयः ॥
सूत्र० श्रु० १, अ० ६. १. सूत्रकृतांगसूत्र १२।११-१४
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अष्टम अध्याय
सामान्य और विशेष की समस्या
सत्ता के दो पक्ष माने गए हैं । एक सामान्य और दूसरा विशेष । सामान्य सत्ता का वह पक्ष है जो उसे एक वर्ग में समाहित करता है। दूसरे शब्दों में वह व्यष्टियों में अनुस्यूत एकता या जाति का वाचक है । दूसरी ओर विशेष वह पक्ष है जो सत्ता के विविध रूपों को एक-दूसरे से पृथक् करता है ।२ सत्ता सामान्य है या विशेष इस प्रश्न को लेकर भारतीय दार्शनिकों में विविध दृष्टिकोण पाए जाते हैं। भारतीय चिन्तन में वेदान्त ने सत्ता को सामान्य माना और विशेष को मात्र प्रतीति या व्यवहार कहा ।३ इसी प्रकार शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि आदि भी सत्ता को स्वरूपतः सामान्य ही मानते हैं ।४ संक्षेप में कहें तो बौद्धों के अतिरिक्त जो भी अभेदवादी विचारक हैं उनके अनुसार सत्ता सामान्य ही है। इस सामान्यवाद के विरोध में बौद्ध दार्शनिकों
या समानां बुद्धि प्रसूते भिन्नेश्वधिकरणेषु यया बहूनीतरेतरतो न व्यावर्तन्ते यो ोनेकत्र प्रत्ययानुवृत्तिनिमित्तं तत्सामान्यम् । न्यायदर्शनम्, वात्स्या० २.२.७१ अन्योन्याभावविरोधिसामान्यरहितः समवेतः पदार्थ विशेषः । सर्व० पृ० २१७ औलू० विशेष: अत्यन्तव्यावृत्ति हेतुः न्यायकोशः पृ० ७८४ ३. वेदान्तवादिना च सामान्यमेव विषयो द्वयोः आत्माद्वैततया सर्वस्य एकत्वात् । उद्धृत
न्यायावतारवातिकवृत्ति० पृ० २५४ ४. अनुविद्धैकरूपत्वाद् वीचीबुद्रुदफेनवत् । वाचः सारमपेक्षन्ते शब्दब्रह्मोदकाद्वयम् । स्याद्वाद,
पृ० ९१, वही., पृ० २५४
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन का कहना है कि सामान्य काल्पनिक है, सत् विशेष रूप है । इस प्रकार भारतीय दर्शन में सत्ता सामान्य है या विशेष इस प्रश्न को लेकर वेदान्त और बौद्ध दर्शन परस्पर भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं । अन्य भारतीय दार्शनिकों ने या तो इन दोनों मतों का समन्वय करने का प्रायस किया है या फिर सत्ता में दोनों पक्षों को एक-दूसरे से स्वतन्त्र स्वीकार किया है।
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने भारतीय दार्शनिकों के सामान्य और विशेष के सन्दर्भ में निम्न पाँच दृष्टिकोणों का उल्लेख किया है -
१. बौद्धों का अवस्तुरूप सामान्यवाद (काल्पनिक सामान्यवाद) २. वैशेषिकों का भिन्नसामान्यवाद ३. सांख्यों का अभिन्नसामान्यवाद ४. मीमांसकों का भिन्नाभिन्न सामान्यवाद ५. जैनों का अनेकान्तात्मक सामान्यवाद
पण्डितजी के अनुसार, चार्वाकों का सामान्य के सन्दर्भ में क्या दृष्टिकोण था ? इसका निर्णय करना कठिन है क्योंकि उनके एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ तत्त्वोपप्लव में भिन्न, अभिन्न और भिन्नाभिन्न इन तीनों पक्षों को लेकर सामान्य का खण्डन किया गया है । हमारे आलोच्य ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र में भी इसी प्रकार सामान्य के भिन्न, अभिन्न और भिन्नाभिन्न इन तीनों प्रकारों का खण्डन पाया जाता है । वस्तुत: सामान्य का खण्डन करने की यह शैली बौद्ध-तर्कों के आधार पर खड़ी हुई है । बौद्ध दार्शनिक सामान्य को काल्पनिक मानते हैं। उनके अनुसार सामान्य मात्र प्रतीति है, हमें जो जाति की प्रतीति होती है वह वस्तुतः सामान्य नहीं अपितु अतद् व्याकृति या अन्यापोह ही है । बौद्धों के अनुसार संज्ञा भेदरूप है। उसमें एकरूपता की अनुभूति तो
१. न्यायावतारवातिकवृत्ति० पृ० २५१ २. वही० पृ० २५० ३. वही० पृ० २५० ४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११-२२
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सामान्य और विशेष की समस्या मात्र विजातीय तत्त्वों की व्याकृत्ति से होती है । इस प्रकार बौद्धों के अनुसार सामान्य वस्तु सत् नहीं है वह मात्र एक प्रत्यय है जिसका कोई विषय नहीं है। दूसरे शब्दों में सामान्य काल्पनिक है, हम मनुष्यों में एकत्व की अनुभूति करते हैं, किन्तु यह अनुभूति इस आधार पर नहीं होती की सब मनुष्यों में एकरूपता है। पशु आदि से भिन्न होने के कारण ही हम उसे मनुष्य मानते हैं। इस प्रकार सामान्य या जाति तो काल्पनिक ही है । बौद्धों के इस दृष्टिकोण के विरोध में अभेदवादी या अद्वैतावादी विचारकों का मत कहता है कि सत् सामान्य रूप है विशेष मात्र प्रतिभास है ।२ द्वादशार-नयचक्र में हमें वेदान्त के सामान्यवाद की कोई समीक्षा उपलब्ध नहीं होती किन्तु उसमें वैयाकरणिकों के सामान्यवाद का खण्डन किया गया है ।
सामान्यवादियों और विशेषवादियों के ऐकान्तिक सिद्धान्तों से ऊपर . उठकर कुछ भारतीय दार्शनिकों ने सामान्य और विशेष दोनों को ही स्वतन्त्र पदार्थ माना है । नैयायिक और वैशेषिक सामान्य और विशेष को वस्तुतत्व सत् मानते हैं । किन्तु उनके अनुसार सामान्य और विशेष एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् हैं सामान्य और विशेष दोनों की स्वतन्त्र सत्ता है। और जिस प्रकार विशेष की सत्ता प्रतीति के आधार पर सिद्ध होती है उसी प्रकार सामान्य की सत्ता भी प्रतीति के आधार पर सिद्ध होती है। वस्तु में सामान्य तत्त्व की उपस्थिति के कारण ही जाति की अनुभूति होती है । सामान्य के अभाव में जाति की अनुभूति नहीं होती । किन्तु जाति की अनुभूति होती है उसी प्रकार हमें विशेष, व्यक्ति या व्यष्टि की अनुभूति होती है । सामान्य वह तत्त्व है कि जो सभी मनुष्यों को एक ही वर्ग में रखता है और विशेष वह तत्त्व है जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से पृथक् करता है । इस प्रकार व्यक्ति और समष्टि वस्तुसत् है ।
सांख्य दार्शनिक नैयायिकों के समान ही सत्ता में सामान्य और विशेष
१. न्यायावतारवातिकवृत्ति० पृ० २५१ २. वही० पृ० २५४ ३. भावो नुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वं, गुणत्वं, कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च ।
वैशे० १.२.४-५
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन दोनों पक्ष स्वीकार करते हैं । किन्तु सांख्यों की विशेषता यह है कि वे सामान्य और विशेष को सत्ता से अभिन्न ही मानते हैं । आलोच्य ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में सांख्यों के इस दृष्टिकोण का उल्लेख सर्व सर्वात्मक के रूप में किया गया है। वे व्यक्ति अर्थात् परिणाम या विकार का प्रकृति या सामान्य से अभेद ही मानते हैं । इस प्रकार सामान्य और विशेष में विशेष की सत्ता का स्वीकार करते हुए भी सांख्य दार्शनिक उसमें अभेद की कल्पना करते हैं।२ भेद अभेद से पृथक् नहीं है या विशेष सामान्य से पृथक् नहीं है ।
इस प्रकार नैयायिकों के भिन्न सामान्यवाद के विरोध में सांख्यों का अभिन्न सामान्यवाद खड़ा हुआ है । मीमांसकों की स्थिति इस सम्बन्ध में इन दोनों ही विचारधाराओं से भिन्न है। मीमांसकों का भट्ट सम्प्रदाय सामान्य और विशेष का जाति और व्यक्ति में भेदाभेद मानता है। उसका कहना है कि जाति और व्यक्ति एक-दूसरे से पृथक् अपना अस्तित्व नहीं रखते हैं । किन्तु उसका अर्थ यह भी नहीं कि वह पूर्णतः अभिन्न है । कुमारिल ने भी वस्तु को सामान्य विशेषात्मक माना है । उनका कहना है कि सामान्य के अभाव में विशेष का और विशेष के अभाव में सामान्य का सद्भाव नहीं हो सकता; अतः वस्तु को सामान्य-विशेष उभयात्मक मानना चाहिए । मात्र इतना ही नहीं परन्तु सामान्य और विशेष को परस्पर भिन्नाभिन्न मानना चाहिए ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय चिन्तन में जहाँ एक ओर प्राचीन अद्वैतवादियों ने सत्ता को मात्र सामान्य रूप माना और विशेष या व्यक्ति को प्रतीति कहा उसके ठीक विपरीत बौद्धों ने सत्ता को मात्र व्यक्ति या विशेष माना और सामान्य को प्रतीति कहा । इन दोनों ऐकात्मिक दृष्टिकोणों में १. द्वादशारं नयचक्रं, टीका० पृ० ११-१२ २. सांख्यैस्तु....त्रैगुण्यरूपस्य सामान्यस्याभ्युपगमात् ।
न्यायप्र० पं० पृ० ७४ ३. निविशेष न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि ।।
श्लोकवार्तिक० आकृति० १० ४. सर्ववस्तुषु बुद्धिश्च व्यावृत्त्यनुगमात्मिका । जायते द्रव्यात्मकत्वेन विना सा च न सिद्धयति ।।
वही० ५ ५. तेन नात्यन्तभेदो पि स्यात्सामान्य विशेषयोः ।
वही० ११
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सामान्य और विशेष की समस्या
१४१ समन्वय के परिणाम स्वरूप तीन प्रकार के दृष्टिकोण सामने आए । न्यायवैशेषिकों ने सामान्य और विशेष को सत्भाव, किन्तु उन्हें एक-दूसरे से पृथक् स्वीकार किया अर्थात् उनमें परस्पर भेद की कल्पना की । इसके विपरीत सांख्यों ने सत्ता में व्यष्टि और समष्टि दोनों को स्वीकार करते हुए भी उनमें परस्पर अभिन्नता को स्वीकार किया और यह कहा कि व्यष्टि और समष्टि एक-दूसरे से विविक्त नहीं हैं । वे अभिन्न हैं । इन दोनों मतों के बीच पुनः एक समन्वय का प्रयास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप मीमांसकों का भिन्नाभिन्नवाद सामने आया । मीमांसकों ने सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार तो किया ही किन्तु उन दोनों को एकात्मक रूप से न तो भिन्न माना और न अभिन्न ही ।
जैनदर्शन की विशेषता यह रही है कि उन्होंने सामान्य और विशेष के स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उनके परस्पर भिन्नत्व, अभिन्नत्व और उभयत्व को अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से समीक्षा कर सभी की सापेक्षता को स्पष्ट किया । उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया की सामान्य और विशेष दोनों वस्तुतत्त्व से पृथक् सत्ता नहीं हैं अपितु उस सत्ता को समझने के विविध आयाम हैं ।१ प्रो० सागरम जैन का कथन है कि सामान्य और विशेष चाहे विचार की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हों किन्तु आनुभविक जगत् में पृथक्-पृथक् नहीं पाये जाते हैं । व्यक्ति से भिन्न न तो व्यक्ति या सामान्य की सत्ता है और न तो सामान्य से रहित किसी व्यक्ति की सत्ता है । मनुष्य-मनुष्य से पृथक् नहीं देखा जाता है और न कोई ऐसा मनुष्य ही है जो मनुष्यत्व से रहित होता हो । सत्ता या अस्तित्व सामान्य-विशेषात्मक है, इस प्रकार सामान्य और विशेष विचार की दृष्टि से एक-दूसरे से पृथक् होकर भी अनुभूति के स्तर पर अथवा अपने अस्तित्व की दृष्टि से वे एक-दूसरे से पृथक् नहीं पाए जाते हैं । और इसी लिए हमारे शब्द भी सामान्य विशिष्ट विशेष के ही ग्राहक होते हैं । 'गामानय' इस शब्द को सुनकर कोई श्रोता गोत्वान्वित गो विशेष को ही खोजता है और न गोविशिष्ट को खोजता है । इस प्रकार वस्तु-सत् न तो सामान्य है और न विशेष अपित सामान्य-विशेष उभयात्मक है साथ ही ये
१. स्वतो नुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावान भावान्तर नेयरूपाः ।
स्याद्वादमंजरी० पृ० १६
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
सामान्य- विशेष भी एक-दूसरे से न तो पूर्णतः भिन्न हैं और न तो अभिन्न ही, वैचारिक स्तर पर वे भिन्न होते हुए भी सत्तात्मक स्तर पर अभिन्न ही हैं । १
आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण ने सामान्य और विशेष की वस्तु-निरपेक्ष स्वसत्ता की न्याय-वैशेषिक दर्शन की अवधारणा की समीक्षा की है। वे प्रश्न उठाते हैं कि यदि सामान्य और विशेष को हम वस्तु-निरपेक्ष स्वतन्त्र सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं तो सामान्य को व्यापक मानना होगा। क्योंकि यदि सामान्य को व्यापक नहीं मानेंगे तो प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग सामान्य होने से वह विशेष हो जायेगा । आ० मल्लवादी इसी समस्या के प्रति प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि वह सामान्य अपनी जाति के घटादि व्यष्टि में रहता है या दूसरी जाति के पटादि व्यष्टि में भी रहता है ? यदि सामान्य अपनी जाति के सभी में व्यष्टि में व्यापक है ऐसा माना जायेगा तो उस जाति की सभी व्यष्टियाँ एक हो जायेंगी अर्थात् एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का और एक महिष से दूसरे महिष का अन्तर ही नहीं रह जायेगा । यदि यह मानें कि एक सामान्य सभी व्यष्टियों में अलग-अलग रहता है तो वह नानात्व या अनेकता को प्राप्त हो जायेगा तब फिर सर्व में एक और एक में सर्व का दोष आयेगा । दूसरे शब्दों में न्यायवैशेषिकों को सांख्य का मत स्वीकार करना पड़ेगा और इस प्रकार उनकी सामान्य सम्बन्धी अपनी अवधारणा में विरोध आ जायेगा |२
यदि इसके विपरीत यह माना जाए कि अनेक विषयों में रहनेवाले सामान्य अलग-अलग हैं तब भी तार्किक दोष आयेगा । क्योंकि यदि सब व्यष्टियों में अलग-अलग सामान्य हैं तो फिर घटादि एक ही जाति की वस्तुएँ एकरूप नहीं रह पायेंगी क्योंकि प्रत्येक व्यष्टि में अलग-अलग सामान्य होने से उनमें सामान्य का या जाति का ही अभाव हो जायेगा और सामान्य के अभाव में उनके आत्मत्व या स्वस्वरूप का भी अभाव मानना पड़ेगा । इस प्रकार वस्तु से पृथक् सामान्य को स्वीकार करने पर तार्किकरूप से अनेक समस्याएँ उत्पन्न होंगी । ३
१. जैनभाषा दर्शन० पृ० ४४-४६
२. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११-१२ ३. वही, पृ० १२-१३
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सामान्य और विशेष की समस्या
१४३ दूसरे शब्दों में सामान्य और विशेष की वस्तु से स्वतन्त्र अस्तित्व की न्याय-वैशेषिक दर्शन की अवधारणा तार्किकरूप से निर्दोष नहीं कही जा सकती है।
सांख्यदर्शन में वस्तु मात्र सर्वसर्वात्मक है अत: घटादि वस्तु सामान्यरूप ही है । आ० मल्लवादी यहाँ प्रश्न उपस्थित करते हैं कि सामान्य अपने स्वविषय अर्थात् अपनी ही जाति के सदस्यों में रहनेवाला है या दूसरी जाति के पर विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप भी है ? दूसरे शब्दों में सामान्य अपनी अपेक्षा से सामान्य है या पर की अपेक्षा से सामान्य है ? यदि सांख्यदर्शन के अनुसार यह माना जाता है कि प्रकृति एक ही है और वही घट-पटादि नाना रूप में परिणत होती है और वही प्रकृति सामान्य है ? तो ऐसी स्थिति में घटपटादि की भिन्नता समाप्त हो जायेगी। दूसरे शब्दों में सामान्य का जो जातिगत् स्वरूप है वही नष्ट हो जायेगा क्योंकि सांख्यदर्शन परिणाम और परिणामी में अभेद मानता है साथ ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और लय प्रकृति में मानता है। ऐसी स्थिति में सब प्रकृति ही है अर्थात् सर्व एक रूप है यह मान्यता प्रतिफलित होगी किन्तु ऐसा मानने पर सर्व एकरूप हो जायेगा
और सर्व एकरूप होने पर सामान्य का स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा क्योंकि विशेषों के अभाव में और विभिन्न जातिओं के अभाव में सामान्य का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । आ० मल्लवादी इसी तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा माना जाए कि घटादि पदार्थों में सामान्य अभेद से रहता है तो प्रश्न यह होगा कि क्या सामान्य अपनी जाति अर्थात् स्वस्वरूप को प्राप्त होकर रहता है ? या स्व और पर वर्गों के अपनी और अपने से भिन्न जाति के सभी पदार्थों में सामान्य स्वरूप को प्राप्त होकर रहता है ? यदि उसे अपनी जाति के
और अपने से भिन्न जाति के अर्थात् दोनों ही प्रकार के पदार्थों में स्थित मानेंगे तो फिर सामान्य का स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा और यदि उसे अपनी जाति के व्यष्टियों में स्थित माना जायेगा तो फिर उसकी एकरूपता की अर्थात् प्रकृति की एकरूपता की क्षति हो जायेगी । यदि हम सामान्य को अलग-अलग रूप से प्रत्येक व्यष्टि में स्थित मानते हैं तो भी सामान्य के वस्तुरूप बनने पर १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १३-१४
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन सामान्य का स्वरूप नष्ट हो जायेगा । यदि ऐसा मान भी लिया जाय की पदार्थ में और सामान्य में कोई भेद नहीं है क्योंकि लोकव्यवहार में राहोः शिरः ऐसा प्रयोग होता है अर्थात् अभेद के सम्बन्ध में भेद का व्यवहार किया जाता है किन्तु ऐसा मानने पर पुनः सर्वसर्वात्मकता का सिद्धान्त मानना होगा और ऐसी स्थिति में सामान्य और विशेष ये दोनों अवधारणाएँ निरर्थक ही सिद्ध होंगी । दूसरी बात यह है कि केवल सामान्य को मानने पर विशेष का अभाव हो जायेगा और विशेष का अभाव हो जाने पर यह इसके समान या यह इसकी जाति का है ऐसा व्यवहार भी नहीं बन पायेगा । वास्तविकता तो यह है कि सामान्य और विशेष की अवधारणाएँ परस्पर सापेक्ष हैं । सामान्य विशेष की अपेक्षा रखता है और विशेष सामान्य की । इन दोनों में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है अत: एक को स्वीकार करने पर दूसरे को भी स्वीकार करना होगा एवं एक पक्ष को स्वीकार करने पर दूसरे पक्षों की आपत्तियों का सामना करना ही पड़ेगा ।
यदि सामान्य को अपने से भिन्न दूसरे वर्ग या पर विषय में स्थित मानते हैं तो वह समान जाति के पदार्थों में न रहने के कारण सामान्य, सामान्य ही नहीं रह जायेगा क्योंकि वह भिन्न-भिन्न असमान जाति के पदार्थों में स्थित होता है ।२ संक्षेप में न्याय-वैशेषिक सम्मत अनुवृत्ति सामान्य, सांख्य-सम्मत सादृश्य सामान्य और बौद्ध-सम्मत व्यावृत्ति सामान्य को न मानकर स्व और पर दोनों वर्गों में सामान्य की उपस्थिति मानने से सामान्य की अवधारणा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है । यद्यपि यह एक व्यवहारवादी पक्ष अवश्य है क्योंकि व्यवहारवादियों के अनुसार सामान्य का लक्षण ही यही है कि दूसरों के सामन है वही सामान्य है ।३ व्यवहार में भी यही बात देखी जाती है अतः सामान्य का लक्षण लौकिकता के अनुसार करना ही ठीक है। आ० मल्लवादी
१. सामान्यविशेषयोश्च सम्बन्धित्वादेकतराभ्युपगमेऽन्यतरस्य ।
आवश्यापेक्ष्यत्वात् सामान्याभ्युपगमे नियमपक्षापत्तिरपि ॥ द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १४ २. परविषयतायामपि असमानावस्थानाद-सामान्यम् । किं कारणम् ? अनवधृतैकतर
कारणत्वाद् द्रव्यादीनाम् । वही० पृ १४ ३. परेण समानेन भूयते । द्वादशारं नयचक्रं, १८
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सामान्य और विशेष की समस्या
