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________________ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन (१) विधि प्रथम विधि अर में अज्ञानवाद का उत्थान किया गया है । यथा लोकग्राह्य वस्तु अर्थात् लोक में जिस प्रकार से वस्तु का अनुभव होता है वस्तु का स्वरूप उसी प्रकार का है। यह व्यवहारनय का भेद है अत: नय का मानना है कि लोकव्यवहार को प्रमाण मानकर अपना व्यवहार चलाना चाहिए, इसमें शास्त्र का कुछ काम नहीं । विभिन्न दर्शनों के शास्त्रों में वस्तु स्वरूप का विभिन्न शैली से प्रतिपादन किया गया है । कोई वस्तु को सामान्य मानते हैं तो कोई विशेष। अतः शास्त्रों के द्वारा किसी वस्तु का निर्णय नहीं होता है । इस बात को बताते हुए नयचक्रकार ने प्रारम्भ में एकान्त सामान्यवादी एवं एकान्त विशेषवादी के मतों की आलोचना की है। तत्पश्चात् सामान्यविशेषनानात्ववाद, सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद आदि का जो लक्षण एवं विवेचन विभिन्न शास्त्रकारों ने किया है उसे भी निरर्थक एवं असंगत सिद्ध किया है । इतना ही नहीं उक्त वादों का समर्थन करनेवाले विभिन्न दार्शनिक जिन प्रमाणों के आधार पर अपने सिद्धान्त का स्थापना करना चाहते हैं वे प्रमाण भी यथार्थ नहीं हैं। उनमें भी अनेक दूषण हैं-अन्य प्रमाण की बात तो क्या करें वे दार्शनिक प्रत्यक्ष प्रमाण का भी निर्दोष-लक्षण नहीं बता सके । वसुबन्धु के प्रत्यक्ष लक्षण में दिङ्नाग ने दोष दिखाया है और स्वयं दिङ्नाग का प्रत्यक्ष लक्षण भी अनेक दोषों से दूषित है । यही हाल सांख्यों के वार्षगण्यकृत प्रत्यक्ष लक्षण का और वैशेषिकों के प्रत्यक्ष का है । अतः शब्दों के अर्थ जो व्यवहार में प्रचलित हों उन्हें प्रमाण मानकर व्यवहार चलाना चाहिए। जगत के सूक्ष्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना अशक्य है और यदि ज्ञान प्राप्त भी हो जाय तो उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता । अतः जगत् के स्वरूप के विषय में अज्ञान ही श्रेयष्कर है । इस प्रकार विधि अर में अज्ञानवाद का उत्थान किया गया है । इस अज्ञानवाद का अर्थ है कि सभी वस्तुएँ अज्ञान-प्रतिबद्ध हैं अर्थात् पूर्णतः ज्ञेय नहीं हैं तथा ज्ञान भी अज्ञान से १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११. २. अतो वगम्यतां न किंचिदन्यत् फलं तच्छास्त्रेण क्रियते यल्लोकव्यवहारफलादतिरिच्य वर्तेत इति तथैवमादौ शास्त्रारम्भः । वही, पृ० ४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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