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________________ कारणवाद ७७ सर्वजगत् पुरुषमय ही है । पुरुष एक ही अतः सर्व सत्ता एकात्मक ही है । पुरुष ही जगत् का कर्ता है क्योंकि जो ज्ञानवान् होता है, वही स्वतन्त्र होता है और जो स्वतन्त्र होता है वही कर्ता होता है। जो अज्ञानी है उसमें स्वातन्त्र्य संभवित नहीं है और जिसमें स्वातन्त्र्य नहीं होता उसमें कर्त्ताभाव नहीं होता । नयचक्रवृत्ति में इस सिद्धान्त की पुष्टि में व्याख्याप्रज्ञप्ति की पंक्ति एकोऽप्यहमनेकोऽप्यहम् को उद्धृत किया गया है । उक्त सूत्र में भगवान् महावीर कहते हैं – मैं एक भी हूँ और अनेक भी हूँ । इस प्रकार पुरुष की सर्वोपरिता सिद्ध करते हुए पुरुषवाद की स्थापना की गई है। पुरुषवाद : आक्षेप और आक्षेप-परिहार जो ज्ञाता होता है वही कर्ता होता है। ऐसा मानने पर तो दूध से दही और इक्षुरस से गुड़ादि निष्पन्न नहीं होंगे। क्योंकि यहाँ तो ज्ञाता के बिना ही क्रिया निष्पन्न होती है। इसका समाधान करते हुए पुरुषवादी कहते हैं कि यह बात ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ कार्य-प्रवृत्ति पूर्ण नहीं हुई है अतः आपको ऐसा भ्रम होता है कि इसका कोई कर्ता नहीं है किन्तु दूध, दही, मक्खन और तत्पश्चात् उससे घी यह सारी कार्य-प्रवृत्ति पुरुष चेतनसत्ता के अधीन ही होती है। जैसे प्रारम्भ में कुम्हार चक्र को घुमाता है किन्तु उसके बाद भी चक्र कुछ समय तक गतिमान रहता है चाहे उस समय कुम्हार चक्र घुमाते हुए नहीं दिखाई देता है फिर भी हम यह अनुमान करते हैं कि इसे कुम्हार ने ही घुमाया है। उसी प्रकार यहाँ भी चाहे प्रकटतः कर्ता पुरुष न दिखाई दे, किन्तु उसके मूल में तो वही होता है । १. द्वा० न० पृ० १८९. २. तद्यथा-पुरुषो हि ज्ञाता ज्ञानमयत्वात् । तन्मयं चेदं सर्वं तदेकत्वात् सर्वैकत्वाच्च भवतीति भावः । को भवति ? य: कर्ता । कः कर्ता ? य: स्वतन्त्रः । कः स्वतन्त्रः ? कोज्ञः । - वही, पृ० १७५. ३. व्या० प्र०, १८-१०-६४७ उद्धृत वही, पृ० १८९. ४. ननु क्षीररसादि दध्यादेः कर्तृ, न च तज्ज्ञम्, न, तत्प्रवृत्तिशेषत्वाद् गोप्रवृत्तिशेष क्षीरदधित्ववत्, ज्ञशेषत्वाद्वा चक्रभ्रान्तिवत् । द्वा० न० पृ० १७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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