१४५ का कहना है कि अन्य दार्शनिकों ने सामान्य का जो लक्षण बताया है वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । अत: उन अवधारणाओं का सामान्य के रूप में स्वीकार न करके सामान्य की जो व्यवहारिक दृष्टि है उसे स्वीकार करना ही उचित है। क्योंकि सामान्य का यह व्यापकरण सम्मत भी है ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जो भवन् अर्थात् परिवर्तन वह सब एक ही धर्मात्मक होने के कारण एकात्मक है । ऐसी स्थिति में अन्य दर्शनों के द्वारा मान्य सामान्य का लक्षण घट नहीं सकता है क्योंकि सर्व सामान्य में अन्य का अभाव होने से अन्यापोह स्वरूप सामान्य संभव नहीं हो सकता है । पुनः एकात्मक होने के कारण अर्थात् मूल वस्तु में भिन्नता न होने के कारण सदृश्यता की अवधारणा का अभाव रहता है । जब दो वस्तुएँ अलग-अलग हैं ही नहीं तो फिर सादृश्य लक्षण सामान्य का अभाव हो जायेगा क्योंकि सादृश्य दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में ही संभव है । यदि हम यह मानते हैं कि सब एक ही धर्मात्मक है तब ऐसी स्थिति में समानता का अभाव हो जायेगा साथ ही परस्पर भिन्न वस्तुएँ न रहने पर जो अनुवृत्ति रूप सामान्य है उसका भी अभाव हो जायेगा ।२
निष्कर्ष रूप से हम यह कह सकते हैं कि आ० मल्लवादी की दृष्टि में सामान्य सम्बन्धी कोई भी अवधारणा पूर्णतः निर्दोष नहीं हो सकती । अन्य के अभाव में अन्यापात सामान्य संभव नहीं है । एकात्मकता मानने पर सादृश्य लक्षण सामान्य की व्याख्या संभव नहीं और समानता का अभाव मानने पर अनुवृत्ति रूप सामान्य की अवधारणा सत्यस्थित नहीं होती । सामान्य का वस्तु से भेद, अभेद, अभाव, एकान्तरूप से कुछ भी मानें वह निर्दोष नहीं माना जाता है।
१. वही० टीका० पृ० १८ २. वही० पृ० १९
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नवम अध्याय
आत्मा की अवधारणा
आत्मा की अवधारणा समस्त भारतीय चिन्तन का प्रमुख विषय है । सामान्यतया आत्मा से हमारा अभिप्राय चैतन्य संज्ञा से है । भारतीय दर्शनों में चार्वाक और बौद्धों को छोड़कर प्रायः सभी दर्शनों ने नित्य आत्म-तत्त्व की अवधारणा को स्वीकार किया है । चार्वाक चाहे आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते फिर भी वे चेतना की उपस्थिति से इन्कार नहीं करते हैं । उनके विरोध का मुख्य विषय किसी नित्य आत्म-सत्ता की स्वीकृति को लेकर है । बौद्ध भी भले ही नित्य आत्म-तत्त्व को स्वीकार न करते हों किन्तु चेतना प्रवाह के रूप में चित्त सन्तति की अवधारणा को वे अवश्य मानकर चलते हैं ।२ मात्र इतना ही नहीं जहाँ चार्वाक शरीर से ही चैतन्य संज्ञा की उत्पत्ति को मानकर यह समझते हैं कि शरीर के विनाश के साथ-साथ उस शरीर के साथ जुटी हुई चेतना भी नष्ट हो जाती है । इस प्रकार वे पुनर्जन्म की अवधारणा से इन्कार करते हैं वहाँ बौद्ध दार्शनिक नित्य
१. चतुर्थ्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते । किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्योमदशक्तिवत् ।।
सर्वदर्शन सं० पृ० ५ २. बौद्धै 'सर्वं क्षणिकम्' इति प्रतिज्ञाय.....संतान कल्पना । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ५ ३. यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्तावद्वैषयिकं सुखम् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ - षड्दर्शन समुच्चय० पृ० ४५३
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आत्मा की अवधारणा
१४७ आत्म-सत्ता नहीं स्वीकार करते तथा आत्मवाद का प्रतिपादन करते हुए भी चित्त-संतति की अवधारणा के आधार पर चित्तधारा के देहोत्तर की बात को भी स्वीकार कर लेते हैं । इस प्रकार चित्तधारा की अवधारणा के आधार पर वे पुनर्जन्म एवं भवान्तर में शुभाशुभ कर्म के विपाक की अवधारणा को भी स्वीकार कर लेते हैं।
उपर्युक्त दो दर्शनों को छोड़कर उपनिषद काल से ही शेष समस्त भारतीय दर्शन नित्य आत्म-तत्त्व को स्वीकार करके चलते हैं । जहाँ तक समालोच्य ग्रन्थ "द्वादशार नयचक्र" का प्रश्न है उसमें द्वितीय विधिविधि अर में पुरुषवाद के प्रसंग में आत्म-तत्त्व की विवेचना उपलब्ध होती है चैतन्य-सत्ता के लिए उपनिषद काल से ही पुरुष और आत्मा ये दो शब्द सुप्रचलित रहे हैं । जहाँ सांख्य परम्परा में पुरुष शब्द को प्रधानता दी वहाँ अन्य परम्परा में आत्मा शब्द बहुप्रचलित रहा; इन दो शब्दों के साथ-साथ बौद्ध परम्परा में इस चैतन्य के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग होता है । जैनों के भगवतीसूत्र में भी जीवात्मा के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है। वैसे जैन परम्परा में सामान्यतया जीव और आत्मा शब्द चैतन्यसत्ता के लिए बहु प्रचलित रहा है । आत्मा के इन विभिन्न पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या हमें द्वादशार नयचक्र की सिंहसूरि की टीका में उपलब्ध होती है । सिंहसूरि कहते हैं कि जो सतत् रूप से गति करता है, चलता है, जानता है और परिणयन करता है वह आत्मा है। जैन आगम में आत्मा के लिए सत्व और भूत शब्द उपलब्ध होते हैं । सत्व की व्याख्या करते हुए सिंहसरि कहते हैं कि जो सदैव भावरूप है अर्थात् अस्तित्ववान है वह सत्व है अथवा जो सत् होता है वह सत् है। भूत शब्द की व्याख्या करते हुए वे कहते
१. जीवे ति वा, जीवत्थिकाये ति वा, पाणे ति वा, भूते ति वा, सत्ते ति वा, विष्णु ति वा,
चेया ति वा, जेया ति वा, आया ति वा, रंगणे ति वा, रंगणे ति वा, हिंडुए ति वा, पोग्गले ति वा, भाणवे ति वा, कत्ता ति वा, विकत्ता ति वा, जए ति वा, जंतू ति वा, जोणीति वा, सयंभू ति वा, ससरीरी ति वा, नामये ति वा, अंतरप्पा ति वा, श्रे याव ने तहप्पगारा सव्वे ते जीव अभिवयणा ।
भगवती सू० स० २०, ३०२ सू० ७ २. सततमतति गच्छति जानीते परिणमतीति चात्मा । द्वादशारं नयचक्रं० टीका० पृ० १९० ३. ...पाण-भूत-जीव-सत्ता.....। भगवती० स० १.३.१०. सू० १-२. पृ० ७० ४ सतो भावः सत्त्वम्, स एव सन् भवति । द्वादशारं नयचक्रं० पृ० १९०
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन हैं कि जो सदा था, और सदा होता है वह भूत है । पुरुष शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जो पुरी अर्थात् शरीर में आवास करता है वह पुरुष है। जो मिलता है और अलग-अलग होता है अथवा जो उत्पत्ति-विनाश को प्राप्त होता है वह पुद्गल है ।३ जीव में शरीर रूप से वह सब क्रिया में होती है इसीलिए उसको पुद्गल कहा है। आत्मा के लिए जन्तु शब्द की व्याख्या करते हुए सिंहसूरि कहते हैं कि जो जिस भाव को प्राप्त होता है, वह जन्तु है।४ पाँच इन्द्रिय मन्, वाक्, काय, तीन बल तथा आयु और श्वासोश्वास इन दस प्राणों को धारण करता है, वह प्राणी कहलाता है ।५ इन प्राणों के साथ जो जिया था और जीता है, जीव कहलता है | इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि आ० मल्लवादी के मूल ग्रन्थ में आत्मा के सभी पर्यायवाची शब्दों की स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत नहीं की किन्तु उनके टीकाकार सिंहसूरि ने आत्मा के लिए जिन-जिन शब्दों का प्रयोग होता है उन सबकी एक सम्यग् व्याख्या प्रस्तुत की है। आ० मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र में सर्वात्मवाद की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । शुक्लयजुर्वेद से एक श्लोक को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि यह सब-कुछ जो है, या और होगा वह पुरुष ही है। इस तरह सर्वात्मवाद के मत की स्थापना की गई है।
यद्यपि हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यह मन्तव्य मल्लवादी की अपनी परम्परा का नहीं है किन्तु उन्होंने सर्वात्मवाद का
१. भूतस्तथा सदा भवतीति वा । द्वादशारं नयचक्रं० पृ० १९० २. पुरिशयनात् पुरुषः । वही० पृ० १९० ३. पूरणाद गलनांच्च पुद्गलः पुमांसं गिलतीति वा पुद्गलः, जीव शरीरतया विभज्य
भोक्तृभोग्यभावाद् वृद्धिहानिभ्यामुत्पत्तिविनाशाभ्यां पूरण गलनाभ्यामित्यर्थः । वही० पृ० १९० ४. जायते तैस्तै वैरिति जन्तुः । वही० पृ० १९० ५. पञ्चेन्द्रियमनोवाक्कायबलायुरुच्छासनिःश्वासाख्य दशप्राणधारणात् प्राणी जीव इति । वही०
पृ० १९० ६. पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ शुक्ल यजु० सं० ३१.२, उद्धृत० द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १८९
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आत्मा की अवधारणा
१४९ प्रस्तुतीकरण करते हुए उनके मन्तव्य को ही प्रस्तुत किया है । साथ ही सर्वात्मवाद को मानने पर जो दार्शनिक कठिनाई उत्पन्न होती है उसका चित्रण आ० मल्लवादी और उनके टीकाकार सिंहसूरि ने किया है ।१ और पुनः सर्वात्मवाद की ओर से उन समस्याओं का उत्तर भी दिया है; यदि सभी आत्मा ही है तो आत्मा स्वयं आत्मा के द्वारा कैसे सृजन करेगा, कैसे संहार करेगा और कैसे बन्धन में आयेगा तथा कैसे मुक्त होगा? जिस प्रकार अंगुलि का अग्रभाग अंगुलि का स्पर्श नहीं कर सकता और जिस प्रकार तलवार स्वयं को काट नहीं सकती उसी प्रकार सर्वात्मवाद की अवधारणा में सर्जन, संहार, बन्धन-मोक्ष आदि सम्भव नहीं होंगे और हमें शक्तिभेद के आधार पर कारकभेद को मानना होगा । इसके उत्तर में सर्वात्मवाद की ओर से यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार से रेशम कीट स्वयं ही अपना बन्धन तैयार करता है और स्वयं ही मुक्त होता है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं ही बन्धन में आता है और स्वयं ही मुक्त होता है और स्वयं ही सृष्टि करता है और स्वयं ही संहार करता है । अत: यह जो कुछ है सब आत्मा है यह मानने में कोई बाधा नही आती है।
___औपनिषदिक सर्वात्मवाद की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए आचार्य मल्लवादी आगे कहते हैं कि वह पुरुष अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करते हुए भी अनेक रूप में अभिव्यक्त होता है । वह चेतन अचेतन आदि अनेक रूप हैं ।३ आगे वे शुक्लयजुर्वेद की एक कारिका को उद्धत करते हुए यह कहते हैं कि वह चलता है, स्पन्दन करता भी है और स्पन्दन नहीं भी करता, वह दूर भी है और दूर नहीं भी, वह सभी के अन्तर में उपस्थित है और वह
१. पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ शुक्ल यजु० सं० ३१.२, उद्धृत० द्वादशारं नयचक्रं,
पृ० २४७-२६० २. अतएव तस्य सर्वत्वसम्प्रसिद्धया आत्माद्याख्यता, मृदनुत्तीर्णघट पिठरादिवद्,
भ्वस्त्यर्थादिभ्यः सर्वस्यानुत्तरात् सर्वस्यासादात्मा स्वरूपं तत्त्वमित्यर्थः । द्वादशारं नयचक्रं,
पृ० १९० ३. वही० पृ० १९१-१९२
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन सभी से वाह्य है ।१ सिंहसूरि ने इसकी जैनदृष्टि से व्याख्या की है ।२ आगे आ० मल्लवादी के आत्मा के वाचक अर्हत् शब्द३ की व्याख्या करते हुए अर्हत् शब्द को पावन अर्थ में ग्रहण किया है और बताया है कि विशुद्धि और प्रकर्ष विशेष के कारण वह देवता के अर्थ में भी ग्रहण किया गया है। सिंहसूरि ने इसकी टीका में अहत्, बुद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, वर्धमान आदि शब्दों की व्याख्या की है। वह लिखते हैं कि सर्वलोक द्वारा विशिष्ट पूजा के योग्य होने के कारण उसे अर्हत् कहा जाता है ।५ बोध को प्राप्त करने के कारण उसे बुद्ध कहा जाता है ।६ वृद्धि करने के कारण वह वर्धमान कहलाता है। बृहत् होने से उसे ब्रह्मा कहा गया है ।८ विश्वरूपी आत्मा के कारण उसे विष्णु कहा गया है । सर्व पदार्थों में व्याप्त होने के कारण भी विष्णु कहलाता है ।१० स्वामी होने के कारण उसे ईश्वर कहा जाता है ।११ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य सिंहसूरि ने शुद्ध आत्मभाव के वाचक विभिन्न शब्दों की व्याख्या करके विभिन्न धर्म और दार्शनिक परम्पराओं के बीच समन्वय करने का प्रयास किया है।
आ० मल्लवादी ने संसार रूपी क्रिया के करने के कारण आत्मा को
-
१. तदेजति तनैजति नद्दूरे तदुपान्तिके । ___ तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ शुक्लयजु० वा० सं० ४०।५, द्वादशारं
नयचक्र० पृ० १९२ २. वही० पृ० १९२ ३. अर्हण बोधनेत्यदिविशुद्धि प्रकर्षविशेषाद देवतापि स एव, यावदर्हन्नपि भवतीति
सम्भाव्यते । वही० पृ० १९२ ४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १९२ ५. अर्हति सर्वलोकातिशयपूजा इत्यर्हन् ।
वही० पृ० १९२ ६. वुध्यत इति बुद्धः ।
वही० पृ० १९२ ७. वर्धनाद् वृहत्त्वाद् ब्रह्मा वर्धमानो वा ।
वही० पृ० १९२ ८. वर्धनाद् वृहत्त्वाद् ब्रह्मा वर्धमानो वा ।
वही० पृ० १९२ ९. व्याप्नोतीति विष्णुर्ज्ञानात्मनैव सर्वानर्थान् ।
वही० पृ० १९२ १०. वही० पृ० १९२ ११. ईशनादीश्वरः । वही० पृ० १९२
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आत्मा की अवधारणा
१५१ कर्ता कहा है । साथ ही यह जानना चाहिए कि वह ज्ञाता भी है और यदि वह ज्ञाता है तो वह स्वतन्त्र भी है । आत्मा को अनिष्ट का आपादन नहीं करने के कारण विद्वान् राजा के कारण स्वतन्त्र कहा गया है । आत्मा सम्बन्धी इन अवधारणाओं के विरोध में यह कहा जा सकता है कि यदि आत्मा को ज्ञाता और स्वतन्त्र नहीं माना जाता तो वह निद्रावस्था को प्राप्त व्यक्ति के समान वह कोई क्रिया भी नहीं कर सकता। आत्मा में स्वतन्त्रता
और कर्तृत्व दोनों को स्वीकार करना आवश्यक है अन्यथा नियतिवाद का प्रश्न उपस्थित होगा । पुनः यदि आत्मा को कर्ता नहीं माना जायेगा तो फिर आत्मा में और अचेतन सत्ता में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। अत: यदि हम आत्मा को कर्ता नहीं मानेंगे तो उसे अचेतन मानना होगा। स्वतन्त्रता और कर्तृत्व आत्मा के दो ऐसे स्वरूप हैं जिनके अभाव में आत्मा के स्वरूप में हानि होती है । यदि आत्मा को कर्त्ता मानकर भी स्वतन्त्र नहीं मानते हैं तो फिर उसके कर्तृत्व का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है, और पुनः नियतिवाद का प्रसंग आता है, क्योंकि फिर नियति को ही कर्ता मानना पड़ेगा । स्वतन्त्रता और कर्तृत्व यह दोनों ऐसी अवधारणा हैं कि जिनके अभाव में बन्धन और नियति के उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी अच्छे-बुरे कार्य के लिए तब ही उत्तरदायी हो सकता है जब उसने वह कार्य किया हो । मात्र इतना ही नहीं उसके लिए यह भी आवश्यक है कि उसने वह कार्य स्वतन्त्ररूप से किया हो । क्योंकि जो कार्य बाध्यता के आधार पर किया जाता है उसके लिए व्यक्ति को उत्तरदायी नही माना जा सकता है । एकान्तरूप से नियति को स्वीकार करने पर न केवल पुरुषार्थ की हानि होगी अपितु समस्त नैतिक और धामिक साधनाएँ भी निरर्थक हो जायेंगी । यद्यपि आत्मा को पूर्णतः स्वतन्त्र भी नहीं माना जा सकता क्योंकि उसे हम पूर्णतः स्वतन्त्र मानेंगे तो कर्म नियम की व्यवस्था समाप्त हो जायेगी और उसी स्थित में नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं हो पायेगी । व्यक्ति के जीवन में वैसे अनेक तथ्य हैं जो उसके आचार और जीवन को प्रमाणित करते हैं । कारण, स्वभाव
१. वही० पृ० १९२-१९३
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन आदि का भी अपना स्थान और महत्त्व है । आत्मा की स्वतन्त्रता की चर्चा करते हए इन तथ्यों को भी दृष्टिगत रखना पड़ेगा। इसी प्रकार यह सत्य है कि आत्मा कर्ता है, यदि हम एक स्वतन्त्र दृष्टि से विचार करेंगे तो यह अधिक से अधिक अपने भाव का ही कर्ता हो सकता है । शरीर आदि के माध्यम से जो क्रिया होती है उसमें व्यक्ति का प्रयत्न होते हुए भी किसी सीमा तक वे पराश्रित तो हैं ही । इस चर्चा के प्रसंग में हमें यह स्मरण में रखना चाहिए कि वे (आचार्य मल्लवादी) अपने कोई निश्चित सिद्धान्त प्रदान नहीं करते हैं । मात्र वह विभिन्न अवधारणा है, उसके प्रस्तुत करते हुए उसके सम्भावित दोषों का भी दिग्दर्शन कराते हैं । यद्यपि वह स्पष्टरूप से किसी सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करते हैं किन्तु इसका फलित यह है कि इन दार्शनिक मतवादों में जो भी एकान्तदृष्टि है वह सब सदोष है और अनेकान्तदृष्टि ही निर्दोष है यह दिग्दर्शन कर देते हैं। आ० मल्लवादी ने जहाँ द्वितीय अर में पुरुष द्वैतवाद या सर्वात्मवाद की स्थापना की वहीं तृतीय अर में उन्होंने सर्वात्मवाद या पुरुषाद्वैतवाद का निरसन भी किया है । इस अर में उन्होंने आत्मा के सर्वगतत्व या आत्मा के सर्वव्यापकत्व का भी निरास किया है। इसके साथ ही पुरुष के एकत्व, अन्यत्व, अवाच्यत्व का भी निरास किया है ।
मल्लवादी के अनुसार आत्मा का लक्षण उपयोग है ।२ यदि हम सर्वात्मवाद का ग्रहण करते हैं तो हमें पुद्गल को भी आत्मा रूप मानना होगा। इस सम्बन्ध में कोई यह तर्क कर सकता है कि यदि उपयोग ही आत्मा का लक्षण है तो मति आदि ज्ञान भी आत्मा की क्रिया होने से उपयोग युक्त होंगे । पुनः यदि मति आदि ज्ञान उपयोगवान हैं तो फिर मति विकल ज्ञान के कारण के रूप में कर्म पुद्गल भी उपयोग लक्षणवाले होंगे । यदि आत्मा उपयोग लक्षणवाला है तो रूपादि आरम्भिक भाव होने से उपयोग लक्षणवाले होंगे और रूपादि का उनके विषय पुद्गल आदि से तादात्म्य होने
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० २४७--२५९ २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३६२ ३. वही, पृ० ३६२-३६३
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आत्मा की अवधारणा
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से उसे भी उपयोग लक्षणवाला मानना पड़ेगा । और इस प्रकार सर्व आत्मवाद का प्रसंग आ जायेगा । अतः यद्यपि आत्मा और कर्म में तादात्म्य है किन्तु वह एकान्त रूप से नहीं है । आत्मा और कर्म कथञ्चित् अभिन्न और कथञ्चित् भिन्न हैं । उनको पूर्णतः अभिन्न नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः आत्मा और कर्म में पूर्णतः अभिन्नता और पूर्णतः भिन्नता दोनों ही मानने पर तार्किक असंगतियाँ आती हैं । समस्त आत्मव्यापारों में यदि कर्म को ही एकमात्र कारण माना जाय तो पुरुषार्थ की हानि होगी । और यदि पुरुषार्थ को ही एकमात्र कारण माना जाय तो पुरुषार्थ के कारण जो उपलब्धियाँ होनी चाहिएँ उनमें जो बाधा आती है उसकी व्याख्या सम्भव नहीं होगी । आत्मा में जो औदायिकादि भाव उत्पन्न होते हैं वे मात्र आत्मा के उपयोग लक्षण के कारण नहीं हैं, उसमें किसी सीमा तक कर्म भी कार्य-कारण के रूप में कार्य करता है | अतः आत्मा और कर्म को न तो पूर्णतः भिन्न कहा जाता है और न पूर्णत: अभिन्न ही । ३
आ० मल्लवादी ने इसके साथ-साथ आत्मा के पुद्गल, आकाश, धर्म, अधर्म के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । वे चतुर्थ विधिनियम अर में लिखते हैं कि यदि अवगाह लक्षण की दृष्टि से विचार करें तो आत्मा, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश सभी एक क्षेत्रावगाही होने के कारण परस्पर एकतत्व को प्राप्त हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो वे अपने विशिष्ट लक्षणों की दृष्टि से अलग-अलग होकर भी एक क्षेत्रावगाही होने के कारण एक ही तत्व के भेद कहे जा सकते हैं । यदि अवगाहक अवगाह्य और अवगाह अविभक्त होने से एक रूप ही है या एक ही है तो फिर द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय में भेद मानना मिथ्या होगा और इस प्रकार सर्वात्मकता के सिद्धान्त को बल मिलेगा किन्तु स्वसत्ता के अस्तित्व की दृष्टि से एक होते हुए भी अपने विशदत्व के कारण भिन्न-भिन्न
