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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ऋग्वेद के दशम मण्डल के इस "पुरुष सूक्त' में कहा गया है कि अकेला पुरुष ही इस समस्त विश्व का जो कुछ भी हुआ है तथा जो आगे भविष्य में होनेवाला है उसका आधार है । द्वादशारनयचक्र में इसी मन्त्र को उद्धत करके पुरुषवाद की स्थापना की गई है । ऋग्वेद में प्रस्तुत सूक्त में कहा गया है कि विराट नाम का पुरुष इस ब्रह्माण्ड के अन्दर और बाहर व्याप्त है । यह जो दृश्यमान जगत् है वह सब कुछ पुरुष ही है। जो अतीत जगत् है या जो भविष्यत् जगत् होगा वह भी पुरुष ही है। वह देवताओं का भी स्वामी है । सारा ही जगत् इस विराट पुरुष का सामर्थ्य विशेष ही है।
सृष्टि एवं प्रलय भी इसी पुरुष के अधीन हैं । पुरुष सर्वात्मक है । चेतनाचेतन सृष्टि की उत्पत्ति इसी पुरुष से हुई है । इस प्रकार सर्वप्रथम "पुरुषसूक्त" में पुरुषवाद विषयक दार्शनिक चर्चा प्राप्त होती है । तदनन्तर श्वेताश्वतर उपनिषद् में पुरुष को जगत् का कारण माननेवाले सिद्धान्त का उल्लेख मात्र किया गया है । उपनिषद् में इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करनेवाली पँक्तियाँ मिलती हैं। कहा गया है कि "एक ही देवतत्त्व सर्वभूत में स्थित है अर्थात् विश्व का एकमात्र कारण पुरुष ही है। संसार में पुरुष के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । जैसे चन्द्र एक ही है तथापि उसके प्रतिबिम्ब विभिन्न जलपूरित पात्रों में पाये जाते हैं उसी तरह भिन्न-भिन्न देह में भिन्न-भिन्न एक ही आत्मा पायी जाती है।
द्वादशारनयचक्र में भी "पुरुषसूक्त" के ही मंत्र को उद्धृत करके पुरुषवाद की स्थापना की गई है । पुरुष ही जगत् का एकमात्र कारण है ।
१. ऋक्सूक्तसंग्रह, पुरुषसूक्त, संहिता-पाठ, २ पृ० १४१. २. द्वा० न० पृ० १८९. ३. सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गलम् ॥
-ऋ० सू० सं० "पुरुषसूक्त," संहिता, पाठ-१, पृ० १४०. ४. वही, पृ० १४०. ५. श्वेता०, १.२ ६. उपनिषत्संग्रह, मुण्डकोपनिषत्, पृ० १७.
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