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________________ जैन दार्शनिक परम्परा का विकास के अलावा अन्य स्थविरों ने शिष्यों के हितार्थ तथा अपनी अनुभूति के आधार पर पूर्वोक्त अंग आगम को समझने के लिए अन्य ग्रन्थों की भी रचना की जो उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिका सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं । इस युग में पूर्वोक्त शास्त्रों की भाषा प्राकृत रही । इस युग में प्रमेय निरूपण आचारलक्षी होने के कारण उसमें स्वमत प्रदर्शन का भाव है । इस युग का प्रधान लक्षण जड़-चेतन के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन तथा अहिंसासंयम-तप आदि आचारों का निरूपण करना है । अर्थात् इस युग को हम स्वमत स्थापन युग भी कह सकते हैं । आगम में तत्कालीन सभी विद्याओं का समावेश हुआ है । सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, नन्दी एवं अनुयोग में दार्शनिक चर्चा उपलब्ध होती है । सूत्रकृतांग यह द्वितीय अंग आगम है । आचारांग के बाद प्राचीन आगमों में सूत्रकृतांग की गिनती होती है । आगमों में सबसे पहले सूत्रकृतांग में ही दार्शनिक चर्चा प्राप्त होती है । इसमें स्वमत - परमतों, जीव, अजीव, पुण्य, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष आदि तत्त्वों के विषय में निर्देश है । क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद तथा उनके प्रभेदों का वर्णन मिलता है । तदुपरान्त भूतवादी, स्कन्धवादी, एकात्मवादी, नियतिवादी आदि मतावलम्बियों की चर्चा आती है । जगत् कर्तृत्व की चर्चा करते हुए विभिन्न वादों का उल्लेख किया है और जगत् देवकृत, ईश्वरकृत या ब्रह्मादिकृत है ऐसी मान्यताओं का निराकरण किया गया है । आत्मा देहस्वरूप नहीं है वह देह से भिन्न है ऐसा प्रतिपादित किया गया है । एकात्मवाद या अद्वैतवाद का निराकरण करके नानात्मवाद का स्थापन किया गया है । १. विस्तृत विवेचन के लिए दृष्टव्य जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा । २. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ० १३. ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग - १, पृ० १७२. m Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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