१. वही, पृ० ३६३
२. वही, पृ० ३७०
३. वही, पृ० ३७१-३७२
४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३६९ - ३७०
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ही है न केवल यह भिन्नता विभिन्न अस्तिकायों या द्रव्य में है अपितु पुद्गल आत्मा आदि द्रव्य एक न होकर अनेक हैं, यदि सभी को एक मानेंगे तो फिर घट-पटादि की एक-दूसरे से व्यावृत्ति नहीं हो पायेगी । अत: चेतन और अचेतन तत्त्व भी चाहे वह एक क्षेत्रावगाही हों चाहे वह सत् या अस्तित्व लक्षण की दृष्टि से एक हों फिर उनमें परस्पर व्यावृत्ति भी माननी होगी । वस्तुतः जो एक है वही अनेक भी है, प्रागभाव, ध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव आदि की दृष्टि से विचार करने पर एक ही व्यक्ति बाल, कुमार आदि अनेकता से युक्त होता है । आ० मल्लवादी ने आत्माद्वैत का निरसन करते हुए इस तथ्य की पुष्टि की है कि अभेद में भेद और भेद में अभेद रहा हुआ है । भगवतीसूत्र में भ० महावीर से यह प्रश्न किया गया था कि वह एक है या अनेक है ? भ० महावीर ने अनेकान्त शैली में इसका उत्तर यही दिया था कि मैं एक भी हूँ और अनेक भी हूँ ।२ आ० मल्लवादी ने अपने इस ग्रन्थ द्वादशारनयचक्र में सर्वात्मवाद और पुरुषद्वैतवाद की स्थापना भी की है और उसकी समीक्षा भी की है। सत्ता में एकत्व और अनेकत्व का एक ऐसा प्रश्न है जिसका एकान्तवाद वाली शैली में कोई भी उत्तर नहीं है, वस्तुतः जो एक है वही अनेक है और जो अनेक हैं वही एक हैं।
जैन आगमों में जहाँ तक एक ओर ‘एगे आया'३ का उद्घोष हुआ है वहीं दूसरी ओर ‘संति पाणा पुढोसिया'४ कहकर प्रत्येक जीव की अलगअलग सत्ता भी स्वीकार की गई है । इस प्रकार एकात्मवाद और अनेक जीववाद दोनों ही जीववाद का अनेकान्त शैली में एक समाधान खोजा गया है।
१. वही, पृ० ३७०-३७१ २. सोमिला दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं,
.....उवयोगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । ३. एगेआया० । समवायांगसूत्र पृ० ५ ४. आचारांगसूत्र० अ० २.३. ॥ सू०
भगवती० १.८.१०
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दशम अध्याय
शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या
चिन्तन भाषा पर आधारित होता है और भाषा की अभिव्यक्ति सामर्थ्य शब्द और उसके वाच्यार्थ के सम्बन्ध पर निर्भर करती है। यही कारण रहा है कि भारतीय चिन्तकों ने अति प्राचीनकाल से शब्द और उसके वाच्यार्थ के सम्बन्ध की समस्या पर विचार किया है । यह सुनिश्चित तथ्य है कि शब्द चाहे वह ध्वनि रूप में हो या वह लिखित रूप में हो किन्हीं वाच्य विषयों या वाच्यार्थ का ध्वन्यात्मक या अंकित प्रतीक होता है । शब्द की यह प्रतीकात्मकता ही उसको वाच्यार्थों के साथ जोड़ती है । किन्तु शब्द और उसके वाच्यार्थ के मध्य किस प्रकार का सम्बन्ध रहा है इस सम्बन्ध में हमें अनेक परस्पर विरोधी दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं ।
__ शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध में एक दृष्टिकोण बौद्धों का है-वे यह मानते हैं कि शब्द और वाच्य विषय या वाच्यार्थ में कोई भी यथार्थ सम्बन्ध नहीं है। इस दृष्टिकोण के समर्थन में बौद्ध आचार्यों का यह कहना है कि शब्द विकल्प मात्र है, उसकी उत्पत्ति विकल्प से होती है और इसलिए यह अपने अर्थ का स्पर्श करने में असमर्थ है । यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि शब्द में अपने अर्थ का स्पर्श करने की प्रवृत्ति नहीं है तो फिर भाषा का प्रयोजन ही क्या है ? यदि शब्द और उनके वाच्य-विषय या वाच्यार्थ में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं माना जाता है तो फिर भाषा १. विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः । - द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ५४७.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
की उत्पत्ति ही सम्भव नहीं होगी । किन्तु भाषा और उसके प्रयोग से होनेवाला अर्थबोध यही बताता है कि शब्द और उसके वाच्यार्थ में किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध है ।
शब्द और अर्थ में तादात्म्य-सम्बन्ध की मीमांसकों की अवधारणा चाहे हमें अमान्य हो किन्तु शब्द और अर्थ में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है यह मानना भाषा के प्रयोजन को ही समाप्त कर देता है । इसके आधार पर भाषा की वाच्यता सामर्थ्य पर प्रश्न चिह्न लग जाता है । यही कारण था कि बौद्ध आचार्यों ने भाषा की उपयोगिता पर विचार करते हुए शब्द और उसके वाच्यार्थ के सम्बन्ध के प्रसंग में अपोहवाद की स्थापना की ।' उनका कथन है कि यद्यपि शब्द अपने वाच्यार्थ का कथन नहीं करता किन्तु वह उसके सम्बन्ध में अन्य वाच्यार्थों का निषेध करता है । इसका फलितार्थ यह है कि अपार की अवधारणा भी शब्द के वाच्यार्थ के निर्धारण में सहयोग तो अवश्य ही करती है । शब्द और उसके वाच्यार्थ को लेकर बौद्ध परम्परा जिस अपोहवाद का प्रतिपादन करती है, उसकी मूलभूत मान्यता यह है कि शब्द वाच्य विषय के सन्दर्भ में अन्य अर्थों का निषेध करके शब्द के वाच्यार्थ के समीप अवश्य पहुँचा देता है। इस सिद्धान्त के अनुसार 'गो' शब्द का अर्थ इतना ही है कि अश्व नहीं है । महिष नहीं है आदि । मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में इस अपोहवाद की अवधारणा की विचारणा की है ।२।।
बौद्धों के इस अपोहवाद के विरोध में मीमांसकों का दृष्टिकोण आता है जो यह मानकर चलता है कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध है । शब्द और उसका वाच्यार्थ एक ही है । इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द में स्वतः ही अपने वाच्यार्थ का बोध करने का सामर्थ्य होता ही है क्योंकि वे दोनों अभिन्न होते हैं । जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने इस मत की समीक्षा करते हुए यह कहा है कि यदि शब्द और अर्थ में पूर्णतः तादात्म्य है तो फिर अग्नि शब्द के उच्चारण से या श्रवण से जलन की अनुभूति होनी चाहिए । मोदक शब्द के उच्चारण या श्रवण से निपृत्व की अनुभूति होनी चाहिए, किन्तु प्रत्यक्ष १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ६०७. २. वही, पृ० ६०७.
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शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या अनुभवों के आधार पर यह सिद्धान्त समीचीन प्रतीत नहीं होता। - जैन दार्शनिकों की दृष्टि में शब्द और अर्थ में न तो एकान्त रूप से भिन्नता है और न एकान्त रूप से अभिन्नता । यदि शब्द अपने अर्थ का स्पर्श ही न करते हों तो फिर भाषा की प्रयोजनशीलता पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है। दूसरी ओर शब्द और अर्थ को अभिन्न मानने पर उसका अनुभूति विरोध आता है । अतः दोनों मत युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होते हैं ।
जैन दार्शनिकों ने शब्द और उसके वाच्यार्थ के सम्बन्ध में यद्यपि तद्रूपता और तदुत्पत्ति का सम्बन्ध नहीं माना फिर भी वे दोनों में वाच्यवाचक सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं और इस प्रकार वे बौद्धों के उस सिद्धान्त से कि शब्द अर्थ का स्पर्श ही नहीं करते अपने को अलग रूप में स्थापित करते हैं । जैन दार्शनिकों का कथन है कि यदि शब्द और उसके वाच्यार्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं हो तो फिर शब्द को सुनकर वाच्य वस्तु का स्मरण किस प्रकार होता है ? यह ठीक है कि शब्द के उच्चारण या श्रवण से हमें उस वस्तु की अनुभूतियाँ नहीं होती किन्तु अनुभूति का स्मरण तो अवश्य ही होता है । यहाँ स्वाभाविक रूप से एक नया प्रश्न उपस्थित होता है कि शब्द अपने अर्थ का बोध किस प्रकार कराते हैं ? इस सम्बन्ध में बौद्धों ने शब्द का सामान्य के साथ तदुत्पत्ति लक्षण सम्बन्ध माना और यह माना कि सामान्य का विशेष के साथ एकत्व अध्यवसाय होने से शब्द का विशेष के साथ साक्षात् सम्बन्ध न होने पर शब्द को सुनकर वस्तु विशेष का बोध और वस्तु विशेष को देखकर वस्तु विशेष का बोध हो जाता है । किन्तु उनके दर्शन में जो सामान्य के माध्यम से शब्द और अर्थ विशेष में जो सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करते हैं वह सामान्य भी वास्तविक नहीं है । पुनः उसका प्रत्यक्ष निर्विकल्प है । दूसरे शब्द में वह शब्द संसर्ग से रहित है । क्योंकि भाषा विकल्प पर आधारित है । अतः बौद्धों के अनुसार न तो अर्थ को देखकर उसके वाचक शब्द का बोध हो सकता है और न तो शब्द को सुनकर उसके अर्थ का बोध हो सकता है । शब्द और अर्थ को लेकर चाहे हम तादात्म्य तदुत्पत्ति सम्बन्ध न मानें किन्तु हमें वाच्य-वाचक सम्बन्ध तो मानना होगा।
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन शब्द से अर्थ का बोध किस प्रकार होता है ? इस समस्या के समाधान में वैयाकरणों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । उनका सिद्धान्त स्फोटवाद कहलाता है । आचार्य मल्लवादी ने वैयाकरणों के इस सिद्धान्त की विस्तृत समीक्षा की है । अतः इस सिद्धान्त के सामान्य स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है । वैयाकरणिकों के अनुसार पद या वाक्य को सुनकर पद या वाक्य के वाच्यार्थ का एक समन्वित चित्र खड़ा होता है वही स्फोट है। शब्द के वाच्यार्थ को प्रगट करनेवाला तत्त्व ही स्फोट कहलाता है । 'स्फुटति अर्थो यस्मात् स स्फोटः' । हम देखते हैं कि स्फोटवादियों ने किसी सीमा तक मीमांसकों और बौद्धों की अवधारणा में रही हुई कठिनाईयों को दूर करने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः शब्द से जिसका बोध होता है वह भौतिक अर्थ नहीं अपितु बुद्ध्यर्थ है । वह स्फोट ध्वनियों के श्रवण से जन्मा एक मानस बोध है। ध्वनि तो अनित्य है वह उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है, अतः वह अर्थबोध कराने में असमर्थ है । वस्तुतः ध्वनि को सुनकर मानस में जो अर्थ का बोध होता है वही अर्थ का बोध है । ध्वनि क्रमशः होती है । प्रत्येक ध्वनि से एक प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है । उस संस्कार से सहकृत अन्त्य वर्ण के श्रवण से एक मानसिक वर्ण की प्रतीति उत्पन्न होती है । चेतना में एक मानस प्रतिबिम्ब खड़ा होता है और वही स्फोट है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैयाकरणियों ने शब्द का वाच्य भौतिक अर्थ न मानकर बुद्ध्यर्थ को माना किन्तु कठिनाई यह है कि उनका यह बुद्ध्यर्थ या ध्वनि के स्मरण से उत्पन्न होनेवाला मानस प्रतिबिम्ब का बाह्य जगत् की यथार्थ वस्तु के साथ किस प्रकार सम्बन्ध है यह स्पष्ट नहीं होता है। उन्होंने शब्द और उसके भौतिक वाच्यार्थ के मध्य एक सेतु बनाने का प्रयास तो किया किन्तु वे इस प्रयत्न में कितने सफल हुए यह गहन समीक्षा का विषय है जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे । किन्तु यहाँ इतना अवश्य बता देना चाहते हैं कि भारतीय दार्शनिकों ने शब्द और उसके वाच्यार्थ को लेकर जो विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं उनके मूल में कहीं न कहीं. अर्थ के अर्थ को लेकर ही मतभेद है। किसी के अनुसार अर्थ भौतिक है, किसी के अनुसार अर्थ भौतिक वस्तु का मानसिक प्रतिबिम्ब है तो किसी के अनुसार अर्थ मात्र
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शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या चैतसिक है।
शब्दाद्वैतवादी पक्ष के सिद्धान्त को स्थापित करते हुए आचार्य मल्लवादी ने भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय ग्रन्थ की कारिकाएँ उद्धृत की हैं । कहा गया है कि अभिजल्पत्ववान शब्द ही शब्दार्थ है । शब्द का अर्थ के साथ तादात्म्य प्रचलित होने से तत् तत् शब्द का तत् तत् अर्थ है ऐसा बोध होता है, इसी को अभिजल्प माना गया है। यहाँ उक्त वाद का कहना है कि शब्द का अर्थ के साथ तादात्म्य है और अर्थ में पृथक् शक्ति होती नहीं है वह शब्दाधीन होते हैं । शब्द में ही शक्ति है, अर्थ शक्तिरहित होता है ।२ ।
उक्त वाद की समीक्षा करते हुए आचार्य मल्लवादी ने प्रश्न उठाया है कि आप यह मानते हैं कि वाह्यार्थ से पृथक् शक्ति नहीं है, वह शब्दाधीन है तब तो आपने स्वयं ही अपने कथन द्वारा शब्द से भिन्न शक्ति नाम की वस्तु या शक्तिवाले अर्थ की सत्ता को स्वीकार कर लिया है ।३ यदि आप शब्द और अर्थ में भेद नहीं मानेंगे तब भी अनेक दोष आयेंगे । यथा शब्द द्वारा अर्थ का बोध भेद मानने पर ही सम्भव है अभेद मानने पर शब्द का अर्थ के साथ अभेद हो जाने से बोध नहीं हो पायेगा । आधार आधेय रूप भेद होने के कारण ही उसमें इदं शब्द वाच्यत्व सिद्ध होता है । वस्तु शब्द शक्ति का आधार है । शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि योग्योऽनुरूपः शब्दः । अर्थात् योग्य के अनुरूप हो वह शब्द है, ऐसा कहने पर योग्य शब्द से वाह्यार्थ की सिद्धि होती है, उस अर्थ के अनुरूप ही शब्द का प्रयोग होता है। इस प्रकार शब्द ही केवल तत्त्व है ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है। शब्द का प्रयोग भी अर्थ के अनुरूप ही होता है । अर्थ के अनुरूप शब्द प्रयोग न माना जाय तब तो वचन की प्रवृत्ति ही निरर्थक हो जायेगी । इतना ही नहीं यह भी प्रश्न उठेगा कि अर्थ के अभाव में शब्द द्वारा किसकी विवक्षा होगी?
वाक्यपदीय-२. १२७.
१. शब्दो वाप्यभिजल्पत्वमागतो याति वाच्यताम् । २. सो यमित्यभिसंबंधात् रूपमेकीकृतं यदा । __ शब्दस्यार्थेन तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते ॥ ३. तत्र वस्तु तावदनेनैव त्वद्वचनेन शब्दादन्यत् सिद्धम् । ४. वही० पृ० ५८३.
वही० २.१२८. द्वादशारं नयचक्र० पृ० ५८३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
साथ-साथ अर्थाभाव में विवक्षा मात्र से शब्द की शक्ति का आधान होना संभव नहीं है। अतः शब्द से भिन्न शक्तिवान् अर्थ या शक्तिस्वरूप अर्थ का स्वीकार आवश्यक है ।।
वैयाकरणों के एक अन्य पक्ष को उपस्थित करते हुए आचार्य मल्लवादी कहते हैं कि अर्थ में ही सर्वशक्ति हैं और वे शक्ति शब्द के आधीन हैं ।२
इस पक्ष की समीक्षा करते हुए आचार्य कहते हैं कि आप अर्थ में सर्वशक्ति मानेंगे तो वह जैनदर्शन के मत का ही अनुसरण हो जायेगा । जैनदर्शन में एक द्रव्य में अनन्त पर्याय मानी गई हैं। इसकी व्याख्या करते हुए सिंहसेनसूरि कहते हैं कि जैनदर्शन में एक-एक द्रव्य में अनन्त पर्याय मानी गई हैं । सापेक्ष और निरपेक्ष परिणाम को पर्याय माना गया है । शक्ति और पयार्य दोनों पर्यावाची शब्द हैं । अन्योन्यानुगत शक्ति वाला होने के कारण द्रव्य को भी सर्वशक्तिमान् माना गया है। सन्मति प्रकरण में भी कहा गया है कि दूध और पानी की तरह अन्योन्य में ओतप्रोत पदार्थ में यह और वह ऐसा विभाग करना योग्य नहीं है । जितने विशेष पर्याय हों उतना अविभाग समझना चाहिए । इस प्रकार सर्वशक्तिमान वाद को स्वीकार करने पर जैनदर्शन के सिद्धान्त का आश्रय लेना पड़ेगा । अतः शब्द से भिन्न अर्थ
१. तस्मादर्थात् सिद्धात् पश्चाद् भवति शब्दः ।
यथार्थरूपं तथा हि सयोग्य: शब्दस्तस्यार्थस्य वाचकः । अर्थनिबन्धना हि विवक्षा, इतरथा वचनस्य प्रवृत्त्यसम्भवात् । ... न च विवक्षामात्रेण शब्द: श्रोतबुद्धौ तां तां शक्तिमाधातुं शक्नोति । एवं चानेव त्वद्वचनेनैव विशेष लक्षणाः शक्तयः
परिगृहीता एव त्वया । वही० पृ० ५८३-५८४. २. अशक्तेः सर्वशक्तेर्वा शब्दैरेव प्रकल्पिता। एकस्मार्थस्य नियता क्रियादिपरिकल्पना ||
वाक्यपदीयं० २. १३१. ३. परमार्थतस्तु वाद परमेश्वरवाद एवायम्, एकैकद्रव्यानन्तपर्यायत्वात् ।।
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ५८५. ४. वही, टीका, पृ० ५८५. ५. अण्णोण्णाणुगताणं इमं व तं वत्ति विह्यणमयुत्तं । जघं दुद्ध- पाणियाणं जावंति विशेषपज्जाया ।
सन्मति० १.४७.
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शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या
१६१ का स्वीकार करना चाहिए यह अनुभवगम्य भी है। तत्त्वार्थसूत्र भाष्य में शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि जैसा अर्थ है उसी तरह का कथन करना शब्द है । इससे भी यह स्पष्ट होता है कि शब्द और अर्थ भिन्न-भिन्न हैं ।
अभिजल्प को ही शब्दार्थ मानना युक्तिसंगत नहीं है । इस विषय में ऊपर कहा गया है । अतः यह सिद्ध होता है कि शब्द से भिन्न अर्थ है ।२
भारतीय चिन्तन में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को लेकर यह जो विरोधी दृष्टिकोण बने डॉ० सागरमल जैन के अनुसार उसके मूल में अर्थ का अर्थ न समझने की भ्रान्ति रही हुई है । संस्कृत भाषा का अर्थ शब्द एक ओर पदार्थ का वाचक माना जाता है तो दूसरी ओर वह अर्थ शब्द के अर्थ अर्थात् वाच्यार्थ का वाचक माना जाता है । यहाँ एक ही अर्थ शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है । एक अर्थ में वह वस्तु को सूचित करता है तो दूसरी ओर तात्पर्य को । जब बौद्ध दार्शनिक यह कहता है कि शब्द अर्थ का स्पर्श नहीं करते तो अर्थ से उनका तात्पर्य वस्तु से होता है । किन्तु उसके विपरीत मीमांसक शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं, अर्थ से उनका प्रयोजन शब्द के तात्पर्य से होता है । अत: दोनों ही मत पूर्णतया असंगत तो नहीं कहे जा सकते क्योंकि यह सत्य है कि शब्द और उनके वाच्य विषय में एक भिन्नता होती है । अग्नि शब्द अग्नि नामक वस्तु से भिन्न है किन्तु यह भी सत्य है कि शब्द और उनके तात्पर्य में एक तादात्म्य या अभिन्नता होती है। यही कारण था कि जैन दार्शनिकों ने शब्दार्थ सम्बन्ध की चर्चा करते हुए उन्हें कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न माना है । यदि अर्थ से हम वस्तु या पदार्थ को ग्रहण करते हैं तो वह शब्द से भिन्न होता है। किन्तु अर्थ से हम तात्पर्य का ग्रहण करते हैं तो वह शब्द से अभिन्न होता है । इसलिए शब्दार्थ सम्बन्ध को लेकर कथञ्चित् भिन्नता और अभिन्नता को लेकर जो जैन अवधारणा है वह अधिक युक्तिसंगत और अनुभूति के स्तर पर सत्य प्रतीत होती है।
तत्त्वार्थभाष्य० १. ३५.
