SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन होनेवाले सभी स्वरूप वास्तविक हैं अथवा जिनके मतानुसार वास्तविक रूप भी वाणी प्रकाश्य हो सकते हैं । उन्हें विधिमुख दर्शन कह सकते हैं । जैसे चार्वाक, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, सांख्य, योग, वैभाषिक, सौत्रान्तिक बौद्ध आदि । जिनके मतानुसार बाह्य जगत् मिथ्या है और आन्तरिक जगत् ही परम सत्य है अर्थात् जो दर्शन सत्य के व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा सांवृत्तिक और वास्तविक ऐसे दो भेद करके लौकिक प्रमाण-गम्य और वाणी प्रकाश्य भाव को अवास्तविक मानते हैं वे अवास्तववादी हैं । उन्हें निषेधमुखी अर्थात् नियमवादी दर्शन कह सकते हैं । जैसे शून्यवादी, विज्ञानवादी और अद्वैतवेदान्त दर्शन । विषय-वस्तु नयों के निरूपण के द्वारा एकान्तवादी सभी दर्शनों का निराकरण करके जैनदर्शन सम्मत अनेकान्तवाद की स्थापना करना ही नयचक्र का मुख्य विषय है ।२ अनेकान्तात्मक वस्तु के एक देश अर्थात् एक अंश का अवधारण करनेवाली दृष्टि को नय कहा जाता है ।३ ऐसे नय अनन्त हैं, तथापि नयों के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध हैं ।५ नैगमादि सात नयों का समावेश भी उन्हीं दो नयों में होता है । नयचक्र में विधि आदि बारह नयों की चर्चा की गई है । जो अन्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होती । अत: प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हीं बारह नयों का आगम-सम्मत नयों के द्विविध एवं सतविधि वर्गीकरण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है । आचार्य मल्लवादी ने विधि आदि नयों का प्रसिद्ध दो नयों के साथ १. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ० १-२. २. एषामशेषशासननयाराणां भगवदर्हद्वचनमुपनिबन्धनम् ॥ द्वा० न०, पृ० ८७६. . ३. द्रव्यास्यानेकात्मनोऽन्यतमैकात्मावधारणमेक-देश-नयनान्नयः । न० पृ० १०. ४. द्रव्यार्थ-पर्यायार्थद्वित्वाद्यनन्तान्त विकल्प.....द्वा० न० पृ० ६. ५. द्रव्यार्थ-पर्यायार्थनयौ द्वौ मूलभेदौ, द्वा० न० पृ० ८७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy