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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहा है कि विधि आदि प्रथम छह नय द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत आते हैं और शेष छह नय पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत २ इसी प्रकार विधि आदि बारह नयों का नैगमादि सात नयों में किस प्रकार अन्तर्भाव होता है, यह आचार्य मल्लवादी ने नयचक्र के प्रत्येक अर के अन्त में निर्दिष्ट किया है । तदनुसार विधि आदि नयों का नैगमादि नयों में निम्न प्रकार से अन्तर्भाव किया गया है।
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१. प्रथम विधि नय का अन्तर्भाव व्यवहार नय में होता है । ३
२. द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अर के नयों का अन्तर्भाव संग्रह नय में होता है । ४ ३. पञ्चम एवं षष्ठ अर के नयों का अन्तर्भाव नैगम नय में होता है । ५
४. सप्तम अर के नय का अन्तर्भाव ऋजुसूत्र में होता है । ६
५. अष्टम तथा नवम अर के नयों का अन्तर्भाव शब्दनय में होता है । ७ ६. दशवें अर के नय का अन्तर्भाव समभिरूढ़ नय में होता है ।"
७. ग्यारहवें तथा बारहवें अर के नयों का अन्तर्भाव एवंभूतनय में होता है ।
इस प्रकार बारह नयों का सात प्रसिद्ध नयों में अन्तर्भाव भी किया गया है । नयचक्र का समान्य परिचय हो जाने के बाद अब हम यह देखेंगे कि उसमें नयों - दर्शनों का किस क्रम से उत्थान और निरास है ।
१. अयं षड्भेदो द्रव्यास्तिकः उपवर्णितः । द्वा० न० पृ० ४५४.
२. पर्यायार्थस्य षट् नयचक्र- - वृत्ति, पृ० ८७६.
३. व्यवहारदेशत्वाच्चास्य द्रव्यार्थता । द्वा० न० पृ० ११४.
४. संगहदेशत्वाच्चास्य द्रव्यार्थता । द्वा० न० पृ० २४४, ३३४, ३७३.
नैगमदेशत्वात् द्रव्यार्थो यम्, ४१४, नैगमैकदेशत्वाद् द्रव्यास्तिक, द्वा० न० पृ० ४४६.
५.
६. ऋजुसूत्रदेशत्वात् पर्यायास्तिकः, द्वा० न० पृ० ५४९.
७. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७३७ एवं ७६३.
८. वही, पृ० ७८९.
९. वही, पृ० ८०३ एवं ८५२.
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