१. यथार्थाभिधानं च शब्दः । २. द्वादशार नयचक्रं, पृ० ५९४. ३. जैनभाषादर्शन-परिशिष्ट 'क'
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
इस जैन दृष्टिकोण को आधार बनाकर आ० मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में शब्दार्थ सम्बन्ध को लेकर जो विभिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं उनकी समीक्षा की है। सर्वप्रथम उन्होंने इस मत का खण्डन किया है कि शब्द मात्र सामान्य के वाचक हैं । सामान्य की वास्तविक सत्ता नहीं है। इसलिए शब्द का तात्पर्य या शब्द का वाच्यार्थ केवल नाम है । जैनदार्शनिक मल्लवादी इस नामवाद की, जो बौद्धों का ही एक विशेष सिद्धान्त है, समीक्षा करके उसके विरोध में भर्तृहरि के मत का प्रतिपादन करते हैं । दूसरे शब्दों में शब्द मात्र नाम है इस मत का खण्डन करके शब्द अपने अर्थ का कथन करते हैं, इस प्रकार के भर्तृहरि के सिद्धान्त को स्थापित करते हैं किन्तु मल्लवादी की दृष्टि में भर्तृहरि का यह सिद्धान्त भी समुचित नहीं है । इस मत का खण्डन करने के लिए वे जैनों के ही स्थापना द्रव्यद्रव्यार्थ के रूप में शब्द के वाच्यार्थ को स्थापित करते हैं । यहाँ वे यह बताते हैं कि जो यथार्थ का अभिधान करता है वही शब्द है। किन्तु आगे चलकर वे इस मत की भी समीक्षा करके शब्द का वाच्यार्थ भाव निक्षेप को सिद्ध करते हैं। दूसरे शब्द में वे यह बताते हैं कि शब्द स्थापना और द्रव्य का भी वाचक न होकर भाव या क्रिया का वाचक होता है, इस सन्दर्भ में वे जैन-परम्परा के निक्षेप सिद्धान्त के नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप की समीक्षा करते हैं और पुनः शब्द का वाच्यार्थ व्यक्ति है या जाति इस प्रश्न को खड़ा करते हैं । इसी प्रसंग में वे दिङ्नाग प्रणीत अपोहवाद के सिद्धान्त का अति विस्तार से खण्डन करते हैं । अपोहवाद का खण्डन करने के पश्चात् वे अन्त में पुनः शब्द के वाच्य विषय सामान्य और विशेष की चर्चा प्रारम्भ करके दोनों के समन्वय में शब्द के वाच्यार्थ को सूचित करते हैं ।
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एकादश अध्याय
सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
प्राणियों में अपनी अनुभूतियों और भावना की अभिव्यक्ति एक सहज प्रवृत्ति है । मनुष्य में यह प्रवृत्ति अधिक विकसित रूप में पाई जाती है । सामान्यतया अन्य प्राणी अपनी भावनाओं और अनुभूति की अभिव्यक्ति बातों, शारीरिक संकेतों द्वारा या तो ध्वनि संकेत द्वारा करते हैं। इन्हीं संकेतों द्वारा मनुष्यों ने भाषा का विकास किया । मनुष्य शब्द-प्रतीकों के माध्यम से जो कि सार्थक ध्वनि संकेतों के रूप हैं अपने विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति करता है । ये सार्थक ध्वनि - संकेत ही भाषा का रूप ग्रहण करते हैं । मनुष्य ने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, भावनाओं एवं क्रियाओं के लिए कुछ शब्द - प्रतीक बना लिए हैं । भाषा इन्हीं शब्द- प्रतीकों का एक सुनियोजित खेल है । इन शब्दप्रतीकों में अपने वाच्य विषय को अभिव्यक्त करने की शक्ति मानी जाती है, किन्तु ये शब्द - प्रतीक अपने वाच्य विषय का किस सीमा तक और किस रूप से अभिव्यक्त कर पाते हैं यह एक विचारणीय प्रश्न रहा है । सामान्यतया भाषा इन्हीं शब्द प्रतीकों की एक नियमबद्ध व्यवस्था है जो वक्ता के द्वारा संप्रश्रिय भावों का ज्ञान श्रोता को कराती है । भाषा में प्रयुक्त शब्द- प्रतीक किस सीमा तक अपने वाच्य विषयों से या वाच्यार्थ से सम्बन्धित होते हैं इस विषय में हम पूर्व अध्याय शब्दार्थ सम्बन्ध में विचार कर चुके हैं। यहाँ हम मुख्य रूप से यह देखने का प्रयास करेंगे कि भाषा में प्रयुक्त शब्द प्रतीकों की अपने अर्थ
१. जैनभाषादर्शन, पृ० १
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन या विषय की वाच्यता सामर्थ्य कितनी है ?
दार्शनिकदृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्या यह शब्द-प्रतीक अपने वाच्य-विषय या अर्थ को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में समर्थ है ? क्या घड़ी शब्द घड़ी नामक वस्तु को या प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ श्रोता को प्रस्तुत कर पाता है ? यह प्रश्न दार्शनिकदृष्टि से अति प्राचीनकाल से ही चचित रहा है । एक ओर यदि हम यह मानते हैं कि शब्द में अपने अर्थ या वाच्य विषय को अभिव्यक्त करने की सामर्थय नहीं है तो भाषा की उपयोगिता एवं प्रमाणिकता पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है । मानव समाज में आज जो भी विचार और भावों के संप्रेषण का कार्य होता है उसमें भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि हम इस प्रश्न पर निषेधात्मक दृष्टि से विचार करके यह मानते हैं कि भाषा में अपने वाच्य विषय को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य ही नहीं है तो फिर भाषा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है । यही कारण था कि जैन विचारकों ने बौद्धों के इस मत को अस्वीकार कर दिया कि शब्द अपने अर्थ या वाच्य विषय का संस्पर्श ही नहीं करते हैं । साथ ही यह मीमांसकों के समान यह मानने को भी सहमत नहीं थे कि शब्द अपने वाच्य विषय या अर्थ का एक सम्पूर्ण चित्र श्रोता के सामने प्रस्तुत करने में समर्थ है। सामान्यतया जैन दार्शनिकों ने यह माना कि शब्द और उसके द्वारा संकेतिक अर्थ में एक सम्बन्ध तो है या दूसरे शब्दों में अपने वाच्यार्थ को संकेतिक करने की सामर्थ्य तो है किन्तु यह भी सत्य है कि शब्द अपने वाच्यार्थ को सम्पूर्ण रूप में अभिव्यक्त करने में समर्थ भी नहीं होता है । इसके दो कारण हैं एक तो शब्द वाच्यार्थों के मात्र प्रतीक होते हैं। उनका वाच्यार्थ से कोई तादात्म्य नहीं होता
और यदि उनमें कोई तादात्म्य नहीं होगा तो उनमें अपने वाच्यार्थ को पूरी तरह कहने की शक्ति भी नहीं है। दूसरे शब्द में शब्द अपने वाच्य विषय को कहकर भी नहीं कह पाता है । इसी को ही जैन दार्शनिकों ने यह कहकर अभिव्यक्त किया है कि शब्द अपने अर्थ का वाचक होकर भी समग्र रूप से वाचक नहीं होता है । जैसे घड़ी शब्द घड़ी का वाचक होकर भी उसका स्थान नहीं लेता। इस तथ्य को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है जैसे किसी देश का नक्शा और उस नक्शे में रेखांकित पहाड़ नदी आदि उस देश के पहाड़, नदी आदि
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सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
१६५ के संकेतक तो होते हैं किन्तु वास्तविक पहाड़ और नदी का पूर्णतया बोध नहीं करा पाता है। जिसने नदी न देखी हो वह नदी शब्द सुनकर भी नदी का सम्पूर्ण बोध नहीं कर पाता है।
_शब्दों की वाच्यता-सामर्थ्य की सीमितता का एक कारण यह भी है कि जितने वाच्य विषय हैं भाषा में उतने शब्द नहीं हैं । उदाहरण के रूप में मीठा शब्द में वस्तु के मिष्ठता गुण की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य तो है किन्तु हम देखते हैं कि मिठाश अनेक प्रकार की होती है जैसे आम भी मीठा होता है, अमरूद की मीठा होता है, अंगूर भी या इसी प्रकार सैकड़ों वस्तुएँ मीठी होती हैं, किन्तु हमारे पास उन सभी की मिष्ठता को अभिव्यक्त करने के लिए एक ही शब्द मिष्ठ है । यहाँ हम देखते हैं कि मिष्ठ शब्द का प्रयोग जब भिन्नभिन्न वस्तुओं के संदर्भ में होता है तब उसका वाच्यार्थ भी अलग-अलग होता है किन्तु भाषा में इतने शब्द-प्रतीक नहीं होते अतः किसी वस्तु का मिष्ठपन मिष्ठ शब्द से वाच्य होकर भी अवाच्य बना रहता है । इसी प्रकार हम प्रेम शब्द को लें तब प्रेम शब्द जिस भावना को अभिव्यक्त करता है उसकी प्रगाढ़ता और भाव-प्रणवता के अनेक स्तर हैं । एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक पुत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से, एक मित्र अपने मित्र से, 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' इस शब्दावली का प्रयोग करते हैं किन्तु इन सभी व्यक्तियों के द्वारा प्रयुक्त इन शब्दावली का अर्थ एक होकर भी अलग-अलग होता है । अर्थबोध में न केवल शब्द ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है अपितु श्रोता और वक्ता के मानसिक स्तर भी अपना अर्थ रखते हैं । एक व्यक्ति किसी वाक्य का व्यंगार्थ ग्रहण कर पाता है और दूसरा व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं कर पात है । पुनः एक भाषा का जानकार व्यक्ति दूसरी भाषा के शब्दों से कोई अर्थबोध ग्रहण नहीं कर पाता है । इससे यह कल्पित हो सकता है कि शब्द में आंशिक रूप में ही अपने विषय को वाच्य बनाने की सामर्थ्य है । यही कारण है कि भारत में प्राचीनकाल से ही भाषा के वाच्यसामर्थ्य पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है। भारतीय चिन्तन में प्रारम्भ काल से लेकर आज तक वस्तु की वाच्यता और अवाच्यता का प्रश्न मानव मस्तिष्क को झंझोड़ रहा है । जब यही वाक्यार्थ सामर्थ्य की बात चरम सत्ता या परम
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तत्त्व के साथ जुड़ती है तब यह प्रश्न और भी जटिल बन जाता है
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
तैत्तरीय उपनिषद् में परम सत्ता के निर्वचन को लेकर कह दिया था कि 'य तो वाचो निर्वर्तते' वाणी वहाँ से लौट आती है । उसे वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है । कठोपनिषद् कहता है कि यह परम तत्त्व 'नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्य' अर्थात् वह वाचा के द्वारा या मन के द्वारा नहीं समझा जा सकता है । माण्डूक्योपनिषद् में सत्ता को अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अवाच्य कहा गया है । ३
यही बात हमें प्राचीन जैन आगम में भी मिलती है । आचारांग कहता है कि वह (परम तत्त्व) ध्वन्यात्मक किसी भी प्रवृत्ति का विषय नहीं है । वाणी उसका निर्वचन करने में समर्थ नहीं है। तर्क की वहाँ पहुँच नहीं है । मार्ग उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं है अर्थात् वह विचार और बुद्धि का विषय नहीं है । उसे किसी उपमा के द्वारा भी समझाया नहीं जा सकता है । वह अनुपम, अरूपी सत्ता है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई पद, शब्द नहीं है कि उससे उसका निरूपण किया जा सके । इस प्रकार सामान्य रूप से भारतीय दर्शन में और विशेष रूप से जैनदर्शन में वस्तुतत्त्व या सत्ता को अवक्तव्य या अवाच्य बताया गया है ।
I
सत्ता की इस अवाच्यता या अवक्तव्यता में अवाच्य या अवक्तव्य का अर्थ है यह भी विशेषरूप से विचारणीय है । अवाच्य, अनिर्वचनीय, अवक्तव्य ये शब्द सामान्यतया प्राचीनकाल से ही प्रयुक्त किए जा रहे हैं । किन्तु विभिन्न कालों में और विभिन्न विचारकों की दृष्टि में इसके तात्पर्य को लेकर भिन्नता रही है । अवक्तव्य शब्द के अर्थ-विकास की दृष्टि से पं० दलसुखभाई मालवणिया, ५ डॉ० पद्मराजे ने विशेषरूप से विचार किया है ।
१. तैत्तिरीयोपनिषद् २।४
२. कठोपनिषद् १.२.२०
३. माण्डूक्योपनिषद् ७
४. आचारांगसूत्र १.५.६
५. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० ९५ - १०१
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सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
१६७ डॉ० पद्मराजे ने इस अर्थ-विकास को चार चरणों में विभक्त किया है ।१ ।
अवक्तव्यता की अर्थ भी इस सामान्य चर्चा के पश्चात् हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि अवक्तव्यता का जैन परम्परा में क्या अर्थ रहा है । इस सम्बन्ध में आचारांग के पूर्वोक्त उद्धरण की दृष्टि से विचार करें तो वहाँ मुख्य रूप से यही माना गया है कि वस्तु स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसे हमारी सीमित शब्दावली भाषाशैली या वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता। यहाँ शब्द की अपने अर्थ की वाच्य सामर्थ्य की सीमितता को देखते ही अवक्तव्यता की चर्चा हुई है। आ० मल्लवादी के पूर्ववर्ती आचार्यों में जिन्होंने इस अवक्तव्यता या अवाच्यता की अवधारणा पर विशेष विचार किया है उनमें आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आ० समन्तभद्र का नाम प्रमुख है। इन दोनों आचार्यों ने वस्तुतत्त्व की अवक्तव्यता का विचार करते हुए यह प्रश्न खड़ा किया है कि क्या वस्तुतत्त्व निरपेक्ष रूप से अवक्तव्य है या सापेक्ष रूप से अवक्तव्य है ? आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में इस समस्या को उठाते हुए इस बात पर बल दिया है कि वस्तुतत्त्व की अवक्तव्यता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष ही है । वे एकान्त अवक्तव्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि अवाच्य एकान्त भी नहीं बन सकता क्योंकि अवाच्य एकान्त में भी यह अवाच्य है। ऐसे वाक्य का प्रयोग नहीं किया जा सकतार दूसरे शब्दों में यदि तत्त्व सर्वथा अवाच्य है तो फिर तत्त्व का प्रतिपादन किसी भी रूप में सम्भव नहीं होगा क्योंकि जब हम अवाच्य कहते हैं तो भी उसे वाणी का विषय वश ही लेते हैं ।३ यदि तत्त्व सर्वथा अवाच्य होता तब उसे किसी भी शब्द से वाच्य नहीं बनाया जा सकता और ऐसी स्थिति में तत्त्व अवाच्य है यह प्रतिपादन भी सम्भव नहीं होगा । क्योंकि ऐसा कहने से तत्त्व अवाच्य न होकर 'अवाच्य' शब्द का वाच्य तो हो ही जाता है । तत्त्व अवाच्य है यह भी
१. जैन थ्योरीज ऑफ रियलिटी एण्ड नोलेज २. विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्ते प्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ २. सर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः ।
संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।।
आप्तमीमांसा० श्लो० ५५
वही० श्लो० ४९
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
एक प्रकार की वाच्यता है । यदि तत्त्व एकान्त रूप से अवाच्य है तब ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार का शब्द प्रयोग सम्भव नहीं होगा । यदि हम यह भी कहते हैं कि तत्त्व अवाच्य है तो उसे वाणी का विषय तो बना ही लेते हैं। तत्त्व की अवच्यता का कथन भी उसकी वाच्यता का ही सूचन करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य समन्तभद्र अपने ग्रन्थ आप्तमीमांसा में इस बात पर विशेष बल देते हैं कि तत्त्व को सर्वथा अवक्तव्य मानना यह भी युक्तिसंगत नहीं है। यही प्रश्न सिद्धसेन ने अपने ग्रन्थ सन्मति-तर्क में उठाया है । सन्मति-तर्क में उन्होंने भी समन्तभद्र की भाँति एकान्त अवाच्यता का निषेध करके तत्त्व की कथञ्चित अवाच्यता या कथञ्चित अवक्तव्यता का प्रतिपादन किया है । संक्षेप में कहें तो जैन आचार्यों का प्राचीनकाल से ही यह मन्तव्य रहा है कि तत्त्व को एकान्त रूप से अवाच्य मानना या एकान्त रूप से वाच्य मानना दोनों ही मत युक्तिसंगत नहीं हैं । जैनदृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है निरपेक्ष अवक्तव्यता को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है और पूर्णतया वक्तव्य भी नहीं है । वह कथञ्चित वक्तव्य है और कथञ्चित अवक्तव्य है । क्योंकि उसके अनुसार यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य या अनिर्वचनीय मान लेंगे तो भाषा और विचार का मार्ग ही अवरुद्ध हो जायेगा । उनकी सार्थकता समाप्त हो जायेगी । दूसरी ओर यदि उसे समग्रतः निर्वचनीय मान लिया जायेगा तो यह बात भाषा की सीमितता और आनुभविक सत्यता से बाधित होगी । शब्दों में अपने विषय की वाच्यता-सामर्थ्य तो है किन्तु वह आंशिक या सीमित ही है । अतः जैन आचार्य वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता या अवाच्यता को स्वीकार करते हुए भी पूर्णतया अनिर्वचनीय या अवाच्य नहीं मानते । वस्तु सापेक्ष रूप से अनिर्वचनीय और सापेक्ष रूप से निर्वचनीय है। दूसरे शब्दों में वह अंशत: अनिर्वचनीय है और अंशत: निर्वचनीय है । जैन न्याय में सप्तभंगी का विकास हुआ है उसमें भी हम इसी सापेक्षित अवक्तव्यता और सापेक्षित वक्तव्यता का दृष्टिकोण पाते हैं । यहाँ हम इस चर्चा के सम्बन्ध में अधिक १. अत्यंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं । वयणविसेसाईयं दव्वमवत्तव्वयं प इ॥
सन्मतिप्रकरण० १.३६ २. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० ९३ ।
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सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
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विस्तार में न जाकर यह देखना चाहेंगे कि इस वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता के सम्बन्ध में हमारे विवेच्य आचार्य मल्लवादी और उनके ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र का क्या दृष्टिकोण है ।
आचार्य मल्लवादी ने वैसे तो अनेक प्रसंगो में वस्तु की अनिर्वचनीयता की चर्चा की है। किन्तु विशेषरूप से अपने ग्रन्थ के नवें अर में वस्तु की अनिर्वचनीयता की प्रतिस्थापना की है और दशवें अर में उस अनिर्वचनीयता की समीक्षा प्रस्तुत की है । आचार्य की यह एक विशिष्ट शैली है कि वह पहले किसी पक्ष की स्थापना करते हैं बाद में उसका खण्डन । नवें अर में वह विशेषरूप से इस बात पर बल देते हैं कि वस्तुतत्त्व का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि वह शब्द का वाच्य नहीं बनाया जा सकता । किन्तु यह वस्तु की अनिर्वचनीयता की एकान्त पक्ष न बन जाए या वस्तुतत्त्व को पूर्णतः अवाच्य न मान लिया जाए इसलिए वह अपने ग्रन्थ के दशवें अर में इस वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता की अवधारणा का खण्डन करते हैं और इस माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि वस्तु न तो पूर्णत: वाच्य है और न पूर्णतः अवाच्य । आगे हम विस्तार से उनके ग्रन्थ के आधार पर इस सम्बन्ध में विचार करेंगे ।
वस्तु की अनिर्वचनीयता की चर्चा करते हुए वे निम्न समस्याएँ प्रस्तुत करते हैं । सर्वप्रथम वस्तु को न तो सर्वथा भावरूप कहा जा सकता है और न सर्वथा अभाव रूप । प्रत्येक वस्तु में कुछ गुणधर्मों का सद्भाव होता है और कुछ गुणधर्मों का अभाव । दूसरे शब्दों में वस्तु में भाव-पक्ष भी होता है अभाव-पक्ष भी । वस्तु भावात्मक और अभावात्मक गुणधर्मों का समुच्य है। किन्तु भाषा की दृष्टि से प्रतिपादन करते हुए हमें उसे विधिरूप में कहना होता है या निषेध रूप में । सत्ता में भावपक्ष और अभाव-पक्ष एक समय रहे हुए हैं किन्तु भाषा में उन्हे क्रमपूर्वक ही कहा जा सकता है । पुनः तार्किकरूप से जो भावरूप होता है वह अभावरूप कैसे हो सकता है और जो अभावरूप
१. एकत्वान्यत्वोभयत्वानुभयत्वप्रतिषेधेन च प्रधानोपसर्जन भावो पि प्रतिविद्ध एव । तस्मात् सर्वथाप्य वक्तव्य तैव ।
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७५२ सामान्यविशेषैकत्वान्यत्वानेकात्मकस्य वस्तुनो वाचा वक्तुमशक्यत्वात् ।
वही० टीका० पृ० ७६३
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
होता है वह भावरूप कैसे हो सकता है । न तो अभाव से भाव की उत्पत्ति हो सकती है और न भाव का अभाव हो सकता है। किन्तु वस्तुतत्त्व में भावपक्ष
और अभाव-पक्ष दोनों ही एक साथ रहे हुए हैं, और उन्हीं से उसका स्वरूप बनता है । अत: उसे एकान्तरूप से न तो भावरूप कहा जा सकता है और न अभावरूप । भाषा में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह दोनों को एक साथ कह सके अतः वह अनिर्वचनीय सिद्ध होता है। इसी प्रकार आ० मल्लवादी एक दूसरी समस्या उठाते हैं । वे कहते हैं कि वस्तु एकान्तरूप से न तो सामान्य है
और न विशेष । हम उसे सामान्य इसलिए नहीं कह सकते हैं कि उसमें कुछ विशिष्ठ गुणधर्म या पर्याय पाए जाते हैं । उसके आधार पर वे वस्तुएँ पृथक् की जाती हैं । दूसरी ओर यह भी सत्य है कि शब्द सामान्यरूप से किसी सामान्य या जाति का बोध कराते हैं। वे जातिवाचक होते हैं जैसे मनुष्य शब्द व्यक्ति-विशेष का वाचक न होकर सामान्यरूप से मनुष्य-जाति का वाचक है। न केवल मनुष्य, गौ, महिष, आदि अधिकांश शब्द सामान्यतया जाति या सामान्य का ही वाचक होता है लेकिन जिस सत्ता को वे वाच्य बनाते हैं वह न तो एकान्तरूप से सामान्य है और न विशेष ही । जो सामान्य-विशेषात्मक है उसे न तो सामान्य कहा जाता है और न विशेष । ऐसी स्थिति में उसका निर्वचन सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि भाषा की दृष्टि से जब भी उसकी निर्वचनता का प्रयोग किया जाता है तब हमें उसे सामान्य कहना होगा या विशेष कहना होगा । अतः वस्तुतत्त्व को न तो समग्रत: सामान्य कहा जा सकता है और न विशेष । अतः वह अवक्तव्य ही है। इसी प्रकार वस्तु को न एक कहा जा सकता है और न अनेक । प्रत्येक वस्तु यहाँ अपने द्रव्य की अपेक्षा से एक होती है वहीं अपने पर्यायदृष्टि से अनेक भी ।२ भगवतीसूत्र में भ० महावीर से जब यह पूछा गया कि वे एक हैं या अनेक । तब उन्होंने कहा
१. अतस्त्यक्त्वेमौ सामान्यविशेषैकान्तपक्षौ अवचनीयं वस्तु प्रतिपत्तव्यम् । नाप्यभावं न
तदुपसर्जनं न भाव एव नाविशेषं न विशेषोपसर्जनं न विशेष एव नोभयोपसर्जनं नोभयप्रधानं वस्तु । अवचनीयभाव विशेषकारण कार्येकानेक प्रधानोपसर्जनं वस्तु ।
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७४३ २. सोमिला ! एके वि अहं दुवे वि अहं अक्खुए वि अहं अव्वए वि अहं अवट्ठिते वि अहं अणेकभूतभव्वभविए वि अहं ।
भगवतीसू० १०. १०.६४७
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सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
१७१ कि मैं एक भी हूँ और अनेक भी । भाषा की सीमा यह है कि वह एक या अनेक में से किसी एक विकल्प को पकड़कर उसका विधान या निषेध करती है । एक या अनेक दोनों पक्षों को एक साथ विधि-निषेध भाषा के द्वारा व्यक्त करना सम्भव नहीं है । भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है इसलिए इसमें सत्ता को वाच्य बनाने की सामर्थ्य नहीं है क्योंकि सत्ता तो अनेक गुणधर्मों का पुञ्ज है । उसे एकान्तरूप से न सत् कहा जा सकता है न असत् । न सामान्य कहा जा सकता है न विशेष, न उसे एक कहा जा सकता है न अनेक । वह उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी फिर भी ध्रुव बनी रहती है। भाषा और तर्क की दृष्टि से यह एक विरोधाभास है क्योंकि जिसकी उत्पत्ति और विनाश होती है उसमें ध्रौव्य नहीं होता है । इस कारण से उसे अनिर्वचनीय कहना होता है । इस प्रकार से वह अपने-आप में एक विरोधाभासपूर्ण एक स्थिति है । जैनाचार्यों ने इसलिए कहा है कि वस्तुतत्त्व में न केवल अनेक धर्म होते हैं अपितु विरोधी धर्म भी पाए जाते हैं ऐसी स्थिति में भाषा जो स्वयं विधि-निषेधों की कोटियों से सीमित है वह अपनी वाच्यता सामर्थ्य किस प्रकार रख सकती है । इस प्रकार मल्लवादी वस्तु के अनिर्वचनीय पक्ष का स्थापन करते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना है कि वस्तु की अनिर्वचनीयता का स्थापन एकान्तिक या नित्य नहीं है। इसलिए अपने ग्रन्थ के दशवें अर में वे इस अवाच्यता का खण्डन भी करते हैं ताकि उनके द्वारा स्थापित इस अवाच्यता को निरपेक्ष अवाच्यता न समक्ष लिया जाय ।।
यह सत्य है कि वस्तु को न तो एकान्तरूप से भावरूप कहा जा सकता है और न अभावरूप । न उसे सामान्यरूप कहा जा सकता है न विशेष में एक, न अनेक । न उसे कर्म कहा जा सकता है न कारण किन्तु यदि हम यहीं तक अपनी दृष्टि को सीमित रखें और यह मानलें कि उपर्युक्त आधारों पर वस्तु अवाच्य है किन्तु यहाँ यह प्रश्न भी उपस्थित होगा कि जो सत्-असत्, एक-अनेक, सामान्य-विशेष, कार्य-कारण कुछ भी नहीं है तो क्या वह वस्तु है भी ? जिसमें इस सबका अभाव हो वह तो खपुष्पवत् अवस्तु ही होगी । वस्तु हो ही नहीं सकती । मात्र निषेध से वस्तु का स्वरूप निश्चित नहीं होता यदि हमारी प्रतिपादन की शैली ऐसी निषेधात्मक ही रही तो निश्चितरूप से तत्त्व को शून्यरूप मानना
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन पड़ेगा किन्तु जैनदृष्टि ऐसी शून्यता की अवधारणा का निषेध करती है। वह कहती है कि जो सत् है वही असत् है जो एक है वही अनेक है । जो कार्य है वही कारण है। दूसरे शब्दों में सत् भी है, असत् भी है, एक भी है, अनेक भी है। सामान्य भी है विशेष भी है, कार्य, भी है कारण भी है और जब तत्त्व प्रतिपादन, की यह भावात्मक शैली अपनाते हैं तब वस्तु की अवक्तव्यता की भावना निरस्त हो जाती है और वह सापेक्ष रूप से वक्तव्य बन जाती है। क्योंकि यदि वस्तु सर्वथा अनिर्वचनीय होती तो फिर उसका निर्वचन कैसा किया जाता था ? किन्तु व्यवहार में हम सब भाषा के माध्यम से वस्तु के स्वरूप का निर्वचन करते हैं अतः वस्तु को सर्वथा अनिर्वचनीय मानने के सिद्धान्त का हमारे अनुभव से विरोध आता है । दूसरे यदि वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य माना जायेगा तो फिर उसे अवक्तव्य कहना भी कठिन हो जायेगा । क्योंकि उसके सम्बन्ध में अवक्तव्यता का प्रतिपादन भी एक प्रकार की वक्तव्यता ही है । यदि वस्तु को सर्वथा न सत्, न असत्, न एक, न अनेक, न सामान्य, न विशेष माना जायेगा तो फिर वस्तु के स्वरूप का निर्धारण ही नहीं किया जा सकेगा और वस्तु सपक्ष्य के समान अवक्तव्य हो जायेगी । इसलिए वस्तु में संपेक्ष रूप में अवाच्यता स्वीकार करना आवश्यक है। आ० मल्लवादी यह मानते हैं कि वस्तु सम्पूर्ण रूप में वाच्य नहीं है किन्तु उसके साथ यह भी मानते हैं कि वह पूर्णतया अवाच्य भी नहीं है । वे अपने ग्रन्थ के नवम अर में जिस अवक्तव्यता का मण्डन करते हैं और जिस अवक्तव्यता का खण्डन करते हैं वह निरपेक्ष या एकान्त अवक्तव्यता है। इस प्रकार उनके ग्रन्थ में नवें अर में अवक्तव्यता का मण्डन और दशवें अर में अवक्तव्यता का खण्डन विरोधाभासपूर्ण नहीं है किन्तु जिस अवक्तव्यता का स्थापन किया गया है वह सापेक्ष है और जिस अवक्तव्यता का खण्डन किया गया है वह निरपेक्ष है, दूसरे शब्दों में उनका प्रतिपाद्य यह है कि निरपेक्ष अवक्तव्यता की अवधारणा समुचित नहीं है किन्तु सापेक्ष अवक्तव्यता से उनका विरोध नहीं है । वस्तु में कथञ्चित वाच्यता और अवाच्यता को स्वीकार करना यही आ० मल्लवादी का निष्कर्ष है जो अनुभूति के स्तर पर खरा उतरता है ।
१. द्वादशारं नयचक्रं० दशमो नियमविध्यर: पृ० ७६५-७७९
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द्वादश अध्याय
नयविभाजन
निर्ग्रन्थ दर्शन में वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। प्रत्येक वस्तु अनेकानेक भावात्मक और अभावात्मक गुणधर्मों से युक्त होती है । इतना ही नहीं अपितु वस्तु में परस्पर विरोधी गुणधर्म भी एक ही समय में पाए जाते हैं । वस्तु की यह अनन्तधर्मात्मकता ही अनेकान्तवाद का तात्त्विक आधार है । वस्तु में अनेक गुणधर्मों के होने पर भी जब उसका कथन करना होता है तब किसी एक धर्म को, किसी एक अपेक्षा विशेष को प्रमुख बनाकर कथन किया जाता है । वस्तु के विविध पक्षों में जब किसी एक पक्ष को ही प्रधान बनाकर हम कथन करते हैं तब वस्तुतः अन्य पक्षों या गुणधर्म का अभाव नहीं हो जाता । इस अनन्तधर्मात्मक वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए किसी ऐसी कथन-शैली की आवश्यकता होती है जो वस्तु के किसी एक गुणधर्म का विधान करते हुए अन्य गुणधर्मों का निषेध न करे । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वस्तु के सम्बन्ध में जो सापेक्षित कथन किया जाता है वह किसी अभिप्राय-विशेष या दृष्टिकोण-विशेष को ध्यान में रखकर किया जाता है । वक्ता का यह अभिप्राय-विशेष किंवा दृष्टिकोण-विशेष ही नय कहलाता
१. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । हेमचन्द्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका
श्लो० २२, सं० मुनिश्री सूर्योदयविजयजी, चंदननी सुवास, श्री श्वे० मू० पू० जैन संघ, कराड सं० २०२०, पृ० २४१.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन है' । तदतिरिक्त जिस अपेक्षा के आधार पर वस्तु के अनन्तगुणधर्मों में से किसी एक गुणधर्म का विधान या निषेध किया जाता है वह नय कहलाता है । नय का सम्बन्ध वस्तु की अभिव्यक्ति की शैली से है । इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतिप्रकरण(प्राय: ईस्वी सन् की पाँचवीं शती का पूर्वार्द्ध) में कहा है कि :
जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥
अर्थात् कथन की जितनी शैलियाँ या जितने वचन-पथ होते हैं उतने ही नयवाद होते हैं एवं जितने ही नयवाद होते हैं उतने ही पर-समय अर्थात् परदर्शन होते हैं । इस आधार पर यह सिद्ध होता है कि नयों की संख्या अनन्त है । क्योंकि वस्तु के अनन्त गुणधर्मों की अभिव्यक्ति हेतु विविध दृष्टिकोणों का सहारा लेना पड़ता है । यह सभी विशेष दृष्टिकोण नयाश्रित ही होते हैं । जैनदर्शन में नयों की चर्चा विभिन्न रूपों में की गई है । सर्वप्रथम
आगमयुग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से वस्तु का विवेचन उपलब्ध होता है । वस्तु के द्रव्यात्मक या नित्यत्व को जो अपना विषय बनाता है उसको 'द्रव्यार्थिक-नय' कहा जाता है । इसके विपरीत वस्तु के परिवर्तनशील पक्ष को जो नय अपना विषय बनाता है, वह नय ‘पर्यायाथिक-नय' कहलाता है । फिर प्रतीति एवं यथार्थता के आधार पर भी प्राचीन आगमों में दो प्रकार
१. नयो ज्ञातुरभिप्रायः लघीयस्त्रयी, श्लो० ५५, सं० महेन्द्रकुमार शास्त्री, सरस्वती पुस्तक
भण्डार, अहमदाबाद १९९६ ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नयाः । पृ० १०. सिद्धिविनियश्चय टीका, भट्ट अकलंक, सं० महेन्द्रकुमार जैन भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९४४, पृ०
५१७. २. अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति-प्रापयति संवेदनमारोहयतीति नयः ।।
न्यायावतार-वार्तिकवृत्ति, शान्तिसूरि, प्रथमावृत्ति, सं० पं० दलसुख मालवणिया, सिंघी जैन
ग्रन्थमाला, बम्बई १९४९, पृ० ७३. ३. सन्मतिप्रकरण भा० ४, सं० पं० सुखलाल संघवी - पं० बेचरदास दोशी, गूजरात
विद्यापीठ, अहमदाबाद १९३२, ३.४७ ४. सन्मतिप्रकरण १.४-५.
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नयविचार के नयों का उल्लेख मिलता है । जो नय वस्तु के मूलभूत स्वाभाविक स्वरूप को अपना विषय बनाता है उसे हम "निश्चयनय" और जो नय वस्तु के प्रतीतिजन्य विषय को अपना विषय बनाता है उसे "व्यवहारनय" कहा गया है।
प्राचीन आगमों में मुख्य रूप से इन्हीं दो प्रकार के नयों की चर्चा हुई है । कभी-कभी व्यवहारनय या द्रव्यार्थिक नय को अव्युच्छित्ति-नय तथा पर्यायार्थिक-नय या निश्चयनय को व्युच्छित्ति-नय भी कहा गया है | नयों के इस द्विविध विवेचन के पश्चात् हमें अन्य वर्गीकरण भी उपलब्ध होते हैं । आ० उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (प्रायः ईस्वी ३५०) में नैगमादि पाँच मूल नयों का उल्लेख किया है३ । आ० सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतिप्रकरण में नैगमनय को छोड़कर छ: नयों की चर्चा की है । तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर टीकाकार एवं कुछ अन्य आचार्य सात नयों की चर्चा करते हैं । द्वादशार-नयचक्र में ग्रन्थकर्ता आ० मल्लवादी (ई. ५५०-६००) ने बारह नयों अर्थात् दृष्टिकोणों को आधार बनाकर चर्चा की है । इन विभिन्न नयों और इनके विभिन्न संयोगों के आधार पर किसी आचार्य ने सात सौ नयों की चर्चा की थी। सप्तशतार-नयचक्र नामक ग्रन्थ में इन्हीं सात सौ नयों का उल्लेख किया गया था, ऐसा उल्लेख द्वादशार-नयचक्र की सिंहसूरी (सिंहशूर) की टीका (प्रायः ईस्वी० ६७५) में उपलब्ध है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि
१. महेन्द्रकुमार जैन, जैनदर्शन, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी १९७४, पृ०
३५१-३५४ २. न्यायावतारवातिकवृत्ति, पृ० २२. ३. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ॥ तत्त्वार्थसूत्र १.३४, सं० पं० सुखलाल संघवी,
पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी १९७६. ४. सन्मतिप्रकरण - १.४-५. ५. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्द समभिरूद्वैवम्भूढाः नयाः ॥ तत्त्वार्थसूत्र १.३४. ६. द्वादशारनयचक्रं, सं० मुनि जम्बूविजय, श्री जैन आत्मनन्द सभा, भावनगर १९८८, भा०
१, पृ० १०. ७. सप्तशतारनयचक्राध्ययने । द्वादशारनयचक्रं, पृ० ८८६.
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जैन परम्परा में नयों के वर्गीकरण की विभिन्न शैलियाँ रही हैं ।
(१) वर्गीकरण की संक्षिप्त शैली - इसके अन्तर्गत सामान्यरूप से द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, निश्चय-व्यवहार, व्युच्छित्त-अव्युच्छित्त आदि रूपों में नयों के दो विभाग किए गए हैं ।
द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
(२) वर्गीकरण की मध्यम शैली - इसमें सामान्य और विशेष को ही आधार बनाकर नयों के चतुर्विध, पञ्चविध, षड्विध, सप्तविध आदि भेद किए गए हैं ।
(३) वर्गीकरण की विस्तृत शैली - यह शैली वर्तमान में प्रचलित नहीं है, किन्तु प्राचीन काल में यह शैली अस्तित्व में रही होगी । क्योंकि सप्तशतार- नयचक्र होने का उल्लेख भी प्राप्त हुआ है जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर नयों का विभाजन सात सौ रूपों में भी किया जाता था । किन्तु वर्त्तमान युग में नयों के वर्गीकरण के संक्षिप्त और मध्यम रूप ही प्रचलित हैं ।
आगमकाल में नय विभाजन
I
प्राचीन अर्धमागधी आगम साहित्य में सर्वप्रथम नयों की चर्चा व्याख्याप्रज्ञप्ति अपर नाम भगवतीसूत्र ( ईस्वी २ - ३ शती) में देखने को मिलती है । इसमें सामान्य रूप से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा निश्चय और व्यवहार नयों की चर्चा हुई है । द्रव्यार्थिक नय वह दृष्टिकोण है जो सत्ता के शाश्वत पक्ष को, दूसरे शब्दों में द्रव्य को ही अपना विषय बनाता है । जबकि पर्यायार्थिक नय सत्ता या द्रव्य के परिवर्तनशील पक्ष को, जिसे परम्परागत शैली में पर्याय कहा जाता है, अपना विषय बनाता है । व्याख्याप्रज्ञप्ति में इनके लिए अव्युच्छित्ति - नय और व्युच्छित्ति - नय शब्द का भी प्रयोग किया गया है । जो द्रव्यार्थिक नय है, उसे ही अव्युच्छित्ति - नय कहा १. छारिया णं भंते ! पुच्छा ! गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, तं जहां- नेच्छिइयनए य वावहारियनए य ।
वियाहपण्णत्तिसुत्तं, सं० पं० बेचरदास दोशी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९७८, पृ० ८१४.
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नयविचार गया है । अव्युच्छित्ति नय का विषय, सत्ता का सामान्य और शाश्वत पक्ष होता है । सत्ता के पर्यायार्थिक पक्ष को या परिवर्तनशील-पक्ष को व्युच्छित्तनय कहा गया है, एवं एक ही वस्तु की व्याख्या इन दो दृष्टिकोणों के आधार पर दो प्रकार से की गई है । जैसे-द्रव्यार्थिक दृष्टि या अव्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा से वस्तु को शाश्वत कहा जाता है जबकि पर्यायार्थिक दृष्टि या व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा से वस्तु को अशाश्वत या अनित्य माना जाता है। इन्हीं दो दृष्टिकोणों के आधार पर आगे चलकर सामान्य दृष्टिकोण और विशेष दृष्टिकोण की चर्चा हुई है । सन्मतिप्रकरण में अभेदगामी दृष्टिकोण को सामान्य
और भेदगामी दृष्टिकोण को विशेष कहा है२ । वस्तु का सामान्य पक्ष सामान्यतया नित्य होता है और विशेष पक्ष अनित्य होता है । इसलिए द्रव्यार्थिक दृष्टि को सामान्य या अभेदगामी दृष्टि भी कहते हैं । इसी प्रकार पर्यायार्थिक दृष्टि को विशेष या भेदगामी दृष्टि भी कहा जा सकता है ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति में नयों का एक वर्गीकरण निश्चय और व्यवहार के रूप में भी पाया जाता है । निश्चयनय वस्तु के पारमार्थिक या यथार्थ स्वरूप को या दूसरे शब्दों में कहें तो वस्तु के स्वभाव-पक्ष को अपना विषय बनाता है । इसका एक उदाहरण उसी सूत्र में इस प्रकार मिलता है-जब भगवान् महावीर से यह पूछा गया कि-"हे भगवन् ! फणित् (प्रवाही गुड) का स्वाद कैसा होता है ?" तो उन्होंने उत्तर दिया- "हे गौतम ! व्यवहारनय से तो उसे मीठा कहा जाता है किन्तु निश्चयनय से तो वह पाँचों ही प्रकार के स्वादों से युक्त है ।"
इसके अतिरिक्त प्राचीनकाल में ज्ञाननय और क्रियानय तथा शब्दनय
१. न्यायावतारवार्त्तिकवृत्ति, "प्रस्तावना," पृ० २२. २. तित्थयरवयणसंगह-विसेस पत्थार मूलवागरणी । दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा विकप्पा
सिं । सन्मतिप्रकरण १.३. ३. सन्मतिप्रकरण भा० १, पृ० २. ४. फाणियगुले णं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते ? गोयमा ! एत्थं दो
नया जवंति, तं जहा-नेच्छयियनए य वावहारियनए य । वावहारियनयस्स गोड्डे फालियगुले, नेच्छइय नयस्स पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, अटुफासे पन्नते । वियाहपण्णत्ति भा० २, पृ० ८१३.
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन और अर्थनय ऐसे भी द्विविध वर्गीकरण प्राप्त होते हैं । जो नय ज्ञान को प्रमुखता देता है वह ज्ञाननय है और जो नय क्रिया पर बल देता है वह क्रियानय है । उन्हें हम ज्ञानमार्गी जीवनदृष्टि और क्रियामार्गी जीवनदृष्टि कहते हैं । इसी प्रकार जो दृष्टिकोण शब्दग्राही होता है वह शब्दनय और जो नय अर्थग्राही होता है उसे अर्थनय के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन आगम में नयों का विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर विभिन्न शैलियों में विविध प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। यहाँ हमें नयों के संक्षिप्त वर्गीकरण की शैली का ही बोध होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में भी नयों का उल्लेख मिलता है किन्तु इसमें उसके भेद-प्रभेदों की कोई चर्चा नहीं मिलती है । इस आधार पर हम यह मान सकते हैं कि उत्तराध्ययन के सैद्धान्तिक अध्यायों के काल (ईस्वी १-२ शताब्दि) तक नयों के वर्गीकरण की संक्षिप्त शैली ही अस्तित्व में रही होगी।
अपेक्षाकृत परवर्ती आगम स्थानांगसूत्र (संकलन प्रायः ईस्वी ३६३)७ और अनुयोगद्वारसूत्र (प्रायः गुप्तकाल)८ में नयों का सप्तविध वर्गीकरण हमें
१. स्थानांग-समवायांग, सं० मुनि जम्बूविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९८५,
पृ० ३३८. २. ज्ञान मात्र प्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः । जैनतर्कभाषा, सं० दलसुख मालवणिया,
सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद १९९३, पृ० २३. ३. क्रिया मात्र प्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः ॥ जैनतर्कभाषा, पृ० २३. ४. प्राधान्येन शब्दगोचरत्वाच्छब्द नयाः । जैनतर्कभाषा, पृ० २३. ५. प्राधान्येनार्थगोचरत्वादर्थ नयाः ॥ जैनतर्कभाषा, पृ० २३. ६. सव्वनयान अनुमए रमेज्जा संजमे मुनी ।
उत्तराध्ययनसूत्र, सं० मुनि जम्बूविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९७७, ग्रन्थांक १५, ३६. २४९, पृ० ३२६. (यहाँ अर्धमागधी भाषा अनुसार शब्द-रूप लिया
गया है।) ७. सत्त मूलनया पन्नत्ता, तं जहा-नेगमे, संगेहि, ववहारे उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते ।
ठाणंगसुत्त, सं० मुनि जम्बूविजय, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९८५, पृ० २२५. ८. सत्त मूलणया पण्णत्ता । तं जहा–णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, समभिरुढे,
एवंभूते ।
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नयविचार
१७९ उपलब्ध होता है । यहाँ दार्शनिक काल के सात नयों का नाम निर्देश मात्र किया गया है । ऐसा लगता है कि जब तत्त्वार्थ और सन्मति प्रकरण आदि ग्रन्थों में नय का पञ्चविध, षड्विध एवं सप्तविध वर्गीकरण किए गए उसमें से सप्तविध वर्गीकरण को ग्रहण करके उन नामों को स्थानांग में उसके अन्तिम वाचना के समय डाल दिया गया हो । यद्यपि अनुयोगद्वारसूत्र के नयद्वार में सातों नयों के लक्षण आदि की चर्चा मिलती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अनुयोगद्वारासूत्र', तत्त्वार्थ ओर सन्मतिप्रकरण जैसे दार्शनिक ग्रन्थों के बाद ही लिखा गया है। उसकी दार्शनिक शैली स्वयं इस तथ्य का प्रमाण है कि यह आगम ग्रन्थ होते हुए भी परवर्ती काल का ही है। इसमें प्रथम चार नय अर्थनय और बाद के तीन नय शब्दनय के रूप में विवेचित हैं । अर्थनय का तात्पर्य वस्तु या पदार्थ से है। जो नय पदार्थ को अपना विषय बनाते हैं वे अर्थनय और जो शब्द को अपना विषय बनाते हैंवे शब्दनय कहलाते हैं । इस प्रकार परवर्ती आगमों में नयों की विस्तृत चर्चा हमें मिलने लगती है । किन्तु इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि प्रस्तुत आगम दार्शनिक युग की ही रचना हैं ।
दार्शनिक युग के ग्रन्थों में प्राचीनतम ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है । इसके प्रथम अध्याय में नय का उल्लेख करनेवाले तीन सत्र उपलब्ध होते हैं। प्रारम्भ में यह कहा गया है कि वस्तुतत्त्व का अभिगम नय और प्रमाण के द्वारा होता है । इस प्रकार ज्ञान-प्रक्रिया में नय के स्थान और महत्त्व को स्वीकार किया गया है । अध्याय के अन्त के दो सूत्रों में नय का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। पहले सूत्र में नयों को नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र
नन्दीसूत्त अनुयोगदाराई, सं० पं० बेचरदास दोशी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई
१९७८, पृ० २०४. १. वही २. तिण्हं सद्दणयाणं. । अणुओगद्दारसुत्त, पृ० ७०. ३. प्रमाणनयैरधिगमः । नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दनयाः । आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, क्रमशः १-६, १-३४, १-३५. ४. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १.६.
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१८०
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन और शब्द ऐसे पाँच नयों में विभाजित किया गया है । फिर नैगम के दो भेदों और शब्द के तीन-तीन भेदों का भी उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पाठ में इन दो सूत्रों के स्थान पर एक ही सूत्र प्राप्त होता है और इसमें सात नयों का निर्देश एक साथ ही कर दिया गया है ।
परवर्ती जैनदार्शनिक ग्रन्थों में विभिन्न नय दृष्टियों को भिन्न-भिन्न दार्शनिक मन्तव्यों के साथ संयोजित करके यह कहा जाता है कि वेदान्त संग्रहनय की अपेक्षा से, बौद्ध दर्शन ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से, न्यायवैशिषिक दर्शन नैगमनय की अपेक्षा से वस्तु-तत्त्व का विवेचन करते हैं । किन्तु विभिन्न नयों को विभिन्न दर्शनों से संयोजित करने की यह शैली परवर्ती काल की है। तत्त्वार्थभाष्य के काल तक हमें इसका उल्लेख नहीं मिलता है। तत्त्वार्थभाष्य में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि नैगमादि नय तन्त्रान्तरीय हैं या स्वतन्त्र ? और इसका उत्तर देते हुए उमास्वाति कहते हैं: "नैगमादि नय न तो तन्त्रान्तरीय हैं और न स्वतन्त्र ही हैं। क्योंकि ज्ञेय पदार्थ का स्वरूप ही ऐसा है कि ज्ञेय पदार्थ को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से जानने के लिए ही इन नयों का आविर्भाव हुआ है"४ । इससे यह फलित होता है कि वाचक उमास्वाति के काल तक विभिन्न दर्शनों को विभिन्न नयों से संयोजित करने की शैली का विकास नहीं हुआ था। यह एक परवर्ती विकास है। वैसे तन्त्र शब्द का एक अन्य अर्थ करके इस विषय पर एक अन्य दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में आगम शब्द के लिए भी तन्त्र शब्द का प्रयोग हआ है। जैसे हरिभद्रसूरि ने यापनीय-तन्त्र का उल्लेख किया है । इस आधार पर हम
१. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १.३४. २. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १.३५. ३. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवम्भूता नयाः ॥ सर्वार्थसिद्धि, सं० पं० फूलचंद्र
सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९१, १.३३. ४. अत्राह-किमेते तन्त्रान्तरीया वादिन आहोस्वत्स्वतन्त्रा । एव चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन
विप्रधाविता इति । आलोच्यते-नैते तन्त्रान्तरीया नापि स्वतन्त्रा मतिभेदेन । विप्रधाविताः । ज्ञेयस्य त्वर्थस्याध्यावसायान्तराण्येतानि । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥ पृ० ६३. स्त्रीग्रहणं तासामपि...यथोक्तं यापनीय तन्त्रे । ललितविस्तरा, सं० विक्रमसेन वि० म० सा०, भुवनभद्रंकर साहित्य प्रचार केन्द्र, मद्रास वि० सं० २०५१, पृ० ४२७-४२८.
५.
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नयविचार यह कह सकते हैं कि उमास्वाति के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ होगा कि जो नैगमादि सात नय हैं ये उस समय के आगमों में उल्लिखित नहीं थे। अत: यह चर्चा चलती होगी कि यह नय आगम के अनुकूल है या प्रतिकूल है । इसी बात का निराकरण उमास्वाति ने इस प्रकार किया ये नय आगम में तो नहीं हैं किन्तु आगम के अनुसार वस्तु-तत्त्व का विवेचन करने के कारण आगम के प्रतिकूल भी नहीं हैं।
इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन परम्परा में नयों का अवतरण वस्तु-तत्त्व के विभिन्न पक्षों को पृथक्-पृथक् दृष्टि से व्याख्याबद्ध करने के लिए हुआ है । वस्तु की परिणामियता ही अलग-अलग नय दृष्टियों का आधार है । नयों का विभिन्न दर्शनों के साथ संयोजन करने की शैली अपेक्षाकृत परवर्ती है।
सन्मतिप्रकरण में नयों के विभिन्न भेद-प्रभेदों की और उनकी ज्ञानसीमा का विस्तार से विवेचन किया है । नयों का इतना विस्तृत विवेचन न तो आगमिक साहित्य में मिलता है और न तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैसे आरंभिक दर्शनग्रन्थ में उपलब्ध होता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने मूल में आगम का अनुसरण करते हुए दो नयों का प्रतिपादन किया और दार्शनिक युग के नैगम आदि नयों का इन दो मूल नयों में समावेश किया । आ० सिद्धसेन की विशेषता यह है कि वे नैगमादि सात नयों में नैगमनय का निषेध करके मात्र छह नयों को ही स्वीकार करते हैं । नैगमनय को अस्वीकार करने का मूलभूत कारण यह हो सकता है कि कोई भी नय वस्तु के स्वरूप पर कोई एक ही दृष्टिकोण से विचार कर सकता है। क्योंकि नैगम में सामान्य
१. सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, भाषानुवाद, पं० खूबचन्द्रजी, श्रीमद्ाजचन्द्र आश्रम, अगास
१९३२, पृ० ६३. १. सन्मतिप्रकरण, प्रथम काण्ड तथा तृतीय काण्ड । ३. तित्थयर वयण संगह-विसेस पत्थारमूलवागरणी । दव्वढिओ य पज्जवणओ य सेसा
विकप्पा सिं ॥
सन्मतिप्रकरण- १.३. ४. सन्मतिप्रकरण- १.४-५.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
और विशेष ऐसे दोनों दृष्टिकोणों का अन्तर्भाव माना गया था । इसलिए वह स्वतन्त्र नय या दृष्टि नहीं हो सकता । यदि नैगम द्रव्य को अखण्डित रूप में ग्रहण करता है तो वह संग्रहनय में अन्तर्निहित होगा और यदि वह वस्तु को भेदरूप में या विशेष रूप में ग्रहण करता है तो वह व्यवहारनय में आभासित होगा । इस प्रकार नैगमनय सांयोगिक नय हो सकता है, किन्तु स्वतन्त्र नय नहीं हो सकता है ।
आ० सिद्धसेन दिवाकर ने नयों का एक विभाजन सुनय और दुर्नय के रूप में भी किया है । वस्तुतः जब प्रत्येक नय - दृष्टि को किसी दर्शन विशेष के साथ संयोजित करने का प्रयत्न किया गया तो जैनसंघ में यह प्रश्न सामयिक रूप से उत्पन्न हुआ होगा कि प्रत्येक दर्शन किसी नय - विशेष पर आश्रित / आधारित है इसलिए वह दर्शन सम्यग्दर्शन ही माना जायेगा, मिथ्यादर्शन नहीं माना जायेगा । इस आपत्ति का उत्तर देने के लिए ही सामान्यतया आचार्य सिद्धसेन ने नयों के दो प्रकारों अर्थात् सुनय और दुर्नय की उद्भावना की होगी । क्योंकि किसी नय विशेष को स्वीकार करके भी दृष्टिकोण आग्रही हो तो वह दृष्टिकोण सम्यक् नहीं हो सकता । जो नय अथवा दृष्टि अपने को ही एकमात्र सत्य माने और दूसरे का निषेध करे, वह दृष्टि सम्यक् दृष्टि या सुनय नहीं हो सकती । अन्य दर्शन यदि अपने ही दृष्टिकोण को एकमात्र सत्य मानेंगे तो वे नयाश्रित होकर भी सुनय की कोटि में नहीं रखे जायेंगे, अपितु उनका वह दृष्टिकोण दुर्नय कहा जायेगा क्योंकि वह अनेकान्तदृष्टि का निषेधक होगा । आ० सिद्धसेन के अनुसार जो नय दूसरे नयों अर्थात् दृष्टियों का निषेधक नहीं होता, वह सुनय होता है । उसके विपरीत जो नय अपने अतिरिक्त दूसरे नयों का निषेध करता है या उन्हें मिथ्या मानता है, वह नय दुर्नय मे आरोपित होता है ।
आचार्य सिद्धसेन के नय - विवेचन की विशेषता यह है कि नयदृष्टि
१.
जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुण्णया णया सव्वे ।
हंदि हु मूलणयाणं पण्णवणे वावडा ते वि ॥
२. सन्मतिप्रकरण- १.२२ - २८.
सन्मतिप्रकरण- १.१५.
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नयविचार
१८३ के सम्यक् या मिथ्या होने का आधार उनके द्वारा अन्य नयों के निषेध पर आधारित है । जो नय अपने अतिरिक्त अन्य नयों या दृष्टिकोणों को स्वीकार करता है, वह सम्यक् होता है । इसी आधार पर उन्होंने जैनदर्शन को मिथ्यामत समूह के रूप में प्रतिपादित किया है । इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्न नय दृष्टियाँ जो अपने आप में केन्द्रित रहकर अन्य की निषेधक होने के कारण मिथ्यादृष्टि होती हैं, वही जब एक-दूसरे से समन्वित हो जाती हैं तो सम्यक् दृष्टि बन जाती है । इसी अर्थ में आचार्य सिद्धसेन ने जैनदर्शन को मिथ्यामत-समूह कहा । क्योंकि वह अनेकान्त के आधार पर विभिन्न नय या दृष्टिकोण को समन्वित कर लेता है । आचार्य सिद्धसेन के नय चिन्तन की एक विशेषता यह है कि उन्होंने नय चिन्तन को एक व्यापक परिमाण प्रदान किया ।
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि के सौ-सौ भेदों की कल्पना आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार यदि अन्य नयों के भी सौ-सौ नय कल्पित किए जायें तो नयों के सर्वाधिक भेदों के आधार पर सात सौ नयों की भी कल्पना समुचित मानी जा सकती है । आ० मल्लवादी के द्वादशार-नयचक्र में नयों के इन सात सौ भेदों का निर्देश मात्र प्राप्त होता है ।
संभवतः नयों के सात सौ भेद करने की यह परम्परा द्वादशारनयचक्र के पूर्व की होगी । हम देखते हैं कि आ० सिद्धसेन दिवाकर ने सर्वप्रथम एक कदम आगे बढ़कर यह कहा था कि नयों की संख्या असंख्य हो सकती है । वस्तुतः वस्तु के प्रतिपादन की जितनी शैलियाँ हो सकती हैं
१. भई मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥
सन्मतिप्रकरण- ३.६९. २. अर्हत्प्रणीत नैगमादि प्रत्येक शत संख्य प्रभेदात्मक सप्तनयशतारनयचक्राध्ययनानुसारिषु ।
नयचक्र-वृत्ति, पृ० ८८६. एक्केको य सतविधो. (आव० नि० ७५९).....ति तस्य शतभेदस्य सप्तनयशतारनयचक्रे । नयचक्र-वृत्ति, माइल्ल धवल, सं० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९७१, पृ० ७८९.
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
उतने ही नय या नयदृष्टियाँ हो सकती हैं । एवं जितनी ही नयदृष्टियाँ होती हैं। उतने ही पर - दर्शन होते हैं । क्योंकि प्रत्येक दर्शन किसी दृष्टिविशेष को स्वीकार करके वस्तु-तत्त्व का विवेचन करता है? । आचार्य सिद्धसेन का नयों के संदर्भ में यह अति व्यापक दृष्टिकोण परवर्ती जैन-ग्रन्थों में यथावत मान्य रहा है । विशेषावश्यकभाष्य के कर्त्ता जिनभद्र (प्रायः ईस्वी० ५५० -५९४) ने भी नयों के संदर्भ में इस व्यापक दृष्टिकोण को स्वीकार किया है । सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण की "जावइया वयणवहा" गाथा किञ्चित् पाठान्तर के साथ विशेषावश्यकभाष्य में उपलब्ध होती है? । वस्तुतः नयदृष्टि एक बंधी बंधाई दृष्टि नहीं है । इसमें एक व्यापकता रही हुई है और जैन आचार्यों ने इस व्यापकदृष्टि को आधार मान कर अपने-अपने ढंग से नयों का विवेचन भी किया है ।
आ०
द्वादशार - नयचक्र में आगम- प्रसिद्ध नयों के द्विविध वर्गीकरणों को स्वीकार करके उनमें दर्शनयुग के सात नयों का समावेश तो किया ही गया है किन्तु इसके अतिरिक्त जैनदर्शन में अन्यत्र अनुपलब्ध ऐसे विधि, नियम, विधि-विधि आदि बारह नयों का उल्लेख भी किया गया है । उनके द्वारा यह नय द्वादशविध नय वर्गीकरण किस प्रकार से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे द्विविध और नैगम आदि सात नयों में अन्तर्भावित होता है, यह निम्न तालिका से स्पष्ट होता है
१. जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव पर समया ॥
२. जावन्तो वयणपहा तावन्तो वा नया विसद्दाओ । ते चेव या परसमया सम्मत्तं समुदिया सव्वे ॥ विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञवृत्ति सहित, सं० दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद - ९, प्रथम संस्करण, १९६८, द्वितीय भाग२७३६, पृ० ५२७.
३. तयोर्भङ्गाः - १ विधिः, २ विधि-विधिः, ३ विधेविधि - नियमम् ४ विधेर्नियम:, ५ विधिनियमम्, ६ विधि-नियमस्य विधिः, ७ विधिनियमस्य विधिनियमम्, ८ विधिनियमस्य नियमः, ९ नियम:, १०, नियमस्य विधिः, ११ नियमस्य विधिनियमम्, १२ नियमस्य नियमः ॥ द्वादशार- नयचक्र, पृ० १०.
सन्मतिप्रकरण- ३.४७.
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नयविचार
१८५ १. विधिः द्रव्यार्थिक
व्यवहार २. विधिविधिः द्रव्यार्थिक
संग्रहनय ३. विद्युभयम् द्रव्यार्थिक
संग्रहनय ४. विधिनियमः द्रव्यार्थिक
संग्रहनय ५. उभयम् द्रव्यार्थिक
नैगमनय ६. उभयविधिः द्रव्यार्थिक
नैगमनय ७. उभयोभयम् पर्यायार्थिक
ऋजुसूत्र ८. उभयनियमः पर्यायार्थिक
शब्दनय ९. नियमः पर्यायार्थिक
शब्दनय १०. नियमविधिः पर्यायार्थिक
समभिरूढ़ ११. नियमोभयम् पर्यायार्थिक
एवंभूतनय १२. नियमनियमः पर्यायार्थिक
एवंभूतनय उपरोक्त बारह "अर'' द्वादशार-नयचक्र की अपनी विशिष्टता हैं । विधि एवं नियम शब्द का आर्थ अनुक्रम से सत् का स्वीकार एवं अस्वीकार है । इन दो शब्दों के संयोजन से ही बारह भेद किए गए हैं । इसमें उस युग के समस्त भारतीय दर्शन का समावेश किया गया है। प्रथम चार अर में सत् को नित्य माननेवाले दर्शनों का समावेश किया है । उभयादि चार अर में सत् को नित्यानित्यात्मक माननेवाले दर्शनों का और अन्तिम चार अर में सत् को अनित्य माननेवाले दर्शनों का समावेश किया गया है ।
इस प्रकार जैनदर्शन में नयों का क्रमिक विकास हुआ है किन्तु द्वादशार-नयचक्र में प्रयुक्त शैली एवं नयों के नाम नयचक्र के पूर्ववर्ती या परवर्ती साहित्य में उपलब्ध नहीं होते।
१. तत्र विधिभङ्गाश्चत्वार आद्या उभयभङ्गा मध्यमाश्चत्वारो नियमभङ्गाश्चत्वारः पाश्चात्या यथासंख्यं
नित्यप्रतिज्ञाः, नित्यानित्यप्रतिज्ञाः अनित्यप्रतिज्ञाश्च । द्वादशार-नयचक्र-वृत्ति, पृ० ९७७
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उपसंहार
स्वतन्त्र दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से भारतीय-दर्शन परम्परा में श्रमणपरम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। श्रमण-परम्परा का यह वैशिष्ट्य रहा है कि उसने दर्शन को आस्था की अपेक्षा तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । वर्तमान में श्रमण परम्परा के जो दर्शन उपलब्ध हैं उनमें प्रमुख रूप से चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि आज आजीवक आदि श्रमण-परम्परा के कुछ दर्शन अपने सुव्यवस्थित रूप में अनुपलब्ध हैं और सांख्य तथा योग जैसे कुछ दर्शनों को आस्तिक दर्शनों के वर्ग में समाहित करके वैदिक दर्शन परम्परा का ही अंग माने जाने लगा है ।
भारतीय दार्शनिक चिन्तन की जो विविध धाराएँ अस्तित्व में आईं उनके बीच समन्वय स्थापित करने का काम जैनदर्शन ने अपने नयवाद के माध्यम से प्रारम्भ किया था । बौद्ध दर्शन से भिन्न जैनदर्शन का यह वैशिष्ट्य रहा कि जहाँ बौद्ध दार्शनिकों ने अपने से भिन्न दर्शन परम्परा में दोषों की उद्भावना दिखाकर मात्र उन्हें नकारने का काम किया, वहाँ जैन दार्शनिकों ने यद्यपि विभिन्न दर्शन परम्पराओं की समीक्षा तो की, किन्तु उन्हें नकारने के स्थान पर उनमें एकांगी होने का दोष दिखाकर उन्हें परस्पर समन्वित और संयोजित करने का प्रयत्न किया । जैन दार्शनिकों का यह उद्घोष था कि जो भी दर्शन अपने को ही एकमात्र सत्य मानता है एवं दूसरे दर्शनों को असत्य कहकर नकारने का प्रयत्न करता है वह मिथ्यादर्शन है । किन्तु वे ही विभिन्न दर्शन जब विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर एक-दूसरे से समन्वित हो जाते हैं, तो वे सत्यता को प्राप्त कर लेते हैं । प्रत्येक दर्शन अपने से विरोधी मत
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उपसंहार
१८७ का निरपेक्ष रूप से खण्डन करने के कारण दुर्नय (मिथ्यादर्शन) होता है, किन्तु वही दर्शन अनेकान्तवाद में स्थान पाकर सुनय (सम्यक् दर्शन) बन जाता है । आचार्य सिद्धसेन ने पृथक्-पृथक् दर्शनों को रत्नों की उपमा दी
और यह बताया कि वे दर्शन पृथक्-पृथक् रूप में कितने ही मूल्यवान क्यों न हों हार की शोभा को प्राप्त नहीं कर पाते । उन्हें हार की शोभा को प्राप्त करने के लिए एक सूत्र में आबद्ध होना होगा । जैन विचारकों का अनेकान्तवाद विभिन्न दार्शनिक मतवादों को सूत्रबद्ध करने का एक प्रयत्न है । आचार्य मल्लवादी का इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण अवदान द्वादशार नयचक्र के रूप में हमारे सामने है । अनेकान्तवाद के कारण जैनदर्शन में जो विशेषता आयी वह यह है कि जैनदर्शन के अध्ययन के लिए और उसके सम्यक् प्रस्तुतीकरण के लिए अन्य दार्शनिक परम्पराओं का अध्ययन आवश्यक माना गया ।
। यही कारण था कि भारतीय दर्शन परम्परा के इतिहास में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की सर्वप्रथम रचना जैन परम्परा में ही हुई । जैन दार्शनिकों में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर (४ शती ) प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सन्मति-प्रकरण में विभिन्न दार्शनिक मतों को समीक्षित और समन्वित करने का प्रयास किया । यद्यपि आचार्य सिद्धसेन के समकालीन बौद्ध दार्शनिकों ने भी विभिन्न दार्शनिक मतवादों की समीक्षा की थी किन्तु उन्होंने मात्र उनमें दोषों की उद्भावना कर उन्हें निरस्त करने का ही प्रयास किया, जब कि आचार्य सिद्धसेन ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोषणा की कि जब तक प्रत्येक दर्शन (नय)पृथक्-पृथक् होता है, तब तक वह अपनी ही सत्यता के मिथ्या अभिनिवेश के कारण ही मिथ्या रहता है, किन्तु जब वह अनैकान्तिक और अनाग्राही दृष्टि को स्वीकार कर एक-दूसरे की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए उनमें सामंजस्य स्थापित करता है तो वह सम्यक् बन जाता है। इसी क्रम में उन्होंने आगे यह बताया था की सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिक-नय को प्रधान मानकर और सौगत-दर्शन पर्यायार्थिक-नय को प्रधान मानकर अपनी विवेचना प्रस्तु करता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में उक्त दोनों नयों को अपेक्षा-भेद से और विषयभेद के आधार पर प्रधानता दी जाती है । इस प्रकार एक समन्वय
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
की दृष्टि को लेकर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जिस परम्परा को प्रस्तुत किया था, हमारे आलोच्य ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) के द्वारा उसी दृष्टिकोण को संपोषित किया गया ।
प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थाकार के वैशिष्ट्य को स्थापित करते हुए जैनविद्या के मूर्धन्य विद्वान पं० दलसुखभाई मालवणिया ने लिखा है कि"भगवान् महावीर के बाद भारतीय चिन्तन में तात्विक दर्शनों की बाढ़ आ गई थी। सामान्यतया यह कह देना कि सभी नयों (दर्शनों), मन्तव्यों, मतवादों का समूह अनेकान्तवाद है, यह एक बात है किन्तु उन मन्तव्यों को विशेष रूप से विचारपूर्वक अनेकान्तवाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य में स्थापित करना यह दूसरी बात है । यह महत्त्वपूर्ण कार्य यदि किसी जैन दार्शनिक ने किया तो उनमें प्रथम नाम आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण (ई० सन० ५वीं शती) का है । ग्रन्थ
और ग्रन्थकार की इसी विशेषता को दृष्टि में रखकर इस ग्रन्थ को अपनी गवेषणा का विषय बनाया था । आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण ने द्वादशार नयचक्र में अपने अनुपम दार्शनिक पाण्डित्य का परिचय तो दिया ही है किन्तु उनके साथ-साथ उन्होंने भारती दार्शनिक इतिहास की एक अपूर्व सामग्री को आगामी पीढ़ी के लिए छोड़ा भी है ।" उन्होंने समीक्षात्मकसमन्वय की दार्शनिक पद्धति प्रदान की है वह उनका भारतीय दर्शन के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण अवदान है ।
किन्तु भारतीय दर्शन का यह दुर्भाग्य था कि आचार्य मल्लवादी का यह महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ कालक्रम में नष्ट हो गया; मात्र उसकी आचार्य सिंहसेनसरि की एक टीका ही उपलब्ध हो सकी । किन्तु उस टीका में ग्रन्थ के अंशों की व्याख्या ही थी, सम्पूर्ण ग्रन्थ उस टीका ग्रन्थ में भी उपलब्ध नहीं था । अतः उस टीका के आधार पर भी मूल ग्रन्थ को पुनः व्यवस्थित करना एक दुरूह कार्य था । पूज्य मुनि जम्बूविजयजी ने इस दुरूह कार्य को हाथ में लिया और तिब्बती भाषा में अनुदित प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में प्रस्तुत ग्रन्थ के जो-जो अंश उपलब्ध हो सके उनका अध्ययन करके, इस ग्रन्थ को व्यवस्थित किया । मल्लवादी के इस ग्रन्थ में अनेक लुप्त ग्रन्थों के उद्धरण एवं लुप्त दार्शनिक वादों की समीक्षा है, जो दर्शन के इतिहास की दष्टि से
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उपसंहार महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ न केवल जैनदर्शन का अपितु भारतीय वाङ्मय का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में नयों के विवेचन और प्रस्तुतीकरण की जो शैली है वह भी अभूतपूर्व है । इसके पूर्व और पश्चात् के किसी भी जैन दार्शनिक ग्रन्थ में इस शैली का अनुसरण नहीं पाया जाता है । इसका यह वैशिष्ट्य विद्वानों के सामने लाना आवश्यक था । यही सोचकर हमने इस ग्रन्थ को अपने शोध का विषय निर्धारित किया था । इस ग्रन्थ के अध्ययन-क्रम में हमने सर्वप्रथम तो यह पाया कि मुनिश्री जम्बूविजयजी के ग्रन्थ के पुनरुद्धार के श्रमसाध्य कार्य के बावजूद भी ग्रन्थ के मूल स्वरूप का पूर्णरूप से पुनर्निर्माण संभव नहीं हो पाया है । मुनिश्री ने केवल बौद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय और उसकी टीका के आधार पर ही इसकी पुन:रचना का कार्य किया था । हो सकता है कि तिब्बती भाषा में अनूदित अन्य बौद्ध ग्रन्थों में इसके उद्धरण हों । किन्तु न तो अभी तक तिब्बती ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं
और न ही उनके अनुवाद प्रकाशित हुए हैं । इसलिए हम भी इस दिशा में कुछ आगे कदम नहीं रख पाए हैं । किन्तु अपेक्षा है कि भविष्य में कोई शोध अध्येता इस कमी को पूरा करेगा । जहाँ तक ग्रन्थ के वैशिष्ट्य का प्रश्न है, इसमें नयचक्र की अवधारणा के माध्यम से उस युग के सभी दार्शनिक मतों को क्रमपूर्वक प्रस्तुत एवं समीक्षित किया गया है । इसमें नय शब्द एक-एक दर्शन परम्परा का परिचायक है । आचार्य मल्लवादी ने इन नयों का नामकरण एवं वर्गीकरण भी अपने ही ढंग से विधि, नियम आदि के रूप में निम्न बारह विभागों में किया है : अर का नाम
चर्चित विषय विधिः
अज्ञानवाद विधि-विधिः
कारणवाद विध्युभयम्
ईश्वरवाद ४. विधि-नियमः
कर्मवाद विधि-नियमौ
द्रव्य-क्रियावाद ६. विधिनियम-विधिः
भेदवाद
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
अपोहवाद
शब्दाद्वैतवाद/ जातिवाद
सामान्य- विशेषवाद
वक्तव्य -अवक्तव्यवाद
क्षणिकवाद
शून्यवाद / विज्ञानवाद
इसकी विशेषता यह है कि प्रत्येक 'अर' (अध्याय) किसी एक दार्शनिक मतवाद का प्रस्तुतीकरण करता है फिर दूसरे अर के आदि में उस दार्शनिक मत की समीक्षा प्रस्तुत की जाती है और उसके विरोधी मतवाद का उद्भावन करके उसका विधान किया जाता है । इस प्रकार क्रम से एक दर्शन की समीक्षा के आधार पर दूसरे दर्शन की उद्भावना करके इस ग्रन्थ में समस्त भारतीय दर्शनों को एक चक्र के रूप में सुनियोजित एवं प्रदर्शित किया गया है । इन सब में जैनदर्शन की भूमिका को एक तटस्थ दृष्टा के रूप में रखा गया है । उसमें नित्यवाद का खण्डन अनित्यवाद से और अनित्यवाद का खण्डन नित्यवाद से करवा कर यह स्पष्ट किया गया है कि उन मान्यताओं में क्या कमियाँ हैं । किन्तु नयचक्र की यह भी विशेषता है कि वह मात्र एक पक्ष का खण्डन ही दूसरे पक्ष से नहीं करवाता है अपितु पूर्व पक्ष में जो गुण है उसे स्वीकार भी करता है । विभिन्न जैनेतर दर्शनों को ही नय मानकर इस ग्रन्थ की रचना हुई है । इस ग्रन्थ के वैशिष्ट्य के संबन्ध में पं० दलसुखभाई मालवणिया का कथन है कि इस ग्रन्थ में जैनेतर मन्तव्य जो लोक में प्रचलित थे उन्हीं को नय मानकर उनका संग्रह विविध नय के रूप में किया गया है और यह सिद्ध किया गया है कि जैनदर्शन किस प्रकार सर्वनयमय है ।
१९०
उभयोभयम्
उभयनियमः
९.
नियमः
१०. नियमविधिः
११. नियमोभयम्
१२. नियम-नियमः
७.
८.
प्रस्तुत अध्ययन के अग्रिम अध्यायों में हमने नयचक्र में उपस्थित विभिन्न दार्शनिक मतवादों की दार्शनिक समस्याओं के आधार पर आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है और भारतीय दर्शन की प्रमुख समस्याओं के संदर्भ में ही ग्रन्थ का अध्ययन किया गया है ।
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उपसंहार
१९१ प्रथम अध्याय-जैन दार्शनिक परम्परा का इतिहास, आ० मल्लवादी और
उनका ग्रन्थ. ग्रन्थ के साथ इस ग्रन्थ के ग्रन्थकार के व्यक्तित्व और कृतित्व का अध्ययन भी आवश्यक होता है । इस सन्दर्भ में हमारा निष्कर्ष यह है कि मल्लवादी क्षमाश्रमण सिद्धसेन के पश्चात् जैन परम्परा के प्रमुख तार्किक एवं वादी हैं । सिद्धसेन के पश्चात् जो तार्किक जैन परम्परा में हुए हैं उनमें श्वेताम्बर परम्परा में प्रथम नाम आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण का एवं दिगम्बर परम्परा में प्रथम नाम आचार्य समन्तभद्र का आता है। इस दृष्टि से जैनदर्शन को तर्कयग में प्रवेश दिलानेवाले आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं । यद्यपि आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण के काल का निर्धारण एक कठिन समस्या है किन्तु इस सम्बन्ध में विद्वानों का जो प्रयास हुआ है उसी के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मल्लवादी क्षमाश्रमण ईसा की पाँचवीं शती के आचार्य हैं । ये जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं इस सम्बन्ध में कोई संदेह नहीं है । इनके ग्रन्थ की टीका में इन्हें सितपट्ट कहा गया है । अत: इनके जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है। जहाँ तक आ० मल्लवादी की कृतियों का सवाल है उनकी तीन कृतियों का उल्लेख मिलता है । किन्तु दुर्भाग्य से आज उनकी एक भी कृति उपलब्ध नहीं है। किन्तु निश्चित है कि इनकी ये कृतियाँ ग्यारहवीं शती तक उपलब्ध थीं । जहाँ तक उनकी कृतियों के नष्ट होने के कारणों का सवाल है हम स्पष्ट रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आ० मल्लवादी की गम्भीर दार्शनिक शैली और ग्रन्थ का नय का सम्बन्धित प्रचलित परम्परा से भिन्न होना ही ऐसे कारण थे जिनसे इन ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा जीवित नहीं रही और इन ग्रन्थों पर परवर्ती काल में कोई टीका आदि भी नहीं रची गई।
द्वितीय अध्याय-अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
इस शोधप्रबन्ध के दूसरे अध्याय में हमने अनुभववाद और बुद्धिवाद के सन्दर्भ में विचार किया है । यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि अनुभववाद और
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
बुद्धिवाद की दार्शनिक परम्पराए एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हुई है । इनके मुख्य विवाद का विषय यही है कि प्रमाणित ज्ञान की उपलब्धी के प्रसंग में अनुभव और बुद्धि में कौन महत्त्वपूर्ण है ? आचार्य मल्लवादी की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने इस ग्रन्थ का प्रारम्भ अनुभववाद के प्रस्तुतीकरण से ही किया है । उन्होंने अपने ग्रन्थ के प्रथम अर में आनुभविक आधारों के स्तर पर दार्शनिक मतों का प्रस्तुतीकरण किया है । इन दार्शनिक मतों में इस बात पर सहमति पाई जाती है कि वस्तु का स्वरूप वही है जैसा कि जनसाधारण के द्वारा अनुभव में वह गृहीत होता है । जहाँ बुद्धिवादी वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन में तार्किक संगति का प्रश्न उपस्थित करते हैं वहाँ अनुभववादी तार्किक संगति पर बल न देकर उनकी अनुभूति को ही प्रधान मानते हैं । इन अनुभववादि दार्शनिकों को प्राचीन भारतीय परम्परा में अज्ञानवादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इन्हें अज्ञानवादी इसलिए कहा जाता है कि ये तार्किकता को महत्त्व नहीं देते हैं । इसलिए न केवल अनुभववादियों को अपितु कर्मकाण्डात्मक / मीमांसादर्शन को आचार्य मल्लवादी ने इसी अज्ञानवादी वर्ग में रखा है । आचार्य मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ के दूसरे वर्ग में तर्क- बुद्धि के आधार पर अनुभववादी मान्यता की समीक्षा प्रस्तुत की है और ज्ञानवाद या तर्क- बुद्धिवाद की उद्भावना की है । हमारे द्वितीय अध्याय की विषय - सामग्री आ० मल्लवादी के प्रथम और द्वितीय अर से सम्बन्धित है । इसमें निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि अनुभववाद और तर्क - बुद्धिवाद दोनों ही एकांगी हैं और सत् इन दोनों के समन्वय में ही रहा हुआ है 1
तृतीय अध्याय-कारणवाद
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के तृतीय अध्याय में सृष्टि के कारण की समस्या पर विचार किया गया है । इस अध्याय में हम पाते हैं कि आ० मल्लवादी ने अपने युग में प्रचलित विभिन्न कारणवादों का प्रस्तुतीकरण और समीक्षा की है । क्रमिक रूप से आ० मल्लवादी ने कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, भाववाद ( विज्ञानवाद) यदृच्छावाद, कर्मवाद आदि मतों का उल्लेख किया है । हम देखते हैं कि इनमें से अधिकांश मतों की चर्चा श्वेताश्वतर उपनिषद् के
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उपसंहार
१९३ प्रारम्भ में पाई जाती है । आ० मल्लवादी का वैशिष्ट्य यह है कि उन्होंने इन सभी वादों की तार्किक समीक्षा की है और इनकी ऐकान्तिकता को स्पष्ट किया है । यद्यपि अपनी तटस्थ दृष्टि के कारण आ० मल्लवादी ने स्पष्ट रूप से किसी भी एक का पक्ष नहीं लिया है फिर भी जैन चिन्तन से प्रभावित होने के कारण कर्मवाद में इन सबका समन्वय देखा है ।
चतुर्थ अध्याय-ईश्वर की अवधारणा
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में हमने न्यायदर्शन की ईश्वर की सृष्टि कर्तृत्व की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । आ० मल्लवादी ने न्यायदर्शन की ईश्वर की अवधारणा का चित्रण द्वादशार नयचक्र के तीसरे अर में किया है । साथ ही उन्होंने अपने ग्रन्थ के चतुर्थ अर में ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व की समीक्षा भी प्रस्तुत की है । इस सम्बन्ध में आ० मल्लवादी का दृष्टिकोण स्पष्ट है । एक ओर वे ईश्वर की सृष्टिकर्तृत्व की अवधारणा का अस्वीकार करते हैं किन्तु दूसरी ओर यह कहकर की प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का कर्ता है और कर्म के कर्ता के रूप में वह अपने भावी का निर्माता या सृष्टिकर्ता है और इसीलिए वह सृष्टिकर्ता भी है । इस प्रकार आ० मल्लवादी ने ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व की अवधारणा का जैनदर्शन के कर्मवाद से समन्वय किया है । अपने अध्ययन के क्रम में हमने यह पाया है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने शास्त्रवार्ता-समुच्यय में ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व का जैनदर्शन के साथ समन्वय किया था । इसका अर्थ यह है कि आ० हरिभद्र आ० मल्लवादी के चिन्तन से प्रभावित थे ।
पञ्चम अध्याय-सत् के स्वरूप की समस्या
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के पञ्चम अध्याय में हमने सत के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार किया है । अपने अध्ययन के क्रम में हमने यह पाया कि आ० मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र के विभिन्न अरों में सत् सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं जैसे नित्यवाद, अनित्यवाद, नित्यानित्यवाद आदि का प्रस्तुतीकरण किया । उन्होंने नित्यवाद की समीक्षा अनित्यवाद के माध्यम से और अनित्यवाद की समीक्षा नित्यवाद के द्वारा की है। नित्यवाद
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
और अनित्यवाद दोषों का प्रदर्शन करके उन्होंने नित्यानित्यवाद का प्रस्तुतीकरण किया, किन्तु उसे भी ऐकान्तिक पाया । इसके साथ ही उन्होंने अपने ग्रन्थ में सत् के चित्त-अचित्त, एक-अनेक होने के प्रश्नों को भी उठाया है । आ० मल्लवादी का वैशिष्टय यह है कि वे इन सभी अवधारणाओं पर तटस्थ दृष्टि से विचारणा करते हैं और उनकी समीक्षा करते हुए उनके दोषों को स्पष्ट कर देते हैं । वे यह बताते हैं कि नित्यवाद में परिवर्तन सम्भव नहीं होते हैं और इसलिए वह परिवर्तनशील जगत् की व्याख्या करने में असमर्थ है । इसी प्रकार अनित्यवाद जिसकी चर्चा उन्होंने क्षणिकवाद के रूप में की है वह कर्म सिद्धान्त के विरोध में जाता है । यद्यपि नित्यानित्यवाद को स्वीकार करके नित्यवाद और अनित्यवाद के दोषों से बचा जा सकता है वहीं नित्यानित्यवाद में जो तार्किक असंगति है उसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
षष्ठम अध्याय - द्रव्य-गुण- पर्याय का सम्बन्ध
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के षष्ठम अध्याय में द्रव्य-गुण और पर्याय के स्वरूप एवं पारस्परिक सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की गई है । इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु द्रव्य-गुण और पर्याय की पारस्परिक भिन्नता और अभिन्नता से सम्बन्धित है । जहाँ न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिक द्रव्य, गुण, कर्म को एकदूसरे से स्वतन्त्र मानते हैं वहाँ कुछ अभेदवादी चिन्तक इनकी स्वतन्त्र सत्ता को अस्वीकार करते हैं । उनकी दृष्टि में द्रव्य ही सत् है । गुण और पर्याय का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । आ० मल्लवादी ने इस सम्बन्ध में भेद दृष्टि एवं अभेद दृष्टि दोनों की समीक्षा की है, और वे सिद्धसेन का अनुसरण करते हुए यह मानते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों की सापेक्षिक सत्ता है । द्रव्य के बिना गुण और पर्याय का तथा गुण और पर्याय के बिना द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।
सप्तम अध्याय - क्रियावाद - अक्रियावाद
इस शोधप्रबन्ध के सप्तम अध्याय में क्रियावाद और अक्रियावाद के सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा की है । भारतीय चिन्तन में क्रियावाद
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उपसंहार
१९५ और अक्रियावाद की यह परम्परा अति प्राचीन है । इसका उल्लेख सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों में भी मिलता है । जहाँ अक्रियावादी आत्मा को कूटस्थ नित्य या अकर्ता-भोक्ता मानते हैं वहाँ क्रियावादी उन्हें कर्ता-भोक्ता के रूप में मानते हैं । आ० मल्लवादी ने क्रियावाद और अक्रियावादी की चर्चा में न केवल आत्मा के कर्तृत्व भोक्तृत्व के विवाद को उठाया है किन्तु ज्ञान, मोह, क्रिया के सम्बन्धी विवाद को भी उठाया है। हम यह पाते हैं कि भारतीय चिन्तन में जहाँ आत्म अकर्तृत्ववादी विचारक ज्ञानवादी रहे हैं वहाँ आत्मा को कर्ता एवं भोक्ता माननेवाले विचारक क्रियावादी रहे हैं। आ० मल्लवादी इस सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न रखकर ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं ।
अष्टम अध्याय-सामान्य और विशेष की समस्या
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अष्टम अध्याय में सत्ता के सामान्य और विशेष स्वरूप को लेकर परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का प्रस्तुतीकरण किया गया है। जहाँ सामान्यवादी सत्ता को सामान्य मानते हैं वहाँ विशेषवादी सामान्य को काल्पनिक बताकर सत्ता का स्वरूप विशेष ही बताते हैं । आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण ने अपने ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र में सामान्यवाद के रूप में प्राचीन सांख्यों के सर्वसर्वात्मक वाद का प्रस्तुतीकरण किया है । जबकि विशेषवाद के रूप में बौद्धों के दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों स्वीकार करनेवाले नैयायिकों का विचार किया है साथ ही अपनी समीक्षा में यह बताया है कि जहाँ सामान्यवादी विशेष को अस्वीकार करने के कारण सर्वसर्वात्मक दोष से ग्रसित होता है वहाँ विशेषवादी सामान्य को अस्वीकार करने के कारण जो जाति की अवधारणा है उसे ही समाप्त कर देता है । आ० मल्लवादी की दृष्टि में सामान्य और विशेष दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता माननेवाले नैयायिकों का दृष्टिकोण भी युक्ति-संगत नहीं है । सामान्य और विशेष न तो एक-दूसरे से पूर्णतः पृथक् हैं और न दोनों अभिन्न ही हैं। इस सम्बन्ध में हमने सामान्य और विशेष के सम्बन्ध में भी भारतीय दार्शनिकों के विचारों का प्रस्तुतीकरण और समीक्षा की है।
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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
नवम अध्याय-आत्मा की अवधारणा
इस शोधप्रबन्ध के नवम अध्याय में हमने आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप के सम्बन्ध में आ० मल्लवादी के द्वारा प्रस्तुत विभिन्न दृष्टिकोणों का उल्लेख किया है। साथ ही इन आत्मा सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं में क्या तार्किक असंगतियाँ हैं उनका चित्रण भी किया है । इस सम्बन्ध में आ० मल्लवादी का निष्कर्ष यह है कि एकात्मवाद और अनेकात्मवाद दोनों ही अवधारणाएँ अपने ऐकान्तिक रूप में युक्तिसंगत नहीं हैं, जैन आगम ग्रन्थों में एकात्मवाद और अनेकात्मवाद दोनों की ही स्वीकृति है । चेतना लक्षण की दृष्टि से सभी आत्माओं में एकत्व है वहीं अपनी विभिन्न पर्यायों की दृष्टि से उनकी पृथक्-पृथक् सत्ता भी है।
दशम अध्याय-शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के दशवें अध्याय में आ० मल्लवादी के द्वारा प्रस्तुत् शब्द और अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा की गई है । आ० मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र में शब्द और अर्थ में अभेद माननेवाले तथा शब्द और अर्थ में भेद माननेवाले दोनों ही पक्षों का उद्भावन किया है साथ ही उनकी समीक्षा की है । आ० मल्लवादी बताते हैं कि शब्द और अर्थ में ऐकान्तिक भेद और अभेद की अवधारणा दोनों ही युक्तिसंगत नहीं हैं । वे उनमें वाच्यवाचक भाव को स्वीकार करके कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं ।
एकादश अध्याय-सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
ग्यारहवाँ अध्याय शब्द की वाच्यता सामर्थ्य या सत्ता की वक्तव्यताअवक्तव्यता की चर्चा करता है । इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु सत्ता की निर्वचनीयता, और अनिर्वचनीयता है । इस सम्बन्ध में आ० मल्लवादी का दृष्टिकोण समन्वयात्मक ही है । वे यह स्पष्ट करते हैं कि सत्ता की अनन्तधर्मात्मकता उसकी अनिर्वचनीयता बनाती है तो दूसरी ओर भाषा की वाच्यता सामर्थ्य उसे निर्वचनीय बनाती है । सत्ता को एकान्त रूप से
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उपसंहार
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अनिर्वचनीय मानने पर भाषा की वाच्यता समाप्त हो जायेगी । सत्ता को एकान्त रूप से निर्वचनीय मानने से भाषा की सीमितता समाप्त हो जायेगी । अतः सत्ता को कथञ्चित् निर्वचनीय और कथञ्चित् अनिर्वचनीय मानना ही एक समीचीन दृष्टिकोण है ।
द्वादश अध्याय-नय विभाजन
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के द्वादश अध्याय में हमने जैनों के नयों के वर्गीकरण की विभिन्न शैली के साथ-साथ यह स्पष्ट किया है कि नयचक्र में किस प्रकार नयों के वर्गीकरण की परम्परागत् शैली का परित्याग करके नई शैली की उद्भावना की गई है । वस्तुतः नयों के वर्गीकरण की नई शैली की उद्भावना ही आ० मल्लवादी और उनके ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है; दुर्भाग्य यही है कि आ० मल्लवादी का इस नई शैली का अनुसरण परवर्ती जैन आचार्यों ने नहीं किया है ।
अन्त में मैं यही कहना चाहूँगा की भारतीय दर्शन का यह अमूल्य ग्रन्थ जो मुनिश्री जम्बूविजयजी के अथक प्रयत्नों से पुनः संरक्षित हो पाया है उसकी ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट है । यह इसलिए आवश्यक है कि इस ग्रन्थ के अध्ययन के अभाव में भारतीय दर्शन को अपनी समग्रता में समझना संभव नहीं हो पायेगा । जैसा कि हमने प्रस्तुत अध्ययन में पाया है कि प्राचीन भारतीय दर्शन की कोई भी ऐसी समस्या नहीं है जिसकी उद्भावना और समीक्षा इसमें नहीं हो । अतः प्रस्तुत ग्रन्थ का अध्ययन भारतीय दर्शन के इतिहास के अध्ययन के लिए अपरिहार्य है । प्रस्तुत अध्ययन तो सम्पूर्ण भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि रूप इस महाग्रन्थ में एक चंचूपात ही है । आशा है भविष्य में विद्वत् जगत् इसके अध्ययन में रुचि लेगा और इसके विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करके सामान्य रूप से भारतीय चिन्तन की और विशेष रूप से जैन चिन्तन की समग्रतावादी दृष्टि को उजागर करेंगे ।
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सन्दर्भग्रन्थसूची
१. अगपण्णत्ति : आचार्य शुभचन्द्र, (हि० अनु०) आर्यिका सुपार्श्वमती,
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद, प्रथम संस्करण, १९९०. २. अथर्ववेद संहिता : हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, रोहतक,
। प्रथम, विक्रम संवत् २०४३. ३. अणुओगद्दारसुत्तं : संपा० मुनि पुण्यविजयजी, पं० दलसुख माल
वणिया, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९५८. ४. अनेकान्त जय पताका-१, २ : संपा०- एच० आर० कापड़िया,
बड़ौदा ओरियन्टल इन्स्टिट्यूट, १९४०, १९४७. अन्ययोगव्यवच्छेदिका (स्याद्वादमंजरी) : हेमचन्द्राचार्य, संपा० डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, तृतीय. अभिधान राजेन्द्रकोश (१-७) : रचनाकार-श्रीमद् राजेन्द्रसूरि,
अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद. ७. आउटलाइन्स ऑफ इण्डियन फिलॉस्फी (ईश्वर मीमांसा) : एम०
हिरियत्ना, जॉर्ज एलेन एण्ड अनविन लि०, लन्दन, १९३२. ८. आगम युग का जैनदर्शन : पं० दलसुख मालवणिया, सन्मति ज्ञानपीठ,
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सन्दर्भग्रन्थसूची
१९९
आचारांगसूत्र : संपा० मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्याबर (राजस्थान), १९९०.
९.
१०. आत्ममीमांसा : पं० दलसुखभाई मालवणिया, श्री जैन संस्कृति संशोधन
मण्डल, बनारस - ५, १९५३.
११. आप्तमीमांसा दीपिका : प्रो० उदयचन्द्र जैन, गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान प्रकाशन, वाराणसी, वीर नि० सं० २५०१.
१२. आत्मानन्द प्रकाश : श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, संवत् २००४. १३. आर्हत्दर्शन दीपिका : संपा० हीरालाल, श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर, वीर संवत् २४५८.
१४. आवश्यक निर्युक्तिः : संपा० श्री विजयामृतसूरीश्वर श्रीहर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, शांतिपुरी, सौराष्ट्र, १९८९.
१५. ईश्वर सम्बन्धी विचार और विश्व संस्कृति : कुमारी कंचनलता सब्बरवाल, हरिकृष्ण प्रेमी, अर्चना - मन्दिर, हस्पताल रोड, लाहौर, १९४६. १६. उत्तराध्ययन सूत्र : संपा० पुण्यविजय मुनिः महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, ८०० ०३६, प्रथमवृत्ति, १९७७.
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२०. ऋक् सूक्त संग्रह : हिन्दी व्याख्या- प्रो० हरिदत्त शास्त्री, रतिराम शास्त्री, साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार, मेरठ, प्रथम संस्करण, १९५६.
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२००
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
२१. ऋग्वेद संहिता : हरियाणा साहित्य संस्थान्, रोहतक (हरियाणा) प्रथम,
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तिलक, नारायण पेठ, पुणे, सप्तम्, १९३३. २५. गोम्मठसार (कर्मकाण्ड) : अनु० स्व० पं० मनोहरलाल शास्त्री, श्री
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, द्वितीय, १९२८ २६. जैन तर्कभाषा : यशोविजय गणि, सं० पं० सुखलाल संघवी, सिंघी
जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १९३८. २७. जैन थ्योरीज ऑफ रियलिटी एण्ड नोलेज : वाई० जे० पद्मराजे, जैन
साहित्य विकास मण्डल, बम्बई, १९६३. २८. जैनदर्शन : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला,
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संस्कृत संशोधन मण्डल, रूपरेखा बनारस, द्वितीय संस्करण, १९५२. ३०. जैन, बौद्ध, और गीता के आचार दर्शनों : डॉ० सागरमल जैन,
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, का तुलनात्मक अध्ययन भा० १, २
जयपुर,, १९८२ ३१. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भा-३ : प्रो० श्री हीरालाल रसिकदास
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सन्दर्भग्रन्थसूची
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ठाकुरद्वार, बम्बई-२, द्वितीय, १९५६. ३३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद : जुगलकिशोर मुख्तार, श्री वीर
शासन-संघ प्रकाश कलकत्ता, प्रथम, १९५५. ३४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास-१ : पं० बेचरदास दोशी, पार्श्वनाथ
विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५, द्वितीय, १९८९. ३५. ज्ञानबिन्दु : उपाध्याय यशोविजयजी गणिवर, अंधेरी गुजराती जैन संघ,
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www.jainelibrary.o
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२०२
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ४३. धर्मोत्तर प्रदीप : दुर्वेकमिश्र, सं० पं० दलसुखभाई मालवणिया, काशी
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वैद्य, जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स, बम्बई, प्रथम, १९२८. ५१. न्यायावतार वार्तिक वृत्ति : सं०पं० दलसुख मालवणिया, भारतीय
विद्या भवन, बम्बई, प्रथम वृत्ति, १९४९. ५२. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति : संशोधक-पं० मनोहरलाल, श्रीमद् राजचन्द्र ___आश्रम, अगास (गुजरात) तृतीय, वि० सं०, २०२५. ५३. प्रबन्धकोश : राजशेखर सूरि, सिंघी जैन-ग्रन्थमाला, अहमदाबाद. ५४. प्रबन्धचिन्तामणि : मेरुतुंगाचार्य, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद. ५५. प्रभावक चरित : श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि० सं० १९८७.
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२०३
सन्दर्भग्रन्थसूची ५६. प्रमाण मीमांसा : श्री हेमचन्द्राचार्य, सं० सुखलाल संघवी, महेन्द्रकुमार
शास्त्री, पं० दलसुख मालवणिया, सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद. १, द्वितीय, १९८९. ५७. पुरुषसूक्तम् : सं० दुण्डिराज शास्त्री, हरिदास गुप्ता एण्ड सन्स, चौखम्बा
संस्कृत सीरिज, बनारस. ५८. बुद्धचरित : धर्मानन्द कोसम्बी, जैन साहित्य प्रकाशन समिति,
अहमदाबाद, १९३७. ५९. बुद्धिप्रकाश (त्रैमासिक) : गुजरात वर्णाकुलर सोसायटी, अहमदाबाद ६०. बृहत्कल्पसूत्रम्-१ : भद्रबाहुस्वामी, सं० चतुरविजय, पुण्यविजय, प्र०
जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, प्रथम, १९३३. ६१. बृहद् टिप्पनिका : जैन साहित्य संशोधक पत्रिका परिशिष्ट में मुद्रित. ६२. महाभारत (शान्तिपर्व) : गीताप्रेस, गोरखपुर, पंचम, संवत् २०४५. ६३. माठरवृत्ति : चौखम्भा संस्कृत सीरिज, काशी ६४. मीमांसा श्लोकवार्त्तिक : कुमारिलभट्ट, सं० दुर्गाधर झा, कामेश्वर सिंह
दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा, प्रथम, १९७९. ६५. योगसूत्रम् : संपा० पं० ढुण्डीराज शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत सीरिज,
बनारस, १९३०. ६६. राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय जैन श्वेताम्बर संघ,
आहीर-बागरा (राजस्थान) वि० सं० २०१३. ६७. लघीयस्त्रयी (अकलङ्क ग्रन्थत्रयी) : संपा० महेन्द्रकुमार जैन, सिंघी
जैन ग्रन्थमाला, मुंबई. ६८. ललित विस्तरा : हरिभद्रसूरि, ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था,
रतलाम.
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२०४
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ६९. वियाहपण्णति : संपा० पं० बेचरदास जे० दोषी, श्री महावीर जैन
विद्यालय, बम्बई, १९७४. ७०. विशेषावश्यक भाष्य : अनु० चुन्नीलाल हुकुमचन्द, अहमदाबाद,
आगमोद्धारक समिति, बम्बई, वीर संवत् २४५३. ७१. वैदिक साहित्य और संस्कृति : बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर, गणेश
दीक्षत, काशी, प्रथम, १९५५. ७२. वैशेषिक दर्शनम् : श्री मदनलाल देव शर्मा, मिथिला विद्यापीठ, १९५७ ७३. वैशेषिक दर्शनम् : श्री कणादमहर्षि, सं० अनन्तलाल ठक्कुर, मिथिला
विद्यापीठ, १९५७. ७४. वैशेषिक सूत्र (वैशेषिक दर्शन) : पं० शंकरदत्त शर्मा, वैदिक
पुस्तकालय, मुरादाबाद, १९६४. ७५. व्याकरण महाभाष्यम् : श्रीमत् पतंजलि, सं० पण्डित नन्दकिशोर
शास्त्री, श्री राजस्थान संस्कृत कॉलेज, काशी, सं० १९९६. ७६. शास्त्रवार्ता-समुच्चय (कल्पलता) : व्याख्याकार-म० यशोविजय
महाराज, हिन्दी व्या०-श्री बदरीनाथ शुक्ल, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, बम्बई,
विक्रम संवत० २०३६ ७७. शास्त्रवार्तासमुच्चयः : हरिभद्रसूरि, अनु० कृष्णकुमार दीक्षित, लालभाई
दलतभाई, भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद, प्रथम, १९६९. ७८. शास्त्रवार्ता समुच्चय : श्री हरिभद्रसूरि, श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा,
अहमदाबाद, प्रथम, १९३९. ७९. श्रमण : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी । ८०. श्रीमद् भगवद्गीता : अनु० श्रीहरिकृष्ण दास गोयनका, गीता प्रेस,
गोरखपुर, चतुर्थ, सं० १९९५.
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सन्दर्भग्रन्थसूची
२०५ ८१. श्वेताश्वतरोपनिषद् : हरिनारायण आप्टे, आनन्द आश्रम मुद्रणालय,
पूणा, १९०५. ८२. षड्दर्शनसमुच्चय : संपा० डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम, १९७० ८३. संयुत्त निकाय : संपा० भिक्खू जगदीश कश्यप, बिहार राज्य पाली
प्रकाशन मण्डल, नालन्दा (बिहार), १९५९. ८४. सन्मतितर्क-प्रकरणम् : पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास दोशी,
गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर, अहमदाबाद, संवत्. १९८०. ८५. सन्मति प्रकरण : सिद्धसेन दिवाकर, सं० सुखलाल संघवी, ज्ञानोदय
ट्रस्ट, अहमदाबाद, १९६३. ८६. सभाष्य तत्वार्थाधिगमसूत्रम् : अनु० पं० खूबचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, श्री
परमश्रुत प्रभावक जैन मण्डल, अगास, १९३२. ८७. समवायांगसूत्र : संपा० श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' श्री आगम
प्रकाशन समिति, ब्याबर (राजस्थान) १९८२. ८८. सर्वदर्शन संग्रह : भाष्यकार-डॉ० उमाशंकर 'ऋषि' चौखम्भा विद्याभवन,
वाराणसी, १९८४. ८९. सर्वार्थसिद्धि : संपा० पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, काशी, १९५५. ९०. सांख्यावृत्ति : संपा० पं० ढुण्डिराजशास्त्री, चौखम्बा, संस्कृत सीरिज,
बनारस, १९८५. ९१. सांख्यसूत्र : संपा० स्वामी द्वारिकादास शास्त्री, सुधी प्रकाशनम्,
वाराणसी, १९८७. ९२. सिद्धिविनिश्चय टीका : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम, १९५१.
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२०६
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
९३. सूत्रकृतांग १,२ : संपा० श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' श्री आगम
प्रकाशन समिति, ब्याबर, (राजस्थान), १९८२. ९४. स्थानांग-समवायांग (गुजराती) : संपा० दलसुख मालवणिया, गुजरात
विद्यापीठ, अहमदाबाद-१९५५. ९५. स्याद्वाद मंजरी : अनु० जगदीश, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, मुम्बई,
विक्रम संवत० १९९१. ९६. हरिभद्रसूरि : प्रो० हीरालाल रसिकलाल कापडिया, प्राच्य विद्या मन्दिर,
म० स० विश्वविद्यालय, वडोदरा.
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अ०
अनु०
अं०
आ०
आव० नि०
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द्वा० न० वृ०
द्वा० न०
द्वा० न० टीका
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संकेताक्षर- सूची
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अध्याय
अनुवादक
अङ्क
आचार्य
आवश्यक नियुक्ति
उपनिषद् औलुक्यदर्शन
ऋग्वेद
कारिका
गाथा
टीका
ठाणांग
दिगम्बर
द्वादशारनयचक्र - वृत्ति द्वादशारं नयचक्रम्
द्वादशारं नयचक्रटीका
न्यायप्रवेश
पृष्ठ
पूज्य
प्रस्तावना
प्रोफेसर
भगवान्
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२०८
भग०
भगवती सू०
भगवती आ०
भा०
म०
महा० लघी०
वि० सं०
वन०
वीर नि० सं०
वैशे०
व्या०
शुक्ल यजु०
श्लो०
श्वेता ०
सर्वदर्शन सं०
सर्वा० सि०
सं०
सू०
सू० कृ० सू० सू० नि० गा०
स्त०
स्था०
स्वेतां०'
हि० अनु०
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43
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4:3
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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
भगवतीसूत्र भगवती सूत्र
भगवती आराधना
भाग
मण्डल
महाभारत वनपर्व लघीयस्त्रयी विक्रम संवत्
वीर निर्वाण संवत्
वैशेषिक
व्याख्या
शुक्ल यजुर्वेद
श्लोक श्वेताश्वतरोपनिषद्
सर्वदर्शन संग्रह
सर्वार्थसिद्धि
संपादक
सूत्र सूत्रकृतांगसूत्र
सूत्र नियुक्ति गाथा
स्तबक
स्थानांगसूत्र श्वेताम्बर
हिन्दी अनुवाद
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